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________________ ५०८ जैन-रत्न सुख-दुःखका सारा आधार मनोवृत्तियों पर है । महान् धनी मनुष्य भी लोभके चक्करमें फँसकर दुःख उठता है, और महान् निर्धन मनुष्य भी सन्तोषवृत्तिके प्रभावसे, मनके उद्वेगोंको रोककर सुखी रह सकता है । महात्मा भर्तृहरि कहते हैं: ___“ मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः !" ___ इस वाक्यसे स्पष्ट हो जाता है कि मनोवृत्तियोंका विलक्षण प्रवाह ही सुख-दुःखके प्रवाहका मूल है । ___एक ही वस्तु एकको सुखकर होती है और दूसरेको दुःखकर । जो चीन एक बार किसीको रुचिकर होती है वही दूसरी बार उसको अरुचिकर हो जाती है। इससे हम जान सकते हैं कि बाह्य पदार्थ सुखदुःखके साधक नहीं हैं। इनका आधार मनोवृत्तियोंका विचित्र प्रवाह ही है। ___ राग, द्वेष और मोह ये मनोवृत्तियोंके परिणाम हैं । इन्हीं तीनों पर सारा संचारचक्र फिर रहा है । इस त्रिदोषको दूर करनेका उपाय अध्यात्मशास्त्र के विना अन्य (वैद्यक ) ग्रंथोंमें नहीं है । मगर 'मैं रोगी हूँ' ऐसा अनुभव मनुष्यको बड़ी कठिनतासे होता है। जहाँ संसारकी सुख-तरंगें मनसे टकराती हों; विषयरूपी बिजलीकी चमक हृदयको अंनित बना देती हो और तृष्णारूपी पानीकी प्रबल धारामें गिरकर आत्मा बेमान रहता हो वहाँ अपना गुप्त रोग समझना अत्यंत कष्टसाध्य है। अपनी आन्तरिक स्थितिको नहीं समझनेवाले जीव एकदम नीचे दर्जे पर हैं। मगर जो जीव इनसे ऊँचे दर्जेके हैं; जो अपनेको त्रिदोषाक्रान्त समझते हैं; जो अपनेको त्रिदोषजन्य उग्रता. पसे पीडित समझते हैं और जो उस रोगके प्रतिकारकी शोधमें हैं उनके लिए आध्यात्मिक उपदेशकी आवश्यकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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