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________________ २२८ जैन-रत्न पुरुष है जिसके कारणसे मेरी माता भागी और बुरी हालतमें दुःख झेलकर मरी, यही पुरुष है जिसके सबबसे मैं वन वन, और गाँव गाँव मारा मारा फिर रहा हूँ। आज मैं इससे बदला लूँगा। उसने धनुषपर बाण चढ़ाया और खींचकर मुनिकी छातीमें मारा । मुनिका ध्यान भंग हो गया । उन्होंने अपनी छातीमें बाण और सामने अपना भाई देखा । मुनिको खयाल आया,-आह ! मैंने इसको राज्य न देकर इसका बड़ा अपकार किया था। उन्होंने कहना चाहा,-भाई ! मुझे क्षमा करो! मगर बोला न गया । बाणके घावने असर किया । वह जमीनपर गिर पड़े । दुष्ट पद्म खुश हुआ। मुनिने भाईसे और जगतके सभी जीवोंसे क्षमा माँगी और संथारा कर लिया। अंहंत अहंत कहते हुए वे मरकर ब्रह्मलोकमें इन्द्रके सामानिक देव हुए। पद्म वहाँसे भागा । अंधेरी रातमें कहीं सर्पपर पैर पड़ गया। सपने उसे काटा और वह मरकर सातवें नरकमें गया । सुमित्रकी मृत्युके समाचार सुनकर चित्रगतिको बड़ा खेद हुआ। वह यात्राके लिए अपने पिताके साथ सिद्धायतनपर गया। उस समय और भी अनेक विद्याधर वहाँ आये हुए थे । अनंगसिंह भी अपनी पुत्री रत्नावतीके साथ वहाँ आया था। चित्रगति जब प्रभुकी पूजा स्तुति कर चुका तब देवता बने हुए सुमित्रने उसपर फूलोंकी वृष्टि की। अनंगसिंहने चित्रगतिका वहाँ पूरा परिचय पाया। अपने देश जाकर अनंगसिंहने चित्रगतिके पिता श्रीसूर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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