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________________ ४५६ जैन - रत्न उनके मुख्य शिष्य, जो करते हैं । यह रचना ' गणधर ' तीर्थंकरों के उपदेशों का आधार लेकर कहलाते है, शास्त्र - रचना बारह भागों में विभाजित होती है, इसलिए इसका नाम 'द्वादशांगी ' रक्खा गया है । द्वादशांगी का अर्थ है - बारह अंगों का समूह | ' अंग ' प्रत्येक विभागका - प्रत्येक सूत्रका पारिभाषिक नाम है । ' तीर्थ' शब्दसे यह द्वादशांगी भी समझी जाती है । इस तरके वे तीर्थ कर्ता होनेसे तीर्थंकर कहलाते हैं । जिन केवलज्ञानियोंमें - वीतराग परमात्माओं में उक्त विशेषताएँ नहीं होती हैं, वे दूसरे विभागवाले सामान्य- केवली होते हैं । हिन्दू धर्मशास्त्रोंम कालके कृतयुगादि चार विभाग किये गये हैं । इसी तरह जैनशास्त्रकारोंने भी कालके विभागकी भाँति छः आरे बताये हैं । तीर्थकर, तीसरे और चौथे आरेमें हुआ करते हैं । जो तीर्थकर या परमात्मा मोक्षमें जाते हैं, वे फिर कभी संसारमें नहीं आते इससे यह स्पष्ट है कि जितने परमात्मा, या तीर्थकर बनते हैं वे किसी १—जैनधर्मशास्त्रों में कालकी व्यवस्था इस तरह है । कालके मोटे मोटे दो विभाग हैं-उत्सर्पिणी और अत्रसर्पिणी । इस उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में इतने बरस बीत जाते है कि जिनकी संख्या करना कठिन होता है । उत्सर्पिणी काल रूप, रस, गंध, शरीर, आयुष्य, बल आदि बातों में उन्नत होता है और अवसर्पिणीकाल इन बातों में अवनत । प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छः विभाग होते हैं । प्रत्येक विभागको मारा ( संस्कृत शब्द है 'अर' ) कहते हैं । उत्सर्पिणी के छः आरे जब पूर्ण हो जाते हैं, तब अवसर्पिणीके आरे प्रारंभ होते हैं। वर्तमानमें, भारतवर्षादि क्षेत्रों में अवसपिंणीका पाँचपाँ आरा चल रहा है हिन्दुधर्मशास्त्रानुसार अभी कलियुग है । पाँचवाँ आरा कहो या कलियुग, दोनोंका अभिप्राय एक ही है । ( विशेष जाननेके लिए देखो जैनरत्न पूर्वार्द्ध पेज ३ ९ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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