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श्री आदिनाथ चरित
श्री आदिनाथ - चरित |
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आदिमं पृथिवीनाथ - मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥ ३ ॥ ( सकलाई त - स्तोत्र )
भावार्थ- पृथ्वीके प्रथम स्वामी, प्रथम परिग्रह - त्यागी ( साधु ) और प्रथम तीर्थंकर श्री ' ऋषभ ' देव स्वामीकी हम स्तुति करते हैं ।
विकास
जैनधर्म यह मानता है कि, जो जीव श्रेष्ठ कर्म करता है, वह धीरे धीरे उच्च स्थितिको प्राप्त करता हुआ अन्तमें आत्मस्वरूपका पूर्ण रूप से विकासकर, जिन कर्मोंके कारण वह दुःख उठाता है उन कर्मोंको नाशकर, ईश्वरत्व लाभकर, सिद्ध बन जाता है - मोक्षमें चला जाता है और संसार के जन्म, जरा, -सरण से छुटकारा पा जाता है ।
जैनधर्म के सिद्धान्त, उसकी चर्या और उसके क्रियाकांड मनुष्यको इसी लक्ष्यकी ओर ले जाते हैं और उसे श्रेष्ठ कर्ममें लगाते हैं । जैनधर्म पुराणोंमें इन्हीं श्रेष्ठ कर्मोंके शुभ फलोंका और उन्हें छोड़नेवालों पर गिरनेवाले दुःखोंका वर्णन किया गया है ।
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