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________________ ४७८ जैन-रत्न पर भी कोई धनका भोग नहीं कर सकता है, इसका कारण यह कर्म है । किसीको बद्धिपूर्वक अनेक प्रयत्न करने पर भी लाभ नहीं होता, उल्टे हानि उठानी पड़ती है, इसका कारण यह कर्म है। और शरीरके पुष्ट होने पर भी उद्यम करनेमें प्रवृत्ति नहीं होती, इसका कारण भी यही अन्तराय कर्म है। ___ संक्षेपमें कर्मसे संबंध रखनेवाली सब बातें कही गई । जिस तरहकी प्रवृत्तियाँ होती हैं उसी तरहके सचिक्कन कर्म बंधते हैं; और फल भी वैसा ही सचिकन भोगना पड़ता है । कर्मबंधनके समय कर्मकी स्थितिका भी बंध हो जाता है । अर्थात् यह भी निश्चित हो जाता है कि यह कर्म अमुक समय तक रहेगा। कर्म बद्ध होते (बँधते) ही उदयमें नहीं आते । जैसे बीज बोनेके कुछ काल बाद उसका फल मिलता है, वैसे ही कर्म भी बंध होनेके कुछ काल बाद उदयमें आते हैं । इसका कोई नियम नहीं है, कि उदयमें आनेके बाद कितने समय तक कर्मका फल भोगना पड़ता है । कारण यह है कि बद्धस्थिति भी शुभ भावनाओंसे कम हो जाती है। कर्मका बंध एक ही तरहका नहीं होता । किसी कर्मका बंध बहुत दृढ होता है, किसीका शिथिल होता है और किसीका शिथिलतम होता है। जो बंध अतिगाढ-दृढ होता है, उसको जैनशास्त्र 'निकाचित' के नामसे पहिचानते हैं। इस बंधवाला कर्म प्रायः सबको भोगना ही पड़ता है । अन्य बंधवाले कर्म शुभ भावनाओंके प्रबल वेगसे भोगे विना भी छूट जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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