SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-रत्न (अ) जिनसे अपने संबंधके अपाय-उपद्रव द्रव्यसे और भावसे नष्ट होते हैं वे ' स्वाश्रयी' कहलाते है। (ब) जिनसे दूसरोंके उपद्रव नष्ट होते हैं उनको 'पराश्रयी' अपायापगमातिशय कहते हैं । अर्थात जहाँ भगवान विचरण करते हैं वहाँसे प्रत्येक दिशामें सवा सौ योजन तक प्रायः रोग, मरी, वैर, अतिवृष्टि, अनादृष्टि, दुष्काल आदि उपद्रव नहीं होते है। २-ज्ञानातिशय-इससे तीर्थकर लोकालोकका स्वरूप भली. प्रकारसे जानते हैं । भगवानको केवलज्ञान होता है, इससे कोई भी बात उनसे छिपी हुई नहीं रहती हैं। ३-पूजातिशय-इससे तीर्थकर सर्वपूज्य होते हैं। देवता, इन्द्र, राजा, महाराजा, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती आदि सभी भगवानकी पूजा करते हैं। ४-वचनातिशय-इससे देव, तिर्यंच और मनुष्य सभी भग वानकी वाजीको अपनी अपनी भाषामें समझ जाते हैं। इसके ३५ गुण होते हैं । (जिनका वर्णन तेरहवें अतिशयके फुट नोटमें किया जा चुका है।) १-सारे रोग द्रव्य उपद्रव हैं। २--अंतरंगके अठारह दूषण भाव उपद्रव हैं । अठारह उपद्रव ये हैं(१) दानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोमान्तराय (५) वीर्यान्तराय (६) हास्य (७) रति (८) अरति (९) शोक (१०) भय (११)जगुप्सा-निंदा (१२) काम (१३) मिथ्यात्व (१४) अज्ञान (१५) निद्रा (१६) अविरति (१७) राग और (१८) द्वेष ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy