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जैन - रत्न
होता है । वे क्रोध - रहित, निरभिमानी, निर्लोभी और अधर्मत्यागी होते हैं । उस समय उनको असि, मसि और कृषिका व्यापार नहीं करना पड़ता है । अकर्म - भूमिके मनुष्योंकी भाँति ही उन्हें भी उस समय दस कल्पवृक्ष सारे पदार्थ देते हैं। जैसे - ( १ ) 'मद्यांग' नामक कल्पवृक्ष मद्य देते हैं । (२) 'भृतांग' पात्र - बर्तन देते हैं । ( ३ ) ' तूर्यांग' तीन प्रकार के बाजे देते हैं । (४-५) 'दीपशिखा' और 'ज्योतिष्क' प्रकाश देते हैं । (६) 'चित्रांग' विचित्र पुष्पों की मालाएँ देते हैं । (७) 'चित्ररस' नाना भाँतिके भोजन देते हैं । ( ८ ) 'मण्यंग ' इच्छित जहाँ हाथ और पैर हीन हों बाकी अवयव उत्तम हों उसे ' संस्थान कहते हैं । ( ६ ) शरीर के समस्त अवयव लक्षण - हीन हों उसे 'हुंडक' संस्थान कहते हैं ।
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कुब्जक
४ - संहनन भी छः ही होते हैं। शरीर के संगठन विशेषको संहनन कहते हैं । ( १ ) दो हाड़ दोनों तरफसे मर्कट बंधद्वरा बँधे हों, ऋषभ नामका तीसरा हाड़ उन्हें पट्टीकी तरह लपेटे हो और उन तीनों हड्डियों में एक हड्डी ठुकी हुई हो, वे वज्र के समान दृढ़ हों, ऐसे संहननको 'वज्र ऋषभ नाराच' कहते हैं । ( २ ) उक्त हड्डिया हों; परन्तु कालीकी तरह ठुकी हुई हड्डी न हो उसे 'ऋषभनाराच' संहनन कहते हैं । ( ३ ) दोनों ओर हाड़ ओर मर्कट बंध तो हों; परन्तु कीली और पट्टी के हाड़ न हों उसे 'नाराच' संहनन कहते हैं। ( ४ ) जहाँ एक तरफ मर्कट बंध और दूसरी तरफ कीली होती है उसे 'अर्द्धनाराच' संहनन कहते हैं । (५) जहाँ केवल कीलीसे हाड़ संधे हुए हों, मर्कट बंध पट्टी न हो उसे ' कीलक संहनन कहते हैं । ( ६ ) जहाँ अस्थियाँ केवल एक दूसरेसे अड़ी हुई ही हों, कीली, नाराच, और ऋषभ न हों; जो जरासा धक्का लगते ही भिन्ना हो जाय उसे 'छेवदु' संहनन कहते हैं ।
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