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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
उन्हें कहा जाय, या जाति, धर्म, या सगे-संबंधियों का कोई काम उनको सौंपा जाय वे कभी इन्कार नहीं करते । चाहे उनके पास द्रव्यकी बाहुलता न हो, चाहे काम करनेके लिए उनके पास समय न हो; परन्तु वे कभी किसीको नकारात्मक जवाब न देंगे। अगर वे किसीको इन्कार कर दें तो उनका नाम वीरचंदभाई ही नहीं । फूल नहीं तो फूलकी पंखड़ी ही, जितना दिया जासके उतना देना, जितनी हो सके उतनी सेवा कर जीवनको कृतार्थ बनाना, अपनी शक्तिके बाहर कामका बोझा उठाना और फिर रातदिन काम के बोझे तले दबे रहना, यह उनके जीवनका अबतक सामान्य क्रम रहा है
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उनको जब देखो तभी वे हँसते हुए। जब कोई अपनी बात सुनाने उनके पास जाता है वे बड़े धैर्य और उत्साह के साथउसकी बात सुनते हैं और जो कुछ उसके लिए वे कर सकते हैं करते हैं । उनका वात्सल्य सर्वस्पर्शी और सर्वग्राही है । उन्होंने अपनी पत्नीको ऊँचे मार्ग पर चलाया है, अपनी संतानको उल्लास के साथ पढ़ाया है, अपने मित्रोंको समान प्रेमसे नहलाया है, जातिको, सेवाकरके, आभारी बनाया है, जैनसमाजको, उसकी संस्थाओंका कार्यकर, ऋणि और देशको, कई वर्षोंसे महासभाकी सेवा कर, गौरवान्वित बनाया है ।
वे कभी आडंबर नहीं करते । सत्य सेवा ही उनका जीवनव्रत है । संयम उनके लिए एक स्वाभाविक वस्तु हो गई
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