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________________ जैन - रत्न धातकी खंडके ऐरावत द्वीपमें क्षेमपरा नामक नगर था । वहाँके राजाका नाम विपुलवाहन था । वह १ प्रथम भव साक्षात् इन्द्रके समान शक्ति - वैभव - शाली था । शक्ति होते हुए भी उसे किसी तरहका मद न था । गऊ जैसे बछड़े की या माली जैसे अपने बागीचे की रक्षा करता है वैसे ही वह प्रजाकी रक्षा करता था । वह पूर्ण धर्मात्मा था । देव - श्री अरहंत, गुरु श्री निर्ग्रथ और धर्म- दयामयकी वह भली प्रकार से भक्ति तथा उपासना करता था । उसकी प्रजा भी प्रायः उसका अनुसरण करनेवाली थी । भावी प्रबल होता है । होनहारके आगे किसीका जोर नहीं चलता । एक बार भयंकर दुष्काल पड़ा । देशमें अन्न- कष्ट बहुत बढ़ गया । लोग भूखके मारे तड़प तड़पकर मरने लगे । राजा यह दशा न देख सका । उसने अपने काम करनेवालोंको आज्ञा दे दी कि, कोठारमें जितना अनाज है सभी देशके भूखे लोगोंमें बाँटा जाय, मुनियोंको प्रासुक आहार पानी मिले इसकी व्यवस्था हो और जो श्रावक सर्वथा अयोग्य उन्हें राज्यके रसोड़ेमें भोजन कराया जाय । इतना ही नहीं मुनियोंको, एषणीय, कल्पनीय और प्रासुक आहार अपने हाथोंसे देने और अन्यान्य श्रावकोंको, अपने सामने भोजन कराकर, संतोष - लाभ कराने लगा । १२० इस भाँति जबतक दुष्काल रहा तबतक वह सारे देश की और खास कर समस्त संघकी भली प्रकार से सेवा करता और उसे संतोष देता रहा । इससे उसने तीर्थकर नामकर्म बाँधा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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