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________________ जैन-दर्शन सप्तभंगी । | ऊपर कहा जा चुका है कि ' स्याद्वाद ' भिन्न भिन्न अपेक्षासे अस्तित्व- नास्तित्व, नित्यत्व - अनित्यत्व आदि अनेक धर्मोका एक ही वस्तु होना बताता है । इससे यह समझमें आ जाता है कि, वस्तुस्वरूप जिस प्रकारका हो, उसी रीतिसे उसकी विवेचना करनी चाहिए | वस्तुस्वरूपकी जिज्ञासावाले किसीने पूछा कि - " घड़ा क्या अनित्य है ?" उत्तरदाता यदि इसका यह उत्तर दे कि घड़ा अनित्य ही है, तो उसका यह उत्तर या तो अधूरा है या अयथार्थ है । यदि यह उत्तर अमुक दृष्टिबिन्दुसे कहा गया है तो वह अधूरा 1 क्योंकि उसमें ऐसा कोई शब्द नहीं है जिससे यह समझमें आवे कि यह कथन अमुक अपेक्षासे कहा गया है। अतः वह उत्तर पूर्ण होने के लिए किसी अन्य शब्दकी अपेक्षा रखता है । अगर वह संपूर्ण दृष्टिबिन्दुओं के विचारका परिणाम है तो अयथार्थ है । क्योंकि घड़ा प्रत्येक पदार्थ ) संपूर्ण दृष्टिबिन्दुओं से विचार करने पर अनित्यके साथ ही नित्य भी प्रमाणित होता है । इससे विचारशील समझ सकते हैं कि - वस्तुका कोई धर्म बताना हो तब इस तरह बताना चाहिए कि जिससे उसका प्रतिपक्षी धर्मका उसमेंसे लोप न हो जाय । अर्थात् किसी भी वस्तुको नित्य बताते समय इस कथनमें कोई ऐसा शब्द ५५१ (( सम्मतिर्विमतिर्वापि चार्वाकस्य न मृग्यते । परलोकाऽऽत्ममोक्षेषु यस्य मुह्यति शेमुषी " ॥ भावार्थ -- स्याद्वादके संबंध में चार्वाककी, जिसकी बुद्धि परलोक, आत्मा और मोक्षके संबंध में मूढ हो गई है, सम्मति या विमति ( पसंदगी या नापसंदगीदेखने की जरूरत नहीं है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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