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२० श्री मुनिसुव्रत-चरित
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यह भी निर्दयी है। ऐसे गुरुकी शिक्षासे दुर्गतीमें जाना पड़ेगा। ऐसा गुरु पत्थरकी नाव है। आप संसार-समुद्रमें डूबेगा, और दूसरोंको भी डुबायेगा । यद्यपि उसकी शिवपर अश्रद्धा हो गई थी तो भी वह लोकलाजसे शिव-पूजा करता रहा । इस तरह. श्रद्धा ढीली होनेसे उसे सम्यक्त्व न हुआ, और वह मरकर घोड़ा हुआ है । मैं उसको बोध करानेके लिये ही यहाँपर आया हूँ । पूर्व अवमें इसने दयामय धर्म पाला था इससे यह क्षणमात्रमें धर्म पाया है।" ___ यह सुनकर राजाने उस घोड़ेको छोड़ दिया। उसी समयसे भडूच शहरमें अश्वावबोध नामका तीर्थ हुआ।
मुनिसुव्रत स्वामीके तीर्थमें वरुण नामका यक्ष और वरदत्ता नामकी शासन देवी हुई । उनके संघमें १८ गणधर, ३०. हजार साधु, ५० हजार साध्वियाँ, ५०० चौदह पूर्वधारी, १८०० अवधिज्ञानी, १५०० मनःपर्यय ज्ञानी, १८०० केवली, २००० वैक्रियक लब्धिवाले, १२०० वादलब्धिवाले, १ लाख ७२ हजार श्रावक, और ३ लाख ५० हजार श्राविकाएँ थे।
निर्वाण काल समीप जानकर प्रभु सम्मेदशिखरपर पधारे । और एक हजार मुनियोंके साथ एक मासका अनशन धारण कर जेठ वदि ९ के दिन अश्विनी नक्षत्र में मोक्ष गये । इन्द्रादिः देवोंने मोक्षकल्याणक मनाया।
प्रधुने साढ़े सात हजार वर्ष कौमारावस्थामें साढ़े सात हजार वर्ष राज्य कार्य और १५ हजार वर्ष व्रत पालनेमें, इस
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