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________________ जैन-दर्शन ५०३ .00000000000000 PAAAAAAAAAPor रहता है । आठवें और नवमें जीनेमें भी यदि मोह-क्षय होना प्रारंभ हो जाता है, तो गिरनेका भय मिट जाता है। ___ जैनशास्त्रानुकूल इन चौदह श्रेणियोंका हम संक्षेपमें विवेचन करेंगे इनके नाम हैं-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति, सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगीकेवली । मिथ्याष्टिगुणस्थान—इस बातको सब लोग समझते हैं कि प्रारंममें सब जीव अधोगतिहीमें होते हैं । इसलिए जो जीव प्रथम श्रेणीमें होते हैं वे मिथ्यादृष्टि होते हैं । मिथ्यादृष्टिका अर्थ है-वस्तुतत्वके यथार्थ ज्ञानका अभाव । इसी प्रथम श्रेणीसे जीव आगे बढ़ते हैं । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि, इस दोषयुक्त प्रथम श्रेणीमें भी ऐसा कौनसा गुण है, जिससे इसकी गिनती भी 'गुणश्रेणी' में की गई है ! इसको गुणस्थान कहना कैसे उचित हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म और नीची हदके जीवोंमें भी चेतनाकी कुछ मात्रा तो अवश्यमेव उज्ज्वल रहती है। इसी उज्ज्वलताके कारण मिथ्यादृष्टिको गणना भी 'गुणश्रेणी' में की गई है। सासादन-सम्यग्दर्शनसे गिरती हुई दशाका यह नाम है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके बाद, क्रोधादि अतितीव्र कषायोंका उदय होनेसे जीवके गिरनेका समय आता है। यह गुणस्थान पतनावस्थाका है। मगर इसके पहिले जीवको सम्यग्दर्शन हो गया होता है इसलिए, उसके लिए यह भी निश्चित हो जाता है कि वह कितने समयतक संसारमें भ्रमण केरगा। १- आसादन' का अर्थ है अतितीव्र क्रोधादि कषाय । जो इन कषायोंसे युक्त होता है उसीको ‘सासादन' कहते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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