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________________ जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) manram ...rna .. . .. . . .. हीरजीभाई पन्द्रह बरसकी उम्रमें धंधे लगे। उनके पिता कानजीभाई सं० १९५८ के मार्ग शीर्ष सुदि १३ को रामशरण हुए। उसके बाद हीरजीमाईन बहुत उन्नति की । कच्छ नलियावाले सा. मालसी भोजराजके समागमसे हीरजीभाईने धार्मिक ज्ञान प्राप्त किया और उनकी सलाहसे हीरजीभाईने संस्कृत सीखी। उसके बाद पंडित लालनके समागमसे उनकी आध्यात्मिक ज्ञानकी तरफ रुचि हुई और शिवजीमाईके समागमसे उन्होंने पार्मार्षिक कार्योंमें प्रवृति की। सं० १९५९ में पालीतानेमें श्री जैनधर्म विद्याप्रसारक वर्ग की स्थापना हुई और उसके साथ जैन बोर्डिंग स्थापित हुआ। उसमें हीरजीभाईका बड़ा हिस्सा था । और वर्गकी व्यवस्थापक कमेटीके मेम्बर थे । वे जैसे वी. मा. की दलाली करते थे वैसे ही धर्मकी दलाली भी करते थे । यानी व्यवहारके साथ धार्मिक काम भी करते थे। सं० १९७७ से वे पार्मार्थिक कामोंमें विशेष लक्ष देने लगे। सं० १९७९ में उनकी पत्नी हीरबाईका देहांत हुआ। बाई बुद्धिमती, सुगुणी और कार्यकुशल थीं । इनके वियोगका असर हीरजीभाईके मन पर हुआ और वे विशेष विरक्त हुए। हीरजीमाई अपने छोटेमाई वेलजीभाईके लड़के कुंवरजी और लड़की लक्ष्मीबाईको अपनी संतानके समान समझते हैं । वेलनीभाई सं० १९७२ में गुजर गये थे। सं० १९७३ में वेलनीमाई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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