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________________ जैन- दर्शन ५३९ I " हरण, उपनय और निगमन ये पाँच प्रकारके वाक्य प्रायः परार्थअनुमानमें जोड़े जाते हैं। "यह प्रदेश अग्निवाला होना चाहिए" यह ' प्रतिज्ञा' वाक्य है । " क्योंकि यहाँ धूम्र दिखाई देता है । " यह ' हेतु' वाक्य है। रसोईघरका उदाहरण देना यह ' उदाहरण ' वाक्य है । " यहाँ भी रसोई घरकी भाँति धूम्र दिखाई देता है " यह 'उपनय ' वाक्य है । " अतः यहाँ अग्नि जरूर है " यह 'निगमन ' वाक्य । इस तरह सारे अनुमानों में यथासंभव अनुमान कर लेना चाहिए । जो हेतु झूठा होता है वह ' हेत्वाभास ' कहलाता है । हेत्वाभाससे सच्चा अनुमान नहीं किया जा सकता है । आगम – जिसमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे विरुद्ध कथन न हो, जिसमें आत्मोन्नति से संबंध रखनेवाला भूरि भूरि उपदेश हो, जो तत्त्वज्ञानके गंभीर स्वरूपपर प्रकाश डालनेवाला हो, जो रागद्वेष के ऊपर दाब रख सकता हो, ऐसा परमपवित्र शास्त्र 'आगम' कहलाता है । सद्बुद्धिपूर्वक जो यथार्थ कथन करता है वह ' आप्त ' कहलाता है । आप्तके कथनको ' आगम' कहते हैं । सबसे प्रथम श्रेणीका आप्त वह है कि जिसके रागादि समस्त दोष क्षीण हो गये हैं और जिसने अपने निर्मल ज्ञानसे बहुत उच्च प्रकारका उपदेश दिया है । I आगम-वर्णित तत्त्वज्ञान अत्यंत गंभीर होता है । इसलिए यदि तटस्थ भाव से उस पर विचार नहीं किया जाता है तो, अर्थका अनर्थ हो जानेकी संभावना रहती है । आगम- वर्णित तत्त्वों के गहन भागमें भी वही मनुष्य निर्भीक होकर विचरण कर सकता है जिसको दुराग्रहका त्याग, जिज्ञासा - गुणकी प्रबलता और स्थिर तथा सूक्ष्म दृष्टि, इतने साधन प्राप्त हो जाते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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