SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 559
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ '५२६ जैन-रत्न ommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm गृहस्थोंका आचार । अब संक्षेपमें गृहस्थाचारका वर्णन किया जायगा । गृहस्थोंके लिए जैनशास्त्रोंमें षट्कर्म बताये गये हैं। " देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥" भावार्थ-परमात्माकी पूजा, गुरु महात्माकी सेवा, शास्त्रवाचन, संयम अर्थात् गहस्थावस्थाकी योग्यताके अनुसार विषयोंकी तरफ दौड़ती हुई इन्द्रियों पर काबू रखना, तप और दान ये छः कर्म गृहस्थोंका कर्तव्य है।' __इस प्रसंग पर जैनियोंकी एक बातका उल्लेख करना अस्थानमें न होगा। जैनके आचार-ग्रंथोंमें भक्ष्या-भक्ष्यका बहुत विचार किया गया है। कंदमूल खानेका जैनशास्त्रोंमें निषेध है । रातको भोजन करना आदि भी अकर्तव्य बताया गया है । बाह्य दृष्टिसे देखनेवालोंको यह बात, जितनी चाहिए उतनी अच्छी नहीं लगेगी । और ऐसा होना स्वाभा. विक भी है । परन्तु धर्मशास्त्रोंका यही आदेश है । हिन्दु-धर्माचार्य भी इस बातको मानते हैं। ___ भावार्थ--स्वयं अपमान सहे मगर किसीका अपमान न करे । क्रोध करनेवाले पर क्रोध न कर उसके साथ नम्रताका व्यवहार करे । भिक्षाके लोभमें फंसा हुआ यति विषयमें डूब जाता है । लाभ होनेपर प्रसन्न न हो और हानि होने पर दुःख न करे । केवल प्राणरक्षाके हेतु भोजन करे; आसक्तियोंसे दूर रहे । इन्द्रिय-निरोध, राग-द्वेषपराजय और प्राणीमात्रपर दया करे । ऐसा करनेहीसे जीव मोक्षमें जाने योग्य होता है। १--ये षट्कर्म सर्वसाधारणसम्मत-सार्वजनिक (Universal) हैं। इनके अनुसार संसारका हरेक गृहस्थ प्रवृत्ति कर सकता है; और उससे अपनी आत्माको उन्नत बना सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy