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________________ जैन-दर्शन 'जिन' शब्दसे 'जैन' शब्द बना है । 'जिन' राग, द्वेष, आदि दोषरहित परमात्माका साधारणतया नाम है । 'जिन' शब्द 'जी' - जीतना धातुसे बना है । राग, द्वेषादि समग्र दोषों को जीतनेवालों के लिए यह नाम सर्वथा उपयुक्त है । अर्हन्, वतिराग, परमेष्ठी, आदि 'जिन' के पर्यायवाचक शब्द हैं । 'जिन' के भक्त 'जैन' कहलाते हैं । जिन - प्रतिपादित धर्म, जैनधर्म, आर्हतदर्शन, स्याद्वाददृष्टि, अनेकान्तवाद और वीतरागमार्ग आदि नामों से भी पहिचाना जाता है । ४५५ 1 आत्मस्वरूपके विकासका अनेक भवोंसे प्रयत्न करते हुए जिस भवमें, जीवका पूर्ण आत्मविकास हो जाता है; जिस भवमें जीवके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, उस भवमें वह परमात्मा कहलाता इन परमात्माओंको जैनशास्त्र दो भागों में विभक्त करके समझाते हैं । एक भागमें 'तीर्थकर ' आते हैं और दूसरे भाग में सामान्य - केवली । तीर्थकर जन्मसे ही विशिष्टज्ञानवान् और अलौकिक सौभाग्यसंपन्न होते हैं । शास्त्रकारोंने तीर्थंकरोंके संबंध अनेक विशेषताएँ बताई हैं । ये जन्मसे ही तीर्थंकर कहे जाते हैं । कारण यह है कि भविष्य में वे अवश्यमेव तीर्थंकर होंगे । राजाका ज्येष्ठ पुत्र जैसे भविष्यका राजा होनेसे राजा कहलाता है, वैसे ही जन्म से ही उनमें सर्वज्ञतागुण नहीं होता है, तीर्थंकरोंके गुण नहीं होते हैं, तो भी भावीकी अपेक्षासे-उसी भवमें तीर्थंकर होंगे इससे वे तीर्थंकर कहलाते हैं । जब इनके घाती कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब इनको केवलज्ञान होता है । केवलज्ञान प्राप्त कर ये ' तीर्थ' की स्थापना करते हैं । साधु, साध्वी और श्रावक, श्राविका ऐसे चतुर्विध संघका नाम 'तीर्थ' है । 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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