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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
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उसने दीक्षा ले ली। एक बार उसने चतुर्थ तप किया था ।
और दिशा फिरने गई थी। रस्तेमें उसने दो योद्धाओंको एक वेश्याके लिए लड़ते देखा । उसने सोचा, वह वेश्या भाग्यमती है, कि उसके लिए दो वीर लड़ रहे हैं। मेरे तपका मुझे भी यही फल मिले कि, मेरे लिए दो वीर लहें । अंतमें नियाणेके साथ मरकर वह देवलोकमें जन्मनेके बाद अब अनंतमतिका नामकी वेश्या हुई है। कनकलता और पद्मलता मर, भवभ्रमण कर, अब इन्दुषेण और बिन्दुषेण नामके राजपुत्र हुए हैं। तुम कनकश्री थी। अभी इन्दुषेण और बिन्दुषेण अनंतमतिकाके लिए लड़ रहे हैं। तुम जाकर उन्हें समझाओ । " इसी लिए में तुम्हारे पास आया हूँ।" __ यह हाल सुनकर उनको बड़ा अफसोस हुआ। दुनियाकी इस विचित्रतासे उन्हें वैराग्य हुआ और उन्होंने धर्मरुचि नामक आचर्यके पाससे दीक्षा ले ली। श्रीषेण, अभिनंदिता, शिखिनंदिता और सत्यभामाके जीव
मरकर जंबूद्वीपके उत्तर क्षेत्रमें जुगलिया उत्पन २ दूसरा भव हुए। श्रीषेण और अभिनंदिता पुरुष स्त्री हुए और
शिखिनंदिता व सत्यभामा स्त्री पुरुष हुए। उनकी आयु तीन पल्योपमकी और उनका शरीर तीन कोस ऊँचा था।
३ तीसरा भव श्रीषेणादि चार युगलियोंकी मृत्यु हुई और चे प्रथम कल्पमें देव हुए।
भरत क्षेत्रमें वैतान्य गिरिपर रथनुपुर चक्रवाल नामका शहर
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