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इसमें जो जैन दर्शनका भाग है वह न्यायतीर्थ मुनि श्री न्यायविजयजी महारानका लिखा हुआ है। उन्होंने इसे जैनरत्नमें छापनेकी इजाजत दी है, इसके लिए मै उनका कृतज्ञ हूँ। __ आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभ सूरिजीका उपकार मानता हूँ कि जिन्होंने अनेक कार्योंके होते हुए भी तीर्थंकरोंके चरित्र शुरूसे अंततक पढ़कर उनमें रही हुई अशुद्धियोंको शुद्ध करवा दिया है । इस ग्रंथमें जो शुद्धिपत्र है वह आपहीकी कृपाका फल है। ___ अंतमें मुनि श्री चरणविजयनी महाराजके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ कि जिन्होंने कार्यकी अधिकताके होते हुए भी ग्रंथकी भूमिका लिख देनेकी कृपा की है।
कृष्णलाल वर्मा.
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