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जैन - रत्न
इस तरह ग्यारह प्रसिद्ध विद्वान ब्राह्मण महावीरके शिष्य हो गये । इससे महावीर के ज्ञानकी चारों तरफ धाक बैठ गई । ये ही ग्यारह महावीरके मुख्य शिष्य हुए और गणधर कहलाये । चंदनबाला शतानिक राजके यहाँ थीं । वे भी महावीर स्वामी के पास आकर दीक्षित हो गई। उनके साथ ही अनेक स्त्री पुरुषोंने दीक्षा ले ली। हजारों नरनारी जो दीक्षित न हुए उन्होंने पंच अणुव्रत धारण कर श्रावकत्रत अंगीकार किया ।
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इस तरह महावीर स्वामीका, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाका, चतुर्विध संघ स्थापित हुआ ।
फिर प्रभुने गौतमादि गणधरोंको उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक त्रिपदीका उपदेश दिया और उससे गणधरोंने बारह अंगों और चौदह पूँवोंकी रचना की । ग्यारह गणधरोंने इनकी रचना की । इनमें से अकंपित और अचल भ्राताकी वाचना एकसी, मेतार्य और प्रभासकी वाचना एकसी
१ बारह अंग ये हैं, - आचारांग (आयार ), सूत्रकृतांग (सूयगड ), ठाणांग, समवायांग, भगवती अंग, ज्ञातधर्मकथा, ( नायधम्मकहा ) उपासक, (उवासगदसा ) अंतकृत, अनुत्तरोपपातिकदशा ( अणुत्तरोववाइय ), प्रश्न व्याकरण ( पण्हावागरण ), विपाकश्रुत ( विवाग ) और दृष्टिवाद ( दिठिवाय ) |
२ - चौदह पूर्वोके नाम ये हैं, – उत्पाद, अग्रायणीय, वीर प्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञान प्रवाद, सत्य प्रवाद, आत्म प्रवाद, कर्म प्रवाद, प्रत्याख्यान प्रवाद, विद्या प्रवाद, कल्याणक, प्राणावाय, क्रियाविशाल, और लोकबिन्दुसार । [ ये दृष्टिवाद अंगके अंदर रचे गये हैं । इनकी रचना बारह अंगोंके पहले हुई इसलिये ये पूर्वीग कहलाये । ]
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