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जैन - रत्न
इस तरह भिन्न भिन्न दृष्टि बिन्दुसे घटको नित्य और विनाशी माननेवाली दोनों मान्यताएँ ' नय ' हैं |
इस बात को सब मानते हैं कि आत्मा नित्य है । और यह बात 1 है भी ठीक; क्योंकि उसका नाश नहीं होता है । नगर इस बातका सत्रको अनुभव हो सकता है, कि उसका परिवर्तन विचित्र तरहसे होता है । कारण, आत्मा किसी समय पशु अवस्था में होता है, किसी समय मनुष्य-स्थिति प्राप्त करता है; कभी देवगतिका भोक्ता बनता है और कभी नरकादि दुर्गतियोंमें जाकर गिरता है । यह कितना परिवर्तन है ? एक ही आत्माकी यह कैसी विलक्षण अवस्था है ? यह क्या बताती है ? आत्माकी परिवर्तनशीलता । एक शरीर के परिवर्तन से भी, यह समझ में आ सकता हैं कि, आत्मा परिवर्तनकी घटमालमें फिरता रहता है । ऐसी स्थितिमें यह नहीं माना जा सकता है कि, आत्मा सर्वथा - एकान्ततः नित्य है । अत एव यह माना जा सकता है कि, आत्मा न एकान्ततः नित्य है; न एकान्ततः अनित्य है; बल्के नित्यानित्य है । इस दशा में आत्मा जिस दृष्टिसे नित्य है वह, और जिस दृष्टिसे अनित्य है वह, दोनों ही दृष्टियाँ, ' नय' कहलाती हैं ।
यह बात सुस्पष्ट और निस्सन्देह है कि, आत्मा शरीरसे जुदा है । तो भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि, आत्मा शरीरमें ऐसे ही व्याप्त हो रहा है जैसे कि मक्खन में घृत | इसीसे शरीर के किसी भी भाग में जब चोट पहुँचती है, तब तत्काल ही आत्माको वेदना होने लगती है । शरीर और आत्माके ऐसे प्रगाढ संबंध को लेकर जैनशास्त्रकार कहते हैं कि, यद्यपि आत्मा शरीर से वस्तुतः भिन्न है, तथापि सर्वथा नहीं | यदि सर्वथा भिन्न मानेंगे तो, आत्माको, शरीर पर आघात
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