SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७६ जैन-रत्न वास्तविक स्वरूप अतन्तज्ञान-सच्चिदानंदमय है; मगर उक्त कोंके कारण उसका असली स्वरूप ढक गया है। ज्ञानावरणीय कर्म आत्माकी ज्ञानशक्तिको दबानेवाला है। जैसे जैसे यह कर्म विशेषरूपसे प्रगाढ होता जाता है, वैसे ही वैसे वह ज्ञानशक्तिको विशेषरूपसे आच्छादित करता जाता है। जैसे जैसे इस कर्ममें शिथिलता आती जाती है, वैसे ही वैसे बुद्धिका विकास होता जाता है। इस कर्मके पूर्णतया नष्ट हो जाने पर केवलज्ञान-हो जाता है। ___ दर्शनावरणीय कर्म दर्शन-शक्तिको दबाता है । ज्ञान और दर्शनमें विशेष अन्तर नहीं है। सामान्य आकारके ज्ञानका नाम 'दर्शन' रखा गया है। जैसे-हमने किसीको दूरसे देखा, हम उसको पहिचान नहीं सके, केवल इतना ही जान सके कि यह मनुष्य है । इसका नाम है दर्शन । उसी मनुष्यको विशेष रूपसे जान लेना है ज्ञान । ___ वेदनीय कर्मका कार्य सुख-दुःखका अनुभव कराना है । जो सुखका अनुभव कराता है उसे 'सातावेदनीय' और जो दुःखका अनुभव कराता है उसको 'असातावेदनीय' कहते हैं। ___ मोहनीय कर्म मोह पैदा करता है । स्त्री पर मोह, पुत्र पर मोह, मित्र पर मोह, और अन्यान्य पदार्थों पर मोह होना मोहनीय कर्मका परिणाम है। जो लोग मोहसे अंधे हो जाते हैं उन्हें कर्तव्याकर्तव्यका भान नहीं रहता। शराबमें मस्त मनुष्य जैसे वस्तुको वस्तुस्थितिसे नहीं देख सकता है, वैसे ही जो मनुष्य मोहकी गाढ अवस्थामें होता है, वह भी तत्त्वको तस्वदृष्टि से नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy