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________________ जैन-रत्न ३३२ mamman कि वे रक्तकी बूंदे दुग्धके समान सफेद थीं। चंडकौशिकने और भी जोरसे, अपनी पूरी ताकत लगाकर, महावीर स्वामीके पैरोंमें दाँत गाड़े, जितना जहर था, सारा उगल दिया, और तब दूर हट गया । दाँत लगे हुए स्थानसे दो पतली धाराएँ वहीं । एक थी सफेद रक्तकी और दूसरी थी नीली जहरकी सर्प हैरान था, क्रुद्ध था, बेबस था। उसने महावीर स्वामीके मुखकी तरफ देखा । वह शांत था, निर्विकार था। उसने नासिकाके अग्रभाग पर जमी हुई आँखोंको देखा, उनमें विश्वप्रेमका अमृत भरा हुआ था। सर्पने वह अमृत पान किया । उसके हृदयकी कलुषता जाती रही । महावीर कायोत्सर्ग पार कर बोले:-" हे चंडकौशिक ! समझ, विचार कर, मोहमुग्ध न हो।" ___ कलुषताहीन हृदयमें महावीर स्वामीके इस उपदेशने मानों बंजर भूमिको उर्वरा बना दिया । विचार करते करते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो आया । उसको, अपने पूर्वभवोंकी भूलोंका दुःख हुआ। उसने शेष जीवन आत्मध्यानमें, अनशन करके बिताना स्थिर किया । महावीर स्वामीके प्रदक्षिणा देकर उसने अपना मुँह, इस खयालसे एक बिलमें डाल दिया कि कहीं मेरी नजरसे प्राणी मर न जायँ । झाड़ोंपर चढ़कर गवालोंके लड़कोंने देखा कि, महावीर स्वामी अभी जिंदा हैं और सर्प सिर नीचा किये उनके सामने पड़ा है । लड़कोंने समझा यह कोई भारी महात्मा मालूम होता है । उन्होंने दूसरे गवालोंको यह अत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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