Book Title: Gurutattva Vinischaya
Author(s): Yashovijay Gani, Chaturvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ യമുയരായ ഇലക്കുകയായ श्रीजैन-आत्मानन्द-प्रन्धरत्नमाला अष्टसप्ततितमं रखम् (1) न्यायाचार्य-महोपाध्याय-श्रीयशोविजयगणिविरचितस्वोपज्ञवृत्तियुतः गुरुतत्त्वविनिश्चयः। संपादकः संशोधकश्चन्यायाम्भोनिधितपोगच्छाचार्यश्रीमद्विजयानन्दसरिशिष्यप्रवर्तकश्रीमत्कान्तिविजयविनेयाणुः चतुरविजयः। गोघावन्दरवास्तव्य-श्रीमालीज्ञातीय-श्रेष्ठि-रत्नजिदात्मजपरमानन्द-जीवनचन्द्रात्मजछोटालालाभ्यां मुद्रणार्थसमर्पितार्द्धद्रव्यसाहाय्येन प्रकाशयित्री भावनगरस्था श्रीजैनआत्मानन्दसभा। इदं पुस्तकं वल्लभदास-त्रिभुवनदास गांधी सेक्रेटरी श्रीजैन आत्मानन्दसभा भावनगर इत्यनेन 'निर्णयसागर' मुद्रालये कोलभाटवीभ्यां २६-२८ तमे गृहे रामचन्द्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । वीरसंवत् २४५१. आत्मसंवत् २९. (मुल्यं रूप्यकत्रयम् ३.) विक्रमसंवत् १९८१. इसवी सन १९२५. இலலலலலலலலலலலலலம் For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educat national Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the "Nirnaya-sagar" Press, 26-28, Kolbbat Lane, Bombay. Published by Vallabhadas Tribhuvandas Gandhi Secretary, Shri-Jain-Atmanandsabha, Bhavanagar. nelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तव्य. आ जे जे ग्रंथरत्न दुर्लभताना अंधकारमाथी नीकळी सुलभताना प्रकाशमां मूकाय छे, तेनो छपामणीने लगतो बधो य इतिहास | टुंकमा अहीं आपी देवो योग्य छे. ते उपरथी वाचकोने ख्याल आवशे के मुद्रणनी यत्रणाओ सही जे पुस्तको - एकवार सुलभ थाय छे तेनी पाछळ केटली मुश्केली भरेली क्रियाओ अने संपादकनी कठण जवाबदारी रहेली छे? आजथी लगभग सात वरस पहेला संवत् १९७३ मां मारा पूज्य गुरु प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराज अने ते वखतना तू मुनि पण आजे श्रद्धेय आचार्य श्री १०८ श्रीविजयवल्लभसूरि महाराज साथे चोमासुं रह्यो हतो. एक प्रसंगे विद्यारसिक श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देशाई बी. ए. एल. एल. बी. द्वारा मालुम पड्यु के गुरुतत्त्वविनिश्चयनी एक हस्तलिखित प्रति अहींनी मोहनलालजी जैन लाइब्रेरीमा छे. ते उपरथी ते प्रति श्रीयुत मोतीचंदभाई गीरधरभाई कापडीया द्वारा मंगावी अने जोइ. जोतां प्रथमदर्शने ज भान थयु के आ प्रतिना मार्जिनमा जे अक्षरपंक्तिओ छे ते तेम ज वचमा पण ज्या ज्या सुधारेल अक्षरो छे ते खुद उपाध्यायजीनी ज हस्तलिपि छे. ए कारणथी अने ग्रंथना महत्त्वने लीधे तेने छपावी सौने माटे सुलभ करवानो विचार त्यां ज उद्भव्यो. 'कोइ पण काम करवानो विचार थाय ए ज तेनो प्रथम पायो छे.' ए नियम प्रमाणे आ ग्रंथना मुद्रणनो पायो मुंबइमां । For Private & Personal use only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्पादकी- ***FRASES उद्भवेल विचार साथे ज नंखायो. चतुर्मास पूर्ण थया पछी सौनी साथे हुँ घाटकोपर गयो अने त्यां मुनि श्रीवल्लभविजयजीना सदुपदेशथी तेनी छपामणी बदल आर्थिक मदद मळवार्नु पण वचन मळ्युं. १९७४ नुं चोमासु वडोदरा थयु. ते वखते छाणीना संघना भंडारमाथी प्रस्तुत ग्रंथनी बीजी प्रत सांपडी. पण ते वखते काइ | खास काम थयु नहि. १९७५ मां पवित्र क्षेत्र पालीताणा स्पर्शवानुं सौभाग्य प्राप्त थयुं. त्यां आव्या वाद सुरत श्रीमन्मोहनलालजीजैनश्वेतांबर ज्ञानभंडारमांनी प्रस्तुत ग्रंथनी एक त्रीजी हस्तलिखित प्रति मंगावी. आ रीते मुंबइ, छाणी अने सुरतना भंडारोनी त्रण हस्तलिखित प्रतिओ मळवाथी उत्साह वध्यो अने तेनुं परिणाम क्रियामां आव्यु. वडोदरा प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजीजैनशास्त्रसंग्रहमा पण एक आ ज ग्रंथनी हस्तलिखित प्रति हती जे श्रीमान् विजयसिद्धिसूरि महाराजनी प्रति उपरथी लखाववामा आवी हती. वडोदरानी ए प्रति मंगावी तेना उपर ज पूर्वोक्त त्रण प्रतिओमाथी पाठ पाठांतरो लइ लीधा. अने जे जे विशेषताओ |ए त्रण प्रतिओमा हती ते बधी वडोदरानी प्रतिउपर नोंधी लीधी. आ रीते प्राप्त थएल बधी प्रतिओना पाठ पाठान्तरो अने | विशेषताओगें एक प्रति उपर संकलन थयु. एटले तेना उपरथी प्रेसकॉपी करावी. आटलु काम सिद्धाचलमां संपन्न थयु. प्रेसकॉपी तपासी तेमा संस्कारो करवानुं काम भावनगरना १९७७ ना चोमासामां आरंभायु. अने साथे ज निर्णयसागर | जेवा जगत्प्रसिद्ध छापखानामां छपाववानी शरुआत करी. त्यारबाद वर्तमान संवत् १९८१ सुधी काम चालतां आजे आ ग्रंथ लांबे काळे पूर्ण थइ वाचकोना करकमलमा उपस्थित थाय छे. संशोधननी मुश्केलीओ-उपरना वक्तव्यथी तो सामान्य वाचको एम ज मानी ले के सात वरस धीरे धीरे काम चाल्यु For Private Personal use only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RESEARCRASANGALORE ह अने ग्रंथ पूरो थयो. पण तेओ बीजी मुश्केलीओ, जे संशोधनकार्यमा अने संपादकना कर्त्तव्यमा रहेली छे ते भाग्ये ज समजी शके. तेथी ते मुश्केलीओनुं दिग्दर्शन करावq अस्थाने नथी. आ दिग्दर्शन कराववानो खास हेतु तो ए छे के माणस पोताथी बनतो बधो श्रम करे छतां सारं काम करवामां केटली त्रुटिओ रही जाय छे एनो वाचकोने ख्याल आवे. अने तेथी रही गएल त्रुटिओ तरफ होतेओ उदार नजरे जुए. अने साहित्यना कार्यने सार्वजनिक समजी तेमां पोतानी पण जवाबदारी समायली छे एम मानी देखाती त्रुटिओ पोते सुधारी ले अने आगळना संस्करणमां तेनो उपयोग थइ शके तेमाटे अमने सूचना करे. | पहेली मुश्केली उक्त चार प्रतोना परस्परविसंवादनी हती. एक प्रतिमां अमुक पाठ होय ते बीजीमां न होय ए पाठपतन. ह एक प्रतिमां अमुक अर्थबोधक अमुक वाक्य होय तो बीजी प्रतिमां ते ज अर्थबोधक बीजं वाक्य होय. ए पाठान्तर. कोइ स्थळे तो एक सिवाय बीजी प्रतिओमां अमुक जोइतो पाठ न ज होय, अने होय ते पण ज्यां न जोइए त्यां होय अने जोइए त्यां न होय. आ बधी विसंवादगर्भित मुश्केलीओ उपरांत लेखकदोषथी लखाणमां आवेल पारावार अशुद्धिओ पण हती. बीजी मुश्केलीमा अवतरणो-प्रमाणरूपे आपेल पाठो-ने लगती मुश्केलीओनो समावेश थाय छे. उपाध्यायजीनो ग्रंथ एटले अवतरणोनी खाण. तेमांए प्रस्तुत ग्रंथ सिद्धान्तोना अवतरणोथी भरेलो, सिद्धान्तोमा पण जे सिद्धांतो एटले छेदसूत्रो, जे सामान्य रीते पठन, पाठन अने परिचयनी बहार छे तेनां अवतरणो. आ अवतरणोमां अनेक मुश्केलीओ नडी छे. कोइ जगोए अवतरण गद्य | सजणातुं होय, ते अवतरणवाळो मूळग्रंथ काढीए तो तेमाए गद्यनो भास थतो होय, अने छतां होय तो पद्य. तेवे स्थळे गद्य भा सतानुं पद्य नकी करी तेने पद्यरूपमा गोठवq ए सरळ तो नथी ज. घणी जगोए दरेक प्रतिमां अवतरणोमां पंक्तिओनी पंक्तिओ SAMSAREESOURCE 561 For Private & Personal use only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादकी-IVापडी गएली अने कचित् तो आखां गद्यसूत्रो ज पडी गएला. ते उपरांत खरी मुश्केली तो ए हती के प्रस्तुत ग्रंथमा अवतरणो जेलायवक्तव्य. ग्रंथमाथी लीधेलो ते ग्रंथोनी प्रतिओना पाठसाथे आ लीधेल अवतरणोना पाठो न मळे. ।३॥ आ बधी मुश्केलीओने पार करवामां मुख्य अर्थदृष्टिनो उपयोग करेलो छे. जो के तेमा शाब्दिक सामंजस्य अने प्रतिओमांना लखाणर्नु औचित्य विसरवामां नथी आव्युं. विसंवादवाळी पहेला प्रकारनी मुश्केलीनो अंत पाठांतरो लइने, अर्थदृष्टिनो उपयोग करीत पतित पाठने बंध वेसतो करीने अने व्याकरणदृष्टिनो उपयोग करी वाक्य शुद्ध करीने करवामां आव्यो छे. परंतु बीजा प्रकारनी मुश्केलीनो अंत कांइ एमने एम आवे तेम न होतुं. एटले तेमाटे तो अवतरणवाळा मूळग्रंथोनी अनेक नकलो एकठी करवी पडी. कोइ कोइनी तो पांच पांच नकलो एकठी करेली, छतां य जोइतुं समाधान न थाय: दाखलातरीके व्यवहारसूत्रनी चार, वृहत् कल्पनी पांच, महानिशीथसूत्रनी पांच. ते सिवाय व्यवहारभाष्य आदिनी प्रतो पण राखेली हती. आ बधी लिखित प्रतिओना टापाठो साथे प्रस्तुत ग्रंथमां आवेलां ते ते ग्रंथनां अवतरणो मेळव्यां, छतां ज्यां कांइ पण समाधानकारी मार्ग न जणायो त्यां खास प्रसंग अने अर्थदृष्टिनो उपयोग करी अवतरणोनी शुद्धि करवामां आवी छे. । प्रतिओनी तुलना-उपर जे चार प्रतिओनो निर्देश कर्यो छे, तेमां नंबर एक (मुंबइवाळी) अने नंबर त्रीजो (सुरतवाळी)। एबे प्रतिओ लखायली तो कोइ बीजा लेखकने हाथे. पण ए बन्ने प्रतिओमां अंदर अने मार्जिनमा जे संशोधन करायेल छे ते संभवतः उपाध्यायजीना पोताना ज हाथर्नु हो, जोइए. एटले ए पहेला अने त्रीजा नंबरवाळी बे प्रतिओ एक रीते समान ज कहेवाय. प्रस्तुत ग्रंथना संशोधनमा खरो टेको पण ते बे प्रतिओनो ज हतो. एक नंबरवाळी प्रतिना अंतिम पत्र पर "इयं समीचीना" एवा| SAUSISUSTUS Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षरो ते प्रतिना संशोधकना ( उपाध्यायजीना) हाथे ज लखायेला छे. ए प्रतिनां १२६ पत्र छे. तेना अंतमां "संवत १७३३ | पोस वदि २ बुधवासरे लषीतं राजनगरे" आम लखेल छे. मुद्रण वखते खास मदद आ ज प्रतिनी लेवामां आवी छे. त्रीजा नंबरनी प्रतिनो उपयोग प्रेसकॉपी कराव्या पहेलां चोथा नंबरनी प्रतिने मेळववामां ज करेलो छे. ए प्रतिनां १२० पत्र छे. तेना | अंतमां "संवत् १७३३ वर्षे चैत्र शुदि ५ बुधवासरे लखीतं-" एवो उल्लेख छे. बीजा नंबरनी प्रति शुद्ध नथी छतां तेनो उपयोग मुद्रणकार्यमां पण कर्यो छे. | उपर पहेला अने त्रीजा नंबरनी प्रतिना विषयमा एम कहेवामां आव्यु के 'तेमां जे अंदर अने मार्जिनमा संशोधन थयुं छे ते संभवतः उपाध्यायजीने हाथे थएलुं छे.' आ कथन उपर प्रश्न थइ शके छ के ते संशोधित अंश उपाध्यायजीना ज हाथनो छे तेनी शी साबीती ?. आ प्रश्ननो उत्तर मेळववानां संक्षेपमा बे साधनो तो छे ज-(क) खरडारूपे लखायेल मळी आवतां पुस्तकोना | अक्षरोनी आकृति. (ख) पोताना ज दस्कतथी लखायेल कागळोना अक्षरोनी आकृति. । उपाध्यायजीनी कृतिओना केटलाक चेरभूसवाळा खरडाओ मळे छे, जेने बीजानुं लखाण न मानी शकाय. तेवा खरडा-1 ओना अक्षरोसाथे बीलकुल मळता आवता अक्षरोवाळा तेओनी सहीवाळा पत्रो पण मळे छे. आ बन्ने प्रकारना लखाणना अक्षरो | जाते ज सरखावी जोया छे अने उपाध्यायजीना अक्षरोनी आकृतिनुं माप काढ्युं छे. ए मापनी कसोटीए जोतां पहेला अने त्रीजा नंबरनी प्रतोमानो संशोधित भाग उपाध्यायजीनो ज लखेल छे तेम जणाय छे. छतां अमे संभवतःशब्द वापों छे तेनुं कारण ए छे | के उपाध्यायजीना जमानाना केटलाक भिन्न भिन्न विद्वान लेखकोना हस्ताक्षरो सरखावतां केटलीक वार तेमा स्पष्ट भेद पारखवो बहु| ज कठण थइ पडे छे. तेथी कदाच पहेला अने त्रीजा नंबरनी प्रतोनो संशोधित भाग उपाध्यायजीना सदृशाक्षरी कोइ विद्वाने लख्यो दा ASOSLARARASI Main Education International For Private & Personal use only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४॥ आ स्थळे एक पादकी- होय एम पण कल्पना थइ शके. तेम छतां आ बीजी बात उपर अमे खास भार देता नथी. आ वात तो निर्णीत ज छे के पहेला 181 अने त्रीजा नंबरनी एम बे प्रतो उपाध्यायजीनी विद्यमानतामा ज लखायली छे. | आ स्थळे एक अगत्यनी बात कही लइए. ते ए के बीजा नंबरनी प्रतिना छेल्ला पानामा "पं. पुण्यविजय ग।" एवा अक्षरो छे. आ अक्षरो निर्विवादरीते उपाध्यायजीना छे. खंभातमांना नगीनदासना भंडारमा ज्ञानबिन्दुनी जे प्रति छ तेना अन्यना पानामा 18 पण ए ज अने एवा ज अक्षरो उपाध्यायजीना लिखित छे. आ उपरथी बे वात स्पष्ट थाय छे, पहेली ए के ए प्रतिओ उपाध्याय जीना वखतमा ज लखायली. अने बीजी ए के प्रतिओ लखाया पछी ग्रंथकार ज्यारे ज्यारे जेने ते प्रति भेट आपवा इच्छे त्यारे तेनुं नाम ते प्रतिना अंते ते पोते ज लखे. पं. पुण्यविजय ग० कोण हता तेनी गवेषणा करवी बाकी छे. पण ज्यारे उपाध्यायजी तेओने पोतानी कृतिओ भेट आपे छे तात्यारे ते कोइ योग्य अने खास करी विद्यारसिक होइ उपाध्यायजीना प्रीतिपात्र तो होवा ज जोइए. संस्करणनी विशेषता प्रस्तुत ग्रंथर्नु संस्करण जेम बने तेम शुद्ध करवानो यत्न तो कर्यो ज छे. पण तेमां अशुद्धिओ नथी| रही एम नथी. छतां तेनी विशेषता खास परिशिष्टोमां छे. आ संस्करणने अंते चार परिशिष्टो आप्यां छे. पहेला परिशिष्टमां मूळ है ग्रंथनी नवसो पांच आर्याओनो वर्णानुक्रमथी आदि भाग आपेलो छे. बीजा परिशिष्टमां पण अकारादि क्रमथी गद्य अने पद्यना आदि अंशो आपेला छे. आ गद्य अने पद्य प्रस्तुत ग्रंथनी टीकामा अवतरणतरीके जे उपाध्यायजीए ग्रंथांतरोमांथी लीधेला छे ते समजवां. त्रीजा परिशिष्टमां ग्रन्थोनां नामो आपेला छे के जेनो प्रमाणतरीके उपाध्यायजीए प्रस्तुत ग्रंथमा उपयोग कयों छे. आ परिशिष्ट RUSHKULARU MANGALORCAM-GCARNA ॥४॥ Winery or Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANSKRISECRE उपरथी एटलं जाणी शकाशे के प्रस्तुत ग्रंथमा ओछामा ओछो केटला ग्रंथोनो प्रमाणतरीके उपयोग थयो छे. चोथा परिशिष्टमां आचार्योनां के ग्रंथकर्ताओनां नाम छे. आ नामो टीकामा अवतरण आपती वखते उपाध्यायजीए निर्देशेला छे. केटलांक अवतरणो। ग्रंथनां के तेना कर्त्ताओना नाम सिवायनां पण आवेलां छ जेनुं जुएं परिशिष्ट आपेल नथी. आ पुस्तकना आरंभमा एक स्थूल विषयानुक्रम आपेलो छे जे जोवामात्रथी ग्रंथना चर्चास्पद विषयोनु सामान्य ज्ञान तो वाचकने थइ ज जशे. खास सूचना-जो के संस्कृत प्राकृत आदि भाषाना प्रगट थता शास्त्रीय ग्रंथोनी प्रस्तावना संस्कृतमां लखवानो ज बहुधा प्रघात छे. तेम छतां तेने बदलवानां कारणो अनुभवमा आवतां जाय छे, जेनो अमे उल्लेख 'देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण'नी प्रस्तावनामा | कर्यो छे ते ज अहीं उतारी लइए छीए "१ विषयने जाणनार पण शास्त्रीयभाषा न जाणनार लोको ते ते भाषाना ग्रंथनी हकीकत प्रस्तावनाद्वारा पण मेळवी शकता नथी. २ बहुधा संस्कृत भाषामा लखाती प्रस्तावनाओ शब्दाडंबरवाळी होइ वस्तुज्ञानमा ओछी ज मदद करे छे. खास करी जैन समाजना साहित्यमा आ दोष जणाया सिवाय रहेतो नथी. ए वात सत्यप्रेमीने तो दीवा जेबी ज छे. ३ गमे तेवा महत्त्वपूर्ण विषयोना शास्त्रीय ग्रंथो तरफ लोकोने आकर्षित करवानुं साधन तेओ समक्ष मातृभाषामा ते ते ग्रंथोनी माहिती आपवी ते ज छे.. CARSA For Private & Personal use only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RISTICAS म्पादकी ४ आ साहित्यप्रकाशनना पूर जमानामा साधारण नियम प्रस्तावनाद्वारा ग्रंथनी माहिती मेळववानो थइ पड्यो छे. तेवे || यवक्तव्य समये प्रचलित भाषामा लखायेल प्रस्तावनादि संस्कृत भाषाना ओछामा ओछा अभ्यासी के सर्वथा अनभ्यासी सुधांनी जिज्ञासा पूरवामां सहायक थाय ए देखीतुं ज छे. ५ प्रस्तुत ग्रंथ जेवा ग्रंथोना अभ्यासी मोटे भागे साधु, साध्वी अगर जैन मात्र होय छे. तेओमां पण शास्त्रीय भाषानुं उडु ज्ञान गण्या गांठ्याओने ज होय छे. आवी परिस्थितिमा छपाएल ग्रंथो मात्र भंडारना अलंकारो ज बने छे. एटले प्रचलित भाषामा प्रस्तावना आदि लखाएल होय तो एकवार पुस्तक हाथमां आव्या पछी बीलकुल उपेक्षा तो न ज थइ शके. अने परिणामे मूळ ग्रंथो तरफ रुचि आकर्षाय.” इत्यादि कारणो उपर विचार करी अत्यार सुधीनी अमारी चालु पद्धति बदली मातृभाषामा ज प्रस्तावना के | विषयानुक्रमणिका आपवानो अमे विचार कर्यो छे. मदद-प्रस्तुत ग्रंथना मुद्रणमा जेटलो अर्थव्यय थयो छे, लगभग तेनो अधों भाग गोघाबंदर (हाल मुंबइ-घाटकोपर) | निवासी सुश्रावक श्रेष्ठिवर्य श्रीमान् परमानंददास रतनजीभाइ तेम ज धर्मात्मा श्रेष्ठिवर्य छोटालाल जीवणभाइ तरफथी मळेलो छे ते बदल पुस्तकप्रकाशक श्रीजैनआत्मानन्दसभा, भावनगरना सभासदो तेओनो आभार माने ए सहज छे. | अंतिम निवेदन-आ ग्रंथना मुद्रणकार्यमा पहेलेथी छेले सुधी लगभग घणी वार शारीरिक विनोथी हुँ घेरायेल रह्यो छु. है छतां वर्तमानस्वरूपमा आ ग्रंथ वाचको समक्ष आटले काळे पण हाजर थाय छे तेनुं कारण मारा लघु शिष्य मुनिश्री पुण्यविजयजीनी | खास महेनत छे. आ महेनतनो लाभ न मन्यो होत तो आ ग्रंथ छपाववानुं काम तेना विचारना पहेला पगथीआथी ज अटक्युं होत. - - For Private & Personal use only in library og Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने कदाच आथी पण वधारे लांबे वखते पूर्ण थात तो पण आ ग्रंथने जे स्वरूप अपायुं छे ते तो न ज आपी शकात. उपर जे जे मुश्केलीओ टुंकामा सूचवी छे तेनो अंत ए मारा लघु शिष्यनी मददने ज आभारी छे. तेथी वाचको मारा परिश्रम करतां मारा सहायकना परिश्रमने ज वधारे कीमती गणे ए हुं मागी लउं . आ वात में एटला खातर लखी छे के संपादनना कर्तृत्वनो 8 भार वाचको केवळ मारा उपर ज न आरोपी ले. प्रस्तुत ग्रंथनो टुंक सार लखवा आदिमां अमने पंडितजी श्रीमान् सुखलालजी तरफथी घणी ज सहायता मळी छे ते माटे 5 आ स्थळे तेमना नामने अमे भूली शकता नथी. लेखक-मुनि चतुरविजय. KIRANSRRORISASARASINE Jansonematian For Private Personal use only wrancainelorery.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथपरिचय ७ परिचय. CONNOCELECT HE थनां बे रूप होय छे. एक बाह्य अने बीजु आन्तर, बाह्यरूपमा भाषा, रचना, परिमाण, विभाग आदि वस्तुओनो समावेश थाय छे. आंतररूपमा विषय, तेनी संकलना, तेनुं प्रामाण्य अने तेनुं महत्त्व आदि बाबतोनो समावेश KC थाय छे. बाह्यरूप-प्रस्तुत ग्रंथ मूळ अने टीका एम उभयात्मक छे. मूळनी भाषा प्राकृत अने टीकानी भाषा संस्कृत छे. मूळनी रचना पद्यमय अने टीकानी रचना गद्यमय छे. मूळतरीके गणातां पद्योनुं (गाथाओर्नु) परिमाण ९०५ छे अने टीका ७००० श्लोकपरिमाण छे. बां मूळ पद्यो काइ उपाध्यायजीए रच्यां नथी. अनेक पद्यो तो जेमनां तेम तेओए व्यवहारभाष्यादि प्राचीनतम ग्रंथोमांथी लीधा छे. अने जे जे पद्यो जे जे ग्रंथमाथी मूळमां गोठवेल छे ते ते पद्योनी टीका करतां ते ते ग्रंथर्नु नाम तेओश्रीए स्पष्टपणे लगभग सर्वत्र आपी दीधेल छे. टीकामां पण तेओश्रीए अनेक ग्रंथोना गद्यमय अने पद्यमय उताराओ, बहुधा ते ते ग्रंथना अगर तेना प्रणेता आचार्यना नामनिर्देशपूर्वक, आपेला छे. आ बधुं अमे विगतवार परिशिष्टोमा आप्युं छे. (जुओ परिशिष्ट नं. ३-४.) मूळ अने|81॥६॥ Gटीका ए बन्ने चार विभागमां वहेंचाएल छे. दरेक विभागने ग्रंथकारे उल्लास एवं नाम आप्युं छे. आ उल्लासो ए ग्रंथनां महाप्रकरणोद SEARCH For Private & Personal use only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुत. २ कहेवाय. बाकी बीजां नानां प्रकरणो तो दरेक उल्लासनी अंदर अनेक छे. मूळ पद्यमय छतां ते प्रसाद्गुणवालुं छे. तेथी वांचतां बेंत ज अर्थनुं भान थवामां अडचण आवती नथी. टीकानी भाषा पण प्रसादगुणसंपन्न छे, छतां तेमां काठिन्य होय तो ते सूक्ष्म तार्किक चर्चाने लीधे छे. पण ए चर्चामां जे भाव अने जे वस्तु गोठवाल छे ते समजनारने भाषानुं काठिन्य के न्यायमिश्रितता जरा पण खटके तेवी नथी. आंतररूप - प्रस्तुत ग्रंथनो मुख्य विषय गुरुतस्त्वनुं निरूपण करवुं ए छे. तेने अंगे बीजा नाना मोटा सेंकडो विषयो चर्चाएला छे. जेनो कांइक ख्याल वाचकोने ग्रंथना प्रारंभमां आपेल विषयानुक्रम उपरथी आवी शकशे विषयसंकलना कइ रीते करवामां आवी छे तेनो ख्याल वाचकोने "टुंकमां ग्रन्थनुं वस्तु" ए शीर्षक नीचे आपेल विचारो वांचवाथी आवशे. उपाध्यायजीना ग्रंथना प्रामाण्यना संबंधमां कांड कहेवुं ए तो एक बटुक शिष्ये महान् गुरुनी महत्ता आंकवा जेवुं उपहासास्पद छे, क्यां उपाध्यायजी जेवा जन्मसंस्कारसंपन्न अने श्रुतयोगसंपन्न धुरन्धर आचार्य, अने क्यां अमारा जेवा तेओना एक पण ग्रंथनुं एक पण वक्तव्य परिपूर्ण समजवा असमर्थ शिष्यो. छतां तेओना विचारदर्शनथी अमारा मन उपर जे छाप पडी छे, अने कोइ पण विचारक वाचकना मन उपर पडी शके, तेने नम्रपणे कहेवामां कांइ धृष्टता न गणाय. उपाध्यायजीए प्रस्तुत ग्रंथमां एक पण एवी वात नथी कही के जेनो आधार शास्त्रमां के तर्कमां न होय. तेओए जे जे कयुं छे ते बधानुं उपपादन प्राचीन अने प्रामाणिक ग्रंथोनी सम्मतिद्वारा कर्यु छे. क्यांइए कोइ ग्रंथनो अर्थ काढवामां खेचताण नथी करी. तर्क अने सिद्धान्त बन्नेनुं समतोलपणुं साचवी पोताना वक्तव्यनी पुष्टि करी छे. प्राचीन ग्रंथो करतां उपाध्यायजीना आ ग्रंथमां विशेषता होय तो ते एटली ज के ते ते : Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ प्राचीन ग्रंथोमा जे जे वस्तु छुटी छुटी वाचकने मळी शके ते बधी वस्तु आ एक ज ग्रंथमा एकसामटी व्यवस्थित रीते गोठवायेली परिचय 15 जोवा मळी शके छे. ते उपरांत जे वात प्राचीन ग्रंथोमा सिद्धान्तरूपे कहेवामां आवी होय तेने पण घणी वार उपाध्यायजीए तर्कनी ॥ ७ ॥ कसोटीए चडावीने ज कहेली छे. अनेक जातना शास्त्रोनो अभ्यासी कोइ ग्रंथकार ज्यारे एक खास विषय उपर लखे त्यारे पण तेना लखाणमा तेनुं सर्वदेशीय अने व्यापक ज्ञान जाणे अजाणे उतर्या विना न रहे ए जाणीतो नियम छे. उपाध्यायजीना संबंधमां पण तेम ज छे. आ ग्रंथ छे तो फक्त गुरुतत्त्वना विषयने लगतो, पण तेना निरूपणमां तर्कशास्त्रनी झीणवट, दार्शनिक ग्रंथोनी शंकासमाधानशैली, सैद्धान्तिक ग्रन्थोनी प्रसन्न छतां गंभीर शैली, काव्यशास्त्रनो कवितागुण, अलंकारशास्त्रनी उपमाचातुरी, व्याकरणशा स्वनी शब्दशुद्धि, छन्दःशास्त्रनी उपयुक्त छन्दोरचना, नयशास्त्रनी पृथक्करणपद्धति अने आगमिक प्रकरणोनी भंगज्ञानशैली ए बधु एकी ४ साथे वाचकोने जोवा मळे छे. अने जो वाचकनी दृष्टि उघडी होय तो ते एकाएक एम कही उठे के 'आ ग्रंथमो लेखक अनेक 8 शास्त्रो पी गएल होवो जोइए.' । प्रस्तुत ग्रंथर्नु महत्त्व ए अधिकारनी बाबत छे. जेओ शास्त्रना, तेमांए धर्मशास्त्रना, अने धर्मशास्त्रमा पण चरणकरणानुयोग| विषयना रसिया होय तेओ ज प्रस्तुत ग्रंथना अधिकारी कहेवाय. जेओ आवा अधिकारी हशे तेओने माटे आ ग्रंथ करतां वधारे कीमती वस्तु आ कीमती दुनियामां क्याइ पण मळवानी नथी. ते उपरांत आ ग्रंथर्नु महत्त्व ऐतिहासिक दृष्टिए पण घणुं ज छे. आत ग्रंथमा जे पार्श्वस्थ आदि पांच कुगुरुओर्नु वर्णन छे अने तेने लगतां केटलांक नियमनो सूचव्यां छे, तेओना व्यहारोना जे वर्णनो आप्यां छे अने जे गच्छांतरपरिपाटीनुं प्रकरण आप्यु छे, तेम ज जे प्रायश्चित्तविधाननी परिपाटी आपी छे, ते बधुं जैन संघना इति Jain Educ a tional For Private & Personal use only Mayainelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हास, खास करी साधुसंघ अने तेना बंधारणना इतिहास उपर पुष्कळ प्रकाश पाडे तेवं छे. हवे पछी कोइने जैनसाधुसंघना बंधार नो इतिहास लखवो हशे तो तेने आ ग्रंथ जेटलो बीजो कोइ ग्रंथ भाग्ये ज महत्त्वनो थइ पडशे. तेनुं कारण ए छे के ए इतिहासमां उपयोगी थाय तेवा अनेक प्राचीन ग्रंथोनां नाम पाठ अने अर्थसहित आ एक ज'ग्रंथमा मळी शके तेवी गोठवण छे. | तेथी आगळ वधी आ ग्रंथनी महत्तामाटे ए पण उमेर जोइए के जेओ आवा विषयनो तुलनात्मक दृष्टिए अभ्यास करवा मागता होय तेओ माटे तो आ ग्रंथ अणमोल रत्न छे. जेओ आखी दुनीआना बधा धार्मिक संप्रदायो अगर फक्त भारतवर्षना धार्मिक संप्रदायोमा गुरुविषे शीशी मान्यता रहेली छे ?, कयो संप्रदाय गुरुविषे शुं माने छे ?, तेमां गुरुर्नु केटले अंशे अने कइ दृष्टिए स्थान छे?, गुरुनी संस्थानो इतिहास, ते संस्थाना नियमोपनियमो अने बंधारणनो इतिहास केवो केवो छे? ए बधुं तुलनात्मक दृष्टिए जाणवा इच्छे तेओने जैन संप्रदायतरफनी बधी माहिती एक ज साथे पुरी पाडनार तरीके आ ग्रंथ जेटलो बीजो कोई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भाग्ये ज मळशे. वैदिक संप्रदायमा अने बौद्धसंप्रदायमां पण गुरुओनी संस्था छे. आ संस्थाओ जैनसंप्रदायनी गुरु| संस्थाने दुनियाना बीजा भागनी तेवी संस्थाओ करतां वधारे नजीक छे. एटले वैदिक संन्यासी परमहंस के परिव्राजक संस्थानो तेम ज बौद्धसामणेर के भिक्खुसंस्थानो जैन गुरुसंस्थासाथे मुकाबलो करवामाटे जैन गुरुने लगती बधी ज बाबतो प्रामाणिकपणे जाणवी जोइए. आ गरज आ एक ज ग्रंथथी सफलतापूर्वक सरे तेम होवाथी आनुं महत्त्व केटलुं छे ? ते तेना अधिकारीओ ज कही शकशे. एक बीजी दृष्टिए पण आ ग्रंथर्नु बहु ज महत्त्व छे ते भूलावु न जोइए. ते दृष्टि एटले प्रासंगिक विषयतुं परिपूर्ण ज्ञान मळवानी दृष्टि. जैन तत्त्वज्ञानमा स्याद्वाद, नय, प्रमाण, निक्षेप आदि विषयोनो समावेश थाय छे. आवा विषयो उपर खास खास V94 Main Education International For Private & Personal use only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर परिचय. ग्रन्थ नाना मोटा ग्रंथो ज रच्या छे. छतां तेवा विषयोनी चर्चानो प्रसंग आवतां प्रस्तुत ग्रंथमां पण उपाध्यायजीनी लेखनी ते बाबत लखतां थोभी नथी. वस्तु एक ज होय, लखनार एक ज होय, पण एक ज वस्तुने प्रतिभाशाली लेखक ज्यारे ज्यारे लखे त्यारे त्यारे | तेमां नर्बु स्फुरण नवं तेज आन्या विना नथी रहेतुं. आ नियम प्रस्तुत ग्रंथमा अक्षरशः नजरे पडे छे. दाखला तरीके प्रसंगथी। आवेल नय-प्रमाणादिनी चर्चा जुओ. उपाध्यायजीए नयना विषय उपर नयरहस्य, नयप्रदीप अने नयामृततरङ्गिणी नामनी टीका| युक्त नयोपदेश आदि ग्रन्थो लख्या छे. प्रमाण उपर प्रमारहस्य, जैनतर्कपरिभाषा आदि प्रौढ ग्रंथो लख्या छे. स्याद्वाद उपर स्याद्वा दरहस्य, अनेकान्तव्यवस्था, अनेकान्तप्रवेश, स्याद्वादकल्पलता (शास्त्रवार्तासमुच्चयनी टीका) आदि ग्रंथो लख्या छे. हवे आ ज | विषयोने प्रसंग आवतां पाछा आ ग्रंथमां पण उपाध्यायजी फरी चर्चवा चूक्या नथी. आम जे विषयोना स्वतंत्र ग्रंथो लख्या होय, | प्रसंग आवतां ते विषयो उपर फरी अन्य ग्रन्थमा लखवु ए प्रथमदर्शने पुनरुक्ति के पिष्टपेषण जेवू जणाय खलं. पण जेम पुनरुक्ति अलंकारशास्त्रमा दोष छतां अमुक प्रसंगोए गुणरूप मनायेली छे तेम प्रतिभासंपन्न लेखकोनी पुनरुक्ति ए दोषरूप नथी होती. तेमा विविधता, नवीन स्फुरण अने नवनवता होवाथी ते गुणरूप ज होय छे. उपाध्यायजीना नय, प्रमाण, स्याद्वाद आदि विषयो पर स्वतंत्र ग्रंथोमां तेनी ते वस्तु होवा छतां आ ग्रंथमा ते वस्तुविषे जे नवनवां स्फुरणो जोवामां आवे छे ते ज ते ते विषयना अभ्यासीने ते ते विषयनी परिपूर्ण ज्ञानसामग्री पूरी पाडे छे. आ सिवाय संयमश्रेणि, पांच कुगुरु, पांच निग्रंथ आदि सैद्धान्तिक विषयो, अति18. विस्तीर्ण परिपूर्ण वर्णन पण आमाथी मळी शके छे. तेथी ते दृष्टिए पण आ ग्रंथतुं महत्त्व घणुं छे, RECORDERLALRSSCSC ॥ ८ ॥ For Private & Personal use only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्त्तानो परिचय Sal "प्रस्तुत प्रथना कर्त्तानुं पद एटलुं बधुं प्रसिद्ध छे, के- जेओनो सामान्य परिचय श्वेतांबर मूर्त्तिपूजक समाजना साधु, साध्वी, पंडितो, विद्यार्थिओ अने खास खास गृहस्थोने कराववानी खास जरूर रहेती नथी. पण ते सिवायनो जैनसमाज जेमां स्थानकवासी अने दिगंबर लोकोनो पण समावेश थाय छे तेने ए ग्रंथकर्त्तानो परिचय नहि जेवो छे. अने कोइने हशे तो ये यथार्थ - रूपमा नहि होय. एटले ग्रंथकर्त्तानो परिचय कराववानुं काम तो बाकी रहे छे ज. आ उपरांत जैनेतर विद्वानो माटे पण ए परिचयनी आवश्यकता छे ज. ज्यांसुधी अमे जाणीए छीए त्यांसुधी प्रस्तुत ग्रंथना कर्त्ता महोपाध्याय न्यायविशारद यशोविजयजी वाचकना जीवनने लगतुं नीचेना लेखकोए थोडुं के घणुं, साधार के निराधार लख्युं छे. श्रीयुत कापडीया मोतीचंद गिरधर भाई बी. ए. एल. एल. बी. सोलीसीटरे आनंदघनपद्यसंग्रहनी प्रस्तावनामां प्रसंगवश गूजराती मां लख्युं छे. श्रीमान् मोहनलाल दलीचंद देशाई बी. ए. एल् एल्. बी. वकील हाइकोर्ट प्लीडरे इंग्रेजीमां स्वतंत्र पुस्तकरूपे अने गूजरातीमां नयकर्णिकानी प्रस्तावनामां लख्युं छे. आचार्यवर्य श्रीमान् बुद्धिसागरसूरि महाराजे एक निबंधरूपे गूजरातीमां लख्युं छे. पंन्यासजी श्रीमान् प्रतापविजयजी महाराजे प्रतिमाशतकनी विस्तृत प्रस्तावनामां संस्कृतमां लख्युं छे. Jain Educational : melibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनो परिचय. बीजं पण क्यांइ क्याइ छुटुं छवायुं लखायुं छे. दाखलातरीके जुओ आत्मानंदप्रकाश पुस्तक-१३ अंक-६ मा मुनिश्रीजिनविजयजीनो लेख. आटलुं बधुं ग्रंथकर्तासंबंधे लखायुं छे छतां तेथी अमारी पोतानी तृप्ति तो थवी बाकी ज छे. आना घणां कारणोमांनां केट|लांक कारणो आ छे- (क) मात्र अमारी ज दृष्टिए नहि पण हर कोइ तटस्थ विद्वाननी दृष्टिए जैन संप्रदायमा उपाध्यायजीनुं स्थान, वैदिकसंप्रदा-1 यमा शंकराचार्य जेवू छे. तेथी एवी व्यक्तिनुं जीवन केवळ किंवदन्तीओ अने ते पण आधार टांक्या विनानी किंवदन्तीओ उपरथी अगर तो संशोधनपद्धति विना ज लखाय ए इतिहासप्रेमीने संतोष न आपे. तेमां पण गमे तेटलां बाह्य साधनोनी गेरहाजरीमा ज्यारे चरितनायकनी कृतिओ ज आंतरिक साधनरूपे विद्यमान होय अने ते पण एक, बे के पांच नहि किन्तु संख्याबद्ध कृतिओ. त्यारे तो संशोधनपद्धति विनानुं अने आधार विनानुं जेटलं लखाण होय ते सत्यना जिज्ञासुने केमे करी संतोष न आपे. डा (ख) अत्यार सुधीमां जे काइ लखायुं छे तेमां केटलीक भ्रांतिओ देखाय छे. खास करी उपाध्यायजीना नामे चडेली कृतिओना विषयमां. जे जे लेखके तेओनी कृतिओ तरीके जे जे ग्रंथोनां नाम नोंध्यां छे ते बधी कृतिओ ते ते लेखके जोइ होय तेम नथी. आथी अन्य जसविजयनी कृति समान नामने कारणे उपाध्यायजीने नामे चडी गइ छे. अने कोइ स्थळे तो एक ज कृतिना बे नाम होय त्यां बे नामने कारणे बे कृतिओ नोंधाइ गइ छे. क्या य वळी एक ज ग्रन्थनां पानां आडां अवळां थवाने कारणे पुस्तकभंडा MPSC-- SGAROSAAMSANSAR ॥९॥ For Private Personal Use Only wasnainelorery.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रनी टीपमा जाणवानी खातर 'पूर्वार्ध, उत्तरार्ध' एम लख्यु होय एवा बे अंशो बे कृतिरूपे नोंधाया छे. आ भ्रमनिरसन ज्यारे शक्य होय त्यारे तो तेवो भ्रम आवा प्रखर विद्वाननी कृतिओना संबंधमा चालु रहे ए वांछनीय न ज होइ शके. I (ग) उपाध्यायजीनी घणी कृतिओ अनुपलब्ध छे छतां धणानां नामो मळे छे. अने केटलीक कृतिओना खंडित अप्रकाशित अंशो पण मळे छे. आ बधी पूर्ण अपूर्ण उपलब्ध अनुपलब्ध कृतिओनुं लीस्ट करी ते ते उल्लेखो उपरथी ते ते कृतिओना रचनासमयनुं पौर्वापर्य नकी करी प्रथमनी कृति अने छेवटनी कृतिना समय उपरथी तेओना आयुष्यनुं मान काढवं कठण छतां शक्य छे ज. एवी दशामां आवा महान पुरुषना जीवनने लगती, खास करी आयुष्यने लगती, शोधमा कोइ पण रीते उपेक्षा करवी ए ऐतिहासिकने न ज गमे. आ अने आना जेवां बीजां कारणोथी उपाध्यायजीनुं जीवन तेओना समग्र साहित्यना वारवारना अवलोकन अने मनन पछी ज प्रामाणिक रीते लखी शकाय. आ काम गमे तेटलुं श्रम, समय अने धनव्ययसाध्य होय छतां आवश्यक छ ज. कोइ आज करे के काल, पण तेओनुं तेवू गवेषणापूर्ण जीवन लखावाथी घणा साधु-साध्वीओने अने गृहस्थोने नवी ज प्रेरणा मळशे तेमां जरा ये शक नथी, जैनेतर साक्षरो आ काम करे एवी आशा तो अस्थाने छे. पण कोइ विद्यारसिक जैन ए विषयमा श्रम करे तो जैनेतर ऐतिहासिक साक्षरोने तो जरूर आकर्षित करी शके. _ आवी दृढ मान्यता छता, अने एवा जीवनने लखवानुं काम इष्ट तथा शक्य छता, बीजां प्रथमथी ज स्वीकारेल अगत्यनां| कार्योने लीधे अमे अत्यारे आ बाबतमां कशें करी शकीए तेम नथी. अलबत ते, जीवन लखवामा उपयोगी थाय तेवी सामग्री ज्यां| PIROSLAOSISULISTRO Jan Education internations For Private & Personal use only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय. ग्रन्थनो प्रसंग आव्यो त्यो मेळवता रहीए छीए, थोडी छतां अतिमहत्त्वनी केटलीक प्रामाणिक सामग्री अमारी पासे छे, पण तेने आ स्थळे छुटी छवाइ आपवामा कांइ महत्त्व न होवाथी ग्रंथकर्ताना विशिष्ट परिचयनी बाबतमा हमणां तो वाचको समक्ष हाथ जोडी माफी ॥१०॥ मागवी ए एक ज मार्ग शेष छे. । आ मौन विदायगिरि वखते पण एक बे वातो वाचको समक्ष मूकी दइए तो तेओ अमने छेक ज धृष्ट नहि गणे. १ प्रामा|णिक साधनो उपरथी जणायुं छे, के उपाध्यायजीन जीवन शरदांशतंथी जरा पण न्यून नथी ज. बलके तेथी पण वधारे होवार्नु | अनुमान थाय छे. २ उपाध्यायजीनो विद्याव्यायाम नेवु वरसथी ओछो न होवानां प्रमाणो छे. अने ग्रंथरचना काळ पंच्यासी वरसथी ओछो न होवानां पण निश्चित प्रमाणो छे. बाल्यकाळथी ते जीवननी छेल्ली घडी सुधी विद्या मेळववी, तेने पचाववी अने नव नव रूपमां मूकवी, विद्याओनी भिन्न भिन्न शाखाओमा तलस्पर्शी प्रवेश करवो अने गमे तेवा चमरखांनी पण परवा न करता तेनी भ्रांति सामे छेवटे एकला रही लडq अने * 18| सत्यमाटे गमे तेटलुं सहन कर ए तेओना जीवननी खास विशेषता होवानां पण प्रमाणो छे. हमणां ग्रंथकर्त्ताना परिचयना संबंधमा आथी वधारे आशा वाचक अमारा पासे न राखे एटलं कही विरमीए छीए. RSS RSSRAASARAM For Private Personal use only wininelibrary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टुंकामां ग्रंथतुं वस्तु. माता कहे छे छे. गुरुनी भांति आपेले. तेम GROREGARDEOS प्रथम उल्लास. * सौथी पहेला उपाध्यायजी गुरुर्नु माहात्म्य बतावतां कहे छे के गुरुनी शुद्धसामाचारीरूप आज्ञाने अनुसरवामां आवे तो * मोक्ष सुद्धा प्राप्त थाय छे. गुरुना प्रसादथी आठे सिद्धिओ मळे छे. गुरुनी भक्तिथी ज विद्या फळे छे. तेम ज3 आ दुनियामा प्राणिओने गुरु विना बीजो कोई शरण नथी. जेम दयालु वैद्य बीमार प्राणिओने शांति आपे छे तेम कर्मज्वरथी पीडित प्राणिओने गुरु ज धर्मनी शांति अL छे. दीपक पोतानी दीप्तिने प्रभावे पोताने अने बीजा पदार्थोने प्रकाशे छे. तेम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयीना प्रभावे गुरु पोताना अने परना हृदयगत अंधकारने हरे छे. त्यार बाद उपाध्यायजी गुरुकुलवासने प्रथम आचार (कर्तव्य ) तरीके सूचवे छे. तेओनी आ सूचना वैदिक संप्रदायना चार आश्रम पैकी प्रथम ब्रह्मचर्य आश्रम साथे संकळायेल गुरुकुलवासनी प्रथा अने बोद्धसंप्रदायनी सामणेर दीक्षा साथे संकळायेल ब्रह्म-2 तुचर्य तथा गुरुकुलवासनी प्रथा- स्मरण करावे छे. ा नयदृष्टिकुशळ उपाध्यायजी जेम कोइ पण वस्तुनो विचार करवामां सर्वत्र पोतानी सूक्ष्म विवेकबुद्धिनो नयद्वारा उपयोग करे छे. तेम अत्रे पण गुरुथी प्राप्त थता फळनी मर्यादा नयदृष्टिए ज बतावतां कहे छे के-बाह्य आलंबननी विशेषताथी जे विशिष्ट फळ | नीपजे छे ते व्यवहारदृष्टिए, नहि के निश्चयदृष्टिए. निश्चयदृष्टिए तो फळनो आधार तेने मेळवनार आत्मानी योग्यता उपर छे. आ ARABARASSA त्या For Private Personal Use Only inte wronw.iainelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टुंकामां ग्रन्थन वस्तु. वस्तुने स्फुट करता तेओए कह्यु छे, के नाम, स्थापना, द्रव्य अने भावगुरुरूप बाह्य आलंबन जेटजेटले अंशे उच्च कोटिर्नु होय, तेटतेटले अंशे ते आलंबननुं ध्यानकरनारना परिणाम विशेष निर्मळ थाय छे. तेवी ज रीते अनेक गुरुओनो आश्रय एक गुरुना आश्रय करतां विशेष फळवान् थाय छे. पण ए बधुं व्यवहारदृष्टिए ज समजवू, नहि के निश्चयदृष्टिए. निश्चयदृष्टिए तो परिणामनी निर्मळतानो आधार मात्र ध्यातानी योग्यता उपर छे. जो ध्याता योग्य होय तो घणी वार बाह्य आलंबन तद्दन साधारण छतां वधारे फळ मेळवे छे. अने जो ध्याता पोते योग्य न होय तो बाह्य आलंबन गमे तेटलुं उच्च प्रकारचें होय तो पण तेनाथी ते फळ मेळवी शकतो नथी. आ आशयने स्पष्ट करवा उपाध्यायजीए एक सैद्धांतिक कथा टांकी सुंदर रीते वस्तुनुं मर्म समजाव्युं छे. कथा एवी छे, के-एक ब्राह्मणपुत्र भगवान महावीर जेवा सातिशय पुरुषने जोइ तेओ प्रत्ये अणगमो बतावे छे. अने भगवानना ज शिष्य गौत मने जोइ प्रसन्न थाय छे. भगवान् जेवू सर्वोत्तम बाह्यालंबन छतां ते ब्राह्मणपुत्रना मानस उपर तेनो सुंदर प्रभाव नथी पडतो. ज्यारे जागौतम, जे भगवाननी अपेक्षाए तद्दन साधारण व्यक्ति गणाय, तेनो प्रभाव ते ब्राह्मणपुत्रना मानस उपर सुंदर रीते पडे छे. आ स्थळे व्यवहारदृष्टिए विचार करनारने तो जरुर एवी गुंचवण उभी थाय, के एक महान् पुरुष जे कार्य न करी शक्या, ते ज कार्य | तेनो साधारण आश्रित केम करी शके ?, पण निश्चयदृष्टिए विचार करनारने वस्तु तद्दन स्पष्ट छे. ते एम जाणे छे, के तात्त्विक रीते लाभ मेळववो ए पात्रनी योग्यता उपर अवलंबे छे. पात्र योग्य होय तो गमे तेवा अने गमे तेटला साधारण आलंबनथी पण वधारे लाभ मेळवी शके. अने योग्य न होय तो तेने माटे सुंदरतम आलंबन पण वृथा छे. छतां ए वात तो न ज भूलावी जोइए, के | निश्चय ए राजमार्ग नथी, राजमार्ग तो व्यवहार ज छे. ॥११॥ JainEducation For Private Personal Use Only ainebaty.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educat आ ते व्यवहार अने निश्चयदृष्टिए विचार करवानी भूमिका रची, गुरुतत्त्वना विचारमां ते बन्ने दृष्टिनो उपयोग उपाध्यायजी करे छे. तेओ प्रारंभमां केवळ निश्चयवादीने पूर्वपक्षी ( शंकाकार) तरीके उभो करी तेनी मारफत केटलीक दलीलो शंकारूपे रजू करावे छे। अने त्यार बाद उत्तरपक्षी ( सिद्धान्ती ) रूपे पोते ए बधी शंकात्मक दलीलोनुं उंडाण अने औदार्यथी समाधान करे छे. आ शंका-समाधानमांथी केटलीक दलीलो नमूनारूपे नीचे, जोइए शंकाओ. (क) केवळनिश्वयवादी व्यवहारने निष्फळ बताववा कहे छे, के-'भरते व्यावहारिक गुरुपद ( प्रव्रज्याविधान, लिंग आदि ) लीधुं न हतुं, छतांए केवळ ज्ञान प्राप्त कर्यु. एटले व्यवहारस्वरूप कारणना अभावमां पण कार्यनी निष्पत्ति भरतने थइ. ए व्यतिरेकव्यभिचार. तेवी रीते प्रसन्नचंद्रे व्यावहारिक गुरुपदमां स्थित छतां कायोत्सर्गदशामां केवळज्ञान न मेळव्युं. ए व्यवहाररूप कारण छतां कार्यनी असिद्धिरूप अन्वयव्यभिचार थयो. आ रीते केवळज्ञाननी प्राप्तिरूप फळ सिद्धिप्रत्ये व्यावहारिक गुरुत्वनो व्यतिरेकव्यभिचारं अने अन्वयव्यभिचार होवाथी, तेवा व्यवहारने मोक्षनुं कारण मानी तेने पोष्या करवो ए शुं नकामुं नथी ?' (ख) मात्र निश्चय उपर भार मूकनार शंकाकार कहे छे, के 'धारो के कोइने संयमयोग्य गुणो प्राप्त थया छे. तो पछी तेवाने प्रत्रज्याविधानादि व्यवहारमां पडवु, ए तृप्त मनुष्यने जळनी शोधमां पडवा जेवुं नथी ?. तेथी उलटुं एम धारो, के कोइने संयमयोग्य गुणो प्राप्त थया नथी, तो पछी तेवा अयोग्यने व्यावहारिक प्रव्रज्याविधान ए ऊखर जमीनमां बीज बाववा जेवुं नथी शुं ?. एटले के जेणे संयमयोग्य गुणो मेळव्या होय तेने ल्यो, के न मेळव्या होय तेने ल्यो, बन्ने रीते व्यावहारिक प्रव्रज्यानो शो उपयोग छे ?' ational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुंकामां ॥१२॥ SSRSICOSISTEMAS (ग) चारित्रनुं पालन अत्यारे केटलुं दुष्कर छ ए बताववा शंकावादी कहे छे, के-एक पण गच्छाज्ञानु उल्लंघन एने सूत्रमा | ग्रन्थन जिनाज्ञानुं विराधकपणुं कहेल छे. अने अत्यारे तो गच्छाज्ञाभंगर्नु राज्य ज प्रवर्ते छे. जे होय ते. गच्छाज्ञाओ तोडता ज जणाय छे. माटे चारित्र लइ तेना भंगना दोषमां पडवा करतां अने भावशून्य क्रियाओ करवा करतां चारित्रनी रुचि ज राखवी ए शुं बस | नथी?. एटलुंज नहि पण चारित्र ए एक एवी आंखनी कीकी जेवी कोमळ वस्तु छे, के तेना एक अंशनुं खंडन थतां ते नकामी |ज थइ जाय छे. माटे चारित्र लइ तेने पाळवाना जोखममां पडवा करतां अने नवो दोष लागे तेवा संभवनी नजीक जवा करता चारित्र न स्वीकारतुं अने अशक्त दशामां तेनो पक्षपात ज राखवो ए शु वधारे योग्य नथी. ? (घ) शंकाकार आगळ वधी कहे छे, के-भला! व्यावहारिक चारित्र तो लइए पण लेवु कोनी पासे? कारण के शास्त्रमा जेनी | आज्ञा मानवानुं कयुं छे ते पुरुष सुशील आदि अनेकगुणयुक्त होवो जोइए जो तेवा गुणथी युक्त न होय तो तेनी आज्ञाने अनुसरवामां | उलटो आज्ञाभंगनो दोष लागे छे. अने आजे तो तेवा गुणोथी युक्त कोइ पुरुष नथी देखातो के जेने गच्छपति बनावी शकाय'. (ड) शंकाकार कहे छे के-'आजे व्यवहार चारित्र लेवामां एक आफत नथी. तेमा ज्यां देखो त्यां आफत ज छे. जेम केव्यवहारचारित्र एटले गच्छसामाचारी. अने आवी सामाचारीओ गच्छे गच्छे जुदी छे. अनेक आचार्योए अनेक गच्छो प्रवत्तोव्या छे. अने मनःकल्पित सामाचारीओ पण प्रवर्त्तावी छे. एटले आवी कल्पित सामाचारीओनो पण आजे कांइ पार नथी. जे तात्त्विक | हती ते तो आजे लुप्त थइ छे. तेथी कइ सामाचारीने आजे खरी अने कइने खोटी मानवी, एटले कह स्वीकारवी अने कइ न स्वीका|8|॥१२॥ रवी ए ज जाणवू आजे मुश्केल छे'. MUSALMGESSOCCALCOCOG 6R Jain Education intemtional For Private & Personal use only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SUSISIEUSSOS (च) छेवटे वर्तमान काळमां व्यवहारचारित्रनो अभाव बतावतां तेनी साबीतीमा शंकाकार कहे छे, के भला! सर्वज्ञ, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी जेवा विशिष्टज्ञानी तो अत्यारे कोइ नथी ज. एटले थएल दोषतुं निवारण करवा प्रायश्चित्त कोनी पासे लेवू ?. आजे जेओ प्रायश्चित्त आपे छे ते पोते ज बराबर दोषनुं स्वरूप अने तेना निराकरणनो उपाय न जाणता होवाथी स्वयं अशुद्ध छे. आवा अशुद्ध अने जाते ज अपूर्ण बीजाओने शी रीते शुद्ध करवाना हता?. तेम ज आजे कोइ मासिक, चतुर्मासिक के पंचमासिकादि जेवां प्रायश्चित्तो नथी लेता के नथी देता. एटले प्रायश्चित्तविधि, जेना विना व्यवहारचारित्र न ज संभवे, ते ज आजे लुप्त देखाय छे. तेथी व्यवहारचारित्रनो पक्षपात कर्या करवो एमां शी विशेषता छे ?.' समाधान. ___ समाधान करता उपाध्यायजी सौथी पहेलां केवळ निश्चयवादीने तेनी निश्चयविषेनी मान्यतामां पकडे छे. तेओ तेने कहे छे के तुं निश्चयथी ज फळसिद्धि कहे छे ते सत्य छे. पण निश्चयतुं खरं स्वरूप नथी समजतो. निश्चयना तथ्य स्वरूपमा व्यवहारनो पण|8 | समावेश थइ जाय छे. कारण के गौण-प्रधानभावे परस्पर सापेक्ष नयो स्वीकार्या सिवाय सम्यग्दृष्टि संभवे ज नहि. अधिकार के परिस्थितिने लीधे क्याइ निश्चय तो क्याइ व्यवहारर्नु प्राधान्य भले होय, पण तेमाए कोइ ने कोइ प्रकारे एकना विना बीजानो संभव ज नथी. एटले के निश्चयथी ज फळसिद्धि छे, ए सिद्धान्तने समजवामां ज खुबी रहेली छे. जो तेनो शब्दार्थ लेवामां आवे तो माणस सत्य चूके. पण तेनी पाछळ रहेलुं हेतु ( कारण ), स्वरूप अने अनुबंध (परिणाम )नुं बधुं तत्त्व विचारे, तो ते ए ज सिद्धा-1 न्तमा व्यवहारतुं पण दर्शन करे, गुरुत.३ Jain Education Intem For Private Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टुंकामां ग्रन्थ वस्त. ॥१३॥ हेतु, स्वरूप अने अनुबंध ए त्रणेनो विचार पण तेओए प्रसंगे करी दीधो छ जे जाणवा जेवो छ विशुद्ध क्रिया करता तेना कर्त्तानुं आळस दूर थाय छे, अने आळस दूर थवाथी तेनो सद्व्यवहार प्रत्येनो अणगमो पण चाल्यो जाय छे. तेम ज विशुद्ध क्रियामा मन लागवाथी अनेक अशुभ आलंबनों पण सामेथी खसी जाय छे. आ कारणथी एवी विशुद्ध क्रिया ज अनुभवात्मक ज्ञान अने आत्मस्थिरतारूप निश्चयनुं कारण छे. आलंबन एकाग्र होवु ए निश्चयर्नु स्वरूप छे. कारण ज्ञानात्मक निश्चय मात्र भावमा ज ( तात्त्विक स्वरूपमा ज) प्रवर्ते छे. अने ध्यानादिप्रवृत्तिरूप निश्चय मात्र आत्माना ज विषयमा प्रवते छे. भी अनुबंध एटले उत्तरोत्तर शुभ परिणामना प्रवाहने टूटवा न देतां चालु राखवो ते. आ उपरांत पोतपोताना दर्शनना आग्रह है टू विनानी सहजमाध्यस्थ्यपरिणतिरूप समापत्ति, जे चंदनना सुगंध जेवी सर्वने हितावह होय छे. ते निश्चयर्नु ज परिणाम छे. सारांश एछे, के जेम व्यवहार यथार्थज्ञानपूर्वक होवाने लीधे ज हेतु, स्वरूप अने अनुबंधथी शुद्ध होइ शके, तेम निश्चय पण सद्व्यवहारनोद विरोधी न होय तो ज हेतु, स्वरूप अने अनुबंधथी शुद्ध होइ शके. जे व्यवहार पोताना प्रदेशमा शक्ति न गोपवतां तेनो दृढ पक्षपात राखी निश्चयर्नु बहुमान करे छे ते व्यवहार निश्चयनी 3 नजीक ज (निश्चयकार्यकारी ) छे. तेवी रीते निश्चयने बहाने शक्तिनुं गोपन करी व्यवहारनो बाध करवामां न आवे तो ज ते खरो निश्चय छे. कारण व्यावहारिक क्रियामां आळस करनार निश्चयतत्त्वनी नजीक जइ ज न शके. जेम दुध अने पाणी ए बे तत्त्व एवां मिश्रित छे के एकना अभावमा बीजानो अभाव नियमथी होय ज छे, तेम व्यवहार अने निश्चय ए बने परस्पर एवा मिश्रित छे के 18 ARCHASEANISABAR Jain Hustle For Private & Personal use only wivijainelibrary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है एकना अभावमां बीजानो सद्भाव होतो ज नथी. जो के आ बंने नय पोतपोतानी भूमिकामा प्रधान अने बीजानी भूमिकामा अप्र-16 धान होय छे. जेम के व्युत्थान (प्रवृत्ति) काळमां व्यवहारतुं प्राधान्य होय छे, एटले तेमां भावना, अनुप्रेक्षा आदि भाव होवा| पूछतां ध्यानरूप निश्चय नथी होतो; तेम ध्यानात्मक निश्चयदशामां पण व्युत्थानकालीन व्यवहार नथी होतो. छतां ते बन्ने पोतपो-18 ताना साध्यना निश्चित कारण छे ज. तात्पर्य ए छे के व्यवहार अने निश्चय पोतपोताना प्रदेशमा शुद्ध अने बळवान छे. एकबीजानीद | अपेक्षाए अशुद्ध के निर्बळ भले होय. पण तेथी तेनुं पोताना प्रदेशमां शुद्धत्व जतुं नथी. | ए रीते निश्चयनयनो तात्त्विक अर्थ समजावी निश्चयसाथे व्यवहार केवी रीते गर्भित छे, ते स्पष्ट करी उपाध्यायजी उपर सूचहैवेल शंकाओनुं अनुक्रमे नीचे प्रमाणे समाधान करे छ| (क) भरतनो दाखलो आपी केवळनिश्चयवादीए एम कडं के व्यवहार विना पण फळ मळे छे. अने प्रसन्नचन्द्रनो दाखलो | आपी एम कडं के व्यवहार छतां फळ नथी पण मळतुं. पण आनो खुलासो ए छे के भरतने व्यवहार विना केवळज्ञानलाभ थयो एवी घटना मात्र कादाचित्क ज होय छे, सार्वत्रिक अने सार्वदिक नथी होती. छतां ए घटनामां पण व्यवहारनो अभाव ज छ एमट मानवाने कशु कारण नथी. ते घटनामा व्यवहार जोवा वर्तमान जन्म छोडी पूर्व जन्म तरफ दृष्टि दोडाववी पडशे. भरत जेवा महानुभावोए पूर्व जन्ममां कोई ने कोइ प्रकारना सद्व्यवहारना परिशीलनथी योग्य संस्कारो एवा मेळवेला, के जेने लीधे तेओने वर्त्तमान जन्ममा बाह्य व्यवहारना सेवन विना ज मात्र भावनाना निमित्तथी ज गुणोनी वृद्धि अने पुष्टि थतां केवळज्ञानलाभ थयो. केवळज्ञान जेवां विशिष्ट कार्योनां कारणो काइ वर्तमान जन्मनी मर्यादाथी ज नियत्रित नथी होता. AAAAAE ASAHOROSESSIOISSA JainEducation international For Private Personal use only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्धर्नु REASS - टुंकामां प्रसन्नचंद्रनी घटनामां जो के (बाह्यकारणरूप) व्यवहार हतो, छतां तेमां ध्यानात्मक आंतर कारण न हतुं; एटले केवळज्ञा नना प्रत्ये जोइती कारणसामग्री न होवाथी केवळज्ञान न थाय एमां व्यवहारनी निष्फळता नहि पण सामग्रीनी ब्रुटी ज सिद्ध थाय | वस्तु. छे. कोइ पण कार्य अन्य कारणोना अभावमा मात्र एकाद कारणथी निष्पन्न नथी थतुं. तेमाटे तो सामग्री (समग्र कारणो) ज जोइए. | (ख) जेने निश्चय (ज्ञप्ति के अप्रमादात्मक प्रवृत्तिरूप गुण) प्राप्त थयो, तेने पण सद्व्यवहारतुं विधान एटलामाटे उपयोगी छे, के ते एवा विधानद्वारा पोते प्राप्त करेल गुणोनो प्रवाह सतत चालु राखी शके छे, तेमां विच्छेद आववा देतो नथी, अने उत्तरोत्तर वधारो पण करी शके छे. कोइ पण जातना पूर्व प्रयोगथी, चालता चक्रने ते बंध पड्या पहेलां, कुंभार फरी दंडथी वेग आपे छे, ए एटलामाटे नहि के अत्यारे तेनाथी चक्र चालु कर होय; चक्र तो चालु छे ज, छतां ते फरी फरी एटलामाटे वेग आपे छे, के तेथी वेगनी धारा सतत चालु रहे, अने उत्तरोत्तर वेग वधतो जाय. तेवी रीते अमुक निश्चयदशाए पहोंचेल मनुष्य जो बाह्य || सद्व्यवहारने सेवे तो तेनाथी तेना गुणोनुं सातत्य सचवाय, अने तेमां वृद्धि पण थाय, निश्चयनी अप्राप्तदशामां पण तेने प्राप्त करवा इच्छनार, ए ध्येयथी सद्व्यवहारतुं अनुष्ठान करे, तो तेवा अनुष्ठानद्वारा एने अनुक्रमे निश्चय जरूर प्राप्त थाय, कारण ए अनुष्ठानमा कर्त्तव्यनी स्मृति, अधिक गुणोनुं बहुमान, थएल भूलोनो भूलकरवाना वखत करतां वधारे तीव्र परिणामथी अनुताप, निष्कपटपणे स्वदोषोनुं निवेदन, परमकृपाळु परमात्माना विषयमा भक्ति, विशिष्ट गुणो मेळववानी वृत्ति इत्यादि भावोने लीधे, सन्यव हारतुं अनुष्ठान करता करतां निश्चय जरूर प्राप्त थाय छे. एटलुंज नहि पण एवा भावोने लीधे घणी वार कोइ मोहनी जाळमां | ॥१४॥ 15 पडतो पण बची जाय छे. तेथी निश्चय प्राप्त कयों होय के न कों होय पण सद्व्यवहार अनुष्ठान व्यर्थ नथी ज. AGARMER SER AAES JainEducation For Private Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) आजे गच्छाज्ञाओना भंगर्नु सर्वत्र साम्राज्य छे, प्रमादी लोको बहु छे, एम कही सद्व्यवहार त्यजवो ए तो नबळानी निशानी छे. धीर पुरुषोनो तो धर्म एवो छे, के ज्यारे तेओ शत्रुओर्नु मोटुं सैन्य जुए, त्यारे तेओ बेवडा बळथी झझूमे अने पाछा न हठेतेवी रीते कर्त्तव्यशील पुरुषोए सर्वत्र अंधाधुंधी जोइ, तेथी न हारता पूर्ण उत्साहपूर्वक अप्रमाद केळवी, प्रमादना राज्य | सामे लडq ज घटे. आ मार्ग कांई बायलानो नथी, के जेथी निरुत्साह थये चाले. एटले गच्छाज्ञाने तोडनाराओने जोइने हताश न थतां उलटुं तेवी स्थिति दूर करवा जाते ज अप्रमत्त थर्बु अने सद्व्यवहार स्वीकारवो. | चारित्र गमे तेटलु कोमळ होइ तेना अंशना खंडनथी सर्वाशन खंडन थतुं होय, तो पण तेथी डरवाने काइ कारण नथी. जो आन्तरिक विरति कायम होय, तो बाह्य प्रवृत्तिमां अमुक देखाती त्रुटि पण खरी त्रुटि नथी. अने जो आन्तरिक विरतिमां ज कांह | पण खलेल पहोंची, तो बाह्य प्रवृत्ति निर्दोष जणावा छतां पण ते निरर्थक ज छे. एटले के बाह्य प्रवृत्तिमा कोइ ने कोइ त्रुटि आवी ज जाय छे एबुं बहानुं काढी आंतरिक विरति प्राप्त करवा प्रयत्न न करवो ए योग्य नथी. कर्त्तव्यनिष्ठ माणस तो आंतरिक विरतिने ज| प्रयत्नपूर्वक केळवे अने कायम राखे. जो तेम थाय तो बाह्य प्रवृत्तिमा अनिवार्यरीते आवेल दोष क्षन्तव्य लेखाय. (घ) आजे कोइ गणनिक्षेपने योग्य पुरुष नथी ए कहे, पण ठीक नथी. संपूर्ण गुणोथी युक्त कोइ न होय छतां ओछामा ओछा मूळगुणोथी युक्त होय, तो ते जरूर भावगुरु होइ शके. क्षमा आदि केटलाक उत्तरगुणो न होवा छतां पंचमहाव्रतरूप मूळगुणो अखंड होय तो तेनामां चंडरुद्राचार्यनी पेंठे चारित्र मानी शकाय अने अखंड मूळगुणवाळा पुरुषो आजे पण दुर्लभ नथी ज. तेथी* गच्छपतिनी दुर्लभतानी दलील नकामी छे. JainEducation international For Private Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु. टुंकामां (उ) अनेक कल्पित सामाचारीओ अत्यारे देखाय छे खरी, पण शास्त्राचार लुप्त नथी थयो. आजे पण ते अखंडरीते चालती परम्परामां, जोनारने जडी आवशे.. (च) प्रथम जेवा विशेषज्ञ प्रायश्चित्त आपनार अने प्रथम जेवा ज धृतिसंयमसम्पन्न प्रायश्चित्त लेनार आजे नथी. एटलं खरं, छता प्रायश्चित्तनो छेक ज अभाव नथी. समयानुसार प्रायश्चित्त लेनार अने देनार बन्ने प्रत्यक्ष दीसे छे. समयानुसारी प्रायश्चित्तविधि ६ पण देखाय छे. तेम ज थोडी पण तेनी विधि जाणनार गीतार्थ निर्यापक दीसे छे. एथी व्यावहारिक चारित्रनो पक्षपात छोडवो ए योग्य नथी. का वस्तुविशारद उपाध्यायजी पोताना वक्तव्यने स्पष्ट करवा जगोए जगोए आगमप्रसिद्ध दृष्टान्तो (उपमाओ)नो उपयोग करे* . आ उपमाओ भावपूर्ण होइ बौद्ध पिटकमांनी मनोरम उपमाओनी याद आपे छे. तेमांनी केटलीक आपणे अहीं नमूनारूपे जोइए.15 | मूळगुणना अतिचारदोषथी अने उत्तरगुणना अतिचारदोषथी थता चारित्रनाशमां शो तफावत छ ए बताववा उपाध्यायजीए मशक, गाडं अने मंडपना दाखला आप्या छे. तेओ कहे छे के-एक मशक जेने पांच मोटो द्वारो होय, तेमांनु एक पण द्वार खुल्लु रहे, तो तेमां रहेलु बधुं जळ एकदम नीकळी जाय. ते बधां द्वारो बंध होय अने मात्र कोइ नानु कापुंज पड्यु होय, तो ते द्वारा दिपाणी नीकळे, पण ते धीरे धीरे. तेवी रीते पांचमांनो एक पण मूळगुण खंडित थाय तो चारित्ररूप जळ तत्काळ चाल्युं जाय. पण जो एकाद उत्तरगुणमां खामी आवे, तो ते खामी वधता वधतां चारित्रनो नाश काळान्तरे थाय. गाडीनो दाखलो एम समजवानो छे के-गाडीने अनेक अंगो होय छे. तेमां बे चक्र, बे उध अने एक धरी ए पांच अंगो SHORTSGRESOS Jain Educa For Private & Personal use only K Enelibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARNA ६ मुख्य अने बाकीनां गौण छे. जो बधां मुख्य अंगो अगर तेमांनु एक खंडित थाय, तो ते गाडी तरत च एवी बनी जाय, के जेथी ते न तो भार झीली शके अने न रस्ता उपर चाली शके. तेवी रीते जे साधुना बधा अगर एकाद मूळगुण नाश पामे तो ते साधु तत्काळ संयमनो भार उपाडवा अने आगळ प्रगति करवा अशक्त ज थइ जाय. तेथी उलटुं जेम गाडीना उक्त पांच सिवायनां बीजां अंगो खंडित थयां होय तो अमुक वखत सुधी गाडी काम आपे. परंतु जो ते भांगेल नानां अंगो पण सुधारी देवामां न आवे, तो छेवटे घसाता घसातां ते गाडी काम लायक न रहे. तेवी रीते कोइ एकाद उत्तरगुण खंडित थयो, तो संयमनो भार उपाडी शकाय, आगळ प्रगति पण थाय; छतां जो ते खंडित उत्तरगुणने पुनः अखंडित करी देवामां न आवे तो अनुक्रमे बधा उत्तरगुणो अने मूळगुणोनो ह्रास थतां थतां छेवटे ते साधु संयमनो भार उपाडवा अने आगळ प्रगति करवा अशक्त थाय. | एरंडाना जेवा पोचा लाकडाना मांडवा उपर अनुक्रमे एक एक अनाजनो दाणो फेंकवामां आवे, तो तेथी ते मंडप न भांगे ए| खरं, पण ते दाणाओनी संख्या क्रमे वधतां अमुक प्रमाणमा बोज थवाथी ते मंडप काळान्तरे तूटी ज जाय. तेथी उलटुं एकाद ज पत्थर ते उपर फेंक्यो होय, तो तेवो मंडप तुरत नाश पामे. तेवी रीते चारित्रना मंडप उपर जो एक पण मूळगुणना अतिचारनी शिला फेंकवामां आवे तो ते तरत ज भांगी जाय. पण जो उत्तरगुणना अतिचाररूप बे चार दाणा फेंकवामां आवे तो ते मंडप तत्काळ न तूटे ए खरं पण एवा अतिचारोनुं प्रमाण वधता ज काळान्तरे जरूर तूटी पडे. आ उपमाओ द्वारा एम बताववामां आव्युं छे के मूळगुणना अतिचारथी चारित्रनो नाश तुरत ज थाय छे अने उत्तरगुणना अतिचारथी काळान्तरे थाय छे. JainEduc a tional Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टुकामां ग्रन्धर्नु SACROMAXOSSAGE उत्तरगुणना प्रतिसेवनथी अनुक्रमे दोषनो संचय थतां थतां काळान्तरे सर्वथा चारित्रनो नाश थाय छे, ए वात समजाववा ४|बीजी पण चार भावपूर्ण उपमाओनो उपयोग करेलो छे. ते आ प्रमाणे नीकथी बगीचामा पाणी जतुं होय त्यारे बगीचो लीलो छम रहे छे. अचानक ते नीकमा एकाद तणखलु पड्युं, वळी क्यारे । क तेमां बीजा काइ कचरानो उमेरो थयो; आ वधता जता कचराने काढी नाखवामा न आवे तो क्यारेक एवो पण प्रसंग आवे, के| जे वखते कचराने लीधे नीकमां वहेतुं पाणी अटके अने बीजो मार्ग ले. परिणामे बगीचो सूकाइ जाय अने तेनी शोभा चाली जाय. तेवी रीते उत्तरगुणमा लागता दोषो न जेवा जणाया छतां तेनुं संशोधन प्रथमथी ज करवामां न आवे तो अनुक्रमे ते दोषो एवा वधी जाय, के जेथी संयमजळनी गति अटके अने चारित्रनो बगीचो सूकाइ सुंदरताहीन थइ जाय. गाईं होय के मंडप, ते उपर एक एक अनाजनो दाणो मूकवामां आवे तो ते दाणाओ अमुक वखतसुधी जरूर ते उपर समाता जाय. पण एरीते दाणा मूकवानो क्रम चालु ज रहे, तो क्यारेक एवो पण समय आवे के ज्यारे मूकाएला छेल्ला दाणाने लीधे ते गाडु के मांडवो भागी जाय; तेवी रीते एक एक उत्तरगुणनो अतिचार सूक्ष्म होइ तेनाथी चारित्रनो नाश तत्काळ न थाय. पण जो उत्तरगुणना अतिचारो अनुक्रमे वधता ज जाय, तो क्यारेक ते अतिचारोना भारथी चारित्ररूप गाडं के मंडप जरूर बेसी ज जाय. कोइ चोक्खा कपडा उपर तेलतुं बिंदु पड्यु, ने ते उपर धूळ लागवाथी तेटलो ज थोडो भाग मेलो थयो. बीजी वार बीजा भागमा डाघो पड्यो, त्रीजी वार त्रीजा भागमां; आ रीते पडता डाघाओने काढी, कपडाने स्वच्छ करी लेवामा न आवे तो क्यारेक AAAAACREASECRE inelibrary.org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते आखु कपडं तद्दन मेलु थइ जवानुं. ते प्रमाणे एक एक उत्तरगुणना अतिचारनी उपेक्षा करवामां आवे, तो तेवा अतिचारोनी वृद्धि थवाथी क्यारेक संपूर्णचारित्ररूप निर्मळ वस्त्र मलिन थइ ज जवानुं. ना शिष्ये कांइ भूल करी होय ते वखते गुरुए योग्यताप्रमाणे काइ पण प्रायश्चित्त आपबुं जोइए. छतां मोह के अज्ञानथी गुरु तेम न करे तो शिष्य अने गुरु बन्ने दोषभागी थाय छे, अने संसारचक्रमां पडे छे. तेथी उलटुं जे गुरु शिष्यनी भूल सुधारी पोतानी फरज अदा करे छे, ते गुरु अने शिष्य बन्ने सुखी थाय छे. आ वात समजाववा उपाध्यायजीए एक रमुजी दाखलानो उपयोग कर्यो । छ. ते आ प्रमाणे कोइ बाळक मानकरी भीने शरीरे बीजा कोइना तलना ढगलामा रमवा लाग्यो. भीनाशने लीधे तेना शरीर उपर थोडाक तल चोंट्या. ते जोइ तेनी माए ते तल खंखेरी लीधा. बाळकने रमत थइ अने लोभ वध्यो; तेथी फरी फरी ते भीने शरीरे ते तलना | | ढगलामां पडी आळोटवा लाग्यो. मा पण लालचवश थइ. बाळकने न रोकतां तल खंखेरी तेनी वृत्तिने उत्तेजन आपवा लागी. परि. राणामे आगळ जतां ए बाळक एक मोटो चोर थयो ने पकडायो. राजपुरुषोए तेनी चोरीचें मूळ तेनी बाळपणानी तलनी रमतमा अने तेनी माताना उत्तेजनमा जोयु; अने बन्नेने सख्त शिक्षा करी. ए शिक्षानुं दुःख ते बाळक अने माता बन्नेए भोगव्यु, तेवी रीते दमोह के अज्ञानने लीधे नानीशी भूलनुं प्रायश्चित्त कराववामां न आवे तो शिष्य क्यारेक मोटा दोष करतो थइ जाय, अने गुरु पण मोह अचे अज्ञाननी वृद्धिने लीधे दोषपात्र रहे ज. एटले परिणामे शिष्य अने गुरु बने कर्मना कटुक परिणाम, ते बाळक अने मातानी पेठे भोगवे. HOSSEISSAROSARI For Private & Personal use only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थy वस्तु टुंकामां बीजा दाखलामा एम छे, के बाळक भीने शरीरे तल लगाडी आव्यो, अने पहेली ज वार तेनी माताए जोयुं के तरत जट | तेणीए ते बाळकने धमकाव्यो, फरी तेम करवा ना पाडी, अने ते बाळकना शरीरे लागेला तल खंखेरी पाछा ढगलामां नाखी आवी. ॥१७॥ आथी बाळक चोरी करतां अटक्यो, अने तेथी ते पोते अने तेनी माता बन्ने प्रामाणिकपणाना माननुं सुख भोगवता थया. तेवी ज रीते गुरु चारित्रना अनुराग अने ज्ञानदृष्टिथी शिष्यने तेनी भूलनु प्रायश्चित्त करावे तो शिष्यनु हित थवा उपरांत गुरु पण सन्मा-16 अर्गना मधुर फळने अनुभवे. | जो के मूळगुणमा आवेलो दोष चारित्रनो नाशक होइ क्षन्तव्य नथी, छतां तेमांए एकान्त तो नथी ज. जगतना व्यवहारो अने प्रसंगोनी विविधता न कळी शकाय तेवी होय छे. अमुक वात एक दृष्टिए सर्वथा हेय होय छतां बीजी दृष्टिए अने बीजे प्रसंगे| क्यारेक क्यारेक उपादेय पण बने छे. मूळगुणनो अतिचार सर्वथा हेय छतां क्यारेक परिणामनी दृष्टिए सेववो पण पडे छे, अने| तेवु सेवन कर्या छतां पण ते दोष सेवनार शुद्ध रहे छे अने गणाय छे. एटलं खरं के आवो अपवादमार्ग क्या लागु पडे अगर |पाडवो जोइए ए जाणवामां बहु ज सावचेती राखवानी होय छे. अनेकान्त दृष्टिनी आ वस्तुस्थिति समजाववा उपाध्यायजीए 'मूळगुणनो अतिचार क्या दोषरूप नथी गणातो अने क्यां गणाय छे' ए समजाव्युं छे. तेओए कह्यं छे के पुष्टआलंबननिमित्ते मूळगुणमा अतिचार लाग्या छतां साधु शुद्ध रहे छे. अने आलंबन पुष्ट न होय तो तेवा अतिचारथी साधु पतित थइ जाय छे. पुष्ट अने अपुष्ट आलंबनने समजाववा तेओए का छे के जो अतिचारना सेवननुं परिणाम छेवटे रत्नत्रयनी रक्षा अने वृद्धिमा ज आवतुं होय तो पुष्ट आलंबन समजवू. अने जो कोइ मनकल्पित प्रसंगर्नु बहानुं करी अतिचारनु सेवन करवामां आवे तो त्या अपुष्ट आलंबन. ॥१७॥ Jain Educati o nal For Private Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ वस्तुने उपमाद्वारा समजावतां तेओ कहे छे के कूवामां पडतो कोइ माणस घास के तेवी कोइ बीजी पोची वस्तु पकडी18 बचवा इच्छे तो ते कदी न बची शके. पण मजबूत दोरी के तेवी बीजी वस्तु पकडी राखे तो खातरी थी ते बचे. तेम अपुष्ट आलंबननिमित्ते जो कोइ मूळगुणमा अतिचार सेववानुं साहस करे तो ते जरूर पतित थाय. अने पुष्ट आलंबननिमित्ते अतिचार सेवे तो ते पतित न ज थाय. जेम कोइ पैसादार अमुक पुंजी रोकी व्यापार करवा मांडे त्यारे योजनाप्रमाणे भविष्यत्मां मोटा लाभनी आशाथी ते पोतानी मूळगी पुंजीमांथी नोकरोनो दुकानभाडानो विगेरे घणो खर्च करे छे. छतां तेनो करेलो ते खर्च हेतुःपुरस्सर होवाथी भविष्यत्मा लाभर्नु कारण बने छे. तेम कोइ खास लाभनी संभावनाथी सेववामां आवेलो मूळगुणनो अतिचार पण दोषरूप न थतां लाभमां ज परिणमे छे. तेथी उलटुं कोइ धनिक पोतानी मूळगी पुंजीने गमे तेवा स्वच्छंदी मार्गोमां खर्चे तो तेने फायदोडू थवो तो दूर रह्यो, मूळगी पुंजी पण तद्दन नाश पामे. तेवी रीते कोइ साधु मनकल्पित बहार्नु काढी मूळगुणना अतिचारो सेवे तो तेने भविष्यत्मा हानि थाय, ते उपरांत पोतानुं प्रथम प्राप्त करेल चारित्र पण नाश पामे. आ प्रमाणे उपाध्यायजीए दाखलादलीलो सहित व्यवहारनिश्चयनुं स्वरूप वर्णववामा ज प्रथम उल्लासनी समाप्ति करी छे. द्वितीय उल्लास. बीजा उल्लासना आरंभमां ज गुरुनु लक्षण करतां उपाध्यायजी कहे छे के जे साधुना शुद्ध आचारने जाणे छे, प्ररूपे छे अने 8 स्वयं तेनुं पालन करे छे तेने ज गुरुना गुणथी युक्त होइ गुरु जाणवो. त्यार बाद व्यवहारतुं निरूपण करतां उपाध्यायजी कहे छे के Jain Education For Private Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टुंकामां SACROR वस्तु. ॥१८॥ 18 जेम ज्ञानना निरूपणमा ज्ञानी अने ज्ञेय ए बन्नेनुं निरूपण आवश्यक छ, तेम व्यवहारतुं स्वरूप बताववामां व्यवहारी (व्यवहारकर्ता)[81 ग्रन्थy अने व्यवहर्त्तव्य (व्यवहारन्ते विषय ) ए बन्नेनुं स्वरूप बतावq पण जरूरी छे, आम कही तेओ अनुक्रमे व्यवहार, व्यवहारी अने व्यवहर्त्तव्यनुं स्वरूप वर्णवे छे. (क) व्यवहार-व्यवहारना अहीं बे अर्थ छे. १ योग्यतानो विचार करी शास्त्रोक्तरीते तप आदि अनुष्ठान आपी अतिचार दूर करवा अर्थात् प्रायश्चित्त आपq ए व्यवहार, २ कोइ पण एक वस्तु प्राप्त करवा ज्यारे बे जणमा विवाद उभो थाय अने तेओ है चुकादामाटे गुरुपासे आवे त्यारे गुरु शास्त्रीय दृष्टिए जेने जे वस्तु मळवी घटे ते वस्तु बीजा पासेथी लइ तेने आपे ए व्यवहार. अर्थात् मध्यस्थतरीके गुरुए शास्त्रानुसार आपेल चुकादो के न्याय, (ख) व्यवहारी-जे गुरुओ प्रियधर्म, दृढधर्म, पापभीरु, सूत्रार्थादिज्ञाता होइ निष्पक्षपातपणे व्यवहार करे ते व्यवहारी कहेवाय छे. | (ग) व्यवहर्त्तव्य-जे दोषपात्र होवाथी प्रायश्चित्तनो अधिकारी होय ते व्यवहर्त्तव्य, तेम ज जेओ विवादना चुकादामाटे गुरुनो प्रमाणतरीके आश्रय ले तेओ पण व्यवहर्त्तव्य.. आ प्रमाणे त्रणेनुं स्वरूप बतावी उपाध्यायजीए आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीत एम व्यवहारना पांच प्रकारो वर्णव्या8॥१८॥ छे. आ प्रत्येक प्रकारना संबंधमां तेओए घणुंज शास्त्रीय तत्त्व व्यवस्थित रीते आलेखेलु छे, जे ते विषयना जिज्ञासुओर्नु खास ध्यान For Private Personal Use Only SUSUGAUSAMSUNGAR E CASSES Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेंचे अने मनस्तर्पण करे तेवु छे. त्यार पछी व्यवहारीना वर्णनमा प्रन्थनो पुष्कळ भाग रोकी तेनो दरेकरीते विचार कयों छे. अने छेवटे व्यवहर्तव्यना संबंधमां पण विस्तृत चर्चा करी छे जे अहीं आपवी कठण छे. तृतीय उल्लास. त्रीजा उल्लासना प्रारंभमा उपाध्यायजी गुरुविषयक चतुर्भगी बतावी कहे छे के अमुक प्रकारनो गुरु त्याज्य अने अमुक प्रकारनो गुरु अत्याज्य छे. ते चतुर्भगी जाणवा जेवी छे. १ वस्त्रपात्रादि साधन पूरं पाडनार अने संयममा सीदाताने सारणा न करनार एवो इहलोकहितकारी छतां परलोकहितकारी नहि. २ वरपात्रादि साधन पूरुं न पाडनार अने प्रमादमा पडताने सारणा आदिथी सावध करनार एवो इहलोकहितकारी नहि छतां परलोकहितकारी. ३ इहलोकहितकारी तथा परलोकहितकारी. ४ इहलोकहितकारी ए नहि अने परलोकहितकारी ए नहि. आवा चार प्रकारना गुरुओमांथी बीजा अने त्रीजा प्रकारना गुरुओनी संगति कोइ पण रीते छोडवी न घटे. खास करी त्रीजा प्रकारना गुरुनी संगति तो शिष्यमाटे अत्यंत हितावह होवाथी तेनुं महत्त्व बताववामां आव्युं छे. 15 चतुर्भगीना वर्णन पछी उपसंपद् लेवानी एटले गच्छान्तर करवानी परिपाटीनुं बहु ज विस्तृत अने व्यवस्थासूचक वर्णन छे. एक साधु ज्ञान, दर्शन के चारित्रनी वृद्धिनिमित्ते उत्सर्गथी पोताना गुरुने पुछीने के अपवादे वगर पुछथे पण सकारण गच्छान्तर खीकारे अर्थात् बीजानो मर्यादापूर्वक गुरुतरीके आश्रय ले ए उपसंपदू कहेवाय छे. ज्ञाननिमित्ते दर्शननिमित्ते अने चारित्रनिमित्चे गुस्त . For Private Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थy वस्तु टुंकामां गच्छान्तर केम स्वीकारखो एना संबंधमां बहु ज विगतवार बारीकीथी वर्णन कर्यु छे. जेमां जैनसंघना खास करी साधुसंघना है 18| विशिष्ट अने व्यवस्थित बंधारणनो इतिहास समायलो छे. ॥१९॥ ___उपसंपतूना प्रकरणमा घणी ए वातो असाधारण महत्त्वथी भरेली छे, ए तेना अभ्यासथी ज खरी रीते जाणी शकाय. छतां 8 तेमांनी एकाद वात अहीं नोंधवामां आवे छे. गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्याय आदि महान् पदउपर प्रतिष्ठित पुरुषोए पण धर्म अने विनय एटले के ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी वृद्धिने माटे गच्छांतरमा रहेल विशिष्ट ज्ञानादिगुणोथी युक्त आचार्यपासे उपसंपत् स्वीकारवी. अने तेम करवा पहेला तेओए | पोताना गच्छमांनी योग्य व्यक्ति उपर पोतपोताना पदनो भार आरोपीने अने तेमनी एटले नवीन आचार्यादिकनी आज्ञा के अनुमति लइने ज उपसंपत् स्वीकारवी जोइए, उपसंपत् स्वीकारतां पहेला तेओए आ वात खास ध्यानमा राखवी जोइए के-जे आचार्या-18 |दिकनी पासे उपसंपत् स्वीकारवा धार्यु छे त्यां तेमने सविशेष धर्म अने विनयनी प्राप्ति थवी शक्य होवी ज जोइए. पोताना पदपर प्रस्थापित नवीन आचार्यादिनी आज्ञा लेवामां तेमनो उद्देश ए ज छे के-पोताना अन्य शिष्य-प्रशिष्यो पोतानी जेम ते नवीन आचार्यादिनो यथायोग्य विनय, बहुमान आदि करे, अने ते द्वारा तेओ ते नवीन आचार्यादिकनी पासेथी| उत्तरोत्तर धर्म अने विनयनी वधारे ने वधारे प्राप्ति करे. गणावच्छेदक, आचार्य अने उपाध्याय जेवा पदधरोने पण पोतानुं पद छोडी साधारण साधु तरीके बीजार्नु शिष्यत्व स्वीकार ॥१९॥ nelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दावानी आ उदार योजना जैनशासनमा रहेल धर्म अने विनयनी महत्ताने सूचवे छे. धर्म अने विनयनी प्राप्ति तथा वृद्धिमाटे बीजें बधुं जतुं करवानी उदार आज्ञामां गुणोनी कीमतनुं भान थाय छे. गणावच्छेदक, आचार्य अने उपाध्याय जेवा पधरोने खास कारणवश उपसंपत् लेवी पडे त्यारे तेओए शुं शुं करवं एनुं शास्त्रीय वर्णन साधुसंघना बंधारणनी पाछळ रहेली दीर्घदर्शिता, व्यवहारकुशळता अने सूक्ष्म चातुरीनुं भान करावे छे. उपर ए कहेवामां आव्यु के बीजा अने त्रीजा प्रकारना गुरुओनी संगति कोइ पण रीते छोडवी न घटे अर्थात् प्रथम अने| चतुर्थ भंगवी गुरुओ कुगुरु होइ तेमनो सर्वथा त्याग करवो जोइए. आ कुगुरुओना,-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त अने यथाच्छन्द ए प्रमाणे,-पांच प्रकारचें विस्तृत वर्णन ते विषयना खास जुदा प्रकरणर्नु भान करावे छे. MI पार्श्वस्थादि पांच, छठो नित्यवासी एटले खास कारण सिवाय पौद्गलिक सुखोनी लालसाथी एक ज स्थानमा नित्य वसनार अने ए छथी भिन्न संविग्न पण काथिक आदि चार होय तो तेवाओ अवंदनीय होइ तेमने वांदवा अने प्रशंसवामां शा शा दोषो| दारहेला छे ए बताववा साथे वंदन करावनार तेवा कुगुरुओ पण केवा दोषभागी थाय छे ते बताववामां आव्युं छे. काथिक, दार्शनिक-प्रानिक, मामक अने संप्रसारक ए चार प्रकारना त्याज्य संविग्न गुरुओनां लक्षणो जाणवा जेवां छे४१ जे स्वाध्याय आदि कर्त्तव्य योगोने छोडी धर्मकथा अगर देशकाळनी कथा केवळ आजीविका, पूजा प्रतिष्ठा आदि पौगलिक लालसाखातर करे ते काथिक. २ जे लोकोमां, नटनाटकोमा फरी तमाशा जोया करे अने कोइ गृहस्थोने तेओना व्यवहारमा पडी तेओना प्रभोनुं निराकरण कर्या करे ते दार्शनिक अथवा तो प्रानिक, ३ जे उपकरणोमां एटलो बधो आसक्त होय के दरेक वखते ARC HICS JainEducation International For Private Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम ॥ २० ॥ बीजाने एम कह्या करे के मारुं आ उपकरण न लेबुं, न वापखुं इत्यादि अने तेनी ज ममतामां फलेलो रहे ते मामक. ४ आवाह विवाह, निष्क्रमणप्रवेश, क्रय विक्रय आदि असंयत कार्योंमां गृहस्थोने पुछये के वगर पुछये विधि निषेध करे अने कहे के 'अमुक न करवुं, अमुक मारा कह्या प्रमाणे करो तेथी फायदो थशे' ते संप्रसारक. चतुर्थ उल्ला सेवाकरयोग्य सुगुरुनुं स्वरूप बताववा उपाध्यायजीए पुलाक, बकुश, कुशील, निर्बंथ अने स्नातक ए पांच प्रकारना भगवती अंगवर्णित निर्मन्थोनुं वर्णन आप्युं छे. आ वर्णन छत्रीस द्वारमां वहेंचायतुं होइ तेनाथी ज ए उल्लासनो मोटो भाग रोकाएलो छे. ए पांच निर्मथोनां लक्षणो तेओना भेद-प्रभेदो अने ए अवान्तर भेद-प्रभेदोनां लक्षणो विगेरे एटलुं बधुं विस्तार ने स्पष्टतापूर्वक आपलं छे के ते भाग एक खास प्रकरण बनी गयुं छे. पुलाकादि पांच प्रकारना निर्मथो तरतमभावे भावगुरु होइ सुगुरु छे ज. पण ते उपरांत जेओ संविग्नपाक्षिक अर्थात् शुद्धचारिमार्गाराधक भावगुरु न होवा छतां शुद्धप्ररूपक होइ भावगुरुत्वनी सम्मुख प्रवृत्तित्वाळा द्रव्यनिग्रंथ छे तेओ पण गुरुपदने लायक छे. आ ते गुरुतत्त्वविनिश्चय नामनो आ ग्रंथ गुरुनी परीक्षाना प्रकरणमां ज सार्थकभावे समाप्त थाय छे. 180001 : मन्थनुं वस्तु. ॥ २० ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्वविनिश्चयनो विषयानुक्रम. गाथा विषय सम्पादकीय वक्तव्य. ग्रन्थपरिचय, कर्त्तानो परिचय. टुंकमां ग्रन्थy वस्तु. गुरुतत्त्वविनिश्चयनो विषयानुक्रम. शुद्धिपत्रम् प्रथम उल्लास. १ मंगल अभिधेय प्रयोजनादि. २-१० गुरुर्नु माहात्म्य. पत्र. गाथा विषय २-१ । ११ गुरुकुलवासनुं समर्थन. | १२-१४ भावनिक्षेपनुं प्राधान्य अने तेमाटे भावगु९-१ रुनो स्वीकार. १५ शुद्ध अने अशुद्ध भावगुरुना नामस्थापनादि ११-१ अनुक्रमे शुद्ध अने अशुद्ध भावनां कारण. २१-१ १६ व्यवहार आश्री भावगुरुना गुणाधिकपणाथी २८-२ ध्याताना शुभ भावनी अधिकता अने निश्चयथी तेनी अनिश्चिततानुं प्रदर्शन. १७ व्यवहार अने निश्चय आश्री अनेक गुरुओनी पूजानो स्वीकार अने अस्वीकार. Jain Estoniemi For Private & Personal use only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र. विषयानक्रमणिका. गुरुतत्त्वगाथा विषय पत्र. गाथा विषय विनिश्चयः 181१८-३४ केवळनिश्चयवादीनो पूर्वपक्ष. ५-१० २५-२६. ग. एक पण शीलांगना भंगथी अढार हजार शीलांगरूप चारित्रनो सर्वथा नाश थतो होइ १८-१९ १ केवळनिश्चयवादीए करेल निश्चयनुं व्यवस्थापन.५-२ ॥२१॥ चारित्रना पालननी अशक्यता. अने महानिशीथमा २० २ निश्चय अने व्यवहारतुं अनुक्रमे शुद्धाशुद्धपणुं. ५-२ कहेल मिथ्यादृष्टिपणानी उपपत्ति. २१ ३ भरत अने प्रसन्नचन्द्रराजर्षिना दृष्टान्तद्वारा २७-२८. घ. क्रम विना अर्थात् देशविरतिनी प्राप्ति, व्यवहारनी निरुपयोगितार्नु प्रदर्शन, प्रतिमाओर्नु पालन आदि क्रम विना चारित्रनो स्वीकार २२ ४ निश्चयनी प्राप्त के अप्राप्त एम उभय दशामां करातो होवाथी चारित्रना पालननी अशक्यता. व्यवहारनी निरुपयोगिता. २९-३०६ लक्षणयुक्त व्यवहगना अभाव व्यवहारनो २३-२८ ५ चारित्रना पालननी अशक्यताद्वारा व्यवहा अभाव. व्यवहारीनां लक्षणो. रना निष्फळपणानी सिद्धि. ६-२ | ३१-३३ ७ सत्यव्यवहारविच्छेदनां कारणो. २३. क. चारित्रना पालननी अशक्यता होवाथी तेना क. सांप्रतकालीन व्यवहारनी अनेकविधता. पक्षपातमात्रनी युक्तता. ख. वर्तमान काळमां चारित्रनी शुद्धिनो अभाव, २४. ख. गच्छाज्ञाभंगनी अधिकताने लीधे चारि ग. वर्तमान काळमां प्रायश्चित्तनो विच्छेद. बना पालननी अशक्यता. घ. वर्तमान काळमां निर्यापकनो विच्छेद. ८-२ ॥२१॥ JainEduca For Private & Personal use only NEnelibrary.org Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पत्र. विषय पत्र. ३४ ८ निश्चयवादीनो फलितार्थ. १०-२ दर्शनज्ञानरूप वर्तमान शासन-तीर्थ. ३५ निश्चयवादीनो उपसंहार अने सिद्धान्तीनी प्रतिज्ञा १०-२ ३६-२०६ सिद्धान्तीनो उत्तरपक्ष. १०-५३ ३६-५५ १ केवळनिश्चयवादीनी निश्चयविषयक मान्यतामा दूषण, ३६-३७ व्यवहार विना निश्चयनो अभाव. ३८-४३ शुद्ध निश्चयर्नु स्वरूप. ४४-४५ पोत पोताना विषयमा निश्चय अने व्यवहारनी एकसरखी शुद्धता. ४६-५० केवळ निश्चयनी शुद्धतानो निषेध भने व्यवहारनी शुद्धतामाटे पक्षपात. (बुद्धिने आश्री शिध्यना व्रण प्रकार.) ५. व्यवहार अने निश्चयनी समानता. ५२ प्रमाण, नय अने दुर्नयनी व्याख्या. टीकामां-मलयगिरिकृत प्रमाण -नयनी व्याख्या. दिगम्बराचाीय प्रमाण-नयविषयक गाथा विषय व्याख्या अने तेनी समालोचना. ५३-५५ केवळनिश्च यना बळवानपणानो निषेध ५६-५७ २ निश्चयनी जेम व्यवहारनी उत्तरोत्तर शुद्धता. १८-२ ५८-६४ ३ भरतादिना दृष्टान्तद्वारा बतावेल व्यव. हारनी निष्फळतानो निरास. १९-२ ६५-७७ ४ निश्चयनी प्राप्त अने अप्राप्त एम बन्ने दशामां व्यवहारनी उपयोगितार्नु समर्थन. २१-१ ७८-१५१ ५ चारित्रना पालननी अशक्यताना निरासद्वारा व्यवहारनी सिद्धि. २४-१ ७८-७९ क. चारित्रना पालननी अशक्यता बतावी तेना पक्षपातमात्रनी युक्तता माननारने प्रत्युत्तर. ८०-१२७ ख. गच्छाज्ञाभंगनी अधिकताने लीधे चारित्रना पालननी अशक्यतानुं समर्थन करनारने उत्तर. ForPrivate LPersonal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व गाथा पत्र. पत्र. विषयानु विनिश्चयः क्रमणिका. ॥ २२॥ SACROSALURUSONG विषय ८१-९२ मूलगुण अने उत्तरगुणमा प्रमादवश अतिचारो लागवा छतां भावविशुद्धिथी दोषाभाव मानेलो होइ नोदके प्रतिपादन करेल संयमना पालननी अशक्यतानो अने तेना अभावनो निषेध, तथा ते उपर व्यवहारभाष्यनी साक्षी. ९३ मशक गाडं मंडप-सर्षप आदिनां दृष्टान्तोद्वारा मूलगुण अने उत्तरगुणविषयक प्रतिसेवनाथी थता चारित्रना नाशना तारतम्यनुं प्रदर्शन. ९४ उत्तरगुणो. ९५-९९ असंयमस्थानो भने तेनी उत्पत्तिनां कारणो. १००-८ छेदप्रायश्चित्त पर्यंत चारित्रर्नु अखंडपणुं. तेमाटे आक्षेपपरिहार तथा शर्कराकूटर्नु दृष्टान्त. १०९-१२ मूलगुण तथा उत्तरगुणनी विराधनाद्वारा तत्काळ अने लांबे काळे थती चारित्रनी विराधनानु शर्करासर्षप-गाडं मंडप वस्त्रआदि दृष्टान्तोद्वारा प्रदर्शन. ११३-२७ अवन्दनीय पार्श्वस्थादिनां लक्षणो. तथा साम्प्रतकालीन साधुओमां वक्र अने जडपणुं होवा छतां पण गीतार्थगुरुनिश्चित होइ चारित्रना पालननी योग्यता अने ते कारणे चारित्रनो सद्भाव. गाथा विषय १२८-४५ ग. नोदके जे एम कपुछे के 'एक पण शीलांगनी विराधनाथी चारित्रनो सर्वथा नाश थतो होवाथी तेना पालननी अशक्यता छेतेनो परिहार. १३४-४५ संयमश्रेणिप्ररूपणा. ६४६-५१ घ. 'क्रम विना अर्थात् देशविरतिनी प्राप्ति, प्रतिमाओर्नु पालन आदि क्रम विना चारित्रनो स्वीकार कराय छे माटे चारित्रना पालननी अशक्यता छे' एम कहेनार नोदकने प्रत्युत्तर. १५२-७९ ६लक्षणयुक्त व्यवहर्ता सद्गुरुना अभावद्वारा बतावेल व्यवहारना अभावतुं व्यवहारभाष्योक्त दृष्टान्तो द्वारा प्रतिविधान. ४२-१ १८०-२०१ ७ नोदके निवेदन करेल सत्यव्यवहारविच्छेदनां कारणोनुं प्रतिविधान. ४८-१ १८.क.सांप्रतकालीन व्यवहारनी भनेक विध ASSESSORIAS ॥२२॥ Main Education International For Private & Personal use only ainelibrary.org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा विषय ताने लक्ष्यमा राखी 'सत्यव्यवहारनो सर्वधा विच्छेद थयो छे' एम माननारने उत्तर. १८१ ख. 'वर्त्तमान काळमां चारित्रनी शुद्धिनो अभाव है' एम कहेनारने प्रत्युत्तर. १८२ - २०० ग. 'वर्तमान काळमां प्रायश्चित्तनी परिपाटीनो विच्छेद थयो छे' एम कहेनारने उत्तर. २०१ घ. निर्यापको विच्छेद माननारने प्रत्युत्तर. २०२-६ ८ दर्शनज्ञानरूप तीर्थ माननारने दोषापत्ति. ५२-२ २०७-८ सिद्धान्तीनो उपसंहार. ५३-२ व्यवहारनी सिद्धि अने तेना श्रद्धाननो उपदेश. द्वितीय उल्लास पत्र. १ गुरुनुं लक्षण. व्यवहारने जाणनार, तेनी प्ररूपणा करनार भने तेनुं पालन करनार ए ज सद्गुरु ५५-१ गाथा विषय २ व्यवहारनी प्ररूपणामां आवश्यकीय व्यवहारी अने व्यवहर्त्तव्य ए वे अंगनो निर्देश. ३-५६ व्यवहारप्ररूपणा. ३ व्यवहारपदनुं निरुक्त अने निक्षेपो. ४ व्यवहारना पांच भेद अने नामो. ५- ११ आगमव्यवहारनी प्ररूपणा, तेना भेदो अने अधिकारी. १२ श्रुतव्यवहारनुं वर्णन. १३- २६ आज्ञाव्यवहारनुं वर्णन. दर्पना दश प्रकारो कल्पना चोवीस मेदो. दर्पकल्पयंत्र रचनानो विधि भने तेनी स्थापना तथा तेना भेदोनी संख्या. २७-३१ धारणाव्यवहारतुं वर्णन. पत्र. ५५-१ ५५-६७ ५५-२ ५६-१ ५६-१ ५७-२ ५७-२ ६२-२ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र. विषयानुक्रमणिका. गुरुतत्त्व- गाथा विषय पत्र. गाथा विषय विनिश्चयः३२-५४ जीतव्यवहार- स्वरूप. ६३-१ ६४-८५ लोकोत्तरभावव्यवहारिनो-सूत्रार्थज्ञातृत्वरूपजीतव्यवहारनी प्रवृत्तिमाटे नोदना-प्रतिनोदना. मुख्य गुण. ॥२३॥ जम्बूस्वामिसाथे ब्युच्छिन्न भावो. चतुर्दश पूर्वधरसाथे ६९ सूत्रार्थ नहि जाणनारने गच्छानुज्ञानो निषेध. व्युच्छिन्न भावो. कोण कया व्यवहारथी व्यवहार करे? टीकामां-तेवाने गच्छानुज्ञा करनारने तेमज तेवा जीतव्यवहारनी प्रवृत्ति क्यारे ? सावध अने असावद्य गच्छानुज्ञा धारनारने प्रायश्चित्त. ७०-७१ व्यवहारिनो एम जीतन्यवहारना बे प्रकार. द्रव्य-भावपरिवार. ७२-७५ केवळ निर्जराथै गण ५५-५६ पांच प्रकारना व्यवहार पैकी कयो सूत्रात्मक, धारणकरनारने पण लोकोए करेल पूजा-बहुमानादि कयो अर्थात्मक अने कयो उभयात्मक स्वीकारवानी अनुज्ञा. ७६-८५ निःशंकितपणे सूत्रार्थएनो विवेक. ज्ञातानुं ज भाव व्यवहारिपj ५७ व्यवहारप्ररूपणानो उपसंहार अने व्यवहारिना ८६-८८ सूत्रार्थज्ञाता पण मध्यस्थ होय तो ज भावव्यवर्णननो प्रारम्भ. वहारी नहि के मायामृषावादी. ७४-२ 1५८-१६४ व्यवहारिप्ररूपणा. ६८-८७ 1८९-९२ व्यवहारकर्ता सूत्रार्थज्ञ होवा छतां मायामृ५८-६० व्यवहारिपदना निक्षेपो. ६८-१ षावादी होय तो कार्याकार्यना व्यवहारने केवी६१-६३ लोकोत्तरभावव्यवहारीना गुणो. रीते बगाडे छे ते उपर कोई आचार्य- दृष्टान्त.७५-१ SCREGAOCALCULGADGURUCCC SSRAUSAHAAG ॥ २३ ॥ Jain IN For Private & Personal use only linelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र. ७५-२ भेदो. गाथा विषय पत्र. गाथा विषय दा९३-९६ व्यवहारज्ञने, संघसमवाय मळ्यो होय त्यां, १४०-४४ संघशब्दनी यथार्थव्युत्पत्ति अने तद्विपरीफरजियात हाजर रहेवानी आज्ञा हाजर न तना संघपणानो निषेध, रहे तो प्रायश्चित्त. १४५ व्यवहर्तानी मर्यादा. ८४-१ |९७-९९ अन्यायकारी दुर्व्यवहारिने क्षोभ पमाडवा माटे तेना दुर्व्यवहारनी मार्मिक संज्ञाओ. ७६-२ १४६-४७ व्यवहगना प्रशस्त अने अप्रशस्त एम बे १००-७ दुर्व्यवहारिना यथायोग्य पदवी अपहार आदि निग्रहना प्रकारो अने तेने अंगे आक्षेपपरिहार. ७७-१ । १४८-५७ तगरानगरीमा वसता एक आचार्यना सोळ १०८-३१ प्रबळ दुर्व्यवहारिनी पद्वीनो अपहार करती शिष्यो पैकी आठ अप्रशस्त-दुर्व्यवहारि शिवेळाए तेनो पक्ष तोडवामाटे निपुण व्यवहार. प्यनां तेमना व्यवहार उपरथी कल्पी लीधेला ज्ञनी वचनयुक्ति. ७९-१ नामो, तेमनां लक्षणो अने तेमने थतुं नुकशान. ८४-२| १३२-१३९ दुर्व्यवहारिनो निग्रह करवा पहेलां तेने १५८-६० उपर्युक्त आचार्यना ज आठ प्रशस्त भावव्यबोलावीने पुछगाछ करवानी तेम ज शांतिपूर्वक तेनुं कथन सांभळवानी व्यवहारकर्तानी वहारि शिष्यनां नामो अने तेमने थतो लाभ. ८६-१ फरज. ८२-१ । १६१ लोकोत्तर भावव्यवहारिनुं यथावस्थित लक्षण. ८६-२| lain Education International For Private & Personal use only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गुरुतत्त्वविनिश्चयः विषयानुक्रमणिका. १०७-१ ॥२४॥ गाथा पत्र. गाथा विषय पत्र. १६२-६४ संविनपाक्षिकना पण लोकोत्तरभावव्यव- २५७-६१ सुखदुःखाभवद्र्नु वर्णन. १०६-१ हारिपणानुं समर्थन. २६२-६६ मार्गाभवनुं वर्णन. १६५ व्यवहारिप्ररूपणानो उपसंहार अने व्यवहर्त्तव्य २६७-७० विनयाभवनुं वर्णन. १०८-१ प्ररूपणानो प्रारंभ. । २७१ आभवद्व्यवहर्त्तव्यनो उपसंहार प्रायश्चित्त१६६-३३४ व्यवहर्त्तव्यप्ररूपणा. ८७-१२६ व्यवहर्त्तव्यनो प्रारम्भ. १०८-२ १६६-६९ व्यवहर्त्तव्यपद निक्षेप, लोकोत्तरभावव्यव २७२ प्रायश्चित्तना निक्षेपो. १०९-१ हर्त्तव्यना गुणो अने तेनी चतुर्भगी. .८७-२ २७३-७६ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावप्रायश्चित्तनुं स्वरूप.१०९-१ | १७० लोकोत्तरभावव्यवहर्त्तव्यना आभवत् अने २७९-९१ कालप्रायश्चित्तनुं विस्तृत वर्णन, तेना ८१ प्रायश्चित्त एम बे प्रकार भेदो, तेनुं यंत्र अने प्रायश्चित्त देवाना प्रकार. ११०-१ १७१ आभवत्भावव्यवहर्त्तव्यना पांच भेदो, ८९-१ २९२-९३ तप अने काळने आश्री प्रायश्चित्तना गुरु १७२-८१ क्षेत्राभव→ स्वरूप अने मर्यादा. ८९-२ लघु भेदो. ११३-२ १८२-२४३ वर्तमानकाळनी क्षेत्राभवमर्यादा. ९१-१ | २९४ प्रायश्चित्तारोपणाना पांच प्रकार अने तेनुं २४४-५६ श्रुताभवद्नुं वर्णन. १०३-१ । खरूप. ॥२४॥ Main Education International For Private & Personal use only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AUCRGEOGREALREARCH गाथा विषय पत्र. | गाथा विषय २९५-९९ प्रायश्चित्तना अधिकारी पुरुषोना प्रकार. ११४-२ तृतीय उल्लास. | ३०० प्रायश्चित्त आपवानो विधि. -२ | १ मोक्षार्थीने सुगुरु नहि त्यागवानो उपदेश ३०१-१० व्यवहारयन्त्ररचनानो विधि अने यन्त्र. ११६-१ टीका-गुरुविषयक चतुर्भगी. १२८-१ ३११ जीतकल्पयनरचनानो विधि, अने यंत्र तथा २-४ सारणादि नहि करनार गुरुनी अयोग्यता. १२८-२ प्रायश्चित्तना नाम-लिपि-आपत्ति आदिनुं यंत्र. १२०-१ ५ स्वगच्छमां सारणादिने अभावे गच्छान्तरमा ३१२-२७ प्रायश्चित्तदानने अंगे नोदनाप्रतिनोदना. १२१-२ उपसम्पत् स्वीकारवानी अनुज्ञा अने तेनी ३२८-३४ प्रायश्चित्तलेनारनी योग्यता, प्रतिसेवानी परिपाटी-विधि कहेवानी प्रतिज्ञा. १२९-१ विचित्रता अने परिणामनी विभिन्नताने आश्री ६-६२ उपसम्पत्नी परिपाटी-विधि. १२९-१४८ प्रायश्चित्तनी विचित्रता. १२५-१ ६ उपसम्पत् स्वीकारवानां कारणो. १२९-१ ३३५ व्यवहारविषयक वक्तव्यनी परिसमाप्ति. १२६- २ ७-१९ भिक्षुने ज्ञानार्थे उपसम्पत् स्वीकारतां लागता ३३६-४३ व्यवहारवान् सुगुरुना माहात्म्यकथनद्वारा अतिचारो, तेनु प्रायश्चित्त, आक्षेप-परिहारो, व्यवहारना आदरनो उपदेश. १२७-१ । अने आभाव्यानाभाव्यनो विधि. १२९-२ *CASECRECRUGARCAUGUSARECRe गुरुत. ५ Main Estoniemen For Private Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व गाथा विनिश्चयः | विषयानुक्रमणिका. ॥२५॥ ACCESSOSMUSALUSA विषय पत्र. । गाथा विषय पत्र. २० भिक्षुने ज्ञानार्थे उपसम्पत् स्वीकारवानो उत्स- ३१-३२ भिक्षुने दर्शनमाटे उपसम्पत् स्वीकारवानो | गथी विधि. १३३-२ । विधि. २१-२२ उपसम्पत् स्वीकारता पहेला गुरुने पुछवानो . ३३ भिक्षुने चारित्रार्थे उपसम्पत् स्वीकारवानो | विधि. १३३-२ विधि. १३4 २३-२५ भिक्षुने ज्ञानार्थे उपसम्पत् स्वीकारवानो ३४ गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्यायादिने | अपवादथी विधि. १३४-१ ज्ञानादि निमित्ते उपसम्पत् स्वीकारवाना |२६-३० प्रतीच्छकाचार्य, मुख्य आचार्य देवगत थया विधिनी भलामण. १३९-१ पछी गच्छनी रक्षा करे त्यारे आभाव्यानाभा ३५-३६ भिक्षुणीने उपसम्पत् स्वीकारवानो विधि. १३९-२ व्यनो विभाग, प्रतीच्छकाचार्यने पूर्वाचार्यना गच्छमां अवश्य रहेवाना काळर्नु प्रमाण, मुख्य ३७-४४ भिक्षुने संभोगार्थे गणान्तरमा उपसम्पत् आचार्यना साधुओने तैयार करवानो विधि स्वीकारवानो विधि अने तेनी चतुर्भगी. १४०-१ अने ते प्रमाणे तैयार न थइ शके त्यारनो ४५ आचार्य उपाध्यायने संभोगादिनिमित्ते गच्छाविधि. १३५-१ न्तरमा उपसम्पत् स्वीकारवानो विधि. १४२-२ For Private & Personal use only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र. गाथा विषय पत्र. गाथा विषय ४६-४७ भिक्षुने आचार्योपाध्यायादिना उद्देशनार्थे ६३ उपसम्पत् परिपाटी, वर्णन कल्पग्रन्थानुसारे उपसम्पत् स्वीकारवानो विधि. १४३-१ होवानो निर्देश. कुगुरुना वर्जननो उपदेश. १४८-२ 1४८-५३ आचार्यादि अवसन्न होइ उद्यतविहारी न ६४-११९ कुगुरुनी प्ररूपणा. १४८-१६२ थाय त्यारे अन्याचार्यादिना उद्देशननो विधि ६४ कुगुरुना पार्श्वस्थादि पांच भेदो. १४८-२ अने मुख्य आचार्य ने समजाववाना प्रकारो, १४३-२, ६५-८३ पार्श्वस्थy स्वरूप. १४८-२ ५४ पार्श्वस्थादि दोषोथी रहित एवो संविग्नगीतार्थ ६५ पार्श्वस्थना देश अने सर्व एम के भेदो. सर्वपापण काथिक, दार्शनिक कहो के प्राश्निक, वस्थy लक्षण, ६६-७० शब्दार्थभेदथी पार्श्वस्थना पार्श्वस्थ, प्रास्वस्थ अने पाशस्थ एमत्रण मेदो. ७१ देशमामक अने संप्रसारक होय तेवाने उपसम्पन्न पार्श्वस्थनुं स्वरूप. ७२-८३ देशपार्श्वस्थनां शय्यातरथवाथी लागता दोषो अने प्रायश्चित्त. टीका पिण्ड आदि स्थानो अने तेनी व्याख्या. काथिका दिनां स्पष्ट लक्षणो. १४५- १ ८४-८६ अवसन्ननुं स्वरूप, तेना भेद अने तेनां 51५५-६२ आचार्यादि गृहस्थ थइ गया होय के देवगत स्थानो. १५३-१ थया होय त्यारे अन्याचार्यादिना उद्देशननो ८७-९५ कुशीलनु स्वरूप, भेद आदि. १५४-१ विधि. १४६-२ ९६-९८ संसक्तनुं स्वरूप. १५६-१ GACCORRECOGNOROCESS in Education For Private & Personal use only Bry.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र गुरु तत्त्वविनिश्चयः COCONUARUCRECORRECRUGGLE SAHITraमा गाथा विषय पत्र. ९९-११९ यथाच्छंदनुं स्वरूप. १५६-२ ९९-१०१ यथाच्छंदतुं लक्षण, तेना एकार्थको भने उत्सूत्रनो अर्थ. १०२-३ उत्सूत्रना बे प्रकारो. १०४११. चरणोत्सूत्रनुं स्वरूप. ११-१२ गत्युत्सूत्रनुं स्वरूप. ११३-१९ अन्य उत्सूत्रनो मां ज समावेश ___ आदि. १२०-२१ पार्श्वस्थादिने वन्दनादि करवाथी लागता दोषो. ___ १६२-२ १२२-२३ गुणाधिकने वन्दनादि करतां निषेध नहि ____ करनार पार्श्वस्थादिने लागता दोषो १६३- १ १२४ खास कारण विना पार्श्वस्थादिनो सत्कार आदि करनारने प्रायश्चित्त. १६३-२ १२५ पार्श्वस्थादिना संसर्गथी सुविहितोनी अवन्दनी यता ते उपर अशुचिस्थानमा पडीगएल चम्प गाथा विषय | विषयानुकनी माळा अने नीच कुळना प्रसंगमा आवता क्रमणिका. ब्राह्मणपुत्रोनुं दृष्टान्त. १६४-१ १२८-३२ पार्श्वस्थादिना संसर्गथी लागता दोषोनुं सोदाहरण प्रदर्शन १३३-४४ वन्दनीयता लिङ्गनी ज होवी जोइए, सुविहितपणानी नहि कारण छद्मस्थो अन्यना हृदयगत भावोने यथावस्थित जाणी शके नहि' ए उपर शिष्याचार्यनी प्रश्नोत्तरी. १६६-१ १४५-५४ अपवादी पार्श्वस्थादिनी पण वन्दनीयता. तेमने क्या, क्यारे अने कइ रीते वन्दनादि करवू जोइए तेनुं प्रदर्शन. १६९-२ १५५ सकारण पार्श्वस्थादिने वन्दनादि नहि करनारने लागता दोषो. १७१-२131 ॥२६॥ Jain Education interational For Private & Personal use only V inelibrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा विषय COCOMSACARDOGANSACREAM १५६-५९ पार्श्वस्थादिने वन्दनादि करवानां उपस्थित कारणोनो निर्देश अने तेनी व्याख्या. १७१-२ १६०-८८ वन्दनविषयक शिष्याचार्यनी नोदना प्रतिनोदनाद्वारा छेवटे कुगुरुना त्यागनो अने सुगुरुनी सेवानो उपदेश. चतुर्थ उल्लास. १-२ निग्रंथपदनुं निरुक्त. दश प्रकारना बाह्य अने चउद प्रकारना अभ्यन्तर ग्रंथनु स्वरूप. निम्र थोनुं स्वरूप कहेवामाटेनी प्रतिज्ञा. १७९-२ १३-१५२ पश्च निग्रंथोनी प्ररूपणा. १८०-२१५ ३-५ पञ्चनिर्ग्रन्थोनी प्ररूपणानां ३६ द्वारो. (द्वारगाथा). १८०- २ गाथा विषय पत्र. ६-४७ १ प्रज्ञापनाद्वार. .१८०-१८६ ६ निथना मुख्य भेदो. ७-१२ पुलाकर्नु स्वरूप, तेना भेद-प्रभेदो अने ते माटे मतान्तर. १३-२७ बकुगर्नु स्वरूप, तेना भेद-प्रभेदो, आक्षेप-परिहारादि. २८ -३२ कुशीलनुं स्वरूप, भेद-प्रभेद, मतान्तर आदि.३३ -३६ निग्रंथ नामना निपँथर्नु स्वरूप, भेद-प्रभेदो. ३७ -४७ सातकर्नु स्वरूप, भेद-प्रभेदो, मतान्तर, आक्षेप परिहारादि. ४८-४९ २ वेदद्वार. १८८-२ ५० ३ रागद्वार. १८९-१ ५१-५२ ४ कल्पद्वार. १८९-२ ५३ ५ चारित्रद्वार. १९०-१ ५४-६४ ६ प्रतिसेवनाद्वार. १९०-२ ६५-६८ ७ ज्ञानद्वार. SACANDROCEDUCAMCOM - in Educat i on For Private & Personal use only jainelibrary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गुरुतत्त्वविनिश्चयः विषयानुक्रमणिका. गाथा विषय ६९-७० ८ तीर्थद्वार. ७१-७२ ९ लिङ्गद्वार. ७३ १० शरीरद्वार. ७४ ११ क्षेत्रद्वार. ७५-८० १२ कालद्वार. ८१-८६ १३ गति (स्थिति) द्वार. ८७-८९ १४ संयमद्वार. ९०-९६ १५ निकर्षद्वार. ९७ १६ योगद्वार. ९८ १७ उपयोगद्वार, ९९ १८ कषायद्वार. १००-४ १९ लेश्याद्वार. १०५-१० २० परिणामद्वार. पत्र. १९४-१ १९४-२ १९५-१ १९५-१ १९५-१ १९६-२ १९८-१ १९९-१ २०१-१ २०१-१ २०१-२ २०१-२ २०४-२ गाथा १११-१२ २१ बन्धद्वार. ११३ २२ वेदद्वार. ११४-१६ २३ उदीरणाद्वार. ११७-२१ २४ उपसंपद्धानद्वार, १२२-२३ २५ संज्ञाद्वार. १२४ २६ आहारद्वार. १२५ २७ भवद्वार. १२६-२८ २८ आकर्षद्वार. १२९-३२ २९ कालद्वार, १३३-३५ ३० अन्तरद्वार, १३६-३७ ३१ समुद्घातद्वार. १३८ ३२ क्षेत्रद्वार. १३९ ३३ स्पर्शनाद्वार. २०६-१ २०६-२ २०६-२ २०७-१ २०८-१ २०९-१ २०९-१ २०९-१ २१०-१ २११-१ २११-२ २१२-१ २१२-२ म ॥२७॥ For Private Jain Educabalihim Minery Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय १४०-४१ ३४ भावद्वार: १४२-४९ ३५ परिणामद्वार. गाथा १५०-५१ ३६ अल्पबहुत्वद्वार. १५२ निर्मथोनी प्ररूपणानो उपसंहार. १५३-५४ द्रव्यनिर्ग्रथना प्रकार अने द्रव्यपदनो अर्थ. १५५ भावनिद्र्थपणाने अभिमुख द्रव्यनिर्ग्रन्थ जे संनिपाक्षिक तेनुं मार्गानुसारिपणं. १५६ भावनिर्ग्रथ अने संविग्नपाक्षिकमा तरतमभावे गुरुपणानो स्वीकार. पत्र. २१२-२ २१३-१ २१४-२ २१५-१ २१५-१ २१५-२ २१५-२ विषय १५७-५८ ग्रन्थरचनानी सफलता. १५९-६६ ग्रंथरचनानुं फळ अने उपसंहार. गुरुतत्त्वविनिश्चयमूलगाथाऽकाराद्यनुक्रमः. गुरुतत्त्वविनिश्चयवृत्त्यन्तर्गतगाथाद्यनुक्रमणिका. गुरुतत्त्वनिश्चयवृत्तौ प्रमाणतयोपन्यस्तानि ग्रन्थनामानि ॥ ३ ॥ गुरुतत्त्वविनिश्चयवृत्तावुल्लिखितान्याचार्याभिधानानि ॥ ४ ॥ उपाध्यायजीविरचित अपूर्ण उपल यमान ग्रंथो. गाथा पत्र. २१६-१ २१६-१ १ १३ १८ १९ unelibrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्वविनिश्चयः ॥ २८ ॥ अशुद्ध वा शुद्धभा-पेक्षयाशुद्ध ऊणवास -नियतत्वादाग -द्यागमप्रामा - धिक्यमिति । -देशादस्ति भंणियं | इति । ५ स्यात् । सत्य शुद्ध वा, अशुद्धभा -पेक्षयाऽशुद्ध उण वास - नियतत्वात् । आग -द्यागमाप्रामा-धिक्यमिति - देशात् । अस्ति भणियं इति | स्यात्सत्य पंक्ति ८ १० ११ १३ १ 4 ६ १ १० १३ शुद्धिपत्रकम् । पत्र. ४-१ ४-१ ४-१ ४-१ ४-२ ४-२ ४-२ ५-२ ६- १. १२-१ अशुद्ध - रस्यव -वृत्तया उ भवक्ख आन्यथा तत्परिज्ञा 'अन्नयरम्मि' -शूच्यां संयमाभा रक्षन्त्यवे, विजं ) शुद्ध -रस्यैव वृत्ततया उभयक्ख - सूच्यां - संयमाभा पंक्ति अन्यथा तदपरिज्ञा ८ 'अन्नयरम्मि' ('एयरम्मि ) ९ १ रक्षन्त्येव, वि जं ७ १ ८ २ ८ ९ १२ पत्र. १४-२ १५-१ १८-१ १९-१ २२-१ २४-१ २६-१ २८-२ ३३-१ ३४-१ शुद्धिपत्रकम्. ॥ २८ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASU पत्र. ३८-२ ४३-१ ताओं ur 99 अशुद्ध शुद्ध संयमस्थानि संयमस्थानानि -न्नियुद्ध- -नियूंढ ताओं उण संपंडिअं संपिंडिअं स्वयंप्र स्वयं प्रअक्खरेण अक्खरे ण लग्नानाः, लग्नाः , -नाणं -नाणी -दतीचार- -इतिचारप्रेषितं -प्रेषितं (प्रेषितः) वासीदिति वा स्यादिति छिदित्तु तयंभाणं छिंदंतु तयं भाणं ४३-१ ४६-१ ४६-१ ४७-१ me - cccc 00 26*200cc 06 0.00 RRORSCORRESS अशुद्ध पत्र. सत्त्वाच्चतु सत्त्वात् , चतुएव, एव तस्थ तस्स देसे णो देसे य बज्झागमे बब्भागमे ७५-१ बज्झागमा बब्भागमा बज्झागमा बब्भागमा ७५-१ परिभव'परिभव १० ७७-२ सङ्घनेति ॥९॥ किमर्थः? सङ्ग्रेनेति किमर्थः ।।९।। १२ ७९-१ मा............मास- मासगुरुमासविशति- विंशति ७ ११७-१ ९ १२०-२ असंविग्नपा- 'असंविग्नः' पा- ७ १४१-२ ५०-२ ६१-२ For Private Personal Use Only ainerary Jain Education Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्वविनिश्चयः ॥ २९ ॥ Jain Educat अशुद्ध शेषकालेऽपि एका 'दसिय'ति पडिलेह पोतं -यात्तद्बहिः मज्जणा पीठफलगा (का) दिपरि- पीठफलकादिपरिभोगीस्था पनापिण्डभोजी न' इति १ भोजी' इति य उपजी -देकयैव -नुपात्यन वसति दानसंभोगका शुद्ध शेषकाले ational पंक्ति १ पडिलेणापोत्तं न्यावहिः पमजणा -नुपातिन्यन वसतिदान साम्भोगका उपजी २ -देकयैव मुखपोतिकया १३ एकै १ 'उण्णा दसिय'त्ति ५ ६ ७ १३ पत्र. १५४-१ १५४-२ १५७-२ १८ १५८-१ -ख्याति १५८-१ १५८-१ १५८-१ ८ १५८-१ २ १५८-२ १५८-२ १६०-१ २ १५४-१ अशुद्ध - संभोगिका. गओ उडेंति उडेंति 'निःशंस' प्रागुक्तप्रति पण्णवणाभेआणं अहासुमकुसीले भणितं एसो पsि शुद्ध - साम्भोगकाः गओ, उडेंति उडेंति २८ ख्याति 'निःसंशयं ' प्रागुक्तः प्रतिपण्णवणा भेआणं पंक्ति पत्र. २ १६०-१ ६ १६०-१ ५ १६३-१ ७ १६३-१ १६५-२ १६६-२ १७२-२ १७५-१ १८०-२ १८५-१ १८७-१ १ १९२-२ १ ६ ५ ९ ८ अहासुहुमकसायकुसीले ११ ११ भणितम्, भणितं च Catsuits शुद्धिपत्र कम्. ॥ २९ ॥ inelibrary.org Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध स्वभावोऽप्रति -न्थीऽयेध्य प्रतिकेना -चुण्णिइ शुद्ध स्वभावः । अप्रति • न्थीयेऽध्य प्रतीकेना -चुणी इ Jain Educational पंक्ति ६ पत्र. १९२-२ १३ १९४-१ ६ २०४-१ ८ २०८-२ पत्रम् ७३ पृष्ठम् २ पंक्तिः ५ इत्थं ज्ञेया- “यत्तं उद्दिसित्तए, से य अहिज्जिस्सामि त्ति नो अहिजिज्जा एवं से नो कप्पइ आयरियउवज्झायत्तं उद्दिसित्तए "त्ति, गतार्थमेतत्" इत्यादि ॥ पत्र १३९ पृष्ठ २ पंक्तिः २ इत्थं वाच्या- “तर, नो से कप्पइ गणावच्छे अस्स गणावच्छेइअत्तं अनिक्खिवित्ता अण्ण गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ से गणावच्छेइअस्स गणाछेत्तं णिक्खिवित्ता ०" इत्यादि || पत्रम् - १४७ पृष्ठम् २ पंक्तिः ८ इत्थं वाचनीया - "उवज्झायं उद्दिसावित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता जाव उद्दिसावित्तए, ते असे वितरंति एवं से कप्पइ जाव उद्दिसावित्तए, ते अ से णो वितरंति एवं से णो कप्पइ जाव उद्दिसावित्तए, णो से कप्पइ तेसिं कारणं अदी वित्ता०" इत्यादि ॥ Lokok jainelibrary.org Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAARRRRAAG Jain Education in For Private & Personal use only marry on Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ न्यायाम्भोनिधि-श्रीमद्विजयानन्दसूरिभ्यो नमः । महोपाध्याय-श्रीमद्-यशोविजयगणिविरचितखोपज्ञवृत्तियुतः गुरुतत्त्वविनिश्चयः। | मङ्गलाभि ऐन्द्रश्रेणिनतं नत्वा, जिनं स्याद्वाददेशिनम् । स्वोपज्ञं विवृणोम्येनं, गुरुतत्त्वविनिश्चयम् ॥ १॥ इह हि “सकलोऽपि शुभारम्भो गुर्वायत्तः” इत्यस्य प्रकरणस्यारम्भः, तत्रेयं प्रथमगाथापणमिय पासजिणं(णि)दं, संखेसरसंठियं महाभागं। अत्तट्टीण हिअट्ठा, गुरुतत्तविणिच्छयं वुच्छं ॥१॥ 'पणमिय'त्ति । अहं 'गुरुतत्त्वविनिश्चय' गुरुतत्त्वस्य विनिश्चयो यस्मादेतादृशमुपदेशं वक्ष्ये इति प्रतिज्ञा, अनया च शिष्यावधानं कृतं भवति । प्रयोजनमाह-'आत्मार्थिनां' मोक्षकाकाद्धावतां हितार्थम् , भवति खल्वस्मादुपदेशात्तत्त्वज्ञानावाप्तिमिथ्याज्ञाननिवृत्तिद्वाराऽऽत्मार्थिनां हितम् । वक्ष्ये इत्युत्तरक्रियायाः पूर्वक्रियासापेक्षत्वात्तामाह-'प्रणम्य' धेयादि. गुक्त.१ JainEducation international Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः ॥१॥ कायवाङ्मनोभिर्नत्वा, कं? पार्श्वजिनेन्द्रम् , किंभूतं? शङ्केश्वरसंस्थितम्, पुनः किंभूतं? 'महाभाग' निरुपमप्रभावम् । गुर अत्र च भगवतश्चत्वारो मूलातिशयाः सूचिताः, तथाहि-जिनेन्द्रपदेनापायापगमातिशयः सूचितः, जयन्ति रागादिशत्रु- विनिश्चयः निति जिनास्तेष्विन्द्र इति व्युत्पत्तेः, रागादिवैरिनिर्मुलनेनैव तत्त्वतोऽपायापगमसिद्धेः । शड्डेश्वरसंस्थितमित्यनेन पूजातिशयः, शङ्केश्वरावस्थितप्रभुप्रतिमायाः प्रत्यक्षत एव जगजनकृतपूजाप्रकर्षोपलम्भात् । अथवा जिनेन्द्रपदेनैव पूजातिशयः, जगत्पूज्यानामपि जिनानामिन्द्रत्वेन भगवतः परमपूज्यत्वव्यवस्थितेः । शङ्केश्वरसंस्थितमित्यनेन चापायापगमातिशयः, जरासिन्धुप्रयुक्तयादवजराकष्टप्रकरापहारकरणेनैव भगवत्प्रतिमायाः शङ्केश्वरपुरे व्यवस्थापनात् । महाभागविशेषणेन च ज्ञानवचनातिशयो, लोकालोकावलोकनक्षमकेवलालोकसर्वसन्देहसन्दोहनिराकरणक्षमतत्त्वप्रतिपादकवचनगुणाभ्यामेव निरुपमप्रभावत्वाभिधानात् । अथवा महाभागपदेनैवावृत्त्या चत्वारोऽतिशया लभ्यन्ते, तथाहिमशब्देन मान उच्यते "मो मन्त्रे मन्दिरे माने" इति वचनात् , तं सकलापायमूलभूतं हन्तीति महा, आभां-परमपूज्यतालक्षणां शोभां गच्छतीत्याभागः, ततो विशेषणसमास इत्यपायापगमपूजातिशयो लभ्येते । भानं भा-ज्ञानं, गश्च-वचनं, “गस्तु गातरि गन्धर्वे शब्दसङ्गीतयोरपि” इति वचनात्, महान्तौ भागौ यस्य स तथा तमिति ज्ञानवचनातिशयाविति । इत्थं चतुरतिशयोपेतस्य समुचितेष्टदेवतारूपस्य श्रीशङ्वेश्वरपार्श्वनाथस्य नमस्काररूपं मङ्गलमाचरितम् , ततश्च विघ्नध्वंसः शिष्टाचारश्चानुपालितो भवति । एतदुपनिबन्धाच्चानुषङ्गतःश्रोतृणामपि मङ्गलसिद्धिरिति ॥१॥ गुरुतत्त्वे विनिश्चेतव्ये गुरोरेव माहात्म्यमुपदर्शयति 'गुरुआणाए' इत्यादिना Jain Education international For Private & Personal use only wownw.jainelibrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्म्य म्. । गुरुआणाए मुक्खो, गुरुप्पसाया उ अहसिद्धीओ । गुरुभत्तीए विजासाफल्लं होइ णियमेणं ॥ २॥ गुरुमाहाFI 'गुर्वाज्ञया' शुद्धसामाचारीलक्षणया 'मोक्षः' सकलकर्मक्षयलक्षणः स्यात् । गुरुप्रसादाच्च 'अष्टसिद्धयः' अणिमादि लक्षणाः प्रादुर्भवेयुः । गुरुभक्त्या च विद्यानां साफल्यं कार्यसिद्धिलक्षणं नियमेन भवति ॥ २॥ सरणं भवजिआणं, संसाराडविमहाकडिल्लम्मि । मुत्तूण गुरुं अन्नो, णत्थि ण होही णविय हत्था ॥३॥ 'सरण'ति । भव्यानां-मार्गानुसारिणां जीवानां 'गुरु' मार्गोपदेशक मुक्त्वा संसाराटवीमहागहनेऽन्यः कश्चिन्न | शरणमस्ति न भविष्यति नापि चाभवत् , कालत्रयेऽपि गुरुरेवात्र शरणमिति भावः ॥ ३ ॥ जह कारुणिओ विजो, देइ समाहि जणाण जरिआणं। तह भवजरगहिआणं, धम्मसमाहिं गुरू देइ॥४॥ है जह'त्ति । यथा 'कारुणिकः' निरुपधिपरदुःखप्रजिहीर्षावान् वैद्यः 'ज्वरितानां' ज्वरवतां जनानां भेषजप्रदानादिना | समाधि' द्रव्यस्वास्थ्यं ददाति तथा गुरुर्भवज्वरगृहीतानां रत्नत्रयलक्षणौषधप्रदानेन धर्मसमाधिं दत्ते, तथा च भावा-14 रोग्यकारित्वात्परमो वैद्यो गुरुरिति भावः॥४॥ जह दीवो अप्पाणं, परं च दीवेइ दित्तिगुणजोगा। तह रयणत्तयजोगा, गुरू वि मोहंधयारहरो॥५॥ IAL 'जह'त्ति । यथा दीपो दीप्तिगुणस्य-प्रकाशशक्तिलक्षणगुणस्य योगादात्मानं 'परं च' प्रकाश्यमर्थ दीपयति तथा|| SCREERSOCCCCAX - For Private & Personal use only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S त्तियुतः स्वोपज्ञवृ-18 रत्नत्रयस्य' ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणस्य योगाद्गुरुरपि मोहान्धकारहरः सन्नात्मानं परं चोपादाननिमित्तभावेन दीपयति, गुरुतत्त्व तथा च भावदीपत्वेनाभ्यहिंततमो गुरुरिति भावः ॥५॥ विनिश्चय ॥२॥ जे किर पएसिपमुहा, पाविट्ठा दुट्टधिट्टनिल्लज्जा । गुरुहत्थालंबेणं, संपत्ता ते वि परमपयं ॥ ६॥ 18I 'जे किरत्ति। ये किल प्रदेशिनृपतिप्रमुखाः 'पापिष्ठाः' जीवास्तिक्याभावेनातिशयितपापाः, दुष्टाः-मोहदोषोपेतत्वात् , धृष्टाः-कुवासनास्तब्धतादोषात् , निर्लज्जाः-स्वतन्त्रतादोषात्, तेऽपि गुरोः-केशिगणधरादेहस्तालम्बेनोक्तदोषनिवृत्त्या , सुवासनाप्रवृत्त्या च परमपदं' पुण्यानुबन्धिपुण्यभोगोचितं स्थान प्राप्ता इति कृतपापानुबन्धहरत्वेन गुरुरेवाश्रयणीयः ॥६॥ |उज्झियघरवासाण वि, जं किर कट्ठस्स णत्थि साफल्लं । तं गुरुभत्तीए च्चिय, कोडिन्नाईण व हविजा ॥७॥ | 'उज्झिय'त्ति । उज्झितगृहवासानामपि चतुर्थादिकारिणां वालतपस्विनां यत्किल कष्टस्य नास्ति साफल्यं तद्गुरुभक्त्यैव 'कोडिन्यादीनां' गौतमगुरूपसम्पत्तिप्रभावप्राप्तकेवलज्ञानानां पञ्चदशशततापसानामिव भवेत्। अतः कष्टस्य साफल्यं गुरुभक्तिप्रयुक्तं तद्वैफल्यं चीतद्भावप्रयुक्तमित्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां क्रियाफलहेतुभूतभक्तिकतया गुरुरेवादरणीय इति भावः॥७॥ दुहगब्भि मोहगन्भे, वेरग्गे संठिया जणा बहवे । गुरुपरतंताण हवे, हंदि तयं नाणगन्भं तु ॥८॥ 'दुह'त्ति । दुःखगर्भे मोहगर्भे च वैराग्ये बहवो जनाः संस्थिताः, आर्त्तध्यानपारवश्येन क्षणिकनैरात्म्यादिवासनायोगेन . 'दुर्वासना' 'दोषासना' इति वा पाठः । २ च तदभाव'-इत्यपि । ANSAREECRECARE ForPrivate LPersonal use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च बाद्यानां पार्श्वस्थ निवादिवासनाविप्रलब्धत्वेन च जैनाभासानां बहूनां वैराग्यलिङ्गधारणोपलम्भात् । ज्ञानगर्भ तु तद्'वैराग्यं 'हन्दी'त्युपदर्शने गुरुपरतन्त्राणां भवेत् , गुरुपरतन्त्रताया एव ज्ञानलक्षणत्वात् "गुरुपारतंत नाणं" इति वचनात् , अतो ज्ञानगर्भवैराग्याधायकतयापि गुरुरेव गरीयानिति भावः ॥ ८॥ अम्हारिसा विमुक्खा, पंतीए पंडिआण पविसंति । अण्णं गुरुभत्तीए, किं विलसिअमब्भुअंइत्तो ? ॥९॥ | 'अम्हारिसा वित्ति । अस्मादृशा अपि मूर्खा यदिति गम्यं 'पण्डितानां' धर्मग्रन्थकरणपेशलमतीनां पतौ प्रविशन्ति, गुरुभक्तेरितोऽन्यत्किमद्भुतं विलसितम्?, पाषाणनर्तनानुकारः खल्वयं दुष्करानुष्ठानप्रकार इत्यचिन्त्यसामर्थ्यो गुरुरेव ॥९॥ सका विणेव सका, गुरुगुणगणकित्तणं करेउं जे। भत्तीइ पेलिआण वि, अण्णेसिं तत्थ का सत्ती ? ॥१०॥ | 'सका वित्ति । 'शका अपि' इन्द्रा अपि गुरुगुणगणकीर्तनं नैव कर्तुं शक्ताः, 'जे' इति पादपूरणार्थो निपातः, 'तत्र' गुरुगुणगणकीर्तने भक्तिप्रेरितानामप्यन्येषां मादृशमनुजानां का शक्तिः । तथा चानिर्वचनीयानन्तगुणगरिमभाजनं गुरुरिति कियन्तस्तद्गुणा वक्तुं शक्यन्ते?, श्रोतृप्रोत्साहनार्थ दिग्दर्शनमात्रं पुनरेतदिति भावः॥ १०॥ यत एवं तत आहइत्तो गुरुकुलवासो, पढमायारो णिदंसिओ समए। उवएसरहस्साइसु, एयं च विवेइअं बहुसो॥११॥ _ 'इत्तोत्ति । इतः' अनन्तगुणोपेतत्वाद्गुरोर्गुरुकुलवासः प्रथमाचारः 'समये' सिद्धान्ते निदर्शितः, आचारस्यादावेव "सुअं मे आउसंतेणं” इति सूत्रस्य निर्देशात् । एतच्च उपदेशरहस्यादिषु, आदिना यतिलक्षणसमुच्चयादिपरिग्रहः, गुरुकुलवासः, For Private & Personal use only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः 'बहुशः' बह्वीर्वाराः 'विवेचितम्' उपदेशपदपञ्चाशकादिग्रन्थानुसारेण विशिष्य निणीतमिति तत एवैतत्तत्त्वमवसेयं नेह | | गुरुतत्त्वभूयः प्रयासः ॥ ११॥ अत्रैवोपयुक्तं वक्तव्यशेषमाह विनिश्चयः इम्हि पुण वत्तवं, ण णाममित्तेण होइ गुरुभत्ती। चउसु वि णिक्खेवेसुं, जं गेज्झो भावणिक्खेवो ॥१२॥ भावनिक्षेप। 'इण्हि'ति । इदानीं पुनर्वक्तव्यमेतद् यदुत न नाममात्रेण गुरुभक्तिर्भवति, 'यद्' यस्माच्चतुर्वपि निक्षेपेषु भावनिक्षेपो ग्राह्यत्वेन 'ग्राह्यः' स्वातयेणोपादेयः, अन्यथा हि स्वाभिप्रायाभिमतगुरुनामधारिणां सर्वेषामपि गुरुकुलवासप्रसक्तः, न चैतदिष्ट, भावगुरोरेव धर्माधर्मसङ्करप्रसङ्गादिति ॥ १२॥ भावस्यैव ग्राह्यत्वे सिद्धान्तसम्मतिमुपदर्शयति | ग्राह्यत्वम् . तित्थयरसमा भावायरिया भणिया महाणिसीहम्मि । णामठवणाहिँ दवायरिया अणिओइयवा उ १३ । | 'तित्थयर'त्ति । 'भावाचार्याः पञ्चविधाचारपालनतदुपदर्शनगुणान्वितास्तीर्थकरसमा महानिशीथे भणिताः, तथा च तदालाप:-"से भयवं! तित्थयरसंतियं आणं नाइक्कमिज्जा उदाहु आयरियसंतियं? गोयमा! चउबिहा आयरिआ पण्णत्ता, तं०-नामायरिया १ ठवणायरिया २ दबायरिया ३ भावायरिआ य ४। तत्थ णं जे ते भावायरिया ते तित्थयरसमा चेव दट्टवा, तेसिं संतियं आणं नाइक्कमिज"त्ति । गच्छाचारप्रकीर्णकेऽप्युक्तं-"तित्थयरसमो सूरी, सम्मं जो जिणमयं पयासेइ ।”त्ति । द्रव्याचार्याश्च नामस्थापनाभ्यां नियोक्तव्याः ॥ १३ ॥ नियोगमेव विवेचयतितत्थ णिओगो एसो, जं दवं होइ सुद्धभावस्स । तण्णामागिइतुल्लं, तं सुहमिअरं तु विवरीयं ॥ १४ ॥ For Private Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तत्थ'त्ति । तत्र नियोगस्तावदेषः-यद्रव्यं भवति शुद्धभावस्य सम्बन्धि तत् 'तन्नामाकृतितुल्यं शुद्धभावनामस्थाप-I नासदृशं 'शुभं प्रणिधातृशुभभावजनकम् । 'इतरत्तु' अशुद्धभावसम्बन्धि द्रव्यं तु 'विपरीतम्' अशुद्धभावनामस्थापनावदशुभभावजनकम् ॥ १४ ॥ एतदेव भावयतिजह गोअमाइआणं, णामाई तिन्नि हुंति पावहरा । अंगारमदगस्त य, णामाई तिणि पावयरा ॥१५॥ __ 'जह'त्ति । यथा 'गौतमादीनां शुद्धभावगुरूणां नामादीनि त्रीण्यपि पापहराणि भवन्ति, शुद्धभावगुरुनामादीनां शुद्धभावगुरुस्थापनद्वारा शुद्धभावगुरुसम्बन्धित्वेन ज्ञातानां तेषां स्वातन्त्र्येणैव वा शुद्धभावजनकत्वात्, “महाफलं खलु तहारूवाणं थेराणं भगवंताणं णामगोत्तस्स वि सवणयाए" इत्याद्यागमातु । 'अङ्गारमर्दकस्य -अशुद्धभावगुरो मादीनि त्रीण्यपि पापकराणि पापतराणि वा शुद्धभावजनकत्वात्तेषाम् , अत एवेदं महानिशीथादौ प्रसिद्धम-"तीता णागतकाले, केई होहिंति गोयमा! सूरी । जेसिं णामग्गहणे, वि हुज्ज णियमेण पच्छित्तं ॥१॥" यद्यपि पञ्चाशकादावङ्गारमर्दकः शुद्धभावावधिकाप्राधान्यापेक्षया द्रव्याचार्य एवाभिधीयते तथाप्यत्राशुद्धभावापेक्षयाशुद्धभावगुरुत्वाभिधान न दोषायेति ध्येयम् । इत्थं च "जे ऊणवाससयदिक्खिए वि हुत्ता णं वायामित्तेणं पि आगमओ बाहिं करिति ते णामठवणाहिं णिओइयवे" इत्यत्रागमबाह्यकारिणो नामस्थापनाभ्यां नियोक्तव्यत्वेन द्रव्यत्वमुपदर्शितं भवति, द्रव्यत्वस्य नामस्थापनानियोगसमनियतत्वादागमबाह्यकारिणः सामान्यतो नामस्थापनातुल्यत्वतात्पर्ये नामस्थापनामात्रस्यानर्थक्य शुद्धाशुद्धभावगुरूणां नामादीन्य. पि शुद्धाशुद्धभावकारणानि. For Private & Personal use only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3350- स्वोपज्ञवृ-12 प्राप्तौ-"महाफलं खलु थेराणं भगवंताणं" इत्याद्यागमप्रामाण्यप्रसङ्गादिति युक्तं पश्यामः ॥ १५ ॥ ननु यद्येवं नामा- गुरुतत्त्व. त्तियुतः दीनां भावपारतन्त्र्येण भावकार्यकारित्वं तदा तद्विशेषान्निर्जराविशेषोऽपि स्यान्न वा ? इत्याशङ्कायामाह विनिश्चयः एयगओ अविसेसो. भावं ववहारओ विसेसेड। णेच्छडअणओणेच्छड, एयं णियमस्स भंगणं ॥१६॥ ॥४॥ | 'एयगओ'त्ति । 'एतद्गतः' नामादिगतश्च विशेषः 'व्यवहारतः' व्यवहारनयमाश्रित्य भावं विशेषयति, यथा यथा-3 व्यवहारेण |ऽऽलम्बनीभूते बाह्यवस्तुनि मात्रया गुणाधिकत्वं तथा तथा मनःप्रहादाधिक्येन प्रणिधातुर्निर्जराधिक्यमिति । व्यवहारन भावनिक्षेपायादेशादस्ति हि वर्द्धमानादिनामभेदेन लक्षणयुक्तसमस्तालङ्कारालङ्कतप्रतिमादिस्थापनाभेदेन तत्तत्कल्याणपर्यायाभिमुख काधिक्ये प्रणि लोधातृभावाधि द्रव्यभेदेन श्रुतावधिमनःपर्यायादिभावभेदेन च बाह्यवस्तुनोऽपि प्रणिधातुर्निर्जराविशेषः, तदिदमुक्तं व्यवहारभाष्ये क्यम् , नि"गुणभूइटे दवम्मि जेण मत्ताहिअत्तणं भावे । इति वत्थूओ इच्छति, ववहारो णिजरं विउलं ॥१॥ लक्खणजुत्ता श्चयेन न तपडिमा, पासाईआ समत्तलंकारा । पल्हायति जह व मणं, तह णिज्जरमो विआणाहि ॥ २ ॥ सुअवं अतिसयजुत्तो, थेतिदर्शनम्. सुहोचिओ तह वि तवगुणुजुत्तो। जो सो मणप्पसाओ, जायइ सो णिजरं कुणइ ॥ ३ ॥" त्ति । नैश्चयिकनयस्तु नैतदिच्छति-यदुत नामादिवाद्यवस्तुविशेषान्निर्जराविशेष इति, नियमस्य भङ्गेन' अधिकतरगुणवस्तुत एवाधिकतरो भाव इति व्याप्ती व्यभिचारात् , अधिकतरगुणवर्द्धमानस्वाम्यपेक्षयाल्पगुणेऽपि गौतमस्वामिनि गुरुपरिणामेन सिंहजीवस्य महानिर्ज-1 राप्रतिपादनात्, तदुक्तं व्यवहारभाष्य एव-"णेच्छइ(य)ओ पुण अप्पे, वि जस्स वत्थुम्मि जायए भावो। तत्तो सो णिज्जरगो, जिणगोअमसीहआहरणं ॥१॥" निश्चयतः पुनः 'अल्पेऽपि' महागुणतराद्धीनगुणेऽपि वस्तुनि यस्य जायते तीव्रः CASSROSCORRESS सुहोचिओ तह विताए । पल्हायति जह व मणे, तह विवहारो णिज्जरं विउलं ॥ १ ॥ लक्स 5500 ॥४ For Private Personal use only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शभो भावः तस्मात्' महागुणतरविषयभावयुक्तात् 'सः' हीनगुणविषयतीव्रशुभभावो 'निर्जरक' महानिर्जरतरः, तद्भा। वस्यातितीव्रशुभतरत्वात्, अत्र जिनगीतमसिंहजीवा आहरणं, तच्चैवम्-"तिविद्वत्तणे भयवया वद्धमाणसामिणा सीहो। णिहओ अधितिं करेइ 'खुड्डुलगेणं णिहतोम' त्ति परिभवात् । गोअमेण सारहित्तणेणमणुसासिओ 'मा अधिति करेहि, तुम पसुसीहो, णरसीहेण मारियस्स तुम को परिभवो?' एवं सो अणुसासिज्जतो मओ संसारं भमिऊण भगवओ वद्धमाणसामिस्स चरमतित्थयरभवे रायगिहे णगरे कविलस्स बंभणस्स घरे बडुओ जाओ। सो अन्नया समोसरणे आगओ भयवंतं दट्टण धमधमेति । ततो भगवया गोअमसामी पेसिओ जहा उवसामेइ । ततो गतो अणुसासिओ अ जहा 'एस महप्पी तित्थंकरो। एअम्मि जो पडिणिवेसेइ सो दुग्गति जाति एवं सो उत्सामिओ । तस्स दिक्खा गोअमसामिणा है दिन्न"त्ति ॥ १६ ॥ यथा भावमात्राधिक्यं बाह्यवस्तुनि व्यवहारत उपयुक्तं निश्चयतस्तु न तथा सङ्ख्याधिक्यमपीत्याह एवं बहुगुरुपूजा, ववहारा बहुगुणा य णिच्छयओ। एगम्मि पूइअम्मी, सवे ते पूइआ हुंति ॥ १७॥ व्यवहारनि3] 'ए'ति । एवम्' उक्तप्रकारेण बहूनां गुरूणां पूजा व्यवहाराबहुगुणा, बहुगुरुपूजातत्परत्वे मनःप्रसादस्यापि बाहु श्चययोः बहुल्यात् । निश्चयतस्तु एकस्मिन्नपि गुरौ पूजिते सर्वे 'ते' गुरवः पूजिता भवन्ति, सर्वत्रापि ज्ञानादिगुणसाम्यात् मनःप्रसाद-15 गुरुपूजास मतत्वासमविशेषस्य च तदालम्बनकस्वपरिणामविशेषाधीनत्वादिति । व्यवस्थितमदो ललितविस्तरायाम् ॥ १७ ॥ अत्र परः शङ्कते तत्वम् . 'नणु' इत्यादिना "पडिणिविसई" इत्यपि पाठः । Jan Education internations For Private Personel Use Only wanamainelorery.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतियुतः ॥५॥ नणु आलंबणमित्तं, बज्झं ववहारसंमयं वत्थु । णिच्छयओ च्चिय सिद्धी, साहूण सुअम्मि जं भंणियं ॥ १८ ॥ परमरहस्समिसीणं, समत्तगणिपिडगझरिअसाराणं । परिणामियं पमाणं, णिच्छयमवलंबमाणाणं ॥ १९ ॥ बाह्यं व्यवहारसंमतं वस्तु 'आलम्बनमात्रं ' पटसामग्र्यामाकाशादिवदवर्जनीयसंनिधिकमात्रं न तूपादानवत्कारणमपि, अतिशयितस्योपादानस्यैव कार्याधानक्षमत्वात् । अतो निश्चयत एव साधूनां सिद्धिः, शुद्धनिश्चयेन वाह्यकारणा| धिक्यनिरासवच्छुद्ध तरनिश्चयेन वाह्यकारणमात्रस्यापि निरासाद्, आत्ममात्रप्रतिबद्ध कार्यकारणभावविचारसारतया बहि:| संकल्पविकल्पपरम्परानिवृत्तेरेकान्तस्थैर्यसिद्धेः । 'यत्' यस्मात् 'श्रुते' ओघनिर्युक्त्याख्ये भणितम् ॥ १८ ॥ 'परम'ति । परमं रहस्यं तत्त्वं ऋषीणां समग्रगणिपिटकस्य झरितः पठितः सारो यैस्तेषां 'पारिणामिकं' परिणामभवं प्रमाणं भवति निश्चयनयमवलम्बमानानाम्, यतः शब्दादिनिश्चयनयाः पारिणामिकमिच्छन्तीति ॥ १९ ॥ एतदेवोपपादयतिसुद्धो अ णिच्छयणओ सुद्धा एसा य परमभावगया । अपरमभावगयाणं, ववहारो नूणमुवयारो ॥ २० ॥ 'सुद्धो अ'ति । शुद्धश्च निश्चयनयः कतकनिपातोपजनितपङ्कपयो विवेकस्थानीयस्वपुरुषकाराविर्भावित सहजैकाच्छभावमयात्मकर्म विवेकानुभव नशीलत्वात्, न तु प्रबलपङ्कसंवलनति रोहित सहजै काच्छ भावपयोऽनुभव स्थानीयात्मकर्माविवेकबीजभाववैश्वरूप्यानुभवनशीलव्यवहारनयवदशुद्धः, तदुक्तं समयसारे - "ववहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिओ दु सुद्धणओ । भूयत्थमासिओ खलु, सम्मद्दिट्ठी हवइ जीवो ॥ १ ॥ ति । 'परमभावगताश्च' पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्त्त Jain Educational गुरुतत्त्वविनिश्चयः निश्चयोपपा दनपूर्वकं पूर्वपक्ष:. निश्चयव्यव हारयोः शु द्धत्वाशुद्ध त्वदर्शनम्. ॥ ५ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरस्थानीयपरमभावानुभवनशीलाश्च उपरितनैकवर्णिकास्थानीयशुद्धनयावलम्बितया 'शुद्धादेशाः' शुद्धद्रव्यादेशिनः । 'अपरमभावगतानां प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्यमानकातस्वरस्थानीयापरमभावानुभवनशीलतयाऽशुद्धद्रव्यादेशिनां 'व्यवहारः विचित्रवर्णमालिकास्थानीयो व्यवहारनयः 'नून' निश्चितं 'उपचारः तदात्वप्रयोजनवान् , तदुक्तम्"सुद्धो सुद्धादेसो, णायबो परमभावदरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण, जे उ अपरमे ठिआ भावे ॥१॥” इति । तथा चाभ्यासदशायां कथञ्चिद्व्यवहारः फलवान्न तु तत्त्वदशायामिति स्थितम् । तदुक्तम्-"जइ जिणमयं पवजह, ता मार ववहारणिच्छए मुअह । एक्केण विणु झिजइ, तित्थं अण्णेण उण तच्च ॥१॥"ति । किञ्च-"ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्यः" इति वचनाद्ब्राह्मणः परमार्थतो म्लेच्छभाषां न भाषते, स्वभाषया प्रतिबोद्धमशक्यस्य म्लेच्छस्य बोधनाय तु भाषतेऽपि, तथा म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन तत्त्वप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयोऽपि व्यवहारः परमार्थतो नानुसतव्यः । कथमयं तत्त्वं प्रतिपादयति ? इति चेत् , इत्थम् यः श्रुतेन केवलमात्मानमवगच्छति स श्रुतकेवलीति परमार्थः। न चैतच्छुद्धं प्रतिपादयितुं शक्यत इति । यः श्रुतज्ञानं सर्वमवगच्छति स श्रुतकेवलीति भेदेन व्यवहार उपस्थापयति । तथा च ज्ञानमपि विचार्यमाणमात्मैवेति परमार्थ एव पर्यवस्यति, तदुक्तम्-"जह ण वि सक्रमणज्जो, अणजभासं विणा उ गाहेडं । तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसक्कं ॥ १॥ जो हि सुएणऽहिगच्छइ, अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुअकेवलिमिसिणो, भणंति लोगप्पईवयरा ॥२॥ जो सुअनाणं सव्वं, जाणइ सुअकेवलिं तमाहु जिणा । नाणं आदा सव्वं, जम्हा सुअकेवली तम्हा ॥३॥" इति ॥२०॥ फलव्यभिचारेणापि व्यवहारं व्युदस्य निश्चयमुपपादयति h Main Education International For Private Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवृ- भरहो पसन्नचंदो, आहरणा णिप्फलम्मि ववहारे।इटविसओवणीयं, झाणं चिय सवकज्जकरं ॥२१॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः 'भरहो'त्ति । निष्फले व्यवहारे भरतः प्रसन्नचन्द्रश्चाहरणे, भरतस्य व्यवहारं विनापि केवलज्ञानोत्पादेन फलं प्रति है। विनिश्चयः व्यतिरेकव्यभिचारात्, सत्यपि व्यवहारे कायोत्सर्गे रौद्रध्यानदशायां प्रसन्नचन्द्रस्य तदनुत्पादेनान्वयव्यभिचारात् । व्यवहारव्युतस्मात् 'इष्टविषयोपनीतं' योगसमाधानकारिमनोज्ञभोजनादि विषयोपढौकितं 'ध्यानमेव' आत्मतत्त्वप्रणिधानमेव सर्व- दासेन कार्यकरम् ॥ २१ ॥ प्रकारान्तरेण व्यवहारवैफल्यमाह निश्चयोप|णिच्छयलाभालाभे, ववहारारोवणं च भवाणं । तित्तजलपाणऊसरबीयारोवोवमं होइ ॥ २२ ॥ पादनम्. "णिच्छय'त्ति । निश्चयस्य-संयमयोग्यगुणस्थानलक्षणस्य लाभे सति भव्यानां प्रवित्रजिषूणां 'व्यवहारारोपणं' प्रव्रज्याविधानव्यवहाराधानं तृप्तस्य जलपानवन्निष्फलं, तदर्थस्य प्रागेव सिद्धेः। निश्चयालाभे च व्यवहारारोपणमूषरक्षेत्रे बीजारोपोपमं भवति, स्थानवैषम्यदोषेण ततः कार्यासिद्धेः अलब्धनिश्चयस्य गृहस्थवद्र्यवहारारोपास्थानत्वादिति ॥२२॥ अनिप्टानुबन्धेनापि व्यवहारं प्रतिक्षिपन्नाहहावयभंगे गुरुदोसो, भणिओ दुवारओ असोइहि। तो चरणपक्खवाओ, जुत्तो ण उ हंदि तग्गहणं ॥२३॥8॥६॥ | 'वयभंगे'त्ति । व्रतस्य-गृहीताचारस्य भङ्गे गुरुः-महान् दोषः-अनन्तसंसारानुबन्धलक्षणो भणितः, स च व्रतभङ्ग इदानीं दुःषमाकाले दुर्वारः प्रमादबाहुल्यात् , तस्माच्चारित्रस्य पक्षपात एव युक्तो न तु 'हन्दी' त्युपदर्शने तद्रहणमपि । For Private Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणस्य दुपालत्वम. ROCCOLORDARMERICROUS युक्तम् , अशक्यानुष्ठायिनो भावशून्यक्रियाया अकिञ्चित्करत्वात् , तदुक्तं योगह ष्टिसमुच्चये-“तात्त्विका पक्षपातश्च.IN भावशून्या च या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं, भानुखद्योतयोरिव ॥ १॥” इति ॥ २३ ॥ इदानी व्रतभङ्गस्य दुःखत्वमेव समर्थयतिएगयरम्मि वि ठाणे, गच्छाणाए पमायओ भग्गे । भणियं विराहगत्तं, रजमियाणिं तु तस्सेव॥२४॥ 'एगयरम्मि'त्ति । सङ्ख्यातीतानां गच्छाज्ञास्थानानां मध्ये एकतरस्मिन्नपि स्थाने प्रमादतो भन्ने 'विराधकत्वं' जिनाज्ञाबाह्यत्वं भणितम् , तथा च महानिशीथसूत्रम्-"से भयवं! किंतेसिं संखातीताणं गच्छमेराठाणंतराणं अस्थि केइ अन्नयरे ठाणंतरे जे णं उस्सग्गेण वा अववाएण वा कहिंचि पमायदोसेणं असई अइक्कमिज्जा ? अइकंतेण वा आराहगे भविजा? गोयमा! णिच्छयओ णत्थि । से भयवं! केणं अटेणं एवं वुच्चइ जहा णं णिच्छ यओ णस्थि ? गोयमा! तित्थयरेणं ताव तित्थयरे, तित्थे पुण चाउवण्णे समणसंघे, से णं गच्छेसु पइटिए, गच्छे हुँ पिणं सम्मईसणनाणचरित्ते पइदिए, ते य सम्मईसणनाणचरित्ते परमपुज्जाणं पुज्जयरे परमसरन्नाणं सरन्ने परमसेवाणं सेव्धयरे, ताई च जत्थ णं गच्छे अन्नयरे ठाणे कत्थइ विराहिजति से णं गच्छे सम्मग्गपणासए उम्मग्गदेसए, जे णं गच्छे सम्मग्गपणासए उम्मग्गदेसए से णं णिच्छयओ चेव अणाराहगे, एतेणं अटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ जहा णं संखाई आणं गच्छ मेराठाणंतराणं जे णं गच्छे एग अण्णयरं ठाणं अइक्कमिज्जा से णं एगंतेणं चेव अणाराहगे"त्ति । इदानीं तु 'तस्यैव' गच्छाज्ञास्थानभङ्गस्यैव राज्यमिति कथं न चारित्रस्य | दुष्पालत्वम् । इति ॥ २४ ॥ नन्वेवं देशभङ्गेऽपि सर्वभङ्गो न भविष्यतीत्यत आह गुरुत.२ Jain E n For Private & Parel Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो 11 6 11 | इकं चिय अट्ठारससी लंगसहस्सलक्खणं चरणं । इक्कस्स वि विरहेणं, ण हवे अण्णुण्ण संवेहा ॥ २५ ॥ 'इक्कं चिय'त्ति । 'एकमेव ' एकरूपमेवाष्टादशशीला ङ्गसहस्रलक्षणं चरणम्, तत्स्वरूपं च " धर्मा १० म्यादी १०न्द्रिय ५ सञ्ज्ञाभ्यः ४ करणतश्च ३ योगाच्च ३ । शीलाङ्गसहस्राणामष्टादशकस्य निष्पत्तिः ॥ १ ॥” इति वाचकवचनादवसेयम् । तच्चैकस्यापि शीलाङ्गस्य विरहेण न भवेत्, सर्वेषां शीलाङ्गानामसङ्ख्येयजीव प्रदेशवत् 'अन्योन्यसंवेधात्' परस्परमजहद्वृत्तितया प्रतिबन्धादेकरूपस्य खण्डरूपत्वानुपपत्तेः, अत एवैकस्यापि सद्भावः शेषसद्भावनियत एव, तदुक्तं पञ्चाशके - " इक्कं पि सुपरिसुद्धं, सीलंगं सेससब्भावे ||" ति ॥ २५ ॥ यत एकस्यापि शीलाङ्गस्याभावे चारित्राभावस्तत एव भग्नशीलाङ्गस्य मिथ्यात्वाभिधानमुपपद्यते, सति चारित्रशेषे तदसम्भवादित्याह - इत्थमफासुअणीरं, सेवंतो तेउकाइयं तह य । गुत्तीउ विराहंतो, मिच्छदिट्ठी मुणी भणिओ ॥ २६ ॥ 'इत्थं 'ति । ' इत्थं' मनागप्याज्ञाभङ्गे चारित्रभङ्गोपपत्तौ सत्यामप्रासुकं नीरं तेजस्कायिकं च सेवमानः 'गुप्तीः' ब्रह्मच गुप्तीश्च विराधयन् 'मुनिः' द्रव्यलिङ्गी मिथ्यादृष्टिर्भणितः, तथा च महानिशीथसूत्रम् - " से भयवं ! कयरेणं लिंगेणं वियाणिज्जा जहा णं धुवमेस मिच्छदिट्ठी ! गोयमा ! जेणं कयसामाइए सबसंगविमुत्ते भवित्ता णं अफासुअं पाणं ॐ ॥ ७ ॥ परिभुंजिज्जा, जेणं अणगारधम्मं पडिवजित्ता णं सयमुईरिअं वा परोईरिअं वा तेउकायं सेविज्ज वा सेवाविज्ज वा तेउकायं सेविजमाणाणं अन्नेसिं समणुजाणेज्ज वा, तहा णवण्हं बंभचेरगुत्तीणं जे केइ साहू वा साहुणी वा एकमवि खंडिज्ज गुरुतत्वविनिश्चयः लासः. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा विराहिज्ज वा खंडिजमाणं वा विराहिजमाणं वा बंभचेरगुत्तिं परेसिं समणुजाणिज्ज वा मणेण वा वायाए वा कारण वा से णं मिच्छद्दिट्टी, ण केवलं मिच्छदिट्ठी, अभिगहि अमिच्छदिट्ठी वि जाणिज "त्ति ॥ २६ ॥ यत एवं दुरनुचरत्वं संयमस्य ततस्तुलनापेक्षत्वमपि व्यवस्थितमित्याह — णो देसविरइकंडय - पत्तिं मुत्तूण होइ पवज्जा । तुलणावेक्खा तम्हा, इहि तु विसिस्स जं भणियं ॥ २७ ॥ 'णो देसविरइ'ति । देशविरतेः कण्डकानि - असङ्ख्यातविशुद्धिस्थानात्मकानि कण्डकशब्दस्य समयपरिभाषयाऽङ्गुलमात्रक्षेत्रासङ्ख्येय भागगत प्रदेशराशिप्रमाणसङ्ख्याभिधायकत्वात् तेषां प्राप्तिं मुक्त्वा प्रव्रज्या न भवति, क्रमस्यानुल्लङ्घयत्वात् तस्मात् तुलनापेक्षा प्रब्रज्या, प्रतिमाप्रतिपत्त्यादितुलनामपेक्ष्यैव प्रवर्त्तते, न त्वभ्यासाधीनपराक्रमलाभं विना । 'इदानीं तु' साम्प्रतकाले तु 'विशिष्य' नियमतो बहुशस्तुलनापेक्षा, यद्भणितं पञ्चाशके ॥ २७ ॥ जुत्तो पुण एस कमो, ओहेणं संपयं विसेसेणं । जम्हा विसमो कालो, दुरणुचरो संजमो इत्थ ॥२८॥ 'जुत्तो' त्ति । युक्तः पुनः 'एषः' प्रतिमाप्रतिपत्त्यनन्तरं प्रव्रज्यादानलक्षणः क्रमः 'ओघेन' सामान्यतः, 'साम्प्रतं ' पञ्चमारके पुनर्विशेषेण, यस्माद्विषमो धर्मशक्तिहान्या 'कालः' दुष्पमाकालः, 'दुरनुचरः' दुष्पालः 'अत्र' काले संयमः, प्रमादबाहु| ल्येनास्यैर्यदोषात्, तस्मादेतन्निरासेन स्यैर्यसिद्ध्यर्थमिदानीं संयमे नियमतोऽभ्यासरूपतुलनापेक्षत्वमिति । न चेदृशक्रमसङ्गतेदानीं प्रव्रज्या श्रूयत इति न तग्रहणं युक्तमिति गर्भार्थः ॥ २८ ॥ व्यवहर्तुदर्लभ्येनापि व्यवहारदौर्लभ्यमाह : Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो को व कुणउ ववहारं, गणणिक्खेवारिहं गुरुं मुत्तुं । तस्स गुणा पुण समए, भणिया दीसंति तत्थेवगुरुतत्त्व विनिश्चयः | 'को वत्ति । को वा करोतु व्यवहारं? गणनिक्षेपार्ह गुरुं मुक्त्वा, सर्वव्यवहाराणां तदधीनत्वात् , अन्यस्य तत्रान-81 ल्लास.. धिकारात् । 'तस्य' गणनिक्षेपार्हस्य गुरोर्गुणाः पुनः 'समये' सिद्धान्ते भाणेताः 'तत्रैव' सिद्धान्तपुस्तक एव लिपिमुद्रया दृश्यन्ते, न तु साम्प्रतीनपुरुषविशेषे ॥ २९ ॥ कथम्? इत्याह व्यवहारस्य दौर्लभ्यम. जेण सुसीलाइगुणो,गणणिक्खेवारिहो गुरू भणिओ।आणाभंगो इयराऽणुन्नाइ महाणिसीहम्मि ॥३०॥ जेणत्ति । येन कारणेन सुशीलाद्यनेकगुणोपेतो गणनिक्षेपार्हो गुरुभणितः । इतरस्य-एतद्गुणविरहितस्य अनु- गणनिक्षेपाज्ञायां-गच्छानुज्ञायां क्रियमाणायामाज्ञाभङ्गो महानिशीथे भणितः। तथा च तत्सूत्रम्-"से भयवं! केरिसगुणजुत्तस्स हलक्षणानि. णं गुरुणो गच्छणिक्खेवणं कायव्वं ? गोयमा! जे णं सुब्बए, जे णं सुसीले, जे णं दढब्बए, जे णं दढचारित्ते, जे णं आणि दियंगे, जेणं अरहे, जेणं गयरागे, जेणं गयदोसे, जेणं निद्वियमोहमिच्छत्तमलकलंके, जेणं उवसंते, जेणं सुविनायजगटि-12 तीए, जे णं सुमहावेरग्गमग्गमल्लीणे, जे णं इत्थीकहापडिणीए, जे णं भत्ताहापडिणीए, जे णं तेणकहापडिणीए, जे णं रायकहापडिणीए, जे णं जणवयकहापडिणीए, जे णं अच्चंतमणुकंपसी ले, जे णं परलोगपच्चवायभीरू, जे णं कुसील ॥८॥ पडिणीए, जे णं विनायसमयसम्भावे, जे णं गहियसमयपेयाले, जे णं अहन्निसागुसमयं ठिए खंताइअहिंसालक्खणदसविहे समणधम्मे, जेणं उज्जुत्ते अहन्निसाणुसमयं दुवालसविहे तवोकम्मे, जेणं सुस्वउत्ते सययं पंचसमिइसु, जेणं MainEducation international For Private Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगुत्ते सययं तीसु गुत्तिसु, जे णं आराहगे ससत्तीए अट्ठारसण्हं सीलंगसहस्साणं, जेणं अविराहगे एगंतेणं ससत्तीए सत्तरसविहस्स णं संजमस्स, जे णं उस्सग्गरुई, जे णं तत्तरुई, जेणं समसत्तुमित्तपक्खे, जेणं सत्तभयद्वाण विप्पमुक्के, जे णं अट्ठमयद्वाणविप्पजढे, जे णं नवण्हं बंभचेरगुत्तीर्ण विराहणाभीरू, जे णं बहुसुए, जे णं आरिअकुलुप्पन्ने, जेणं अदीणे, जे णं अकिविणे, जे णं अणालसिए, जे णं संजइवग्गस्स पडिबक्खे, जे णं सययं धम्मोवएसदायगे, जेणं सययं ओहसामायारीपरूवए, जेणं मेरावहिए, जे णं असामायारीभोरू, जेणं आलोअगारिहे पायच्छित्तपदाणपयच्छणक्खमे, जे णं वंदणमंडलिवराहणजाणगे, जेणं पडिक्कमणमण्डाले,वराहगजाणगे, जेणं सज्झायमण्डलि विराहणजाणगे,जे णं वक्खाणमंडलिावराहणजाणगे, जेणं आलोअणामंडलिवराहणजाणगे, जेणं उद्देसमंडालेवेराहणजाणगे, जेणं समुद्देसमडलिवराहणजाणगे, जे णं पवजाविराहणजाणगे, जेणं उबढावगावराहणजाणो, जेणं उद्देससमुद्देसणाणुनाविराहणजाणगे, जेणं कालखेत्तदवभावभवंतरंतररावयाणगे, जेणं कालखेतदवभावालंबगावपमुके, जेणं सबालवुडगिलाणसेहासेक्खगसाह म्मिगअजा वट्ठावणकुसले, जे णं परूवगे नाणदंसणचारेत्ततवगुगाणं, जेणं चरणकरणधरए, जे णं पभावगे नाणदंसणचारत्ततवोगु णाणं, जेणं दढसम्मत्ते, जे णं सययं अपारेसाई, जे गं विइन,जे गं गंभीरे, जे णं सुसोमलेसे, जेणं देणयरमिव अणभिभवणीए तवतेएणं, जे णं ससरीरोवरमे व छकायसमारम्भावधजी, जे णं तपसी उदाणभावणामयचडावहधम्मंतरायभीरू, जे णं सव्वासायणाभीरू, जे णं इड्डीरससायागारवरोम्झाणवेपमुक्के, जे णं सवावस्सगुजुत्ते, जे णं सविसेसलद्धिजुत्ते, जेणं आवडियपिल्लियामंतिओ वे णायरेजा अवजं, जे ण णो बहुणे हे, जे ण णो बहुभोई, जे णं For Private Personel Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । स्वोपज्ञवृ त्तियुतः प्रथमो SUGGESARGALA दासबावस्सगसज्झायज्झाणपडिमाभिग्गहे घोरपरीसहोवसग्गेसु जियपरीसमे, जे णं सुपत्तसंगहसीले, जे णं अपत्तपरिट्टा- गुरुतत्त्व. वणविहिन्नु, जे णं अणट्टयबोंदी, जे णं परसमयससमयमम्मवियाणगे, जेणं कोहमाणमायालोभममकाररतिहासखेड्कंद- विनिश्चयः प्पणाहियवाद विष्पमुक्के धम्मकहासंसारवासविसयाभिलासादीणं वेरग्गुप्पायगे पडिबोहगे भवसत्ताणं, से णं गच्छणि- Iल्लास.. क्खेवणजोग्गे, से णं गणी, से णं गणहरे, से णं तित्थे, से णं तित्थयरे, से णं अरहा, से णं केवली, से णं जिणे, से णं |तित्थुन्भासगे, से णं वंदे, से णं पुज्जे, से णं नमसणिज्जे, से णं दद्ववे, से णं परमपवित्ते, से णं परमकल्लाणे, से णं परममंगले, से णं सिद्धी, से णं मुत्ती, से णं सिवे, से णं मोक्खे, से णं ताया, से णं सम्मग्गे, से णं गती, से णं सरन्ने, से णं सिद्धे मुत्ते पारगए देवे देवदेवे, एयस्स गोयमा! गणणिक्खेवं कुजा, एयरस णं गणणिक्खेवणं कारवेजा, एयस्स णं गणणिक्खेवं समणुजाणिज्जा, अन्नहा णं गोयमा! आणाभंगे"त्ति ॥ ३०॥ अव्यवस्थितत्वेनापीदानींतनो व्यवहारो 31न ग्राह्यो व्यवस्थितस्तूच्छिन्न एवेत्याह इको य णोवलब्भइ, ववहारो बहुपरंपरारूढो। नियमइविगप्पिओ सो, दीसइ सच्चो य वुच्छिन्नो॥३१॥ _ 'इको य'त्ति । एकश्च नोपलभ्यते व्यवहारः बहपरम्परारूढः' नानासरिसन्तानागत इति हेतोः, प्रतिगच्छं विभिन्न-18|इदानीन्तनव्यवहारस्यैवोपलम्भात् , तस्मान्निजमतिविकल्पित एव 'सः' वगच्छसामाचारीरूपो व्यवहारो दृश्यते । 'सत्यश्च' पार व्यवहारा व्यवस्थित मार्थिकश्च व्यवहारो व्युच्छिन्नः॥३१॥ कथं पारमार्थिको व्यवहारो व्युच्छिन्नः इत्याह त्वम्. Ein Xanations For Private & Personal use only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजमठाणाइविऊ, आगमववहारिणो उ वुच्छिन्ना । तत्तोण चरणसुद्धी, पायच्छित्तस्स वुच्छेआ ॥३२॥ 'संजम'त्ति । 'सयमस्थानविदः' असङ्ख्यात भागवृद्धादिषट्स्थानपतितरागद्वेषादिवृद्धिहान्यनुगत चारित्रस्थानाद्याकल| यितारः 'आगमव्यवहारिणः' केवलिचतुर्दश पूर्वविप्रभृतयो व्युच्छिन्नाः, 'ततः' तद्विच्छेदाच्च न चारित्रस्य शुद्धिः, तद्विशोधकस्य प्रायश्चित्तस्य विच्छेदात्, अनतिशयिना यदृच्छयैव प्रायश्चित्तदानात्, सम्यकूस्वपापविशुद्ध्यनवगमेन घुणा - क्षरन्यायेन प्रवृत्तेरूनाधिकदानेन स्वयमशुद्धस्य पराशोधकत्वात्, विचित्रागतिकसूत्रतत्त्वानवबोधेनानतिशयिनः शास्त्र - बलस्याप्यनुपपत्तेः, तदुक्तम् — “चोदसपुच्वधराणं, वुच्छेदो केवलीण वुच्छेदे । केसिंची आदेसो, पायच्छित्तं पिबुच्छिन्नं ॥ १ ॥ जं जत्तिएण सुज्झइ, पावं तस्स तह दिति पच्छित्तं । जिणचउदसपुबधरा, तविवरीया जहिच्छाए ॥ २ ॥ पारगमपारगं वा, जाणते जस्स जं च करणिज्जं । देइ तहा पञ्चक्खी, घुणक्खरसमा उ पारुक्खी ॥ ३ ॥ जा य ऊणाहिए दाणे, वृत्ता मग्गविराहणा । ण सुज्झे तीइ दिंतो उ, असुद्धो कं च सोहए ॥ ४ ॥ अत्थं पडुच्च सुत्तं, अणागयं तं तु किंचि आमुसइ । अत्थो वि कोइ सुत्तं, अणागयं चेव आमुसइ ॥ ५ ॥ ति ॥ ३२ ॥ दानाद्यभावादपि प्रायश्चित्तं विच्छिन्नमित्याह दिंता वि ण दीसंती, पच्छित्तं मासिआइअं इहि । ण सयं कुणंति जम्हा, तम्हा तं होइ विच्छिपणं ॥ 'दिंता वि'त्ति । ददतोऽपि न दृश्यन्ते मासिकादिकं प्रायश्चित्तमिदानीम्, आदिना चातुर्मासिकपञ्च मासिकपाक्षिका . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ-3 दिकसङ्ग्रहः । न च स्वयं मासिकादिकं प्रायश्चित्तं कुर्वन्ति यस्मात्तस्मात्तद्भवति विच्छिन्नं, यदाह-"दिता वि ण दीसंती, गुरुतत्त्वत्तियुतः मासचउम्मासिआओ सोही उ । कुणमाणे य विसोही, ण पासिमो संपयं केइ ॥१॥"त्ति ॥ ३३ ॥ अवशिष्टमाह- विनिश्चयः प्रथमो- णिज्जवगाण वि विरहा, ववहारो चरणलक्षणो णत्थि । तित्थं पवमाणं, दंस गनाणेहिं पडिहाइ ॥ ल्लास: 'णिजवगाण वित्ति । 'निर्यापकाणां' पर्यन्तसमये यथावस्थितशोधिप्रदानत उत्तरोत्तरचारित्रनिर्वाहकाणामपि विरहाच्चारित्रलक्षणो व्यवहारो नास्ति साम्प्रतम् , तस्माद् ज्ञानदर्शनाभ्यामेव तीर्थ प्रवर्त्तमानं प्रतिभाति, तदाह-"तित्थं च नाणदंसण णिज्जवगा चेव वुच्छिन्ना" ॥ ३४ ॥ उपसंहृत्य समाधानं प्रतिजानीतेइय एस पुवपक्खो, अवरुप्परवयणजुत्तिसंलग्गो। एत्थ समाहाणविहिं, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए ॥३५॥ पूर्वपक्षोप_ 'इय'त्ति । 'इति' अमुना प्रकारेण एष पूर्वपक्षः प्रसक्तानुप्रसक्तयाऽपरापरवचनयुक्त्या संलग्नः, 'अत्र' पूर्वपक्षे वक्ष्या-18संहारः प्रतिन्यथ समाधानविधि 'आनुपू॰' क्रमेण ॥ ३२ ॥ तत्र यत्तावदुक्तं “निश्चयत एव सिद्धिः” इति तत्राह वचःप्रतिज्ञा णिच्छयओ च्चिय सिद्धी, जं भणिअं तं तहेव णिच्छयओ। | ॥१०॥ ववहारेण विणा सो, णवरि ण सिद्धो जओ भणिअं ॥ ३६॥ निश्चयत एव __ "णिच्छयओ चिय'त्ति । निश्चयत एव सिद्धिारति यद्भणितं तत्तथैव, निश्चयपदस्यान्वर्थत्वात्फलसिद्धेस्तदर्थत्वात् । 'न- सिद्धिरित्यवर' केवलं व्यवहारेण विना 'निश्चयतः' परमार्थतो निश्चय एव न सिद्धा, अर्थशून्यशब्दमात्रत्वात् , तथा च निश्चयत एव w ine by ong Jain Educ a tional Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धिरिति भनवाप्यर्थाद्व्यवहार उपादीयत एव, सम्यग्दृष्टिनयद्वयस्य प्रधानोपसर्जनभावेनान्योऽन्यविषयसंवलित-1 स्वात् , अत्र संमतिमाह-यतो भणितमोघनिर्युक्तावेव ॥३६॥ णिच्छयमवलंबता, णिच्छयओ णिच्छयं अयाणंता। णासंति चरणकरणं, बाहिरकरणालसा केई ॥३७॥ I णिच्छय'मिति । 'निश्चय' निश्चयनयं 'अवलम्बमानाः' ग्राह्यत्वेन प्रतिजानानाः 'निश्चयतः' परमार्थतो निश्चयमजानानाः 'नाशयन्ति' श्रोतृणां हानबुद्धिविषयीकुर्वन्ति बाह्यकरणालसाः केचित् । निश्चयेन निश्चयज्ञाने तेषां बाह्यकरणालस्यमेव प्रतिबन्धकमिति न तद्विधेयम्, किन्तु व्यवहारोद्यतत्वमेव विधेयमिति भावः ॥ ३७॥ निश्चयतो निश्चयस्य |स्वरूपमाह जो णिच्छओ पवट्टइ, हेउसरूवाणुबंधपडिपुण्णो।सो णिच्छयओ णेओ, वायामित्तेण इअरो उ॥३८॥ | 'जो णिच्छओत्ति । यो निश्चयः प्रवर्त्तते हेतुस्वरूपानुबन्धप्रतिपूर्णः 'सः' निश्चयो निश्चयतो ज्ञेयः । इतरः' हेतुस्वरू- पानुबन्धविकलस्तु 'वाड्मात्रेण' निश्चयशब्दमात्रेण निश्चयाभास इति यावत् ॥ ३८ ॥ हेत्वादिस्वरूपमाहहेउ विसुद्धा किरिया, एगग्गालंबणं सरूवं तु।अणुबंधो इह णेओ, जगहियवित्ती समावत्ती ॥३९॥ _ 'हेउ'त्ति। हेतुरत्र निश्चये ज्ञप्तिरूपे प्रवृत्तिरूपे च 'विशुद्धा' शास्त्रानुसारिणी क्रिया, सद्व्यवहारविषयप्रतिक्षेपभ्रमजनकातालस्यदोषनिवर्तकत्वेनाशुभानेकालम्बननिवर्तकत्वेन च तस्यास्तद्धेतुत्वात् । स्वरूपं त्वेकामालम्बनम् , ज्ञप्तेर्भावमात्र विषय शुद्धनिश्चय खरूपम. For Private winery.org Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो- ॥११॥ CROCOCOCCALGAOCAL त्वात् , प्रवृत्तेश्च ध्यानादियोगरूपाया आत्ममात्रविषयत्वात् । 'अनुबन्धः' उत्तरोत्तरशुभसन्तानाविच्छेदलक्षणः 'इह' गुरुतत्त्व जिनमते 'जगद्धितवृत्तिः' सर्वहितावहा 'समापत्तिः' चन्दनगन्धस्थानीया स्वस्वदर्शनग्रहविमुखसहजमाध्यस्थ्यपरिणतिःला तथा च यथा व्यवहारस्य सज्ज्ञानपूर्वकत्वेन हेत्वादिशुद्धत्वं तथा निश्चयस्यापि सद्व्यवहाराविरोधित्वेनैवेति सिद्धम् । लासः. ॥ ३९ ॥ एतदेव भावयतिणिच्छयवहुमाणेणं, ववहारो णिच्छओवमो कोई।ण य णिच्छओ वि जुत्तो, ववहारविराहगो कोई॥ 'णिच्छय'त्ति । निश्चयस्य बहुमानेन-स्वविषयशक्त्यनिगृहनदृढपक्षपातलक्षणेन 'व्यवहारः' शुद्धक्रियालक्षणः कश्चि'निश्चयोपमः' निश्चयकार्यकारी।न च 'निश्चयोऽपि' निश्चयवदाभासमानोऽपि 'व्यवहारविराधकः' शक्तिनिगृहनापक्षपाताभ्यां व्यवहारोच्छेदकः कोऽपि युक्तः, व्यवहारालसस्य निश्चयतत्त्वानास्पदत्वात् , तदुक्तमावश्यके-"संजमजोगेसु सया, जे पुण संतविरिया वि सीति । ते कह विसुद्धचरणा, बाहिरकरणालसा हुंति ॥१॥"त्ति ॥ ४० ॥ तदेवं निश्चयत एव सिद्धिरित्यत्र निश्चयस्यैव निश्चयपर्यालोचनायां व्यवहारस्यापि बलादुपनिपातादनैश्चयिकनिश्चयव्यवच्छेदार्थ-I वादेवकारस्यास्मदभिमतार्थसिद्धिरेवेत्युक्तम् । अथ च व्यवहारव्यवच्छेदकत्वे एवकारस्यानुक्तिसम्भव एवेत्याह- । ॥११॥ णिच्छयववहाराणं, रूवं अण्णुण्णसमणुविद्धं तु । णिच्छयओ च्चिय सिद्धी, ता कह वुत्तुं हवइ जुत्तं॥ _ 'णिच्छय'त्ति । निश्चयव्यवहारयोः 'रूप' स्वरूपं 'अन्योन्यसमनुविद्धं तु' तुः-एवकारार्थः, अन्योन्यसमनुविद्धमेव, व्य कर For Private & Personal use only .jainelibrary.org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहारे शुद्धक्रियारूपे स्थानार्थाद्यालम्बनभावरूपनिश्चयसम्बन्धस्य शुद्धात्मतत्त्वविवेकलक्षणे निश्चये च शुभयोगप्रवृत्तिरूपद्रव्यक्रियाव्यवहारसम्बन्धस्य नियतत्वात्। 'तत् तस्मान्निश्चयत एव सिद्धिरिति कथं वक्तं युक्तं भवति !, अन्योन्यसमनुविद्धानामेकाभावेऽन्याभावस्याप्यावश्यकत्वाद्यवहाराभावे निश्चयस्याप्यभावात् ॥ ४१॥ एतदेवाहजह दुद्धपाणियाणं, एगाभावेऽवरस्स णो सत्ता । णिच्छयववहाराणं, तह संबद्धाण अण्णुप । 'जह'त्ति । यथा दुग्धपानीययोमिथःसंवलितयोरेकाभावेऽपरस्याप्यभाव इति नो सत्ता, मिश्रिताभावस्योभयाभावनियतत्वात् । तथा निश्चयव्यवहारयोरन्योऽन्यसंबद्धयोरेकाभावेऽपरस्याप्यभाव इति ॥ ४२ ॥ ननु व्यवहारे निश्चयस्य निश्चये च व्यवहारस्य गौणभावेन सत्त्वेऽपि प्राधान्येन सत्त्वं नास्तीति प्राधान्येनानयोरन्योन्यासंबद्धत्वमस्तीत्यत है RECRUGALASAHECANSAR जइ वि पुहब्भावो सिं, पाहण्णमविक्ख भूमिभेएणं । णियणियफलसिद्धिं पइ, तह वि ण दुण्हं पि पडिबंधो ॥ ४३ ॥ 'जइ वित्ति। यद्यपि 'अनयोः' निश्चयव्यवहारयोःप्राधान्यमपेक्ष्य भूमिकाभेदेन' व्युत्थानध्यानदशाभेदेन पृथग्भावो|ऽस्ति, व्यवहारदशायां भावनानुप्रेक्षादिलक्षणभावसत्त्वेऽपि ध्यानरूपनिश्चयस्यैवानुत्थानान्निश्चयदशायां च ध्यानलक्ष४ाणायां व्युत्थानरूपतयैव व्यवहारस्यानवकाशात , तथापि 'निजनिजफलसिद्धि प्रति' स्वस्वोचितकार्यनिष्पत्तिं प्रति द्वयो-15 For Private & Personal use only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवृ- रपि न प्रतिबन्धः, निश्चयेनेव व्यवहारेणापि स्वोचितनिर्जराजननाविशेषात् , तथा च निश्चयत एव सिद्धिरिति रिक्त गुरुतत्त्वत्तियुतः वचः ॥४३॥ यदप्युक्तं "शुद्धश्च निश्चयनयः” इति स एवाश्रयणीय इति तत्राह विनिश्चयः प्रथमोसुद्धत्तं पुण दोण्ह वि, णियवत्तवाणुगाणमविसिडं। सट्ठाणे बलिआणं, जंभणियं संमईइ इमं ॥४४॥ ॥१२॥ 'सुद्धत्तं पुण'त्ति । शुद्धत्वं पुनः 'द्वयोरपि' निश्चयव्यवहारयोः 'निजवक्तव्यानुगयोः' स्वाभिमततत्त्वानुसारिणोः निश्चयः शु 'स्वस्थाने स्वविषये 'बलिकयोः' इतरापातक्षेप्ययोरविशिष्टम् , “सबे वि होति सुद्धा, णत्थि असुद्धो णओ उ सट्ठा।" लद्ध'इति तस्यैइति व्यवहारभाष्यवचनेनेतरापेक्षयाऽशुद्धस्यापि स्वापेक्षया शुद्धत्वात् , दीर्घत्वहस्वत्वयोरिव शुद्धत्वाशुद्धत्वयोरव्यव- वाश्रयणीय|स्थितत्वात् , यद्भणितं सम्मतावेतन्महामतिना ॥४४॥ त्वमित्यत्र प्रतिवचः. णिययवयणिजसच्चा, सव्वणया परविआलणे मोहा । ते पुण अदिठ्ठसमओ, विभयइ सच्चे व अलिए वा ॥ ४५ ॥ "णियय'त्ति । निजकवचनीये सत्या अर्थप्रतिपादकत्वात् सर्वे नया नैगमादयः परस्य नयस्य विचारणे परेण नयेन | विचालने-स्वार्थस्य परित्याजने वा 'मोषा' विफला असत्या इति यावत् , अन्यार्थाप्रतिपादकत्वादन्यनयप्रतिबन्धेन स्वा प्रतिपादकत्वाद्वा ।'तान्' नयान पुनः 'अदृष्टसमयः' अज्ञातसिद्धान्तपरमार्थः 'विभजते' एकान्तेन निश्चिनोति सत्यान् अलीकान् वा स्यात् । सत्यत्वासत्यत्वप्रतिपादने तु दृष्टसमतैवेति भावः ॥४५॥ तदेवं निश्चयव्यवहारयोर्द्वयोरपि For Private Personal Use Only www.iainelibrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धत्वमविशिष्टमित्युक्तम् । अथ निश्चय एव शुद्ध इति पक्षपातनिरासाय व्यवहारशुद्धतापक्षपाताभिप्रायादाहमिच्छत्तविसोहीए, ववहारणयस्स होइ सुद्धत्तं । ण उ णिच्छयस्स जमिणं, भणियं ववहारभासम्मि॥ 'मिच्छत्त'त्ति । मिथ्यात्वविशुद्ध्या हेतुभूतया व्यवहारनयस्य भवति शुद्धत्वम् , तस्य नियमतो मिथ्यात्वविशोधक-| त्वात् । न तु निश्चयस्य, मिथ्यात्वविशोधकत्वाभावात्तस्य । यद्भाणतमेतद्वयवहारभाष्ये ॥४६॥ निश्चय एव वेणइए मिच्छत्तं, ववहारणया उ जं विसोहिंति। तम्हा ते चिय सुद्धा, भइअव्वं होइ इयरेहिं ॥४७॥ शुद्धः' इति निरासेन _ 'वेणइए'त्ति । वैनयिको नाम मिथ्यादृष्टिस्तस्मिन् यन्मिथ्यात्वं तद् ‘व्यवहारनया एव' तुरेवकारार्थः, नैगमसङ्ग्रहव्यास Hai ममसह व्यवहारवहाराः 'शोधयन्ति' अपनयन्ति, ते ह्यनुयायिद्रव्याभ्युपगमपराः, ततः कृतकर्मफलोपभोगोपपत्तेः सद्धर्मदेशनादौ प्रवृत्तियो शुद्धतापक्षगतो भवति तात्त्विकी शुद्धिः, तस्मात्त एव शुद्धाः। भइअव्वं होइ इयरेहि'ति, इतरैः' ऋजुसूत्रादिभिनयेमिथ्यात्वशोधिमअधिकृत्य भजनीयम् , न शुद्ध्यतीति भावः। ते हि पर्यायमात्रमभ्युपगच्छन्ति, पर्यायाणां च परस्परमात्यन्तिको भेदः, ततः कृतविप्रणाशादिदोषप्रसङ्गः । तथाहि-मनुष्येण कृतं कर्म किल देवो भुते मनुष्यावस्थाभिन्नः, ततो मनुष्यकृतकर्मविप्रदाणाशः, मनुष्येण सता तस्योपभोगाभावात्। देवस्य फलोपभोगोऽकृताभ्यागमः, देवेन सता तस्य कर्मणोऽकरणात् । कृतविप्रणाशादिदोपरिज्ञाने च न कोऽपि धर्मश्रवणेऽनुष्ठाने वा प्रवर्तेत इति मिथ्यात्वशुद्ध्यभावः, तदभावाच्च न ते शुद्धा इति ॥ ४७॥ एतदेव स्पष्टतरं विबिभावयिषुराह पातः गुरुत. ३ A JainEduc a tional For Private Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतितः प्रथमो ॥ १३ ॥ विवहारणयस्साया कम्मं काउं फलं समणुहोइ । इय वेणइए कहणं, विसेसणे मा हु मिच्छत्तं ॥ ४८ ॥ 'ववहारणयस्स'ति । व्यवहारप्रधानो नयो व्यवहारनयस्तस्य मतेन आत्मा शुभमशुभं वा कर्म कृत्वा तस्य फलं भवान्तरे समनुभवति, अनुयायिद्रव्याभ्युपगमात् । 'इति' एतस्मात्कारणात् 'वैनयिके' मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वापगमाय 'कथनं' सद्धर्मोपदेशः, तत्परिणतौ च मिथ्यात्वापगम इति मिथ्यात्वशोधकत्वात्रयोऽपि व्यवहारनयाः शुद्धाः । 'विसेसणे मा हु मिच्छत्त' मिति, विशेष्यते - परस्परं पर्यायजातं भिन्नतया व्यवस्थाप्यतेऽनेनेति विशेषणम् - ऋजुसूत्रादिनयस्तस्मिन् प्ररूप्यमाणे कृतविप्रणाशादिदोषाशङ्कातोऽधिकतरं मा जन्तवो मिथ्यात्वं यासुरिति न तन्मतानुसारेण वैनयिके सद्धर्म| देशनाप्रवृत्तिः, तदभावाच्च न मिथ्यात्वशुद्धिरिति न ते शुद्धाः ॥ ४८ ॥ व्यवहारस्य मिथ्यात्वविशोधकताया एव तन्त्राअन्तरोकं फलमाह - इत्तो कालियसुत्ते, अपरीणामाइसीसहिअहेउं । ववहारस्सऽ हिगारो, भणियं आवस्सए जमिणं ॥ ४९ ॥ 'इत्तो 'ति । ' इतः ' नियमतो मिथ्यात्वविशोधकत्वादपरिणामादयो ये शिष्यास्तेषां हितहेतोः सूत्रे कालिक | उपलक्षणादुत्कालिकश्रुते च व्यवहारस्याधिकारः कृत आर्यरक्षितसूरिभिः । तथाहि त्रिविधाः शिष्याः - अपरिणामा अतिपरिणामाः परिणामाश्च । तत्र ये मन्दमतयोऽगीतार्था अपरिणतजिनवचन रहस्यास्तेऽपरिणामाः, अतिव्याप्तापवाददृष्टयोऽतिपरिणामाः, सम्यक्परिणतजिनवचना मध्यस्थवृत्तयः परिणामाः । तत्र येऽपरिणामास्ते नयानां य आत्मीय आ गुरुतत्वविनिश्चयः लासः शिष्य त्रैवि ध्यम. ॥ १३ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHARGauraMIRMIRMIRRORS त्मीयो विषयो ज्ञानमेव श्रेयः क्रिया वा श्रेयसीत्यादिकस्तं न श्रद्दधते । ये त्वतिपरिणामास्तेऽपि यदेवैकेन नयेन क्रियादिकं वस्त्वभिहितं तदेव तन्मात्रमेव प्रमाणतया गृह्णन्त एकान्तवस्तुप्रतिपादकनयानां परस्परविरोधं च मन्यमाना मिथ्यात्वं गच्छेयुः। ये च परिणामास्ते यद्यपि मिथ्यात्वं न गच्छन्ति तथापि विस्तरेण नयाख्यायमानैर्ये सूक्ष्माः सूक्ष्मतराश्च तद्भेदास्तान् ग्रहीतुमशक्ता भवेयुरिति मूलत एव नयविभागो न कृतः, तदुक्तं भाष्यकृता-“णाऊण रक्खि-61 अज्जो, मइमेहाधारणासमग्गं पि । किच्छेणं धरमाणं, सुपण्णवं पूसमित्तं पि॥१॥ अइसयकओवओगो, मइमेहाधारणाइपरिहीणे । नाऊण सेसपुरिसे, खेत्तं कालाणुरूवं च ॥२॥ साणुग्गहोऽणुओगे, वीसुं कासी य सुअविभागेण । | सुहगहणाइणिमित्तं, णए अ सुणिगृहियविभागे ॥ ३ ॥ सविसयमसदहंता, णयाण तम्मत्तयं च गिण्हंता । मण्णंता य है विरोह, अपरीणामातिपरिणामा ॥ ४ ॥ गच्छेज मा हु मिच्छं, परिणामा य सुहुमाइबहुभेए । हुजाऽसत्ता घेत्तुं, ण का लिए तो नयविभागो॥५॥"त्ति । केवलमाद्यैस्त्रिभिर्नयैः परिकर्मितः सन् दृष्टिवादयोग्यो भवतीत्याद्यनयत्रयलक्षणस्य ४व्यवहारस्यात्राधिकारः, तदुक्तम्-"पायं संववहारो, ववहारतेहिं तीहिं जं लोए। तेण परिकम्मणत्थं, कालियसुत्ते तदहिगारो ॥१॥” त्ति । उक्तार्थे सूत्रालापसम्मतिमाह-'यत्' यस्माद् भणितमिदमावश्यके ॥ ४९॥ . एएहिँ दिट्ठिवाए, परूवणा सुत्तअत्थकहणा य। इह पुण अणब्भुवगमो, अहिगारो तीहि ओसन्नं ॥५०॥ | 'एएहिं'ति । एतैः' नैगमादिनयैः सप्रभेदैर्दृष्टिवादे सर्ववस्तूनां प्ररूपणा क्रियत इति वाक्यशेषः, सूत्रार्थकथना च । न दच वस्तूनां सूत्रार्थानतिलङ्घनात्समुच्चयोऽनर्थक इति शङ्कनीयं, सूत्रोपनिबद्धस्यैव सूत्रार्थत्वेन विवक्षणात् तद्व्यतिरेके-16 DESCRMACEUGUSDCOMSROS SMSCENESCOR WITTAMu . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ त्तियुतः प्रथमो ॥१४॥ MAGAR णापि वस्तुसम्भवात् । 'इह' पुनः कालिकश्रुतेऽनभ्युपगमः, नावश्यं नयैर्व्याख्या कार्येति भावः । यदि च श्रोत्रपेक्षया । गुरुतत्त्व. नयविचारः कर्त्तव्यस्तदा त्रिभिराद्यैर्नयैः ‘उत्सन्नं' प्रायेणाधिकारः, तैरेव लोकव्यवहारपरिसमाप्तेरिति । न च कालिकसूत्रे विनिश्चयः नयानवकाशादायैस्त्रिभिनयैरपि कथं व्याख्या? इति शकुनीयं, परिकर्मणार्थ नयपरिग्रहस्यात्राप्यभिधानाद्, अशेषन- ल्लास:. |यप्रतिषेधस्य त्वाचार्यविनेयविशिष्टबुद्ध्यभावापेक्षत्वात, श्रोतृवक्तृवैचित्र्ये तु नयव्याख्यावैचित्र्यस्य सम्प्रत्यप्यनुमतत्वात् , तदुक्तम्-"णस्थि णएहिं विहुणं, सुत्तं अत्थो अ जिणमए किंचि । आसन्ज उ सोआरं, णए णयविसारओ बूया ॥१॥ भासेज वित्थरेण वि, णयमयपरिणामणासमत्थस्मि । तदसत्ते परिकम्मणमेगणएणं पि वा कुज्जा ॥२॥" इति ॥ ५० ॥ ननु मिथ्यात्वविशोधकत्वं व्यवहारस्यव न तु निश्चयस्येति पक्षपातो न युक्तः, निश्चयस्यापि पुद्गलात्मामे-18 दग्रहादिरूपव्यवहाराभिनिवेशनिवर्तकत्वेन मिथ्यात्वशोधकत्वात् , तदर्थमेव निश्चयदेशनाया अपि प्रवृत्तेः, एकनयाभिनिविष्टं प्रति नयान्तरदेशनायाः 'संविग्गभाविआण' इत्यादि कल्प-निशीथभाष्यग्रन्थेनोपपादितत्वाच्च; अथ प्रथमतो मिथ्यात्वनिवर्तकत्वं व्यवहारस्यैव "वेणइओ णाम मिच्छट्टिी तप्पढमयाए धम्मं कहेह त्ति उट्ठाइ तस्स ववहारणयव ॥१४॥ त्तबयाए कहिज्जइ"त्ति व्यवहारचूर्णिवचनात् , निश्चयस्य चानन्तरं मिथ्यात्वनिवर्तकत्वमित्यस्ति विशेष इति चेन्न, व्यवहार मिथ्यात्वनिवत्तकत्वमात्रस्य शुद्धतानिमित्तत्वात्तत्र प्रथमानन्तरभावस्याप्रयोजकत्वादित्यस्वरसादपक्षपाताभिप्रायेणाह- IPानिश्चययोरइयराभिणिवेसाहियमिच्छत्तं णिच्छओ वि सोहेइ । तम्हा अपक्खवाओ, जुत्तो दोण्हं पि सुद्धत्ते ॥५१॥ पक्षपातन्या'इयर'त्ति । इतर:-निश्चयापेक्षया भिन्नो व्यवहारनयस्तस्य योऽभिनिवेशः- एकान्तग्रहस्तदाहितं मिथ्यात्वं निश्चयोऽपि For Private Personal Use Only wasnainelorary.org Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COMCALCOM नयानां प्र. माण-नयदुर्णय संज्ञा वोपदर्शनम शोधयति, तस्माद् 'द्वयोरपि' निश्चयव्यवहारयोः शुद्धत्वेऽपक्षपातो युक्तः ॥५१॥ नयशब्दवाच्यतयाऽपि दुर्नयव्यावृत्तया सर्वनयसाधारणं व्यवहारस्य शुद्धत्वमस्तीत्यभिप्रायवानाहअण्णुण्णं मिलिआणं, पमाणसण्णा णयाण णयसण्णा । इयराविराहणेणं, दुग्णयसण्णा य इहरा उ॥ | 'अण्णुण्ण'ति । 'अन्योऽन्य' परस्परं 'मिलितानाम्' अर्पणानर्पणाभ्यां संभूय साकल्येन सप्तभङ्गोपस्थापकतया संब- द्वानां नयानां प्रमाणसज्ञा, सप्तभङ्गपरिकरितपरिपूर्णार्थबोधकतापर्याप्तिमद्वाक्यस्यैव प्रमाणवाक्यत्वात् । तथाहि-प्रति- पर्यायं तावत्सप्तधैव सन्देहः, स्वगोचरवस्तुधर्माणां सप्तविधत्वनियमात् , ततश्च सप्तधा जिज्ञासा, ततः सप्तधा प्रतिपा- द्यपर्यनुयोग इति, तदनुरोधात्सप्तभङ्गात्मकमेव प्रमाणवाक्यमुपन्यसनीयं, न त्वेकादिभङ्गविकलं, सन्देहशेषाविच्छेदात् प्रत्यक्षस्यावग्रहादिचतुष्टयान्यतरवैकल्य इवागमस्याप्येकादिभङ्गवैकल्ये प्रमाणत्वाव्यवस्थानात् । सप्तभङ्गात्मकमपि च वाक्यं यद्यप्युक्तसकलसमारोपव्यवच्छेदकतया प्रमाणं तथापि विकलादेशस्वभावत्वेऽनन्तधर्मात्मकपरिपूर्णवस्त्वप्रापकत्वादप्रमाणम् । सकलादेशस्वभावत्वे तु विपर्ययात्प्रतिभङ्गं प्रमाणम् । सकलादेशस्वभावत्वं चास्तित्वादिधर्माणां शेषानन्तधर्म समं द्रव्यार्थिकनयप्राधान्ये पर्यायार्थिकनयगौणभावे चाभेदवृत्त्या पर्यायाथिकनयप्राधान्ये द्रव्याथिकनयगौणभावे चाभे | दोपचारेण युगपदनन्तधात्मकप्रतिपादकत्वम् । विकलादेशस्वभावत्वं च भेदवृत्तितदुपचाराभ्यामेकशब्दस्यानेकार्थप्र त्यायनशक्त्यभावलक्षणक्रमेण तत्प्रतिपादकत्वम् , तदुक्तं प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारे-"इयं सप्तभङ्गी प्रतिभङ्गं सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च ४-४३ । प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्याद For Private Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवत्तियुतः प्रथमो ॥१५॥ भेदोपचाराद्वा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेशः ४-४४ । तद्विपरीतस्तु विकलादेशः ४-४५।" इति । इतरस्य- गुरुतत्त्वभिन्नस्य नयस्याविराधनेन-अप्रतिक्षेपेण नयसज्ञा। 'इतरथा तु' इतरनयप्रतिक्षेपे तु दुर्नयसञ्ज्ञा । तदाहुदैवसूरयः-"नी- विनिश्चयः यते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः ७-१ । स्वाभि-| ल्लास.. प्रेतादशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः ७-२।” इति । उल्लेखस्तु नयस्य सदिति, दुर्नयस्य तु सदेवेति, तदाहुः श्रीहेम-181 चन्द्रसूरयोऽपि-"सदेव सत्स्यात्सदिति त्रिधार्थो मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः।” इति । स्यात्कारैवकारोच्चारणान्तर्भावेन स्यादस्त्येवेत्युल्लेखोऽपि नयस्य युक्त एव, विकलादेशस्वभावायाः सप्तभझ्या अपि प्रवृत्तेः वस्त्वंशग्राहकत्वेनैव प्रमाणसप्तभङ्गीतोऽस्याविशेषात् , तदुक्तम्-"नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्त्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभङ्गीमनुब्रजति" इति । न चैवं नयः स्वपरव्यवसायित्वेन प्रमाणं स्याद्, वस्त्वेकदेशाऽज्ञाननिवृत्तिफलस्य तस्य वस्त्वज्ञाननिवृत्तिफलात्प्रमाणाद्भिन्नत्वव्यवस्थापनादित्यधिकं स्याद्वादकल्पलता-नयरहस्यादौ विवेचितमस्माभिः। मलयगिरिपादाः पुनरित्थमाहुरावश्य- 51 मलयगिरिकवृत्तौ-"इह यो नयो नयान्तरसापेक्षतया स्याद्वा(त्प)दलाञ्छितं वस्तु प्रतिपद्यते स प धनमा गाटालाडियनं मत प्रतिपद्यते स परमार्थतः परिपणे वस्तग्रहातीति कृता प्रमाणप्रमाण एवान्तर्भवति । यस्तु नयवादान्तरनिरपेक्षतया स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेणाऽवधारणपूर्वकं वस्तु परिच्छेत्तुमभिप्रैति स नयव्याख्या. वस्त्वेकदेशपरिग्राहकत्वान्नय इत्युच्यते, स च नियमान्मिथ्यादृष्टिरेव, अयथावस्थितार्थवस्तुपरिग्राहकत्वात् , अत एवोकमन्यत्र-“सवे णया मिच्छावाइणो"त्ति। यत एव च नयवादो मिथ्यावादस्तत एव जिनप्रवचनतत्त्ववेदिनो मिथ्यावादित्वपरिजिहीर्षया सर्वमपि स्यात्कारपुरस्सरं भाषन्ते, न तु जातुचिदपि स्यात्कारविरहितम् । यद्यपि च लोकव्यवहार SUSMS Main Education International For Private & Personal use only wwwjina library.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथमवतीर्णा न सर्वत्र सर्वदा साक्षात्स्यात्सदं प्रयुञ्जते तथापि तत्राप्रयुक्तोऽपि सामर्थ्यात् स्याच्छन्दो द्रष्टव्यः, प्रयोजकस्य कुशलत्वात् , उक्तञ्च-"अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते । विधौ निषेधेऽन्यत्रापि, कुशलश्चेत्प्रयोजकः॥१॥" अत्रान्यत्रापीति अनुवादातिदेशादिवाक्येषु । ननु यदि सर्वत्र स्यात्पदप्रयोगानुसरणं तर्हि मूलत एवापगतोऽवधारणविधिः, परस्परमनयोविरोधात् , तथाहि-अवधारणमन्यनिषेधपरं स्यात्पदप्रयोगस्त्वन्यसङ्ग्रहणशील इति, तदयुक्तम् , सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , स्यात्पदप्रयोगो हि विवक्षितवस्त्वनुयायिधर्मान्तरसङ्ग्रहणशीलः, अवधारणविधिस्तु तत्तदाशङ्कितान्ययोगादिव्यवच्छेदादिफलः, तथाहि-ज्ञानदर्शनवीर्यसुखोपेतः किं जीवो भवति किं वा न? इत्याशङ्कायां प्रयुज्यतेस्याज्जीव एव । अत्र जीवशब्देन प्राणधारणनिबन्धनं जीवशब्दवाच्यत्वमभिधीयते । एवकारेण यदाशङ्कितं परेणाजीवश-12 ब्दवाच्यत्वं तस्य निषेधः । स्यात्पदप्रयोगात्तु ये ज्ञानदर्शनसुखादिरूपा असाधारणाः ये त्वमूर्त्तत्वासङ्ख्यातप्रदेशत्वादिल-4 क्षणा धर्मास्तिकायादिसाधारणाः येऽपि च सत्त्वप्रमेयत्वधर्मित्वगुणित्वादयः सर्वपदार्थसाधारणास्ते सर्वे प्रतीयन्ते ।। | यदा तु ज्ञानदर्शनादिलक्षणो जीवः किं वाऽन्यलक्षणः ? इत्याशङ्का तदैवमवधारणविधिः-स्यात् ज्ञानादिलक्षण एव जीवः । अत्र जीवशब्देन जीवशब्दवाच्यतामात्रं प्रतीयते, ज्ञानादिलक्षण एवेत्यलक्षणव्युदासः, स्यात्पदप्रयोगात्साधारणासाधारणधर्मपरिग्रहः । यदा तु जगति जीवोऽस्ति किं वा न? इत्यसम्भवाशङ्का तदैवमवधारणं-स्यादस्त्येव जीवः । अत्रापि जीवशब्दप्रयोगाजीवशब्दवाच्यताऽवगतिः, स्यात्पदप्रयोगादसाधारणसाधारणधर्मपरिग्रहः, अस्त्येवेत्यवधारणादसम्भवाशङ्काव्यवच्छेदः । एवमन्यत्रापि साक्षाद्गम्यमानतया वा स्यात्पदप्रयोगपुरःसरं यथायोगमवधारणविधिः सम्य RECESSAGARCARROR Jan Edua tematon Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञव- त्तियुतः प्रथमो. गुरुतत्वविनिश्चयः प्रवचनार्थ जानानेन प्रयोक्तव्यः । अवधारणाभावे तु जीवाजीवादिवस्तुतत्त्वव्यवस्थाविलोपप्रसङ्गः, तथाहि-यद्यन्यव्यवच्छेदेन ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो जीव एवेति नावधार्यते तर्हि अजीवोऽपि तल्लक्षणः स्यादिति जीवाजीवव्यवस्थालोपः । तथा यदि ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण एवं जीव इत्यन्ययोगव्यवच्छेदो नाभ्युपगम्यते ततोऽन्यत्किमप्यजीवानुगतमजीवसाधारणं वा तथालक्षणमाशयेत तथाऽपि जीवेतरविभागपरिज्ञानाभावः, ततो यथासम्यग्वादित्वमिच्छता सर्वत्र स्यात्पदप्रयोगः साक्षाद्गम्यो वाऽनुश्रियते तथा यथायोगमवधारणविधिरपि, अन्यथा यथाऽवस्थितवस्तुतत्त्वप्रतिडापत्त्यनुपपत्तेः । न चावधारणविधिः सिद्धान्ते नानुमत इति वक्तव्यम् , तत्र तत्र प्रदेशेऽनेकशोऽवधारणविधिदर्शनात्, तथाहि-"किमयं भंते ! कालो त्ति पवुच्चइ ? गोयमा! जीवा चेव अजीवा चेव ।” स्थानाङ्गेऽप्युक्तम्-"जदित्थं च णं लोए तं सबं दुपडोआरं, तंजहा-जीवा चेव अजीवा चेव । तहा-जह चेव उ मोक्खफला आणा आराहिआ जिणिदाणं" इत्यादि । या त्ववधारणी भाषा प्रवचने निषिध्यते सा क्वचित् तथारूपवस्तुतत्त्वनिर्णयाभावात् , कचिदेकान्तप्रतिपादिका वा, न तु सम्यग्यथावस्थितवस्तुतत्त्वनिर्णये स्यात्पदप्रयोगावस्थायामिति । दैगम्बरी त्वियं प्रमाणनयपरिभाषा-"सम्पूर्णवस्तुकथनं प्रमाणवाक्यम् , यथा-स्याज्जीवः स्याद्धमास्तिकाय इत्यादि । वस्त्वेकदेशकथनं नय- वादः।" तत्र यो नाम नयो नयान्तरसापेक्षः स नय इति वा सुनय इति वा प्रोच्यते, यस्तु नयान्तरनिरपेक्षः स दुर्नयो नयाभास इति, तथा चाहाकलङ्कः-"भेदाभेदात्मके ज्ञेये, भेदाभेदाभिसन्धयः। ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां, लक्ष्यन्ते नयदुर्नयाः॥१॥" अस्याः कारिकाया लेशतो व्याख्या-भेदः-विशेषः अभेदः-सामान्यं तदात्मके-सामान्यविशेषात्मक दैगम्बरीप्रमाणनयपरिभाषा. Main Education International For Private Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASARAMASCCCCCXCX इत्यर्थः, 'ज्ञेये' प्रमाणपरिच्छेद्य वस्तुनि 'भेदाभेदाभिसन्धयः' सामान्यविशेषविषयाः पुरुषाभिप्राया अपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते ते यथासङ्घयं नयदुर्णया ज्ञातव्याः।किमुक्तं भवति ? विशेषसाकाङ्कः सामान्यग्राहकोऽभिप्रायो विशेषपरिग्राहको वा सामान्यसापेक्षो नयः, इतरेतराकाङ्क्षारहितस्तु दुर्नयः॥" नयचिन्तायामपि च ते दिगम्बराः स्यात्पदप्रयोगमिच्छन्ति, तथा । चाकलङ्क एव प्राह-"नयोऽपि तथैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात्" इति । अत्र टीकाकारण व्याख्या कृता-'नयोऽपि नयप्रतिपादकमपि वाक्यं न केवलं प्रमाणवाक्यमित्यपिशब्दार्थः, 'तथैव' स्यात्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तविषयस्यात् , यथा स्यादस्त्येव जीव इति । स्यात्पदप्रयोगाभावे तु मिध्यकान्तगोचरतया दुर्नय एव स्यादिति" तदेतदयुक्तं, प्रमाणनयविभागाभावप्रसक्तः, तथाहि-स्याजीव एवेति किल प्रमाणवाक्यम् , स्यादस्त्येव जीव इति नयवाक्यम्, एतच्च द्वयमपि लघीयस्तत्त्वालङ्कारे साक्षादकलकेनोदाहृतम् । अत्र चोभयत्राप्यविशेषः, तथाहि-'स्याज्जीवः एव]' इत्यत्र जीवशब्देन प्राणधारणनिबन्धना जीवशब्दवाच्यताऽभिधीयते, एवकारप्रयोगतोऽसाधारणसाधारणधर्माक्षेपः । स्यादस्त्येव जीव इत्यत्र जीवशब्देन जीवशब्दवाच्यताप्रतिपत्तिरित्युभयत्राप्यविशेष एव । तथा च सिद्धव्याख्याता न्यायावतारविवृती स्थादस्त्येव जीव इति प्रमाणवाक्यमुपन्यस्तवान् , तथा च तदतोग्रन्थः-"यदा तु प्रमाणव्यापारमविकलं परामृश्य प्रतिपादयितुमभिप्रयन्ति तदाङ्गीकृतगुणप्रधानभावाशेषधर्मसूचककथञ्चित्पर्यायस्याच्छब्दविभूषितया सावधारणया च वाचा दर्शयन्ति स्यादस्त्येव जीव इत्यादिकया। अतोऽयं स्याच्छब्दसंसूचिताभ्यन्तरीभूतानन्तधर्मकस्य साक्षादुपन्यस्त जीवशब्दक्रियाभ्यां प्रधानीकृतात्मभावस्यावधारणव्यवच्छिन्नतदसम्भवस्य वस्तुनः संदर्शकत्वात्सकलादेश इत्युच्यते, प्रमाणप्रति-14 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रोपज्ञवृ-15पन्नसम्पूर्णार्थकथनमिति यावदित्यादि ।" तस्मादस्मदुक्तैव प्रमाणनयव्यवस्था समीचीना, यथा यो नाम नयो नयान्तरसा-16] गुरुतत्त्व त्तियुतःपेक्षः स परमार्थतः स्यात्पदप्रयोगमभिलषन् सम्पूर्ण वस्तु गृह्णातीति प्रमाणेऽन्तर्भावनीयः । नयान्तरनिरपेक्षस्तु नयो विनिश्चयः प्रथमो. दुर्नयः, स च नियमान्मिथ्यादृष्टिरेव, सम्पूर्णवस्तुग्राहकत्वाभावादिति । अत्रेदमवधेयम्-यो नाम नयो नयान्तरापेक्षस्तस्य ल्लास: प्रमाणान्तर्भावे व्यवहारनयः प्रमाणं स्यात् , तस्य तपःसंयमप्रवचनग्राहकत्वेन संयमग्राहिनिश्चयविषयविषयकत्वेन तत्सा॥१७॥ |पेक्षत्वात् । शब्दनयानां च निक्षेपचतुष्टयाभ्युपगन्तृणां भावाभ्युपगन्तृशब्दनयविषयविषयकत्वेन तत्सापेक्षत्वात्प्रमाणत्वाआपत्तिः । नयान्तरवाक्यसंयोगेन सापेक्षत्वे च ग्राह्ये स्यात्पदप्रयोगेण सप्रतिपक्षनयद्वयविषयावच्छेदकस्यैव लाभात् , तेनानन्तधर्मकत्वापरामर्शः, न चेदेवं तदाऽनेकान्ते सम्यगेकान्तप्रवेशानुपपत्तिरवच्छेदकभेदं विना सप्रतिपक्षविषयसमावे-161 शस्य दुर्वचत्वात् , इष्यते चायम् , यदाह महामतिः-"भयणा वि हु भइयबा, जह भयणा भयइ सबदबाई। एवं भयणानियमो, वि होइ समयाविराहणया ॥१॥” इति । समन्तभद्रोऽप्याह-"अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः, प्रमाणनयसाधनः। अनेकान्तः प्रमाणात्ते, तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥१॥” इति । पारमर्षेऽपि-"इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं सासया असासया? गोयमा! सिय सासया सिअ असासया । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा! दबट्टयाए सासया पज्जवठ्याए असासया।" इति प्रदेशे स्यात्पदमवच्छेदकभेदप्रदर्शकतयैव विवृतम्, अत एव स्यादित्यव्ययमने- ॥१७॥ कान्तद्योतकमेव तान्त्रिकै रुच्यते, सम्यगेकान्तसाधकस्यानेकान्ताक्षेपकत्वात् , न त्वनन्तधर्मपरामर्शकम् , अतोन स्यात्पदप्र-योगमात्राधीनमादेशसाकल्यं येन प्रमाणनयवाक्ययोर्भेदो न स्यात्, किन्तु स्वार्थोपस्थित्यनन्तरमशेषधर्माभेदोपस्थापक HIKARAMIRRITATIwman aRIETITIHeam Jan Education temans For Private & Personal use only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CASSAGAR विधेयपदवृत्त्यधीनं, सा च विवक्षाधीनेत्यादेशसाकल्यमपि तथेति नयप्रमाणवाक्ययोरित्थं भेद एव । मलयागिरिपादवचनं त्वप्रतिपक्षधर्माभिधानस्थलेऽवच्छेदकभेदाभिधानानुपयुक्तेन स्यात्पदेन साक्षादनन्तधर्मात्मकत्वाभिधानात्तत्र प्रमाणनयाभेदानभ्युपगन्तृर्विदग्धदिगम्बरनिराकरणाभिप्रायेण योजनीयम् । अधिकं तु बहुश्रुता विदन्ति ॥५२॥ अथ परमभावगता निश्चय एव स्थिता इत्ययमेव बलीयानित्यभिनिवेशं निराचिकीर्षुराह णिच्छयठिय व मुणिणो, ववहारठिया वि परमभावगया। णिटिअसेलेसि चिय, सवकिट्ठो परमभावो ॥ FI णिच्छयठिय वत्ति । निश्चयस्थिता इव व्यवहारस्थिता अपि मुनयः परमभावगता एव, उभयत्राप्यानवनिवृत्तेरेव परमभावत्वात् , उत्कर्षलक्षणस्य पारम्यस्याप्युभयत्राविशेषात् । सर्वोत्कृष्टश्च परमभावो निष्ठिता-काष्ठाप्राप्ता चरमसम- यारू ढेति यावत् शैलेश्येव, तदुक्तं धर्मसङ्ग्रहण्याम्-“सो उ भवक्खयहड, सेलेसीचरमसमयभावी जो । सेसो पुण णिच्छयओ, तस्सेव पसाहगो भणिओ ॥१॥” इति । तथा च सर्वोत्कर्षाभिमानिना निश्चयवादिना निष्ठितां शैलेशी विना न किञ्चिदादरणीयम् , तदर्थमुत्कर्षबुद्ध्यैव प्राचीनादरे च निश्चयार्थ व्यवहारोऽपि तथैवादरणीय इति सिद्धम् ॥५३॥ निश्चये ध्यानलक्षणं पारम्यमस्ति व्यवहारे तु तन्नेत्याशङ्कां विक्षिपन्नाहववहारे वि मुणीणं, झाणप्पा अक्खओ परमभावो। जत्तस्स दढत्ताओ, जमिणं भणियं महाभासे ५४॥ 'ववहारे वित्ति । 'व्यवहारे' पदवाक्यमुद्रावर्त्तादिप्रणिधानगर्भकायवाग्व्यापाररूपेऽपि मुनीनां ध्यानात्मा परमभा परमभावगतानां नि श्चयगतत्वे निश्चयस्यैव है। बलीयस्त्व मिति दुरभिसन्धेनिरसनम्. ध्यानलक्षण | पारम्यं नि श्चय एव तु व्यवहा इत्यस्य निर सनम्, ForPrivate LPersonal use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ-16 लासः वोऽक्षतः, यत्नस्य 'दृढत्वाद्' एकाग्रत्वात् , अत एव योगत्रययोगपद्यस्याप्यविरोधप्रतिपादनात्पदवाक्यादिविषयमनसोड- गुरुतत्त्व. त्तियुतःप्याशुसंचारित्वेन कालभेदानुपलक्षणसमर्थनात् । यत्नदृढताया ध्यानलक्षणत्वे संमतिमाह-यदिदं भणितं 'महाभाष्ये विनिश्चयः: प्रथमो विशेषावश्यके ।। ५४ ॥ ॥१८॥ सुदढप्पयत्तवावारणं णिरोहो व विजमाणाणं । झाणं करणाण मयं, ण उ चित्तणिरोहमित्तागं ॥५५॥ । 'सुदढ'त्ति । सुदृढस्य-खेदादिदोषपरिहारेणोत्कृष्टस्य प्रयत्नस्य व्यापारणं निरोधो वा विद्यमानानां योगनिरोधदशायां ध्यानं 'करणानां' कायवाङ्मनसां मतम् , न तु चित्तनिरोधमात्रं, अन्यत्राव्याः , 'ध्यै चिन्तायां' इति धातुस्तु यथाश्रुतमात्रो न ग्राह्यः, धातूनामनेकार्थत्वात् परममुनिवचनानुरोधेनार्थान्तरकल्पनाया अपि न्याय्यत्वादिति भावः ॥ ५५॥ ननु निश्चयस्योत्तरोत्तरशुद्धिदृश्यते व्यवहारस्य तु सदैकरूपत्वमेवेत्यस्ति विशेषो निश्चयस्येत्यत आह ४ निश्चयस्यो. पढमं वयणठियाणं, धम्मखमाइटिआण तत्तो। भिण्णो चिय ववहारो, रयणम्मि णिओगदिद्वि वातरोत्तरशु_ 'पढमति । प्रथमं वचने स्थितानां आप्तोपदेशानुस्मरणनियतप्रवृत्तिकतया वचनक्षान्त्यादिव्यवस्थितानां 'ततः' तद- द्धिः न व्यवनन्तरं च 'धर्मक्षमादिस्थितानां' पूर्वदण्डव्यापाराहितन मिप्रयुक्ततन्निरपेक्षोत्तरचक्रभ्रमिस्थानीयशास्त्रव्यापारनिरपेक्षा-शहारस्यत्यस्य प्रतिक्षेपः. त्मसाद्भूतधर्मव्यवहारारूढानां भिन्न एव व्यवहारः, अभ्यासानभ्यासलक्षणयोर्हेत्वोरल्पबहुनिर्जरालक्षणयोः फलयोश्च ॥१८॥ भेदात् । दृष्टान्तमाह-रत्ने नियोगदृष्टिरिव, यथा हि बालाद्यवस्थाकालीनरत्नागपेक्षया सुलब्धपरीक्षस्य पुंसो रेखोपरे Jain Edu For Private & Personal use only Drary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROCROSSOBLUSAUSAUS खाद्याकलनकुशला नियोगदृष्टिर्भिन्ना, तथा प्रथमभिक्षाटनादिव्यवहारापेक्षयोत्तमदृष्टिसम्पन्नस्य तदुत्तरो भिक्षाटनादिव्यवहारोऽपि भिन्न एवेति भावः ॥५६॥ उक्तार्थे सम्मतिमाह| इत्तो पण्णत्तीए, ववहारे सवओ मलच्चाया । संवच्छराउ उड्डे, भणिअं सुक्काभिजाइत्तं ॥ ५७ ॥ | इत्तोत्ति । 'इतः' उत्तरोत्तरव्यवहारस्य विशुद्धत्वात् 'प्रज्ञप्तौ' व्याख्याप्रज्ञप्तौ 'व्यवहारे' चारित्रक्रियालक्षणे 'सर्वतः' सर्वप्रकारेण मलस्य-खेदादिदोषलक्षण त्यातिचारलक्षणस्य वा त्यागात् 'संवत्सरादूर्ल्ड' वर्षपर्यायानन्तरं 'शुक्लाभिजात्यत्वं' सुखासिकारूपानुत्तरोपपातिकदेवतेजोलेश्याव्यतिक्रमानन्तरस्याभिन्नवृत्तामत्सरिकृतज्ञसदारम्भिहितानुबन्धित्वलक्षणस्य निरतिचारचरणलक्षणस्य वा शुक्लत्वस्य प्राप्तेरनन्तरं परमशुक्लत्वं भणितम् , तथा च तदालाप:-"जे इमे भंते ! अजताए समणा णिग्गंथा विहरन्ति एते णं कस्स तेउलेस्स वीतिवयंति ? गोयमा ! मासपरिआए समणे जिग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेउलेस्सं वीतिवयति, दुमासपरिआए समणे णिग्गंथे असुरिंदवजिआणं भवणवासीणं तेउलेस्सं वीतिवयति, एवं एतेणं अभिलावेणं तिमासपरिआए असुरकुमाराणं देवाणं चउमासपरिआए गहगणणक्खत्ततारारूवाणं जोइसिआणं देवाणं पंचमासपरिआए चंदिमसुरिआणं जोइसिआणं जोइसराईणं छम्मासपरिआए सोहम्मीसाणाणं देवाणं सत्तमासपरिआए सणंकुमारमाहिंदाणं देवाणं अट्टमासपरिआए बंभलोअलंतगाणं देवाणं णवमासपरिआए महासुक्कसहस्साराणं देवाणं दसमासपरिआए आणयपाणयआरणअच्चआणं देवाणं एक्कारसमासपरिआए गेवेजगाणं देवाणं बारसमासपरिआए समणे णिग्गंथे अणुत्तरोववाइआणं देवाणं तेउलेस्सं वीतिवतति, तेण परं सुक्के सुक्काभिजातिए भवित्ता गुरुत, ४ Jain Educat For Private & Personal use only library.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृप्रथमो ॥ १९ ॥ | ततो पच्छा सिज्झइ जाव अंतं करे "त्ति । एतच्चोत्तरोत्तरव्यवहारविशुद्धावेव युज्यते, पर्यायवृद्धेर्हेतोरुपदेशात् । नियमश्चायं श्रमणविशेषापेक्षयैव, आन्यथा कस्यचिदल्पेनापि कालेन शुक्लत्वोपपत्तेः, कस्यचिच्च महतापि कालेन तदनुपपत्तेरिति वृत्तौ व्यक्तम् । ततः सिद्धं निश्चयवद्व्यवहारतोऽपि तुल्यवत्सिद्धिरिति । यच्चोक्तं निश्चयार्थोपदर्शनार्थमात्रत्वाद्व्यवहारो नादरणीय इति तन्न, एतस्य परिभाषामात्रत्वात्, नयत्वेनोभयोरविशेषात् परमार्थतो नयातीतप्रमाणभूतत्वादात्मतत्त्वस्येति दिग् ॥ ५७ ॥ भरतादिदृष्टान्तेनोक्तं व्यवहारवैफल्यं निराकर्तुमाह भरहाईणं णाया, वेफलं णेव होइ ववहारे । आहञ्चभावओ चिय, जमिणं आवस्सए भणियं ॥ ५८ ॥ 'भाई'ति । भरतादीनां 'ज्ञातात्' दृष्टान्तात् नैव व्यवहारे वैफल्यं भवति, 'आहत्यभावादेव' कादाचित्कत्वादेव । तथा च कदाचिद्दण्डं विनापि हस्तादिनैव चक्रभ्रमणाद्धोत्पादेऽपि घटं प्रति दण्डस्येव व्यवहारं विनापि पूर्वभवाभ्यस्त करणानां तथाभव्यत्वपरिपाकवतां भरतादीनां कदाचित्केवलज्ञानोत्पादेऽपि तं प्रति व्यवहारस्य न हेतुताक्ष| तिः, द्वारस्यान्यत एव सिद्धेः स्वप्रयोज्यद्वारसम्बन्धेनैव च हेतुत्वात् । प्रसन्नचन्द्रादीनां च बाह्यव्यवहारसत्त्वेऽपि केवलज्ञानानुत्पादो न दोषाय, अन्तरकरणासत्त्वात् सामग्र्या एव कार्यजनकत्वादविवेकमूलव्यभिचारदर्शनस्य विवेकिनामविश्वासाजनकत्वात्तादृशाविश्वासस्य महानर्थनिमित्तत्वादिति भावः । अत्र सम्मतिमाह-यदिदं भणितमावश्यके ॥५८॥ पत्तेअबुद्धकरणे, चरणं णासंति जिणवरिंदाणं । आहच्चभावकहणे, पंचाहिँ ठाणेहिँ पासत्था ॥ ५९ ॥ 'पत्तेय'त्ति । प्रत्येकबुद्धाः - पूर्वभवाभ्यस्तो भयकरणा भरतादयस्तेषां यरकरणम् - आभ्यन्तराचरणं तस्मिन्नेव फलसा ) गुरुतत्त्व विनिश्चयः : ल्लासः व्यवहारव फल्यनिरा करणम्. ॥ १९ ॥ nelibrary.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धकेऽभ्युपगम्यमाने जडाश्चरणं नाशयन्ति जिनवरेन्द्राणां सम्बन्धि आत्मनोऽन्येषां च, आहत्यभावानां-कादाचित्क- इष्टवैषयिक भावानां कथने बाह्यकरणरहितैरेव भरतादिभिः केवलमुत्पादितमित्यनतिप्रयोजनं तदित्यादिलक्षणे 'पञ्चभिः' प्राणाति ध्यानमेव पातादिभिः 'स्थानैः' पारम्पर्येण करणभूतैः पार्श्वस्थाः, स्वयं ह्येवमुपदेष्टारो निरङ्कशतयाऽनादिकालीनाभ्यासेन प्राणा सर्वकार्यकर इत्यस्य नि' तिपातादिषु प्रवर्तन्ते प्रवर्त्तयन्ति चान्यानिति तीर्थ नाशयन्तीति भावः ॥ ५९॥ राकरणम्. उम्मग्गदेसणाए, चरणं णासंति जिणवरिंदाणं । वावन्नदंसणा खलु, न हु लब्भा तारिसा द९ ॥६०॥2 है। 'उम्मग्ग'त्ति । उन्मार्गदेशनयाऽनया चरणं नाशयन्ति जिनवरेन्द्राणां सम्बन्धिभूतमात्मनोऽन्येषां वा, अतो 'व्याप नदर्शनाः' अर्हदेवतादिवचोव्यवहारतः सम्यग्दृष्टिवदाभासमाना अपि निश्चयतो विनष्टसम्यग्दर्शना नैव 'लभ्या' कल्प्यास्तादृशा द्रष्टुमपि ॥ ६० ॥ इष्टविषयोपनीतं ध्यानमेव सर्वकार्यकरमित्युक्तं निराकर्तुमाहइट्टविसयाणुगाण य, झाणं कलसाहम विणिबिटुं । सूअगडे मंसट्ठिअ-जीवाणं मच्छझाणं व ॥१॥ | 'इट्टविसय'त्ति । 'इष्टविषयानुगानां च' मनोज्ञभोजनादिविषयासक्तानां च ध्यानं 'कलुषाधमम्' आतरौद्ररूपत मलिनं चाधर्म च 'विनिर्दिष्ट' प्रतिपादितं 'सूत्रकृते' द्वितीयाले मांसार्थिनां जीवानां मत्स्यध्यानमिव, विषयस्वाभाव्यादेव हीष्टविषयप्राप्तिधर्मध्यानं प्रतिबध्नात्यधर्म चाधत्ते, विषयद्वेषजनितं वैराग्यं विनाऽर्थप्रात्यापीच्छानिवृत्त्यसिद्धेरध्या '-धयं ध्यान' इत्यपि । RASAAMANG For Private Personal use only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ गुरुतत्त्व त्ममतपरीक्षायां व्यवस्थापितत्वात् । तथा च मनोज्ञभोजनादिसेविनामनभ्यस्तचरणानां ध्यानमप्यशुभमेवेति भावः, त्तियुतः तथा च सूत्रकृतग्रन्थः-"तमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो । बुद्धा मुत्तिय मण्णंता, अंतए ते समाहिए ॥१॥ विनिश्चयः प्रथमो- ते य बीओदगं चेव, तमुद्दिस्स जयं कडं । भुच्चा झाणं झियायंति, अखेअण्णाऽसमाहिआ ॥२॥ जहा ढंका य कंका य, ल्लास: कुलला मणुका सिही । मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कलुसाहमं ॥३॥ एवं तु समणा वेगे, मिच्छद्दिट्ठी अणारिआ। विस॥२०॥ एसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ॥४॥” इति ॥ ६१॥ एतदेव भावयतिघरखित्तनयरगोउलदासाईणं परिग्गहो जेसिं । गारवतियरसिआणं, सुद्धं झाणं कओ तेसिं ॥६२॥ __ 'घर'त्ति । गृहक्षेत्रनगरगोकुलदासादीनां येषां शाक्यादीनां परिग्रहस्तेषां 'गारवत्रिकरसिकानाम्' ऋद्धिरससातगौरवासक्तमनसां सङ्घभक्कादिक्रियया मनोज्ञं भोजनमवाप्य तदवाप्तिकृते आर्त्तध्यानं ध्यायतां कुतः 'शुद्ध' धयं ध्यान स्यात् , तदुक्तम्-"ग्रामक्षेत्रगृहादीनां, गवां प्रेष्यजनस्य च । यस्मिन् परिग्रहो दृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ॥१॥" इति ॥ ६२॥ गिहिदिसबंधरयाणं, असुद्धआहारवसइसेवीणं । पासत्थाणं झाणं, नियमेणं दुग्गइनियाणं ॥ ६३ ॥3 _ 'गिहित्ति । गृहिणां यो दिग्बन्धः-स्वायत्तकरणं यदलात्तेषां तत्पुत्रादीनां च संविग्नानां समीपे धर्मोपदेशश्रवणप्रत्र- ॥ २० से ज्यादानादिकं निषिध्यते तत्र प्रवचनप्रतिषिद्धेऽपि रतानां-आसक्तानां अशुद्धाहारवसतिसेविनां पार्श्वस्थानां ध्यानं निय ॥ ० ॥ For Private & Personal use only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARALOCALOCALAMA मेन दुर्गतिनिदान, आर्तरौद्ररूपत्वादिति ॥ ६३ ॥ इष्टविषयानुगानां नास्त्येव शुभध्यानमित्युक्तम् , अतस्तद्विरक्तानामेव । तत्संभवतीत्याहविसयविरत्तमईणं, तम्हा सवासवा णियत्ताणं । झाणं अकिंचणाणं, णिसग्गओ होइ णायव्वं ॥६४॥ | 'विसय'त्ति । 'तस्मात्' उक्तहेतीविषयविरक्तमतीनां सर्वाश्रवान्निवृत्तानाम् 'अकिञ्चनानाम्' परद्रव्यप्रतिबन्धत्यागेनात्मस्वभावाचरणप्रतिवद्धानां 'निसर्गतः' स्वभावतः 'ध्यान' धर्मशुक्ललक्षणं ज्ञातव्यं भवति, गगनेऽभ्रनिवृत्तौ विधो-2 स्तेज इव विषयनिवृत्तावात्मनो ध्यानस्य स्वतः प्रसरणशीलत्वादिति ॥ ६४ ॥ निश्चयलाभालाभाभ्यां व्यवहारारोपणवैफल्यमुक्तं निराकर्तुमाहलद्धम्मि णिच्छयम्मि वि, सुत्तुत्तोवायरूवववहारो । कुंभारचक्कभामग-दंडाहरणेण वुड्डिकरो ॥६५॥ निश्चयला| 'लद्धम्मि' इत्यादि । लब्धेऽपि निश्चये सूत्रोक्ता ये उपायाः-ग्रहणध्रुवयोगप्रवृत्त्यादयस्तद्रूपो व्यवहारः कुम्भकारचक्र-13 भेऽपि व्यवभ्रामकदण्डाहरणेन वृद्धिकरः। यथा हि पूर्वदण्डप्रयोगाभाम्यदपि चक्रं वेगनाशप्रयोज्यपातनिवृत्त्यर्थमुत्तरदण्डव्यापार हारारोपणमपेक्षते, ततश्च सन्तानाविच्छेदादतिशयितवेगाच्च चक्रभ्रमः प्रवर्द्धते, तथा ग्रहणात्प्रागुत्पन्नोऽपि निश्चय उत्तरव्यवहा साफल्यम्. सदस्थैर्यप्रतिबन्धेन सन्तानाविच्छेदादतिशयितभावोत्पादाच्च प्रवर्द्धत इति ॥ ६५ ॥ तयलाभम्मि वि णिचं, सईइ अहिगयगुणम्मि बहुमाणा। पावदुगंछालोअण-जिणभत्तिविसेससद्धाहिं। For Private & Personal use only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो ॥ २१ ॥ 'त लाभम्मिवि'ति । 'तदलाभेऽपि' निश्चयालाभेऽपि गृहीते सूत्रोक्तव्यवहारे 'नित्यं' निरन्तरं 'स्मृत्या' प्रतिज्ञातक्रियामध्ये किं कृतं किं कर्त्तव्यमवशिष्यते किं शक्यं न समाचरामीत्यादिलक्षणया 'अधिकृतगुणे' प्रकृतचारित्रगुणवत्यधिकगुणे वा 'बहुमानात् ' आराध्यत्वज्ञानलक्षणात्, तथा पापस्य - प्राणातिपातविरमणादिप्रतिपक्षस्य प्राणातिपातादेर्जुगुप्साआत्मसाक्षिकी निन्दा, यादृशभावेन पापमासेवितं तदधिकभावेन हेयत्वबुद्धिरिति यावत्, आलोचनं स्वकृतस्य पापस्य निश्शल्यतया गुरुसमक्षं प्रकटनम्, जिनभक्तिः - क्रियाकरणकालीनावश्यकाज्ञाप्रणिधानोपस्थिते तद्दातरि भगवत्यहो ! परमसूक्ष्मो जगज्जन्तुहितावहो भगवता धर्मः प्रतिपादित इत्येवंविधादरलक्षणा, विशेषश्रद्धा चोत्तरगुणातिशयोपादित्सा ताभिर्हेतुभूताभिः ॥ ६६ ॥ लब्भइ णिच्छयधम्मो, अकुसलकम्मोदएण नो पडइ । ता अपमाओ जुत्तो, एयम्मि भांति जं धीरा ॥ 'लब्भइ'त्ति । 'लभ्यते' प्राप्यते 'निश्चयधर्मः' संयमस्थानलक्षणः, क्रियाविशिष्टानामुक्त भावानामुक्त भावविशिष्टक्रियाया वाहत्यभावातिरिक्तस्थले निश्चयधर्महेतुत्वात् । 'अकुशल कर्मोदयेन' अनिका चितचारित्र मोहलक्षणपापकर्मोदयेन 'नो पतति' न चारित्राद् भ्रश्यति, अकुशल कर्मोदयस्यापि नित्यस्मृत्यादिनिवर्त्तनीयत्वात्, 'तत्' तस्मात् 'एतस्मिन्' व्यवहारे 'अप्रमादः' प्रमादविरहो युक्तः, यद्भणन्ति 'धीराः' श्रीहरिभद्रसूरयः ॥ ६७ ॥ | एवमसंतो वि इमो, जायइ जाओ विण पडड़ कयावि । ता इत्थं बुद्धिमया, अपमाओ होइ कायवो ॥ गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः. ॥ २१ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 IA एवं' इति । एवं' नित्यस्मृत्यादिप्रकारेणासन्नपि 'अयं' विरतिपरिणामो जायते, जातोऽपि न पतति कदाचिदयं परिणामः, 'तत् तस्मादत्र बुद्धिमता नित्यमप्रमादः कर्त्तव्यो भवति, गृहीतं व्रतं यथागममेकाग्रतयैव पालनीयमिति भावः ॥ ६८ ॥ नन्वलब्धनिश्चयस्यासंयतत्वादेव संयमक्रियादानं व्यर्थमन्यथाऽयोग्यप्रतिषेधानुपपत्तिप्रसङ्गादित्यत्राहमग्गप्पवेसणहूं, संजमकिरिया असंजयस्सावि । जुत्ता दाउं जम्हा, अब्भासो होइ एमेव ॥ ६९ ॥ मग्गत्ति । मार्गप्रवेशार्थ अलब्धमार्गलाभाय संयमक्रियाऽसंयतस्यापि दातुं युक्ता, यस्मादेवमेवाभ्यासलभ्यस्य , अलब्धनिकार्यस्य प्रागलाभ एवाभ्यासो भवति, लिखनगानपठनादिकौशललक्षणेऽभ्याससाध्ये कार्ये प्रागलब्ध एवापकृष्टनिरन्त- |श्चयस्य संरलिखनादिक्रियारूपाभ्यासप्रवृत्तिदर्शनाचारित्रेऽपीत्थमेवोपपत्तेः । सम्यग्दर्शनमपि खत्वसम्यग्दृष्टिना सताभ्यासेनैव नियमक्रियादा न वैयर्थ्यनिलभ्यते, नवतत्त्वादिपरिज्ञानानन्तरमेव भावसम्यक्त्वप्रतिपादनात् , तत्परिज्ञानदशायां तदभावादन्यथा तद्वैयर्थ्यात् , राकरणम्. एवमचारित्रिणापि यद्यभ्यासेन चारित्रं लभ्यते तदा को दोषः इति विचारणीयम् । नन्वेवं क्रियाकौशलमेव चारित्रं प्राप्तं तच्च मरुदेवादावव्यापकमिति चेन्न, प्रतिपुरुषं संयमाध्यवसायैक्याभावादित्यन्यत्र विस्तरः । अयोग्यत्वं च नासंयतत्वमात्रेण, सर्वस्यापि दीक्षादानालागयोग्यत्वप्रसङ्गात् । किन्तु कृतज्ञत्वदृढप्रतिज्ञत्वादिगुणाभाववत्त्वेन, तच्च न प्रतिज्ञातक्रियाकुशल इति न किश्चिदनुपपन्नम् ॥ ६९ ॥ विपर्यये दोषमाहइहरा तुसिणीयत्तं, हविज परभावपञ्चयाभावा । जिद्वत्ताइ वि तम्हा, ववहारेणेव जं भणियं ॥७०॥ For Private & Personal use only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- RI 'इहर'त्ति । इतरथा प्रतिनियतगुणस्थानज्ञानपूर्वकमेव चारित्रदानाभ्युपगमे तूष्णीकत्वं भवेत्, परभावस्य प्रत्ययाभा गुरुतत्त्व. त्तियुतः वात्, पृच्छादिना प्रतिज्ञानिर्वाहकत्वस्यानुमानेऽपि प्रतिनियतगुणस्थानस्य तथाविधनियतलिङ्गाभावेनानुमातुमशक्य- विनिश्चयः प्रथमो- त्वात् । नन्वेवमसंयतस्यापि गृहीतव्यवहारस्य संयतमध्यप्रवेशे ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्वव्यवहारोच्छेद इत्यत आह-ज्येष्ठत्वादि- ल्लासा. ॥२२॥धाकमा कमपि तस्माद्व्यवहारेणैव यः पूर्व गृहीतचारित्रव्यवहारः स ज्येष्ठ इतरस्तु कनिष्ठ इति, इत्थमेव भगवदाज्ञाप्रवृत्तेः, 'यद्' लादयवह यस्माद्भणितमावश्यके ॥ ७० ॥ णिच्छयओ दुन्नेयं, को भावे कम्मि वट्टए समणो। ववहारओ उ कीरइ, जो पुवठिओ चरित्तम्मि७१॥ हा णिच्छयओ'त्ति । 'निश्चयतः' परमार्थतः दुर्जेयं कः श्रमणः कस्मिन् 'भावे' औदयिकादिलक्षणे वर्तते ? इति । व्यव-15 हारतस्तु क्रियते वन्दनं यः पूर्व स्थितश्चारित्रे । ज्येष्ठत्वसंभावनायामपि व्यवहारसाम्राज्येन वन्दनस्य कर्त्तव्यत्वाव्यव-18 हारनयस्यापि बलवत्त्वात् ॥ ७१॥ तथा चाह भाष्यकृत्ववहारो वि हु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरहा।जा होइ अणाभिण्णो, जाणंतो धम्मिअं एअं७२॥ _ 'ववहारो वि हुत्ति । 'व्यवहारोऽपि' व्यवहारनयोऽपि 'बलवान्' अनुल्लङ्घनीयः, 'यत्' यस्मात् छद्मस्थमपि पूर्वरत्ना|धिकं गुर्वादिकं वन्दते 'अहन्नपि केवल्यपियावद्भवत्यनभिज्ञातो जानन् धर्मतां 'एतां व्यवहारबलातिशयलक्षणाम् ॥७२॥ ॥२२॥ 'वयभंगे' इत्यादिना व्यवहारेऽनिष्टानुबन्धत्वमुक्तं निराचिकीर्षुराह lain Educa t ion For Private Personal use only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयभंगे गुरुदोसो, दुब्बारो जइ वि तह वि ववहारे । इहि पि ण पडिबंधो, विवक्ख भावेण पडिआरा७३॥ ‘वयभंगे’त्ति । यद्यपि व्रतभङ्गे गुरुर्दोषः, स च व्यवहारे दुर्वारः प्रमादबाहुल्यात् । तथापीदानीमपि न प्रतिबन्धः, 'विपक्षभावेन' प्रत्यतिचारं तन्निर्मूलनोपयोगपुरस्सरमुपस्थापितेन हा दुष्ठु कृतमिदं न कर्त्तव्यमिदमित्यादिलक्षणेन विपरीतपरिणामेन 'प्रतिकारात् ' अतिचारसमसङ्ख्यैः शुभभावैरतिचाराणां निवर्त्तनात्तन्निर्मूलनचिन्तयैव तत्त्वतो निःशूकतानिवृत्त्या तैरनिष्टस्यानुबन्दुमशक्यत्वात् ॥ ७३ ॥ एतदेव दृष्टान्तेन भावयति — जह गुरुअसुहविवागं, विसं ण दुक्खावहं सपडिआरं । पावदुगंछासहियं, तह चरणं साइआरं पि ॥७४॥ 'जह'त्ति । यथा गुरुः- महान् अशुभः - अनिष्टो विपाकः - आयतिकालपरिणामो यस्य तत्तथा, विषं 'सप्रतिकारं' सोपचारं न दुःखावहम्, परिकर्मिताद्वत्सनागादेर्दुः खोत्पादाददर्शनात् प्रत्युत गुणस्यैवानुभवात् । तथा सातिचारमपि चरणं पापजुगुप्सासहितं न दुःखावहम्, सप्रतिकारत्वात्, महतोऽप्यतिचारस्य महता शुभभावेन निवर्त्तयितुं शक्यत्वात्, चारित्रस्य च स्वरूपतो मोक्षफलहेतुत्वादिति ॥ ७४ ॥ पापजुगुप्सायाश्चरणशोधकत्वमेव द्रढयति इतु च्चिय पडिकमणं, पच्छाया वाइभावओ सुद्धं । भणिअं जिणप्पवयणे, इहरा तं दवओ दिहं ॥ ७५ ॥ 'इत्तु च्चिय'ति । 'अत एव' पापजुगुप्सायाश्चरणातिचारविशोधकत्वादेव जिनप्रवचने 'प्रतिक्रमणं' मिथ्यादुष्कृतदानादिलक्षणं 'पश्चात्तापादिभावतः' हा दुष्ठु कृतमेतदित्याद्यनुशय संवेगादिपरिणामतः शुद्धं भणितम् । अत एवात्यक्तप्रा ) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतनैकेन्द्रियादिसट्टनादिभावस्य कथञ्चित्क्षणं विरक्तस्य चैत्यवन्दनादिनैकाग्रचित्तसमाधिर्भवेन्न वा, ऐयोपथिकीप्रतिक गुरुतत्त्वत्तियुतः मणे तु तदर्थपर्यालोचनाहितपश्चात्तापादिभावान्नियमादेकाग्रचित्तसमाधिरिति सर्वक्रियाणां तत्पूर्वकत्वं महानिशीथे विनिश्चयः प्रथमो- नियमितम् । 'इतरथा' पश्चात्तापादिभावाभावे तु तत्प्रतिक्रमणं द्रव्यतो दृष्टम् ॥ ७५ ॥ फलितमाह ल्लास:. ॥ २३ ॥ एवं अत्थपएणं, भाविजंतेण होइ चरणिड्डी । आलोअणाइमित्तं, बंभाईणं तु फलवंझं ॥ ७६ ॥ | 'एवं' इति । एवम्' उक्तप्रकारेण 'भाव्यमानेन' यथास्थानमधिकतरभावशुद्ध्या समाधीयमानेन 'अर्थपदेन' दुर्वार-15 व्रतभङ्गप्रतिकारस्य कथंतालक्षणेन भवति 'चरणद्धिः' उत्तरोत्तरचरणवृद्धिसम्पत् । आलोचनादिमानं तु उक्तभावशून्यं बाहयादीनां फलवन्ध्यम् , तन्मात्रेण तेषां स्त्रीत्वादिरौद्रविपाकप्राप्त्यप्रतिरोधात् ॥ ७६ ॥ एतद्विचारविरहिणामानर्थक्यमु-11 पदर्शयतिएएण विआरेणं, जे सुण्णा हुंति दवलिंगधरा। समुच्छिमचिट्ठाभा, तेसिं किरिया समक्खाया॥७७॥ 'एएण'त्ति । एतेन विचारेण शून्या ये भवन्ति 'द्रव्यलिङ्गधराः' यतिमुद्रामात्रधारिणस्तेषां क्रिया संमूछिमचेष्टामा ॥२३॥ अज्ञानपूर्वकत्वेनाकामनिर्जराङ्गत्वात् समाख्याता, तदुक्तं धर्मबिन्दौ-"अकामनिर्जराङ्गमन्यत्" इति ॥ ७७ ॥ अथ यदुक्तं चरणस्य पक्षपात एव युक्तो न तु तद्ब्रहणमिति तत्राह , "नियम्यते' इत्यपि। LOCALCARSAARCR ACTEGORK JainEducation ForPrivate LPersonal use Only Helibrary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEASEASANSAR चरणस्स पक्खवाओ, जयणाए होइ उज्जमंताणं । विरियाणिगृहणेणं, वायामित्तेण इहरा उ॥७८॥ 8 'चरणस्सत्ति । चरणस्य पक्षपातः 'वीर्यानिगृहनेन' देहबलाहाब्येऽपि सर्वत्र स्वोचितपराक्रमव्यवसायधृतिबलस्फो-12 रणेन 'यतनया' बहुतरासत्प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुचेष्टालक्षणयोद्यच्छतां भवति । इतरथा तु वाङ्मात्रेण यथाशक्तिप्रतिपन्ननिर्वा|हस्यैव पक्षपातलक्षणत्वात् ॥ ७८ ॥ अथानुमोदनमेव पक्षपातलक्षणं तदपि प्रतिषेधेनोपपद्यत इत्याह जो पुण कुणइ विलोवं, दोसलवं दंसिऊण चरणस्स । जह सजणस्स पिसुणो, चरणस्स ण पक्खवाई सो ॥ ७९ ॥ जो पुण'त्ति । यः पुनर्दोषलवं दर्शयित्वा 'चरणस्य' चारित्रस्य विलोपं कुरुते स चरणस्य न पक्षपाती यथा सज्जनस्य । दुर्जनः। तथा चानुमोदनमप्यनुमोद्यस्याधिकगुणपुरस्कारेणाल्पदोषाच्छादनेनैव च निर्वहति न त्वन्यथेति भावः॥७९॥ 'अन्नयरम्मि' इत्यादिनोकं गच्छाज्ञाभङ्गराज्येन इदानीं चारित्रस्य दुष्पालत्वं निराकर्त्तमाह 'गच्छाणा' इत्यादिनागच्छाणाभंगस्स य, रजं सुहभावरायरजेणं । हणियत्वं धीरेहि, कीवत्तं व कायव्वं ॥ ८॥ इदानी चा |रित्रस्य दु. गच्छाज्ञाभङ्गस्य च राज्यं शुभभावराजराज्येन हन्तव्यं धीरैः 'नैव' न तु क्लीबत्वं कर्त्तव्यम् । यथा हि धीरा रिपुबलं पालत्वं'इ. दृष्टा स्वयमपि बलसमुदायेन प्रहरन्ति न त्वसहाया न वा भयप्राप्तेरपसरन्ति, तथा सम्प्रत्यपि गच्छाज्ञाभङ्गप्रमादबाहुल्यं . दृष्ट्वा संयता विपक्षभावबाहुल्येन निघ्नन्ति तत् न त्वल्पभावा न वा भयप्राप्तेस्ततोऽपसरन्ति । तथा च प्रमादबाहुल्या-15 दधाति KAAMSARKARISASSESASSANSAR JainEducation international For Private & Personal use only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- त्तियुतः प्रथमो. ॥२४॥ दिदानीं न केवलं गुणश्रेणिवृद्ध्यर्थे किन्तु तदविच्छेदार्थमपि भाववाहुल्यमपेक्षितं, तद्विहीनानां तु क्लीबानां नात्राधिकार | गुरुतत्त्व इति भावः ॥ ८०॥ भावविशुद्ध्या दोषाभावमुपपादयति विनिश्चयः ल्लासः अववाएणं कत्थइ, आणाइ च्चिय पवमाणस्स।आउदृस्स य मुणिणो, णो भंगो भावसुद्धस्स॥८॥ 'अववाएण'ति । 'अपवादेन' पुष्टालम्बनेन 'कुत्रचित्' शैक्षग्लानादिप्रयोजने 'आज्ञयैव' आप्तोपदेशेनैव 'प्रवर्त्तमा भावविशुद्धौ नस्य' पञ्चकहान्यादिना यतमानस्य 'आवृत्तस्य च' अतिक्रमानन्तरं तत्कालमेव निन्दागादिना प्रतिनिवृत्तस्य च भाव सत्यां दोषाशुद्धस्य मुनेनों भङ्गः, अपवादेन भङ्गप्रतिबन्धादावृत्ततया च भन्नस्य पुनः सङ्घटनात् ॥ ८१॥ इत्थं चान्यतरस्थान भावत्वम् भङ्गेऽपि निश्चयेन भङ्गोक्तिनानुपपन्ना केवलं तत्कालमावृत्तस्य पुनः सङ्कटनम् , अन्यथा तु तदवस्थ एव भङ्ग इत्याह जो पुण पमायदोसो, थोवो वि हु णिच्छएण सो भंगो। सम्ममणाउदृस्स उ, अवगरिसो संजमम्मि जओ ॥ ८२ ॥ 'जो पुण'त्ति । यः पुनः स्तोकोऽपि प्रमाददोषः स निश्चयेन भङ्गः। सम्यगनावृत्तस्य तु स भङ्ग उत्तरकालमवतिष्ठत पः, 'यतः' यस्मात् 'संयम' चारित्रे 'अपकर्षः' अधस्तनस्थानसमलक्षणः ॥८२॥ व्यवहारनयाभिप्रायेण तु४ यत्किञ्चिदल्पगुणभङ्गानुवृत्तावपि न चारित्रस्य भङ्गस्तन्मते देशभङ्गेऽपि चारित्रानुवृत्तेः सर्वभङ्गस्य च श्रेणिपातरूपत्वाद्वाह्यक्रियासाकल्यस्य चैकत्र वृत्त्यसम्भवेन तदभावस्याप्यकत्र दुर्वचत्वादित्याशयेनाह ॥२४॥ JainEducation international Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववहारणयाभिमयं, सेढिन्भंसं पडुच्च भंगं तु । खिप्पेयरकालकओ, भेओ मूलुत्तरगुणेसुं ॥ ८३ ॥ मूलगुण__'ववहार'त्ति । व्यवहारनयाभिमतं 'श्रेणिभ्रंश' मूलतः श्रेणिनिवृत्तिलक्षणं भङ्गं तु प्रतीत्य मूलोत्तरगुणेषु 'क्षिप्रेतरका-131 उत्तर-गुणलकृतः' विलम्बिताविलम्बितकालकृतो भेदोऽभ्युपगन्तव्यः॥ ८३॥ तमेवाह विराधनायां मूलगुणाणइयारा, खिप्पं उत्तरगुणे णिहंतूणं । चरणं हणंति इयरे, कालेणं मूलगुणघाया ॥ ८४ ॥ चरणभङ्गे कालविल'मूल'त्ति । मूलगुणातिचाराः 'क्षिप्रं' तत्कालमुत्तरगुणान्निहत्य चरणं नन्ति। 'इतरे' उत्तरगुणातिचाराः 'कालेन' विल-28 म्बाविलPम्बितेनानेहसा मूलगुणघाताचरणं नन्ति ॥ ८४ ॥ इत्यं च मूलगुणोत्तरगुणातिचारयोर्द्वयोरपि चारित्रघातकत्वादनिष्टो-13 म्बकृतभेद पस्थितौ कालविलम्बस्याप्यविश्वसनीयत्वान्मोक्षार्थमभ्युद्यतेन द्वयोरपि शुद्धिः कर्तव्येत्याहतम्हा दोसु वि णियमा, भावविसुद्धेसु संजमो होइ। एवं च इमं णेयं, इमाहिँ ववहारगाहाहिं ॥५॥ कालविल'तम्ह'त्ति । तस्मात् 'द्वयोरपि' मूलोत्तरातिचारयोः 'नियमात्' निश्चयात् 'भावविशुद्धयोः' भावेनानुत्थितयो शित- म्बस्याविश्व सनीयत्वा. योर्वा संयमो भवति, न त्वगवेषितप्रतीकारोऽयमवतिष्ठते, तथा च भावविशुद्ध्योभयसङ्घटनं कर्त्तव्यं न तु भङ्गमात्रभयादलसायितव्यमिति भावः । एतच्चैवं ज्ञेयमिमाभिर्व्यवहारगाथाभिः॥ ८५ ॥ र्थमुपदेशः. मूलइयारे चेयं, पच्छित्तं होइ उत्तरगुणे य । तम्हा खलु मूलगुणे, णइक्कमे उत्तरगुणे वा ॥ ८६ ॥ त्वम्. सहयोःशुद्ध्य गुरुत.५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ | 'मूलइयारे'त्ति । एतत्'तपश्छेदमूलाई प्रायश्चित्तं यस्मात् 'मूलाातचारे' प्राण तिपाताधासेवने उत्तरैर्वा पिण्डविशुद्ध्यादि- गुरुतत्त्वत्तियुतः भिरतिचर्यमाणैर्भवति तस्मात् खलु मूलगुणानुत्तरगुणान् वा नातिक्रमेत् ॥ ८६ ॥ अत्र पर आह विनिश्चयः प्रथमो. ल्लासः मूलवयाइआरा, जयसुद्धा चरणभंसगा हंति । उत्तरगुणातियारा, जिणसासणि किं पडिक्कुटा ॥८॥ प्रेरकः ISI 'मूल'त्ति । मूलवतातिचारा यद्यशुद्धा इति कृत्वा चरणभ्रंशका भवन्ति तदा कि मुत्तरगुणातिचारा जिनशासने प्रति-IN क्रुष्टाः ? तेषां दोषाकारित्वान्मूलातिचाराणामेव चरणभ्रंशकत्वप्रतिपत्तेः ॥ ८७॥ उत्तरगुणातियारा, जयसुद्धा चरणभंसगा हुंति । मूलवयातियारा, जिणसासणि किं पडिकुट्ठा ॥८॥ I 'उत्तर'त्ति । यदि उत्तरगुणातिचारा अशुद्धा इति कृत्वा चरणभ्रंशका भवन्ति तदा मूलवतातिचाराः किमिति जिन- शासने प्रतिक्रुष्टाः? तेषां दोषाकारित्वादुत्तरातिचाराणामेव चरणभ्रंशकत्वप्रतिपत्तेः॥ ८८ ॥ सूरिराहमूलगुण उत्तरगुणा, जम्हा भंसंति चरणसेढीओ। तम्हा जिणेहिं दोणि वि, पडिसिद्धा सबसाहणं ॥13 प्रतिवचः। ___ 'मूल'त्ति । यस्मान्मूलगुणा उत्तरगुणा वा पृथक्पृथग् युगपद्वाऽतिचर्यमाणाश्चरणश्रेणीतो भ्रंशयन्ति साधून त-15 |स्मात् 'जिनैः' सर्वयेऽपि मूलगुणातिचारा उत्तरगुणातिचाराश्च प्रतिक्रुष्टाः ॥ ८९॥ एतेषां च प्रत्येकमन्यगुणघात-| द्वारा चरणभ्रंशकत्वमिति तत्र दृष्टान्तमाह ॥२५॥ अग्गग्घाओ मूलं, मूलग्घाओ अ अग्गयं हंति। तम्हा खलु मूलगुणा, ण संति ण य उत्तरगुणा य ॥१०॥ NUSRUSSE ROCESSACROCHAR Jain Matona For Private & Personal use only w wwjainelibrary.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरकः 'अग्गग्घातो'त्ति । यथा तालमत्याग्रे-मस्तकशूच्या घातो मूलं हन्ति, मूलघातोऽपि चाग्रं हन्ति, एवं मूलगुणानां विनाश उत्तरगुणानपि नाशयति, उत्तरगुणानामपि विनाशो मूलगुणानिति द्वयेऽप्येते प्रतिक्रुष्टाः। प्रेरकः प्राह-तस्मात् खलु मूलगुणा न सन्ति उत्तरगुणाश्च न सन्ति, न ह्यस्ति स संयतो यो मूलोत्तरगुणानामन्यतमं न प्रतिसेवते, अन्यतमप्रतिसेवने चोभयाभावः, तदभावे च सामायिकादिसंयमाभावः, तदभावे बकुशादिनिर्ग्रन्धाभावः, ततश्चाचारित्रं तीर्थ प्राप्तमिति ॥९० ॥ सूरिराहचोअग! छकायाणं, तु संजमो जा ऽणुधावए ताव । मूलगुण उत्तरगुणा, दोषिण वि अणुधावए ताव॥ मूलगुण... | 'चोयग'त्ति । हे चोदक! यावत् पड़जीवनिकायेषु संयमः ‘अनुधावति' प्रतिबन्धेन वर्त्तते तावन्मूलगुणा उत्तरगु 'उत्तरगुण संयम-बकुणाश्च द्वयेऽप्येतेऽनुधावन्ति ॥ ९१ ॥ शादिनिम्रइत्तरसामाइअछेयसंजमा तह दुवे णियंठा य । वउसपडिसेवगा ता, अणुसजंते य जा तित्थं ॥९२॥ न्य-चारि | 'इत्तर'त्ति । यावद्येऽप्येतेऽनुधावन्ति तावदित्वरसामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमावनुधावतः, यावच्चैतौ तावद् निग्रं-13TH वाभावं प्रेर कोक्तं निषसन्थावनुधावतस्तद्यथा-बकुशः प्रतिसेवकश्च । यावन्मूलगुणप्रतिसेवना तावत्प्रतिसेवकः, यावदुत्तरगुणप्रतिसेवना तावद्द्र धति सूरिः बकुशः, ततो यावत्तीर्थं तावदकुशाः प्रतिसेवकाश्चानुपञ्जन्तीति नाचारित्रं प्रसक्तं प्रवचनम् ॥ ९२ ॥ अथ मूलगुणप्रतिसेदबनायामुत्तरगुणप्रतिसेवनायां वा चारित्रभ्रंशेऽस्ति कश्चिद्विशेष उत नास्ति ?, अस्तीति बमः, कोऽसौ ? इत्याह %A5% COC JainEducation international For Private Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व विनिश्चयः स्वोपज्ञवृ- त्तियुतः प्रथमो२६ ॥ - मूलगुण दइअसगडे, उत्तरगुण मंडवे सरिसवाई । छक्कायरक्खणट्टा, दोसु वि सुद्धे चरणसुद्धी ॥९३॥ | 'मूलगुणत्ति । मूलगुणे दृष्टान्तो दृतिः शकटं च, केवलमुत्तरगुणा अपि तत्र दर्शयितव्याः । उत्तरगुणेषु दृष्टान्तो म1ण्डपे सर्षपादिः, आदिशब्दाच्छिलादिपरिग्रहः, अत्रापि मूलगुणा अपि दर्शयितव्याः। इयमत्र भावना-एकेनापि मूलगुणप्रतिसेवनेन तत्क्षणादेव चारित्रभ्रंश उपजायते, उत्तरगुणप्रतिसेवनायां पुनः कालेन । दृष्टान्तो दृतिकः, तथाहि-यथा ह- तिक उदकभृतः पञ्चमहाद्वारस्तेषां महाद्वाराणामेकस्मिन्नपि द्वारे मुत्कलीभूते तत्क्षणादेव रिक्तीभवति, शुषिरेण तु कालेन । एवं महावतानामेकस्मिन्नपि महाव्रतेऽतिचर्यमाणे तत्क्षणादेव समस्त चारित्रभ्रंशो भवति, एकमूलगुणधाते सर्वमूलगुणानां घातात् , तथा च गुरवो व्याचक्षते-“एकवतभङ्गे सर्वव्रतभङ्गः" इति, एतन्निश्चयनयमतम् । व्यवहारे पुनरेकवतभङ्गे तदेवैकं भग्नं प्रतिपत्तव्यम् , शेषाणां तु भङ्गः क्रमेण यदि प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या नानुसंधत्त इति । अन्ये पुनराहुः-चतुर्थमहाव्रतप्रतिसेवनेन तत्कालमेव सकलचारित्रभ्रंशः, शेषेषु पुनर्महाव्रतेष्वभीक्ष्णप्रतिसेवनायां महत्यतिचरणे वा वेदितव्यः । उत्तरगुणप्रतिसेवनायां पुनः कालेन चरणबंशो यदि पुनः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या नोज्वालयति । एतदपि कुतोऽवसेयम् ? इति चेदुच्यते-शकटदृष्टान्तात् , तथाहि-शकटस्य मूलगुणा द्वे चक्रे उद्धी अक्षश्च, उत्तरगुणा वध्रकीलकलोहपट्टकादयः। एतैर्मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च संप्रयुक्तं सत् शकटं यथा भारवहनक्षमं भवति तथा साधुरपि मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च संप्रयुक्तः सन्नष्टादशशीलाङ्गसहस्रभारवहनक्षमो भवति, विशिष्टविशिष्टतरोत्तरसंयमाध्यवसायस्थानपथे च सुखं प्रवर्त्तते । अथ शकटस्य मूलाङ्गानामेकमपि मूलाङ्गं भग्नं भवति तदा न भारवहनक्षम नापि मार्गे| मूलगुणोत्तरगुणप्रतिसेवनायां घरणभ्रंशे सो दाहरणं न्यूनाधिकत्व प्रकटनम्. - -0- -0- ॥२६॥ 1 JainEducati For Private & Personal use only viww.jainelibrary.org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तते । उत्तराङ्गैस्तु कैश्चिद्विनापि शकटं कियत्कालं भारवहनक्षम भवति प्रवहति च मार्गे, कालेन पुनर्गच्छताऽन्यान्यपरिशटनादयोग्यमेतदुपजायते । एवमिहापि मूलगुणानामकस्मिन्नपि मूलगुणे हते न साधूनामष्टादशशीलाङ्गसहस्रभारवहनक्षमता, नापि संयमश्रेणिपथे प्रवहनम् । उत्तरगुणैस्तु कैश्चित् प्रतिसेवितैरपि भवति कियन्तं कालं चरणभारवहनक्षमता संयमश्रेणिपथे प्रवर्तनं च, कालेन पुनर्गच्छता तत्रान्यान्यगुणप्रतिसेवनातः समस्तचारित्रभ्रंशः। ततः शकटहष्टान्तादेतदुपपद्यते-मूलगुणानामेकस्यापि मूलगुणस्य नाशे तत्कालं चारित्रभ्रंश उत्तरगुणनाशे कालक्रमेणेति । इतश्चैतदेवं मण्डपसर्षपादिदृष्टान्तात् , तथाहि-एरण्डादिमण्डपे यधेको द्वौ बहवो वा सर्षपा उपलक्षणमेतत् तिलतण्डलादयो वा प्रक्षिप्यन्ते तथापि न स मण्डपो भङ्गमापद्यते, अतिप्रभूतैस्त्वाढकादिसङ्ख्याकैर्भज्यते । अथ तत्र महती शिला| प्रक्षिप्यते तदा तयैकयापि तत्क्षणादेव ध्वंसमुपयाति । एवं चारित्रमण्डपोऽप्येकद्विन्यादिभिरुत्तरगुणैरतिचर्यमाणैर्न | भङ्गमुपयाति, बहुभिस्तु कालक्रमेणातिचर्यमाणैर्भज्यते । शिलाकल्पेन पुनरेकस्यापि मूलगुणस्यातिचारेण तत्कालं भ्रंशमुपगच्छतीति । तदेवं यस्मान्मूलगुणातिचारेण क्षिप्रमुत्तरगुणातिचारेण च कालेन चारित्रभंशो भवति तस्मान्मे मूलगुणा उत्तरगुणाश्च निरतिचाराः स्युरिति षट्कायरक्षार्थ सम्यक् प्रयतितव्यम् । षट्कायरक्षणे हि मूलगुणा उत्तरगुणाश्च शुद्धा भवन्ति । तेषु च द्वयेष्वपि शुद्धेषु, अत्र गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि वचनव्यत्ययोऽपि भव तीति, 'चरणशुद्धिः' चारित्रशुद्धिः॥९३ ॥ ननु मूलगुणास्तावत्प्राणातिपातादिनिवृत्त्यात्मकाः पञ्च ज्ञायन्त एव । उत्तरद्रगुणास्तु के ते? इत्यतं आह For Private & Personal use only inelibrary.org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो ॥ २७ ॥ पिंडस्स जा विसोही, समिईओ भावणा तवो दुविहो । पडिमा अभिग्गहा विय, उत्तरगुण मो वियाणाहि ॥ ९४ ॥ 'पिंडस्स'त्ति । पिण्डस्य या 'विशोधिः' आधाकर्मादिदोषपरिहारलक्षणा, याश्च 'समितयः' ईर्यासमित्यादिकाः, याश्च भावना महाव्रतानां यच्च द्विभेदं तपः, याश्च प्रतिमा भिक्षूणां द्वादश, ये चाभिग्रहा द्रव्यादिभेदभिन्नाः, एतान् उत्तरगुणान् 'मो' इति पादपूरणे विजानीहि । एतेषां च सङ्ख्या - "बायाला अट्टेव उ, पणवीसा बार बारस य चेव । दवाइचउरभिग्गहभेआ खलु उत्तरगुणाणं ॥ १ ॥” इति गाथावसेयेति ॥ ९४ ॥ तदेवं कस्मिंश्चिन्मूलोत्तरगुणातिक्रमेऽपि यथोचितप्रायश्चित्तग्रहणाभिमुखपरिणामशुद्ध्या चारित्र व्यवस्थितिरिति सिद्धम् । अत्र कश्चिदाक्षिपतिनणु चरणस्साभंगं, पायच्छित्तस्स भावओ भणह । तमसंजमठाणकयं तेऽसंखिज्जा जओऽभिहियं ॥ 'नणु' इत्यादि । ननु 'चरणस्य' चारित्रस्याभङ्गं यूयं प्रायश्चित्तत्य भावतो भणथ, 'तत्' प्रायश्चित्तमसंयम स्थानकृतं, 'तानि' असंयम स्थानान्यसङ्ख्यातानि यतः 'अभिहितं' भणितं व्यवहारभाष्ये ॥ ९५ ॥ असमाहिट्टाणा खलु, सबला य परीसहा य मोहम्मि। पलिओवमसागरोवमपरिमाण तओ असंखिजा ॥ 'असमाहिट्ठाण'त्ति । यानि खल्वसमाधिस्थानानि विंशतिः, खलुशब्दः संभावने, स चैतत्संभावयति - असङ्ख्या तानि | देश कालपुरुष भेदतोऽसमाधिस्थानानि, एवमेकविंशतिः शत्रलानि, द्वाविंशतिः परीषहाः, तथा 'मोहे' मोहनीये कर्मणि : गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः. उत्तरगुणाः असंयमस्था नप्रमाणम्. ॥ २७ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाविंशतिर्भेदाः, अथवा 'मोहे' मोहविषयाणि त्रिंशत् स्थानानि, एतेभ्योऽसंयमस्थानेभ्य एष प्रायश्चित्तराशिरुत्पद्यते ।। कियन्ति खलु तान्यसंयमस्थानानि ? उच्यते-"पलिओवम" इत्यादि । पल्योपमे सागरोपमे च यावन्ति वालाग्राणि तावन्ति न भवन्ति किन्नु व्यावहारिकपरमाणुमात्राणि यानि वालाग्राणां खण्डानि तेभ्योऽसङ्ख्येयानि । इयमत्र भावनायावन्ति खलु पस्योपमे वालाग्राणि तावन्त्यसंयमस्थानानि भवन्ति ? नायमर्थः समर्थः, यावन्ति सागरोपमे वालाग्राणि तावन्ति भवन्ति ? नायमर्थः समर्थः, यद्येवं तर्हि सागरोपमे यानि वालाग्राणि प्रत्येकमसङ्खयेयखण्डानि क्रियन्ते तानि च खण्डानि सांव्यवहारिकपरमाणुमात्राणि तावन्ति भवन्ति ? नायमप्यर्थः समर्थः, कियन्ति पुनस्तानि भवन्ति ? उच्यते तेभ्योऽप्यसञ्जयेयगुणानि । अन्ये तु ब्रुवते-परमाणुमात्राणि खण्डानि सूक्ष्मपरमाणुमात्राणि द्रष्टव्यानि, तदसम्यक्, सूवामपरमाणवो हि तत्रानन्ताः, असंयमस्थानानि चोत्कर्षतोऽप्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानीति ॥ ९६ ॥ है तेहिँ विरोहो संजम-ठाणाणं तेण संजमो कत्तो । भन्नइ अपसत्थत्ता, असंजमो संजमो चेव ॥९७॥ । 'तेहिं' ति । 'तैः' असंयमस्थानविरोधः संयमस्थानानां तेन कुतः संयमः? 'भण्यते' अत्रोत्तरं दीयते, संयम एवाप्रशस्तत्वादसंयमः, अब्राह्मण इत्यादावप्रशस्तार्थेऽपि नञः प्रवृत्तिदर्शनात्, तथा चाप्रशस्तसंयमस्थानान्येवासंयमस्थाना- असंयमस्था 1नोत्पत्तिकानीति तत्कृतस्य प्रायश्चित्तराशेरुपपत्तिरितिभावः ॥ ९७ ॥ अप्रशस्तसंयमोत्पत्तिप्रकारमेवाहसंजलणाणं उदया, दुवालसण्हं पुणो खओवसमा।अबकिट्ठज्झवसाए, सवलचरित्तस्स णिप्फत्ती९८॥ रणम् For Private & Pearl Use Only www.ainetorary.org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञव त्तियुतः प्रथमो. ॥२ ॥ 'संजलणाणं'ति । 'संज्वलनानां' कषायाणामुपलक्षणाद्विद्यमानानांनोकषायादीनां चोदयाद् 'द्वादशानां पुनः अनन्ता-8 गुरुतत्व. नुवन्ध्यादीनां कषायाणां क्षयोपशमात् 'अपकृष्टाध्यवसाये' हीनाध्यवसाये सति 'शबलचारित्रस्य' अप्रशस्तसंयमस्य * विनिश्चयः निष्पत्तिः, मिलितयोरुक्तोदयक्षयोपशमयोस्तद्धेतुत्वात् । कर्मोदयेनौदयिका एव भावा रागादयो जन्यन्ते द्वादशानां कषायाणां क्षयोपशमेन च क्षायोपशमिकं चारित्रमिति नोभाभ्यामेककार्यजननम् , भावसङ्करप्रसङ्गात्, इति चेन्न, तथापि क्षीरनीरन्यायेन सङ्कीर्णभावानां कथञ्चिदभेदस्य सुवचत्वात्, अनैयव विवक्षया घृतं दहतीतिवत्पूर्वसंयमः स्वर्गहेतुरिति व्यवहारेण प्रतिपादनात् , तत्त्वतस्तु प्रशस्तरागस्यैव स्वर्गहेतुत्वात् , चारित्रस्य तु मोक्षहेतुत्वात् , मोक्षहेतोः संसारहेतुत्वा-2 योगादिति सूक्ष्ममीक्षणीयम् ॥ ९८॥ ननु संज्वलनोदयाच्चारित्रेऽप्यविरतिः स्यादेव, संज्वलनानां चारित्रमोहनीयत्वेनाविरतिजनकत्वात्। न च तत्सत्त्वे संयमाभावप्रसङ्गः, अविरतिसंयमयोरभिभाव्याभिभावकभावेन विरोधित्वात, क्षीरघटे निम्बरसलववदल्पत्वेनाविरतेः संयमाभिभवाक्षमत्वाद्, युक्तं चैतत् संज्वलनोदयजनिताविरतिवैचित्र्येणातिकमादिदो-भी षभेदोपपत्तेः, अन्यथा त्वेतद्भेदानुपपत्तिरित्यत आहकम्मोदयभेअकओ, पइठाणमइकमाइओ भेओ। देसजयत्तं हुजा, अविरइलेसे तु संतम्मि॥९९॥ 'कम्मोदय'त्ति । 'प्रतिस्थान' प्रतिप्राणातिपातनिवृत्त्यादिगुणव्यक्ति अतिक्रमादिकः, आदिना व्यतिक्रमातिचारानाचा-2 रपरिग्रहः, 'भेदः' विशेषः-अपकृष्टापकृष्टतरत्वादिलक्षणः 'कर्मोदयभेदकृतः' संज्वलनाद्युदयतारतम्याहितो नत्वविरतिता-M॥२८॥ रतम्यानुप्रवेशसंपादितस्तद्धेतोरिति न्यायात् । अविरतिलेशे तु सति चारित्रिणः 'देशयतित्वं' श्रावकत्वं स्यात्, विरता For Private Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदप्रायश्चितं यावश्चरणानतिक्रम इति प्रकटनम्. विरतत्वस्य तल्लक्षणत्वात् , तच्च नेष्यत इति न चारित्रिणोऽविरत्यभ्युपगमः श्रेयानित्यप्रशस्तसंयमस्थानेभ्य एव प्रायश्चित्तोसत्तिरिति स्थितम् ॥ ९९ ॥ अथ कियप्रायश्चित्तापत्तौ संयमः स्यान्न वा? इत्याह अस्स जाव दाणं, तावयमेगं पि णो अइक्कमइ । एगं अइकमंतो, अइक्कमे पंच मूलेणं ॥ १० ॥ 'छेयस्सत्ति ' छेदस्य' छेदप्रायश्चित्तस्य यावदानं तावदेकमपि व्रतं नातिक्रमेत् । 'मूलेन' मूलप्रायश्चित्तेनैकं व्रतमतिक्रमंश्च पञ्चाप्यतिक्रमेत् । नन्वेवं मूलप्रायश्चित्तस्यैवाप्रशस्तसंयमस्थानादनुपपत्तेः कथमसंयमस्थानपदस्याप्रशस्तसंयमस्थानार्थत्वम् ? इति चेन्न, असंयमस्थानेभ्यःप्रायश्चित्तराशिरुत्पद्यत इत्यत्रासंयमस्थानपदस्य यथायोगं नानार्थत्वात् । अथवाऽसमाधिस्थानादीन्यपि स्वरूपतोऽसंयमस्थानान्येव संयमसामग्र्या बलवत्त्वाच्च ततो नासंयमोत्पत्तिरिति यथाश्रुतार्थ एव समीचीन इति नयभेदेन व्याख्यावैचित्र्ये न किञ्चिदूषणमुत्सश्यामः । अन्ये त्वाः-असंयमस्थानजनिता अतिचारादयोऽप्यविरतिरूपा एव, सूक्ष्मत्वाच्च न तेषामविरतित्वं विवक्ष्यते, अविरतसम्यग्दृष्टेरिवानन्तानुबन्धिक्षयोपशमजनितगुणानां विरतित्वमिति ॥ १०॥ छेददानं यावच्चारित्रमवतिष्ठत इत्यत्र पर आक्षिपतिनणु पासत्थाईणं, चारित्तं होइ एवमपडिहयं । पायच्छित्तं मूलं, भयणाए जेण तेसि पि ॥ १॥ | 'नणु'त्ति । नन्वेवं छेददानं यावद्वतानतिक्रमे पार्श्वस्थादीनां चारित्रमप्रतिहतं भवति, येन कारणेन तेषामपि पार्श्व-12 स्थादिविहारमुपसम्पद्य पुनर्गच्छमनुस कामानां मूलं प्रायश्चित्तं भजनया भणितम् ॥ १॥ तथा च व्यवहारगाथा अत्र प्रेरक: Pinternational For Private & Personal use only whinery Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्ञवृ. तयुतः प्रथमो. २९॥ अस्थिय से सावसेसं, जइ नत्थि मूलमत्थि तवछेया।थोवंजइ आवन्नो, पडितप्पइ साहुणो सुद्धो॥२॥ गुरुतत्त्व विनिश्चयः | 'अस्थि यत्ति । पूर्वमिदं भावनीयम्-'से' तस्यालोचनार्थमभ्युद्यतस्य सावशेष चारित्रमस्ति चशब्दाकिं वा नास्ति? 2 लासः. यदि नास्ति ततो मूलं दातव्यम् । मूलं नाम सर्वपर्यायच्छेदः । अथास्ति ततस्तस्मै तपो वा दीयतां छेदो वा । तत्र यदि 'स्तोकमापन्नः' भवति रात्रिन्दिवपञ्चकादारभ्य भिन्नमासं यावत्प्राप्तो भवति साधूनां च स प्रतितर्पितस्ततस्तस्मादेव शुद्ध है इति प्रसादेन मुच्यते । मासाद्यापत्तौ त्वन्तिमपदहासः क्रियते, द्वित्रिमासाद्यापत्तावेकद्व्यादिमासानामेव दानात् । न चैवं रागद्वेषप्रसङ्गः, यथा एके दुर्गन्धितिला निम्बपुष्पैर्वासिता अपरे च स्वाभाविकाः, तत्राद्यानां दुरभिगन्धो बहुविधेनो-18| पक्रमेणापनेतुं शक्यते, अन्त्यानां च स्तोकेन; यथा वा सर्वभोजी रोगी कर्कशया क्रियया शुद्धिमासादयति, असर्वभोजी च स्तोकया; यथा वा वातेन प्रतिदिवसं विधूतः पटो मलिनीभूतः स्तोकेनोपक्रमेण शुध्यति, इतरस्तु बहुना, तथा ये स्वरूपतः पार्श्वस्था अपरं च साधुसमाचारप्रद्वेषतो ग्लानादिप्रयोजनेषु साधूनामप्रतर्पिणोऽवर्णभाषिणश्च ते महता प्रायश्चित्तेन शुद्धिमासादयन्ति, ये तु पार्श्वस्था अपि कर्मलघुतया साधुसमाचारानुरागतः साधून ग्लानादिप्रयोजनेषु प्रतितर्पयन्ति श्लाघाकारिणश्च ते स्तोकापराधिन एव शुध्यन्तीत्युक्तक्रमेण प्रायश्चित्तदाने रागद्वेषगन्धस्याप्यभावात् । इत्थं ॥२९॥ च तपश्छेददानाधिकारित्वेन पार्श्वस्थेऽपि चारित्रसम्भव इति सिद्धम् ॥२॥ भणिअं च कप्पभासे, पासत्थाईण सेढिबज्झत्तं । किइकम्मस्सऽहिगारे, एयं खलु दुद्धरविरोहं ॥३॥ है। For Private Personal use only wasnainelibrary.org Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिणित्ति । भणितं च कल्पभाष्ये पार्श्वस्थादीनां कृतिकर्मणोऽधिकारे श्रेणिवाह्यत्वम् , तथाहि-"सेढिहाणठियाणं, किइकम्म बाहिरण कायवं । पासत्थादी चउरो, तत्थ वि आणादिदोसाइ ॥१॥" इत्यत्र श्रेणिवाद्याः पार्श्वस्थादयश्चत्वार उक्ताः । तत्र पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छन्दाः पञ्चाप्येको भेदः, काथिकप्राश्निकमामककृतक्रिय संप्रसारका द्वितीयः, अन्यतीथिकास्तृतीयः, गृहस्थाश्चतुर्थ इति। एतत् खलु 'दुद्धरविरोधं दुःसमाधानानुपपत्तिकम्, यदि ४च्छेदान्तप्रायश्चित्ताधिकारित्वं पार्श्वस्थादीनां कथं श्रेणिबाह्यत्वं?, यदि च श्रेणिवाह्यत्वं कथं तदधिकारित्वम् ? इति ॥३॥ भन्नइ सेढीवज्झा, भणिया कप्पम्मि ते उ ववहारा। उववाइअंच तत्तं, विभज्ज सक्खं तहिं उवरिं॥४॥18 प्रतिवचनम्. | भन्नइत्ति । 'भण्यते' अत्रोत्तरं दीयते श्रेणिवाह्याः 'ते' पार्श्वस्थादयः 'कल्पे' कल्पभाष्ये 'व्यवहारात्' सम्भववाहुहै ल्यलक्षणादुक्का न तु सर्वेऽपि ते तादृशा एवेति उपपादितं च 'तत्त्वं' श्रेणिवाह्यत्वं 'विभज्य' पृथक्कृत्य साक्षाद्विशेष प्रदर्शनपूर्व 'तत्र' कल्प एव 'उपरि' अव्यवहितोत्तरग्रन्थ एव ॥ ४॥ तथाहिलिंगेण णिग्गओ जो, पागडलिंग धरेइ जो समणो।किह होइ णिग्गउत्तिय, दिटुंतो सक्करकुडेहिं ॥५॥ + लिंगेण'त्ति । 'लिङ्गेन' रजोहरणादिना यो मुक्तः स संयमश्रेण्या निर्गतः प्रतीयते । यस्तु श्रमणः प्रकटमेव लिङ्गंधारयति स कथं 'निर्गतः' श्रेणिबाह्यो भवति? श्रमणलिङ्गस्योपलभ्यमानत्वान्न भवतीति भावः । अत्र सूरिराह-दृष्टान्तः शर्कराकुट. शर्कराकुटाभ्यामत्र क्रियते-"जहा कस्सइ रन्नो दो घडया सक्कराभरिआ, ते अन्नया मुइं दाऊण दोण्हं | दृष्टान्तः International For Private & Personal use only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्तियुतः ल्लास: स्वोपज्ञवृ.14 पुरिसाण समप्पिा भणिआ य जहा सारक्खह जया मग्गिजइ तया दिजह" ॥ ५॥ ततः किमभूत् ? इत्याह- गुरुतत्त्वतदाउं अहे उ खारं, सवत्तो कंटिआहिं वेढित्ता । सकवाडमणाबाधे, पालेइ तिसंझमिक्खंतो ॥६॥ विनिश्चयः प्रथमो. | 'दा'ति । तयोरेकः पुरुषस्तं राज्ञा समर्पित घटं गृहीत्वा तस्याधः क्षारं दत्त्वा यथा कीटिका नागच्छेयुरिति भावः, ततः सर्वतः कण्टिकाभिस्तं वेष्टयित्वा सकपाटे-कपाटपिधानयुक्तेऽनावाधे प्रदेशे स्थापयित्वा त्रिसन्ध्यमीक्षमाणः सम्यक् । पालयति ॥ ६॥ द्वितीयः पुनः किं कृतवान् ? इत्याहमुदं अविदवंती-हिँ कीडिआहिं सचालणी चेव । जजरिओ कालेणं, पमायकुडए निवे दंडो॥७॥ | 'मुद्दति । द्वितीयः पुरुषस्तं घट कीटिकानगरस्यादूरे स्थापयित्वा मध्ये मध्ये नावलोकते, ततः शर्करागन्धाघ्राणतः | समायाताभिः कीटिकाभिमुद्रामविद्रवन्तीभिः स घटोऽधस्तात्कालेन जर्जरीकृतः शर्करा सर्वापि भक्षिता । अन्यदा राज्ञा तौ पुरुषौ घटं याचितौ, ततो द्वाभ्यामप्यानीय दर्शितयोर्घटयोः 'पमायकुडए'त्ति येन कुटरक्षणाप्रमादः कृतस्तस्य नृपेण दण्डः कृतः। उपलक्षणमिदं तेन यस्तं सम्यक् पालितवान् तस्य विपुला पूजा विदधे । एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयःराजस्थानीया गुरवः, पुरुषस्थानीयाः साधवः, शर्करास्थानीयं चारित्रं, घटस्थानीय आत्मा, मुद्रास्थानीयं रजोहरणं, कीटिकास्थानीयान्यपराधपदानि, दण्डस्थानीया दुर्गतिप्राप्तिः, पूजास्थानीया स्वर्गादिसुखपरम्पराप्राप्तिः ॥७॥ एतमेवोपनयं लेशत. आह 5555 ॥३०॥ Jain Education internation For Private Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECONDSAURUGROCEROCCORDCORNER निवसरिसो आयरिओ, लिंग मुद्दा उ सकरा चरणं। पुरिसा य हुंति साहू, चरित्तदोसा मुइंगाओ॥॥ कूटदृष्टान्त8 'निवसरिसोत्ति गतार्था । नवरं 'मुइंगाः' कीटिकाः । यथा तस्य प्रमत्तपुरुषस्य मुद्रासद्भावेऽप्यधाप्रविशन्तीभिःस्य दार्टान्तिकीटिकाभिर्घटं विभज्य शर्करा विनाशिता, एवं साधोरपि प्रमादिनो रजोहरणमुद्रासद्भावेऽप्यपराधपदैरात्मनि जर्जरिते के योजना। शर्करातुल्यं चारित्रं कालेन वा सद्यो वा विनाशमाविशति ॥ ८॥ तत्र कालेन यथा विनश्यति तथा दर्शयतिएसणदोसे सीयइ, अणाणुतावी ण चेव वियडेइ।णेव य करेइ सोहिं, ण य विरमइ कालओ भस्से ॥९॥ __ 'एसण'त्ति । एषणादोषेषु 'सीदति' तद्दोषदुष्टं भक्तपानं गृह्णातीत्यर्थः, एवं कुर्वन्नपि पश्चात्तापं करिष्यतीत्यत आहहा अननुतापी' पुरःकर्मादिदोषदुष्टाहारग्रहणादनु-पश्चात्तप्तुं-हा दुष्ठ कृतं मयेत्यादिमानसिकतापं धत् शीलमस्येत्यनुतापी न तथा अननुतापी, कथमेतदू ज्ञायते? इत्याह-'न चैव विकटयति' गुरूणां पुरतः स्वदोपं न प्रकाशयति, विकटयति वा परं तस्य 'शोधिं' प्रायश्चित्तं गुरुप्रदत्तं नैव करोति, 'न च' नैवाशुद्धाहारग्रहणाद्विरमति, एवं कुर्वन् 'कालतः' किय-1 तापि कालेन चारित्रापरिभ्रश्येत् ॥ १॥ यस्तु मूलगुणान् विराधयति स सद्यः परिभ्रश्यति, अमुमेवार्थ सविशेषमाह पाय सावशेषमाह- मूलगुणविमूलगुण उत्तरगुणे, मूलगुणेहिं तु पागडो होइ । उत्तरगुणपडिसेवी, संचयतोऽछेयओ भस्से ॥ ११०॥RI राधनाया 'मूलगुणत्ति । इह प्रतिसेवको द्विधा-मूलगुणप्रतिसेवक उत्तरगुणप्रतिसेवकश्च । तत्र मूलगुणप्रतिसेवनायां वर्तमानः सद्यस्कचा रिभ्रंशप्रकप्रकट एव प्रतीयते यथा चारित्रापरिभ्रश्यति । उत्तरगुणप्रतिसेवी तु 'सञ्चयेन' बह्वपराधमीलनेन योऽशुद्धग्रहणादेरव्य टनम् । गुस्त. HainEducer For Private Personal use only elorery.org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमा S वच्छेदः-परिणामस्यानुपरमस्ततः 'भ्रश्येत्' चारित्रासरिभ्रंशमाप्नुयात् ॥११०॥ अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाह गुरुतत्त्व अंतो भयणा बाहिं, तु णिग्गए तत्थ मरुगदिटुंतो । संकरसरिसवसगडे, मंडववत्थेण दिलुतो ॥१॥ विनिश्चयः लासः 'अंतो'त्ति । इह सम्बन्धानुलोम्यतः प्रथममुत्तरार्द्ध व्याख्यायते-सङ्करः-तृणादिकचवरस्तदृष्टान्तो यथा-आरामो | सारणीए पाइजइ । तीए वहंतीए एगं तणं सयं लग्गं तं न अवणीयं । अन्नं लग्गं तं पि न अवणीयं । एवं बहुहिं लग्गंतेहिं । तत्थ तेण आश्रयेण चिखल्लधूलीए संचओ जाओ। तेण संचएण तं पाणियं रुद्धं अन्नओ गंतुं पयदृ। ताहे सो आरामो दृष्टान्तानि. सुक्को । एवमभिक्खणमभिक्खणं उत्तरगुणपडिसेवाए अवराहसंचओ भवइ, तेण संजमजलं पवहमाणं निरुज्झइ, तओ चारित्तारामो सुक्कइ ॥ सर्षपशकटमण्डपदृष्टान्तो यथा-शकटे मण्डपे वा क्वाप्येकः सर्वपः प्रक्षिप्तः स तत्र मातः अन्यः प्रक्षिप्तः सोऽपि मातः, एवं प्रक्षिप्यमाणैः प्रक्षिप्यमाणैः सर्पपैर्भविष्यति स सर्षपो यस्तं शकटं मण्डपं वा भवति । एवं चारित्रेऽप्यशुद्धाहारग्रहणादिरेकोऽपराधः प्रक्षिप्तः स तत्रावस्थितिं कृतवान् , द्वितीयः प्रक्षिप्तः सोऽप्यवस्थितः, एवमपरापरैरुत्तरगुणापराधैः प्रक्षिप्यमाणैर्भविष्यति स उत्तरगुणापराधो येन चारित्रं सर्वथा भङ्गमुपगच्छति ॥ वस्त्रदृष्टान्तो यथा-वस्त्रे क्वचिदेकस्तैलबिन्दुः कथमपि लग्नः स न शोधितस्तदाश्रयेण रेणुपुद्गला अप्यवतस्थिरे, एवमन्यत्राप्यवकाशे तैलबिन्दुलेग्नः सोऽपि न शोधितः, एवमन्यान्यस्तैलबिन्दुभिर्लगद्भिरप्यशोध्यमानैः सर्वमपि तद्वस्त्रं मलिनीभूतम् । एवं चारित्रवस्त्रमप्यपरापरैरुत्तरगुणापराधैरुपलिप्यमानमचिरादेव मलिनीभवतीति । तदेवमुत्तरगुणप्रतिसेवी कालेन चारित्रात्सरिभ्रश्यतीति स्थितम् । अथ कृतिकर्मविषयं विशेषमाह-'अन्तः' संयमश्रेणेमध्ये कृतिकर्मकरणे 'भजना'अवम UALCASSE Mainelibrary.org. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्तम्। रानिक आलोचनादौ कार्ये वन्द्यते अन्यदा तु न। आपन्नपरिहारिको न वन्द्यते,स पुनराचार्यान् वन्दते । संयत्योऽप्यत्सर्गतो न वन्द्यन्ते, अपवादतस्त्वपूर्वश्रुतस्कन्धधारिणी काचिन्महत्तरोद्देशसमुद्देशादिषु फेटावन्दनेन वन्द्यते । प्रो. कबद्धा जिनकल्पिकाः शुद्धपरिहारिणोऽप्रतिबद्धयथालन्दिकाश्च कृतिकर्मकार्ये सकुलादिकार्ये चानधिकारिण इत्यादिकाव्यवस्थासत्त्वाद् । 'बहिः' श्रेणेनिंगते तु न कर्तव्यं कृतिकर्म । तत्र 'मरुकस्य' ब्राह्मणस्य दृष्टान्तः॥११॥ तमेवाह मरुकदृष्टापक्कणकुले वसंतो,सउणीपारो वि गरहिओ होइ।इय गरहिआ सुविहिया,मज्झि वसंता कुसीलाणं ॥१२॥ 'पक्कण'त्ति । पक्कणकुलं-मातङ्गगृहं तत्र वसन् 'शकुनीपारगोऽपि' चतुर्दशविद्यास्थानपारदृश्वाऽपि द्विजो गर्हितो भवति । एवं सुविहिताः साधवः कुशीलानांमध्ये वसन्तो गर्हिता भवन्तीति, अतो न तेषु वस्तव्यं न वा कृतिकर्म विधेयम्। ॥ १२॥ ननु पार्श्वस्थानां कृतिकर्म न कर्तव्यमिति भवद्भिरभिहितम् । तत्र पावस्थादीनां लक्षणं क्वचिदग्रपिण्डभोजित्वादिस्वल्पदोषरूपं कचिच्च स्त्रीसेवादिमहादोषरूपमावश्यकादिशास्त्रेष्वभिधीयते तदत्र वयं तत्त्वं न जानीमहे कस्य कर्त्तव्यं कस्य वा न ? इत्याशङ्कायां विषयविभागमुपदर्शयतिसंकिन्नवराहपदे, अणाणुतावी य होइ अवरद्धे । उत्तरगुणपडिसेवी, आलंबणवजिओ वजो ॥१३॥13 अवन्दनीय पार्श्वस्थल'संकिन्न'त्ति । इह यो मूलगुणप्रतिसेवी स नियमादचारित्रीति कृत्वा स्फुटमेवावन्दनीय इति न तद्विचारणा । परं य उत्तरगुणविषयैर्बहुभिरपराधपदैः सङ्कीर्णः-शबलीकृतचारित्रः, अपरं च 'अपराधे' अशुद्धाहारग्रहणादावपराधे कृते 'अ ACTRESS Jain E t ernational now.jainelibrary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व. विनिश्चयः लासः स्वोपज्ञवृ15ननुतापी' हा दुष्ठु कृतमित्यादि पश्चात्तापं यो न करोति निःशङ्को निर्दयश्च प्रवर्तत इत्यर्थः, एवंविध उत्तरगुणप्रतिसेवी त्तियुतः यश्च आलम्बनेन-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपविशुद्ध कारणेन वर्जितः कारणमन्तरेण प्रतिसेवत इत्यर्थः, सः 'वर्व्यः' वर्जनीयः प्रथमो कृतिकर्मकरणे ॥ १३ ॥ शिष्यः प्राह-नन्वेवमादापन्नम्-आलम्बनसहित उत्तरगुणप्रतिसेव्यपि वन्दनीयः ?, सूरिराह- ॥३२॥ न केवलमुत्तरगुणप्रतिसेवी मूलगुणप्रतिसेव्यप्यालम्बनसहितः पूज्यः । कथम्? इति चेदुच्यते हिट्ठाणठियो वी,पावयणिगणठ्ठयाउ अधरे उ।कडजोगि जं निसेवइ, आदिणियंटु व सो पुज्जो ॥१४॥ 'हित्ति । अधस्तनेषु-जघन्यसंयमस्थानेषु स्थितोऽपि मूलगुणप्रतिसेव्यपीति भावः, 'कृतयोगी' गीतार्थः प्रावचनि- कस्य-आचार्यस्य गणस्य च-गच्छस्यानुग्रहार्थ-'अधरे' आत्यन्तिके कारणे समुपस्थिते यन्निषेवते तत्रासौ संयमश्रेण्यामेव वर्त्तत इति कृत्वा पूज्यः, क इव? इत्याह-'आदिनिग्रन्थ इव' पुलाक इव, तस्य ह्येतादृशी लब्धिर्यया चक्रवर्तिस्कन्धावारमप्यभिवादनादौ कुलादिकार्ये मृद्गीयाद्वा विनाशयेद्वा न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात् ॥ १४ ॥ तथा चाहकुणमाणो वि य कडणं,कयकरण व दोसमन्भेइ । अप्पेण बहुं इच्छइ,विसुद्ध आलंबणो समणो॥१५॥ | 'कुणमाणो वि यत्ति । 'कडणं' कटकमदं कुर्वाणोऽपि 'कृतकरणः' पुलाको नैव स्वल्पमपि दोषं 'अभ्येति' प्राप्नोति । कुतः? इत्याह-यतोऽसौ श्रमणो विशुद्धालम्बनः सन्नल्पेन संयमव्ययेन बहुसंयमलाभमिच्छति ॥ १५॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह कारणे मूल. गुणप्रतिसेव्यपि पूज्य इति प्रकटनम् । ३२॥ Jain EU For Private & Personal use only nelibrary.org Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजमहेउं अजयत्तणं पिण हु दोसकारगं विंति । पायण वोच्छेयं वा समाहिकारों वणादीनं ॥ १६ ॥ 'संजम हेउं 'ति प्रावचनिकादेः प्राणव्यपरोपणाद्युपद्रवरक्षणेन यः संयमस्तद्धेतोस्तन्निमित्तं पुलाकादेरयतत्वमपि 'नहि' नैव दोषकारकं ब्रुवते, यथा 'समाधिकारः' वैद्यो व्रणादीनां यत्तथाविधौषधप्रलेपनेन पाचनं यच्च शस्त्रादिना विच्छेदनं यद्वा व्यवच्छेदं लङ्घनं कारयति तत्तदानीं पीडाकरमपि परिणामसुन्दरमिति कृत्वा न दोषावहम्, एवमिदमपीति ॥ १६ ॥ अथ परस्याभिप्रायमाशङ्कमान आह तत्थ भवे जइ एवं अपणं अपणेण रक्खए भिक्खू । अस्संजया वि एवं, अण्णं अण्णेण रक्खति ॥१७॥ ‘तत्थ’त्ति । ‘तत्र' इत्यनन्तरोकेऽर्थेऽभिहिते सति भवेत् परस्याभिप्राय इति वाक्यशेषः, यद्येवं 'भिक्षुः' पुलाकादिः 'अन्यम्' आचार्यादिकं 'अन्येन' स्कन्धावारादिना कृत्वा 'रक्षति' एकस्य विनाशेनापरं पालयतीति भावः । तत एवं 'असंयताः' गृहस्था अप्यन्यमन्येन रक्षन्त्यवे, अतो न कश्चिदसंयतानां संयतानां च प्रतिविशेषः॥ १७ ॥ एवं परेणोक्ते सूरिराह - न संजमहेउं पालिति असंजता अजतभावे । अच्छित्तिसंजमट्टा, पालिंति जती जतिजणं तु ॥ १८ ॥ 'नहु ते'ति । 'नहि' नैव ते असंयता अयतभावव्यवस्थितान् गृहस्थान् संयमहेतोः पालयन्ति किन्तु स्वात्मनो जीविकादिनिमित्तम् । ये तु यतयस्ते या तीर्थस्याव्यवच्छित्तिर्यश्च तेषां रक्ष्यमाणानामात्मनश्चान्योन्योपकारद्वारेण संय मस्तदर्थे यतिजनं पालयन्ति । तुशब्दो विशेषणार्थः, एवं विशेषः साधूनां गृहस्थानां चेति ॥ १८ ॥ किञ्च - : Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - खोपज्ञ- कुणइ वयंधणहेउं,धणस्स धणिओ उ आगमंणाउं। इय संजमस्स विवओ,तस्सेवठ्ठा ण दोसाय ॥१९॥|| गुरुतत्त्वत्तियुतः प्रथमो । 'कुणइत्ति । यथा धनिको वाणिज्यं कुर्वन् 'आगम' लाभं ज्ञात्वा 'धनहेतोः' द्रव्योपार्जनार्थ शुल्ककर्मकरवृत्तिभाट- विनिश्चयः कप्रदानेन धनस्य व्ययं करोति । एवं पुलाकादेर्मूलगुणप्रतिसेवनं कुर्वाणस्य यः कोऽपि संयमस्य व्ययः सः 'तस्यैव' संय-181 लासः समस्यार्थाय विधीयमानो न दोषाय संजायते, ततः पुष्टालम्बनसहितो मूलगुणप्रतिसेव्यपि शुद्ध इति स्थितम् ॥ १९॥ है अथापुष्टालम्बनो निरालम्बनो वा प्रतिसेवते ततः संसारोपनिपातमासादयति, तथा चात्र दृष्टान्तमाह तुच्छमवलंबमाणो, पडइ णिरालंबणो य दुग्गम्मि। सालंबणिरालंबे, अह दिटुंतो णिसेवंते ॥१२०॥ निष्कारणे | 'तुच्छं' इति । इहालम्बनं द्रव्यभावभेदाविधा । तत्र गर्नादौ पतद्भिर्यद्रव्यमालम्ब्यते तद्रव्यालम्बनं, तच्च द्विधा तुच्छकारणे वा प्रतिसेवपुष्टमपुष्टं च, अपुष्टं दुर्बलं कुशवल्कलादि, पुष्टं वलिष्ठं तथाविधकठोरवल्यादि। एवं भावालम्बनमपि पुष्टापुष्टभेदाविधा,131 पुष्टं तीर्थाव्यवच्छित्तिग्रन्थाध्ययनादि, अपुष्टं शठतया स्वमतिमात्रोनेक्षितमालम्बनम् । ततश्च द्रव्यालम्बनं 'तुच्छम्' अपु-तसाराटनम । टमवलम्बमानो निरालम्बनो वा यथा 'दुर्गे' गादौ पतति, यस्तु पुष्टमवलम्बते स सुखेनैवात्मानं गादौ पतन्तं उधारयति; एवं साधोरपि मूलगुणाद्यपराधान्निषेवमाणस्य सालम्बननिरालम्बनविषयोऽथायं दृष्टान्तो मन्तव्यः। किमुक्त भवति? यो निरालम्बनोऽपुष्टालम्बनो वा प्रतिसेवते स आत्मानं संसारगतोयां पतन्तं न संधारयितुं शक्नोति । यस्तु x ॥३३॥ पुष्टालम्बनः स तदवष्टम्भादेव संसारगर्ती सुखेनैवातिलवयति । यत एवमतः पुष्टालम्बनवर्जितः कृतिकर्मणि वर्जनीय SURAUHASHASHG उ००६पाIVIमानस्य स - JainEducatdai For Private Personal use only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *OCTOCHROCCOLOROSCORRECRUSHES इति ॥ १२० ॥ एवं च पार्श्वस्थेऽपि सानुतापादिशुद्धपरिणामे चारित्रसम्भवोऽस्तीति सिद्धम्, इदमेव प्रदेशान्तरसम्मत्या द्रढयतिजत्तो च्चिय पासत्थे, चारित्तं होइ भावभेएणं । वंदणयमणुण्णायं, इत्तो च्चिय भावकारणओ ॥२१॥ 'जत्तो चिय'त्ति । यत एव पार्श्वस्थ भावभेदेन चारित्रं सावशेष भवति अत एव 'भावकारणतः' भावालम्बनात् | वन्दनक' कृतिकर्मानुज्ञातं कल्पभाष्ये॥ २१॥ तथाहिदसणनाणचरितं, तवविणयं जत्थ जत्तियं पासे । जिणपन्नत्तं भत्तीइ पूयए तं तहिं भावं ॥ २२ ॥ _ 'दसण'त्ति । दर्शनं च-निःशङ्कितादिगुणोपेतं सम्यक्त्वं ज्ञानं च-आचारादिश्रुतं चारित्रं च-मूलोत्तरगुणानुपालनात्मक दर्शनज्ञानचारित्रम्, द्वन्द्वैकवद्भावः। एवं तपश्च-अनशनादि विनयश्च-अभ्युत्थानादिस्तपोविनयम् । एतदर्शनादि 'यत्र' पार्श्वस्थादौ पुरुषे 'यावद्' यसरिमाणं स्वल्पं बहु वा जानीयात् तत्र तमेव भावं जिनप्रज्ञप्तं स्वचेतसि व्यवस्थाप्य तावत्यैव 'भक्त्या' कृतिकर्मादिलक्षणया पूजयेदिति ॥ २२॥ ननु यद्येवमागमद्वारसूचितेन दर्शनादिभावकारणेनास्य वन्दनमनुज्ञातं तदोत्सर्गेणापि तदविरोधः, संयमश्रेणिस्थित एवोत्सर्गतो वन्दनप्रवृत्तेरित्यत आहउस्सग्गओ अ एयं,पडिसिद्धं गच्छमेरमहिगिच्च । इत्थं च णत्थि दोसो,सेढिठ्ठाणे विजं भयणा ॥२३॥ 'उस्सग्गओ'त्ति । उत्सर्गतश्च एतत्' पार्श्वस्थादिवन्दनं 'गच्छमेरां' गच्छव्यवहारमधिकृत्य प्रतिषिद्धम् , चारित्रवत्त्वे RASAKOSOAIS SCHOOL Jain Educa elibrary.org Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो सत्येकसामाचारीकत्वस्यैव वन्द्यतायां तन्त्रत्वात् ; इत्थं च नास्ति दोषः श्रेणिस्थानेऽपि 'यत्' यस्माद्भजना, एकगच्छव्य-10 गुरुतत्त्ववहारवतां वन्दनप्रवृत्तेरापन्नपरिहारिकादीनां च तदप्रवृत्तेः। केवलं वन्दनादिव्यवहारानवतारिणां शुद्धचारित्रिणां चा विनिश्चयः ल्लास: रित्रं विषयविशेषपक्षपातद्वारापि फलजनकम् , पार्श्वस्थादीनां त्वतिजघन्यसंयमस्थानवर्त्तिनां सदपि तदनिष्टानुबन्धितया न तथा। अत एवोक्तं पापश्रमणीयाध्ययने-"एयारिसे पञ्चकुसीलसंवुडे, रूवंधरे मुणिपवराण हिटिमे । इहंसि लोए विसमिव गरहिए, ण से इहं व परत्थ लोए ॥१॥" इत्यत्रातिजघन्यसंयमस्थानवतित्वेन निकृष्टानां पञ्चानामेषां भ्रष्टप्रतिज्ञत्वेन विषवद्गर्हितत्वमुक्तम् । केवलं दुर्लभभावे काले स्वरूपतो भावप्रशंसार्थ भावकारणावलम्बनेन तेषामपि निःशूकपावन्द्यत्वमुक्तमिति युक्तमुत्पश्यामः ॥ २३ ॥ फलितमाह मावस्थस्य चरपासत्थस्सण चरणं,तम्हा णिद्धंधसस्स लुद्धस्स । गुरुणिस्सियस्स इपिंह,चरणं पुण असढभावस्स ॥२४ भाव - | 'पासत्थस्स'त्ति । तस्मात् 'निद्धन्धसस्य' निःशूकस्य 'लुब्धस्य' लोभाभिभूतस्य पार्श्वस्थस्य 'न' नैव 'चरणं' चारित्रम्। शठस्य च त'अशठभावस्य पुनः' देशपार्श्वस्थलक्षणवतोऽपि 'गुरुनिश्रितस्य' गीतार्थपरतन्त्रस्य इदानीमपि चारित्रम्, अशठभावेन यथा- सद्भाव इति शक्त्याचरणस्यैव तल्लक्षणत्वात्। तथा चाज्ञाभङ्गराज्येऽप्यशठभावसाम्राज्यान्नेदानीं चारित्रप्रतिबन्ध इति स्थितम् ॥२४॥ फलितप्रकनन्विदानीन्तनानां साधूनां तावद्वक्रजडत्वं श्रूयते, तथा चाशठभावोऽपि दुरापास्तो वक्रत्वलक्षणया माययाऽज्ञानल टनम् । क्षणेन जाज्येन च तदनुपपत्तेरित्यत आह ॥३४॥ गीयत्थपारतंता, वकजडत्ते वि दढपइन्नाए । एयस्स णत्थि हाणी, पुवायरिएहिं जं भणियं ॥२५॥ 2-36 Main Education international For Private Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गीयत्थ'ति । गीतार्थपारतन्त्र्याद्वक्रजडत्वेऽपि सति 'दृढ प्रतिज्ञया' व्रतपालनभावदार्येन 'एतस्य' चारित्रस्य नास्ति हानिः, संज्वलन मायालक्षणस्य वक्रत्वस्य ज्ञानावरणकर्मोदयजनितस्य जाड्यस्य च संयमाविरोधित्वात्, अनन्तानुबन्धिमायालक्षणस्य वक्रत्वस्य मिथ्यात्वोदयजनितस्य जाड्यस्य च गीतार्थपारतन्त्र्येणैव प्रतिघातात् । 'यत्' यस्मात् 'पूर्वाचार्यैः' हरिभद्रसूरिभिर्भणितमिदम् ॥ २५ ॥ एवंविहाण वि इहं, चरणं दिट्ठ तिलोगनाहेहिं । जोगाण सुहो भावो, जम्हा एएसि सुद्धो उ ॥ २६ ॥ 'एवंविहाण वि'त्ति। ' एवं विधानामपि' वक्रजडानामपि 'इह' भरतक्षेत्रे 'चरणं' चारित्रं दृष्टं त्रिलोकनाथैः, यस्मादेतेषां 'योगानां' प्रतिज्ञातक्रियाव्यापाराणां शुद्धो भावः स्थिरः, स्थिरतैव चारित्राङ्गमिति ॥ २६ ॥ अथिरो अ होइ भावो, सहकारिवसेण ण पुण तं हणइ । जलणा जायइ उपहं, वज्जं ण उचयइ तत्तं पि २७ 'अथिरो अ'ति । अस्थिरश्च भावो भवति कदाचित् सहकारिणां संज्वलनमायाजाड्यादिलक्षणानां निमित्तानां वशेन, न पुनः 'तं' योगस्थिरतालक्षणं चारित्रं हन्ति । दृष्टान्तमाह —- 'ज्वलनात्' अग्नेर्जायते उष्णं वज्रं न तु त्यजति 'तत्त्व' वज्रत्वमपि तद्वच्चारित्रमपि तथाविधसहकारिवशाद्विकारित्वलक्षणम स्थैर्यमुपाददानमपि दृढप्रतिज्ञत्वलक्षणं स्थैर्य न परित्यजतीत्यर्थः ॥ २७ ॥ यदप्युक्त मेकस्याप्यङ्गस्य भङ्गेऽष्टादशशीलाङ्गसहस्रलक्षणं चारित्रं नावतिष्ठत इति प्रमाद| बहुले काले कथं चारित्रसम्भवः ? इति तत्रोत्तरमाह - इदानीन्तनसाधूनां वजडत्वेऽपि गीतार्थपारतत्र्येण सरलाशयत्व मेव । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वपिज्ञ: त्तियुतः प्रथमो. वेन शीला CAMSHERECENERSEEN सीलंगाण वि एवं, विगलत्तं णस्थि विरइभावेणं । इहरा कयाइ हुज्ज वि, भणियं जं पुबसूरीहिं॥२८॥ I गुरुतत्त्व विनिश्चयः __'सीलंगाण वित्ति । शीलाङ्गानामपि एवं' विरतिभावेन नास्ति 'वैकल्यम्' एकाद्यगायोगलक्षणमितीष्यते, विरतिस्थान ल्लासः सत्त्वे फलतः सर्वाङ्गानां सत्त्वात् । इतरथा' बाह्यप्रवृत्त्यपेक्षायां भवेदपि कदाचिदेकाद्यङ्गधैकल्यम्, तथात्वे दोषाभावात आन्तरभावेषु तु क्वचिदयंशवैकल्येऽविरतिप्रसङ्गात्। यद्भणितं 'पूर्वसूरिभिः' श्रीहरिभद्राचार्यैः ॥ २८ ॥ एयं च एत्थ रूवं,विरईभावं पडुच्च दट्ठव्वं । ण उ बझं पि पवित्ति,जं सा भावं विणा वि भवे ॥२९॥ विरतिभा__'एयं च'त्ति । एतच्च शीलाङ्गानामन्योन्यव्याप्त्या 'रूपम्' अखण्डस्वाभाव्यं विरतिभावं प्रतीत्य द्रष्टव्यं न तु बाह्या 18ङ्गानामविमपि प्रवृत्तिमाश्रित्य, 'यद्' यस्मात् 'सा' बाह्या प्रवृत्तिर्भावं विनापि भवेत् , पुष्टालम्बनशुद्धस्य सर्वत्रानभिष्वङ्गस्य गुरुल-17 घुभावविदः किञ्चिद्वाह्याङ्गविकलस्य विरतिभावावाधादुत्सूत्ररतस्य च बाह्याङ्गसामग्येऽपि तदभावादिति भावः ॥ २९॥ हायदप्युक्तमेकस्याप्यङ्गस्य वैकल्ये चारित्रोच्छेदादेव महानिशीथे साधूनामकायादिसेवने मिथ्यात्वाभिधानमिति तदपि न । पूर्वपक्षेचोयुक्तं तदभिधानस्यान्यार्थत्वादित्याह दकोक्तं महा दानिशीथप्राअचंतणिसेहत्थं, आउक्कायाइसेवणे भणिमिच्छत्तं णिच्छयओ, तं पुण अण्णस्स भंगे वि॥१३॥ माण्यं दूष_ 'अच्चंत'त्ति । यद्यपि ग्रन्थान्तरेऽष्कायतेजस्काययोः कल्पिका प्रतिसेवनोच्यते, मैथुनस्य तु रागद्वे परहितप्रवृत्त्यभावे- यति । नात्यन्तनिषेध एव, तथाऽप्यप्कायादिप्रतिसेवात्रयस्यैव तत्त्वतो गृहवासत्वादुज्झितगृहवासानामुत्सर्गरुचीनां मुनीनां ॥ ३५ ॥ Jain Education For Private Personal Use Only inelibrary.org Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्निर्वाहार्थं पुष्टमालम्बमानानामपि तादृशचारित्रशुद्धये तस्यात्यन्तनिषेधार्थमप्काया दिसेवने मिथ्यात्वं भणितं महानिशीथे । तथा चोक्तं सावद्याचार्याधिकारप्रान्ते- “से भयवं । किं पच्चइअं तेणाणुभूयं एरिसं दूसहं घोरदारुणं महादुक्खसन्निवायसंघट्टमित्तियकालं ति ? गोयमा ! जं भणियं तक्कालसमयम्मि जहा णं उस्सग्गाववाएहिं आगमो ठिओ एगंतो मिच्छत्तं जिणाण आणा अणेगंतो त्ति एयवयणपच्चइअं । से भयवं ! किं उस्सग्गाववाएहिं णं णो ठिअं आगमं एतं च पन्नविज्जइ ? गोयमा ! उस्सग्गाववाएहिं चेत्र पत्रयणं ठियं अणेगंतं च पन्नविज्जइ नो णं एतं । णवरं आउक्कायपरिभोगं ते काय समारंभं मेहुणासेवणं च, एते तओ ठाणंतरे एगंतेणं ३ णिच्छयओ ३ वाढ ३ सवया सबपयारेहिं णं आयहियद्वीणं णिसिझंति, एत्थं च सुत्ताइक्कमे सम्मग्गविष्वणासणं उम्मग्गपयरिसणं, तओ य आणाभंगो, आणागंगाओ अनंतसंसारि"त्ति । निश्चयतः पुनरन्यस्याप्कायादि विरमणातिरिक्तविरतिगुणस्य भङ्गेऽपि तन्मिथ्यात्वं व्यवस्थितम् ॥ १३० ॥ तथा चाह जो जहवायं ण कुणइ, मिच्छदिट्टी तओ हु को अन्नो । वड्ढेड़ अ मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ॥३१॥ 'जो जहवार्य'ति । इह यद्देशकाल संहननानुरूपं यथाशक्ति यथावदनुष्ठानं तत्सम्यक्त्वम्, यत उक्तमाचारसूत्रे - "जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा, जं सम्मं ति पासहा तं मोणं ति पासहा ।" इति । ततो यो देशकाल संहननानुरूपं शक्त्यनिगूहनेन यथाऽऽगमेऽभिहितं तथा न करोति ततः सकाशात्कोऽन्यो मिथ्यादृष्टिः । नैव कश्चित् किन्तु स एव मिथ्यादृष्टीनां धुरि युज्यते, महामिथ्यादृष्टित्वात् । कथं तस्य मिथ्यादृष्टिता ? इत्याह- 'चढेइ अ' इत्यादि । चशब्दो " : Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ. त्तियुतः प्रथमो. ल्लासः हेतौ, यस्मात्स यथावादमकुर्वन् परस्य शङ्कामुत्पादयति, यथा-यदि यत् प्रवचनेऽभिधीयते तत्तत्त्वं तर्हि किमयं तत्त्वं गुरुतत्त्व. जानानोऽपि तथा न कुरुते? तस्माद्वितथमेतत्प्रवचनोक्तमिति, एवं च परस्य शङ्कां जनयन मिथ्यात्वं सन्तानेन वर्धयति, विनिश्चयः तथा च प्रवचनस्य व्यवच्छेदः। शेषास्तु मिथ्यादृष्टयो नैवं प्रवचनस्य मालिन्यमापाद्य परम्परया व्यवच्छेदमाधातुमीशाः, ततः शेषमिथ्यादृष्ट्यपेक्षयाऽसौ यथावादमकुर्वन् महामिथ्यादृष्टिरिति पिण्डनियुक्तौ व्याख्यानमेतत् । नन्वेवं यथावादाकारिणः परमिथ्यात्वोत्पादकत्वेन व्यवहारत एव मिथ्यात्वमागतं न तु निश्चयतः? इति चेन्न, यथावादाकारित्वेनैव निश्चयतो मिथ्यात्वोपपत्तेः, एकप्रतिज्ञाभङ्गे सर्वचरणभङ्गात्, तद्भङ्गे च ज्ञानदर्शनयोरपि भङ्गात्, तयोश्चरणफलत्वात् , फलाभावे च हेतोनिरर्थकत्वात् । अत एव-"णिच्छयणयस्स चरणायविघाए नाणदसणवहो वि।" इत्यस्य व्याख्याने इयमेव गाथा पिण्डनियुक्ती सम्मतितयोद्भाविता। मिथ्यात्ववर्द्धनलक्षणव्यावहारिकमिथ्यात्वानुप्रवेशेन च महामिथ्याष्टित्वमुपपद्यत इति सर्वमवदातम् ॥ ३१॥ व्यवहाराभिप्रायमाह सेढीए भहस्स वि,भजं ववहारओ उमिच्छत्तं । जंहोइ अभिणिवेसे, अणभिणिवेसे अ णो हुज्जा ॥३२॥ ___ 'सेढीए'त्ति । श्रेणितः' संयमश्रेणितः 'भ्रष्टस्य' पतितस्यापि 'व्यवहारतः' व्यवहारनयमधिकृत्य 'भाज्य' भजनीयं कस्यचित स्यात कस्यचिच्च नेति भावः'यत' यस्माद 'अभिनिवेशे' एकान्तेन भगवत्प्रवचनविप्रतिपत्तिलक्ष-12 णेऽसङ्गहे सति मिथ्यात्वं श्रेणिभ्रष्टस्य भवति । अनभिनिवेशे तु तस्य देशविरतिं भगवति श्रद्धानमात्रं वा दधानस्य न भवति मिथ्यात्वम्, तत्कार्यस्यासदहस्याभावात् , सम्यक्त्वकार्यस्य च पश्चात्तापादिपरिणामस्य सत्त्वात् ॥ ३२॥ यत एव EMALEBRUARMA Jain Ede For Private Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुत. ७ Jain Education Int भग्नस्यापि मिथ्यात्वं भाज्यमत एव निष्क्रमणेऽपि विशेष विधिपरिसङ्ख्योपपद्यत इत्याह इत्तो महाणिसीहे, भग्गस्स वि णंदिसेणणाएणं । सम्मत्तरक्खण, णिर्द्धधसयाणिसेहविही ॥ ३३ ॥ 'इत्तो 'ति । अत एव महानिशीथे भग्नस्यापि 'नन्दिषेणज्ञातेन' नन्दिषेणदृष्टान्तप्रसङ्गेन सम्यक्त्वरक्षणार्थं निद्धन्धसतानिषेधविधिः श्रूयते, तथा च तत एव तस्य सम्यक्त्वसिद्धिः, तत्फलेनैव तस्य फलवत्त्वादिति सिद्धम्, तद्भम्यश्चायम् - " भयवं ! जो रत्तिदिअहं, सिद्धतं पढइ सुणे । वक्खाणे चिंतए सययं, सो किं अणायारमायरे ? ॥ १ ॥ सिद्धतगयमेगं पि, अक्खरं जो वियाणइ । सो गोयम ! मरणंते वि, अणायारं न समायरे ॥ २ ॥ भयवं ! ता कीस दसपुवी, दिसेणमहायसे । पञ्चज्जं चिच्चा गणिकाए, गेहं पविट्टो पसुबइ १ ॥ ३ ॥ गोयम ! तस्स पविद्धं मे, भोगहलं खलिअकारणं । भवभयभीओ तहा वि दुअं, सो पद्मजमुवागओ ॥ ४ ॥ पायालं अवि उमुहं, सग्गं होज्जा अहोमुहं । ण उणा केवलि - | पन्नत्तं वयणं अन्ना भवे ॥ ५ ॥ अन्नं च सो बहूवाए, सुअणिबद्धे विआरिडं गुरुणो । पामूले मुत्तणं, लिंगं निविसओ गओ ॥ ६ ॥ तमेव वयणं सरमाणो, दंतभग्गो सकम्मुणा । भोगहलं कम्मं वेदेइ, वज्रपुट्टणिकाइअं ॥ ७ ॥ भयवं ! ते रिसोवाए, सुअणिबद्धे विआरिए । जेणुज्झिअ सामन्नं, अज्ज वि पाणे धरेइ सो १ ॥ ८ ॥ एते ते गोयमोवाए, केवलीहिं पवेइए । जहा विसयपराभूओ, सरेज्जा सुत्तमिमं मुणी ॥ ९ ॥ तंजहा - " तवमट्टगुणं घोरं, आढविज्जा सुदुक्करं । जहा विसए उ दिजंति, पडणासणविसं पि वा ॥ १० ॥ कार्य बंधिऊण मरिअ, नो चरितं विराहए । अह एयाइं न सक्किज्जा, तो गुरूणं लिंगं समप्पिया ॥ ११ ॥ विदेसे जत्थ नागच्छे, पउती तत्थ गंतूणं । अगुडबाई पालिजा, णो णं भविअर ) ary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ त्तियुतः प्रथमो से गिद्धधसे ॥ १२ ॥” इत्यादि ॥३३॥ अत्र स्थाने स्थाने संयमश्रेणी निबद्धेति तामेव स्मृतामनुपेक्षणीयां च निरूपयति- गुरुतत्त्व विनिश्चयः इत्थं संजमसेढिं, पसंगसंगइसमागयं भणिमो । अपरिमियठाणकंडगछट्ठाणगरासिणिप्फणं ॥३४॥ लासः ___ 'इत्थं'ति । 'अत्र' अस्मिन्नधिकारे प्रसङ्गसङ्गतिसमागतां संयमश्रेणी वयं भणामः, किम्भूताम् ? अपरिमितानाम्-असङ्ख्यातानां स्थानानां कण्डकानां षट्स्थानकानां च राशिभिनिष्पन्नाम् ॥ ३४ ॥ एतमेव निर्देशं सविशेष पिण्डनियुक्ति- संयमश्रेणि भाष्यगाथाभ्यामाह निरूपणा तत्थाणंता उ चरित्तपजवा हुंति संजमट्ठाणं । संखाईआणि हु ताणि कंडगं होइ णायत्वं ॥ ३५॥ | 'तत्थ' इत्यादि । 'तत्र' तेषु संयमस्थानादिषु वक्तव्येषु अनन्ताश्चारित्रपर्याया भवन्ति संयमस्थानं, प्रथममिति शेषः। सर्वजघन्येऽपि हि संयमस्थाने केवलिप्रज्ञाछेदकेन च्छिद्यमाना निर्विभागाभागाः सर्वोत्कृष्टदेशविरतिविशुद्धिस्थानगतनिविभागभागेभ्यः सर्वजीवानन्तरूपेण गुणकारेणानन्तगुणिता भवन्ति, तथाहि-असत्कल्पनया सर्वोत्कृष्टस्य देशविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विभागा भागा दश सहस्राणि १००००, सर्वजीवानन्तप्रमाणकश्च राशिः शतं, ततस्तेन शतसङ्ख्येन सर्वजीवानन्तकप्रमाणेन राशिना दशसहस्रसङ्ख्याः सर्वोत्कृष्टदेशविरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागा गुण्यन्ते जा HD॥३७॥ तानि दश लक्षाणि, एतावन्तः किल सर्वजघन्यस्यापि सर्वविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विभागा भागा भवन्तीति; परमार्थतस्तु सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणिता एते, तदुक्तं कल्पभाष्ये-"ते कित्तिआ पएसा, सबागासस्स मग्गणा होइ । ते For Private Personal use only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जत्तिया परसा, अविभाग तओ अनंतगुणा ॥ १ ॥” इति । सङ्ख्यातीतानि च संयमस्थानानि कण्डकं भवति ज्ञातव्यम् ॥ ३५ ॥ संखाईआणि उ कंडगाणि छट्टाणगं विणिदि । छट्ठाणा उ असंखा संजमसेढी मुणेया ॥ ३६ ॥ 'संखाई आणि उ'ति । सङ्ख्यातीतानि च कण्डकानि षट्स्थानकं विनिर्दिष्टं, षट्स्थानानि चासङ्ख्यातानि संयमश्रेणिज्ञ - तव्या ॥ ३६ ॥ एतदेव यथोत्तरवृद्ध्यादिक्रमप्रदर्शनपूर्वं विवेचयति ठाणेहिँ पढमठाणा, जहुत्तरमणंत भागवुड्डेहिं । कण्डगमंगुलखित्तासंखिजंसप्पमाणेहिं ॥ ३७ ॥ 'ठाणे हँ' इत्यादि । 'प्रथमस्थानात्' प्रथमस्थानमादीकृत्य 'यथोत्तरं ' द्वितीयतृतीयाद्युत्तरस्थानानुक्रमेण 'अनन्तभागवृद्धैः' पूर्वपूर्वस्थाना विभागभागानां योऽनन्ततमो भागस्तद्धिकैः स्थानैरङ्गलक्षेत्रस्य - अङ्गुलमात्रक्षेत्रस्य योऽसङ्ख्यांशःअसङ्ख्येयो भागस्तत्प्रमाणैः - तद्गत प्रदेशराशिसम सङ्ख्यैः सम्पन्नैः कण्डकं समयपरिभाषया परिभाष्यते, तदुक्तम् - " कंड ति इत्थ भन्नइ, अंगुलभागो असंखिज्जो ।” इति । अयं भावः - प्रथमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया द्वितीयमन न्ततमभागवृद्धम्, ततस्तृतीयम्, एवमुत्तरोत्तराणि यावदङ्गुलमात्रक्षेत्रासङ्ख्येयांशप्रदेशमानानि भवन्ति तावत्समुदितानां तेषां कण्डकसञ्ज्ञा भवतीति ॥ ३७ ॥ कंडगमित्ताणं तं साहिअठाणंतराइँ ठाणाई | कंडगमित्ताइं तओ, हुंति असंखंसबुड्डाई ॥ ३८ ॥ 'कंडग'ति । ' ततः' तस्मात् कण्डकात्परतो यदनन्तरं संयमस्थानं तत् प्राक्तनस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षयाऽसङ्ख्ये Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो ॥ ३८ ॥ यतमेन भागेनाधिकम्, ततः पराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि स्थानानि कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततः पुनरेकम सङ्ख्येयभागाधिकं संयमस्थानम्, ततः पराण्यनन्तभागवृद्धानि कण्डकमात्राणि संयमस्थानि, ततः पुनरेकम सङ्ख्येयभागाधिकम्, एवं क्रमेण कण्डकमात्राणि अनन्तांशाधिकानि - अनन्तभागवृद्धानि स्थानानि अन्तराणि - व्यवधायकानि येषां तानि तथा, कण्डकमात्राणि स्थानानि 'असङ्ख्यांशवृद्धानि 'असङ्ख्येयभागाधिकानि भवन्ति ॥ ३८ ॥ चरमाउ तओ पढमं, अंतरिअमणंतभागवुड्डेहिं । संखंसाहिअ ठाणं, कंडगमित्तेहिँ ठाणेहिं ॥ ३९ ॥ 'चरमाउ'त्ति । चरमात् ‘ततः' असङ्ख्येय भागाधिकात्संयमस्थानात्सराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि स्थानानि कण्डकमात्राणि भवन्ति, तैरन्तरितं प्रथमं 'सङ्ख्यांशाधिकं' सङ्ख्येयभागवृद्धं स्थानं भवति ॥ ३९ ॥ विइआइआणि ताणि वि, पुतिरिआणि कंडगमिआणि । एवं संखासंखाणंतगुणेहि पि बुड्ढाई ॥ १४०॥ 'बिइआइआणि 'त्ति । ततः प्रथमसङ्ख्येय भागाधिकसंयमस्थानादनन्तरं मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिकान्तानि तावन्त्युपतिष्ठन्ते ततो द्वितीयं सङ्ख्येयभागाधिकं संयमस्थानम्, अनेन क्रमेण द्वितीयादीन्यपि 'तानि' सङ्ख्ये - यभागाधिकानि संयमस्थानानि 'पूर्वारिन्ततानि' मूलादारभ्य यावन्ति प्राग् व्यतिक्रान्तानि स्थानानि तैरन्तरितानि - व्यव हितानि कण्डकमात्राणि भवन्ति । एवं सङ्ख्यासङ्ख्यानन्तगुणैर्वृद्धान्यपि स्थानानि वक्तव्यानि, तथाहि — सङ्ख्ये य भागाधिककण्डकसमाप्तौ उक्तक्रमेण भूयोऽपि सङ्ख्येयभागाधिक संयमस्थानप्रसङ्गे सङ्ख्येयगुणाधिकमेकं संयमस्थानं वक्तव्यं, ततः . गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः ॥ ३८ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S पनरपि मलादारभ्य यावन्ति व्यतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरण्येकं सहायगुणाधिक संयमस्थानम् , एवमेतान्यपि कण्डकमात्राणि भवन्ति, तत उक्तक्रमेण पुनरपि समयेयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गेऽसञ्जयेयगुणाधिकं तद्वक्तव्यम्, ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तेनैव क्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि. ततः पुनरप्येकमसङ्ख्येयगुणाधिक संयमस्थानम्, एवमेतान्यपि कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसयेयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गेऽनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यं, ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तथैव क्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिक संयमस्थानं वक्तव्यं, ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि, ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं संयमस्थानम् , एवमेताम्यपि कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततो भूयोऽपि तेषामुपरि पञ्चवृद्ध्यात्मकानि संयमस्थानानि मूलादारभ्य तथैव वक्तव्यानि, यत्पुनरनन्तगुणवृद्धिस्थानं तन्न प्राप्यते, षट्स्थानकस्य परिसमाप्तत्वात् ॥ १४० ॥ ट्ठाणसमत्तीए, कमेण अण्णाइँ ताइँ उट्ठति । हुंति समा छट्ठाणा, एवमसंखेहिँ लोगेहिं ॥४१॥18 है। 'छट्ठाण'त्ति।षट्स्थानकस्यैकस्य परिसमाप्तौ क्रमेण 'अन्यान्यपि' द्वितीयादीनि षट्स्थानकान्युक्तकमेणैवोत्तिष्ठन्ति । किय-4 न्त्येवं समग्राणि तानि भवन्ति? इत्याह-एवं 'असङ्ख्यैर्लोकःसमानि' असङ्ख्यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्रस्थानकानि भवन्ति, उक्तञ्च-"छट्ठाणगअवसाणे, अन्नं छट्ठाणयं पुणो अन्नं । एवमसंखा लोगा, छटाणाणं मुणेअबा ॥ १॥” इति ॥४१॥ ACAUSA Jan En For Private Personal use only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 06 गुरुतत्त्व स्त्रोपज्ञव- सबजिएहिँ अणंत, भागं च गुणं असंखलोगेहिं । जाण असंखं संखं, संखिजेणं च जिट्टेणं ॥४२॥ त्तियुतः विनिश्चयः हा 'सबजिएहिँ 'ति । अत्र षड्वृद्धिरूपे पदस्थाने भागं च गुणं च अनन्तं सर्वजीवैर्जानीहि, असङ्ख्यं च 'असङ्ख्यलोकैत प्रथमो ल्लास: असङ्ख्यलोकाकाशप्रदेशैः, 'सङ्ख्यं' सङ्ख्येयं च 'ज्येष्ठेन' उत्कृष्टेन सङ्ख्येयेन, तथाहि-यद्यत्संयमस्थानमनन्तभागवृद्धमुपल॥३९॥ भ्यते तत्तत्पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य निर्विभागानां भागानां सर्वजीवसङ्ख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते तावत्प्रमाणेनानन्तभागेनाधिकमवगन्तव्यम्, यच्चासङ्ख्येयभागवृद्धं तत्पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य सम्बन्धिनां निविभागभागानामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यल्लभ्यते तावत्प्रमाणेनासङ्ख्येयभागेनाधिकम् , यच्च सङ्ख्येयभागवृद्धं तत्पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्योत्कृष्टन सङ्ख्येयेन भागे हृते सति यल्लभ्यते तावत्प्रमाणेन सङ्ख्येयतमेन भागेनाधिकम् , यच्च सङ्ख्येयगुणवृद्धं तत्साश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागा उत्कृष्टेन सङ्ख्येयकप्रमाणेन राशिना गुणिता यावन्तस्तावत्प्रमाणम् । एवमसङ्ख्येयगुणवृद्धौ पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागास्तेऽसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेनासङ्ख्येयेन गुण्यन्ते, अनन्तगुणवृद्धौ च सर्वजीवप्रमाणेनानन्तेनेति ॥ ४२॥ एयं चरित्तसेटिं, पडिवज्जइ हिट्ठ कोइ उवरिं वा। जो हिट्ठा पडिवजइ, सिज्झइ णियमा जहा भरहो ॥४३॥ 'एय'ति । एतां चारित्रश्रेणिं कश्चिज्जीवोऽधस्ताजघन्यसंयमस्थानेषु प्रतिपद्यते, कश्चित्पुनः 'उपरि' उपरितनेषु पर्यन्त CARRCLIC ककककक Jain Education international For Private & Personal use only inww.jainelibrary.org Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHARELUGAIRECORDER वर्तिषु, उपलक्षणत्वान्मध्यमेषु वा संयमस्थानेषु प्रतिपद्यते, तत्र योऽधस्तनेषु संयमस्थानेषु चारित्रश्रेणिं प्रतिपद्यते स| नियमात्तेनैव भवग्रहणेन सिध्यति यथा भरतश्चक्रवर्ती ॥ ४३ ॥ मझे वा उवरिं वा, णियमा गमणं तु हिट्ठिमं ठाणं । अंतोमुहुत्तवुड्डी, हाणी वि तहेव नायवा ॥४४॥ _ 'मज्झे वत्ति । यः पुनः 'मध्ये वा' मध्यमेषु वोपरितनेषु वा संयमस्थानेषु चारित्रश्रेणिं प्रतिपद्यते तस्य नियमादधस्तनं | संयमस्थानं यावद्गमनं भवति, ततोऽसौ तेनान्येन वा भवग्रहणेन सर्वाणि संयमस्थानानि स्पृष्ट्वा सिध्यति । न च स्तोक-18 काले सर्वस्थानानांप स्थानपतितानां बहुत्वेन स्पर्शानुपपत्तिरिति शङ्कनीयम्, प्रतिसमयमसङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानां | षट्स्थानपतितानां संयमाध्यवसायस्थानानां स्पर्शाभ्युपगमेनानुपपत्त्यभावात् । या पुनरधस्तनसंयमस्थानेभ्य उपरितनसंयमस्थानारोहणलक्षणा वृद्धिः साऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रा भवति, या चोपरितनसंयमस्थानेभ्योऽधस्तनसंयमस्थानेष्ववरोहणरूपा हानिः सापि तथैव' अन्तर्मुहूर्त्तमात्रैव ज्ञातव्या, द्वे अप्येते कल्पभाष्यगाथे ॥ ४४॥ थोवाऽसंखगुणाई, पडिलोमकमेण हुंति ठाणाई । एसा संखेवेणं. संजमसेढीपरूवणया ॥ ४५ ॥ 'थोव'त्ति । स्तोकान्यसङ्ख्यातगुणानि च 'प्रतिलोमक्रमेण पश्चानुपूर्व्या स्थानानि' संयमस्थानानि भवन्ति । तथाहिसर्वस्तोकान्यनन्तगुणवृद्धानि स्थानानि कण्डकमात्रत्वात्तेषाम् , तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणवृद्धानि स्थानान्यसङ्ख्येयगुणानि, गुणकारश्चेह कण्डकप्रमाणो ज्ञातव्यः, एकैकस्यानन्तगुणवृद्धस्य स्थानस्याधस्तात्प्रत्येकमसङ्ख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि कण्डकमा , "पदस्थानपतितानाम्" इति पाठ एक एव पुस्तके लभ्यते । LOCALCREAMSARDAMOCRACHCARE Jan Education international For Private Personal use only elorary.org Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः गुरुतत्त्वविनिश्चय लास: स्वोपज्ञवृ त्राणि प्राप्यन्त इति कृत्वा; अनन्तगुणवृद्धस्थानकण्डकस्य चोपरि कण्डकमात्राण्यसङ्ख्येयगुणवृद्धानि प्राप्यन्ते न त्वनन्त- गुणवृद्धं स्थानम् , तेनोपरिष्टादेकस्य कण्डकस्याधिकस्य प्रक्षेपः। तेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणवृद्धेभ्यः स्थानेभ्यः सङ्ख्येयगुणवृद्धानि प्रथमोन | स्थानान्यसङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽपि सङ्ख्येयभागाधिकानि स्थानान्यसङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽप्यसङ्ख्येयभागाधिकानि स्थाना॥४०॥ न्यसङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽप्यनन्तभागवृद्धानि स्थानान्यसङ्ख्येयगुणानि । गुणकारश्च सर्वत्रापि कण्डकानामुपरि चैककण्ड कप्रक्षेपः । एषा सङ्केपेण संयमश्रेणीप्ररूपणा कृता ॥४५॥ अथ प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र यदप्युक्तं देशविरतिकण्डक स्पर्श विना चारित्रास्पर्शनात्प्रतिमापालनादिक्रमनियतमेव चारित्रमिति दुरनुचरमेतदिति तत्राह|पत्ता अणंतजीवा, देसविरइकंडए वि मुत्तूणं। चरणं कयकरणस्स य, तुलणा तप्फासणागब्भा ॥४६॥ 'पत्त'त्ति । देशविरतिकण्डकानि मुक्त्वाऽपि अनन्तजीवाः 'चरणं' चारित्रं प्राप्तास्तथाविधकर्मक्षयोपशमतो देशविहरति विनापि, चारित्रप्राप्तरुत्तरोत्तरक्षयोपशमस्य बलवत्त्वात्, तदुक्तं पश्चाशक एव-"ता कम्मखओवसमा, जो एयप गारमंतरेणावि । जायइ जहोइअगुणो, तस्स वि एसा तहा णेया॥१॥" आवश्यकेऽप्युक्तम्-"भागेहिं असंखिजेहि फासिआ देसविरईओ।"त्ति । 'च' पुनः 'तत्स्पर्शनागी देशविरतिपालनानियता तुलना 'कृतकरणस्य' अभ्यस्ततपसो Kज्ञानिनः परमभावप्राप्त्युद्यतस्येति, पुरुषविशेषापेक्षोऽयं क्रमनियमः ॥ ४६ ॥ एतदेवोपपादयतिहैं जं एएण कमेणं, गुणसेढीए पवड्डमाणीए । सीहत्ता णिक्खंता, सीहत्ता चेव विहरंति ॥ १७ ॥ देशविरत्यादिक्रमेणैव सर्वचारित्रप्राप्तिरित्यस्य | निरसनम् ॥४०॥ For Private & Personal use only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जं एएण'त्ति । 'यत्' यस्मात् 'एतेन' प्रतिमाप्रतिपत्त्यादिलक्षणेन क्रमेण शुभानुबन्धाविच्छेदाद्गुणश्रेण्या प्रवर्द्धमानया सिंहतया निष्क्रान्ता सिंहतयैव विहरन्ति । तथा च मन्दक्षयोपशमस्यातिशयितभावचरणार्थमेतत्क्रमनियमः। इदानीं च प्रायो मन्द एव क्षयोपशम इति विशिष्यायमित्याचार्याभिप्रायः॥४७॥ नत्वेवमन्यथा दीक्षानिषेध इत्यत आहबीयाहाणत्थं पुण, गुरुपरतंताण दिति जुग्गाणं । अन्भासकरं चरणं, जं अट्ठ भवा चरित्तम्मि॥४८॥ | 'बीयाहाणत्य'ति । 'बीजाधानार्थ' मोक्षबीजविशेषसिद्ध्यर्थं पुनर्गुरुपरतन्त्राणां पृच्छादिना कलितयोग्यतानां 'अभ्यासकरम्' अर्गम्यमानत्वादभ्यासकरमपि 'चरणं' चारित्रं ददत्याचार्याः। 'यत्' यस्माच्चारित्रे 'अष्टैव भवाः' चारित्रप्रतिपत्तिसहिताः संसारेऽष्टावेव भवा भवन्ति, तदुक्तमावश्यके-"अट्ट भवा उ चरित्ते"त्ति । अत एवाष्टमचारित्रे सिद्धेरावश्यकत्वात्प्रव्रज्याया विशिष्टवीजत्वाद्भगवता श्रीमहावीरेण हालिकाय सा दापिता, अन्यथा तहान निरर्थकं स्यात् , सम्यक्त्वमात्रेणैव बीजमात्रस्य सिद्धत्वात् । कथं तर्हि गोशालकस्य चारित्रप्रतिपत्तिभवा विराधनायुक्ता दश तदयुक्ताश्चाष्टावित्यष्टादश ? इति चेत्, विराधनायुक्तेषु भवेषु तस्य द्रव्यचारित्रस्यैव सम्भवादिति वदन्ति । अन्ये त्वाहुः-"अट्ठ भवा उ चरित्ते" इत्यत्राविराधनाभवा एव ग्राह्याः, अविराधना च दीक्षाप्रतिपत्तिमारभ्यानतिचारतयाऽऽमरणपालनम्, न च वृत्तिकृताऽऽदानभवानामेव व्याख्यानात्तदवष्टम्भेनैव सूत्रं व्याख्येयम् । आवश्यकचूर्णिकारेणाप्याराधनापक्षस्य समर्थितत्वादित्याहुः । वस्तुतः सामान्यबीजाधानार्थमपि दीक्षोपयुज्यत एव, एतस्या द्रव्यसम्यक्त्वादिक्रमेणासहपरित्यागधार्मिकजनानुरागविहितानुष्ठानाहितक्षयोपशमज्ञानावरणविगमबोधिवृद्ध्यादिगुणप्राप्तिपूर्व परमदीक्षाप्राप्तिहेतुत्वस्य 255055 Jain E n For Private Personal use only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GANGACAR स्वोपज्ञवृ- तत्र तत्र समर्थितत्वादिति द्रष्टव्यम् ॥ ४८ ॥ अप्रतिपन्नदेशविरतेरभ्यासरूपदीक्षाग्रहणस्यैवोपपादकान्तरमाह गुरुतत्त्व त्तियुतः अट्टाहिअवासाणं, बालाण वि इत्थ तेण अहिगारो।भणिओ एवं तित्थे, अत्रुच्छित्ती कया होइ ॥४९॥ विनिश्चयः प्रथमो. कालासः 'अठ्ठाहित्ति । 'तेन' वीजाधानेन हेतुनाष्टाधिकवर्षाणां बालानामपि 'अत्र' दीक्षायामधिकारः 'भणितः' सूत्रे, समर्थितश्च पञ्चवस्तुकादौ, उक्तक्रमनियमे तु नैतदुपपद्येत । एवं' वालानामपि दीक्षाधिकारे तीर्थेऽव्यवच्छित्तिः कृता । भवति ॥ ४९ ॥ यतः आबालभावओ जे, गुरुपामूलाउ लद्धसिक्खदुगा। णिच्छयववहारविऊ, ते वट्टावंति तित्थठिइं॥१५॥ RI 'आवालभावओ'त्ति । ये 'आबालभावतः' बाल्यमारभ्य गुरुपादमूलात् 'लब्धशिक्षाद्विकाः' प्राप्तग्रहणाऽऽसेवनारूप-18 शिक्षाद्वयास्ते 'निश्चयव्यवहारविदः' गृहीतनयद्वयपरमार्थाः सन्तस्तीर्थस्थितिं वर्तयन्ति नान्ये, ज्ञानाभ्यासाधीनत्वात्तप्रवर्तनस्य ॥ १५० ॥ तथा च यतनातिशयार्थमुक्ततुलनानियमादरेऽपि संयममात्रग्रहणं बीजाधानार्थमपीति सिद्धम् , |अत्र च क्षयोपशमभेदेन गुणभेदेऽपि समनद्धाक्रियत्वं तीर्थप्रभावकतायामविशिष्टमङ्गमित्याहजस्स जयावरणिजं, वुच्छिन्नं होइ तस्स सो उ गुणो। समसद्धाकिरिया पुण, तित्थस्स पभावगा हुंति ५१/ 'जस्सत्ति । यस्य यदावरणं विच्छिन्नं भवति तस्य स एव गुणो भवति न तु सर्वगुणसम्पूर्णता, तस्याः सर्वचारित्रा-18|॥४१॥ वरणक्षयाधीनत्वात् ; अत एव यस्य वीर्यान्तरायचारित्रमोहभेदानां धर्मान्तरायाणां क्षयोपशमस्तस्यैवागारत्यागलक्षणा-ट। AURURAM R ESENGERS Inin Education International For Private Personal use only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ voorooroor प्रव्रज्या नान्यस्य, यस्य च वेदलक्षणानां चारित्रावरणीयानां क्षयोपशमस्तस्य मैथुनविरतिलक्षणं केवलब्रह्मचर्यवासित्वं नान्यस्य, यस्य च चारित्रविशेषविषयवीर्यान्तरायलक्षणानां यतनावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमस्तस्य प्रतिपन्नचारित्रातिचारपरिहारार्थयतनाविशेषलक्षणः संयमो नान्यस्य, यस्य च भावचारित्ररूपाध्यवसानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमस्तस्यैव शुभाध्यवसायवृत्तिलक्षणः संवरो नान्यस्येति भगवत्यामश्रुत्वाकेवल्यधिकारे व्यवस्थितम् । 'समश्रद्धाक्रियाः' एकप्ररूपणाव्यवहाराः पुनः साधवो लोकानां बोधिबीजमादधानास्तीर्थस्य प्रभावका भवन्ति मूलगुणसाम्यात् , यत्किश्चिद्गुणवैषम्यस्याप्रयोजकत्वाद् घटजनकदण्डेषु नीलपीतादिवैषम्यवत् ॥५१॥ अथ यदुक्तं व्यवहतुदीलेभ्येन व्यव-16 हारदोलभ्यं सूत्रोक्तस्य गणनिक्षेपार्हस्य गुरोरनुपलभ्यमानत्वादिति तदपवदन्नाह कालोइअगुणजुत्ते, सुअभणिएकाइगुणविहीणम्मि। गणणिखेयो जुत्तो, जं सक्खेवं इमं भणियं ॥५२॥ व्यवहारदौ81 'कालोइअत्ति । कालोचिताः-इदंयुगानुरूपा ये गुणाः-प्रतिरूपादयस्तैर्युक्तं श्रुतभणितानां गुणानां मध्यादेकादिगुण-16/लेभ्यनिरा. विहीनेऽपि गणनिक्षेपो युक्तः, यत् 'साक्षेप' सपूर्वपक्षमेतद् भणितं व्यवहारभाष्ये ॥ ५२ ॥ इत आरभ्य पोडश व्यव-16 हारगाथा:पुत्वं वपणेऊणं, दीहपरिआयसंघयणसद्धं । दसपुवीए धीरे, मजाररुअं परूवणया ॥ ५३॥ 'पुर्वति । ननु पूर्वमाचार्यपदयोग्यस्य दीर्घः पर्यायो वर्णितः, संहननं चातिविशिष्टं, श्रद्धा च प्रवचनविषयात्युत्तमा, SAMACROSE करणम् For Private & Personal use only anyang Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ. आगमतश्चाचार्यपदयोग्या जघन्यतोऽपि दशपूर्विकाः, तथा 'धीराः' बुद्धिचतुष्टयेन विराजमानास्ते, तत एवं पूर्व वर्ण-18 गुरुतत्त्वत्तियुतःयित्वा यदेवमिदानी प्ररूपयथ यथा त्रिवर्षपर्याय आचारप्रकल्पधर उपाध्यायः स्थाप्यते, पञ्चवर्षपर्यायो दशाकल्पव्य- विनिश्चयः प्रथमो. 13वहारधर इत्यादि, सैषा प्ररूपणा मार्जाररतं, यथा मार्जारः पूर्व महता शब्देनारटति पश्चाच्छनैः शनैर्यथा स्वयमपि लासः श्रोतुं न शक्नोति, एवं त्वमपि पूर्वमुच्चैः शब्दितवान् पश्चाच्छनैरिति सूरिराह-सत्यमेतत्, केवलं पूर्वमतिशयितवस्तु-14 स्थितिमधिकृत्योक्तम् , सम्प्रति पुनः कालानुरूपं प्रज्ञाप्यत इत्यदोषः ॥ ५३॥ तथा चात्र दृष्टान्तानाहपुक्खरिणी आयारे, आणयणा तेणगा य गीयत्थे। आयरियम्मि उ एए, आहरणा हुंति णायवा ॥५४॥ सत्थपरिन्ना छक्कायअहिगमे पिंडं उत्तरज्झाए।रुक्खे अवसभ 'गोवो,जोह। सोही अ (क्खरिणी ॥५५॥ | 'पुक्खरिणित्ति 'सत्थपरिन्न'त्ति सुगमे, त्रयोदशैतान्याहरणानि ॥५४॥ ५५ ॥ तत्र पुष्करिण्याहरणं तावद्भावयति-18 पुक्खरिणीओ पुविं,जारिसयाओ ण तारिसा इण्हि। तह वि य पुस्खरिणीओ,हवंति कजाइं कीरंति॥५६॥ | 'पुक्खरिणीउ'त्ति । 'पूर्व' सुषमाकाले यादृश्यः पुष्करिण्यो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ वर्ण्यन्ते इदानीं न तादृश्यस्तथापि च | ताः पुष्करिण्यो भवन्ति कार्याणि च ताभिः क्रियन्ते ॥ ५६ ॥ आचारप्रकल्पानयनाहरणमाह- .. आयारपकप्पो या, नवमे पुवम्मि आसि सोही ।तत्तो चिय निजूढो इयाणि तो इह स किं न भवे॥५७॥ ॥४२॥ 'आयार'त्ति । आचारप्रकल्पः पूर्व नवमे पूर्व आसीत् , शोधिश्च ततोऽभवत् । इदानीं पुनरिहाचाराङ्गे । तत एव दृष्टान्तानि Jain Educat i onal brary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमात्पूर्वान्निर्युढस्ततः किमेष आचारप्रकल्पो न भवति ? किं वा ततः शोधिर्नोपजायते ?, एषोऽप्याचारकल्पः शोधिपश्चास्मादविशिष्टा भवतीति भावः ॥ ५७ ॥ स्तेनकदृष्टान्तभावनार्थमाहतालुग्घाडणिओसोवणाइविजाहि तेणगा आसि। इण्हि ताओं न संती,तहावि किं तेणगाण खलु॥५॥ 'तालुग्घाडणि'त्ति । पूर्व 'स्तेनकाः' चौरा विजयप्रभवादयस्तालोद्घाटिन्यवस्वापिन्यादिविद्याभिरुपेता आसीरन् , ताश्च विद्या इदानीं न सन्ति, तथापि किं खलु स्तेनका न भवन्ति ? भवन्त्येव, तैरपि परद्रव्यापहरणादिति भावः॥ ५८॥ अधुना गीतार्थदृष्टान्तं भावयतिपुति चउदसपुत्री, इण्हि जहण्णो पकप्पधारी।मज्झिमग कप्पधारी, कह सो उण होइ गीयत्थो॥५९॥ _ 'पुषिति । पूर्व गीतार्थश्चतुर्दशपूर्वी अभवत् , इदानीं स किं गीतार्थो जघन्यतः 'प्रकल्पधारी' निशीथाध्ययनधारी दामध्यमश्च कल्पधारी न भवात ? भवत्येवेति भावः ॥ ५९॥ अथ शस्त्रपरिज्ञादृष्टान्तमाह पुविं सत्थपरिन्नाअहीअपढिआइ होउवट्ठवणा । इपिंह छज्जीवणया, किं साउन होउवट्टवणा ॥ १६०॥ को 'पुचि'ति । पूर्व शस्त्रपरिज्ञायामाचाराङ्गान्तर्गतायामधीतायामर्थतो ज्ञातायां पठितायां च सूत्रत उपस्थापनाऽभूत् , 5 इदानीं पुनः 'सा' उपस्थापना किंषड़जीवनिकायां दशवैकालिकान्तर्गतायामधीतायां पठितायां च न भवति? भवत्येवेत्यर्थः H॥१६० ॥ पिण्डदृष्टान्तभावनार्थमाह गुरुत. ८ I Jain Education Interations Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल्लासः स्वोपज्ञवृ- बितियम्मि बंभचेरे, पंचम उद्देस आमगंधम्मि । सुत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणाए उ॥१॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः | 'वितियम्मित्ति । पूर्वमाचाराङ्गान्तर्गते लोकविजयनाम्नि द्वितीयेऽध्ययने यो ब्रह्मचर्याख्यः पञ्चम उद्देशकस्तस्मिन् विनिश्चयः प्रथमो यदामगन्धिसूत्रम्-"सवामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिचए"त्ति, तस्मिन् सूत्रतोऽर्थतश्चाधीते पिण्डकल्पी आसीत् ।। 'इह' इदानीं पुनर्दशवैकालिकान्तर्गतायां पिण्डैषणायामपि सूत्रतोऽर्थतश्चाधीतायां पिण्डकल्पिकः क्रियते, सोऽपि च भवति तादृश इति ॥ ६१ ॥ उत्तराध्ययनदृष्टान्तं भावयति आयारस्स उ उवरिं, उत्तरझयणा उ आसि पुविं तु। दसवेआलिअउवरिं, इयाणि ते किं न होंती उ ॥६॥ F 'आयारस्स उत्ति । पूर्वमुत्तराध्ययनान्याचाराङ्गस्योपासीरन् , इदानीं दशवैकालिकस्योपरि तथापि किं तानि तथा-18 * रूपाणि न भवन्ति ? भवन्त्येवेति भावः ॥ ६२ ॥ वृक्षदृष्टान्तभावनार्थमाहमत्तंगाईतरुवर न संति इहि न होति किं रुक्खा। महजूहाहिव दप्पिअ,पुविं वसभा ण पुण इहि ॥३॥ 'मत्तंगाइ'त्ति । पूर्व सुषमसुषमादिकाले मत्तगादयो दशविधाः कल्पद्रुमा आसीरन् , इदानीं ते न सन्ति किन्त्वन्ये 5 सहकारादयस्ततः किं ते वृक्षा न भवन्ति ? भवन्त्येव, च्छायापुष्पफलादिसाधादिति भावः । वृषभदृष्टान्तमाह-मह-18 ॥४३॥ जहाहिव' इत्यादि । पूर्व वृषभा महायूथाधिपा दर्पिकाः श्वेताः सुजाताः सुविभक्तशृङ्गा आसीरन् न पुनरिदानी ते । तथाभूताः सन्ति किन्तु स्वल्पयूथाः प्रायोऽल्पशक्तिका बहुवर्णा मन्दरूपतरा अतादृशसंस्थानाश्च तथापि ते वृषभा KAHEKARISHCRASHISHARA in ona For Private Personal Use Only Winery ang Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भवन्ति, वृषभकार्यकरणादिति भावः ॥ ६३ ॥ अधुना गोपदृष्टान्तभावनार्थमाहपुति कोडीबद्धा, जूहा वि अ नंदगोवमाईणं । इहि न संति ताई, किं जूहा ते न होंती उ ॥६॥ | 'पुचिति । पूर्व नन्दगोपादीनां गवां यूथाः 'कोटीबद्धाः' कोटीसङ्ख्याका आसीरन्, इदानीं ते तथाभूता न सन्ति है। ६ किन्तु पञ्चदशादिगोसङ्ख्याकास्ततः किं ते यूथा न भवन्ति ? भवन्त्येव, यूथव्यवहारस्य सार्वजनीनत्वादिति भावः ॥६॥ है अधुना योधदृष्टान्तमाह-- साहस्सीमल्ला खलु, महपाणा आसि पुत्रजोहा उ। तत्तुल्ल नत्थि इण्हि, किं ते जोहा ण होती उ ॥६५॥ ] 'साहस्सि'त्ति । पूर्व योधा महाप्राणाः सहस्रमला आसीरन् , इदानीं ते तत्तुल्या न सन्ति किन्त्वनन्तभागहीनास्ततः । किं ते योधा न भवन्ति ? भवन्त्येव, कालौचित्येन तेषामपि योधकार्यकरणादिति भावः ॥ ६५ ॥ शोधिदृष्टान्तमाहपुविं छम्मासेहिं, परिहारेणं च आसि सोही उ । सुद्धतवेणं निविइआदीएहि विसोही य ॥ ६६ ॥ 1 'पुत्रि'ति । पूर्वं षड्भिर्मासैः 'परिहारेण च परिहारतपसा च शोधिरासीत्, इदानीं च परिहारमन्तरेण शुद्धतपसा है निर्विकृतिकादिभिरपि विशोधिः, पञ्चकल्याणकादिमात्रप्रायश्चित्तदानव्यवहारात् ॥६६॥ शोधिविषय एव पुष्करिणीदृष्टान्तमाहकिह पुण एवं सोही, जह पुविल्लासु पच्छिमासुंवा। पुक्खरिणीसुंवत्थाइआणि सुज्झति तह सोही ॥६७॥ nebo Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो॥४४॥ | 'किह पुण'त्ति । 'किं' केन प्रकारेण पुनरत्राधुना एवं' निर्विकृतिकादिभिरपि विशोधिर्भवति ?, सूरिराह-यथा 'पूर्वासुगुरुतत्त्वपूर्वकालभाविनीषु 'पुष्करिणीषु' अतिप्रभूतजलपरिपूर्णासु वस्त्राणि शुध्यन्ति स्म एवं 'पश्चिमास्वपि' अधुनातनकाल- विनिश्चयः भाविनीषु शुध्यन्ति तथा शोधिरपि पूर्वमिवेदानीमपि भवतीति ॥६७॥ एवं दृष्टान्तानभिधाय दार्टान्तिकयोजनामाह- लासः एवं आयरिआदी, चउदसपुवादि आसि पुवं तु। इण्हि जुगाणुरूवा, आयरिआ हुंति णायवा ॥६॥2 दान्तिक___ 'ए'ति । 'एवम्' अनन्तरोदितदृष्टान्तकदम्बकप्रकारेण यद्यपि पूर्वमाचार्यादयश्चतुर्दशपूर्वधरादय आसीरन् तथा- योजना. पीदानीमाचार्यादय उपलक्षणमेतत्-उपाध्यायादयश्च 'युगानुरूपाः' दशाकल्पव्यवहारधरादयस्तपोनियमस्वाध्यायादिषू-15 धुक्ता द्रव्यक्षेत्रकालभावोचितयतनापरायणा भवन्ति ज्ञातव्याः ॥ ६८ ॥ एनमेवार्थ स्वयमुपसंहरन्नाह ग्रन्थकारःजिणवयणतिवरुइणो, इय इणिंह मूलगुणजुअस्सा वि।भावगुरुत्तं जुत्तं, वइरेगेणं जओ भणियं ॥६९॥ उपसंहारः __'जिणवयण'त्ति । जिनवचने-मूलोत्तरगुणविधिरूपे भगवद्पदेशे तीव्रा रुचिः-श्रद्धालक्षणा चिकीर्णलक्षणा च यस्य स तथा तस्य, 'इय'त्ति एवं मूलगुणयुतस्यापि किं पुनरुत्तरगुणसमग्रस्येत्यपेरर्थः, 'भावगुरुत्वं' भाचार्योपाध्यायत्वादि युक्तम् । यतो भणितं 'व्यतिरेकेण' अन्वयाक्षेपकव्यतिरेकप्रतिबन्धेन पश्चाशके ॥ ६॥ गुरुगुणरहिओ अइहं, दवो मूलगुणविउत्तो जो।ण उ गुणमित्तविहूणो, त्ति चंडरुदो उदाहरणं ॥१७०॥18॥४४॥ _ 'गुरुगुण'त्ति । गुरुगुणरहितश्च इह स द्रष्टव्यो यो मूलगुणविहीनो न तु गुणमात्रविहीनो गुरुन भवतीति । अत्र Jan Edutan remations wow.jainelibrary.org Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चण्डसदाचार्य उदाहरणं, यथा तस्य क्षमादिरूपोत्तरगुणवैकल्येऽपि मूलगुणसामय्याच्चारित्रमप्रतिहतमेवमन्येषामपीति । विवेचितमिदमन्यत्र॥ १७०॥ अथ ये सम्यक्त्वादपि परिभ्रष्टा मूलगुणविरहिणां वेषमात्रधारिणां स्वात्मनां ज्ञानलवदुर्विदग्धतया चारित्रं व्यवस्थापयन्ति तत्प्रतिहननार्थमाह जे उ सयं पासत्था, पासत्थविहारिणो अहाछंदा । तेसु ण जुजति इमे, पुक्खरिणीपमुहदिवंता ॥७॥ वेषमात्रधा. 1. जे उत्ति । ये तु स्वयं 'पार्श्वस्थाः' मूलगुणानामपि पार्थे स्थितास्तथा 'पार्श्वस्थविहारिणः' सदैव पार्थस्थविहारम-18 रित्वे स्वेषु परित्यजन्तः 'यथाच्छन्दा' यत्तदसम्बद्धोत्सूत्रप्रलापिनो गृहिकार्यरता गारवसक्ताश्चोपलक्षणात् कुशीलादिलक्षणयुक्ताश्च चारित्रव्य वस्थापकानां तेषु 'इमे' पूर्वोक्ताः पुष्करिणीप्रमुखदृष्टान्ता न युज्यन्ते ॥ ७१ ॥ यतः प्रतिहननम् ण हु सबह वेहम्मे, दिलुतो जुत्तिसंगओ होइ । जह अन्नवस्स धूलीभूमीइ अणोरपारस्स ॥ ७२ ॥ नहुत्ति । न हि सर्वथा' सर्वप्रकारेण वैधये दृष्टान्तो युक्तिसङ्गतो भवति, यथा धूलीभूम्यां 'अनर्वापारस्य'अर्णवस्य दृष्टान्तः । भवति हि स्वल्पेनापि जलादिसाधयेण तटाके समुद्रदृष्टान्तोपन्यासस्य युक्तत्वं न तु धूलीभूम्याम्, तत्र साधर्म्यलेशस्याप्यभावात्। एवमैदंयुगीनेषु गुरुषु पूर्वगुरूणां पुष्करिण्याद्युपनयद्वारौपम्यवर्णनं युक्तं स्यात् ,मूलगुणाद्याचारमात्रसाम्यात् । न तु पार्श्वस्थादिषु, तत्र सर्वथा तदभावात् ; वेषमात्रेण साधर्म्य चाभ्युपगम्यमाने द्रव्यत्वादिना धूलीभूमिसमुद्रयोरपिसाम्यं स्यादिति भावः॥७२॥ इत्थमपर्यालोचयतां येषां स्वस्मिन् गुरुत्वधीविपर्यासस्तेषामपायमुपदर्शयति PRES-45 For Private Personal Use Only Www.jainelibrary.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल्लासः खोपज्ञ केसिंचि णाममित्ता, इड्डीरससायगारवरयाणं । होइ गुरुभावदप्पो, सो मूलमणत्थरासीणं ॥ ७३ ॥ त्तियुतः विनिश्चयः प्रथमो IRI 'केसिंचित्ति । 'केषाञ्चित्' अनुपादेयाभिधानानां ऋद्धिरससातगारवरतानां 'नाममात्रात्' यादृच्छिकगुरुसज्ञामा- 16त्राल्लोकेनोच्चार्यमाणाद्भवति 'गुरुभावदर्पः' अहं सर्वेषां गुरुरित्यभिमानः सोऽयमनर्थराशीनां मूलम् , विपर्यासबुद्धेरसंयमे ॥४५॥ दृढप्रवृत्तिभावात् । ततः प्रायश्चित्तसन्ततिप्रवृद्धस्ततोऽनन्तसंसारप्रसङ्गादिति ॥ ७३ ॥ एतदेव ग्रन्थसम्मत्या द्रढयतिहै भणियं पच्छित्तं, जावइअंपिंडियं हवइगत्थ । तत्तो चउग्गुणं चिय, गणाहिवइणो पमत्तस्स ॥७॥18 अत्रार्थे म. | 'ज'ति । 'यत्' यस्माद् यावत् प्रायश्चित्तं 'एकत्र' एकस्थले सर्वं 'संपिण्डितम्' एकीकृतं भवति ततश्चतुर्गुणं 'प्रमत्तस्य हानिशीथ प्रामाण्यमू. प्रमादपरवशस्य गणाधिपतेर्भणितं महानिशीथे, गुरोः प्रमत्तत्वे सर्वेषामपि प्रमादभावात् , क्रियायां चोत्साहभङ्गात् , ततः क्लेशमात्रप्रवृत्तेः पुण्यफलवञ्चनात् । तथा च सूत्रम्-"इणमो सबमवि पच्छित्तं गोयमा ! जावइ एगत्थ संपिडिअं हविज्जा तावइअंचेव एगस्सणं गच्छाहिवइणो मयहरपवित्तिणीए अचउगुणं उवइसेजा, जओ णं सबमवि एएसिं| पयंसि हवेजा। अहा णं इमे चेव पमायवर्स गच्छेजा सओ अन्नेसिं संते धीबलवीरिए सुट्टतरागमभुजमे हवेजा। अहा णं किंचि सुमहंतमवि तओऽणुट्ठाणमब्भुजमेजा ता णं ण तारिसाए धम्मसद्धाए किंतु मंदुच्छाहे समणुढेजा। भग्गपरिणामस्स य णिरत्थगमेव कायकिलेसे, जम्हा एयं तम्हा उ अचिंताणंतणिरनुबंधे पुन्नपन्भारेणं संजुज्जमाणे वि ॥४५॥ साहणो ण संजुजंति, एवं सबमवि गच्छाहिवयादीणं दोसेणेव पवत्तेजा, एएणं पवुच्चइ गोयमा! जहा णं गच्छाहिवइया COCOCCAREEROCRY Jan Education Interations For Private Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAHORROSOS BOSCOS ईणं इणमो सबमवि पच्छित्तं जावइ एगत्थ संपंडिअं हविज्जा तावइअंचेव चउगुणं उवइसेज्जा"॥७४॥न केवलं स्वयंप्रमत्तस्य गणाधिपतेः प्रायश्चित्तसम्भवः किन्त्वप्रमत्तस्यापि गच्छासारणादिना दुष्टशिष्यात्यागेन च प्रायश्चित्तविशेपापत्तिरित्याहअपमत्तस्स य गच्छं, असारयंतस्स चरिमपच्छित्तं । अकयणियदुट्ठसीस-चायस्स य संघबज्झत्तं ॥७५॥13 __'अपमत्तस्स य'त्ति । 'अप्रमत्तस्य' स्वयं प्रमादरहितस्य च गणाधिपतेर्गच्छमसारयत उपलक्षणादवारयतोऽचोदयतो प्रतिचोदयतश्चेति द्रष्टव्यं 'चरमप्रायश्चित्तं' पाराश्चितप्रायश्चित्तं भवति, अकृतः-अविहितो निजाना-स्वीयानां दुष्टशिष्याणां त्यागो येन स तथा तस्य च सङ्घबाह्यत्वं कर्त्तव्यम् । प्रथमतस्तावदपरीक्षितगुणदोषाणां शिष्याणां दीक्षणेनैव | प्रायश्चित्तापत्तेः, ततस्तद्दोषज्ञानानन्तरमपि तदपरित्यागे स्वच्छन्दतया तदाधिक्यसम्भवात् , अत्रेमे महानिशीथसूत्रे"से भयवं! जेणं गणी अप्पमाई भवित्ताणं सुआणुसारेणं जहुत्तविहाणेहिं चेव सययं अहन्निसं गच्छं ण सारवेजा तस्स | किं पायच्छित्तमुवइसेज्जा? गोयमा! अप्पउत्ती पारंचियं उवइसेजा । से भयवं! जस्स उण गणिणो सबपमायालंबणविप्पमुक्कस्सावि णं सुआणुसारेणं जहुत्तविहाणेहिं चेव सययं अहन्निसं गच्छं सारवेमाणस्स उ केई तहाविहे दुट्ठसीले न सम्मग्गं समायरेजा तस्स किं पच्छित्तं उवइसेज्जा ? गोयमा! उवइसेज्जा । से भयवं! केणं अटेणं? गोयमा! जओ णं तेणं अपरिक्खियगुणदोसे णिक्खमाविए हविज्जा एतेणं अटेणं । से भयवं! किं तं पायच्छित्तमुवइसेज्जा? गोअमा! जेणं *एवंगुणकलिए गणी से णं जया एवं विहे पावसीले गच्छे तिविहं तिविहेणं वोसिरित्ता णं आयहि णो समणुढेजा तया *NOSI S ORCHES Jain Education international For Private Personal Use Only poww.jainelibrary.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्वोपलवाणं संघबज्झे उवइसेज्जा । से भयवं! जया णं गणिणा गच्छे तिविहं तिविहेणं वोसिरिए हविज्जा तया णं गच्छे आदरिजा, गरुतत्त्वत्तियुतः जइ संविग्गो भवित्ता णं जहुत्तं पच्छित्तमणुचरित्ताणं अन्नरस गच्छाहिवइणो उपसंपजित्ता णं सम्मग्गमणुसरेजातओ णं विनिश्चय: प्रथमो- आयरेजा, अहा णं सच्छंदत्ताए तहेव चिडे तओणं चउविहस्सावि समणसंघस्स बझं तं गच्छं णो आयरेजा"॥७५॥ शिष्येणापि तादृशः कुगुरुः परित्याज्यः, गुरुशिष्यभावनिरासाक्षरग्रहणपूर्व तदीयश्रीकारस्फेटनेन च सुविहितगच्छान्तर-10 मुपसंपद्य घोरतपोऽनुष्ठानं कर्त्तव्यं, यस्तु तस्यैवमभ्युद्यतस्य नाक्षराणि प्रयच्छति स महापापप्रसङ्गकारी सहबाह्यः कर्तव्य इति प्रबन्धमभिधित्सुराहकुगुरूणं सिरिकारं, फेडित्तु गणंतरम्मि पविसित्ता । कायबोवाएणं, सीसेणं घोरतवचरिआ ॥७६ ॥ शिष्यान जो पुण अत्तट्ठीणं, ण पयच्छइ अक्खरे णिएसट्टे । सो सवसंघबज्झो, कायवो होइ णीईए॥७७॥ प्रति कुगुरु त्यागोपदेशः । 'कुगुरूण'ति । 'जो पुण'त्ति । कुगुरूणां श्रीकारं स्फेटयित्वा 'उपायेन' सूत्रोक्तन्यायेन गणान्तरे प्रविश्य शिष्येण 21 घोरतपश्चर्या कर्त्तव्या ॥ ७६ ॥ यः पुनरात्मार्थिनां न प्रयच्छत्यक्षराणि 'निदेशार्थानि' संदेशप्रयोजनानि स सर्वसङ्घबाह्यः कर्तव्यो भवति 'नीत्या' सूत्रोक्तनीत्या। तथा चात्र महानिशीथसूत्रम्-“से भयवं! जया णं सीसे जहुत्तसंजमकिरियाए पवटृति तहाविहे अकेई कुगुरू तेसिं दिक्खं परूविज्जा तया णं सीसे किं समणुट्ठिजा? गोयमा! घोरवीरतवसंजमे।से भयवं! कह? गोयमा! अन्नत्थ गच्छे पविसित्ताणं। [से भयवं!] तस्स संतिएणं सिरिगारेणं चिहिए समाणे अण्णस्थ गच्छेसुं पवे ॥४६॥ JainEducadri For Private & Personal use only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समेव ण लभेज्जा तया णं किं कुबिज्जा ? गोयमा ! सबपयारेहिं णं तं तस्स संतियं सिरियारं फुसाविज्जा । से भयवं ! केणं पयारेणं तं तस्स संतियं सिरियारं सचपयारेहि णं फुसियं हविज्जा ? गोयमा ! अक्खरेसुं । से भयवं ! किं णामे ते अक्खरे ? गोयमा ! जहा णं अपडिग्गाही कालकालंतरेसुं पि अहं इमस्स सीसाणं वा सीसिणीणं वा । से भयवं ! जया णं एवंविहे अक्खरेण प्पयाइ तथा णं किं करिजा ? गोयमा ! जया णं एवंविहे अक्खरेण प्पयाइ तथा णं आसन्नपावयणीणं पकहित्ता णं चत्थादीहिं समकमित्ता णं अक्खरे दावेजा । से भयवं ! जया णं एएणं पगारेणं से णं कुगुरू अक्खरे ण प्पदेजा तया णं किं कुज्जा ? गोयमा ! जया णं एएणं पगारेणं से णं कुगुरू अक्खरे ण प्पदेज्जा तया णं संघवज्झे उवइसेज्जा । से भयवं ! केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ ? गोयमा ! सुठुपए इणमो महामोहपा से गेहवा से, तमेव विष्पज्जहित्ता णं अणेगसारीरिगमणोसमुत्थच उराइसंसारदुक्खभयभीए कहकह वि मोहमिच्छत्तादीणं खओवसमेणं सम्मग्गं समुवलभित्ता णं निविन्न कामभोगे णिरणुबंधे पुन्नमहिट्टिज्जे, तं च तवसंजमाणुट्टाणेणं तस्सेव तवसंजमकिरियाए जाव णं गुरू सयमेव विग्धं पयरे अहा णं परेहिं कारवे कीरमाणं वा समणुजाणे सपक्खेण वा परपक्खेण वा ताव णं तस्स महाणुभागस्स साहुणो संतियं विजमाणमवि धम्मवीरियं पणस्से, जाव णं धम्मवीरियं पणस्से ताव णं जे पुन्नभागे आसन्नपुरक्खडे चेव सो पवरं, जइ णं णो समणलिंगं विप्पजहे ताहे जे एवंगुणोववेए से णं तं गच्छमुज्झिय अन्नं गच्छं समुप्पयाइ, तत्थ वि जाव णं संपवेसं ण लभे ताव णं कयाइ उण अविहीए पाणे पयहेज्जा, कयाइ उण मिच्छत्तभावं गच्छिय परपासंडियमाएजा, कयाइ उण दाराइसंगहं काऊणं अगारवा से पविसिज्जा, अहा णं से ताहे महातवस्सी भवित्ता णं पुणो अतवस्सी होऊणं : Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो ॥ ४७ ॥ परकम्मकरे हवेज्जा, जाव णं एयाई भवंति ताव णं एगंतेणं बुद्धिं गच्छे मिच्छत्ततमे ताव णं मिच्छत्ततमंधीकए बहुजणनिवहे दुक्खेणं समणुट्टेज्जा दुग्गइणिवारए सोक्खपरंपरकारए अहिंसालक्खणे समणधम्मे, जाव णं एयाई भवंति ताव णं तित्थस्सेव वुच्छित्ती, ताव णं सुदूरववहिए परमपए, जाव णं सुदूरववहिए ताव णं अच्चंतसुदुक्खिए चेव सङ्घसत्तसंघाए पुणो [ पुणो ] चउगईए संसरेजा, एएणं अद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जहा णं जेणं एएणेव पगारेणं कुगुरू अक्खरे णो परजा से णं संघबज्झे उवइसेजा । " ॥ ७७ ॥ कदेदृशाः कुगुरवो भविष्यन्ति ? इत्याह| होहिंति अद्धतेरसवाससयाइकमेण एसिया । कुगुरू तत्थ वि केई, महाणुभावा भविस्संति ॥७८॥ 'होहिं ति'त्ति । भविष्यन्ति 'अर्द्धत्रयोदशवर्षशतातिक्रमेण' सातिरेकसार्द्धद्वादशवर्षशतेभ्यः परत ईदृशाः कुगुरवः । तत्रापि केचित् 'महानुभावाः' सुगुरवो भविष्यन्ति । तथा च सूत्रम् - " से भयवं ! केवइएणं कालेणं पहे कुगुरू भविहिंति ? गोयमा ! इओ अ अद्धतेरसहं वाससयाणं साइरेगाणं समइकंताणं परओ भविस्संति । से भयवं ! केणं अद्वेणं ? गोयमा ! तक्कालं इड्डीरससायगारवसंगए ममका राहंकारग्गीए अंतो संपज्जलंतबोंदी अहमहं ति कयमाणसे अमुणियसमयसम्भावे गणी भविंसु एएणं अट्ठेणं । से भयवं! किं णं सवे वि एवंविहे तक्कालं गणी भविंसु ? गोयमा ! एगतेणं णो सबे, केई पुण दुरंतपंतलक्खणे अदबे एगाए जणणीए जमगसमगं पसूए णिम्मेरे पावसीले दुज्जायजम्मे सुरोद्दपयंडाभिहाडिए दूरमहा मिच्छद्दिट्ठी भविसु । से भयवं ! कहं ते समुवलक्खेज्जा ? गोयमा ! उस्सुत्तुम्मग्गपवत्तणुद्दिसणाणुमईए पच्चरण वा ।" सूत्रोक्तार्थानुवादपरेयं गाथेति न नियतभविष्यत्कालनिर्देशानुपपत्तिः ॥ ७८ ॥ ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह Jain Educational ST गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः ॥ ४७ ॥ metibrary.org Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तम्हा पयअिवं, सम्मं निउणं गुरुं णिहालेउं । होयवं भीएणं, गयाणुगतिएण वा ण पुणो ॥७९॥ 'तम्ह'ति । तस्माद्दुष्षमायां कुगुरुबाहुल्यात्सम्यग् निपुणं गुरुं निभालय प्रवर्त्तितव्यं, न तु भीतेन, सर्वत्र दोषदर्शनाद् गतानुगतिकेन वा, सर्वजनसाधारण्याद् भवितव्यं, सुपरीक्ष्यकारित्वात्सम्यग्दृष्टेः ॥ ७९ ॥ अथैक्याभावाद्व्यवहाराव्यवस्थितत्वमाक्षिप्तं समाधत्ते Preparओ चिय, ववहारो जइ वि संपयं बहुलो । सुत्तायरणाणुगया, तहवि हु किरिया ण बुच्छिन्ना ॥ १८० ॥ 'णियमइ'त्ति । निजमतिविकल्पित एव यद्यपि साम्प्रतं व्यवहारो बहुलो दृश्यते तथापि सूत्राचरणानुगता क्रिया नास्ति व्युच्छिन्ना, प्रत्यक्षत एव तस्या अखण्डाया अखण्डितपरम्परायामुपलभ्यमानत्वात् ॥ १८० ॥ संयमविच्छेदादिकमाक्षिप्तशेषं समाधत्ते 'आगमववहारीण वि' इत्यादिना - आगमववहारीण वि, वुच्छेए संजमो ण बुच्छिन्नो । तत्तो णिज्जूढाओ, पायच्छित्तस्स ववहारा ॥८१॥ आगमव्यवहारिणां व्युच्छेदेऽपि संयमो न व्युच्छिन्नः, तत एव आगमात् 'निर्यूढात्' प्रकल्पव्यवहारलक्षणश्रुतात् प्रायश्चित्तस्य व्यवहारादविच्छिन्नमूलत्वेन तद्विश्वासात्ततश्चारित्रशुद्धेः, तदुक्तम् - " सवं पि य पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स तइअवत्थुम्मि । तत्तो चिअ निज्जूढं, पकष्पकप्पो य ववहारो ॥ १ ॥” इति ॥ ८१ ॥ प्रायश्चित्तसत्तामेवोपपादयति : साम्प्रतीन व्यवहाराव्यवस्थित त्ववादिनां निरसनम्. चारित्रवि च्छेदादिक थकानां नि रासः w.jainelibrary.org Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ त्तियुतः प्रथमो. REACROCRACCORMANCE गुरुतत्त्वसंपयमवि तं विजइ, विसेसहीणं पि पुचपच्छित्ता। ण यणस्थि चकिपागयगिहदिटुंतो इहंणेओ ॥८॥ विनिश्चयः __ 'संपयमविपत्ति । 'तत्' प्रायश्चित्तं साम्प्रतमपि विद्यते पूर्वप्रायश्चित्ताद्विशेषेणाधिक्येन हीनमपि, न च नास्ति; अत्र लासः चक्रियाकृतजनगृहदृष्टान्तो ज्ञेयः, यथा प्राकृतराजगृहाणि न चक्रवर्तिगृहसदृशानि तथापि तानि भवन्त्येव गृहकार्य-५ करणात् तथा पूर्वप्रायश्चित्ताद्धीनमपि साम्प्रतीनं प्रायश्चित्तं प्रायश्चित्तकार्यकरणादस्त्येवेति भावः, तदुक्तम्-"भुंजइ प्रायश्चित्ताचक्की भोए, पासाए सिप्पिरयणनिम्मविए । किं व ण कारेइ तहा, पासाए पागयजणो वि ॥१॥ जह रूवाइविसेसा, भाववादिनां परिहीणा हुँति पागयजणस्स । ण य ते ण होति गेहा, एमेव इमं पि पासामो ॥२॥" ति ॥ ८२ ॥ अथ किं प्रायश्चित्तं निरासः विच्छिन्नं? किं वा कियत्केषां च भवति ? इत्यभिधातुमाहचरमा दो पच्छित्ता,वुच्छिन्ना तह य पढमसंघयणं। चोदसपुविम्मि तओ,अहविहं होइ जा तित्थं ॥३॥ आलोअणपडिकमणे, मीसविवेगे तवे च उस्सग्गे। एए छप्पच्छित्ता, होति णियंठे पुलागम्मि ॥८॥ बउसपडिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सवे वि। थेराण जिणाणं पुण, चरमदुगविवजिआ अट्ठ ॥८५॥ आलोअणा विवेगा,इंति णियंठे दुवे उ पच्छित्ता। एगं चिय पच्छित्तं, विवेगणामं सिणायम्मि॥८६॥ अट्ठविहं पच्छित्तं, छेओ मूलं च गत्थि सामइए। थेराण जिणाणं पुण, जाव तवो छविहं होइ ॥८॥ Jain Educatbina For Private & Personal use only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain गुरुत. ९ छेओवट्ठावणिए, पायच्छित्ता हवंति सवे वि । थेराण जिणाणं पुण, मूलंतं अट्ठा होइ ॥ ८८ ॥ परिहारविसुद्धीए, मूलंता अट्ठ होंति पच्छित्ता । थेराण जिणाणं पुण, छेयाइविवज्जिआ हुंति ॥ ८९ ॥ 'चरमा' इत्यादि सप्त गाथा एताः सुगमाः ॥ ८९ ॥ जा तित्थं अणुवित्ती, दुण्ह णियंठाण संजयाणं च । चउरो गुरुआ मासा, ता पच्छित्तस्स निन्हवणे ॥ १९०॥ 'जातित्थं'ति । यावत्तीर्थमनुवृत्तिः 'द्वयोर्निर्ग्रन्थयोः' बकुशकुशीलयोः 'संयतयोश्च' इत्वरसामायिकच्छेदोपस्थापनिकयोः तावत्प्रायश्चित्तस्य 'निह्नवे' नास्ति प्रायश्चित्तमिदानीं ददतां कुर्वतां चाभावादित्यपलापे चत्वारो गुरुका मासाः प्रायश्चित्तं भवति, तदुक्तम् - " दोसु अवुच्छिन्नेसुं, अट्ठविहं दितया करिता य । न वि केई दीसंती, वयमाणे भारिआ | चउरो ॥ १ ॥ ति ॥ १९० ॥ प्रायश्चित्तं ददतां कुर्वतां च प्रत्यक्षदर्शनमुपपादयतिदिंति करिंति य एयं, णवरि उवाएण एत्थ दिट्टंतो । धणिअस्स धारगस्स य, संते विभवे असंते य ॥ ९१ ॥ — 'दिंति'त्ति । ददति कुर्वन्ति च 'एतत्' प्रायश्चित्तं सम्प्रत्यपि, 'नवरं' केवलं 'उपायेन' वक्ष्यमाणया यथाशक्तियतनया, ततः प्राग्वन्न दृश्यत इति भावः । अत्र धनिकस्य धारकस्य च दृष्टान्तो भावनीयः सति विभवेऽसति च ॥ ९१ ॥ एतदेव भावयति | सवं पि संतविभवो, तक्कालं मग्गिओ धणं देइ । जो पुण असंतविभवो, णिरविक्खो तत्थ फलवंझो ॥ ९२ ॥ ry.org Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो ॥ ४९ ॥ Jain Educatio 'सर्व पित्त । सद्विभवो धारकः सर्वमपि धनं धनिकेन दत्तं 'मार्गितः' याचितः सन् तत्कालं दत्ते, यः पुनरसद्विभवो धारकस्तत्र 'निरपेक्षः' कर्कशग्रहेण धनस्य ग्रहीता 'फलवन्ध्यः' धनप्राप्तिलक्षणफलशून्यो भवति ॥ ९२ ॥ यतः - णासेइ किलेसेणं, धणमप्पाणं च धारगं चेव । जो पुण सहेइ कालं, साविक्खो रक्खई सर्व्वं ॥ ९३॥ 1 'णासेइ 'त्ति । क्लेशेनासद्विभवस्य धारकस्य पादौ गृहीत्वाऽऽत्मीयपादेन सह बद्धा पतनादिलक्षणेन धनमात्मानं | धारकं च नाशयेत्, क्लेशवशेनात्मनः परस्य वा व्यपरोपणसम्भवात् । यः पुनः कालं सहते सः 'सापेक्षः' उपायेन ग्रहण - प्रवणः सर्वे रक्षयति, धनिकानुमत्या धारकेन प्रतिमासं किञ्चिद् वृद्ध्या धनधारणे तद्गृह एव कर्मकरणे चाल्पेन कालेन ऋणमुक्तेर्धारकस्य स्वस्य च सन्तोषाद्धनस्य चाक्षयत्वसिद्धेरिति ॥ ९३ ॥ उपनयमाह - संतविभवेहिँ तुला, धिइसंघयणेहिँ जे उ संपन्ना । ते आवण्णा सवं, वहति णिरणुग्रहं धीरा ॥ ९४॥ 'संतविभवेहिं 'ति । ये धृतिसंहननाभ्यां 'संपन्नाः' युक्ताः सद्विभवैस्तुल्यास्ते धीराः सर्वमापन्नप्रायश्चित्तं 'निरनुग्रहम्' अनुग्रहरहितं वहन्ति ॥ ९४ ॥ संघयणधितिविहीणा, असंतविभवेहिं होंति तुल्ला उ। णिरविक्खो जड़ तेसिं, देइ ततो ते विणस्संति ॥९५॥ 'संघयण'ति । ये पुनर्धृति संहननाभ्यां विहीनास्तेऽसद्विभवैस्तुल्याः, तेषां यदि निरपेक्षः सन्निरवशेषं प्रायश्चित्तं ददाति ततस्ते विनश्यन्ति, तथाहि--- ते तत्प्रायश्चित्तं निरवशेषं वोढुमशक्नुवन्तस्तपसा कृशीकृता जीवितादपगच्छेयुः, यदि वा national : गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः ॥ ४९ ॥ Pahelibrary.org Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तभग्ना लिङ्गविवेकं कृत्वा व्रजेयुरिति ॥ ९५ ॥ तथा चतेणं तित्थुच्छेओ, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो । सावेक्खो पुण रक्खइ, चरणं गच्छं च तित्थं च ॥९॥ | तेणं'ति । तेन' प्रायश्चित्ताधिकारिणां साधूनां विनाशेन आत्मन एकाकितया बालवृद्धग्लानादीनां चोपग्रहच्छेदादन्येषां चागन्तुकानामुत्साहभङ्गात्तीर्थोच्छेदः स्यात् । तेषामवधावितानां दीर्घकालसंसाराहिण्डने निमित्तभावेनापि यत्सा तदपि निरपेक्षस्य द्रष्टव्यम्। 'सापेक्षः पुनः'उपायेनानवस्थाप्रसङ्गवारणाकुशलः सन् रक्षति चरणं च गच्छं च तीर्थ च ॥१६॥ उपायमेवाहकल्लाणगमावन्ने, अतरंत जहक्कमेण काउं जे । दस कारेंति चउत्थे, तदुगुणायंबिलतवे वा ॥ ९७ ॥ | 'कल्लाणगं' इत्यादि । पञ्चाभक्तार्थाः पञ्चाचाम्लानि पञ्चैकाशनकानि पञ्च पूर्वार्द्धानि पञ्च निर्विकृतिकानि, एतत्पञ्च-18 कल्याणकम् तज्येष्ठापन्नान् यथाक्रमेण च कर्तुमशक्नुवतस्तान् दश चतुर्थान् कारयन्ति, तथाप्यशक्नुवतस्तद्विगुणाचाम्लान् | तपः कारयन्ति, विंशतिमाचाम्लानि कारयन्तीत्यर्थः ॥ ९७ ॥ एक्कासणपुरिमड्डा, णिविगई चेव बिगुणविगुणाओ । पत्तेयासहदाणं, कारिंति व सन्निगासं तु॥९॥ | 'एक्कासण'त्ति । एवमेकाशनपूर्वार्द्धनिर्विकृतीदिद्विगुणाः कारयन्ति, किमुक्तं भवति? विंशत्याचामाम्लकरणाशक्तौ चत्वारिंशदेकाशनकानि कारयन्ति, तत्राप्यशक्तौ पूर्वार्द्धान्यशीतिं कारयन्ति, तत्राप्यशकौ षष्टिशतं निर्विकृतीनां कार KARALISESSORSSAUSKAS Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- यन्ति, एतत्पञ्चसु कल्याणकेष्वेकैकं कल्याणकं प्रत्येकमविच्छित्य कर्तुमसहस्य-असमर्थस्य दानमुक्तम् । अथवाऽयमन्यो। गुरुतत्त्वत्तियुतः विकल्प:-'सन्निकाशं सन्निभं वा कारयन्ति, इयमत्र भावना-यत्पञ्चकल्याणकमापन्नं तन्मध्यादाद्यं द्वितीयं तृतीयं विनिश्चयः प्रथमो-18वा कल्याणकमेकतरं यथाक्रमेण वहति शेषमाचाम्लादिभिः प्रदेशयति ॥ ९८ ॥ पुनरन्यथाऽनुग्रहप्रकारमाह लास: ॥५० चउतिगद्गकल्लाणं, एगं कल्लाणगं च कारेंति । जं जो उत्तरति सुहं, तं तस्स तवं पभासिंति॥१९॥ 'चउत्ति । यदि वा पञ्चकल्याणकमुक्तस्वरूपं यथाक्रमेणाविच्छित्य कर्तुमशक्नुवन्तं चतुष्कल्याणकं कारयन्ति, तदपि । कर्तुमशक्नुवन्तं निकल्याणकम् , तथाप्यसमर्थतया द्विकल्याणकम् , तदपि कर्तुमशक्नुवन्तमेककल्याणकं कारयन्ति । किं बहुना ? यो यत्तपः कर्तुं शक्नोति तस्य तद्वदन्ति नाधिकम् , आवाधासम्भवात् । अथैकमपि कल्याणकं कर्तुं न शक्नोति तदा तस्यासमर्थस्य सर्व झोपयित्वा एकमभक्तार्थ दीयते, अथवैकमाचामाम्लं यदि वा एकमेकाशनकमथवैकं पूर्वार्द्धमथवा निर्विकृतिकं ददति, यदि च न किञ्चिद्ददति तदानवस्थाप्रसङ्गः॥ ९९॥ एतदेव स्पष्टयतिएवं सदयं दिजति, जेणं सो संजमे थिरो होइ।ण य सबहा ण दिजति, अणवत्थपसंगदोसाओ॥२०॥ __'एवं'ति । 'एवम्' अमुना प्रकारेण 'सदयं' सानुकम्पं दीयते प्रायश्चित्तं येन स संयमे स्थिरो भवति, न च सर्वथा न दीयते, अनवस्थाप्रसङ्गदोपात् । अत्र तिलस्तेनदृष्टान्तो भावनीयः, तथाहि-एको बालः स्नानं कृत्वा रममाणस्तिलराशौ ॥५ ॥ निमग्नः, ततो बाल इति कृत्वा न केनचिद्वारितः, तिलाश्च शरीरे लग्नानाः, ततोऽसौ सतिलो गृहमागतः, मात्रा तिला ARXIPARRAG Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहीताः, ततस्तिललोभेन पुनः स्नपयित्वा माता दारकं प्रेषयति, ततः कालेन तिलस्तैन्यं कारयति, ततः स प्रसङ्गन्दोषण स्तेनो जातो गृहीतश्च राजपुरुषारितश्च, मातुरपिस्तन्यप्रसङ्गावारणदोषेण स्तनच्छेदः कृतः॥ द्वितीयो बालस्तथैव स्नात्वा रममाणस्तिलराशौ निमग्नः, सतिलो गृहमागतो मात्रा वारितः 'मा पुनरेवं कार्षीः' इति, तिलाश्च गृहीत्वा तिलराशौ प्र. क्षिप्ताः, स दीर्घजीवी भोगान् भुते स्म, मातापि स्तनच्छेदादिदोष न प्राप्ता ॥ एवं गुरुशिष्या अप्यनिवारितदोषप्रसङ्गाः संसारसागरमुपयन्ति, विनिवृत्तप्रसङ्गाः पुनः संसारव्यवच्छेदं कुर्वन्तीति ॥ २००॥ निर्यापकानामभावाच्चारित्रं नास्ती-12 त्यपि नास्तीत्याहणिज्जवगाण वि इण्हि, गीयत्थाणं असंभवो णत्थि । तम्हा सिद्धं चरणं, दुप्पसहतं अविच्छिण्ण॥१॥ निर्यापकास 'निज्जवगाण वित्ति । निर्यापकानामपीदानी गीतार्थानामसम्भवो नास्ति, लेशतस्तद्विधिज्ञानां गीतार्थानामिदानीमपि त्वाचारित्राका प्रत्यक्षत्वात्। तद्विधिलेशश्चायम्-संलेखनां कृत्वा भक्तपरिज्ञाद्यन्यतरं प्रतिपत्तुकामो गीतार्थस्य संविग्नस्य च पादमूलं सत्त्वमित्यस्य क्षेत्रतः पञ्च पट् सप्त वा शतानि सातिरेकाणि वा कालत एक द्वे त्रीणि वा यावद्द्वादश वर्षाण्यन्वेषयेत् । अगीतार्थस्यासंवि | निरसनम्. नस्य वा समीपे प्रत्याख्याने चतुर्गुरुप्रायश्चित्तम् , यतोऽगीतार्थः क्षुत्पिपासाभ्यां निशि बाधितस्य प्रत्याख्यानिनोऽकल्प्यमिति कृत्वा न दद्यात्तं त्यक्त्वा च गच्छेत् । असंविग्नश्चाधाकर्मिकाद्यपि गृह्णीयात् पुष्पादीन्यपि ढोकयेत् । निर्यापक | निर्यापकएको न कर्त्तव्यः किन्तु बहवः, एकेन पानकादिग्रहणप्रवृत्तेन 'मा भूद् ग्लानस्यासमाधिः' इत्याधाकर्मिकस्यापि ग्रहणप्रस विधिः *ङ्गात् , तदानीं मरणसमयेऽसमाध्युत्सादनायोगात् । किञ्चैवं समीपे मुक्तेनापरिणतेन शैक्षेण ग्लानयाचितस्य भक्तस्यादा SX Jain Education Interior For Private & Personal use only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्रथमो ॥५१॥ नेऽसमाधिमरणप्रसङ्गः, शैक्षा वा निर्धर्माणो भवेयुः 'स्थापनामानं प्रत्याख्यानमेतदिति हिंसादिप्रत्याख्यानान्यप्येवमेव गुरुतत्त्वइति, तैश्चादीयमाने भक्ते ग्लानोऽपि कूजति 'बलान्मामेते मारयन्ति'इति, शैक्षा अप्यवज्ञा प्रकाशयन्तीति प्रवचनोड्डाहः विनिश्चयः स्यादिति । गुरुणा च स्वयं देवताद्युपदेशेन वाऽऽभोगः कर्त्तव्यः 'किमयं प्रत्याख्यानपारं गमिष्यति न वा ? । तत्र पारग 81 ल्लासः एष्टव्यः, अपारगे इष्यमाणे गुरोश्चत्वारो गुरुकाः । एकः संस्तारगतो द्वितीयः संलिखति, तथा तृतीयो यद्यन्य उपतिष्ठते तदा प्रतिषेधः कर्त्तव्यः, निर्यापकाणामसंस्तरणाद्वहनां तेषां संस्तरतामनुमतौ च न निषेधः। यदि कृतप्रत्याख्यानस्य प्रत्याख्यानासंस्तरणं भवेत् स च सर्वत्र ज्ञातो दृष्टश्च भूयसा लोकेन तदा द्वितीयः संलेखनां कुर्वन् स्थाप्यते, अन्तरा चिलिमिली क्रियते, बन्दकाश्च बहिरेव स्थाप्यन्ते । तथा गच्छमापृच्छय प्रत्याख्यानिनः प्रतीच्छा कतैव्याऽन्यथा चत्वारोट गुरुकाः। प्रत्याख्यानिनो गच्छसाधूनामपि च मिथः परीक्षा विधेयाऽन्यथापि चत्वारो गुरुकाः। तथाचार्येण प्रष्टव्यं "त्वया किं संलिखितं न वा?' इति, यदि स क्रोधावेशादङ्गली भड्न्क्त्वा दर्शयति 'पश्य मे शरीरे यद्रष्टव्यम्'इति, तदाचार्येण वक्तव्यं 'नाहं द्रव्यसंलेखनां पृच्छामि, भावसंलेखनयेन्द्रियकषायादीन् कृशीकुरु' इति । तथा प्रत्याख्यातुकामेन स्वयं शोधिं जानताऽजानता वाचार्यपादमूले गत्वा शोधिः कर्त्तव्या, इत्थमेव परमार्जवसिद्धेः । तत्र प्रव्रज्यात आरभ्य ज्ञानादित्रयस्य द्रव्यादिचतुष्टयेनातिचारालोचनं कर्त्तव्यम् , स्फुटमज्ञायमानानां चातिचाराणां 'यान मेऽतिचारान जिना जानन्ति तानहमालोचयामि'इति संमुग्धाकारणालोचन कार्यमित्थमपि भावशुद्धः। स्थानं च तस्य तादृशं ग्राह्यं यत्र ध्यानव्या ॥५१॥ घातो न भवति यत्रेन्द्रियप्रतिसञ्चारो न भवति तादृशप्रशस्तवसतिद्वयं ग्राह्यम् , एकस्यां प्रत्याख्याता स्थाप्यतेऽपरस्यां For Private Personal use only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASSASSASSESEASORROSCOM साधवः, अशनादिगन्धेन प्रत्याख्यातुरभिलाषो मा भूत, सत्स्वाहारधर्मेष्वाहारदर्शनतो भुक्तभोगिनोऽपि निपणस्यापि शोभप्रसङ्गादिति । पानकयोग्यमाहारं च प्रत्याख्यातुस्तत्र प्रदेशे वृषभाः स्थापयन्ति यत्र प्रत्याख्यातुरपरिणतानां वा नागमनम् , अन्यथा गृद्ध्यप्रत्ययदोषप्रसङ्गात् । तथा नियोपकाः पार्श्वस्थादिलक्षणवर्जिताः कालोचितगुणाः प्रियधर्माणः। क्रियन्ते, ते चोद्वर्तनकारिणश्चत्वारोऽभ्यन्तरमूलेऽपि चत्वारः संस्तारकारका अपि चत्वारो धर्मकथकाश्चत्वारो लोकस्योलुण्ठवचनप्रतिकारिणो वादिनोऽपि चत्वारोऽग्रद्वारेऽपि चत्वारो भक्तनेतारश्चत्वारः पानकनेतारश्चत्वार उच्चारपरिष्ठापकाश्चत्वारः प्रस्रवणपरिष्ठापकाश्चत्वारो बहिर्लोकस्य धर्मकथकाश्चत्वारश्चतसृष्वपि दिक्षु साहस्रमल्लाश्चत्वारः, इत्येवमष्टच. त्वारिंशदपेक्ष्यन्ते । जघन्यतस्तु त्रयो भवन्ति । तत्र द्वौ गीताौँ निर्यापको प्रत्याख्याता चैकः। तत्रैकः प्रत्याख्यातुः पार्थे 3 तिष्ठति, अपरश्च भक्तपानमार्गणाय गच्छतीति । तथा भक्तप्रत्याख्यायकस्य चरमकालेऽतीवाहारकाङ्क्षा समुत्पद्यते तत्र्य-16 विच्छेदार्थमिष्टश्चरमाहारो दातव्यो यतस्तेन तृष्णाव्यवच्छेदाद्वैराग्यभावना प्रवर्तत इति । आहारानुबन्धे च कस्यचिज्जायमाने प्रतिदिनमाहारद्रव्यहान्या हितशिक्षया च तस्याहारतृष्णाविच्छेदः कर्त्तव्यः, समाहितश्च प्रज्ञाप्यो भवतीति समा-15 ध्यर्थ परिहान्या तस्य दानमिति । तथाऽपरिश्रान्तः प्रतिचारकैः सर्व प्रतिकर्म कर्त्तव्यम्, एतदर्थमेव गच्छस्यापेक्षणात् ।। तथान्यतरयोगेऽप्यसङ्ख्येयभवार्जितं कर्म क्षपयति साधुर्विशिष्य स्वाध्याये, ततोऽपि विशिष्य वैयावृत्त्ये, ततोऽपि विशिप्योत्तमार्थ इति । संस्तारकश्चास्य भूः शिला वाऽझुषिरा कार्या, तत्र स्थितो निषण्णो वा यथासमाधि तिष्ठतु । फलकं वा| एकाङ्गिकमानेतव्यम् , तदभावे व्यादिफलकात्मकमपि । तत्रास्तरणमुत्सर्गतः सोत्तरपदृस्य संस्तारकस्य कर्त्तव्यम्, अपवा For Private Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति तथाप्यविषहमाणाष्टिान्तेन प्रोत्साहनीया लतोऽवभाषते स्वभाव स्वोपज्ञव- दतो बहूनामपि कल्पानाम् , तथाप्यसंस्तरणे दांदीनामझुषिराणां, तदभावे झुषिरतृणानामपि यथासमाधि यावत्तूलिका- गस्तत्व त्तियतःदेरपि । तथोपधेः प्रतिलेखनां प्रत्याख्यानी स्वयमेव करोति, असमर्थस्य तु सर्वमन्ये कुर्वन्ति । तथा यः कायोपचितो विधियः प्रथमो- बलवांस्तस्य बहिर्निष्क्रमणप्रवेशनादि कारयति तथाप्यविषहमाणं तं संस्तारगतं संस्तारयन्ति, तस्य समाध्यर्थ मृदुः ल्लास: संस्तारकः कर्त्तव्यः, तथाप्यसंस्तरणे प्रत्याख्याननिस्तारकदेशविरतादिदृष्टान्तेन प्रोत्साहनीयः । तथा प्रथमद्वितीयपरीपहाभ्यां व्याकुलितो यद्यवभाषेत भक्तं पानं वा तदा परीक्षणीयः 'किमयं प्रान्तदेवतया च्छलितोऽवभाषते स्वभावतो वा?' इति, तत्र यदि समस्तमवितथं ब्रूते तदा तस्य यथोचितं दातव्यम् । किं कारणं प्रत्याख्याप्य पुनराहारो दीयते ? परीपहचमूयोधनाय कवचप्रायोऽयमाहार इति हेतोः, उज्झितशरीरस्यापि समाधिसंधानस्यात एव सिद्धेः। तथा काल- दर्शनज्ञान गतस्य चिह्नकरणादिविधिपूर्व परिष्ठापना कर्तव्या। तथा स भक्तप्रत्याख्याता गृहिणां न प्रकाश्यते यतः कदाचित्परी- योस्तीर्थप्रसे पहोदयेन व्याघाते समस्तप्रवचनलघुतापत्तिः स्यात् । उत्पन्ने च व्याघाते गीतार्थरुपायः प्रयोक्तव्यो यावत्ससहायस्यान्यत्र तिपादकानां ज्ञातस्य तस्य प्रेषणमिति । यस्तुतं भक्तपरिज्ञाव्याघातवन्तं निन्दति तस्यानुद्धाताश्चत्वारो मासाः। यस्तु न ज्ञातः स यदि दोषापत्तिः न निस्तरति तथापि न प्रवचनोड्डाह इत्यादि । तस्मादिदानीमपि निर्यापकानां सत्त्वाच्चरणाराधनानिर्वाहात् सिद्धं दुष्प्रसहान्तमविच्छिन्नं चरणम् ॥१॥ दर्शनज्ञानाभ्यामेव तीर्थ प्रवर्तत इत्यत्र दोषमाहदसणनाणठिअं जइ, तित्थं तो सेणियाइआ समणा। इय णरएसुप्पत्ती, तेसिं जुत्ता ण वुत्तुं जे॥॥ ॥५२॥ _ 'दसण'त्ति । दर्शनज्ञानाभ्यां स्थितं यदि तीर्थ मन्यसे त्वं तदा श्रेणिकादयोऽपि श्रमणाः प्राप्तास्तेषामपि ज्ञानदर्शन-18 GOLGAUGEOGHUNDRENEURUS Jain Educa t ic Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावात 'इय' एवं 'तेषां' श्रेणिकादीनां नरकेषूत्पत्तिर्ने वक्तुं युक्ता, श्रमणगुणयुक्तस्य नरकेष्वनुसादादिति ॥२॥ किश्च तित्थस्स ठिई मिच्छा, वाससहस्साणि इकवीसं च। जेणं सबसमासुवि, दंसणनाणाइँ जग्गंति ॥३॥ ISI 'तित्थस्सत्ति । तीर्थस्य स्थितिरेकविंशतिवर्षसहस्राणि या भगवता भगवत्यामभिहिता सापि मिथ्या स्यात् , येन स-1 स्वासु षट्स्वपि समासु दर्शनज्ञानानि जाग्रति, तथा च चिरकालमपि तीर्थानुषञ्जनासक्तिरिति ॥ ३ ॥ अपि च सबगईसु वि सिद्धी, तब्भवसिद्धी अणुत्तराण भवे। तम्हा णियंठसंजमदुगम्मि तित्थं ठियं होइ॥४॥ | 'सवगईसु वित्ति । सर्वास्वपि गतिषु सिद्धिः स्यात् , सम्यग्दर्शनज्ञानयुक्तानां सर्वगतिष्वपि भावात् । तथा 'अनुत्तराणाम्' अनुत्तरोपपातिकदेवानां तद्भवसिद्धिः स्यात् , तेषामनुत्तरज्ञानदर्शनोपेतत्वात् , न चैत दिष्टं तस्मान्निम्रन्थद्विके-बकुशप्रतिसेवकलक्षणे संयमद्विके च-इत्वरसामायिकच्छेदोपस्थापनीयलक्षणे तीर्थ स्थितं भवतीति प्रतिपत्तव्यम् , तस्मात्तीर्थस्थित्यन्यथानुपपत्त्या चारित्रं सिद्धम् ॥ ४ ॥ प्रत्यक्षतोऽपि साम्प्रतं व्यावहारिकस्य चरणस्य सिद्धिरप्रतिहतेत्याहसवण्णूहि परूविय, छक्काय महत्वया य समिईओ। सच्चेव य पन्नवणा,संपइकाले वि साहूणं ॥२०५॥ ५॥काव्यवहारचाप ता 'सवण्णूहि'ति । पूर्वसाधूनां सर्वज्ञैश्चारित्रप्रतिपत्तये तद्रक्षणाय च षट्काया महाव्रतानि समितयश्च प्ररूपिताः, सैव : सैवारित्रसिद्धिः |च प्रज्ञापना सम्यगाराध्यतया सम्प्रतिकालेऽपि साधूनामस्ति, तथा च षट्कायपालनादिव्यवहारचारित्रस्य स्वसंवेदनसिद्धत्वमेवेति भावः॥२०५॥ ततश्चेदं सिद्धम् OSSOS CURSOSASSA For Private & Personal use only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः स्वोपज्ञवृ-दसणनाणसमग्गा, तित्थस्स पभावगा भवंति दढं । तित्थं पुण संपुण्णं, चाउवण्णो समणसंघो॥६॥ त्तियुतः 'दसण'त्ति । दर्शनज्ञानसमग्राः क्रियातश्च हीना अपि शुद्धप्ररूपणागुणाः 'दृढम्' अतिशयेन तीर्थस्य प्रभावका भप्रथमो. 15वन्ति। तीर्थ पुनः सम्पूर्ण चतुर्विधश्रमणसङ्घः, तदुक्तं प्रज्ञप्त्याम्-"तित्थं भंते ! तित्थं तित्थयरे तिथं? गोयमा! अरहा दाताव णियमा तित्थंकरे, तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, तंजहा-समणा य समणीओ सावया य साविआओ।" त्ति ।। ॥ ५३॥ इदानीं तात्त्विकश्रमणानभ्युपगमे च द्विविधसङ्घस्यैव प्रसङ्गः, तात्त्विकश्रावकानभ्युपगमे च मूलत एव तद्विलोपः, सम्यक्त्वस्यापि साधुसमीपे ग्राह्यत्वेन तदभावे तस्याप्यभाव इति सर्व कल्पनामात्रं स्यादिति न किञ्चिदेतत् ॥६॥ अथ सकलपूर्वपक्षनिरासस्य प्रकृतोपयुक्ततां योजयन्नाहइय ववहारपसिद्धी, इत्तो सुगुरूण होइ सहलत्तं । णिक्खेवाइसयाणं, मणप्पसायस्स अणुरूवं ॥७॥ ___ 'इय'त्ति । इय' एवं सकलप्रश्ननिर्वचनेन व्यवहारस्य प्रसिद्धिः कृता, 'इतः' व्यवहारप्रसिद्धेः सुगुरूणां 'निःक्षेपातिशयाना' |नामस्थापनादिविशेषाणां सफलत्वं भवति, 'मनःप्रसादस्य' कायीभूतस्य चित्तोल्लासविशेषस्यानुरूपम्, निश्चितप्रामाण्यकस्य प्रमाणरूपव्यवहारस्य प्रमेयसाधकत्वादिति भावः ॥७॥ व्यवहारसमाधानस्य विशिष्टं फलमाह ववहारसमाहाणं, एयं जे सइहंति जिणभणियं । ते णिच्छयम्मि निउणा, जसविजयसिरिं लहंति सया ॥ २०८ ॥ ASAASASSASSASSA ॥५३॥ उपसंहारः 1-52-5 sinedbrary.org Jain Education m onn Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥इति महामहोपाध्याय-श्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डित-श्रीलाभविजयगणिशिष्यावतंस- . पण्डित-श्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यमुख्यपण्डित-श्रीनयविजयगणिचरणकमलचश्चरीकेण पण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेण पण्डितयशोविजयेन विरचिते गुरुतत्त्वविनिश्चये व्यवहाराक्षेपसमाधाननामा प्रथमोल्लासः संपूर्णः ॥१॥ 'ववहार'त्ति । एतद् व्यवहारसमाधानं ये श्रद्दधते 'जिनभणितम्' अर्थतः सर्वज्ञप्ररूपितं ते विशिष्टकर्मक्षयोपशमाव्यवहारनिपुणा गुरुप्रज्ञापनाच्च निश्चयेऽपि निपुणाः सन्तः पारमेश्वरी स्याद्वाददेशनामनुसरन्तो भावनाज्ञानेन जगज्जीवहितावह चित्तवृत्तयो यशसा-संयमयशसा विजयेन च-मिथ्यात्वाद्यन्तरङ्गशत्रुपराभवलक्षणेन श्रियं-पारमैश्वर्यलक्षणां लभन्ते 'सदा' सर्वदा । अत्र यशोविजय इति स्वनाम सूचितम् ॥ २०८ ॥ ॥ इति महामहोपाध्याय-श्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डित-श्रीलाभविजयगणिशिष्यावतंसपण्डितश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यमुख्यपण्डित-श्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकेण पण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेण पण्डित-यशोविजयेन कृतायां स्वोपज्ञगुरुतत्त्व विनिश्चयवृत्तौ प्रथमोल्लासविवरणं सम्पूर्णम् ॥१॥ KOSMOSASUSASHISSASSISK Jain E aston International For Private Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवत्तियुतः प्रथमो गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः ॥५४॥ अथ प्रशस्तिः। -rsयस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशयाः, भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरस्तस्येयं गुरुतत्त्वनिश्चयकृतिः स्तात् पण्डितप्रीतये ॥१॥ सूतेऽनम्बुधरोऽपि चन्द्रकिरणैरम्भांसि चन्द्रोपलस्तद्रूपं पिचुमन्दवृन्दमपि च स्याञ्चान्दनैः सौरभैः। स्पर्शासिद्धरसस्य किं भवति नो लोहं च लोहोत्तमं?, वाग् मन्दापि पटुर्भविष्यति तथा सद्भिगृहीता मम ॥२॥ अगणितगुरुप्रमेयं, निःसन्देहं पुमर्थसिद्धिकरम् । व्यवहारनिश्चयमय, जैनेन्द्र शासनं जयति ॥ ३ ॥ प्रशस्तिः GASGASSAIRAAMISETAS ॥ ५४॥ Jain Ed na Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ गुरुतत्त्वविनिश्चये द्वितीयोल्लासः। गुरोर्लक्षणम् विवृतः प्रथमोल्लासः । अथ द्वितीयो वित्रियते, तत्र प्रथमे व्यवहारः समाहितो द्वितीये चानेनैव गुरुरुत्कृष्यत इत्येतद्विवेकद्वारा गुरुतत्त्वं निश्चेतव्यमित्यभिप्रायवानाहववहारं जाणंतो, ववहारं चेव पन्नवेमाणो । ववहारं फासंतो, गुरुगुणजुत्तो गुरू होइ ॥१॥ ___ 'ववहारं ति। व्यवहारं जानानो व्यवहारमेव प्रज्ञापयन् 'व्यवहार' शुद्धसाध्वाचाररूपं 'स्पृशन्' कायेनासेवमानो गुरुगुणयुक्तो गुरुर्भवति, क्रियायामेव रत्नत्रयसाम्राज्यात्, क्रियायबोधस्य ज्ञानत्वात् , क्रियारुचेर्दर्शनत्वात्, क्रियाया एव च चारित्रत्वात् , व्यवहारस्य च क्रियालक्षणत्वात् । अथवा सम्पूर्ण व्यवहारे साक्षात् पारम्पर्येण वा सर्वेऽपि ज्ञानहै क्रियाभेदा अन्तर्भवन्तीत्यनेनैव सर्वगुणसामग्र्यं सिद्धमिति ॥ १॥ व्यवहारप्ररूपणमेव यथास्थितमाहविवहारो ववहारी, ववहरिअवं च एत्थ णायत्वं । नाणी नाणं नेयं, नाणम्मि परूविअम्मि जहा ॥२॥ हा 'ववहारो'त्ति । 'अत्र' व्यवहारे प्ररूपयितव्ये व्यवहारो व्यवहारी व्यवहर्त्तव्यं चेति त्रयं ज्ञातव्यं भवति, व्यवहारवा चकस्यापि व्यवहारपदस्थेतरद्वयाक्षेपकत्वात् । यथा ज्ञाने प्ररूपिते ज्ञानी ज्ञानं ज्ञेयं चेति त्रयमपि ज्ञातव्यम्, न पत्र यथाश्रुतार्थमात्रप्ररूपणे निराकासप्रतीतिः सिध्यतीति ॥२॥ तत्र व्यवहारं तावारूपयति 9CALCDCCCCCCCOUGARCHUSANSAR व्यवहारप्ररूपणायां व्यवहारो व्यवहारी व्यवहर्त्तव्यं चज्ञातव्यम्, शुरुत. १० Jain Education temin For Private Personal use only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतियुतः द्वितीयो - ॥ ५५ ॥ Jain Educatio विविहं वा विहिणा वा ववणं हरणं च होइ ववहारो । दवम्मि पुत्थयाई, णोआगमओ अ पंचविहो ॥३॥ ‘विविहं’ति । ‘विविधं’ तत्तद्योग्यतानुसारेण विचित्रं 'विधिना' सर्वज्ञोक्तप्रकारेण वा 'वपनं' तपःप्रभृत्यनुष्ठानविशेपस्य दानं 'दुवपी बीजतन्तुसन्ताने' इति वचनात् 'हरणम्' अतिचारदोषजातस्य, अथवा संभूय द्वित्रादिसाधूनां कचिप्रयोजने प्रवृत्तौ यद्यस्मिन्नाऽऽभवति तस्य तस्मिन् वपनमितरस्माच्च हरणमिति व्यवहारः । विवापहार इति रूपप्राप्तौ विवा पशब्दयोर्व्यवआदेशः पृषोदरादित्वात् । अर्थिप्रत्यर्थिनोर्विवदमानयोर्व्यवहारार्थ स्थेयपुरुषमुपस्थितयोर्यस्य यन्नाऽऽभवति तस्मात्तदपहृत्य यद्वितीयाय प्रयच्छत्येष स्थेयव्यापारो व्यवहार इति समुदायार्थः, क्रियामात्रमपेक्ष्य चैतन्निर्वचनम् । प्रकृते च करणव्युत्पत्तिराश्रयणीया, विधिना उप्यते ह्रियते च येन स व्यवहार इति । स च नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाच्चतुर्विधः । तत्र नामस्थापने सुगमे । द्रव्यव्यवहारो द्विधा आगमतो नोआगमतश्च । आगमतो व्यवहारपदज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः । नोआगमतस्त्रिधा ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात्, तत्राद्यौ प्रतीतौ । 'द्रव्ये' द्रव्यविषये 'पुस्तकादिः ' व्यवहार ग्रन्थ एव पुस्तकपत्रादि लिखितः । अथवा लौकिक कुप्रावच निकलोकोत्तर भेदात्रिविधः, तत्र लौकिको यथा-आनन्दपुरे खङ्गादावुद्गीर्णे रूपकाणामशीतिसहस्रं दण्डो मारितेऽपि तावानेव, प्रहारे तु पतिते यदि कथमपि न मृतस्तदा रूपकपञ्चकदण्डः, उत्कृष्टे तु कलहे प्रवृत्तेऽर्द्धत्रयोदशरूपका दण्डः । कुप्रावचनिको यथा-यत्कर्म यो न करोति ततः कर्मणस्तस्य किञ्चिदिति । लोकोत्तरिको यथा-य एते पाण्डुरपटप्रावरणा जिनानामनाज्ञया स्वच्छन्दं व्यवहरन्तः परस्परमशनपानादिरूपं व्यवहारं कुर्वन्तीति । भावव्यवहारो द्विधा - आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो व्यवहारपदार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः व्यवहारप्र रूपणा. ।। ५५ ।। nelibrary.org Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णम्. SAURANUSSACROCOCOMCNGA "उपयोगो भावनिक्षेपः" इति वचनात्। नोआगमतश्च पञ्चविधः, नोशब्दस्य देशवचनत्वात् ॥३॥ पश्चविधत्वमेवाह- पचविधव्यहाआगम सुअ आणा धारणा य जीए अ होइ बोहवे । एएसिं पंचण्हं, पत्तेय परूवणं वुच्छं ॥४॥ वहाराभिधा नानि. | 'आगम'त्ति । आगमः श्रुतमाज्ञा धारणा च जीतं चति पञ्चविधः खल्वेष व्यवहारो बोद्धव्यो भवति, एतेषां पञ्चानां प्रत्येकं प्ररूपणां वक्ष्ये ॥४॥ यथा प्रतिज्ञातमेवाह आगमव्यवतत्थागमो विसिटुं, नाणं ववहारकज्जपविभत्तं । सो दुविहो णायबो, पञ्चक्खपरोक्खभेएणं ॥ ५॥ हारप्ररूपहै पञ्चक्खो वि अदुविहो, इंदियणोइंदिएहिँ णायबो। पढमो विसए विइओ,ओहीमणकेवलेहिँ तिहा ॥६॥ 'तत्थ'त्ति । 'तत्र' पञ्चविधे व्यवहारमध्ये व्यवहारकार्येण प्रविभक्तं-दानाभवत्प्रायश्चित्तकर्त्तव्यताविषयविभागावच्छिन्नं त विशिष्टम् अन्यानुपजीविप्रामाण्यकं ज्ञानम् आगमः, उपचारात्तन्मूलः शब्दोऽपि । 'स' आगमः प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन द्विविधो ? ज्ञातव्यः॥५॥ पच्चक्खो वि अत्ति । प्रत्यक्षोऽपि चागमो द्विविध इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां ज्ञातव्यः। प्रथमः' इन्द्रियप्रत्यक्षागमः विषये रूपादौ ज्ञातव्यः, यदाह-"इंदियपञ्चक्खो वि य, पंचसु विसएसु णेयवो।"त्ति, इदं चागमनिक्षेपसामान्याभि-18 प्रायेणोच्यते न तु प्रकृताभिप्रायेणेति द्रष्टव्यम् । 'द्वितीयः' नोइन्द्रियप्रत्यक्षागमोऽवधिमनःपर्यायकेवलज्ञानेत्रिविधः॥६॥ दाएतेषामवधिज्ञानादीनां त्रयाणां नोइन्द्रियप्रत्यक्षत्वाविशेपेऽपि व्यवहारदानेऽन्यापेक्षानपेक्षाभ्यां विभागमाह कयसुअनाणाविक्खा, ववहारं दिति ओहिमणनाणी। केवलनाणेणं चिय, केवलनाणं तयं दिति ॥७॥ For Private Personal Use Only ww.jainelorary.org Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व. त्तियुतः विनिश्चयः ल्लासः स्वोपज्ञवृ-IN _ 'कय'त्ति । अवधिमनःपर्यायज्ञानिनौ प्रायश्चित्तनिमित्ते परिणामादिभेदे स्वतः प्रवर्त्तमानावपि विध्यंशे कृता श्रुतज्ञा नस्यापेक्षा याभ्यां तौ तथा व्यवहारं ददतः, श्रुतस्यादेशेनारूपिविषयेऽपि प्रवृत्तेः श्रुतापेक्षाया भगवद्बहुमानरूपत्वाच्च । द्वितीयो-टा केवलज्ञानिनस्तु केवलज्ञानेनैव तद्व्यवहारं ददते तस्यासहायत्वात् , तदुक्तं व्यवहारे-“ओहीगुणपच्चइए जे वटुंती सु अंगवी धीरा । ओहिविसयनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे ॥१॥ उज्जुमई विउलमई, जे वटुंती सुअंगवी धीरा । मणपजवनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे ॥२॥ आदिगरा धम्माणं, चरित्तवरनाणदंसणसमग्गा। सवत्तगनाणेणं, ववहार ववहरति जिणा ॥३॥"॥७॥ उक्तः प्रत्यक्षागमः, अथ परोक्षागममाहपच्चक्खागमसरिसो, होइ परोक्खागमो अ ववहारो। चउदसदसपुवीणं, नवपुवियगंधहत्थीणं ॥८॥ _ 'पञ्चक्खागमत्ति । परोक्षागमश्च व्यवहारः प्रत्यक्षागमसदृशः, श्रुताद्यतिशयलक्षणेन केनचित्साधर्येण चन्द्रमुखीत्या| दाविवात्र सादृश्यव्यवहारात् । केषाम् ? इत्याह-चतुर्दशपूर्विणां दशपूर्विणां नवपूर्विकाणां च गन्धहस्तिसमानाम् ॥८॥ है उक्तमेव सादृश्यं विशेषेण प्रकटयन्नाह ते जाणंति जह जिणा, दवं खित्तं च काल भावं च।वुद्धिं वा हाणिं वा, रागद्दोसाण पच्छित्ते ॥ ९॥ का 'ते'त्ति । 'ते' चतुर्दशपूादयो यथा 'जिनाः' केवलिनस्तथा जानन्ति श्रुतशक्तिबलेन सर्व द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं च 18 तथा प्रायश्चित्ते तुल्येऽप्यपराधे पञ्चकयोग्ये एकस्य पञ्चकं देयमन्यस्य मासेन मासाभ्यां मासेवो वृद्धम् , ॥५६॥ For Private Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदो मूलमनवस्थाप्यं पाराश्चितं वा । तथा तुल्येऽपि पाराञ्चितयोग्येऽपराधे एकस्य पाराश्चितकमपरस्यानवस्थाप्यं मूलं छेदो वा मासेन मासाभ्यां मासैर्वा हीनं तपो वा यावन्नमस्कारसहितमित्यादि । प्रायश्चित्तविषये निमित्तभूतां रागद्वे-18 षयोवृद्धिं वा हानि वा यथा जिना जानन्ति तथा श्रुतकेवल्यादयोऽपीति तेषां तत्सादृश्यम् ॥ ९॥ ननु केवलिन एवं तावत्कथं स्तोकेऽपराधे बहु प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति भूयसि च स्तोकम् ? इति तत्राह थोवं बहुंच दिति उ, आगमिआ रयणवणिअदिटुंता । पारुक्खी जं जाणइ, दिद्रुतो तत्थ धमएण॥१०॥ RI 'थोति । तुल्येऽप्यपराधे स्तोकं वहु च प्रायश्चित्तं ददति 'आगमिकाः' आगमव्यवहारिणो रत्नवणिग्दृष्टान्तात् , यथा रत्नवणिग्महतोऽपि काचमणेमूल्यं काकिनीमात्रं ददाति वज्ररत्नस्य त्वल्पस्यापि शतसहस्रं तथागमव्यवहारिणोऽपि रागद्वेषस्तोकतायां महत्यप्यपराधेऽल्पं प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति तद्वद्धौ च स्वल्पेऽपि बहु प्रयच्छन्तीति । परोक्षज्ञानी कथं परभावं जानाति ? इत्यत्र दृष्टान्तमाह-'पारुक्खि'त्ति । 'परोक्षी' परोक्षज्ञानी यज्जानाति तत्र 'ध्मायकेन' शङ्ख मायकेन दृष्टान्तः, यथा-नाडिकायां गलन्त्यामुदकगलनपरिमाणतो जानात्येतावत्युदके गलिते यामो दिवसस्य रात्रेवा जगत इति, ततोऽन्यस्य परिज्ञानाय शङ्खध्मायति । तत्र यथान्यो जनः शङ्खस्य शब्देन श्रुतेन यामादिलक्षणं कालं जा नाति तथा परोक्षागमज्ञानिनोऽपि श्रुत्वाऽऽलोचनामालोचकस्य यथावस्थितं भावं जानन्ति । ज्ञात्वा च तदनुसारेण प्रायश्चित्तं ददतीति ॥ १० ॥ कथं तद्ददति ? इत्याहपच्छित्तं दिति इमे, आगमआलोअणाण तुल्लत्ते।साहेति पुणो दोसे, मायासहिए ण साहिति ॥११॥ For Private Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCREELCAR स्वोपज्ञवृ गुरुतत्त्व 'पच्छित्तति । प्रायश्चित्तं ददति 'इमे' आगमव्यवहारिण आगमालोचनयोस्तुल्यत्वे, तथाहि-यद्यप्येते आलोचकस्या-18 त्तियुतः विनिश्चयः मापराधं स्वयं जानन्ति तथाप्येतेषां पुरत आलोचना तीर्थकरैग्राह्यतयोक्ता । यत आलोचयन्नालोचक एतैः प्रोत्साह्यते। द्वितीयो ल्लास: व वत्स! धन्यस्त्वं यदेवं मानं निहत्यात्महितार्थतया स्वरहस्यानि प्रकटयसि महादुष्करमेतद्'इति, एवं च प्रवर्द्धमानपरिणामः || ॥ ५७॥ स आराधको भवतीति । तथा चालोचनाद्रव्यक्षेत्रादिक्रमेण प्रदत्तागमेन च सर्व सम्यग् निर्णीतमित्येवमुभयोस्तुल्यत्व मिति 'साहेति' कथयन्ति पुनर्दोषान् योऽकुटिलभावेनालोचयन् सद्भावतो न संस्मरतीति । मायासहिते तु न कथ-18 हायन्ति किन्तु वदन्त्यन्यतो गत्वा शोधिं कुर्विति ॥ ११ ॥ उक्त आगमव्यवहारः। अथ श्रुतव्यवहारमाहचउदसपुवधरेणं, णिजूढं भदबाहुणा सुत्तं । ववहारो सुअणामा, दुवालसंगरस णवणीयं ॥ १२ ॥ श्रुतव्यवहा. रनिरूपणम् । 'चउदसति । चतुर्दशपूर्वधरेण भद्रबाहुना यत्सूत्रं निहं द्वादशाङ्गस्य 'नवनीत' सारभूतं व्यवहारपञ्चकमयं स श्रुतनामा व्यवहार इति ॥ १२ ॥ उक्तः श्रुतव्यवहारः । अथ धारणा (आज्ञा)व्यवहारमाहसलुद्धरणाभिमुहो, अवलो अपरकमस्स गीअस्स । मइधारणासु निउणं, सीसं पेसेइ पासम्मि ॥१३॥ आज्ञाव्यव हारनिरूप'सल्लुद्धरण'त्ति । कश्चिदुत्तमार्थे व्यवसितो यत्किमपि शल्यमनुद्धृतं तस्योद्धरणाभिमुखो जातः । आचार्याश्च पत्रिंश-81 णम्. बता दरदेशस्थाः। स चाबलः क्षीणजवाबलतया तत्साधै गन्तुमसमर्थः। गीतार्थोऽपि प्रायश्चित्तदाताऽपराक्रमो। देशान्तरादागन्तुमसमर्थस्ततः स चिन्तयति-अहमपराक्रमो जातः, कारणं च मेऽष्टादशान्यतरविराधनारूपं गीतार्थेपा- ॥५७ ।। RECEICCCCCCORECASSESCR RENCY lain Education International For Private & Personal use only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |र्श्वगमननिमित्तमुत्पन्नमित्याज्ञामिच्छामीति ततो मतिधारणयोर्निपुणं शिष्यं गीतार्थस्य पार्श्वे प्रेषयति ॥ १३ ॥ सो गीओ तं सीसं, आणापरिणामगं परिच्छिना । पेसेइ बुहं णाउं, उवट्टियालोअणं सोउं ॥ १४ ॥ 'सो'त्ति । 'सः' आलोचनाचार्यो गीतार्थोऽपराक्रमः सन् यं प्रेषयितुमिच्छति तं शिष्यमाज्ञापरिणामकं परीक्षेत । आज्ञापरिणामको नाम कारणपृच्छां विनैव य आज्ञायाः कर्त्तव्यतां श्रद्धत्ते । तत्परीक्षा च वृक्षादिदृष्टान्तैः कार्या, तत्र वृक्षदृष्टान्तो यथा - महतो वृक्षान् दृष्ट्वोक्तमाचार्येण शिष्यं प्रति-अस्मिन्नुञ्चैस्तरे वृक्षे विलग्य प्रपातं कुर्विति । तत्रातिपरिणामको ब्रूते - करोम्यस्माकमध्येपैवेच्छेति । स गुरुणा सोपालम्भं निवारणीयः - किमपरीक्ष्य मद्वचनार्थं त्वमेयं प्रलपसीति । अपरिणामकरतु जानाति न वर्त्तते वृक्षे विलगितुं साधोः सचित्तत्वाद्वृक्षस्य प्रपातं कुर्वतञ्चात्मविराधना भवति सा च भगवता निषिद्धा तन्नूनमहमनेनोपायेन हन्तव्योऽभिप्रेत इति । स एवमनुशासनीयः - वत्स ! न मया तव सचित्तवृक्षारोहृणं विधेयमुक्तम्, न वर्त्तते साधोर्वृक्षे विलगितुमिति, किन्तु भवसमुद्रमध्यप्राप्तं तपोनियमज्ञानवृक्षमारुह्य संसारगर्त्त कूलमुलयेति भणितस्त्वमिति । परिणामकस्तु जानाति न खलु मदीया गुरवः स्थावराणामपि पापमिच्छन्ति किं पुनः पञ्चेन्द्रियाणाम् ? इति भवितव्यमत्र कारणेने त्यारोहणे व्यवसितो भवति, स च वाहौ धृत्वावष्टभ्य गुरुणा वारणीय इति । एवं बीजादिदृष्टान्ता अध्यागमादवसेयाः । ततस्तं शिष्यं परीक्ष्य 'बुद्ध' परिणतं ज्ञात्वा उपस्थितस्य - आलोचनार्थं व्यवसितस्यालोचनां श्रोतुं प्रेषयति ॥ १४ ॥ सो पुण तस्स सगासे, करेइ सोहिं पसत्थजोगेणं । दुगतिग चउसु विसुद्धं, तिविहे काले वियडभावो ॥१५॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः ल्लासः 'सो पुण'त्ति । 'सः' आलोचयितुकामः पुनः 'तस्य' प्रेषितस्य शिष्यस्य सकाशे प्रशस्तयोगेन शोधि गुरुतत्त्व18 भेदां चतुर्विशुद्धां त्रिविधे च काले 'विकटभावः' अप्रतिकुञ्चनः॥ १५ ॥ द्विभेदादित्वमेव विवेचयति विनिश्चयः द्वितीयो. है दुविहा उ दप्प कप्पे, तिविहा नाणाइआण अट्ठाए।दवे खित्ते काले, भावे अ चउबिहा सोही ॥१६॥ ॥५८॥ आलोइज्जा काले, तीयपडुप्पन्नणागए तिविहे । अइआरे वयछक्काइआण अट्ठारसण्हं पि ॥ १७ ॥ | 'दुविहा उत्ति । द्विविधा तु दर्प कल्पे च त्रिविधा, 'ज्ञानादीनां' ज्ञानदर्शनचारित्राणां 'अर्थाय' अतिचारविशुद्धि-13 लाभाय, प्रशस्ते द्रव्ये प्रशस्ते क्षेत्रे प्रशस्ते काले प्रशस्ते भावे च 'चतुर्विधा' चतुर्विधविशुद्धिमती शोधिर्भवति ॥ १६ ॥ 'आलोइज्जत्ति । आलोचयेत्रिविधे कालेऽतीते प्रत्युत्पन्ने च सेविताननागते च सेविष्य इत्यध्यवसितानतिचारान् व्रतषकादीनामष्टादशानामपि स्थानानाम् ॥ १७ ॥ आलोच्यमानातिचारभङ्गोत्पत्तिप्रकारमाहदप्पस्स य कप्पस्स य, दस चउवीसंच हुंति खलु भेआ।णायवा ते एए,अहक्कममिमाहिं गाहाहिं॥१८॥ | 'दप्पस्स यत्ति सुगमा ॥१८॥ दप्प अंकप्पणिरालंब चियत्ते अप्पसत्थवीसत्थे। अपरिक्ख अंकडजोगी,अणाणुतावी अणिस्संको॥१९॥ | दशा _ 'दप्पत्ति। 'दर्पः' धावनडेपनादिः, धावनं-निष्कारणमतित्वरितमविश्रामं गमनम्, डेपनं-गर्त्तवरण्डादीनां रयेणोलवनम् , आदिशब्दान्मल्लवद्वाहुयुद्धकरणलकुटभ्रमणादिकं गृह्यते १। 'अकल्पः' पृथिव्यादिकायानामपरिणतानां ग्रहणम्, SASARSONASHA दर्पः ५ in Education International an Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदकासस्निग्धसरजस्काभ्यां हस्तमात्रकाभ्यामादानम्, अगीतार्थोत्पादिताहारोपधिपरिभोगः, पञ्चकादिप्रायश्चित्तयोग्य-र मपवादविधिं त्यक्त्वा गुरुतरदोषासेवनं चेति २। 'निरालम्बः' ज्ञानाद्यालम्बनं विनापि निष्कारणमकल्पिकासेवनम. यद्वामुकेनाचरितमित्यहमप्याचरामीति ३। 'चियत्तेत्ति, 'त्यक्तकृत्यः' त्यक्तचारित्रः-अपवादेनासंस्तरणे ग्लानादिकारणे वा यदकल्प्यमासेवितं पुनस्तदेव संस्तरणेऽपि निवृत्तरोगोऽपि यदासेवते ४ । 'अप्रशस्तः' अप्रशस्तभावेन बलवर्णाद्यर्थ यत्नासुकमपि भुले किं पुनरविशुद्धमाधाकर्मादि १५। 'विश्वस्तः' प्राणातिपाताद्यकृत्यं सेवमानः स्वपक्षात् श्रावकादेः परपक्षान्मिथ्यादृष्ट्यादेन बिभेति ६ । 'अपरिक्ख'त्ति, 'अपरीक्षकः' उत्सर्गापवादयोरायव्ययावनालोच्य यः प्रतिसेवते ७ । 'अकृतयोगी'ग्लानादिकार्येषु गृहेषु त्रिः पर्यटनरूपं व्यापारमकृत्वैव योऽनेषणीयमासेवते, अथवा संस्तरणादौ त्रीन् वारानेषणीया पर्यटता शेषगृहेणाप्यप्राप्तैषणीयेन चतुर्थवेलायामनेषणीयं ग्राह्यमित्येवं व्यापारमकृत्वैव प्रथमद्वित्रिवेलास्वप्यनेषणीयं गृह्णाति ८ 'अननुतापी' यः साधुरपवादेनापि पृथिव्यादीनां सङ्घटनपरितापनोपद्रवान् कृत्वा नानुतप्यते यथा 'हा! मया दुष्ठ कृतम्' इति, यस्तु दर्पणाप्यासेव्य नानुतप्यते किं तस्योच्यते ? ९ । 'निःशङ्कः' निरपेक्षःअकार्य कुर्वन् कस्याप्याचार्यादे शङ्कते नेहलोकादपि बिभेति १० । एते दर्पस्य दश भेदाः ॥ १९॥ दसण नाण चरित्ते, तैव पैवयण समिइ युत्तिउं वा । साहम्मिअवच्छल्लेण वावि कुलओ गणस्सेव ॥२०॥ चतुर्विंशतिसंघस्सायरियस्स य, असहुस्स गिलाण बोल बुड्ढस्स।उँदय गिर्ग चोरै साँवय, भैय कतीरा वैई वेसणे २१/ कल्पभेदा'दसण'त्ति । दर्शननिमित्तं-दर्शनप्रभावकाणि सम्मत्यादीनि प्रमाणशास्त्राणि गृह्णन् यदसंस्तरणेऽकल्प्यमपि प्रतिसेवते भिधानम्. USHA Jain Education international Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSSC खोपज्ञवृ-दा। ज्ञाननिमित्तं-सूत्रमर्थ वाऽधीयानो यदकल्प्यमासेवते २। चारित्रनिमित्तं-यत्र क्षेत्रे एषणादोषः स्त्रीदोषो का ततः | गुरुतत्त्वत्तियुतः । क्षेत्राच्चारित्रार्थिना निर्गन्तव्यमिति ततो निर्गच्छन्नक्षमत्वाद्यदकल्प्यमासेवते ३ । तपोनिमित्तं-यत्तपः करिष्यामीति वुझ्या विनिश्चयः द्वितीयो- प्रतादि पिवेत , कृते वा विकृष्टतपसि मासक्षपणादौ लाजातरणादि पिवेत् , तीर्यत इवास्यामति स्वच्छतयेत्यधिकरणेऽनटिका ल्लास: दातरणं, लाजा-भ्राष्टा वीयस्तैर्निवृत्तं तरणं लाजातरणम् , उपचारात्पेयाऽभिधीयते तां पिवेत् , यद्वाऽऽधाकर्मादि तस्मै दद्यान्माऽन्येन शीतादिना रोगो भूत् , शर्करामलकादयोऽस्य वा दीयन्त इति ४ । प्रवचनरक्षानिमित्तं-विष्णुकुमारादिव- । वैक्रियकरणादि ५ । समितिहेतोः-ईर्यासमितिर्न शुद्ध्यतीति चक्षुर्निमित्तं वैद्योपदेशादौषधादिपानं कुर्यात् , कथमपि31 चित्तव्याक्षेपादिसम्भवे मा भाषासमितावसमितो भूवमिति तत्पशमनार्थमौषधादि पिबेत् , ग्लानत्वादिभावे मा आधार्मिक ग्रहीपमिति शङ्कितादिषु दोषेष्वसंस्तरणे एषणासमित्यर्थमकल्प्यं गृह्णीयात्, दीर्घावप्रतिपत्तौ वाध्वकल्पं सेवेत, आदाननिक्षेपणासमित्यै कश्चित्कम्पवातादिना कम्पमानकरोऽन्यत्र प्रमार्जयत्यन्यत्र वस्तु निक्षिपत्यतस्तत्पशमनार्थमौषधादि वि-15 दध्यात्, पारिष्ठापनिकासमित्यै स्थण्डिलाभावे कायिकी सञ्ज्ञां वा कदाचिदक्षमतया पृथिव्यादीन् विराधयन्नपि कुर्वीत, मा ममेदानी कायिक्याद्याबाधया मृत्युभूत् , जीवन् पुनरिमां समितिं यथावस्थितां पालयिष्यामीति ६ । गुप्तिहेतोः कदाचिद्विपमातङ्कादावनन्यौषधप्रतिकार्ये वैद्योपदिष्टं विकटं स्वल्पमेवासेवते माऽहं वैकल्प्यान्मनोवाक्कायैरगुप्तो भूवमिति है। साधर्मिकवात्सल्यन हेतुना किञ्चिदकल्प्यं प्रतिसेवते यथा-वज्रस्वामिनाऽशिखाकमुण्डः पटेऽधिरोप्य दुर्भिक्षानिस्तारितः, न चैतत्कल्पते, असंयतस्याऽऽस्स्वेत्याद्याज्ञादानस्यापि निषिद्धत्वात् ८। कुल ९ गण १० सङ्घ ११ कार्येषु समुत्पन्नेषु । ACCESSAROGA COCOCOCONCROCCORROCIEOCHOCAL ५९ lain d an International For Private & Personal use only Sanelibrary.org Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARASHLICAUSESEARS वशीकरणादि चूर्णयोगादि वा करोति ११ । आचार्यासहिष्णुग्लानबालवृद्धानां च येन समाधिर्भवति तद्विधीयते । तत्र राजयुवराजामात्यश्रेष्ठिपुरोहिता असहिष्णवः पुरुषा भण्यन्ते, एते ह्यन्तप्रान्तविपरिणाम्यन्ते, बालवृद्धौ च कारणाही. क्षितौ भवेयातां, यथाऽऽर्यवज्रस्वामी आर्यरक्षितपिता च, एतदर्थ पञ्चकदशकाद्यापत्तिक्रमेण यावदाधाकर्माप्यादीयत ४ इति १६ । 'उदक' नदीप्रवाहादि, अग्निः-दावाग्निः, चौरा द्विधा-वस्त्राद्यपधिहारिणः शरीरहारिणश्च, श्वापदाः-सिंह सिन्धुरव्याघ्रादयः, तन्निमित्तकोपद्रवोपस्थितौ स्तम्भनविद्यया नदीपूरादिकं स्तनीयात् , विद्याया अभावे पलायनं क्रियते, पलायनासमर्थत्वे श्रान्तत्वे वा सचित्तवृक्षेऽप्यारुह्यते २०॥ तथा भयं-धाट्यादिस्तस्मिन् सति पलायमानः पृथिव्यादीन् विराधयेत् २१ । कान्तारः-अरण्यानी यत्र भक्तपानादिलाभो न संभवत्येव तत्र कदल्यादिफलान्युदकादि वा प्रासुकमाददीत २२ । आपद्-द्रव्यक्षेत्रकालभावश्चतुर्की, द्रव्यतः प्रासुकोदकाद्यलाभे, क्षेत्रतो दीर्घावप्रतिपत्ती, कालतो दुर्भिक्षादौ, भावतो ग्लानत्वादी, तत्र किश्चिदकल्प्यमपि प्रतिसेव्यते २३ । व्यसननिमित्तं-पूर्वाभ्यासजनितप्रवृत्तिहेतो. गीतव्यसनी दीक्षितः कोऽपि गीतोच्चारं कुर्यात् , ताम्बूलव्यसनी वा प्रव्रजितः पक्कशुष्कताम्बूलपत्रादिकं मुखे प्रक्षिपेदिति २४ । एते चतुर्विंशतिः कल्पभेदाः ॥ २० ॥२१॥ दर्प-कल्पठावेउ दप्पकप्पे, हेट्ठा दप्पस्स दस पए ठावे । कप्पस्स चउबीसइ, तेसिमह हारस पयाइं ॥ २२॥ स्थापनाकर| 'ठावेउ'त्ति । स्थापयित्वा उपरि दर्पकल्पौ दर्पस्याधस्तादश पदानि स्थापयेत् , कल्पस्याधस्ताच्चतुर्विंशतिः । तेषां दश- णविधिः. चर्विशतिपदानामधोऽष्टादश पदानि व्रतपदादीनि स्थापयेत् ॥ २२ ॥ तथा च SACANCIESCACAMA CRACRENC For Private & Personal use only Lainelibrary.org Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ. त्तियुतः द्वितीयो. SSSSSSSSSS दप्पम्मि असीइसयं, चत्तारि सयाणि हुंति बत्तीसं। कप्पम्मि य संजोगा,पढमाइपएहिँ अभिलप्पा ॥२३॥ गुरुतत्त्व. | 'दप्पम्मित्ति । दर्पेऽशीत्यधिक शतं कल्पे च चत्वारि शतानि द्वात्रिंशच्च संयोगा अगीतार्थाप्रत्यायनाय गढरीत्या-IIविनिश्चयः लोचकेनोच्चार्यमाणः प्रथमादिपदैरभिलप्याः, तथाहि-"पढमस्स य कजस्सा, पढमेण पएण सेविअंजं तु । पढमे छक्के ल्लास: अभितरं तु पढमं हवे ठाणं ॥१॥" अत्र प्रथमस्य कार्यस्य दपिकासेवालक्षणस्य प्रथमेन पदेन तद्भेदान्तर्गतेन दर्पणाssसेवितं यत् प्रथमे षट्रेऽभ्यन्तरमन्तर्गतं प्रथम प्राणातिपाताख्यं भवेदतीचारस्थानमापन्नम् । इत्येवं गूढपदेन प्राणातिपातातिचारनिर्देशः। एवं-"बिइयं भवे ठाणं, तइयं भवे ठाणं, बिइए छक्के, तइए छक्के, बिइएण पएण, तइएण पएण" इत्यादि क्रमेण चारणिकयाऽशीत्यधिकं शतं भवति । एवं-"बिइअस्स य कजस्स य, पढमेण पएण सेविअं जं तु ।" इत्यादि क्रमेणापि द्वात्रिंशदधिकानि चत्वारि शतानि भवन्तीति ॥ २३ ॥ स्थापना चेयम् ॥दर्पयन्त्रकम् ॥ १.२ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० 5-56-0-50-50- 5500RS. ॥ कल्पयन्त्रकम् ।। | १ | २ ३ ४ ५ ६/७/८/९/१०/११/१२/१३/१४/१५/१६/१७ १८ १९/२०/२१२२/२३/२४ For Private & Personal use only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोऊण तस्स पडिसेवणं तु आलोअणाकमविहिं च ।आगम पुरिसज्जायं, परिआय बलं च खित्तं च ॥२४॥ 'सोऊणं'ति । श्रुत्वा 'तस्य' आलोचकस्य प्रतिसेवनां 'आलोचनाक्रमविधिं च' आलोचनाक्रमपरिपाटी चावधार्य तथा तस्य यावानागमोऽस्ति तावन्तमागमं तथा 'पुरुषजातं'अष्टमादिभिर्भावितमभावितं वा पर्यायं गृहस्थपर्यायो यावानासीत् यावांश्च तस्य व्रतपर्यायस्तावन्तमुभयं पर्यायं 'वलं' शारीरिक तथा यादृशं तत्क्षेत्रमेतत्सर्वमालोचकाचार्यकथनतस्ततो दर्शनतश्चावधार्य स्वदेशं गच्छति ॥ २४॥ आहारेउं सवं, सो गंतूणं पुणो गुरुसगासं । तेसि णिवेएइ तहा, जहाणुपुट्विं गयं सवं ॥ २५॥ । _ 'आहार'ति । स आलोचनाचार्यप्रेषितं 'सर्वम्' अनन्तरोदितम् 'आ' समन्ताद्धारयित्वा पुनरपि स्वदेशागमनेन 3 गुरुसकाशं गत्वा 'तेषां' गुरूणां सर्व तथा निवेदयति यथा 'आनुपूर्व्या' परिपाट्या 'गतम्' अवधारितम् ॥ २५॥ सीसस्स देइ आणं, पएहिँ संकेइएहिँ सो निउणो । देइ इमं पच्छित्तं, एसो आणाइववहारो ॥२६॥ _ 'सीसस्सत्ति । स 'निपुणः' व्यवहारविधिज्ञो गीतार्थः शिष्यस्य सङ्केतितैः पदैराज्ञां दत्ते इदं प्रायश्चित्तं देहीति, एष आज्ञाव्यवहारः। सङ्केतितपदैराज्ञादानं चेत्थम्-"पढमस्स य कन्जस्स य, दसविहमालोअणं निसामित्ता । णक्खत्ते भे पीडा, सुक्के मासे तवं कुणह॥१॥"चउमासतवं कुणह सुक्के" "छम्मासतवं कुणह सुक्के" इति सञ्चारितान्त्यपदा पुनरेव गाथा द्विः पठनीया। आसामर्थः-'प्रथमस्य कार्यस्य' दर्पिकासेवनाख्यस्य 'दशविधां' दर्पाकल्पादिदशपदगर्भितामालो प्रत. ११ For Private Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवृ- चनां निशम्य नक्षत्रे 'भे' भवतां 'पीडा' पीडकत्वेनोपचाराद्विराधना, कोऽर्थः ? चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकभेदपञ्चविध- गुरुतत्त्वत्तियुतः ज्योतिश्चक्रमध्ये नक्षत्रभेदश्चतुर्थः, अतोऽनेन चतुर्थव्रतगोचराविराधना सूच्यत इत्येके व्याचक्षते । अन्ये त्वाषाढाद्याः विनिश्चयः द्वितीयो-न संवत्सरा इति तदाद्यदिने ज्येष्ठपूर्णिमानन्तरप्रतिपदि संवत्सरे मूलनक्षत्रं भवति, ततः प्राधान्यादत्र नक्षत्रशब्देन मूलं ल्लास: भणति तेन मूलगुणविराधनां प्राणातिपाताद्यतिचाररूपा ज्ञापयन्ति । अपरे त्वादिषु नक्षत्रेषु सर्वेषु वृष्टेऽपि मेघे हस्त॥६१॥ वृष्टिं विना न धान्यानि विशिष्टां पुष्टिं बध्नन्ति ततो हस्तस्य प्राधान्यमिच्छन्तोऽत्र नक्षत्रध्वनिना हस्तं निर्दिशन्ति ततो हस्तेनादत्तमात्तं हस्तकर्म वा कृतमिति तृतीयचतुर्थव्रतातिचारसूचा । एके तु नक्षत्राणि लोके सप्तविंशतिर्व्यवहियन्त इति नक्षत्रशब्देनानगारगुणानां मूलोत्तरगुणरूपाणां सप्तविंशतिसङ्ख्यानां विराधनामाहुः । तत्रोत्तरगुणविराधनायां शुक्शब्दवाच्यानामुद्धातिमानां मासिकचातुर्मासिकषण्मासिकानां यथाक्रमं ग्रहणम् । मूलगुणविराधनायां तु कृष्णशब्दवाच्यान्यनुद्धातिमानि तानि गृह्यन्त इति जीतकल्पवृत्त्यभिप्रायः । व्यवहारवृत्तौ तु नक्षत्रशब्देनात्र मासः सूचितः, 'मासे' मासप्रमेयप्रायश्चित्तविषये 'भे' भवतः 'पीडा' व्रतषटकायषपीडाऽकल्पादिषट्पीडा वासीदिति व्याख्यातम् । चूर्णिकृतोऽप्ययमेवाभिप्राय इति ध्येयम् । छेदादीनां च गूढपदैरित्थमाज्ञादानम्-"छिंदित्तु तयंभाणं, गच्छंतु वयस्स साहुणो मूलं । अवावडा व गच्छे अब्बीआ वावि विहरंतु ॥१॥"'तद्भाजनं' पूर्ववतपर्यायरूपं 'छिन्दन्तु' तन्मध्यात्कियन्तमपि पोयमपनयन्तु, स च च्छेदस्तपोभूमिमतिक्रान्तस्य पञ्चकादिदशकादिरूपतया तत्तदतिचारापेक्षया यावत्स-11॥ ६१॥ । योयः प्राप्यते तावत्क्रियते, ते चैवं छेदविभागा आज्ञाप्यन्ते-"छब्भागंगुल पणगा, दसराए तिभाग अद्ध पन्नरसे । वी-1 Main Education International For Private & Personal use only wnwir.jainelibrary.org Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OSS SSSSSSSS साहतिभागणं, छन्भागूणं तु पणवीसा ॥२॥ मासचउमासछक्के, अंगुलचउरो तहेव छकं तु । एए छेयविभागा. ना-18 यवा अहक्कमेणं तु ॥ ३॥" इहाङ्गलशब्देन माससङ्केतः, ततश्च पञ्चके दिनपश्चके छेद्येऽङ्गलषड्भागश्छेद्य इति व्यपदिशन्ति । भवन्ति हि त्रिंशदिनमानस्य मासस्य षड्नागे छेद्ये पञ्च दशरात्रे छेद्ये त्रिभागः, पञ्चदशसु छेद्येष्वर्द्ध, विंशतो छद्यायां त्रिभागोनमङ्गलं, पञ्चविंशतौ छेद्यायां षड्भागोनमङ्गुल छेद्यमिति । एकद्वित्रिचतुःपञ्चषडादिमासेषु च्छेद्येषु तत्सङ्ख्यान्यङ्गलानि च्छेद्यानीति निर्दिशन्ति । एते छेदविभागाः क्रमेण ज्ञातव्याः। सर्वपर्यायच्छेदेनाप्यशुद्धौ गच्छन्तु साधवो व्रतस्य मूलमष्टमप्रायश्चित्तभाजो भवन्तु, तस्याप्यतिक्रमे 'अव्यापृताः गच्छेयुः' अव्यापारास्तिष्ठन्तु अनवस्थाप्या भवन्त्वि-२ त्यर्थः । तेनाप्यशुद्धौ ‘अद्वितीया वा विहरन्तु' एकाकिनः सन्तो दशमप्रायश्चित्तासेविनो भवन्त्विति दर्पिकासेवनाप्राय|श्चित्तान्युक्तानि । कल्पिकासेवनायामप्ययतनामूलायामेतादृशं प्रायश्चित्तम् , यद् व्यवहारचूर्णिकृत्-"एत्थ जंकप्पेणं तं अजयणाए णायचं ।" यतनामूलायां तु तस्यां न किञ्चित्रायश्चित्तं शुद्धत्वात् , तथा चात्राह-"बिइअस्स य कजस्स य, तहियं चउवीसई निसामेत्ता । आउत्त णमुक्कारा, भवंतु एवं भणिज्जाहि ॥१॥” द्वितीयस्य कार्यस्य कल्पाख्यस्य दर्शनादिपदगोचरामासेवनां शिष्येण कथितां श्रुत्वा गुरुराह-आयुक्ताः' संयमोद्यमविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिस्मरणपरा भवन्तु, सूरयोऽप्रायश्चित्तिन इति भावः। केवलं कारणप्रतिसेवापि सावद्या नेष्यते, इष्यते तु यद्यप्यत्यागाढकारणेषु तथापि तदुर्जने न दोषो दृढधर्मता ह्येवं नाभीक्ष्णसेवा निर्दयता चेति ॥२६॥ उक्त आज्ञाव्यवहारः। अथ धारणाव्यवहारमभिधित्सुराह CARASAACSKAS For Private Personal Use Only Jain Education international in.jainelorary.org Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ -19 उद्धारणा विधारण, संधारण संपधारणा चेव । चत्तारि धारणाए, एए एगट्ठिया हुँति ॥ २७ ॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः PI 'उद्धारण'त्ति । उत्-प्राबल्येन उपेत्य वोद्धृतानामर्थपदानां धारणोद्धारणा १, विविधैः प्रकारैर्विशिष्टं वार्थपदमुद्भुतं विनिश्चयः द्वितीयो यया धारयति सा विधारणा २, सम्शब्द एकीभावे उद्धृतविधतान्यर्थपदानि यस्मादात्मना सहकभावेन धारयति । ल्लासः ॥१२॥ तस्मात्संधारणा ३, तथा यस्मात्सन्धार्य सम्यक् प्रकर्षणावधार्य व्यवहारं प्रयुङ्क्ते तस्मात्संप्रधारणा ४ । एतानि चत्वारि &ारणाय धारणाया एकार्थिकानि नामानि भवन्ति ॥ २७॥ हारःधारबहुगुणजुत्ते पुरिसे, तिगविरहे होइ किंचि खलिएसु।अत्थपएहिं उ एसा, अणुओगविहीइ लद्धेहिं ॥२८॥ णाया एका| 'बहुगुणजुत्ते'त्ति । बहुगुणयुक्तो यः प्रवचनस्य कीर्तिमिच्छति, तथा दीयमानं प्रायश्चित्तमनुग्रहवन्मन्यते, तथा बहु- र्थिकानि. श्रुतो मार्गानुसारिश्रुतो वा तपस्वी विनयपरिपाकवांश्च भवति, तादृशे पुरुषे 'किश्चित्' मनाक् 'स्खलितेषु' मूलोत्तरगुणविषयप्रमाददोषेषु 'त्रिकविरहे' आगमश्रुताज्ञाऽप्राप्तौ 'अनुयोगविधौ' व्याख्यानवेलायां 'लब्धैः' यतनया प्राप्तः 'अ पदैः' छेदश्रुताथैः 'एषा' धारणा प्रवर्त्तते ॥ २८ ॥ प्रकारान्तरमाह अहवा जेणं सोही, कीरंती अण्णया हवे दिट्ठा । तारिसकारणपुरिसे, तं दाणं धारणाए उ ॥२९॥२ PI 'अहव'त्ति । अथवा येनान्यदा संविग्नगीतार्थपाचे द्रव्यादिप्रतिसेवनारूपा शोधिः क्रियमाणा दृष्टा तादृश एव का-1B हरणे द्रव्यादिलक्षणे तादृश एव च पुरुषे प्रतिसेवके 'तहान' अरक्तद्विष्टतया तादृशप्रायश्चित्तदानं धारणयैव ॥२९॥ -5 % For Private & Personal use only Lo nelibrary.org Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स पुनरपि प्रकारान्तरमाह यावच्चकरो वा, सीसो वा देसहिंडगो वावि । दुम्मेहत्ता सत्थं, ण तरइ सवं तु धारेउं ॥ ३०॥ IN तस्स उ उद्धरिऊणं, अत्थपयाइं तु दिति आयरिआ।तेहि उ कजविहाणं, देसावगमेण धारणया॥३१॥ 81 'वेयावच्चकरो वत्ति । 'तस्स उत्ति । 'वैयावृत्त्यकरो वा' गच्छोपग्रहकारी वा शिष्यो वाचार्याणां सम्मतः 'देशहि ण्डको वा' यो देशदर्शनं कुर्वतः सहाय आसीत् दुर्मेधस्तया 'सर्व' निरवशेष 'शास्त्रं छेदश्रुतार्थ धारयितुं न शक्नोति तस्यानुग्रहार्थमुद्धत्य 'अर्थपदानि' कानिचिच्छेदश्रुतसम्बन्धीनि ददत्याचार्याः, तैः कार्यविधानं 'देशावगमेन' च्छेदश्रुतदे शावधारणेन धारणया भवति । न चेयमपि गुरूपदेशमूलत्वादाज्ञैव, अत्र धारणाव्यापारस्यैव प्रवृत्त्यङ्गत्वादाज्ञाव्यापा-3 दरस्य सन्देशकवचनविश्वासार्थमेवोपयुक्तत्वादिति ॥ ३० ॥ ३१ ॥ उक्तो धारणाव्यवहारः। अथ जीतव्यवहारमाह वत्तणुवत्तपवित्तो कत्थइ अत्थम्मि जीअकप्पो उ।सो चेव ण पुण इपिंह, जं ववहारम्मि भणियमिणं ३२॥ जीतव्यवहा| 'वत्तणुवत्तत्ति । वृत्तः-एकवारं प्रकटीभूतः, अनुवृत्तः-द्वितीयवारं प्रवृत्तः-तृतीयवारं 'क्वचिदर्थे' वक्ष्यमाणप्रायश्चि- रोपवर्णनम्, त्तादिविशेषविषये 'जीतकल्पस्तु' जीतव्यवहारस्तु 'तुः' विशेषणे, किं विशिनष्टि? महाजनाचीर्णत्वं, तथा च 'प्रवृत्तिजनककर्त्तव्यताबोधहेतुर्महाजनाचार एव जीतम्'इति लक्षणम्, तेन न प्रथमप्रवृत्त्यादावप्रसङ्ग इति द्रष्टव्यम् । वृत्तानुवृत्तप्रवृत्तत्वं किञ्चिदर्थविषयत्वं च वस्तुस्थित्यनुरोधादुक्तम् । अत एवाह-'स एवं' जीतकल्प एव न पुनरिदानीं सर्वत्रार्थे JainEducation international For Private Personal use only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल्लास: प्रेरक: खोपज्ञ. श्रुतादरेपि सत्त्वाच्चतुर्णामनवकाश एव, पञ्चमस्य प्रवृत्तेः । यद्यवहारे भणितमिदम् ॥ ३२॥ गुरुतत्त्व त्तियुतः चोदेई वुच्छिन्ने, सिद्धिपहे तइयगम्मि पुरिसजुगे। वुच्छिण्णे तिविहे संजमम्मि जीएण ववहारो॥३३॥ विनिश्चयः द्वितीयो | 'चोदेई'त्ति । परश्चोदयति 'तृतीये पुरुषयुगे' जम्बूस्वामिनाम्नि सिद्धिपथे व्यवच्छिन्ने व्यवच्छिन्ने च 'त्रिविधसंयमे 18 ॥६३॥ परिहारविशुद्धिप्रभृतिके जीतेन व्यवहारः ॥ ३३ ॥ अत्र केचिदुत्तरमाहुःसंघयणं संठाणं, च पढमगंजो अ पुवउवओगो।ववहारचउक्कं पि य, चउदसपुविम्मि वुच्छिण्णं ॥३४॥ | 'संघयण'ति । प्रथमं संहननं-वज्रर्षभनाराचं, प्रथमं संस्थान-समचतुरस्त्रे, यश्चान्तर्मुहूर्तेन चतुर्दशानामपि पूर्वाणा६ मुपयोगः-अनुप्रेक्षणं, यच्चादिममागमश्रुताज्ञाधारणालक्षणं व्यवहारचतुष्कमेतत्सर्व चतुर्दशपूर्विणि व्यवच्छिन्नम् ॥ ३४॥ एतन्निराकुर्वन् भाष्यकृदाहआहायरिओ एवं, ववहारचउक्क जे उ वुच्छिण्णं । चउदसपुत्वधरम्मी, घोसंति तेसि ऽनुग्घाया ॥३५॥ आचार्यः | 'आहायरिओ'त्ति । एवं परेणोत्तरे कृते आचार्यः प्राह-ये 'एवं' प्रागुक्तप्रकारेण व्यवहारचतुष्कं चतुर्दशपूर्वधरे व्यु-13 हाच्छिन्नं घोषयन्ति तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो मासाः 'अनुद्धाताः' गुरुका मिथ्यावादित्वात् ॥ ३५ ॥ मिथ्यावादित्वमेव || तेषां प्रचिकटयिषुराहजे भावा जहियं पुण, चउदसपुविम्मि जंबुनामे य।वुच्छिन्ना ते इणमो, सुणसु समासेण सीसते ॥३६॥ ॥६३॥ For Private Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणपरमोहिपुलाए, आहारगखवगउवसमे कप्पे।संजमतिग केवल सिज्झणा य जंबुम्मि वुच्छिन्ना ३७॥ जम्बूस्वामि__ 'जे भाव'त्ति । ये भावा यस्मिन् चतुर्दशपूर्विणि जम्बूनानि च व्यवच्छिन्नास्तान् समासेन शिष्यमाणानिमान् शृणत नि व्युच्छि॥३६॥ 'मण'त्ति। मनःपर्यायज्ञानिनः परमावधयः 'पुलाकः' लब्धिपुलाकः 'आहारकः' आहारकशरीरलब्धिमान् ना भावाः 'क्षपक' क्षपकश्रेणिः 'उपशमः' उपशमश्रेणिः 'कल्पः' जिनकल्पः 'संयमत्रिक' शुद्धपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातलक्षणं केवलिनः सिद्धिश्च, एते भावा जम्बूस्वामिनि व्यवच्छिन्नाः । इह केवलिग्रहणेन सिज्झणाग्रहणेन वा गते यदुभयोरुपादानं तद्-'यः केवली स नियमात्सिध्यति यश्च सिध्यति स नियमात्केवली सन्' इति ख्यापनार्थम् । तत्किमेतद न्यतो न प्राप्तम् ? प्राप्तमेव तथापि येन न प्राप्तं तं प्रत्यस्योपयोगो न चाप्रसक्ताभिधानम्, विशेषणविधयैतादृशस्याप्रसक्त-15 चतुर्दशपूर्विहास्याप्यभिधानाविरोधात्तन्त्रशैल्या इत्थमेव व्यवस्थितत्वादिति द्रष्टव्यम् ॥ ३७॥ णि व्युच्छिसंघयणं संठाणं, च पढमगंजो अ पुत्वउवओगो । एते तिन्नि विअत्था, चउदसपुविम्मिच्छिन्ना ॥३८॥ नाभावाः 5 'संघयणति । प्रथमं संहननं प्रथमं संस्थानं यश्चान्तर्मुहर्त्तकः समस्तपूर्वविषय उपयोगः, एते त्रयोऽप्यर्था न जम्बूस्वा-16 ये येन व्यमिनि तृतीयपुरुषयुगे व्यवच्छिन्नाः किन्तु चतुर्दशपूर्विणि भद्रबाहौ ॥३८॥ व्यवहारचतुष्कं पुनः पश्चादप्यनुवृत्तं यतआह हारेण व्यकेवलमणपजवनाणिणो अतत्तो अओहिनाणजिणा। चउदसदसनवपुवी, आगमववहारिणो धीरा ३९॥ सुत्तेण ववहरंते, कप्पववहारधारिणो धीरा । अत्थधर ववहरते, आणाए धारणाए अ॥ ४०॥ पां निर्देश: For Private & Personal use only Naw.jainelibrary.org Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- ववहारचउक्कस्स य, चोदसपुविम्मि छेदो जं भणियं। तं ते मिच्छा जम्हा, सुत्तं अत्था य धरए उ॥४१॥ गुरुतत्त्व त्तियुतः विनिश्चयः BI केवल'त्ति । केवलिनो मनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिज्ञानिजिनाश्चतुर्दशपूर्विणो दशपूर्विणो नवपूर्विणश्च, एते षड् धीरा द्वितीयो. आगमव्यवहारिणः ॥ ३९ ॥ 'सुत्तेण'त्ति । ये पुनः कल्पव्यवहारधारिणो धीरास्ते 'सूत्रेण' कल्पव्यवहारगतेन व्यवह॥६४॥ रन्ति, ये पुनश्छेदश्रुतस्यार्थधरास्ते आज्ञया धारणया च व्यवहरन्ति ॥ ४०॥ 'ववहार'त्ति । छेदश्रुतस्य च सूत्रमर्थश्चाद्यापि धरते विद्यते, दशपूर्वधरा अपि चागमव्यवहारिणः, ततो व्यवहारचतुष्कस्य चतुर्दशपूर्विणि व्यवच्छेद इति यद्भणितं | तन्मिथ्या ॥४१॥ अन्यच्चतित्थुग्गाली एत्थं, वत्तवा होइ आणुपुबीए । जो जस्स उ अंगस्सा, वुच्छेदो जहिँ विणिदिहो ॥४२॥ " चतुणी विरPI 'तित्थुग्गालि'त्ति । तेषां मिथ्यावादित्वप्रकटनाय यस्याङ्गस्यान्यस्य वा यत्र व्यवच्छेदो विनिर्दिष्टः सा तीर्थोद्वालिरत्रा- जीतेन नुक्रमेण वक्तव्या येन विशेषतस्तेषां प्रत्यय उपजायत इति ॥४२॥ तदेवं न केवलमिदानीं जीतव्यवहार एवास्ति कि-४ व्यवहार न्त्वन्येऽपि सन्तीत्युक्तम् । अथ कदायं प्रयोक्तव्यः ? इत्याह इति निवेदजत्थ चउण्हं विरहो, पउंजियवो उ तत्थ पंचमओ।सुत्ते णिदेसाओ, दढधम्मजणाणुचिन्नो ति॥४३॥ नम्. व्यव 'जत्थ'त्ति । यत्र यदा 'चतुर्णी' आगमादीनां विरहस्तत्रैष जीतव्यवहारः प्रयोक्तव्यः सूत्रे तथानिर्देशात्, महाजना- हार साश्यम् नुचीर्ण इति चायं प्रामाणिकत्वाच्चतुर्णा विरहेऽप्याद्रियते। सूत्रं चात्रेदं व्यवहारदशमोद्देशके व्यवस्थितम्-"पंचविहे RECAUSESAUR In६४॥ Jain Education For Private & Personal use only linelibrary.org Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IPIववहारे पण्णत्ते, तंजहा-आगमे सुए आणा धारणा जीए । जहा से तस्थ आगमे सिआ आगमेणं ववहारे पद्रवियो सिया। णो से तत्थ आगमे सिया जहा से तत्थ सुए सिया सुएणं ववहारे पट्टवियत्वे सिया । णो से तत्थ सुए सिया जहा से तत्थ आणा सिआ आणाए ववहारे पट्टवियत्वे सिआ। णो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया धारजाए ववहारे पट्टवियवे सिया। णो से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीए सिआ जीएणं ववहारे पट्टवियत्वे सिया। एएहिं पंचहिं ववहारेहिं ववहारं पढविजा, तंजहा-आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं । जहा जहा से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पढविज्जा । से किमाह? भंते!, आगमबलिआ समणा णिग्गंथा इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तया तहिं तहिं अणिस्सिओवस्सिअं बवहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ"त्ति । अत्रोत्क्रमेण व्यवहारप्रस्थापने चतुर्गुरुप्रायश्चित्तमुपदिश्यते, तदुक्तम्-"उप्परिवाडी भवे गुरुग"त्ति। नन्वेवं सत्यपि सूत्रे कथं पर्युषणातिथिपरावतादि जीतेन प्रायश्चित्तम् ? इति चेत्, न, अर्थानवबोधात्, श्रुतधरादिकं विमुच्य जीतधरस्य पार्श्वे प्रायश्चित्तादिप्रस्थापन एव प्रायश्चित्तप्रसङ्गात् , अन्यथागमसत्त्वे श्रुतालापव्यवहारादिनापि तदापत्तेः। किञ्च जीतव्यवहारस्तावदा तीर्थमस्त्येव, द्रव्यादिविमर्शाविरुद्धोत्सर्गापवादयतनाया एव प्रायो जीतरूपत्वात् , केवलमागमादिकाले सूर्यप्रकाशे ग्रहप्रकाशवत्तत्रैवान्तर्भवति न तु प्राधान्यमश्रुते । तथा च श्रुतकालीनं जीतमपि तत्त्वतः श्रुतमेवेति को दोषः? कदा तर्हि जीतस्योपयोगः? इति चेत्, यदा तस्य प्राधान्यम् , अत एव यदंशे जीते श्रुतानुपलम्भस्तदंशे इदानीं तस्यैव प्रामाण्यमिति । अत एव चानागतकालपरामर्शेनैवागमव्यवहारिकृते सूत्रे एतन्निबन्धः, For Private & Personal use only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ SAR त्तियुतः द्वितीयो: तदाह व्यवहारभाष्यकृत्-"सुत्तमणागयविसयं, खित्तं कालं च पप्प ववहारो । होहिंति ण आइल्ला, जा तित्थं ताव गुरुतत्त्वजीओ उ ॥ १॥” त्ति ॥ ४३ ॥ जीतविषयमेव कञ्चिद्व्यवहारगाथाभिर्दर्शयति विनिश्चयः लासः ददुरमाइसु कल्लाणगं तु विगलिंदिएसभत्तट्ठो । परिआवणाइ तेसिं, चउत्थमायंबिला हुँति ॥४४॥ व्यवहारगा'दहुरमाइसुत्ति । दर्दुरः-मण्डूकस्तदादिषु-तत्प्रभृतिषु मकारोऽलाक्षणिकः प्राकृतत्वात् , तिर्यक्पश्चेन्द्रियेषु जीविता-1 थामिः जीतव्यपरोपितेष्विति शेषः। 'कल्याणकं तु' इति, तुशब्दो विशेषणार्थः, स चैतद्विशिनष्टि-पञ्चकल्याणकं प्रायश्चित्तम् । वि | विषयनिकलानि-असम्पूर्णानीन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रियाः-एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः, तत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरित्ये देशः केन्द्रिया अनन्तवनस्पतिकायिका द्रष्टव्यास्तेषु 'अभक्तार्थः' उपवासः प्रायश्चित्तम् । 'एतेषां' दर्दुरादीनां परितापनायां | यथासङ्ख्यं चतुर्थीचाम्ले प्रायश्चित्तं भवतः। इयमत्र भावना-यदि दर्दुरादीन् तिर्यक्पञ्चेन्द्रियादीन् गाढं परितापयति ततोऽभक्तार्थःप्रायश्चित्तम्, अथ विकलेन्द्रियाननन्तवनस्पतिकायिकप्रभृतीन् गाढं परितापयति तत आचाम्लम् । उपलक्षणमेतत् , तेनैतदपि जीतव्यवहारानुगतमवसेयम्-यदि दर्दरप्रभृतीन तिर्यक्पश्चेन्द्रियान्मनासंघट्टयति तत एकाशनकम्, अथानागाढं परितापयति तत आचाम्लम् । तथानन्तवनस्पतिकायिकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां सङ्घट्टने पूर्व एतेषामेवानागाढपरितापने एकाशनम् । तथा पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनां सङ्घट्टने निर्विकृतिकम् , अनागाढपरितापने पूर्वार्द्धम्, आगाढपरितापने एकाशनम्, जीवितान्यपरोपणे आचाम्लमिति ॥४४॥ For Private & Personal use only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिण्णा कालाइसु, अपडिक्कंतस्स णिविगइअं तु । निविइयं पुरिमड्डे, अंबिल खवणाय आवासे ॥४५॥ 'अपरिण्ण'न्ति । 'अपरिज्ञा' प्रत्याख्यान परिज्ञाया अग्रहणं गृहीताया वा भङ्गः, तत्र सूत्रे विभक्तिलोप आर्षत्वात्, तथा कालादिषु 'अप्रतिक्रमतः' अव्यावर्त्तमानस्य प्रायश्चित्तं निर्विकृतिकम् । किमुक्तं भवति । यदि नमस्कारपौरुष्यादिदिवस प्रत्याख्यानं वैकालिकं च पानाहारप्रत्याख्यानं न गृह्णाति गृहीत्वा वा विराधयति, तथा स्वाध्यानं प्रस्थाप्य यदि कालस्य न प्रतिक्रामति, न कालप्रतिक्रमणनिमित्तं कायोत्सर्ग करोति, आदिशब्दाद्येषु स्थानेष्वीर्यापथिकया प्रतिक्रमि तव्यं तेषु चेत्तथा न प्रतिक्रामति तदा प्रायश्चित्तं निर्विकृतिकपूर्वार्द्धाचाम्लक्षपणानि । इयमत्र भावना - आवश्यके यद्येकं कायोत्सर्ग न करोति ततः प्रायश्चित्तं निर्विकृतिकम्, कायोत्सर्गद्वयाकरणे पूर्वार्द्धम्, त्रयाणामपि कायोत्सर्गाणामकरणे आचाम्लम्, सर्वस्यापि चावश्यकस्याकरणेऽभक्तार्थ इति ॥ ४५ ॥ जं जस्स व पच्छित्तं, आयरिय परंपराइ अविरुद्धं । जोगा य बहुविगप्पा, एसो खलु जीअकप्पो उ ॥ ४६ ॥ ‘जं जस्स व’त्ति। यत्प्रायश्चित्तं ‘यस्य' आचार्यस्य गच्छे आचार्य परम्परागतत्वेन 'अविरुद्धं' न पूर्वपुरुषमर्यादातिक| मेण विरोधभागू । यथा - अन्येषामाचार्याणां नमस्कारपौरुष्यादिप्रत्याख्यानस्याकरणे कृतस्य वा भने प्रायश्चित्तमाचाम्लम् । तथा कल्पव्यवहारयोश्चन्द्रप्रज्ञप्तिसूर्यप्रज्ञत्योश्च केचिदागाढं योगं प्रतिपन्ना अपरे त्वनागाढमिति । 'एप' सर्वोsपि खलु गच्छभेदेन प्रायश्चित्तभेदो योगभेदश्चाचार्य परम्परागतः 'जीतकल्पः ' जीतव्यवहारो वेदितव्यः ॥ ४६ ॥ ननु : Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ-18 18| यदि जीतमाद्रियते तदा किं न प्रमाणीस्यात् ? सर्वैरपि स्वपरम्परागतजीताश्रयणादित्यत आह गुरुतत्त्वत्तियुतः जीअं सावजं, ण तेण जीएण होइ ववहारो। जं जीअमसावजं, तेण उ जीएण ववहारो॥४७॥18 विनिश्चयः द्वितीयो. | 'जंजीति । यद् जीतं सावधं न तेन (जीतेन ) भवति व्यवहारः। यद् जीतमसावद्यं तेन जीतेन व्यवहारः ॥४॥ ल्लास: अथ किं सावधं किं वाऽसावा जीतम् इत्याह६खार हडी हरमाला, पोट्टेण य रिंगणं तु सावजं । दसविहपायच्छित्तं, होइ असावज्जजीअं तु ॥४॥ ___ 'खारहडि'त्ति । भानुप्रवचने लोके वाऽपराधविशुद्धये समाचरितं क्षारावगुण्डनं हडौ-गुप्तिगृहे प्रवेशनं हरमालारो पणं 'पोट्टेण' उदरेण च 'रङ्गणं खरारूढं कृत्वा ग्रामे सर्वतः पर्यटनमित्येवमादिकं सावधं जीतम् । यत्तु दशविधमालो|चनादिकं प्रायश्चित्तं तदसावद्यजीतम् ॥ ४८ ॥ अपवादतः कदाचित्सावद्यमपि जीतं दद्यात् , तथा चाह ओसण्णे बहुदोसे, णिद्धंधस पवयणे य णिरवेक्खे।एयारिसम्मि पुरिसे, दिज्जइसावजजीअंपि॥४९॥ संविग्गे पियधम्मे, अपमत्ते वि य अवजभीरुम्मि । कम्हि य पमायखलिए, देयमसावज्जजीयं तु ॥५०॥ 'ओसण्ण'ति । 'ओसन्न' प्रायेण बहुदोषे 'निद्धन्धसे' सर्वथा निर्दये तथा 'प्रवचने' प्रवचनविषये निरपेक्षे पुरुषेऽनव-2 स्थाप्रसङ्गनिवारणाय सावद्यमपि जीतं दीयते ॥४९॥'संविग्गेत्ति । संविग्ने प्रियधर्मिणि अप्रमत्तेऽवद्यभीरुके कस्सिश्चिममादवशतः स्खलितपदे देयमसावद्यजीतम् ॥५०॥ ARSIRASIAS For Private Personal Use Only elibrary.org Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुत. १२ जं जीअमसोहिकरं, ण तेण जीएण होइ ववहारो । जं जीअं सोहिकरं, तेण उ जीएण ववहारो ॥ ५१ ॥ 1 'जं जीअं'ति । यज्जीतमशोधिकरं न तेन जीतेन भवति व्यवहारः कर्त्तव्यः । यत्पुनजतं शोधिकरं तेन जीतेन भवति व्यवहारः ॥ ५१ ॥ शोधिकराशोधिकरजीतप्रतिपादनार्थमाह जं जीअमसोहिकरं, पासत्थपमत्तसंजयाईणं । जइ वि महाणाइन्नं, ण तेण जीएण ववहारो ॥ ५२ ॥ जं जीअं सोहिकरं, संवेगपरायणेण दंतेणं । इक्केण वि आइन्नं, तेण उ जीएण ववहारो ॥ ५३ ॥ 'जं जी'ति । यजतं पार्श्वस्थप्रमत्तसंयताचीर्णम्-अत एवाशोधिकरम्, तद् यद्यपि महाजनाचीर्ण तथाऽपि न तेन जीतेन व्यवहारः कर्त्तव्यस्तस्याशोधिकरत्वात् ॥ ५२ ॥ 'जं जीअं'ति । यत्पुनजीत संवेगपरायणेन दान्तेनैकेनाप्याचीर्ण तत् शोधिकरं तेन व्यवहारः कर्त्तव्यो भवति । न तु बहुजनापरिगृहीतत्वेनाऽस्याविश्वासः कर्त्तव्यः, बहुजनपरिगृहीतत्वस्य लोकधर्मेऽपि सत्त्वेन तस्य विश्वासानङ्गत्वात् - सदाचारपरिगृहीतत्वस्यैव तत्र तन्त्रत्वादिति भावः ॥ ५३ ॥ ननु यदि जीतं श्रुतापत्तितुल्यं तदा न श्रुतादतिरिच्येत यदि च ततो हीनमधिकं वा स्यात्तदोत्सूत्रं स्यादित्याशङ्कायामाह - हीणं वा अहियं वा, जइ वि सुआवत्तिओ हवइ एअं । तहवि सुआणुत्तिष्णं, परिणामविसेसमहिगिच्च॥५४॥ 'ati d'ति । हीनं वाऽधिकं वा यद्यपि श्रुतापत्तितो भवत्येतज्जीतं तथापि श्रुतानुत्तीर्ण 'परिणामविशेष' सहिष्णुता - सहिष्णुतादिलक्षणमधिकृत्य परिणामभेदेन सूत्रे हीनाधिकदानस्यापि सामान्यतोऽनुज्ञानाद् रागद्वेषाभ्यां हीनाधिकदानेनै : orary.org Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S खोपज्ञव. वोत्सूत्रसम्भवादिति ॥ ५४ ॥ उक्तो जीतव्यवहारः । अथागमादिषु व्यवहारेषु किं सूत्राद्यात्मकम् ? इत्याह गुरुतत्त्वत्तियुतः आगमसुआ सुत्तं, इत्थं आणा य धारणा अत्थो। आयरणा पुण जीअं, बलिअत्तं तेण उक्कमओ॥५५॥ विनिश्चयः द्वितीयो| 'आगमसुआई'ति । आगम-श्रुतव्यवहारौ सूत्रमत्राभिप्रेती, चतुर्दशपूर्वादीनां कल्पव्यवहारादिच्छेदग्रन्थानामपि च । ल्लासः ॥६७॥ दसूत्रात्मकत्वात् प्रत्यक्षागमस्यापि सूत्रातिशयितत्वेन सूतत्वविवक्षणात् । अथवा स्वव्यवहर्त्तव्यार्थप्रतिपत्तावन्यनन्दानुपजी पञ्चविधव्यत्वं सूत्रत्वं तत्राप्यविशिष्टमिति न दोषः। आज्ञा च धारणा चार्थः, शब्दमूलशब्दत्वात्। जीतं पुनः आचरणा' शिष्टाचारः। ६ व्यवहारेषु तदुक्तम्-"आगमसुआउ सुत्तेण सूइआ अत्थओ उ तिचउत्था । बहुजणमाइण्णं पुण जीअं उचियं ति एगढें ॥१॥"ति। कः सूत्रात्मदातेन 'उत्क्रमतः' पश्चानुपूर्व्या बलिकत्वं जीतस्य सूत्रार्थोभयापेक्षत्वात् , अर्थस्य च सूत्रापेक्षत्वात् सूत्रस्य च स्वतन्त्रत्वा- क अर्थात्म |दिति ॥५५॥ एतच्च निराकाङ्क्षार्थप्रतिपत्तितारतम्यमपेक्ष्य वेदितव्यम् , अन्यथाऽऽगमादिक्रमेण बलवत्ताया एव शास्त्रार्थ- क उभया४/त्वात् तदिदमभिप्रेत्यात्रापि विशेषमाह त्मको वेति परमत्थओ अ सबो, ववहारो होइ आगमो चेव । जेण तयं उवजीवइ, सक्खं व परंपराए वा ॥५६॥ विवेकः ___ 'परमत्थओ 'त्ति । परमार्थतश्च सर्वोऽपि व्यवहार आगम एव भवति, येन तमागमविषयज्ञानार्थ स्वप्रामाण्यार्थं वा साक्षात् परम्परया वोपजीवतीति । तथा चाह चूर्णिजीतमधिकृत्य-"जम्हा पंचविहे ववहारसुत्ते एस तेण आगम- G ॥६७॥ नाणं चेव एवं"ति ॥५६॥ व्यवहारप्ररूपणापरिसमाप्तिं प्रज्ञाप्य व्यवहारिप्ररूपणां क्रमप्राप्तां प्रतिजानीते ALEDGEOGGC Join Educa t ional For Private Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASGAO पंचविहो ववहारो, एसो खलु धीरपुरिसपण्णत्तो। भणिओ अओ परं पुण, इत्थं ववहारिणो वुच्छं॥५७ का व्यवहारनि_ 'पंचविहो'त्ति । एष खलु धीरपुरुषैः-तीर्थकरगणधरादिभिः प्रज्ञप्तः पञ्चविधो व्यवहारो भणितः, अतः परं पुनः 'अत्र' गमनपूर्व अधिकारे व्यवहारिणो वक्ष्ये ॥ ५७ ॥ तत्र व्यवहारिणोऽपि नामादिभेदाच्चतुर्विधाः। तत्र नामस्थापने सुगमे । द्रव्य व्यवहारिप रूपणाप्रव्यवहारिण आगमतो नोआगमतश्चेति द्विधा । तत्रागमतो व्यवहारिशब्दार्थज्ञास्तत्र चानुपयुक्ताः। नोआगमतो ज्ञश तिज्ञा. दरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात् त्रिधा । तत्रापि द्वावाद्यौ भेदौ सुगमाविति तृतीयमधिकृत्याहणोआगमओ दवे, लोइअ-लोउत्तरा उ ते दुविहा । लोअम्मि उ लंचाए, विवायभंगे पवता ॥ ५८॥ व्यवहा दनिक्षेपः | 'णोआगमओ'त्ति । नोआगमतः 'द्रव्ये' ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यनिक्षेपविषये लौकिका लोकोत्तराश्च ते | |व्यवहारिणो द्विविधाः। तत्र लोके 'लश्चया' परलञ्चामुपजीव्य विवादभने प्रवर्त्तमाना द्रव्यव्यवहारिणः ॥५८॥ ।' लोउत्तरा अगीआ, गीआ वा हुंति लंचपक्खेहिं । जं तेसिमपाहणं, मोहा तह रागदोसेहिं ॥ ५९॥ 'लोउत्तरत्ति । लोकोत्तरा अगीतार्थी द्रव्यव्यवहारिणः, ते हि यथावस्थितं व्यवहारं कर्तुं न जानन्तीति यथावस्थि18| तवस्तुपरिज्ञानलक्षणस्य भावस्याभावात् अप्रधानव्यवहारकारिण इति, अप्राधान्यवाचिद्रव्यशब्दप्रवृत्तेः। गीतार्था वा लञ्चादिपक्षाभ्यां द्रव्यव्यवहारिणः, ये हि गीतार्था अपि सन्तोऽपरलञ्चामुपजीव्य व्यवहारं परिच्छिन्दन्ति, ये च लञ्चानुपजी विनोऽपि ममायं भ्राता ममायं निजक इति पक्षेण तं परिच्छिन्दन्ति तेषां माध्यस्थ्यरूपस्य भावस्याभावेनाप्रधानत्वात् , RECASECRENCE JainEducation international For Private Personal use only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ-16 एतदेवाह-यत् 'तेषां' अगीतार्थानां गीतार्थानां च लञ्चापक्षोपजीविनां यथाक्रम 'मोहाद्' अज्ञानात्तथा रागद्वेषाभ्याम- गुरुतत्त्व त्तियुतः प्राधान्यम् । तथा च न यत्किञ्चिद्भावमात्रेण द्रव्यत्वव्याधातो यावता भावसामग्र्येण प्राधान्यं निष्पद्यते तावदभावे : विनिश्चयः द्वितीयोद्रव्यत्वव्यवस्थितेरिति नैकैकापेक्षयोभयेषां प्राधान्येऽपि दोष इति युक्तमीक्षामहे ॥ ५९॥ ल्लासः भावम्मि लोइआ खलु, मज्झत्था ववहरंति ववहारं। पियधम्माइगुणड्डा, लोउत्तरिआ समणसीहा॥६॥ भावव्यवहा॥६८॥ _ 'भावम्मित्ति । भावे व्यवहारिणो द्विविधाः-आगमतो नोआगमतश्च । आद्या व्यवहारिशब्दार्थज्ञास्तत्र चोपयुक्ताः। रिणः अन्त्याश्च लौकिकलोकोत्तरभेदाद्विविधाः। तत्र लौकिकाः खलु ते ये मध्यस्था रागद्वेषयोरपान्तराले स्थिताः सन्तो व्यवहारं व्यवहरन्ति । लोकोत्तराश्च प्रियधर्मादिगुणान्याः श्रमणसिंहाः ॥६०॥ प्रियधर्मादिगुणानेव भाष्यग्रन्थेनाह पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेवऽवजभीरू ।सुत्तत्थतदुभयविऊ, अणिस्सियववहारकारी य॥६१॥२ लोकोत्तरPI 'पियधम्म'त्ति । 'प्रियधर्माणः' इष्टधर्माणः, 'दृढधर्माणः' अक्षोभ्यधर्माणः, एतदुभयविशेषणनिष्पन्नचतुर्भङ्गयां तृतीय- भावव्यवहा भगवर्तिनः। तथा 'संविग्नाः' संसारादत्रस्ताः पूर्वरात्रादिषु किं मे कृत्यमकृत्यं वा? इत्यादिविचारकारिणः, यतः 'अवद्यभीरवः || | रिलक्षणम् पापभीरवः, तथा 'सूत्रार्थतदभयविदः' सूत्रार्थपरिज्ञाननिष्पन्नचतर्भङ्गयां तृतीयभङ्गवर्तिनः, तथा निश्रा-रागः स सञ्जातोWऽस्येति निश्रितो न तथा अनिश्रितः स चासो व्यवहारश्च तत्करणशीलाः । एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति न्यायादनुप-| श्रितव्यवहारकारिण इत्यपि द्रष्टव्यम् ॥ ६१॥ प्रियधर्मादिविशेषणसाफल्यं निश्रोपनाशब्दार्थ चाह ॥६८॥ JainEducation alitional X elibrary.org Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SACCOCOCCAUSA पियधम्मे दढधम्मे, य पञ्चओ होइ गीय संविग्गे। रागो उ होइ णिस्सा, उवस्सिओ दोससंजुत्तो॥६॥ पियधम्मे'त्ति । प्रियधर्मणि दृढधर्मणि 'च' समुच्चये भिन्नक्रमश्च 'गीते गीतार्थे-सूत्रार्थतदुभयविदि संविग्ने च प्राय-12 श्चित्तं ददति 'प्रत्ययः' विश्वासो भवति-यथायं नान्यथा प्रायश्चित्तव्यवहारकारीति प्रियधर्मादिपदानामुपन्यासः । तथा रागस्तु भवति निश्रा, उपश्रितश्च द्वेषसंयुक्तः । निश्रीपश्राशब्दौ रागद्वेषपर्यायावित्यर्थः॥ ६२ ॥ निश्रीपश्राशब्दयोर्द्वितीयं व्याख्यानमाह अहवाआहारादी, दाहिइ मज्झं तु एस णिस्सा उ।सीसो पडिच्छओवा, होइ उवस्साकुलादीवा ॥३॥ ___ 'अहव'त्ति । अथवा एषोऽनुवर्तितः सन् मह्यमाहारादिकं दास्यतीत्येषाऽपेक्षा लञ्चोपजीवनस्वभावा निश्रा । तथा एष मे शिष्यः, एष मे प्रतीच्छकः, इदं मे मातृकुलम् , इदं पितृकुलम् , आदिशब्दादिमे मम सहदेशवासिनः, भक्ता वा इमे सूत्रार्थविदो सदैव मम इत्यपेक्षा पक्षाभ्युपगमस्वरूपा भवत्युपश्रा ॥ ६३ ॥ अत्र सूत्रार्थवित्त्वगुणप्राधान्यमाह ग्रन्थकृत् भावव्यवइयरगुणाणुगमम्मि वि, छेयत्थाणं अपारगत्तम्मि। ववहारित्तं भावे, णो खलु जिणसासणे दिटुं ॥ ६४ ॥|हारिणः प्रा'इयर'त्ति । इतरगुणानां-प्रियधर्मत्वादीनामनुगमेऽपि छेदार्थानामपारगत्वे नो खलु जिनशासने भावे व्यवहारित्वं धान्यम्. दृष्टम् ॥ ६४ ॥ तथा चोक्तं व्यवहारभाष्ये दशमोद्देशके व्यवहारजो सुअमहिज्जइ बहुं, सुत्तत्थं च निउणं न याणाइ। कप्पे ववहारम्मि य,सो न पमाणं सुअहराणं ॥५॥ साक्ष्यम्. For Private Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वपिज्ञ- जो सुअमहिजइ बहुँ, सुत्तत्थं च णिउणं वियाणाइ । कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सुअहराणं ॥६६॥ गुरुतत्त्व त्तियुतः विनिश्चयः नियोकप्पस्स उणिज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमनिउणस्स। जो अत्थओ ण याणइ, ववहारी सोणऽणुण्णाओ॥६७18 ल्लास: कप्पस्स उणिज्जुत्ति,ववहारस्सेव परमनिउणस्स।जो अत्थओ वियाणइ,ववहारी सो अणुण्णाओ॥६॥ ॥६९॥ 'जो सुमिति । यः कल्पव्यवहारे सूत्रं बह्वधीते सूत्रार्थं च निपुणं न जानाति स व्यवहारविषये न प्रमाणं श्रुत-2 है धराणाम् ॥ ६५ ॥ 'जो सुमिति । यस्तु कल्पे व्यवहारे च सूत्रं बह्वधीते सूत्रार्थं च निपुणं विजानाति स प्रमाणं व्यवहारे श्रुतधराणाम् ॥ ६६ ॥ 'कप्पस्स उत्ति । कल्पस्य व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य यो नियुक्तिमर्थतो न जानाति स व्यवहारी नानुज्ञातः॥ ६७॥ 'कप्पस्स उत्ति । यस्तु कल्पस्य व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य नियुक्तिमर्थतो विजानाति है स व्यवहारी अनुज्ञातः॥ ६८ ॥ उक्तमेवार्थ सूत्रसम्मत्या द्रढयन्नाह ग्रन्थकार:इत्तो अ दवओ भावओ अ अपरिच्छयम्मि इच्छंते । गच्छस्साणुनाए, पडिसेहो दंसिओ सुत्ते ॥६९॥ सूत्रार्थानसूत्रा भिज्ञस्य ग___'इत्तो अत्ति । 'अत एव' सूत्रार्थवित्त्वाभावे व्यवहारित्वायोगादेव द्रव्यतो भावतश्चापरिच्छदे इच्छति गणं धारयितुं च्छानुज्ञागच्छानुज्ञायाः प्रतिषेधो दर्शितः ‘सूत्रे' व्यवहारतृतीयोदेशकाद्यसूत्रे, तथा च तत्-"भिक्खू य इच्छिजा गणं धारइ-18 त्तए भगवं च से अपलिच्छन्ने एवं से णो कप्पइ गणं धारित्तए"त्ति । अस्यार्थः-भिक्षुः, चशब्द आचार्यपदयोग्यानेकगुणस-16 ॥६९॥ मुच्चयार्थः, इच्छेद् गणं धारयितुं 'भगवांश्च' आचार्यस्तस्य 'अपरिच्छन्नः' द्रव्यपरिच्छदरहितो भावपरिच्छदरहितस्याचार्य SABSEBSCRECAUSEUSUSA निषेधः For Private Personal Use Only in de painelibrary.org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वायोगात् चशब्दाद्भिक्षुश्च द्रव्यतोऽपरिच्छदो भावतः सपरिच्छदो गृह्यते । 'एवम्' अमुना प्रकारेण 'से' तस्य गणं धारयितुं न कल्पते । एवंशब्दो विशेषद्योतनार्थः स चायम् - आचार्ये द्रव्यतोऽपरिच्छदे भिक्षोः सपरिच्छदस्यापरिच्छदस्य वा न कल्पते उभयोर्द्रव्यतोऽपि परिच्छन्नत्वे च कल्पत इति । नोकारश्च देशप्रतिषेधे तेनावसन्ने आचार्ये तत्परि वारस्य सर्वस्य संविग्नशिष्यस्याऽऽभवनात् कल्पेतापि द्रव्यतोऽपरिच्छन्नस्य, भावतोऽपरिच्छन्नस्य तु सर्वथा न कल्पत इति सिद्धम् । तदुक्तम् - "नोकारो खलु देसं, पडिसेहयति कयाइ कप्पे वि । ओसन्नम्मि य थेरे, सो चेव परिच्छओ तस्स ॥ १ ॥ ति । अत्राहुश्रुतेऽगीतार्थे वा गणं निसृजति धारयति चेदं प्रायश्चित्तमुच्यते - " अबहुस्सुए अगीयत्थे, णिसिरए वावि धारए व गणं । तद्देवसिअं तस्स उ, मासा चत्तारि भारिआ ॥ १ ॥ सत्तरतं तवो होइ, तओ छेओ पधावइ । छेएण छिन्नपरिआए, तओ मूलं तओ दुगं ॥ २ ॥” अबहुश्रुतोऽगीतार्थ इति प्रथमो भङ्गः, अबहुश्रुतो गीतार्थ इति द्वितीयः, बहुश्रुतोऽगीतार्थ इति तृतीयः, बहुश्रुतो गीतार्थ इति चतुर्थ इति चत्वारः खल्वेते भङ्गा भवन्ति । तत्र निशीथादिकं सूत्रतोऽर्थतो वा यस्यानवगतं स प्रथमो भङ्गः । यस्य पुनर्निशीथादिगतौ सूत्रार्थी विस्मृतौ स द्वितीयो भङ्गः । यः पुनरेकादशाङ्गधारी अश्रुतार्थः स तृतीयो भङ्गः । सकलकालोचितसूत्रार्थोपेतश्चतुर्थः । तत्राबहुश्रुतोऽगीतार्थ इत्यनेन भङ्गत्रयमुपात्तम् । एतदन्यतरभङ्गवत्ती गणं निसृजति धारयति वा यदि एकं द्वौ त्रीन् वा दिवसानुत्कर्षतः सप्त रात्रिंदिवानि ततः 'तदैवसिक' तेषां सप्तानां दिवसानां निमित्तत्वतः 'तस्य' गणं निस्रष्टुर्द्धारयितुर्वा प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा गुरुकाः । ततः प्रथमसप्तदिनानन्तरमन्यानि चेत् सप्त दिनानि गणं निसृजति धारयति वा स्वयं ) सूत्रार्थानभिज्ञे ग च्छानुज्ञायां प्रायश्चित्तम्. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ त्तियुतः द्वितीयो- - तदा प्रायश्चित पडूलघु । ततोऽप्यन्यानि सप्त दिनानि यावदनपरमे षडगुरु । एवं जातावेकवचनात्सप्तरात्रं त्रीणि सप्त- गुरुतत्त्व रात्राणि यावत्तपो भवति । ततस्तपःप्रायश्चित्तसमाप्त्यनन्तरं तपःक्रमेण च्छेदः प्रधावति, तथाहि-सप्तदिनादितश्चतुर्गुरु- विनिश्चयः कच्छेदः । ततोऽप्यन्यसप्तदिवसातिक्रमे पड्लघुकः । ततोऽप्यन्यसप्तदिवसातिवाहने षड्गुरुकः। एतावता छेदेनाच्छिन्ने लासः भयस्त्वेन पर्याये सति देशोनपूर्वकोटीप्रमाणोऽप्ययमवशिष्यमाण एकदिवसेनैव छिद्यत इत्येवंलक्षणं त्रिचत्वारिं|शत्तमे दिने मूलं भवति । ततोऽप्यतिक्रमे चतश्चत्वारिंशत्तमे दिवसेऽनवस्थाप्यं पञ्चचत्वारिंशत्तमे च पाराश्चितमिति द्विकमन्तिमप्रायश्चित्तद्वयमापद्यत इति व्यवहारवृत्ती व्यक्तम् । जीतकल्पवृत्तौ पुनरत्र त्रय आदेशा लिखिताःतत्रैके लघुपञ्चरात्रिंदिवेभ्यश्छेदं प्रस्थापयन्ति, अपरे गुरुपञ्चरात्रिंदिवेभ्यः, परे च यतः प्रभृति तपःप्रायश्चित्तमुपक्रान्तं तत आरभ्येति । तत्र तृतीयपक्षस्तावत्समर्थित एव । प्रथमपक्षे च सप्तरात्रत्रयानन्तरं तुरीयं सप्तरात्रं लघुपञ्चकश्छेदः, | पञ्चमं गुरुपञ्चकः, षष्ठं लघुदशरात्रिंदिवः, सप्तमं गुरुदशरात्रिन्दिवः, अष्टमं लघुपश्चदशकः, नवमं गुरुपञ्चदशका, दशर्म लघुविंशतिरात्रिन्दिवः, एकादशं गुरुविंशतिरात्रिन्दिवः, द्वादशं लघपञ्चविंशतिरात्रिन्दिवः, त्रयोदशं गुरुपश्चविंशतिकः, चतुर्दशं लघुमासिकः, पञ्चदशं गुरुमासिकः, पोडशं चतुर्लघुमासिकः, सप्तदशं चतुर्गुरुमासिका, अष्टादशं लघुपाण्मासिकः, | एकोनविंशं सप्तरात्रं गुरुपाण्मासिक इति सर्वसङ्ख्यया त्रयस्त्रिंशं शतमहोरात्राणां भवति । द्वितीयपक्षे च सप्तरात्रत्रया-IN नन्तरं सप्ताहोरात्राणि प्रथमत एव गुरुपश्चकच्छेदः, ततः सप्ताहं लघुदशकः । एवं पूर्वोक्तविधिना गुरुदशकादयोऽपि PI॥ ७० ॥ षड्गुरुकान्ताश्छेदाः सप्ताहं सप्ताहं प्रत्येकं द्रष्टव्या इति, अत्र चाष्टादशभिः सप्तरात्रैः षड्विंशं शतं रात्रिन्दिवानां भव - Main Education climational For Private & Personal use only inelibrary.org Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीति ॥ ६९ ॥ तदेवं द्रव्यतो भावतश्चापरिच्छदे गच्छानुज्ञा न युक्तेति सूत्रसम्मत्या भावितम् । अथ द्रव्यभावपरिच्छदमेव दर्शयति- द्रव्य भावप रिच्छद्युक्त स्य गच्छानु दव्वे परिच्छओ खलु, सच्चित्ताई णिउत्तवावारो। दंसणनाणचरित्ते, तवे अ विणए अ भावम्मि ॥ ७० ॥ 'दवे 'ति । द्रव्ये परिच्छदः खलु 'सच्चित्तादिः' सच्चित्तः- शिष्यादिः, अचित्तः - उपधिः, मिश्रश्चोभयसमवायादिति त्रिविधः । अयं च नियुक्तव्यापारोऽपेक्षितो यो ययोपकरणोत्पादनार्थग्रहणधर्मकथनग्लानप्रतिचरणादिलक्षणया लब्ध्या |समेतः स तदनुरूपे कार्ये व्यापारित इति यावदित्थमेव गच्छवृद्धि निर्जरावृद्धिसिद्धेः । भावे च दर्शनं ज्ञानं चारित्रं २ऽज्ञातो तहतपो विनयश्च परिच्छदः । एतदुभयपरिच्छदोपेत एव गणधारी सुव्यवहारी च भवतीति द्रष्टव्यम् ॥ ७० ॥ गणधारणेच्छाऽपि परिच्छन्नस्यैव युक्ता नान्यस्येत्याह शनम्. कम्माण णिज्जरट्ठा, इच्छंति गणस्स धारणं साहू | णो पूयद्वं सा पुण, अपरिच्छन्नेहिँ कह लब्भा? ॥ ७१ ॥ 'कम्माण'त्ति । कर्मणां निर्जरार्थमिच्छन्ति गणस्य धारणं साधवो न पुनः पूजार्थं मोक्षैकाकाङ्क्षित्वात्तेषाम् । अत एव जरामरणाग्निप्रदीप्त संसारगृहप्रसुप्त भव्यप्राणिबोधकत्वेन ज्ञानादिमोक्षमार्गक्षेमप्रापकत्वेन ज्ञानादिरत्नसुपरीक्षावृद्धिकारित्वेनाविघ्नेन संसारसमुद्रपारप्रापकत्वेन गोसमगणवृत्तिसाधूनां श्वापदादिस्थानीयापराधपदजनितदुःखवारणेन ज्ञानादिगुणस्थाननयनेन च प्रतिबोधकदेशक श्री गृहिकनिर्यामकमहागोपसदृशा आचार्यपदे स्थापनीयाः प्रतिपादिताः । 'साच' . Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृनिर्जरा चापरिच्छन्नैः कथं लभ्या? द्रव्यपरिच्छदं विना गच्छकार्योपग्रहस्य, भावपरिच्छदं विना च प्रत्यर्थिनिग्रहादेरस-18 गुरुतत्त्वत्तियुतः म्भवात् , अतोऽपरिच्छन्नस्य गणधारणेच्छा क्लीवस्य कामिनीरिरंसेव विडम्बनामात्रमिति भावः ॥७१॥ ननु किंत विनिश्चयः द्वितीयो 18|गणं धारयितुमिच्छता पूजा सर्वथा नेष्टव्ये त्यत आह॥७१॥ णिजरहेउववसिया,पूअंपिअइत्थ केइ इच्छति।सा विय बहुतरपूअगगुणाण हेउत्तिण णिसिद्धा ॥७२॥3 निर्जरार्थ 'णिजर'त्ति । प्रथमतस्तावन्निर्जरार्थमेव गणो धारयितव्यस्ततो निर्जराहेतोर्गणधारणे व्यवसिताः 'पूजामपि' उत्कृष्टा-14 गणं धारमहारोपकरणसत्कारादिलक्षणाम् , तथा सूत्रार्थेषु प्रधानोऽयमागाढप्रज्ञः शास्त्रतात्पर्यग्राही जात्यन्वितो विशुद्धभाव इत्यादि यता आचाशिष्यप्रतीच्छकादिकृतश्लाघालक्षणां केचित् स्थविरकल्पिका इच्छन्ति । साऽपि च पूजा बहुतराणां-गुरुपूजाविधायकसूत्राज्ञापालनाऽभावितशिष्यस्थिरीकरणाऽनयिकमानभङ्गनिमित्तनिर्जरादिलक्षणानां पूजकगुणानां हेतुरिति न निषिद्धा, र्येण सत्कागणधारणजन्ये फले तत्त्वत एतस्या अपि द्वारत्वेन तत्त्ववेदिप्रवृत्त्य विरोधित्वात् , तदुक्तम्-"कम्माण णिज्जरहा, एवं रादि द्रष्टखु गणो भवे धरेयबो । णिज्जरहेउववसिया, पूअं पि य केइ इच्छति ॥१॥ गणधारस्साहारो, उवगरणं संथवो य81 व्यम् उक्कोसो । सकारो सीसपडिच्छएहिं तह अन्नतित्थीहिं ॥२॥ सुत्तेण अत्थेण य उत्तमो उ, आगाढपण्णे सुअभावि-11 अप्पा । जच्चनिओ वावि विसुद्धभावो, संते गुणे या पविकत्थयंति ॥३॥ आगमो एवं बहुमाणिओ अ, आणाथिरत्तं च अभाविएसु । विणिजरा वेणइअंच णिचं, माणस्स भंगो वि य पूजयंते ॥ ४॥" ॥ ७२ ॥ निर्जरार्थ गणधारणे प्रवृत्तस्यानुषङ्गिकी पूजामपीच्छतो दोषाभावे दृष्टान्तमाह MOMSAROSAROSECSROS Jain Ede For Private & Personal use only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOSHARES AUSRUSAUSAskosteSHOSOS लोडअधम्मणिमित्तं, पउमाई खाणिए तलावम्मि । सेवंतोव्व ण दुट्ठो, पूअंपि गणे पडिच्छंतो॥७३॥ CI लोइ'त्ति । 'लौकिकधर्मनिमित्तं' लौकिकी श्रुतिमाकर्ण्य जातया धर्मेच्छया खानिते तटाके स्वतः प्रादुर्भूतान् पद्मा दीन् 'सेवमान इव' सौरभार्थं गृह्णन्निव निर्जरार्थं धृते गणे वस्तुगुणादेव जायमानां पूजां प्रतीच्छन्न दुष्टः, प्रथमप्रवृत्ते |8| रतदर्थत्वात्तदायास्तस्या एव गर्हितत्वादिति भावः। तदुक्तम्-"लोइअधम्मणिमित्तं, तडागखाणावियम्मि पउमाई। णवि गरहिआणि भोत्तुं, एमेव इमं पि पासामो॥१॥"त्ति ॥७३॥ ननु पूजार्थप्रवृत्तिन प्राथमिक्येव निषिद्धा किन्तु सार्वदिकी-पूजासत्कारोपवृंहणस्य सदैव दशवैकालिकादौ प्रतिषिद्धत्वादित्यत आहपूआसक्काराणं, जं पुण उववूहणं पडिकुटुं । साभिस्संगं चित्तं, पडुच्च तं न उण णिस्संगं ॥ ७४ ॥ साभिष्व''पूआसक्काराण'ति । पूजासत्कारयोर्यत्पुनरुपवृंहणं प्रतिक्रुष्टं तत्साभिष्वङ्ग चित्तं प्रतीत्य न पुनर्निःसङ्गम् । तच्च पूजामात्रेच्छया प्रथमप्रवृत्ती स्यान्न तूत्तरकालं फलावगमेन तदिच्छायां वस्तुतो निर्जरार्थमिष्यमाणायां पूजायां पूजासत्कास्वतन्त्रेच्छाविषयत्वाभावादेव न साभिष्वङ्गत्वमिति रमणीयम् ॥ ७४ ॥ किञ्च तस्यां पूजायां स्वीयत्वाभिमानाभावादपि रादि इच्छन साभिष्वङ्गत्वमित्याह तो दोषावि. करणम् तित्थपभावगपूआ, जिणे अतित्थे अ पज्जवसिअत्ति।इट्ठा सा वि यण हवे,अणिच्छियत्तेजओ भणियं॥ _ 'तित्यत्ति । तीर्थप्रभावकस्य-शास्त्राध्ययनाध्यापनादिना जिनशासनश्लाघाकारिणो गणधारिणः पूजा, 'जिने च' hww.jainelibrary.org Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NE स्वोपज्ञवृ- शास्त्रस्वामिनि 'तीर्थे च' प्रवचने पर्यवसिता शास्त्रगुणेन श्लाध्यमाने आचार्येऽर्थाच्छास्तुशास्त्रयोरपि श्लाघालाभादिति गुरुतत्त्वत्तियुतः हेतोरिष्टा, स्वपूजायामपि शास्तृशास्त्रश्लाघात्वेनेष्यमाणायां दोषाभावादिति । 'सापि च' पूजा न भवेत् 'अनिश्चितत्वे विनिश्चयः द्वितीयो- श्रुतार्थापारगत्वे, यतो भणितं सम्मत्यादौ ॥ ७५ ॥ ल्लास: जहजहबहुस्सुओसंमओअसीसगणसंपरिखुडोअ।अविणिच्छिओअसमए,तह तह सिद्धंतपडिणीओ BI 'जह जह'त्ति । यथा यथा 'बहुश्रुतः' श्रुतपल्लवग्राहितया बहुश्रुतत्वख्यातिमान् , अत एव 'सम्मतः' बहुजनादृतः शिष्यगणसंपरिवृतश्च 'अविनिश्चितः' साकल्येन तात्पर्याग्राही च 'समये' सिद्धान्ते तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीको वृथाssडम्बरेण बहूनां मिथ्यात्वोत्पादकत्वाच्छिवभूत्यादिवत् ॥७६॥ तस्मानिश्चितसूत्रार्थत्वमेव भावव्यवहारित्वे परममङ्गमिति निश्चितसूफलितम् । एतदेव वचनान्तरेण द्रढयति त्रार्थस्यैव इत्तो लक्खणजुत्तो, असमत्तसुओ णिरुद्धपरिआओ। जइ इच्छिज्जा देसेऽहीए देसस्स अज्झयणं ॥७७॥ भावव्यव हारित्वं सुतो सो ठावेयवो, गणे समुच्छेयकप्पकज्जे वि । णो अण्णह त्ति मेरा, गिण्हइ पच्छा सदेसं तु ॥७८॥ तरां द्रढ_ 'इत्तो'त्ति । 'तो सो'त्ति । 'अत एव' उक्तहेतोरेव 'लक्षणयुक्तः' लक्षणसहितः 'असमाप्तश्रुतः' अपरिपूर्णोचितसिद्धान्ता-II यति. ध्ययनः 'निरुद्धवर्षपर्यायः' निरुद्धो-विनाशितो वर्षपर्यायो यस्य स तथा अपरिपूर्णत्रिवर्षपर्याय इत्यर्थः, यदीच्छेत् ॥७२॥ 'देशे' प्रकल्पस्य सूत्रलक्षणे कियदर्थलक्षणे वाऽधीते 'देशस्य अविशिष्टस्याध्ययनं तदा स स्थापयितव्यः 'गणे' आचा ESSACROSSANLEASE Jain Ede Unitional For Private Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROMAMROCESSOCIRRECOGNESCk पदे उपाध्यायपदे वा 'समुच्छेदकल्पकार्येऽपि' आचार्ये कालगते गच्छधरणकार्येऽप्युपस्थिते 'नो अन्यथा' यदि सोडध्येय इति प्रतिजानानोऽपि नाधीयेतेति संभाव्यते तदा न स्थापनीय इति 'मेरा' सूत्रमर्यादा, तथा च सूत्र व्यवहारतृतीयोद्देशकस्थम् -"णिरुद्धवासपरिआए समणे णिग्गंथे कप्पति आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए समुच्छेयकप्पंसि, तत्थ णं आयारपकप्पस्स देसे अहिज्जिए भवति देसे णो अहिजिस्सामीति अहि जिजा, एवं से कप्पइ आयरियउवज्झायत्तं उद्दिसित्तए"त्ति गतार्थमेतत् । अत्र लक्षणयुक्तस्य ग्रहणं लोके वेदे समये च लक्षणयुक्त एव नायकः स्थापनीय | इति हेतोः राज्य इव राजकुमरेण गणधरपदे स्थापितेन लक्षणयुक्तेन गच्छविवृद्धिसिद्धेः, तदुक्तम्-"किं अम्ह लक्ख-13 जेहिं तवसंजमसुद्विआण समणाणं । गच्छविवडिणि मित्तं, इच्छिजइ सो जहा कुमरो ॥१॥"त्ति । तथा च लक्षण युक्ततागुणेन यद्यसमाप्तश्रुतोऽपि पदे स्थापनीयस्तदापि पश्चात्तेन श्रुताध्ययनं कर्त्तव्यमिति श्रुतार्थपरिज्ञानगुणस्य प्राधान्यम्।। कथं पश्चात्तेनाध्ययनं कर्त्तव्यम् ? इत्याह-गृह्णाति पश्चात् सदेशं त्ववशिष्टमाचार्यपदोपविष्टः सन् ॥ ७७ ॥ ७८ ॥ सगणे अणरिहगीयंतियम्मि पुविं तओ अअण्णत्थ। संभोइआण पासे, तओ असंभोइआणं पि ॥ ७९ ॥3 पासत्थाणं संविग्गपक्खिआणं तओ सउज्जोअं । तत्तोऽसंविग्गाणं, पासे सारूविआईणं ॥ ८॥ । 'सगणे'त्ति । 'पूर्व प्रथमतः स्वगणेऽनर्हाणाम्-आचार्यपदायोग्यानां गीतार्थानामन्तिके । अथ स्वगणे गीतार्था न विद्यन्ते ततः 'अन्यत्र' परगणे साम्भोगिकानां पार्थे, परगणे साम्भोगिकानामध्यभावे ततश्चासाम्भोगिकानामपि पार्श्व गुरुत. १३ Join Education For Private Personal use only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- गृह्णाति ॥ ७९ ॥ 'पासस्थाणं'ति । 'ततः' तदभावे संविग्नपाक्षिकाणां पार्श्वस्थानां पार्वे सह उद्योगेन-तेषां संयमयो- गुरुतत्त्वत्तियुतः गाभ्युत्थापनलक्षणेन वर्त्तते, यदिति क्रियाविशेषणम्, गृह्णाति देशम् । 'ततः' तदभावेऽसंविग्नानां सारूपिकादीनां पार्श्वे विनिश्चयः द्वितीयो- संविग्नपाक्षिकस्यापि भाष्ये संविग्नपदेनैव ग्रहणस्य व्याख्यानादसंविग्नाः सारूपिकादय एवावशिष्यन्त इत्यसंविग्नानामिति 2 लासः ग्रहणम् । संविग्नपाक्षिकयोगस्याप्यभावे प्रथममेव प्रतिक्रान्ताभ्युत्थितानां सारूपिकाणां पश्चात्कृतानां पार्चे गृह्णीयात् ।। ॥७३॥ तदभावे तादृशानां सिद्धपुत्राणां पार्वे ॥८॥ है अन्भुटिए उ काउं, दाउं वा समणलिंगमित्तरियं । तेसि पि य कायबो, पडिरूवो तत्थ विणओ अ॥८१॥ है। 'अब्भुट्ठिए उ'त्ति । यदि पश्चात्कृतादयो नाभ्युत्थिताः किन्तु लिङ्गतो गृहस्थास्तदा तानभ्युत्थितान् कृत्वाऽन्यत्र गत्वा | मुण्डान् कृत्वा सशिखानां च शिखां स्फेटयित्वा शिखास्फेटनमनिच्छतां तत्स्थापनेनापि दत्त्वा वा, वाशब्दो व्यवस्थार्थः, 'श्रमणलिङ्गमित्वरं' व्याख्यानवेलायां चोलपट्टकं मुखपोतिकां च ग्राहयित्वा तेषां समीपे गृह्णाति देशमिति योगः। यदि च तेऽन्यत्र गमनं नेच्छन्ति तदा तत्रापि सागारिकरहितप्रदेशे इत्वरश्रमणलिङ्गग्राहणपूर्व तेषां समीपे पठनीयमित्यपि द्रष्ट-16 व्यम् । तेषामपि तथाभूतानां पठताऽप्रतिरूपः विनयः तत्र श्रुतविषये वन्दनादिलक्षणः कर्त्तव्यस्तैः पुनरिणीय इति ॥८१॥ आहारोवहिसेजाएसणमाईसु तत्थ जइअवं। सिक्ख त्ति पए ण पुणो, अणुमोअणकारणे दुट्ठो ॥ ८॥ ॥७३॥ 'आहारो'त्ति । तेषां समीपे पठताऽऽहारोपधिशय्यैषणादिषु यथाशक्ति 'तत्र' स्थले यतितव्यम् । परिहर्त्तव्याश्च सावद्य For Private Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACC-SACC कार्यविषयाः करणकारणानुमोदनादोषाः । न पुनरध्यापकवैयावृत्त्यादौ कार्येऽनुमोदने कारणे च शिक्षा मयाऽस्य समीपे गृह्यते 'इति पदे' द्वितीयपदेऽपवादलक्षणे दुष्टः ॥ ८२ ॥ किं कुर्वन् ? इत्याहअलसे वा परिवारे, तयभावे सिद्धपुत्तमाईणं । अबुच्छित्तिकरस्स उ, भत्तिं कुणह त्ति जपंतो ॥ ८३ ॥ | 'अलसे'त्ति । यदि स पाठयन्नात्मनैवाहारोपध्यादिकमुत्पादयति तदा सुन्दरम् , अन्यथा 'अलसे' औचित्येन तत्कार्यम-18 कुर्वति परिवारे वा सति तस्य 'तदभावे' तदीयपरिवारस्यैवाभावे सिद्धपुत्रादीनाम् , आदिना पुराणश्राद्धादिपरिग्रहः, 'अव्यवच्छित्तिकरस्य' श्रुताविच्छेदकरस्य महतो ज्ञानपात्रस्य कुरुतास्य भक्तिम्' उत्कृष्टाहारसम्पादनादिरूपामिति जल्पन् ॥८३॥ दुविहासईइ तेसिं, आहाराई करेइ सो सवं । पणहाणीइ जयंतो, हुज्जा अत्तटमवि एवं ॥ ८४ ॥ | 'दुविहासईइत्ति । द्विविधस्य प्रतिचारकस्य-परिवारस्य सिद्धपुत्रादेश्चासत्यभावे 'तेषां' पार्श्वस्थपश्चात्कृतादीनां सः18 'सर्वम् आहारादिकमात्मना करोति । किं कुर्वाणः ? इत्याह-'पञ्चकहान्या यतमानः' प्रथमतो हि शुद्धमुत्पादयति, तद लाभे पञ्चकप्रायश्चित्तयोग्यम् , तदलाभे दशकयोग्यं यावच्चतुर्गुरुकमसंप्राप्तः। एवं यतमान आत्मार्थमप्येवं भवेत्-उद्गमा-1 दिदिदोषत्रयशुद्धमलभमानः पञ्चकादियतनया त्रिभिरपि दोषैरशुद्धं गृह्णीयात्तथाऽपि स शुद्ध एव ज्ञाननिमित्तं प्रवृत्तत्वात् ॥८४ ॥ तथा चाहएसो य पुरिसकारो, तस्स तया णेव दोसमन्भेइ । जयणाविसयत्तणओ, रागदोसाण विरहा य॥८५॥ torte -SCREENSESS For Private Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञव-18 'एसो य'त्ति । 'एष च' अशुद्धाहारोत्पादनादिगोचरः 'पुरुषकारः' प्रयत्नः 'तस्य' पठतस्तदा नैव दोषमभ्येति यतना गुरुतत्त्व विनिश्चयः त्तियुतः || विषयत्वाद्रागद्वेषयोविरहाच्चोत्सर्गप्रयत्नवत् ॥ ८५ ॥ तदेवमुक्तं छेदार्थज्ञानगुणस्य प्राधान्य व्यवहारित्वे, एतदेव समक-18 द्वितीयो. क्षमध्यस्थत्वगुणान्तर्भावेनोपसंहरन्नाह ल्लासः छदार्थविदापि ॥७४॥ तम्हा छेयत्थविऊ, मज्झत्थो चेव होइ ववहारी। अन्नायनाणभारो, णो पुण माई मुसावाई ॥ ८६ ॥ माध्यस्थ्यगु___ 'तम्ह'त्ति । तस्माच्छेदार्थविन्मध्यस्थश्चैव भवति व्यवहारी, न पुनरज्ञातज्ञानभारो गर्दभ इव फलतोऽनधिगतचन्दन- यत एवं भारो मायी मृषावादी च, ज्ञानवतोऽप्यमध्यस्थस्याव्यवहारित्वात् ॥ ८६ ॥ अत्र हेतुमाह भावव्यवजं एगस्स बहूण व, आगाढे कारणम्मि णेगविहे । माइमुसाबाईणं, असुईणं पावजीवीणं ॥ ८७॥ हारे योग्यः ___ 'जं एगस्स'त्ति । यदेकस्य बहूनां वाऽऽगाढे कारणे 'अनेकविधे' कुलादिच्छेद्ये सचित्ताचित्तादौ विवादास्पदीभूते मा-1 Vायिनां कथमहमेतस्य भक्तस्येप्सितं छिन्द्यामिति बुद्ध्या परच्छिद्राणि निरीक्षमाणानाम् , अत एव मृषावादिनाम्-आभाव्य-12 मनाभाव्यमनाभाव्यं चाभाव्यं वदताम्, अत एव 'अशुचीनां' प्राणातिपातादिविष्टोपलिप्तानाम् , अत एव 'पापजी- दोषाविष्करविनां' पापश्रुतोपजीविनाम् ॥ ८७ ॥ जावजीवं सुत्ते, कज्जाकज्जढिई हणंताणं । पडिसिद्धं णियदोसा, आयरियत्ताइदाणं तु ॥ ८८ ॥ 'जावज्जीवति । कार्याकार्यस्थितिं नतां निजदोपात्सूत्रे आचार्यत्वादिदानं तु 'तुः' एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, यावजीव LOCALCCU RACY अन्यथा ॥ ७४॥ Jain Educ a tional For Private & Personal use only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेव सूत्रे प्रतिषिद्धम्, तथा चात्र व्यवहारस्थं सूत्रसतकम् - " भिक्खू य बहुस्सुए बज्झागमे बहुसो बहुसो आगाढागादेसु कारणेसु माई मुसावाई असुई पावसुओवजीवी जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं णो कप्पइ आयरियतं वा जाव गणावच्छेइअत्तं वा उद्दित्तिए वा धारित्तए वा १ । एवं गणावच्छेइए वि २ । आयरियउवज्झाए वि ३ । बहवे भिक्खुणो बहुस्सुआ विज्झागमा बहुसो बहुसो आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई असुई पावसुओवजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पड़ जाव उद्दित्तिए वा धारितए वा ४ । एवं गणावच्छेइया वि ५ । आयरियउवज्झाए यावि ६ । बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेइआ बहवे आयरियउवज्झाया बहुस्सुआ बज्झागमा बहुसो बहुसो आगाढा गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई असुई पावसुओवजीवी जावजीवाए तेसिं तप्पत्तिअं णो कप्पइ आयरिअत्तं वा पवित्तित्तं वा थेरत्तं वा गणहरत्तं वा गणाविच्छेइअन्तं वा उद्दित्तिए वा धारित्तए वा ७"त्ति । अत्र प्रत्येकमेकत्वे सूत्रत्रयं प्रथमम्, बहुत्वे द्वितीयं सूत्रत्रयम्, सप्तमं च सूत्रं बहुभिक्षु बहुगणावच्छेदकत्रह्वाचार्यविषयम् । तत्र – “ शतमवध्यं सहस्रमदण्ड्यम्" इत्यादि लौकिक व्यवहारवद्बहूनां प्रायश्चित्तं न स्यादिति व्यावृत्त्यर्थं बहुत्वविशिष्टसूत्रग्रहणमिति वदन्ति ॥ ८८ ॥ अथ कथमयं मायी मृषावादी कार्याकार्यस्थितिं हन्तीत्यत्र प्रघट्टकमाह आहारमा इगहिओ, कज्जाकज्जट्ठि तु सो हणइ । जह कम्मि वि नगरम्मी, कज्जम्मि समागओ सूरी ॥ ८९ ॥ 'आहारमा 'त्ति | आहारादिना 'गृहीतः' व्यवहर्त्तव्यैर्वशीकृतः सन् 'सः' मायी कार्याकार्यस्थितिं हन्ति । यथा कस्मिंचिनगरे कार्ये उत्पन्ने सति सचित्तादिनिमित्तं वास्तव्य सङ्घस्य व्यवहारे जाते कश्चित्सूरिर्बहुश्रुतो बहुपरिवारश्च समागतः, ) माध्यस्थ्य गुणविरहि तस्य भाव व्यवहारिणो निदर्शनम्. w.jainelibrary.org Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनिश्चयः वोपज्ञव. त्तियुतः । द्वितीयो- ॥७५॥ ल्लास: स च व्यवहारो वास्तव्यसङ्घन छेत्तुं न शक्यत इति वास्तव्यसङ्घन त्वमेतं व्यवहारं छिन्द्धीति तत्र व्यवहारे नियुक्तः स गुरुतत्त्व सूरिरिति गम्यम् ॥ ८९ ॥ णाएण तेण छिन्नो, ववहारो सो सुओवइटेणं । कुलगणसंघेहिँ तओ, कओ पमाणं गुणड्डो त्ति ॥ ९० ॥181 ‘णाएण' त्ति । 'तेन' समागतेन सूरिणा श्रुतोपदिष्टेन न्यायेनाभाब्यानाभाव्यविभागेन स व्यवहारच्छिन्नस्तत एपटू बहुश्रुतो न किमपि श्रुतोत्तीर्ण वदतीति गुणाब्य इति कुलगणसङ्घः प्रमाणं कृतः ॥ ९०॥ तो सेविउं पवत्ता, आहारादीहिँ तं तु कारणिआ। अह छिन्दिउं पवत्तो, णिस्साए सो उ ववहारं ॥११॥ 'तो सेविति। 'ततः' कुलगणसबैस्तस्य प्रमाणीकरणात् 'त' समागतसूरिं 'कारणिकाः' विवदमानाः श्रावकसिद्धपुत्रादय|81 | आहारादिभिः सेवितुं प्रवृत्ताः। अथ स तु तैदीयमानान्याहारादीनि प्रतीच्छन् व्यवहारं निश्रया पक्षपातेन छेत्तुं प्रवृत्तः॥९१॥| पञ्चत्थीहिमवगयं, छिंदऍ णिस्साइ एस ववहारं। को अण्णो णायविऊ, हुज त्ति य चिंतियं तेहिं ॥१२॥ 'पञ्चत्थीहिं'ति । ततो ये आहारादिकं न दत्तवन्तस्तैः प्रत्यर्थिभिरवगतं यथा छिनत्ति निश्रया एष व्यवहारम् , कोऽन्यो| न्यायविद्भवेद् ? य एनं व्यवहारमनिश्रया पारं प्रापयतीति च चिन्तितं तैः॥ ९२॥ अह अण्णया पघुटे, णायं काउंतु संघसमवाए । कोइ निउणो समेओ, आगंतवं जओऽवस्सं ॥ ९३॥ 'अह'त्ति । अथान्यदा सचित्तादिव्यवहारच्छेदार्थ न्यायं कर्तुं सङ्घसमवाये 'प्रघुष्टे' उद्घोषणया मेलिते तां प्रघोषणां श्रुत्वा । CHCRACHANAGARAAG ॥ ७५॥ in due For Private Personal use only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कश्चित् 'निपुणः' सूत्रार्थतदुभयकुशलः प्राघूर्णकः समेतः, यतः समवायघोषणामाकर्ण्य धूलीधूसरैरपि पादैरवश्यमागन्त-181 व्यम् , अन्यथा प्रायश्चित्तप्रसङ्गात् ॥ ९३ ॥ एतदेवाह भाष्यगाथात्रयेणघुम्मि संघकज्जे, धूलीजंघो वि जो ण एज्जाहि । कुलगणसंघसमाए, लग्गइ गुरुए चउम्मासे ॥९॥ 'घुट्टम्मित्ति । सङ्घकार्ये धूलीजयोऽप्यास्तामन्य इत्यपिशब्दार्थः, धूल्या धूसरे जर्छ यस्य स धूलीजङ्घः, शाकपार्थिवादिदर्शनान्मध्यमपदलोपी समासः, सति बले यो नाप्रमत्ततया त्वरितमागच्छेत् कुलगणसङ्घसमवाये स गुरुके चतुर्मासे लगति, तस्य गुरुकाश्चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तमिति भावः॥ ९४ ॥ न केवलमेतत् किन्त्वन्यदपि, तथा चाह जं काहिंति अकजं, तं पावइ सइ बले अगच्छंतो । अण्णं च तओ ओहाणमाइ जं कुन्ज तं पावे ॥९५॥ AT G काहिंति'त्ति । सति बलेऽगच्छन् व्यवहारकारी अन्यैरन्यथा छिन्ने व्यवहारे यत्करिष्यन्ति तत्प्राप्नोति, तन्निमित्तमपि3 प्रायश्चित्तं तस्यापद्यते । अन्यदपि चापमानवशतः स व्यवहर्त्तव्यो यदवधावनादि कुर्यात्तदपि प्रामोति ॥ ९५ ॥ तम्हा उ संघसदे, घुढे गंतत्व धूलिजंघेणं । धूलीजंघणिमित्तं, ववहारो उढिओ सम्मं ॥ ९६ ॥ 'तम्हा उत्ति । यत एवमनागमने दोषारतस्मात् सङ्घशब्दे घुष्टे धूलीजडेनाप्यवश्यं साते बले गन्तव्यम् , यतः कदा-11 चिलीजङ्घनिमित्तं व्यवहारः सम्यगुत्थितो भवेत् , यथा-प्राघूर्णको गीतार्थो धूलीजङ्घः समागतः सन् यद्भणिष्यति तत्त्रमाणमिति ॥ ९६॥ SOURCHASANCHALCCAN memonumodarma For Private & Personal use only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः खोपज्ञवृ- तणागएण णायं, तेल्लघयाइहिँ एस संगहिओ । कज्जविवज्जयकारी, माई पावोवजीवी य ॥ ९७ ॥ गुरुतत्त्व| 'तेणागएण'त्ति । तेनागतेन धूलीजङ्घन गीतार्थेन कस्यचित्पार्धे श्रुत्वा ज्ञातम् , यथा-एष वास्तव्यो व्यवहारच्छेत्ता विनिश्चय द्वितीयो ल्लास: तैलघृतादिभिः संगृहीतः सन् 'मायी' अभीक्ष्णं मायाप्रतिसेवी 'पापोपजीवी च' परमार्थतः पापश्रुतावलम्बी 'कार्यविपर्य॥७६ ॥ Mयकारी' सूत्रमतिक्रम्याभाव्यानाभाव्यविभागकारी ॥ ९७ ॥ सो अच्छइ तुसिणीओ,ताजा उस्सुत्तभासिअं सुणइ।कीस अकजं कीरइ, वारेइ तओ असमएणं॥९॥ ST 'सो अच्छईत्ति । स तिष्ठति तावत्तूष्णीको यावद्वास्तव्येन व्यवहारे छिद्यमाने उत्सूत्रभाषितं शृणोति, 'ततश्च' उत्सू-18 श्रवणानन्तरं 'समयेन' सिद्धान्तेन वारयति-कस्मादिदमकार्य क्रियते ? इति ॥ ९८ ॥ न केवलमेवं निवारयति किन्तुहै जंपइ भेअणिमित्तं, साहणं जाणणाणिमित्तं च । णिद्ध महुरं णिणायं, विणीअमवि तं च ववहारं ॥९९॥ PI 'जंपत्ति । जल्पति च भेदनिमित्तं दुर्व्यवहारिणाम् , साधूनां वास्तव्यं दुर्व्यवहारिणं तथात्वेनाजानतां ज्ञापनानिमित्त च स्निग्धं मधुरं निर्वातं विनीतमपि च तं व्यवहारम् । यदि घृताद्यनुवृत्ता वितथं व्यवहरन्ति तदा जल्पति-अहो! स्निग्धोऽयं व्यवहार इति । यदि च मिष्टानाद्युपग्रहेणाकार्यमाचरन्ति ततो जल्पति-अहो! मधुरोऽयं व्यवहार इति ।। यदि पुनरुपाश्रयो निर्वातो लब्धः शीतप्रावरणानि चेति यथा तथा प्रज्ञापयन्ति ततो जल्पति-अहो ! निर्वातोऽयं व्यव-12 ॥७६॥ हार इति । अथ कृतिकर्मविनयादिभिः सङ्गहीता दृष्टमदृष्टं कुर्वन्ति ततो जल्पति-अहो! विनीतोऽयं व्यवहार इति ॥९९॥ For Private & Personal use only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्व्यवहारिणो निग्रहप्र काराः एवं णिहोडणाए, कयाइ णाएण तेण गीयत्था । सुत्तं उच्चारेउं, एअस्स दिसं अवहरंति ॥ १०॥ PI एवं'ति । 'एवम्' अमुना प्रकारेण 'तेन' धूलीजङ्घन 'निहोडणायां' निवारणायां कृतायां न्यायेन गीतार्थाः 'सूत्रम्' उक्तसूत्रसप्तकात्मकमुच्चार्य 'एतस्य' दुर्व्यवहारिणः 'दिशम्' आचार्यत्वादिकां 'अपहरन्ति' उद्दालयन्ति ॥ १० ॥ जइ हुज अप्पदोसो, आउट्टो वि य तया पुणो दिति । बहुदोसेऽणाउट्टे, जावज्जीवंण तं दिति ॥ १॥ | 'जइ हुज'त्ति । यदि भवेत् 'अल्पदोषः' अल्पापराधः 'आवृत्तः' सङ्घक्षामणपूर्व पुनरेवं न करिष्यामीति प्रतिज्ञाकारी च तदा तस्यापहृतां दिशं पुनर्ददति । अनावृत्ते आवृत्ते वा बहुदोषे पुरुषे यावज्जीवं न 'ताम्' अपहृतामाचार्यत्वादिका दिशं ददति ॥ १॥ ननु यदि तस्याचार्यत्वादिका दिग् न नष्टा तदा किं निग्रहवचनैः ? यदि च नष्टा तदा कथमनुग्रहहै वचनैः सङ्घटेताऽपि ? इत्यत आहजह धणनिटं सत्तं, दाणे णस्सइ पडिग्गहे होइ । इत्थ वि णासुप्पाया, तह णेया सुत्तणीईए ॥२॥ 'जह'त्ति । यथा धननिष्ठं स्वत्वं यथेष्टनियोगादिना पुण्यादिप्रयोजकपर्यायरूपदाने नश्यति, प्रतिग्रहे च भवति' उत्पद्यते, तथा 'अत्रापि प्रकृतायां दिश्यपि सूत्रनीत्या सुव्यवहार(रि)गीतार्थनिग्रहानुग्रहवचनाभ्यां नाशोत्पादौ ज्ञेयौ।। कालाद्यनाश्यायां तस्यां निग्रहस्य नाशकत्वे निग्रहजनितनाशोत्तरदिगुत्पादादौ चानुग्रहस्य हेतुत्वे दोषाभावाद्वस्तुतोऽननुगतानां कारणानामननुगतकार्यजननेऽप्येकशक्तिवादिनामस्माकं न काचित् क्षतिरित्यधिकं लतायाम् ॥२॥ एतदेवाह SEARNAGAR in Minna Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- गुरुदिन्ना वि हुएसा, थेराणं विमइओ विणस्सिजा। तयदिन्ना वि हु तेसिं, उवगमओ हुज जं भणियं॥३॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः । 'गुरुदिन्ना वि हुत्ति। गुरुदत्तापि 'एषा' आचार्यत्वादिका दिक् 'स्थविराणां' श्रुतवृद्धानां 'विमतितः' अनभ्युपगमाद्विन-विनिश्चयः द्वितीया- श्येत् । तददत्तापि' गुर्वदत्तापि चैषा 'तेषां स्थविराणां 'उपगमतः' अङ्गीकाराद्भवेद् , यद्भणितं एतद्वयवहारभाष्ये ॥३॥ ल्लासः ॥ ७७ ॥[आसुकारोवरए, अट्टाविए गणहरे इमा मेरा । चिलिमिलि हत्थाणुन्ना, परिभवसुत्तत्थहावणया॥४॥31 अकस्मात् कालगतेआती 'आसुक्कारोवरए'त्ति । आशुकारेण-शूलादिनोपरतः-कालगतः आशुकारोपरतस्तस्मिन् सत्याचार्येऽस्थापितेऽन्यस्मिन् | चार्येऽन्यागणधरे 'इयं वक्ष्यमाणा मर्यादा। तामेवाह-'चिलिमिलि' इत्यादि । आशुकारोपरत आचार्यों यवनिकान्तरितः प्रच्छन्नः। चार्यस्थाकार्यों वक्तव्यं च-आचार्याणामतीवाशुभं शरीरं वाचापि वक्तुं न शक्नुवन्तीति, तदा यो गणधरपदार्हस्तं यवनिकाया पने मर्यादा. बहिः स्थापयित्वा सूरयो भण्यन्ते को गणधरः स्थाप्यताम् ? एवं चोक्त्वा यवनिकान्तरस्था गीतार्था आचार्यहस्तमुपयु ॥ ७७॥ न्मुखं कृत्वा स्थाप्यमानगणधराभिमुखं दर्शयन्ति वदन्ति च गणधरत्वमेतस्यानुज्ञातं परं वाचा वक्तुं न शक्नुवन्ति, एषा हस्ता द्विआचार्यादिनुज्ञा । तत एतस्योपरि वासा निक्षिप्यन्ते, स्थापित एष गणधर इति । पश्चात्कालगता आचार्या इति प्रकाश्यते । परिभव-15 पदस्थापने या' इति, ततो येऽभिनवस्थापिताचार्यस्य परिभवोत्पादनबुद्ध्याचार्योचितं विनयं न कुर्वन्ति तेषां सूत्रमर्थ स्थविरानुवा हापयति-न ददातीत्यर्थः । अत्र हि परमार्थतो गुर्वदत्तापि स्थविरैरेव दिग् दत्तेति ॥ ४ ॥ एतद्वचनान्तरमेवाह मतेः प्राधाएस समुक्कसिअवे, इय आयरिअस्स चेव वयणम्मि। दोसगुणे णाऊणं, सुबइ थेराण भयणा य॥५॥ यम. SOUNDCRECORRECONSCRECRUGROCE मनमा Jain Education international For Private & Personal use only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'एस'ति । एषः 'समुत्कर्षयितव्यः' आचार्यपदे स्थापनीय इत्याचार्यस्यैव वचने दोषगुणौ ज्ञात्वा स्थविराणां भजना च समुत्कर्षणे श्रूयते । तथा च स्थविरानुमतिरेव दिग्दाने प्रधानं कारणमिति सिद्धम् । अत्र चेदं सूत्रं व्यवहारचतुर्थीदेश के - "आयरियउवज्झाए गिलाएमाणे अण्णयरं वइज्जा - अज्जो ! मए णं कालगयंसि समाणंसि अयं समुक्कसियबे, से य समुकसणारिहे समुक्कसि अबे, से य णो समुक्कसणारिहे णो समुक्कसिअबे, अस्थि या इत्थ केइ अण्णे समुकसणारिहे से समुक्कसि अधे, णत्थि या इत्थ केइ अण्णे समुक्कसणारिहे से चैव समुक्कसिअधे । तंसि च णं समुकटुंसि परो वइज्जा - दुस्समुक्कट्ठे ते अज्जो ! णिक्खिवाहि, तस्स णं णिक्खिवमाणस्स वा अणिक्खिवमाणस्स वा नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जे तं साहम्मिया अहाकप्पेणं ण अन्भुट्टेति तेसिं तप्पत्तिए छेए वा परिहारे वा ।" अस्यार्थः- आचार्य उपाध्यायो वा धातुक्षोभादिना ग्लायन्नन्यतरमुपाध्यायप्रवर्त्तिगणावच्छेदक भिक्षूणामन्यतमं पूर्व कुतश्चिद्धेतोरसमुत्कर्षितवान् सापेक्षः सन् वदेत्-आर्य ! मयि कालगते सत्ययं 'समुत्कर्षयितव्यः' आचार्यपदे स्थापनीयः । स च परीक्षया समुत्कर्षणार्हो भ वति ततः समुत्कर्षयितव्यः । अथ यदि गारवेच्छाऽसमाधिमरण भीत्युत्पादन निमित्तकगणदानानुमतिकत्वभिन्न देशीयत्वपरुषभाषणादिभिर्हेतुभिः प्रागनुमतोऽपि गुरोर्न समुत्कर्षयितव्य इति ज्ञातः स न समुत्कर्षयितव्यः । यश्च पूर्वं समीहितः सत्यपि मधुरत्वेऽसङ्ग्रहशीलो वाचकत्वनिष्पादकत्वोभयगुणविकलश्च सोऽपि न स्थापयितव्यः । यदि चाचार्याणां सर्वेऽपि शिष्या अनिर्माता इति प्रातीच्छिकस्तैरन्तसमये स्थाप्यते, मम शिष्ये निर्मापिते त्वया गणधरणपदं निक्षेप्तव्यमित्यभ्युपगमकारणपूर्वकम् । यो वा निर्मातः स्वशिष्योऽनिर्माते बहुभागे शिष्यान्तरे तत्र निर्मापिते उक्ताभ्युपगमकारणपूर्वकं स्था : % Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ0-50- स्वोपज्ञव-जाप्यते । एतयोर्द्वयोः प्रतिज्ञासमाप्तौ गणधरपदमनिक्षिपतोश्छेदः परिहारः सप्तरात्रं वा तप इति प्रासङ्गिक प्रतिपत्तव्यम् ।। गुरुतत्त्व त्तियुतः अथ य आचार्येण समुत्कर्षयितव्यतयोक्तः स च कालगते आचार्येऽभ्युद्यतविहारमभ्युद्यतमरणं वा प्रतिपत्तुमुत्सहते त- विनिश्चयः द्वितीयो- दाऽस्ति चेदत्र गच्छेऽन्यः कश्चित्समुत्कर्षणार्हस्तदा स समुत्कर्षयितव्यः । नास्ति चेदन्यः समुत्कर्षणार्हस्तदा गीतार्थैर्याव- लासः द्गीतार्थनिर्मापणं गणधरपदं पालयत यूयं तस्मिन्निापिते च सति भवतां यत्प्रतिभासते तत्कुरुतेत्यभ्यर्थनापुरःसरं स एव समुत्कर्षयितव्यः । एवमुक्ते तेन गणधरपदं प्रतिपद्य कश्चिदेको निर्मापितः, पश्चात्तस्य चित्तं जातमभ्युद्यतविहाराद्ग च्छपरिपालनं विपुलतरनिर्जराद्वारम् , इत्थं व्यवसिते तत्र गीतार्था ब्रुवते निक्षेप्यं गणधरपदम् , स प्राह न निक्षिपामि 15 किन्विच्छामि गच्छं पालयितुमिति । एवमुक्ते क्षुभ्यन्तो वदन्ति ये दुःसमुत्कृष्टं तव गणधरपदं तव रुचितमेतत्परन्त्व स्माकं न रोचत इति तेषां चत्वारो गुरुकाः। अनिर्मापिते गणधरत्वं निक्षिपत्यपि त एवागीतार्थत्वेन गच्छसाधवो यत्सेविष्यन्ते तदपि चाधिकम् । निर्मापिते च तत्र निक्षिपतो न च्छेदः परिहारो वा सप्तरात्रं वा तपः। ये तु स्वगच्छसाधवस्तं स्वगच्छसाधुं प्रातीच्छिकं च पूर्वस्थापितं यथाकल्पेन कृतिकर्मादिना नाभ्युपतिष्ठन्ते तेषामपि छेदः परिहारो वा सप्त-1 रात्रं वा तप इति सङ्केपः ॥५॥ नन्वेवं गुरुदत्ताया दिशो गीतार्थैरपहरणे गुर्वाज्ञाभङ्ग इत्यत आहण य गुरुआणाभंगो, भावाणुन्नं पडुच्च इह णेओ।कज्जो दुटुच्चाओ, एसा वि हु हंदि गुरुआणा॥६॥ 'ण यत्ति । न चैवं गुर्वाज्ञाभङ्गो भावानुज्ञा प्रतीत्य 'इह' प्रकृते द्रष्टव्यः, भावमपेक्ष्यैव गुरुणा दिग्दानात् तदभावे । गुर्वाज्ञाया एव तत्राभावात् । किञ्च दुष्टस्य सतस्त्यागः कर्त्तव्यः, एषाऽपि हन्त ! गुर्वाज्ञैवेति दुर्व्यवहारिदिगनपहार एव 555 Jain Education international Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 SAMACHALISADSOOCAUSEOCOM गुर्वाज्ञाभङ्गः स्यात् ॥ ६ ॥ अत्रैवोपपादकमाह जंपि य महाणिसीहे, भणियं कुगुरुस्स संघवज्झत्तं । तं पि य जुज्जइ सम्म, दिसावहारं विणा कह णु॥७॥ MI 'जपि यत्ति । यदपि च महानिशीथे कुगुरोः सङ्घबाह्यत्वमुक्तं तदपि कथं नु सम्यग् दिगपहारं विना युज्यते ? अतो || गुरोर्भगवतश्चैकैवेयमाज्ञेति ॥ ७॥ फलितमाहमज्झत्थाण बहणं, तम्हा सक्खं दिसं तु अवहरइ । बलिअयरे वयणमिणं, दुववहारे सपरिवारे॥८॥ कजम्मि कीरमाणे, पक्खग्गहणेण रागदोसेहिं । किं संघो मज्झत्थो, अच्छइ गुणरयणपुन्नो वि॥९॥ दुर्व्यवहारिबलवंतेहिं इमेहि, कजे पक्खेण कीरमाणम्मि । जुत्तमजुत्तं वुत्तुं, लब्भइ अन्नो ण य उआहु ॥११०॥ दिगपहरणे जुत्तं जाणसितंभण, इय जइ तं केइ बिति निउणमई। णाएग तो पयंपइ, अणुमण्णेऊण सो संघ॥११॥ व्यवहार ज्ञस्यवाचोI 'मज्झत्थाण'त्ति । तस्माद्वहूनां मध्यस्थानां साक्षाद्दिशमपहरन्ति दुर्व्यवहारिणः । बलि कतरे च सपरिवारे दुर्व्यवहारे ATM आचार्ये सति वचनमिदं वक्तव्यम्-समागतो गीतार्थः॥८॥'कजम्मि'त्ति । 'रागद्वेषाभ्यां पक्षग्रहणेन' रागवशादेकस्य पक्षकरणेन द्वेषवशाचापरस्य पक्षाकरणेनेत्यर्थः 'कार्ये क्रियमाणे' वितथे व्यवहारे छिद्यमाने गुणरत्नपूर्णोऽपि सङ्घः किं मध्यस्थस्तिष्ठति? न स्थातव्यमेवं सङ्ग्रेनेति ॥ ९॥ किमर्थः?-'बलवंतेहिंति । बलवद्भिः 'एतैः' दुर्व्यवहारिभिः पक्षण कार्ये क्रियमाणेऽस्मिन् सङ्घसमवाये युक्तमयुक्तं वा यथास्थानं वक्तुमन्यो लभते उताहो न लभते? ॥ ११०॥ 'जुत्त' ति । गुरुत. १४ JainEducation For Private & Personal use only Againelibrary.org Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवृ-1 एवमुक्ते ते यदि 'केऽपि' सङ्घसमवायस्था निपुणमतयो ब्रुवते यत्त्वं युक्तं जानासि तद्भण, युक्तभणनस्यैवायमवसर इति गुरुतत्त्वत्तियुतः तदा सङ्घमनुमान्य स न्यायेन प्रजल्पति ॥ ११॥ सङ्घानुमाननप्रकारमेवाह विनिश्चयः द्वितीयो-संघो मारी संघो महाणुभागो, अहं च वेदेसिओ इह सयं च । संघसमिइं ण जाणे, तं भे सवं खमावेमि ॥१२॥5 लासः ॥७९॥ | 'संघोत्ति । सङ्घः महान् अनुभागः-अचिन्त्या शक्तिरस्येति महानुभागः, अहं च 'वैदेशिकः' विदेशवत्ती 'इह' अस्मिन् स्थाने भगवतीं 'सङ्घसमिति' सङ्घमर्यादां च स्वयं न जाने ततो युक्तमयुक्तं वक्तुं वा सर्व भे' भवतः क्षमयामि ॥१२॥ यतःअन्नन्ना समिईणं, ठवणा खलु तम्मि २ देसम्मि।गीयत्थजणाइन्ना, अदेसिओ तोण जाणामि ॥१३॥ | 'अन्नन्न'त्ति। तस्मिन् तस्मिन् देशे खलु अन्यान्या समितीनां सङ्घमर्यादानां स्थापना गीतार्थजनाचीर्णा ततोऽहमदेशि६ क इहत्यां सङ्घमर्यादास्थापनां न जानामि ततः क्षमयतः श्रुतोपदेशेनाहमपि किश्चिद्वक्ष्ये ॥१३॥ संघं अणुमण्णेउं, परिसग्गहणं करेइ सो पच्छा। सा खलु सुबवहारा, दोसु वि पक्खेसु मज्झत्था ॥१४॥ | 'संघ'ति । सङ्घमनुमान्य स पश्चात् 'पर्षब्रहणं करोति' समीचीनां ज्ञात्वा पर्षदं परिगृह्णातीत्यर्थः, सा खलु पर्षद् मध्यस्था र सती सुव्यवहारा भवतीति ॥ १४ ॥ भणइ अ अहिक्खिवंतो, दुववहारीण सिढिलचरणाणं। णो भे सञ्चं कहणं, मुद्धाणं धंधणं एयं ॥ १५॥ " 'भणइ त्ति । भणति चाधिक्षिपन् दुर्व्यवहारिणां शिथिलचरणानां यदुत नो 'भे' भवतामेतत् सत्यं कथनं केवलं | RROSAGAR AURANGA CRACANC41404 in Education International melibrary.org Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROSCALAMAUSAMROSAL 'मुग्धानां' गुणानालोचनपूर्वकविश्वासवता 'धन्धणं' ध्यान्धीकरणमेतत् ॥ १५ ॥ ओसन्नचरणकरणे, सच्चत्ववहारिया दुसद्दहिया । चरणकरणं जहंतो, सच्चत्ववहारियं पि जहे ॥ १६ ॥ | 'ओसन्नत्ति । अवसन्ने-शिथिलतां गते चरणकरणे-व्रतश्रमणधर्मपिण्ड विशुद्धिसमित्यादिरूपे यस्य तस्मिन् है व्यवहारिता' यथास्थितव्यवहारकारिता दुःश्रद्धेया, यतश्चरणकरणं जहत् सत्यव्यवहारितामपि जहाति ॥ ११६ ॥ जइआणेणं चत्तं, अप्पणओ नाणदंसणचरित्तं । तइआ तस्स परेसुं, अणुकंपा णत्थि जीवेसु ॥ १७॥ HI 'जइत्ति।यदाऽनेनाऽऽत्मनः सम्बन्धि ज्ञानदर्शनचारित्रं त्यक्तं तदा तस्य परेषु जीवेष्वनुकम्पा नास्ति । यस्य ह्यात्मनो दुर्गतौ प्रपततो नाऽनुकम्पा तस्य कथं परेष्वनुकम्पा भवेत् ? न कथश्चित् स्यात्, स्वानुकम्पार्थप्रवृत्त्यनुषङ्गलभ्यत्वात्परानुकम्पाया इति भावः ॥ १७॥ भवसयसहस्सलद्धं, जिणवयणं भावओ जहंतस्स। जस्स ण जायं दुक्खं, तस्स ण दुक्खं परे दुहिए॥१८॥ __ 'भव'त्ति । यस्य भवशतसहस्रः कथमपि लब्धं जिनवचनं 'भावतः' परमार्थतो जहतो दुःखं न जातं तस्य परस्मिन् दुःखिते कथं दुःखम् ? न कथञ्चित् , आत्मदुःखे दुःखितस्यैव परदुःखे दुःखितत्वसम्भवादिति भावः ॥ १८॥ संसारविरत्तस्स उ, आणाभंगे महब्भय होइ । गारवरसिअस्स पुणो, जिणआणाभंजणं कीला ॥ १९ ॥ 'संसार'त्ति । 'संसारविरक्तस्य तु' संसारविरक्तस्यैव तोरेवकारार्थत्वात् , आज्ञाभङ्गे महद्भयं भवति । गारवरसिकस्य । ANS-SCREUSAGENCOCALSOCIOS For Private & Personal use only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व त्तियुतः स्वोपज्ञव-16पुनर्जिनाज्ञाभञ्जनं क्रीडा, स्वरसत एव निरन्तरं तत्र प्रवृत्तेः ॥ १९ ॥ जेसिं भग्गवयाणं, उम्मग्गपरूवणं णियावित्ती । तेसिमकयपुण्णाणं, सुविसुद्धपरूवणं दूरे ॥ १२० ॥॥ विनिश्चयः द्वितीयो- 'जेसिं'ति । येषां 'भग्नवतानां' परित्यक्तप्रतिज्ञातपञ्चमहाव्रतमहाभाराणामुन्मार्गप्ररूपणमेव निजावृत्तिः, तेनैवाहारादि-4 लासः हादातृचित्तावर्जनसम्भवात् , तेषामकृतपुण्यानां सुविशुद्धप्ररूपणं दूर एच; पौरुषघ्नीं स्वां वृत्तिं परित्यज्य सर्वसम्पत्करी भिक्षामाद्रियमाणानामेव तत्सम्भवादिति भावः ॥ १२०॥ आयारे वढतो, आयारपरूवणे असंकियओ । आयारपरिभट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भइओ ॥ २१ ॥ | 'आयारे'त्ति । आचारे वर्तमानः खल्याचारप्ररूपणे 'अशक्यः' अशङ्कनीयो भवति । यः पुनराचारपरिभ्रष्टः सः 'शुद्ध-18 चरणदेशने' यथावस्थितचारित्रप्ररूपणे 'भक्तः' विकल्पितः, शुद्धचरणप्ररूपणाकारी भवति वा न वेत्यर्थः ॥ २१ ॥ भज-3 नामेवोपपादयतिसंविग्गोऽणुवएसं, ण देइ दुब्भासि कडुविवागं । जाणतो देइ तयं, पवयणणिद्धंधसो लुद्धो ॥ २२ ॥ । 'संविग्गो'त्ति । 'संविग्नः' संविग्नपाक्षिकः 'अनुपदेश' उत्सूत्रोपदेशं दुर्भाषितं न दत्ते 'कटुविपाक' घोरसंसारभ्रमण-18 IMI दुःखानुबन्धि जानान आचारपरिभ्रष्टोऽपि, तदुक्तं प्रथमाणे-"णियट्टमाणा वेगे आयारगोयरमाइक्खंती"ति । स्था-1॥८॥ नाङ्गेऽप्युक्तम्-"आघाइत्ता णामं एगे जो उंछजीवि”त्ति । दत्ते च 'तदू' दुर्भाषितमनुपदेशं प्रवचने-जिनशासने|Bi For Private & Personal use only SUEnelibrary.org Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निद्धम्धसः-अत्यन्ताशातनाकारी 'लुब्धः' वस्त्रपात्रशिष्यादिलोभाविष्टचित्त आचारपरिभ्रष्ट इति ॥ २२ ॥ एवमुक्त दुर्व्यवहारिणः प्राहुःताअम्हे अपमाणं,कय त्ति सोऊण भणइ मज्झत्थो। पढमं तित्थयरो च्चिय, पमाणमम्हं तओ अण्णे ॥२३॥ ४] 'ता अम्हे'त्ति । तद्वयं त्वयाऽप्रमाणीकृता इति श्रुत्वा भणति मध्यस्थः सः-प्रथमं तीर्थकर एवास्माकं प्रमाणं तन्मूल-| दत्वात्सर्वशास्त्राणाम् , ततोऽन्येऽप्याचार्याः ॥ २३ ॥ तथा चोक्तम् तित्थयरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोअगुरू। जो ण करेइ पमाणं, ण सो पमाणं सुअहराणं ॥२४॥ तित्थयरे भगवंते, जगजीवविआणए तिलोअगुरू । जो उ करेइ पमाणं, सो उ पमाणं सुअहराणं ॥२५॥ 31 तित्थयरेति । तीर्थकरान् भगवतः 'जगजीवविज्ञायकान्' सर्वज्ञानित्यर्थः, त्रिलोकगुरून् यो न करोति प्रमाणं न स: प्रभाणं श्रुतधराणाम् ॥ २४॥ तित्थयरे'त्ति । तीर्थकरान् भगवतो जगज्जीवविज्ञायकान् त्रिलोकगुरून् यस्तु प्रमाणं करोति स प्रमाणं श्रुतधराणाम् ॥ २५ ॥ अह विंति दुवियहा, एयं इको तुम भणसि सत्वं । ता संघो अपमाणं, कओ त्ति सोऊण सो भणइ ॥२६॥ KI 'अहत्ति । 'अर्थ' धूलीजङ्घदत्तस्वोपालम्भनानन्तरं 'दुर्विदग्धाः' दुर्व्यवहारिणो ब्रुवते-एतत् सर्वं त्वमेक एव भणसि | तत् सङ्घः सर्वोऽयमप्रमाणीकृत इति श्रुत्वा स भणति धूलीजङ्घः ॥ २६ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ष- संघो गुणसंघाओ, संघायविमोअगो अ कम्माणं । रागद्दोसविमुक्को, होइ समो सबजीवाणं ॥ २७ ॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः विनिश्चयः द्वितीयोF 'संघो'त्ति । सङ्घो नाम यो मूलगुणानामुत्तरगुणानां च सङ्घातो गुणसङ्घातात्मकत्वादेव च 'कर्मणां' ज्ञानावरणीया लासः ६दीनां सङ्घाताद्विमोचयति प्राणिन इति सङ्घातविमोचकः, तथा 'रागद्वेषविमुक्तः' आहारादिकं ददत्सु रागाकारी तद्वि॥८१॥ परीतेषु च द्वेषाकारीत्यर्थः, अत एव भवति समः सर्वजीवानाम् ॥ २७ ॥ सो खलु णो अपमाणं, सुओवएसेण ववहरंतो उ। इयरो अपमाणं चिय, न णाममित्तेण जं संघो॥२८॥ | 'सो खलु'त्ति । 'सः' इत्थम्भूतः खलु सङ्घो नाप्रमाणमस्माकं श्रुतोपदेशेन व्यवहरन् , इतरस्त्वप्रमाणमेव । 'यत्' यस्मान्न नाममात्रेण सङ्घो भवति, बौद्धादिसङ्घानामपि सङ्घत्वप्रसङ्गात् ॥ २८ ॥ तथा चोक्तम्- sapneण - |एगो साहू एगा, य साहुणी सावओ व सड्डी वा । आणाजुत्तो संघो, सेसो पुण अट्ठिसंघाओ ॥ २९ ॥ | 'एगो'त्ति । एकः साधुरेका च साध्वी एकः श्रावक एका च श्राविका एतावानप्याज्ञायुक्तः सङ्घः । शेषः पुनर्भूयान-2 प्याज्ञारहितत्वात्केवलमरनां सङ्घातः, तत्रेदशस्यैव सङ्घातपदार्थस्य युज्यमानत्वाद् भावसङ्घातस्याभावात् ॥ २९ ॥ भावसङ्घमेवाभिष्टौतिसंघो महाणुभावो, कजे आलंबणं सया होइ । णगराईआ तत्थ उ, दिटुंता जं सुए भणिया ॥ १३०॥ | 'संघो'त्ति । सो महानुभावः 'कार्ये' सचित्तादौ व्यवहारे सदाऽऽलम्बनं भवति 'यत्' यस्मान्नगरादयो दृष्टान्ताः तत्र' १॥ Jain Educatio-s ion For Private & Personal use only Hinelibrary.org Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दासढे 'श्रुते'आवश्यकनियुक्त्याख्ये भणिताः ॥ १३० ॥ किञ्च भाष्येऽप्युक्तम् परिणामियबुद्धीए, उववेओ होइ समणसंघो उ । कज्जे णिच्छयकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो ॥३१॥ | 'परिणामिय'त्ति । पारिणामिक्या बुद्ध्या 'उपेतः' युक्तो भवति श्रमणसङ्घः, तथा कार्ये दुर्गेऽपि समापतिते यत् श्रुतो पदेशवलेन सम्यग् निश्चितं तत्करणशीलः, तथा सुष्टु-देशकालपुरुषौचित्येन श्रुतघलेम च परीक्षितं यत्तस्य कारकः सो । न यथाकथञ्चनकारी ॥ ३१॥ किह सुपरिच्छियकारी, इक्कं दो तिन्नि वार पेसविए। णवि णिक्खिवए सहसा, कोजाणइ नागओ केण॥ दिगपहर णात् प्राग RI 'किह'त्ति । 'कथं' केन प्रकारेण सुपरीक्षितकारी? उच्यते-इहार्थिना सङ्घप्रधानस्य समीपे सङ्घसमवायो विहितः, तेन दुर्व्यवहारि|चाज्ञप्तः सामेलापककारी सङ्घस्त्वया मेलनीयः। तत्र च प्रत्यर्थी कुतश्चित्कारणान्नागच्छति ततो मानुषं प्रेषणीयं सहस्त्वां ण आकारशब्दयति, स नागतस्ततो द्वितीयमपि वारं मानुषं प्रेषयति तथापि नागच्छति, तत्रापरिणामका त्रुवते-निष्काश्यतामेष इति । गीतार्थस्त्वाह-पुनः प्रेष्यतां गीतार्थं मानुषं केन कारणेन नागच्छति ? किं परिभवेन ? उत भयेन?, तत्र यदि भयेन नागच्छति ततो वक्तव्यं नास्ति तव भयं परित्राणकारी खलु भगवान् श्रमणसङ्घ इति, अथ परिभवेन तदा निष्काश्यते, दएवं सुपरीक्षितकारी । तथा चाह-द्वौ त्रीन् वारान् मानुषे प्रेषितेऽपि तमनागच्छन्तं सहसा सङ्घः 'न निक्षिपति' न सङ्घ बाह्यं करोति, यत एवं सङ्घः पर्यालोचयति 'को जानाति? न ज्ञायत इत्यर्थः केन कारणेन नागतः? इति ॥ ३२॥ ण-पृच्छादि For Private & Personal use only jainelibrary.org Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- नाऊण परिभवेणं, नागच्छेती ततो उ णिजुहणा । आउट्टे ववहारो, एवं सुविणिच्छकारी उ ॥३३॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः 'नाऊण'त्ति । परिभवेन नागच्छतीति ज्ञात्वा तस्मिन्ननागच्छति 'ततः' सङ्घात् 'नि!हणा' निष्काशनं कर्त्तव्यम् । अथ है विनिश्चयः द्वितीयो 18|शठतामपि कृत्वा स प्रत्यावृत्तः सङ्घ प्रसादयति ततस्तस्मिन्नागते व्यवहारो दातव्यः । एवं सुविनिश्चितकारी सङ्घः ॥३३॥ यस्तु भीतो नागच्छति तं प्रतीदं वक्तव्यम्॥८२ आसासो वीसासो, सीअघरसमो अ होइ मा भीहि । अम्मापीतिसमाणो, सरणं संघो उ सवेसिं॥३४॥ | 'आसासो'त्ति । आश्वासयतीत्याश्वासः-भीतानामाश्वासनकारी भगवान् श्रमणसङ्घः, विश्वासयतीति विश्वासः-व्यव६ हारे वञ्चनाया अकत्तों, सर्वत्र समतया शीतगृहेण समः, तथा मातापितृभ्यां समानः-पुत्रेषु मातापितराविव व्यवहारा-15 हार्थिवविषमदी, तथा सर्वेषां प्राणिनां शरणं भगवान् सङ्घ-स्तस्मान्मा भैस्त्वमिति, इदं च परिभावय सङ्कोऽव्यवहार न करोति ॥ ३४ ॥ यतःसीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वा ण सोग्गइं णेइ । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोइंति ॥३५॥ सीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वावि एहिआ एए।जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोइंति ॥ ३६॥॥८॥ सीसो पउिच्छओ वा, कुल गण संघो न सोग्गई णेइ । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोइंति ॥३७॥ JainEducation For Private Personal Use Only Punary.org Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASTOSSUSPESAROSESSES सीसो पडिच्छओ वा, कुल गण संघो व एहिआ एए । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोइंति ॥३८॥ सीसे पडिच्छए वा, कुल गण संघे व जो उ समदंसी। ववहारसंथवेसु अ, सो सीअघरोवमो संघो॥३९॥ का 'सीसोत्ति । 'शिष्यः' स्वदीक्षितः 'प्रतीच्छकः' परगणवत्ती सूत्रार्थतदुभयग्राहकः 'आचार्य' वाचनाचार्यादिको न सु-11 गति नयति किन्तु ये 'सत्यकरणयोगाः' संयमानुगतमनोवाकायव्यापारास्ते संसाराद्विमोचयन्ति ॥ ३५ ॥ 'सीसो'त्ति । शिष्यःप्रातीच्छिको वाऽऽचार्यो वा 'एते' सर्वेऽपीह लोके उपयुक्ताः परलोके पुनः सत्यकरणयोगाः, तथा चाह-ये सत्यकरणयोगास्ते संसाराद्विमोचयन्ति ॥३६॥ 'सीसो'त्ति । शिष्यः प्रातीच्छिको वा कुलं वा गणो वा सङ्घो वा न सुगतिं नयति किन्तु ये सत्यकरणयोगास्ते संसाराद्विमोचयन्ति ॥३७॥ 'सीसो'त्ति सुगमा॥३८॥ 'सीसेत्ति । 'शिष्ये' स्वदीक्षिते 'प्रातीच्छि के वा' विद्या प्रतीच्छति कुले गणे सङ्के वा समदर्शी व्यवहारे उत्पन्ने, तथा 'संस्तवेषु' पूर्वसंस्तुतेषु पश्चात्संस्तुतेषु वाऽन्यः समं व्यवहारे जाते समदर्शी, अतः सङ्घः शीतगृहोपमः। यथा शीतगृहमाश्रितानां स्वपरविशेषाकरणतः परितापपरिहारि| तथा व्यवहारार्थमागतातां सङ्घोऽपि स्वपरविशेषाकरणतः परितापपरिहारीति॥ ३९ ॥ सम्प्रति सङ्घशब्दस्य व्युत्पत्तिमाहगिहिसंघायं जहिउं, संजमसंघायगं उवगए णं । नाणचरणसंघायं, संघायंतो हवइ संघो ॥ १४॥ सङ्घशब्दस्य 'गिहिसंघाय'ति । गृहिणां-संसारिणां मातापित्रादीनां सङ्घातं 'हित्वा' परित्यज्य संयमसङ्घातमुपगतः सन् णमिति यथार्थी व्युवाक्यालङ्कारे ज्ञानचरणसङ्घातं सङ्घातयति स्वात्मनि स्थितं करोति स ज्ञानचरणं सङ्घातयन् भवति सङ्घः, सङ्घातयतीति त्पत्तिः For Prives Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवृ त्तियुतः. द्वितीयो ॥८३॥ OGRAMCECASSOCSLAMSAX सङ्घ इतिव्युत्पत्तेः । विपरीतस्तु सङ्घो न भवति ॥ १४० ॥ यतः गुरुतत्व नाणचरणसंघायं, रागदोसेहिं जो विसंघाए । सो संघायइ अबुहो, गिहिसंघायम्मि अप्पाणं ॥४१॥ विनिश्चयः __'नाण'त्ति । यो ज्ञानचरणसङ्घातं रागद्वेषैः अनेकव्यक्त्यपेक्षया बहुवचनम् , विसङ्घातयति सः 'अबुद्ध' मूल् गृहिस-15 ल्लासः जाते आत्मानं 'सखातयति' मेलयति स परमार्थतोन सङ्कः, ज्ञानचरणसङ्कातलक्षणप्रवृत्तिनिमित्तभावात् तात्पर्यबललभ्यविशिष्टव्युत्पत्तिनिमित्तस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वात् , सङ्घातनमात्रव्युत्पत्तिनिमित्तापेक्षया त्वस्थिसङ्घातनरूपः स सङ्घ इत्युक्तं प्राक् ॥४१॥ एतस्यापायरूपं फलमाहनाणचरणसंघायं, रागद्दोसेहिं जो विसंघाए । सो भमिही संसारं, चउरंगतं अणवदग्गं ॥ ४२ ॥ | 'नाण'त्ति । यो ज्ञानचरणसङ्घातं रागद्वेषैः 'विसङ्घातयति' विघटयति स संसारं चतुर्वङ्गेषु-नारकतिर्यङ्नरामरगति-15 रूपेषु अन्तः-पर्यन्तो यस्य स तथा तम्, 'अनवदग्रं कालतोऽपरिमाणं भ्रमिष्यति । तस्य च संसारं परिभ्रमतो वितथव्यवहारकारित्वेनोन्मार्गदेशनया तीर्थकराशातनया च बोधिरपि भवान्तरे दुर्लभा ॥ ४२ ॥ तथा चाह दुक्खेण लहइ बोहिं, बुद्धो वि य न लभई चरितं तु।उम्मग्गदेसणाए, तित्थयरासायणाए अ॥४३॥ HT 'दुक्खेण'त्ति । एवं वितथं व्यवहारं कुर्वता तेनोन्मार्गो दर्शितः, तथा तीर्थकरः स्वाशातितः । तत उन्मार्गदेशनया ॥ ३ ॥ तीर्थकराशातनया च स संसारं परिभ्रमन् दुःखेन लभते बोधिम् । बुद्धापि च न लभते चारित्रम् ॥ ४३ ॥ कस्मान्न JainEducati- NCR For Private & Personal use only Mahelibrary.org Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लभते ? अत आहउम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाइ मग्गस्स । बंधइ कम्मरयमलं, जरमरणमणंतयं घोरं ॥४४॥ 'उम्मग्गत्ति । उन्मार्गस्य देशनया सतश्च मार्गस्य च्छादनया बनाति कर्म । किंविशिष्टम् ? इत्याह-रज इव रजः-समणोद्वर्तनापवर्तनायोग्यम् , मल इव, मल:-निधत्तनिकाचितावस्थम्, तथा जरामरणान्यनन्तानि यस्मात्तजरामरणानन्तकं प्राकृतत्वाद्विषेशणस्य परनिपातः, मकारोऽलाक्षणिकः, अत एव 'घोरं' रौद्रमतो न लभते बोधिं नापि चारित्रमिति॥ ॥४४॥ अथ कीदृशेन व्यवहार छेत्तव्यः ? तत आहहापवज खित्त कालं, णाउं उवसंपयं च पंचविहं । तो संघमज्झयारे, ववहरियवं अणिस्साए ॥४५॥ RI 'पवजत्ति । 'तत्' तस्मात्मव्रज्या क्षेत्रं कालं पञ्चविधामुपसम्पदं च ज्ञात्वा सङ्घमध्येऽनिश्रयाऽऽहारादिप्रदायिषु स्वकु लसम्बन्धादिषु वा रागाकरणत इतरेषु द्वेषाकरणतश्च व्यवहर्त्तव्यम् ॥ ४५ ॥ पर आहगझो बहुस्सुअकओ,सुत्तुत्तिपणो वि किं ण ववहारो।अपसत्था य पसत्था, ववहारीजंदुहा भणिया४६॥ । 'गझो'त्ति । वहुश्रुतैः कृत इति हेतोः सूत्रोत्तीर्णोऽपि व्यवहारः किमिति न ग्राह्यः ? अत्रोच्यते-'यत्' यस्मादप्रशस्ताः प्रशस्ताश्च द्विविधा व्यवहारिणो भणिताः ॥ ४६ ॥ तानेव यथाक्रमं सनिदर्शनमभिधित्सुराहतगराए णगरीए, एगायरियस्स पासि णिप्फण्णा । सोलस सीसा तेसिं, अव्ववहारी इमे अट्ठ ॥ ४७ ॥ व्यवहारकर्तुमर्यादा CREASECRECAREAK व्यवहारकर्तुरप्रशस्तप्रशस्तत्वेन द्वैवि. ध्यम् Main Education International For Private & Personal use only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो - ॥ ८४ ॥ 'तगराए'त्ति । तगरायां नगर्यामेकस्याचार्यस्य पार्श्वे षोडश शिष्या निष्पन्नास्तेषां मध्ये इमेऽष्टाऽव्यवहारिणः ॥ ४७ ॥ कंकडुए कुणिमे तह, पैक्के वि य उत्तरे अ चैवाए । बहिरे गुंठसमाणे, अट्ठमए अंबिले होइ ॥ ४८ ॥ 'कंकडुए 'ति । कङ्कटुकः १ कुणपः २ पक्कः ३ उत्तर ४ श्चार्वाकः ५ बधिरः ६ 'गुण्ठसमानः' लाटमायाविसमानः ७ अष्टमकश्च 'अम्लः' अम्लसमानो भवति ॥ ४८ ॥ कङ्कटुकं कुणपं च विवेचयति कंकडुओ सो जस्स उ, सिद्धिं ण उवेइ जाउ ववहारो । कुणिमो जो न विसुज्झति, दुच्छिज्जो जस्स ववहारो 'कंकडुओ सो’त्ति । यस्य व्यवहारः 'जातु' कदाचित्सिद्धिं नोपयाति कङ्कटुकभाष इत्र गौण्या वृत्त्या कङ्कटुकः प्रसिद्धः १ । यस्य व्यवहारो दुश्छेद्योऽत एवं यो व्यवहारं छिन्दन्न शुध्यति कुणपनखावयववत् स कुणपनखावयव तुल्यव्यवहार करणयोगात्कुणपः २ ॥ ४९ ॥ पक्वमाह - पक्को पडणा पागागमणा वा हंदि पक्कफलसरिसो । पक्कुल्लावभया वा, जस्स ण कज्जं परे दिति ॥ १५० ॥ 'पक्को'ति । यस्य व्यवहारः फलमिव पक्कं पतति न पुनः स्थिरोऽवतिष्ठते । अथवा यस्य व्यवहारः पक्कयोगात्पाकं न गच्छति स तादृशव्यवहारद्वारा पतनात्पाकागमनाद्वा हन्दीत्युपदर्शने पक्कफलसदृशः सन् पक्व इति ख्यातः । प्रकारान्तरमाह- 'वा' अथवा पक्का ये उल्लापा यैर्भाषिताः सन्तोऽन्ये सद्वादिनस्तूष्णीमासते तेभ्यो यद्भयं तस्माद्यस्य कार्य 'परे' शेषका: 'न ददति' नोदीरयन्ति स पक्कः ३ ॥ १५० ॥ उत्तरमाह गुरुतत्त्व. विनिश्चयः ल्लासः अष्टावप्रश स्ता व्यव हारिणः ॥ ८४ ॥ ainelibrary.org Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुत. १५ सोवाहणेण पाएण पडिहओ त्ति य कउत्तरु व णरो। गीयत्थोवालद्धो, छलग्गही उत्तरो भणिओ ॥ ५१ ॥ 'सोवाहणे 'ति । सोपानहा पादेन प्रतिहत इति कृतोत्तरो नर इव गीतोपालब्धः सन् छलग्राही उत्तरो भणितः । इयमत्र भावना - केनापि कश्चित्सोपानहा पादेनापहतस्तेन च गत्वा राजकुले निवेदितम्, कारणिकैश्च स आकारितः पृष्टश्च किं त्वयैष आहतः ? इति स प्राह-न मयैष आहतः किन्तु सोपानहा पादेन एवं दुर्व्यवहारं कुर्वन् गीतार्थेनोपालब्धः सन्नेतादृशैश्छल वचनैरुत्तरं ददाति स खल्वसदुत्तरकरणादुत्तर इति ४ ॥ ५१ ॥ चार्वाकमाह - वसभेण वसभसागारियस्स विरसस्स चवणे व रसो। जस्स ण विहलत्थस्स उ, सो चढाओ समक्खाओ ॥ 'वसभेण'त्ति । वृषभेण विरसस्यापरवृषभसागारिकस्य चर्वण इव यस्य न 'विफलार्थस्य' निष्फलं चर्वयतः कार्ये रोमन्धायमाणस्य रसः स चार्वाकः समाख्यातः ५ ॥ ५२ ॥ बधिरगुण्ठसमानावाह कहिए कहिए कज्जे, बहिरो ण सुअं मए त्ति भासतो । गुंठसमाणो मरहट्टमोहकरलाडमाइलो ॥ ५३ ॥ 'कहिए'त्ति । कथिते कथिते कार्ये न श्रुतं मयेति भाषमाणो बधिरः ६ । गुण्ठतमानश्च महाराष्ट्रस्य मोहकरो व्यवहारापहारकारिभ्रमोत्पादको यो लाटस्तद्वन्माथिल्लः - मायावान् । तथाहि एको लाटो गन्या किमपि नगरं व्रजति । अन्तराले च महाराष्ट्रको मिलितस्तेन लाटः पृष्टः- कीदृशाः खलु लाटा गुण्ठा भवन्ति ? इति मायाविनो भवन्तीत्यर्थः, स प्राह-पश्चात्कथयिष्यामि । मार्गे च गच्छतः शीतवेलो (लाड) पगता, ततो नष्टे शीते महाराष्ट्रकेण प्रावारो गव्यां क्षिप्तः । तस्य च प्रावारस्य ) ary.org Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो - ॥ ८५ ॥ | दशिका लाटेन गणिताः । ततो नगरप्राप्तौ महाराष्ट्रकेण प्रावारो ग्रहीतुमारब्धः । लाटो ब्रूते किं मदीयं प्रावारं गृह्णासि ?, एवं तयोः परस्परं विवादो जातः । महाराष्ट्रकेण लाटो राजकुले कर्षितः । विवादे लाटोऽवादीत्-पृच्छत महाराष्ट्रकं यदि तव प्रावारस्तर्हि कथय कियत्योऽस्य दशाः सन्ति ? | महाराष्ट्रकेण न कथितास्तेन च लाटकेन कथिता इति महाराष्ट्रिको जितः । ततो राजकुलादपसृत्य लाटेन महाराष्ट्रकमा कार्य प्रावारं च तस्मै दत्त्वोक्तं यत्त्वया पृष्टं कीदृशा लाटा गुण्ठा भवन्ति? इति, तत्रेदृशा लाटा गुण्ठा इति जानीहीति । एवमादिकाभिर्गुण्ठाभिर्मोहयित्वा यो व्यवहारं हरति स गुण्ठसमान इति ७ ॥ ५३ ॥ अम्लमाह सो अंबिलो ण जस्स उ, फरुसाइ गिराइ कज्जसंसिद्धी । एए अट्ठ वि तइआ, णिद्धम्मा आसि कालम् ॥ जेहिं कया ववहारा, ण हु मण्णिज्जंति अण्णरजेसु । अट्ठवि अकज्जकारी, दुववहारी इमे आसी ॥ ५५ ॥ 'सो अंबिलो 'ति । यस्य तु परुपया गिरा ययोक्तया शरीरं चिडचिडायते कार्यस्य - व्यवहारस्य संसिद्धिर्न भवति सोऽम्लवचनयोगादम्ल इति ८ । अष्टाप्येते 'तदा' तस्मिन् काले निर्द्धर्माण आसीरन् ॥ ५४ ॥ 'जेहिं 'ति । यैः कृता व्यवहाराः 'न हु' नैव मन्यन्तेऽन्यराज्येषु । अष्टाप्यकार्यकारिणो दुर्व्यवहारिण इमे आसीरन् तगरायां नगर्याम् ॥ ५५ ॥ तादृशानां दुर्व्यवहारिणामिहलो के परलोके च फलमाहइहलोअम्मि अकित्ती, परलोए दुग्गई धुवा तेसिं । तित्थयराणाणाए, जे वबहारं ववहति ॥ ५६ ॥ ) गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः ।। ८५ ।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेण ण बहुस्सुओवी, होइ पमाणं अणायकारी उ।नाएण ववहरंतो, पमाणमण्णे जहा अट्ट ॥ ५७ ॥ अप्रशस्तव्यपढमे उ प्रसमित्ते, वीरे सिवकोटगे य अज्जासे। अरहन्नग धम्मंतग, खंदिल गोविंदर्दत्ता य ॥ ५८॥ वहारिण ऐ 18हिकामुष्मिएते उ कजकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि।जेहिं कया ववहारा. अक्खोभा अन्नरज्जेसु ॥५९॥ कफलनिर्देI 'इहलोअम्मिति । ये तीर्थकराणामनाज्ञया व्यवहारं व्यवहरन्ति तेषामिहलोकेऽकीर्तिः सुव्यवहारिणा पराजितानांश: अष्ट प्र. लोकैर्मायावित्वेन ज्ञातानां च स्यात् । परलोके च ध्रुवा तेषां दुर्गतिर्महापापोदयादिति ॥५६॥ तेण'त्ति । यत एवं दुर्व्य- शस्ता व्यववहारिण इहलोकेऽकीर्तिः परलोके च ध्रुवा दुर्गतिः 'तेन' कारणेन बहुश्रुतोऽप्यन्यायकारी न भवति प्रमाणम् । न्यायेनहारिणश्च पुनर्व्यवहरन् भवति प्रमाणम् , यथाऽन्ये तगरायां तस्यैवाचार्यस्याष्ट शिष्याः ।। ५७ ॥ 'पढमे उ'त्ति । प्रथमः पुष्पभित्रः |१, द्वितीयो वीरः २, तृतीयः शिवकोष्टकः ३, चतुर्थ आर्यासः ४, पञ्चमोऽहन्नकः ५, षष्ठो धर्मान्तगः ६, सप्तमः स्क न्दिलः ७, अष्टमो गोपेन्द्रदत्तः ८ इति ॥ ५८ ॥ एते उ' त्ति । एते' अनन्तरोदिताः तस्मिन् युगे' तस्मिन् काले 'काहार्यकारिणः' सुव्यवहारिणस्तगरायामासीरन् , यैः कृता व्यवहारा अक्षोभ्या अन्यराज्येषु ॥ ५९॥ सुव्यवहारिणामिहलोके परलोके च फलमाहइहलोअम्मि य कित्ती, परलोए सुग्गई धुवा तेसिं । आणाइ जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति ॥ १६०॥ 'इहलोगम्मि य' त्ति । ये जिनेन्द्राणामाज्ञया व्यवहारं व्यवहरन्ति तेषामिहलोके कीर्तिः परलोके च सुगतिधुंवा ॥१६०॥ CORRORECAL Jain Eu n tematon For Private & Personal use only Tww.jainetitrary.org Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपजवIतदेवं मध्यस्थस्य बहुश्रुतस्यैव भावव्यवहारित्वं फलितमित्याह गुरुतत्त्व त्तियुतः जो एवं पियधम्मो, परिवाडितिगेण गहिअसुत्तत्थो । ववहरइ भावसारं, सो ववहारी हवे भावे ॥६१॥ विनिश्चयः द्वितीयो-151 जो एवं ति । यः 'एवं' उक्तप्रकारेण प्रियधर्मा प्रथमा संहितालक्षणा, द्वितीया च पदार्थमात्रकथनलक्षणा, तृतीया ल्लास: च चालनाप्रत्यवस्थानात्मिकेत्येवंलक्षणेन परिपाटीत्रयेण गृहीतः सूत्रस्य-व्यवहारादिलक्षणस्याओं येन स तथा, भावसारं व्यवहरति स भावे व्यवहारी भवेत् ॥ ६१॥ ईदृशश्च न केवलं साधुः किन्तु संविग्नपाक्षिकोऽपि भवतीत्याह भावेणं ववहारी, इत्तो संविग्गपक्खिओ वि हवे । जम्हा सो मज्झत्थो, ववहारत्थेसु निउणो य ॥६२॥ PL 81 भावेणं'ति । 'इतः' मध्यस्थगीतार्थत्वस्यैव भावव्यवहारित्वाङ्गत्वात् संविग्नपाक्षिकोऽपि भावेन व्यवहारी भवेत् , म कस्य भावयस्मात् स मध्यस्थ आज्ञाभङ्गभयेनानिश्रितोपश्रितव्यवहारी व्यवहारार्थेषु' विशिष्ट श्रुतपदेषु निपुणश्च ॥६२॥ अत्रैवाक्षेपार पव्यहारित्वम् प्रतिबन्धा परिहरन्नाहउत्तरगुणाण विरहा, जइ दवत्तं तु हुज्ज एयम्मि।ता तमवेक्खोवहिअं, हविज छठे विगुणठाणे ॥३॥ 'उत्तर' त्ति । उत्तरगुणाः-उत्कृष्टगुणा येऽखण्डितचरणकरणकारित्वादयस्तेषां विरहाद् यदि 'एतस्मिन्' संविग्नपाक्षिकेर 'द्रव्यत्वं' द्रव्यव्यवहारित्वं भवेत् , उत्तरस्य भावस्याभावात : 'ता' तर्हि 'तद् द्रव्यव्यवहारित्वम् 'अपेक्षोपहित' सप्तमा-INI दिगुणस्थानभाव्यप्रमत्तत्वादिभावविरहविवक्षाकृतं षष्ठेऽपि गुणस्थाने भवेत, न चैतदिष्टम् , एवं सति शैलेशीचरमसमयका lain Education Interational For Private & Personal use only D elibrary.org Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एव भावव्यवहारित्वविश्रामप्रसङ्गादिति ॥ ६३ ॥ नन्वेवं भावव्यवहारित्वेन साधुसंविग्नपाक्षिकयोः समकक्षत्वात्कथमुत्सर्गतः साधोरेव व्यवहारार्थमाश्रयणम् ? अत आह— विवहारस्स पयाणं, सुत्तग्गहणं च चरणकिरियाए । उस्सग्गओ त्ति तेणं, साहू ववहारिणो भावे ॥६४॥ ‘ववहारस्त’त्ति । ‘व्यवहारस्य' प्रायश्चित्तादिलक्षणस्य ' प्रदानं साधुकृतिकर्मादिप्रतीच्छनघटितं व्यवहारज्ञानोपयुक्तम्, सूत्रग्रहणं च योगवहनाद्याचारमूलक मुत्सर्गतश्चरणक्रिययैव तस्या एव पञ्चाचाररूपत्वादितिहेतोः, 'तेन' उत्सर्गेण साधवो भावे व्यवहारिणः, फलतो हेतुतश्च व्यवहारस्य साधुभावे पर्यवसानात् । अपवादतस्तु संविग्नपाक्षिकोऽपीदृश एव । न चोत्सर्गापवादयोर्यथायोगं फले बहु वैपम्यमिति भावनीयं सुधीभिः ॥ ६४ ॥ व्यवहारिप्ररूपणा सिद्धतां प्ररूपयन् व्यवहर्त्तव्यप्ररूपणां प्रतिजानीते एवं सुअवएसा, ववहारिपरूवणा कया लेसा । ववहरिअश्वपरूवणमित्तो अकमागयं बुच्छं ॥ ६५ ॥ ' एवं ' इति । एवं श्रुतोपदेशात् एषा व्यवहारिप्ररूपणा लेशात्कृता । इतश्च क्रमागतां व्यवहर्त्तव्यप्ररूपणां वक्ष्ये ॥६५॥ तत्र व्यवहर्त्तव्या अपि नामस्थापनाद्रव्य भावभेदाच्चतुर्द्धा । तत्र नामस्थापने प्रतीते । द्रव्यव्यवहर्त्तव्या अध्यागमतो नोआगततोऽपि ज्ञशरीरभव्यशरीररूपाः प्रतीता एव । तद्व्यतिरिक्का अपि लौकिक लोकोत्तरभेदेन द्विधा । भावव्यव हर्त्तव्या अपि लौकिक लोकोत्तरभेदेन नोआगमतो द्विधैवेति । तत्र लौकिकानेव द्रव्यतो भावतश्चाह : 2054 & व्यवहारि प्ररूपणोपसं हार: व्यवहर्त्तव्यप्ररूपणाप्रतिज्ञा 'व्यवहर्त्त व्य' पदनिक्षे पणम् Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः स्वोपज्ञवृ- लोए चोराईआ, णिजूढा तह य इंति दवम्मि। ववहरिअवा वंका, उज्जू पुण होंति भावम्मि ॥ ६६ ॥1 गुरुतत्त्व 'लोएत्ति । लोके चौरादयो द्रव्ये व्यवहर्त्तव्या भवन्ति, आदिना पारदारिकघातकादिपरिग्रहः । ते हि चौर्यादिकं । विनिश्चयः द्वितीयो IS लासः ४ा कृत्वाऽपि न सम्यक् प्रतिपद्यन्ते, बलात्प्रतिपाद्यमाना अपि च न भावतो विशोधिमिच्छन्तीति । न केवलं चौरादयो ॥८७॥ द्रव्यव्यवहर्त्तव्याः किन्तु ये 'नियूढाः' धिग्जातीयैः शूद्रगृहभोजनब्रह्महत्यामातापित्रादिघातपातकैरसंभाष्याः कृतास्तेऽपि हा लौकिकद्र यदि स्वदोषं न प्रतिपद्यन्ते, प्रतिपाद्यमाना वा न सम्यगालोचयन्ति, किन्तु व्याजान्तरेण कथयन्तीति वक्राः, यथा- व्यभावव्य “एगो धिज्जाइओ ओरालाए ण्हुसाए चंडालीए वा अझोववण्णो तं कारण फासित्ता पायच्छित्तणिमित्तं च उवेयमुव- वहर्त्तव्यनिहै। हिओ भणइ सुमिणे ण्हुसं चंडालिं वा गतोमि" त्ति । तेऽपि तथा ऋजवः पुनर्निढादयो यदि सम्यगालोचयन्ति तदारूपणम् लोके भावे व्यवहर्त्तव्या भवन्ति ॥ ६६ ॥ लोकोत्तरं द्रव्यव्यवहर्त्तव्यं भावव्यवहर्त्तव्यं चाह लोकोत्तरद्रलोउत्तरिओ दवे, सोहिं परपच्चएण जो कुणइ । भावे सब्भावोवडिओ अगीओ व गीओ वा ॥ ६७॥ व्यभाव 'लोउत्तरिओ'त्ति । यः 'परप्रत्ययेन' आचार्येणोपाध्यायेनान्येन साधुना वा ज्ञातोऽस्मीत्यादिकारणेन 'शोभिं करोति'वहर्त्तव्यनियथास्थितमालोचयति, उपलक्षणाद् यो वा गुरुं दोष सेवित्वाऽल्पं कथयति, स्वकृतं वाऽन्यकृतं ब्रवीति स लोकोत्तरिको तरूपणम् द्रव्यव्यवहर्त्तव्यः । यः पुनः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यर्थ सद्भावेनोपस्थितोऽगीतार्थों गीतार्थो वा स भावे व्यवहत्तव्यः ॥ ६७॥1 ॥८७ ॥ स चेदृग्गुणो भवतीत्याह Jain Educati l Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASRCS सुजओ अकुडिलवित्ती, कारणपडिसेवओ अआहच्च। पियधम्माइगुणजुओ, ववहरिअबो हवइ भावेदा: लोकोत्तरिक 'सुजओ'त्ति । सुष्टु-अतिशयेन यतः-विरतः सुयतः, 'अकुटिलवृत्तिः' अमायाविस्वभावः, उपलक्षणादक्रोधी अमानी भावव्यवहअलोभी चेति परिग्रहः । तथा 'कारणप्रतिसेवकः' शुल्कादिपरिशुद्धलाभाकाविवणिग्दृष्टान्तेन विशुद्धालम्बनेनाकृत्यप्र कर्तव्यगुणाः | तिसेवी। कारणप्रतिसेवकोऽपि न यदा तदा किन्तु 'आहत्य' कदाचिदन्यथा दीर्घसंयमस्फात्यनुपलक्षणावसरे। तथा 31 प्रियधर्मादिगुणयुतः' प्रियधर्मा दृढधर्मा संविग्नोऽवद्यभीरुः सूत्रार्थतदुभयविच्च भावे व्यवहर्त्तव्यो भवति ॥ ६८ ॥ अत्र कारणयतनोभयपदनिष्पन्नचतुर्भङ्गयामनुमताननुमतविभागमननुमतस्यापि व्यवहारदानाधिकारव्यवस्थां चाहकारणजयणाजणिए, चउभंगे भावओ उ भंगतिगं । बहुदोसवारणत्थं, ववहरिअवो विपक्खो वि॥६९॥ भावव्यवहI 'कारण'त्ति । कारणेन यतनया प्रतिसेवत इत्येको भङ्गः १, कारणेनायतनयेति द्वितीयः २, अकारणे यतनयेति STAR र्तव्यचतुतृतीयः ३, अकारणेऽयतनयेति चतुर्थः ४, इत्येवं कारणयतनाजनिते चतुर्भङ्गे भङ्गत्रयं भावतो व्यवहर्त्तव्यत्वेनानुमतमिति शेषः । तथाहि कारणे यतनया प्रतिसेवमानो दीर्घसंयमस्फातिनिमित्तमिदं सेविष्य इति विशुद्धाशयाद्भगवदाज्ञा-14 प्रद्वेषकारित्वाभावाद्भावब्यवहत्तव्यः। किश्च यदि द्वितीयभङ्गवर्तिनोऽपि भगवद्वचनाद्भावव्यवहर्त्तव्यास्ततः प्रथमभङ्गरवर्तिनः सुतरामिति । तदुक्तं व्यवहारपीठिकायाम्-"आहच्च कारणम्मी, सेवंतो अजयणं सिया कुज्जा। एसो वि भावे, किं पुण जयणाइ सेवंते ॥१॥"न केवलं प्रथमभङ्गवत्ती द्वितीयभङ्गवत्ती वा भावव्यवहर्त्तव्यः किन्तु तृतीय MOREOGANGACADEMOCRACROSS For Private Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- त्तियुतः द्वितीयो COORDSOCIC00 भङ्गवर्त्यपि, यः कारणमन्तरेणापि प्रतिसेवितेऽकृत्ये शोधिं करिष्यामीत्येवंरूपालम्बनलक्षणया यतनयाऽकृत्ये प्रवृत्ति | गुरुतत्त्व चिकीर्षति सोऽपि, तदुक्तम्-"पडिसेवियम्मि सोहिं, काहं आलंबणं कुणइ जो उ । सेवंतो वि अकिच्चं, ववहरिअबो सभी विनिश्चयः खलु भावे ॥१॥"त्ति । यश्च चतुर्थभगवती निष्कारणप्रतिसेवी निद्धन्धसः संसारवृद्धिभयरहितः पश्चात्तापरहितश्च देश ल्लास: सर्व वाऽऽलोचनायां गृहयिष्यामीति चिन्तयन् द्रव्यव्यवहारी।योऽपि प्रियधर्मादिगुणरहित एष सर्वः 'विपक्षोऽपि' भावव्यवहर्त्तव्यविपरीतोऽपि बहवो दोषा येऽनवस्थाप्रसङ्गादिलक्षणास्तेषां वारणार्थ व्यवहर्त्तव्यः सोऽप्यनवस्थया मा पुनः भावव्यवह तव्यस्य आपुनरकृत्यं कार्षीत् , तदन्ये च तं तथाप्रवर्त्तमानं दृष्ट्वा मा तथाप्रवृत्तिं काधुरिति ॥ ६९॥ एते च पुरुषा व्यवहर्त्तव्य भवत्-प्राययोगाद् गौण्या वृत्त्या व्यवहर्त्तव्या उच्यन्त इति मुख्यं व्यवहर्त्तव्यमाह श्चित्तभेदाववहरियवं तेसिं, उवएसा सोहिओ अजं मुक्खं । भणिअंच आभवंते, पायच्छित्ते य तं दुविहं ॥१७०॥ भ्यां देवि__ 'ववहरिअब'ति । 'तेषां' व्यवहर्त्तव्यानां यन्मुख्यं व्यवहर्त्तव्यमुपदेशात् शोधितश्च, तथाहि-मुख्यतस्तावद्गीतार्थेनैवाध्यम् । सह व्यवहर्त्तव्यं नागीतार्थेन, गीतार्थस्य मध्यस्थतया स्थापितस्य प्रत्यावृत्त्या यथास्थितवादित्वसम्भवात् , तस्य च स्वयमेव जानानस्य नास्त्युपदेशः। अगीतार्थे तु प्रथमत उपदेशेन व्यवहर्त्तव्यम् , स खलु युक्तायुक्तपरिज्ञानवि कल तयाऽनाभाव्यमपि गृहातीति, ततस्तस्योपदेशो दीयते-न युक्तं तवानाभाव्यं ग्रहीतुं, यो ह्यनाभाव्यं गृह्णाति तस्य तन्निमित्तं प्रायश्चित्तमाभवतीति । ततोऽनाभाव्यग्रहणप्रवृत्तिनिमित्तो द्वितीयः शोधिव्यवहारो दातव्यः । गृहीतेऽप्य नाभाव्ये प्रथमत 1 "माऽन्यथा प्रवृत्ति" इति प्रत्यन्तरे पाठः । Jain Education Internationa For Private Personal use only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उपदेशं दत्त्वा ततः सूत्रमुच्चार्य दानप्रायश्चित्तव्यवहारो विधेय इति । तच्च द्विविधं भणितम्-आभवत् प्रायश्चित्तं च ॥ १७ ॥ तत्र प्रथममाभवद्भेदानेवाहदिखेत्ते सुअ सुहदुक्खे, मग्गे विगए अ आभवंतं तु । पंचविहमित्थ खित्तं, विहिणानुन्नायमगुरूव ॥७१॥/आभवद्भाव | खेत्तेत्ति । क्षेत्रे १ श्रुते २ सुखदुःखे ३ मार्गे ४ विनये ५ चाभवत् 'तुः' एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, पञ्चविधमेव । 'अत्र' व्यवहर्तव्यः एतेषु भेदेषु क्षेत्रं विधिनाऽनुज्ञापितं 'अनुरूपं आभवनोचितम् ,तथाहि-ऋतुबद्धकालेऽष्टसु मासेषु विहरता कल्पाध्ययनो भेदप्रदर्शक्तविधिना वर्षायोग्यक्षेत्रप्रत्युपेक्षणा कर्तव्या। ये त्वविधिना क्षेत्रं प्रत्युपेक्षमाणाः क्षेत्रं प्रत्युपेक्ष्य प्रत्यागतैः साधुभिराचार्याणां पुरतः कथ्यमानान् क्षेत्रगुणानाकये प्राघूर्णकाः समागताः स्वगुर्वन्तिके गत्वा तान् क्षेत्रगुणान् कथयन्ति वदन्ति च यावत्ते तत्र न तिष्ठन्ति तावद्वयं तिष्ठाम इति तदा तेषां लघुमासःप्रायश्चित्तम् , न च तत्क्षेत्रं तेषामाभवति । यदि पुनराचार्याः संप्रधारयन्ति गच्छामस्तत्रेति तदा तेषां प्रायश्चित्तं पञ्चविंशतिदिनानि । अवश्यं गन्तव्यमिति निर्णयने लघुको मासः। परभेदे क्रियमाणे गुरुको मासः। पथि व्रजतां चतुर्लघु । क्षेत्रं प्राप्तानां चतुर्गुरुकम् । तत्र गत्वा सचितमाददानानां चत्वारो गुरुकाः। आदेशान्तरेणानवस्थाप्यमचित्ते उपधिनिष्पन्नं चेति विधिना प्रत्युपेक्षितस्य बहुगुण स्य च क्षेत्रस्य ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपद्यनुज्ञापना कर्तव्या। अन्यथाऽजानतामन्येषामपि तत्रावस्थानादिनाऽधिकरणाद्युत्पत्तिप्रङ्गादि ति क्षेत्राभव ॥ ७१ ॥ अत्र क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ निर्गमनप्रवेशाभ्यां निष्पन्नायां चतुर्भङ्गयां पूर्व निर्गता पूर्वमेव समकं प्राप्ताः १ पूर्व निगताः पश्चादेकतरे प्राप्ताः २ पश्चाद्विनिर्गताः पूर्व प्राप्ताः ३ एकतरे पश्चाद्विनिर्गताः पश्चादेव च प्राधाः ४ इत्येवल क्षणायां पणम् या Jain Ed For Private & Personal use only Hinw.jainelibrary.org Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवृ- यो विशेषस्तमाह गुरुतत्त्वत्तियुतः । पुदि विणिग्गयाणं, समगं पत्ताण होइ सवेसिं । साहारणं तु खेत्तं, जइ समगं चेवऽणुण्णवियं ॥७२॥ विनिश्चयः द्वितीयो-IRTH वीसत्थो जइ अच्छइ, पच्छा पत्तो वि सो ण खेत्तपह। किं पुण समगं पत्तो, दप्पाअणणुण्णवंतो उ॥७३॥ ल्लास: IS 'पुचिति । पूर्व विनिर्गतानां पूर्वमेव च समकं प्राप्तानां सर्वेषामेव साधारणं क्षेत्रं भवति यदि 'समकमेव' तुल्यकाल-131 | मेवानुज्ञापितम् ॥ ७२ ॥ 'वीसत्थोत्ति । क्षेत्रं प्राप्तोऽस्मीति विश्वस्तो यदि तिष्ठति तदा स न क्षेत्रप्रभुः किन्तु पश्चात्तातोऽपि यः पूर्वमनुज्ञापितवान् स क्षेत्रप्रभुरित्युपस्कारः । किं पुनः 'समक' तुल्यकालं प्राप्तः 'दर्पात्' मदीयमिदं क्षेत्र-2 मित्यभिमानादननुज्ञापयन् ॥ ७३ ॥ अत्रैवापवादमाहगेलण्णवाउलो पुण, अणणुण्णवणे वि होइ खित्तपह। खवगो वि पारणे जइ, अणाउलो कारणावण्णो७४ | 'गेलण्ण'त्ति । ग्लानत्वव्याकुलः पुनः पूर्व समकं प्राप्तः समकं पूर्व वाऽननुज्ञापयन्नपि कारणे स्थितत्वाद्भवति क्षेत्रप्रभुः, न तु पूर्वप्राप्तः पूर्वानुज्ञापकोऽन्यः । क्षपकश्च निष्कारणं क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय न प्रवर्त्तयितव्योऽतो निष्कारणं यैः स प्रेष्यते तदनुज्ञापितं क्षेत्रं न ते लभन्ते, किन्तु ये पश्चादागता अप्यनुज्ञापयन्ति त एव । यदि च क्षपकोऽपि पारणेऽनाकुल: कारणापन्नश्च तदा तदनुज्ञापितं तत्प्रभवो लभन्ते, पारणव्याकुलतयाऽननुज्ञापनायां चान्य एवानुज्ञापका लभन्त इति meen ना॥७४ ॥ उक्तः प्रथमो भङ्गः, द्वितीयमधिकृत्याह JainEducation intermational For Private Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NORAMANACURREARCH दाय विणिग्गया जइ. पत्ता कारणवसेण पच्छा य।तो तेसिं चिय खित्तं, णो पुण णिकारणठिआणं॥७५॥ | है। पुचिति । पूर्व विनिर्गता यदि 'कारणवशेन च' ग्लानत्वादिपारवश्येन पश्चात्प्राप्तास्तदा तेपामेव क्षेत्रं नो पुनर्यत्र तत्र || निष्कारणं स्थितानां पश्चादागच्छताम् ॥ ७५ ॥ उक्तो द्वितीयो भङ्गः, तृतीयमधिकृत्याहपच्छा विणिग्गओ वि हु, पावइ खित्तं सहावसिग्धगई। पुविं पत्तो मग्गा, कयगइभेओण उण वंको॥७॥ ___ 'पच्छ'त्ति । पश्चाद्विनिगतोऽपि स्पर्द्धकः स्वाम्यपेक्षया 'मार्गात्' दूरादासन्नात्समाद्वाऽध्वनो यः स्वभावशीघ्रगतिः सन् 61 पूर्व प्राप्तः स क्षेत्रं प्राप्नोति न पुनर्वको मा एतेऽन्ये मम पुरतो यास्यन्तीत्यशुद्धभावः सन् कृतो गतिभेदः-स्वभावगतिपरावर्तों येन स क्षेत्रं लभते, पूर्वप्राप्तोऽपि भावस्याशुद्धत्वात् ॥ ७६ ॥ समयं पि पत्थिएK, पावइ खित्तं सहावसिग्घगई। समयं पत्ता समयं, अणुण्णवंता य समभागी॥७॥ 'समगं'ति । समकमपि विवक्षितेषु प्रस्थितेषु मध्ये यः स्वभावशीघ्रगतिः सन् पुरतो याति स क्षेत्रं लभते । एवमासनाऽध्वनीनो दूराध्वनीनश्च पूर्वानुज्ञापको द्रष्टव्यः । समकं प्राप्ताः समकं चानुज्ञापयन्तो द्वये वर्गाः 'समभागिनः' साधारणक्षेत्रलाभिनो भवन्ति ॥ ७७ ॥ चतुर्थभङ्गमाहपच्छा विणिग्गया खलु, पच्छा पत्ता य हुंति समभागी। समगाणुण्णवणाए, पुवाणुण्णाइ तेसिं तु ॥७॥ ." स्पर्धकस्वाम्यपेक्षया " इति पुस्तकान्तरे पाठः । Jain Educatioriternational For Private Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो ॥ ९० ॥ 1 ‘पच्छ’'त्ति । पश्चाद्विनिर्गताः खलु पश्चात्प्राप्ताश्च पूर्वप्रविष्टैः सह समानुज्ञापनायां समभागिनो भवन्ति । पूर्वप्रविष्टापेक्षया पूर्वानुज्ञापनायां तु तेषां पश्चाद्विनिर्गतपश्चात्प्राप्तानां क्षेत्रं भवेत् ॥ ७८ ॥ सीमाइसु पत्ताणं, दोह वि पुवं अणुणवइ जो उ । सो होइ खेत्तसामी, णो पुण दप्पेण जो ठाइ ॥७९॥ ‘सीमाइसु’त्ति । सीमादिषु, आदिनोद्यानग्रामद्वारव सत्यादिपरिग्रहः, प्राप्तयोर्द्वयोरपि वर्गयोः पूर्वमनुज्ञापयति स भवति क्षेत्रस्वामी न पुनर्दर्पेण निष्कारणमेव योऽननुज्ञापयन् तिष्ठति ॥ ७९ ॥ समगं पत्ता साधारणं तु खित्तं लहंति जे वग्गा । अच्छंति संथरं ते, असंथरे ठंति जयणा ॥ १८० ॥ 'सम'ति । समकं प्राप्ता ये वर्गाः साधारणं तु क्षेत्रं लभन्ते ते संस्तरे सति सर्वेऽप्येकत्रावतिष्ठन्ते । असंस्तरे तु यतनया तिष्ठन्ति । सा चेयम् - यदि द्वौ वर्गों वृषभाचार्ययोरेकत्र न संस्तरतस्तदा वृषभो निर्गच्छत्याचार्यस्तिष्ठति । अथ द्वाविपि वर्गों तुल्यौ गणिनावाचार्यों वा तदा यस्यानिष्पन्नः परिवारः स तिष्ठत्यन्यो गच्छति । द्वयोरपि निष्पन्न परिवारत्वे वृद्धपरिवारस्तिष्ठत्यन्यो गच्छति । द्वयोरपि समवयस्क परिवारत्वे शैक्ष परिवारस्तिष्ठति चिरप्रत्र जितशिष्यस्तु गच्छति । द्वयोरपि समपर्याय शिष्यत्वे जुङ्गितपादाक्षिनाशाकर कर्णास्तिष्ठन्त्यन्ये गच्छन्ति । संयतीष्वप्येषैव यतना । केवलं तरुण्यस्तिष्ठन्ति वृद्धा गच्छन्तीति विशेषः । श्रमणानां श्रमणीनां चैकत्रासंस्तरणे श्रमण्यस्तिष्ठन्ति श्रमणा निर्गच्छन्ति । यत्र च संयता जुङ्गिताः श्रमण्यश्च वृद्धास्तत्र जुङ्गितास्तिष्ठन्ति वृद्धाः श्रमण्यो निर्गच्छन्तीत्याद्यल्पबहुत्वं परिभावनीयम् ॥ १८० ॥ : गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः ॥ ९० ॥ lelibrary.org Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्था 9AMESSAURUSSCROSAROKAR पत्ताण अणुन्नवणा, सारूवियसिद्धपुत्तमाईणं । बाहिं ठिआण जयणा, जा आसाढे सिआ दसमी ८१॥ है 'पत्ताण'त्ति । प्राप्तानां क्षेत्रं वर्षारात्रप्रायोग्यमनुज्ञापना भवति कर्त्तव्या सारूपिकसिद्धपुत्रादीनाम् , आदिना सजि भोजिकमहत्तरनापितग्रहः । तत्र सारूपिक एकनिषद्योपेतरजोहरणदण्डकधारी शिरोमुण्डः सारूपिकः, अशिखः सशिखो वा पश्चात्कृतो गृहस्थः सिद्धपुत्रः, सज्ञिनो गृहीताणुव्रतदर्शनाः श्रावकाः, भोजिकः-ग्रामस्वामी, महत्तराः-ग्रामप्रधानपुरुषाः, नापिताः-नखशोधकाः । स्वग्रामे सञ्ज्यभावे च द्वे गव्यूते गत्वाऽपि निवेदनं कर्त्तव्यम्-अस्माकं रुचितमिदं क्षेत्रमित्यन्येषामपि ज्ञापनीयमिति । ततो बहिःस्थितानां यतना कर्तव्या यावदापाढे सिता दशमी । सा हि वर्षाव नम् । ततोऽर्वाग् बहिःस्थिता वर्षायोग्यमुपधिमुत्पादयन्ति प्रत्येकं सङ्घाटकाः प्रत्यासन्नासु दिक्षु, परिपूर्णमात्मन एकस्य 2 च जनस्याधिकमुत्पादयन्ति, संस्तरे प्रतिवृषभग्रामानन्तरपल्लीं च वर्जयन्ति, उच्चारमात्रकादिकमपि गृह्णन्तीति । एवं बहिर्यतमाना आषाढशुद्धदशम्यां वर्षायोग्यं क्षेत्रमागच्छन्ति ॥ ८१ ॥ संविग्गबहुलकाले, एसा मेरा पुरा य आसी । इयरबहुले उ संपइ, पविसंति अणागयं चेव ॥८२॥ साम्प्रतका 'संविग्गत्ति । एषा मर्यादा पुरा संविग्नबहुले काले आसीत् । सम्प्रति 'इतरबहुले' पार्श्वस्थादिबहुलेऽनागतमेव प्रवि- लीनाक्षेत्राशन्ति । आयतार्थिनो ह्यन्यप्रेक्षिते क्षेत्रे न प्रविशन्ति । पार्श्वस्थादयस्तु कालमासाद्य परिवृद्धाः पूर्वप्रत्युपेक्षितक्षेत्रानपि भवन्मर्यादा प्रेरयेयुरिति ॥ ८२ ॥ तथा चाह गुरुत. १६ Clinelibrary.org Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LA IESKASS स्वोपज्ञवृ-द सुच्चा उद्दिसमेओ, णो आपुच्छी तहा दुरापुच्छी। अजयहिआउ एए, कुणंति कलहं जइजणेहिं॥ ८३॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः । 'सुच्च'त्ति । श्रुत्वोपेत्यसमेतो नाम यो गुरोरात्मीयक्षेत्रप्रत्युपेक्षकैः समागतैः सुन्दरं क्षेत्रं कथ्यमानं श्रुत्वा प्राघूर्णक विनिश्चयः द्वितीयोआत्मनो गच्छं तत्र नयति । तथा 'नो आपृच्छी' प्रेक्षितमिदं क्षेत्रमन्यैरप्रेक्षितं वेत्यनापृच्छयैव यस्तिष्ठति । तथा 'दुरा ल्लास: पृच्छी ये न किमपि जानते गोपालादयस्तान् य आपृच्छति अन्यरिदं क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं न वेति । एते त्रयोऽप्ययत॥९१॥ स्थिता यतिजनैः सार्द्ध कलहं कुर्वन्ति ।। ८३ ॥ तत्रोपायमाह सुच्चा उहिठियाणं, णामग्गहणं पिणेव इच्छंति। दुण्हं तु विहिजिआणं, विणुग्गहं भत्तदाणं तु॥ ८४ ॥ | 'सुच्चा उढि'त्ति । श्रुत्वोपेत्यस्थितानां नामग्रहणमपि नेच्छन्ति साधवः सर्वथा, सर्वज्ञाज्ञाप्रतिकूलतया दुर्गृहीतना-151 मधेयत्वात् । 'द्वयोस्तु' अनापृच्छिमायापृच्छिस्थितयोविधिना-सूत्रोक्तव्यवहारसम्प्रदायेन जितयोः क्षेत्रिकेण विना 'अवग्रह' सचित्तोपध्यनुज्ञालक्षणं 'भक्तदानं तु' भक्तदानमेव कर्त्तव्यम् ॥ ८४ ॥ जयणाइ ठिआण पुणो, असइप्पमुहेण कारणेण तयं । तुलं जं ते सुद्धा, भावविसुद्धीइ खवगु व ॥८५॥ | 'जयणाइ'त्ति । ये तु यतनया स्थिता येषां सिद्धपुत्रादीनां पूर्यत्क्षेत्रमनुज्ञापितं तेषां तद्विस्मृतम्, अथवा येऽनुज्ञा-18 पितास्ते प्रोषिता अन्ये च स्वरूपं न जानते तैश्च पृष्टैरुक्तं न प्रेक्षितमिदमन्यैः क्षेत्रमित्यादिलक्षणेनास्मृतिप्रमुखेण कार-॥९१॥ ४ाणेन तेषां पुनस्तरक्षेत्र पूर्वप्रत्युपेक्षितक्षेत्रैः सह 'तुल्यं साधारणम् , 'यत' यस्मात्ते क्षपक इव पायसप्रतिग्राहकः पिण्डनि-12 SAUSAGE* Jain Educati o nal For Private & Personal use only NEhelibrary.org Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रसिद्धः क्षेत्रविधिपृच्छया भावविशुद्ध्या 'शुद्धाः' अशठभावाः ॥ ८५॥ अतिसंथरणे इयरे, उवसंपन्ना उ खित्तियं हुंति । इट्टा रुइए खित्ते, घोसणया वा समोसरणे ॥ ८६॥ | 'अतिसंथरणे'त्ति । 'अतिसंस्तरणे' संस्तरणातिक्रमे इतरे द्वावविधिस्थितौ यतनास्थायिनश्च क्षेत्रिकमुपसम्पन्ना भवन्ति । यत्र प्रत्यासन्नस्थानेषु समन्ततो बहवो गच्छाः क्षेत्राणि च वर्षाप्रायोग्याणि तत्र प्रचुराणि न सन्ति समासनश्च वर्षाकालस्ततो मा केचिदन्ये जानन्तोऽत्र तिष्ठेयुरिति स्नानादिसमवसरणे मिलिते समवाये रुचिते क्षेत्र घोषणा वा इष्टा अमुकत्र वयं वर्षाकरणाय गच्छाम इति ॥ ८६ ॥ तंघोसणयं सोउं, धम्मकही कोइ सन्निसंथवओ।चिट्टइ समागओ तं,गच्छत्तिय खित्तिओभणइ॥८॥ । 'तं घोसणय'ति । तां घोषणां श्रुत्वा दानादिप्रधानश्राद्धकलितं तद्रमणीयं क्षेत्रमवगत्य निर्मर्यादः कोऽपि 'धर्मकथी' धर्मकथालब्धिसम्पन्नः समागतः, स च धर्मकथयाऽऽत्मीकृतसकललोकः 'संज्ञिसंस्तवतः' सज्ञिपरिचयात्तिष्ठति; क्षेत्रिकश्च पश्चात्समागतः सन् भणति-गच्छ त्वं किमिति घोषणां श्रुत्वाप्यत्र समागतोऽसि ॥ ८७॥ सड्डाण निबंधेण य, दोण्ह वि तत्थ टिआण इच्छाए।सच्चित्तं उवही वा, अखित्तिए जाउ णाहवइ ॥८॥ 'सड्डाण'त्ति । अथ धर्मकथालब्धिशालिनि परिणताः श्राद्धाः समागत्य क्षेत्रिकं भणन्ति-भगवन्तः ! यूयं द्वयेऽपि तिष्ठन्तु, द्वयोरपि वयं वर्तिष्यामहे, एवं श्राद्धानां निबन्धेन' आग्रहेण द्वयोरपि तत्र स्थितयोः सतोः सचित्तमुपधिवा For Private Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSक्षेत्रिके 'जातु' कदाचित् 'इच्छया' स्वेच्छामात्रेण नाऽऽभवति किन्तु क्षेत्रिके एव । असंस्तरणे पुनरनिर्गच्छति | गुरुतत्त्व : स्वोपज्ञवृ. त्तियुतः स्वेच्छागते कुलगणसङ्घव्यवहारो भवतीति द्रष्टव्यम् ॥ ८॥ विनिश्चयः द्वितीयो- 18 इत्थ सकोसमकोसे, खित्तं सावग्गहं वितिण्णम्मि । कालम्मि असंथरणे, एसा साहारणे मेरा ॥८९॥ ल्लास: 6 'इत्य'त्ति । 'अत्र' क्षेत्रमार्गणायां यत् 'क्षेत्र' मासप्रायोग्यं वर्षाप्रायोग्यं वा तत् सक्रोशमक्रोशं च । तत्र च यत्सक्रोश ॥१२॥ तत्पूर्वादिषु प्रत्येकं सगव्यूतमूर्द्धमधश्चार्द्धक्रोशमर्द्धयोजनेन च समन्ततो यस्य ग्रामाः सन्ति, अक्रोशं नाम यस्य मूलनि-2 बन्धात्परतः षण्णां दिशामन्यतरस्यां द्वयोस्तिसृषु वा दिवटवीजलश्वापदस्तेनपर्वतनदीव्याघातेन गमनं भिक्षाचर्या च न संभवति । तत्र सक्रोशेऽक्रोशे च क्षेत्रे ऋतुबद्धकाले मासकल्पो वितीर्णोऽनुज्ञात इत्यर्थः, कारणे पुनर्भूयानपि कालः। वर्षासु निष्कारणं चत्वारो मासा वितीर्णाः, कारणे तु प्रभूततरोऽपि । एवं वितीर्णे काले तत्क्षेत्रं सावग्रहं सचित्ताचित्तमिश्रावग्रहग्रहणस्थानं भवति, वितीर्णे काले तत्र सचित्तादिकमाभवतीत्यर्थः। असंस्तरणेऽनिर्गच्छतां साधूनां साधारणे च क्षेत्रे 'एषा' वक्ष्यमाणा मर्यादा ॥ ८९॥ अस्थि हु वसहग्गामा, कुदेसनगरोवमा सुहविहारा।बहुगच्छुवग्गहकरा, सीमाछेएण वसियत्वं ॥१९॥ IPI 'अस्थि हुत्ति । विवक्षितस्य स्थानस्य समन्ततः सन्ति वृषभग्रामाः, किंविशिष्टाः ? इत्याह-'कुदेशनगरोपमा ॥ ९२॥ अल्पदेशनगरसदृशाः, तथा 'सुखविहाराः' यत्र साधूनां विहारः सुखेन भवति, तथा बहुगच्छोपग्रहकारिणस्तेषु सीमा KA4 A5754 Jain Education internations For Private & Personal use only Vinelibrary.org Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMACROSSALSALASSROO च्छेदेन वस्तव्यम् ॥ १९० ॥ तत्र वृषभक्षेत्रं द्विविधम्-ऋतुबद्धे वर्षाकाले च । एकैकं त्रिविधम्-जघन्य मध्यममुत्कृष्टं च । तत्रर्तुबद्धे जघन्यमाह जत्थ खलु तिण्णि गच्छा, पण्णरसुभया जणापरिवसंति। एयं वसभक्खेत्तं, तविवरीअं भवे इयरं ॥९१॥3 8] 'जत्थ खलु'त्ति। यत्र खलु 'उभये जनाः' आचार्यो गणावच्छेदकश्च। तत्राचार्य आत्मद्वितीयो गणावच्छेदकश्चात्मतृतीय इति सर्वसङ्ख्यया पञ्चदश जनास्त्रयो गच्छाः परिवसन्ति, एतद्वषभक्षेत्रमृतुबद्धे जघन्यम् । तद्विपरीतं यत्र तादृशाः पञ्चदश जना न संस्तरन्ति तद्भवति 'इतरत्न वृषभक्षेत्रमित्यर्थः ॥९१॥ बत्तीसं च सहस्सा, चिट्ठति सुहंजहिं तमुक्किएं । उउबद्धम्मि जहण्णे, तिषिण य वासासु सत्त गणा ॥९२॥3 | 'बत्तीसं चत्ति । द्वात्रिंशच्च सहस्राणि यत्र सुखेन तिष्ठन्ति, यथा वृषभस्वामिकाले ऋषभसेनगणधरस्य तत्क्षेत्रमृतुबद्धे काले उत्कृष्टम् । मध्यमं तु जघन्योत्कृष्टयोर्मध्य इति द्रष्टव्यम् । तथा वर्षासु जघन्ये वृषभक्षेत्रे त्रयः सप्तगणास्तिष्ठन्ति, इदमुक्तं भवति-यत्राचार्य आत्मतृतीयो गणावच्छेदी त्वात्मचतुर्थः सर्वसङ्ख्यया सप्त, एवंप्रमाणास्त्रयो गच्छा एकविंशतिजना यत्र संस्तरन्ति एतजघन्यं वर्षाकालप्रायोग्यं वृषभक्षेत्रम् । उत्कृष्टं मध्यमं च यथा ऋतुबद्धकाले तथैव द्रष्टव्यमिति ॥ ९२ ॥ ईदृशेषु बहुगच्छोपग्रहकरेषु वृषभग्रामेषु सत्सु यदि वा एतेष्वेव साधारणेषु क्षेत्रेषु न परस्परं भण्डनं कर्त्तव्यं सचित्तादिनिमित्तम् , किन्तु सीमाछेदेन वस्तव्यमिति । तमेवाह Main Education international For Private & Personal use only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञव. तुझंतो मम बाहि, तुज्झ सचित्तं ममेतरं वा वि । आगंतुग वत्थवा, थीपुरिसकुलेसु य विरागा॥ ९३॥ गुरुतत्त्व त्तियुतः 'तुझंतो'त्ति । परस्परं वागन्तिको व्यवहार एवं कर्तव्यः-मूलग्रामस्य 'अन्तः' मध्ये यत्सचित्तादि तद्युष्माकम् । विनिश्चयः द्वितीयो लासः अस्माकं तु 'बहिः प्रतिवृषभादिषु । यद्वा युष्माकं सचित्तम् । मम 'इतरद्' अचित्तम् । यदि वा युष्माकमागन्तुकाः। ॥ ९३॥ अस्माकं तु वास्तव्याः। अथवा युष्माकं स्त्रियः। अस्माकं पुरुषाः। यदि वा एतेषु कुलेषु यो लाभः स युष्माकम् । एतेषु तु कुलेष्वस्माकमिति । 'विरागाः' विगतरागाः सन्तः ॥ ९३ ॥ एवं सीमच्छेयं, करिंति साहारणम्मि खित्तम्मि । पुदि ठिएसु अण्णे, जे आगच्छंति पुण तत्थ ॥९४॥ खेत्ते उवसंपन्ना, ते सवेणियमओ उ बोधवा । आभवं पुण तेसिं, अखित्तियाणं हवे इणमो ॥ ९५॥31 हैं। 'एवं'ति । एवं सीमाच्छेदं कुर्वन्ति साधारणे क्षेत्रे पूर्व स्थितेषु ये पुनरन्ये तत्रागच्छन्ति ॥ ९४ ॥ 'खेत्ते'त्ति । ते सर्वे नियमतः क्षेत्रे उपसंपन्ना बोद्धव्याः, अन्यथा तेषां तस्य क्षेत्रस्यानाभवनात् । अयं विधिः साधारणक्षेत्रे भणितः।। ४ अक्षेत्रिकाणां त्वन्यक्षेत्रालाभे निःसाधारणक्षेत्रे वसतां 'इदं वक्ष्यमाणमाभाव्यं खलु ज्ञातव्यम् ॥ ९५॥ नाल पुरपच्छसंथुय मित्ता य वयंसया य सच्चित्ते । आहार मत्तगतिगं, संथारग वसहि अच्चित्ते ॥ ९६ ॥ 'नाल'त्ति । नालवद्धाः पूर्वसंस्तुताः पश्चात्संस्तुता मित्राणि वयस्याश्च, एतत्सचित्ते परकीयेऽवग्रहेऽक्षेत्रिकाणां 'भवेत् । ९३ ॥ . " भवति " इत्यपि पाठः प्रत्यन्तरे। JainEducation For Private Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARAHAN अचित्ते 'आहार' अशनादिकं 'मात्रकत्रिकं' उच्चारमात्र प्रश्रवणमात्रक श्लेष्ममात्रकं च 'संस्तारकः' परिशाटिरूपोडपरिशाटिरूपश्च वसतिश्चेति ॥ ९६॥ वत्थाइअंतु दिन्नं, कारणवसओ तहा अदिन्नं पि । असमत्ताजायाणं, णाहत्वं किंचि ओहेणं ॥ ९७॥ | 'वत्थाइअंतु'त्ति । वस्त्रादिकं तु दत्तं लभ्यं भवति नादत्तम् , 'कारणवशतः' पुनरनिस्तरादिलक्षणाददत्तमपि । अथ येषां सामान्यतो न किमयाभाव्यं भवति तेषां क्षेत्राभाव्यं दृरोत्सारितमेवेत्यभिप्रायवानाह-असमाप्ताऽजातानां 'ओधेन' सामान्येन न किमयाभाव्यं भवति । असमाप्ताजातस्वरूपं चैताभ्यो गाथाभ्योऽवसेयम्-"जाओ अ अजाओ आ, दुविहो । कप्पो उ होइ विणणेओ । इक्किको पुण दुविहो, समत्तकप्पो अ असमत्तो ॥१॥ गीयत्थ जायकप्पो, अग्गीओ पुण हवे अजाओ उ । पणगं समत्तकप्पो, तदूणगो होइ असमत्तो ॥२॥ उउवद्धे वासासु य, सत्त समत्तो तदूणगो इयरो। असम-18 ताजायाणं, ओहेण ण होइ आहवं ॥ ३ ॥” इति ॥१७॥ असमाप्तानामपि समाप्तीभूतानां यथा आभाव्यविधिस्तथाहएगदुगपिंडिआण वि, उउबद्धे उग्गहो समत्ताणं । कारणफिडिआण समो, उवसंपन्ने तु संकमइ ॥९८॥2 _ 'एगदुग'त्ति । कारणैः-प्रतिभङ्गमरणाशिवादिलक्षणैः स्फिटितानां-वित्रुटितानामत एकाकित्वमसमाप्तत्वं वा प्राप्ता-2 नाम्, ऋतुबद्धे काले समाप्तानां पञ्चात्मकं समुदायमुपगतानां परस्परोपसम्पदा 'एकद्विकपिण्डितानामपि' पञ्चाप्येककाः सन्तः पिण्डिता एकपिण्डिताः, अथवा द्विकेन वर्गद्वयन एक एकाकी एकश्चतुर्वर्गः, अथवा एको द्विवर्गोऽपरस्त्रिवर्ग For Private & Personal use only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -968 स्वोपज्ञवृइत्येवंरूपेण पिण्डितास्तेषामेकद्विकपिण्डितानाम् , अपिशब्दात्रिवर्गपिण्डितानां चतुर्वर्गपिण्डितानामपि अवग्रह आभवति, गुरुतत्त्वत्तियुतः न त्वसमाप्तकल्पस्थितानाम् । स च तेषां गणद्वयेन समकं स्थितानामपि 'समः' साधारणः, उपसम्पन्ने त्वेकतरं प्रत्येक विनिश्चयः द्वितीयो- व्यवस्थितमपि क्षेत्रं प्रतीच्छकादुत्तीर्योपसम्पद्विषये संक्रामति । द्वयोः क्षेत्रयोकित्रिकसमुदायेन स्थितयोस्तु क्षेत्र ल्लास: द्वयमप्याभाव्यम् , गमनागमनाभ्यां परस्परोपसम्पन्नत्वात् । उपसम्पच्चात्र क्षेत्रार्थ सुखदुःखहेतोः सूत्रार्थहे तोश्चासमाप्लेन ॥९४ ॥ 1| क्रियते, समाप्तेन तु सुखदुःखहेतुं मुक्त्वेति द्रष्टव्यम् ॥ ९८ ॥ जइ पुण समत्तकप्पो, दुहा ठिओ होज तत्थ चउरो य। इयरे ते खलु अपहू, दो वि पहू पुण इयरणिस्सा९९/३। _ 'जइ पुण'त्ति । यदि पुनर्वसतिसङ्कटतादोषेण समाप्तकल्पो द्विधा स्थितो भवेदेकत्र द्वावपरत्र त्रयश्चेति । तत्र च क्षेत्रेन्यस्यां वसतावितरे चत्वारः स्थितास्ते खल्वप्रभवः द्वौ च प्रभू इतरनिश्राविति, समाप्तत्वात् , असमाप्तानामन्योन्यनिश्रा-18 भावे बहूनामप्यप्रभुत्वात् , तथापूर्वाचार्यकृतस्थितेः ॥ ९९ ॥ कुत इदम् ? इत्यत आहएगागिस्स उ दोसा,असमत्ताणं च तेण थेरेहिं । एस ठविआ उ मेरा,इति व हुमा हुज एगागी ॥२०॥ _ 'एगागिस्स उत्ति । एकाकिनः सतोऽसमाप्तानां च दोषा भूयांसः, 'तेन' कारणेन स्थविररेषा मर्यादा स्थापिता, इत्यपि खलु कारणात् क्षेत्रानाभवनलक्षणादेकाकिनोऽसमाप्तकल्पा वा मा भूवन्निति ॥ २० ॥ ॥१४॥ ६] दुगमाइ समा सुत्तत्थुवसंपन्ना लहंति हु समत्ता। पुवठिआ तह पच्छागया वि सुत्तोवसंपन्ना ॥१॥ For Private & Personal use only R inelibrary.org Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रायोप SROSCORCCCCCCCCCCASG | 'दुगमाईत्ति । 'व्यादयः' द्विप्रभृतयो गच्छाः समाप्तकल्पाः 'समाः' साधारणभागिनः। सूत्रार्थोपसम्पन्नाश्च समाप्ताः प्रतीच्छकादुत्तीर्ण क्षेत्रं स्वातत्र्येण लभन्ते पूर्वस्थिता न तु पश्चादागताः। समाप्ता अपि यदि च ते पूर्वी | संपन्नास्तदा त एव लभन्त इति ॥ १॥ अथ यदि नोपसंपद्यन्ते किन्तु सूत्रमर्थ वा पृच्छन्ति, तत्राह पुच्छातिगेण दिवसं,सत्तहिँ पुच्छाहिँ मासिअंहरइ।अक्खित्तुवस्सए लघुमासो ण लहे अविहिकहणे ॥२॥ RT 'पुच्छातिगेण'त्ति । पृच्छात्रिकेण दिवसं यावत्तत्क्षेत्रं हरत्युत्तरदाता दिवसं यावत्तदाभवनात् । सप्तभिः पृच्छाभिः 'मा-101 सिक' मासं यावत्क्षेत्रगतं सचित्तादि हरति, मासं यावत्तदाभवनादिति। अक्षेत्रोपाश्रयेऽविधिकथने लघुमासःप्रायश्चित्तम् , न च लभेत यस्याग्रेऽविधिः कथ्यते स तमक्षेत्रं तावदहमतिमास्नाननिमित्तं रथयात्रानिमित्तमध्वशीर्षकनिमित्तं कुलगणसङ्घसमवाये च यत्स्थानम् । तत्रोपाश्रयास्त्रिविधाः-पुष्पावकीर्णका मण्डलिकाबद्धा आवलिकास्थिताश्च । तेषां मध्यात्कुतश्चिदेकतरस्मादुपाश्रयाद्विचारादिनिमित्तं कोऽपि निगर्तस्तं दृष्ट्वा कोऽपि प्रविव्रजिषुः - ०.००० पृच्छेत्-कुत्र साधूनां वसतिः? इति, स ब्रूते-कुतो हेतोस्त्वं पृच्छसि ?, शैक्षः प्राह-प्रव्रजिष्यामीति, ततो यद्यात्मीयमुपाश्रयं दूरमासन्नं वा कथयति तस्य मासलघु प्रायश्चित्तम् । न च स तं शिष्यं लभते किन्तु यस्य प्रत्यासन्नतर उपाश्रयस्तस्यैव स आभवतीति भावः॥२॥ कथं तर्हि विधिकथनम् ? इत्याहकायवो उद्देसो, उवस्सयाणं जहक्कम तेणं । संविग्गबहुसुआण वि, पुच्छाइ जहिच्छमाहवइ ॥३॥ ००००० Jain Edu For Private & Personal use only helibrary.org Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो - ॥ ९५ ॥ Jain Educat 'कायवो 'ति । यतोऽविधिकथने दोषः 'तेन' कारणेनोपाश्रयाणां यथाक्रममुद्देशः कर्त्तव्योऽमुकप्रदेशेऽमुकस्योपाश्रय इति । एवं कथिते हि यत्र स व्रजति तस्य स आभवति। संविग्नबहुश्रुतानामपि पृच्छायां यथेच्छमाभवति । अयं भावःकेऽत्र संविग्ना बहुश्रुता वा ? इति पृष्टे वितथाख्याने मासलघु, न च स तं लभते किन्तु ये तपस्वितरा बहुश्रुततराश्च तेषां स भवति । अथ सर्वेऽर्द्धा वा संविग्नास्ततोऽसंविग्नान् पार्श्वस्थादीन् मुक्त्वा तेषां तथैवाख्याने यस्य पार्श्व व्रजति तस्यैवाभवतीति ॥ ३॥ गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः गामंतरे वि पुढे, अवितहकहणम्मि जं समब्भेइ । सो लहइ तं ण अण्णो, मायाणियडिप्पहाणो उ ॥ ४ ॥ 'गामंतरे वि'ति । इह हि कोऽपि तस्मिन् ग्रामे नगरे देशे राज्ये वा न प्रव्रजति मा निजका उत्प्रवाजयेयुः प्रव्रजति वा मा रुदनं कुर्युरिति, यदि वा तेषां निजकानां समक्षं लज्जते । अथवाऽप्कायादिप्रचुरत्वाद संयमाधिकरणं तद् ग्रामादिकमिति ग्रामान्तरेऽपि पृष्टेऽवितथकथने यद् यथा ग्रामादिकं पृष्टं तस्य तथा दूरासन्नादिभेदेन कथने यं समभ्येति स तं लभते । वितथाख्याने तु मासलघु, न चान्यस्तं लभते । किम्भूतः ? माया -परवञ्चनाभिप्रायो निकृतिः - आकारवचनाच्छादनं ते प्रधाने यस्य स तथा, तत्र ग्रामे चैत्यादीनि सन्तीत्यादिवचनैर्विपरिणामव्यापृत इति यावत् ॥ ४ ॥ वासासुं अमणुण्णा, हुंति ठिया जे उ वीसुमसमत्ता । ते णो लहंति खित्तं, लहंति समणुण्णया हुंता ॥ ५ ॥ ६ ॥ ९५ ॥ 'वासासुं'ति । 'वर्षासु' वर्षाकाले ये 'अमनोज्ञाः' परस्परोपसम्पद्विकलाः सप्तभ्यो हीनतयाऽसमाप्ताः, ये तु विष्वक् ) elibrary.org Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिता भवन्ति ते क्षेत्रं न लभन्ते । सुखदुःखादिनिमित्तं परस्परोपसम्पदं गृहीत्वा समनोज्ञास्तु भवन्तो लभन्ते ॥५॥ है तेसिं जो रायणिओ, थेरो परिआयओ पहू सो उ। खित्ते तत्थ य लाहो, सवेसि होइ सामन्नो ॥६॥ 'तेसिं जो'त्ति । तेषां मध्ये यो रात्निको यस्य पर्यायाधिकतया वन्दनादीनि क्रियन्ते स एव पर्यायतः स्थविरः प्रभुभवति । तत्र क्षेत्रे लाभश्च सर्वेषां समानो भवति, सर्वेषामप्याचार्यत्वादुपाध्यायत्वाद्वा ॥६॥ ६वीसुं ठिएसु असमत्तकप्पिएसुं समत्तकप्पी उ। जो एइ तस्स खित्तं, समगं पत्ताण समभागं ॥७॥ है। 'वीसुति । विष्वस्थितेष्वसमाप्तकल्पिषु यः समाप्तकल्पी समागच्छति तस्य तत्क्षेत्रं न तु पूर्वस्थितानामसमाप्तककल्पिनाम् । 'समकं प्राप्तानां' भूयसां समाप्तकल्पानां गच्छानां 'समभाग' साधारणम् ॥७॥ समणुन्नयाविहाणावसरम्मि समागए समत्तम्मि । साहारणं तु खित्तं, समत्तया जं समा दोण्हं ॥८॥ ___ 'समणुन्नय'त्ति । असमाप्तकल्पतया स्थितानां परस्परोपसम्पदहणेन समनोज्ञताविधानावसरे समागते च समाप्तकल्पिनि साधारणमेव क्षेत्रम् 'यत्' यस्माद्वयोरपि समाप्तता समा, क्रियमाणाया अपि समाप्ततायाः कृतत्वात् ॥८॥ साहारणट्टियाणं, जो भासइ तस्स तं हवइ खित्तं । वारगतदिणपोरसिमुहुत्त भासेइ जो जाहे ॥९॥ । 'साहारण'त्ति । साधारणस्थितानां मध्ये यः सूत्रमर्थ वा भाषते तस्य तद्भवति क्षेत्र न शेषाणाम् । यो यदा वारकेण दिनं पौरुषी मुहूर्त वा भाषते तस्य तावन्तं कालमाभाव्यं न शेषकालम् ॥ ९॥ GEOGRESS For Private Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो - ॥ ९६ ॥ Jain Educatio आवलिआ मंडलिआ, घोडगकंडूयणेण भासते । बलिआइँ उवरिमुवरिं, जा अट्ठासीइसुत्ताई ॥ २९० ॥ 'आवलिअ'त्ति । इह हि सूत्रस्यार्थस्य वा भाषणे त्रयः प्रकारास्तद्यथा - आवलिकया मण्डल्या घोटककण्डूयनेन च । तत्रावलिका नाम सा याऽविच्छिन्ना एकान्ते च भवति सा हि परम्पराभिधारणया स्वाध्यापकमात्र एवाभाव्यसमात्यभावादुत्तरोत्तरगुर्वपेक्षया विच्छिन्ना, तत्र च विविक्तप्रदेश एव मध्ये स्थित उपाध्यायः पाठयतीति । मण्डली पुनः स्वस्थान एवाविच्छिन्ना च भवति, तत्राभिधारितस्यान्याभिधारणाभावेन तल्लाभस्य मध्यवर्त्तिद्वारकस्यापि व्याख्यातृपर्यवसितत्वेनाविच्छिन्नत्वात्, तदुक्तम् - "छिन्नाछिन्नविसेसो, आवलिआए उ अंतर ठाति । मंडलिए सहाणं, सच्चित्तादीसु संकमइ ॥ १ ॥ " तथा " अभिधारते पढ़ते अ, छिन्नाए ठाइ अंतिए । मंडलीए उ सट्ठाणं, वयए णो उ मज्झिमे ॥ २ ॥ जो उ मज्झिलए जाइ, णियमा सो उ अंतिमं । पावए णिन्नभूमिं तु, पाणियं पिव लोट्टियं ॥ ३ ॥” ति, तथा चूर्णावप्युक्तम्- “ अच्छिण्णोवसंपया णाम अभिधारिजंतो अण्णं णाभिधारेइ"त्ति, तथा -- " एत्थ पुण सबेसिं लाभो अंतिलं जाति" ति । घोटक कण्डूयनं नाम यद्वारंवारेण परस्परं पृच्छनं तद् घोटकयोः परस्परं कण्डूयनमिवेति । अर्थात् तत्रावलि - कया मण्डलिकया घोटककण्डूयनेन च सूत्रं भाषमाणे सामायिकादीनि यावदष्टाशीतिसूत्राणि उपर्युपरि बलिकानि भवन्ति । अयं भावः - एक एकस्य पार्श्वे आवश्यकमधीते, स चावश्यकप्रति पृच्छकस्य समीपे दशवैकालिकमधीते तदा | दशवैकालिक वाचनाचार्यस्याभवति । तथा एक एकस्य पार्श्वे दशवैकालिकमधीते, दशवैकालिकवाचनाचार्यः पुनर्दशवैकालिकप्रति पृच्छकस्य समीपे उत्तराध्ययनान्यधीते उत्तराध्ययनवाचनाचार्यस्याभाव्यं क्षेत्रम्, एवं तावद्भावनीयं याव । tional : गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः सूत्रार्थभापणे प्रकार त्रयम् ॥ ९६ ॥ nelibrary.org Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाशीतिसूत्राणीति । इयान् परमिह विशेषः-मण्डलिका तावदावलिकावदेव, सा हि पूर्वाधीते नष्टे उज्वाल्यमाने धर्मकथावादशास्त्रेषूज्वाल्यमानेष्वधीयमानेषु वा प्रकीणकश्रुते वाऽधीयमाने बहुश्रुतस्यापि भवति, तथाहि-एक एकस्य पार्श्वे पूर्वाधीतं नष्टमावश्यकमुज्ज्यालयति, आवश्यकवाचनाचार्यः पुनस्तत्समीपे दशवैकालिकं दशवकालिकवाचनाचार्यस्याभवतीत्यादि सर्व प्राग्वदेव । तथा एक एकस्य पार्श्वे आवश्यकं नष्टमुज्ज्वालयति, एवोऽप्यावश्यकवाचनाचार्योऽन्यस्य समीपे दशवकालिकम, दशवैकालिकवाचनाचार्योऽप्यपरस्य समीपे उत्तराध्ययनानि, उत्तराध्ययनवाचनाचार्योऽप्यन्यस्य समीपे आचाराङ्गम् , एवं यावद्विपाकश्रुतवाचनाचार्यः पूर्वाधीतं नष्टमन्यस्य पार्श्वे दृष्टिवादमुज्वालयति दृष्टिवादवाचनाचार्यस्याभवति, न शेषाणाम्, आभवनस्योत्तरोत्तरसङ्क्रान्त्याऽन्तिमेऽवस्थानात् । एतच्चावलिकायामपि द्रष्टव्यम् , न चैवं छिन्नाछिन्नविशेषानुपपत्तिः,व्याख्यातुरन्याभिधारणानभिधारणाभ्यां तदुपपत्तेः; इदं च छिन्नाछिन्नोपसम्पदभिप्रायेणोच्यते । अथवा छिन्नत्वं सार्वत्रिकमेकान्तनिवेशेनैव, तेन नावलिकायां परस्परमाभाव्यविशेषस्य तन्त्रोक्तस्यानुपपत्ति-18 रिति सम्यगालोचनीयम् । तथा यस्य पार्श्वे धर्मकथाशास्त्राणि वादशास्त्राणि वोज्ज्वालयत्यधीते वा तस्य पाठकस्याभवति न पाठ्यमानस्य । तथा बहुश्रुततरोऽपि यद्यन्यस्य समीपे प्रकीर्णश्रुतमधीते तदा तस्य प्रकीर्णकश्रुतपाठकस्याभाव्यं न बहुश्रुततरस्य । किंबहुना यो यस्य समीपे पठत्युज्ज्यालयति वा तस्य सत्कमाभाव्यमितरो वाचनाचार्यों हरति । तथा घोटककण्ड्यनेन परस्परं पृच्छायां यो यदा यं पृच्छति स तदा तस्य प्रतीच्छ का, इतरः प्रतीच्छयः, यावच्च यः प्रतीच्छयस्तावत्तस्याभवतीति ॥२१॥ शुरुत. १७ Jain Educationindy For Private Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनव अत्था वि हुंति एवं, बलिआ मुत्तूण णवरि छेयत्थं । मीसे वि गमो एसो, बलिअंपुवाओ पुवगयं ॥११ त्तियुतः | 'अत्था वित्ति अर्था अपि 'एवं' सूत्रोक्तक्रमेणैव बलिकाः, तथाहि-एक एकस्य पार्श्वे आवश्यकार्थमधीते, आवश्य-विनिश्चयः द्वितीयो-दकार्थवाचनाचार्यः पुनरावश्यकार्थप्रतिपृच्छकस्य समीपे दशवकालिकार्थमधीते दशवैकालिकार्थवाचनाचार्यस्याभाव्यंलासः सतत् क्षेत्रम् , एवं तावद्वाच्यं यावदष्टाशीतिसूत्रार्थः । नवरं छेदसूत्रार्थ मुक्त्वाऽर्थाचार्याणामुपरि खलु छेदसूत्रार्थाचार्यों ही वक्तव्यः, तथाहि-एक एकस्य पार्श्वे दृष्टिवादगतानामष्टाशीतिसूत्राणामर्थमधीते, अष्टाशीतिसूत्रार्थवाचनाचार्यः पुनरष्टाशीतिसूत्रार्थप्रतीच्छकस्य पार्श्वे छेद सूत्रार्थमधीते छेदसुत्रार्थवाचनाचार्यस्याभाव्यं तत् क्षेत्रम् । 'मिश्रेऽपि' सूत्रार्थोभयरूपे एष एव 'गमः' प्रकारः पूर्वगतं पूर्वस्माद्वलिकम् । अत्र पूर्वशब्देन अर्थ उच्यते, भगवता उक्तत्वेन सूत्रापेक्षया तस्य पूर्वत्वात् , स च प्रकरणादष्टाशीतिसूत्रार्थपर्यन्तो गृह्यते, तावत्पर्यन्तो हि सूत्रादर्थो बलीयान् । एक एकस्य पार्श्वे आवश्यक सूत्रमधीते तस्य समीपे पुनः सूत्रवाचनाचार्य आवश्यकार्थमधीते आवश्यकार्थवाचनाचार्यस्याभवति, एवं तावद्भावनीयं यावदष्टाशीतिसूत्रार्थवाचनाचार्य इति । तावत्पर्यन्ताच्चार्थात्पूर्वगतं वलीयः, तावत्पर्यन्तात्सूत्रात्तु सुतरां तद् बलीय इति द्रष्टव्यम् । तथाहि-एक एकस्य पार्श्वे आवश्यकस्य सूत्रमर्थं तदुभयं वाऽधीते तस्य समीपे पुनरावश्यकसूत्रार्थतदुभयवाचनाचार्यः पूर्वगतं सूत्रमधीते पूर्वगत सूत्रवाचनाचार्यस्याभवति, एवं तावद्वाच्यं यावदटाशीतिसूत्राणि । पूर्वगतसूत्राच्च पूर्वगतार्थो बलीयानिति ॥ ११ ॥ अथ कुतो हेतोः शेषात् सूत्रादर्थाच्च पूर्वगतं सूत्रं बलीयः ? इत्याशङ्कायामाह ROCCCCROCOM ॥९ ॥ Jain Educat For Private & Personal use only library.org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aum परिकम्मेहि य अत्था, सुत्तेहि यजे य सूइआ तेसिं । होइ विभासा उवरिं, पुवगयं तेण बलिअंतु ॥ १२ ॥ है 'परिकम्मेहि यत्ति । दृष्टिवादः पञ्चप्रस्थानः, तद्यथा-परिकर्माणि १ सूत्राणि २ पूर्वगतं ३ अनुयोगः४चूलिका ५ चेति। तत्र 'परिकर्मभिः सिद्धिश्रेणिकाप्रभृतिभिः 'सूत्रैश्च' अष्टाशीतिसङ्खयरर्थी ये सूचितास्तेषां सर्वेषामप्यन्येषां च 'उपरि' पूर्वेषु । विभाषा भवति' अनेकप्रकारं ते तत्र भाष्यन्त इत्यर्थः, तेन कारणेन पूर्वगतं सूत्रं बलिकम् ॥ १२ ॥ येन कारणेन ४ पूर्वगतसूत्रादर्थो बलीयान् तदभिधित्सुराह तित्थगरटाणं खल्लु, अत्यो सुत्तं तु गणहरट्ठाणं । अत्थेण य वंजिज्जइ, सुत्तं तम्हा उ सो बलवं ॥ १३ ॥ BI 'तित्थगर'त्ति । अर्थः खलु तीर्थकरस्थानम्, तस्य तेनाभिहितत्वात्। सूत्रं तु गणधरस्थानम् , तस्य तैव्धत्वात् । अर्थेन । टूच यस्मात्सूत्रं 'व्यज्यते' प्रकटीक्रियते तस्मात् 'सः' अर्थः सूत्राद्बलवान् ॥ १३ ॥ अथ कस्माच्छेपार्थेभ्य छेदसूत्रार्थो 18 वलीयान् ? इत्याह- . जम्हा उ होइ सोही, छेयसुयत्थेण खलिअचरणस्स । तम्हा छेयसुयत्थो, बलवं मुत्तूण पुवगयं ॥२१॥ HT 'जम्हा उत्ति । यस्मात् 'स्खलितचरणस्य' आपन्नचारित्रदोषस्य छेदसूत्रार्थेन शोधिर्भवति तस्मात्पूर्वगतमा है मुक्त्वा शेषात् सर्वस्मादप्यर्थाच्छेदश्रुतार्यों वलीयानिति ॥ २१४ ॥ तदेवं वर्षासु स्थितानां श्रुतोपसम्पदमधिकृत्य क्षेत्रा भवन विवेकः कृतः । अथ तेषां स्वाभाविक विशेषमाह For Private Personal Use Only brary.org Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञव- अंतो ठिआण खित्तं, गणिआयरिआण दोसु गामेसु । वासासु होइ तं खलु, गमणागमणेहिँ णो बाहिं १५/४ गुरुतत्त्वत्तियुतः | 'अंतोत्ति। गणोऽस्यास्तीति गणी-गणावच्छेदकः, आचार्यश्च प्रतीतः, तयोर्द्वयोर्मामयोः पृथक्पृथस्थितयोर्वर्षासु तद्बा- विनिश्चयः द्वितीयो- मद्वयलक्षणमन्तः क्षेत्रमाभवति न तु बहिः, गमनागमनाभ्यां पानीयहरिताद्याकुलतया बहिः सञ्चाराभावात् ॥ २१५ ॥ ल्लासः ॥ ९ ॥18 एगदुगपिंडिआण वि, वासासु समत्तकप्पिआण हवे । वागंतियववहारोचियमाभवं समे खित्ते ॥ १६ ॥ 6] 'एगदुग'त्ति । वर्षासु बहूनामाचार्याणां परस्परोपसम्पदा समाप्तकल्पानाम्, वर्षासु सप्त जनाः समाप्तकल्पे, ऊना असमाप्तकल्पे, 'एगदुगपिंडिआण वित्ति सप्ताप्येकैकाः सन्तः पिण्डिता एकपिण्डिताः, अथवा द्विकेन-वर्गद्वयेन एकःएकाकी एकः षडर्गः, यदि वा एको द्विवर्गः एकः पञ्चवर्ग इत्यादिरूपेण पिण्डिता द्विकपिण्डितास्तेषामेकद्विकपि|ण्डितानाम् , अपिशब्दात्रिकचतुष्कादिपिण्डितानां चाभाव्यं भवति । तथा 'समे' साधारणे 'क्षेत्रे' स्नानादिप्रयोजनतः। वाऽप्येकत्र क्षेत्रे मिलितानामेककालमेव पृथक्पृथकस्थितानां समाप्तकल्पानां वा यद् यस्योपतिष्ठते तत्तस्याभवतीति | व्यवस्थां कृत्वा प्रविष्टानां पश्चादागतानां वा वागन्तिकव्यवहारोचितमाभाव्यं भवति, यथा प्रतिज्ञातं प्राक् तथा यद् यस्योपतिष्ठते तत्तस्याभवतीत्यर्थः ॥ १६ ॥ साहारणट्ठियाणं, पुच्छंतो जो उवस्सयं सेहे । निययं दूरासन्नं, कहेइ सो लहइ मासगुरुं ॥२१७॥ ॥ ९८॥ 'साहारण'त्ति । साधारणक्षेत्रस्थितानां विचारादिविनिर्गतानां साधूनां क साधूनां वसतयः ? इति पृच्छति शैक्षे उपाश्रयं For Private Personel Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निजकं दूरमासन्नं वाऽऽदावेव यः कथयति स मासगुरु प्रायश्चित्तं लभते ॥ २१७ ॥ कथं पुनः कथनीयम् ? इत्याह| सवे उद्दिसिअवा, अह पुच्छइ कयरु एत्थ आयरिओ । बहुसुअ तवस्सि पवावगो य तत्थ वि तहा कहणं १८ 'सवे 'ति । सर्वे यथाक्रममुपाश्रया उद्देष्टव्याः, यथा - अमुकस्याचार्यस्योपाश्रयोऽमुकप्रदेशेऽमुकस्य चामुकप्रदेश इति । अथ स पृच्छेत् — कतरोऽत्राचार्यो बहुश्रुतस्तपस्वी वा प्रत्राजको वा ? ' तत्रापि' तस्यामपि पृच्छायां तथा कथनं कर्त्तव्यम्, अन्यथा कथने मासगुरु ॥ १८ ॥ |सबेसि बहुगुणत्ते, कहिए जो जस्स पासमब्भेइ । सो तस्स होइ सिट्ठे, चउरो किव्हा विसेसम्मि ॥ १९ ॥ ‘सबेसि’त्ति । सर्वेषामाचार्याणां यथासद्भावं बहुगुणत्वे सर्वे बहुश्रुताः सर्वे प्रब्राजकाः सर्वे चाचार्याः प्रधानतरा इत्येवं कथिते यो यस्य पार्श्वमभ्येति स तस्याभवति । आत्मीयानां बहुतरगुणोत्कीर्त्तनेनान्येषां च बहुतरनिन्दनेन रागद्वेषाकुलतया विशेषे तु शिष्टे विशेषकथकस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो मासाः 'कृत्स्नाः ' परिपूर्णा गुरुका इत्यर्थः ॥ १९ ॥ धम्मं सोउं इच्छइ, जइ सो तो तं कहेइ धम्मकही। रायणिओ बहुसु तओ, अपणे वि कहंति तारिसयं २० ''ति । अथ स धर्म श्रोतुमिच्छति, वदति च सर्वेषां मिलितानां समक्षं युष्माकं पार्श्वे धर्म तावदहं श्रोतुमिच्छामि ततो रुचिते धर्मे प्रत्रजिष्यामीति, तदा तं धर्मे कथयति 'धर्मकथी' धर्मक्रथालब्धिसंपन्नस्तावदादौ । अथान्येऽपि द्वित्रिप्रभृतयो लब्धितः समानास्तत्र सन्ति तदा बहुषु धर्मकथिषु सत्सु 'ततः' तदनन्तरं 'रात्निकः' रत्नाधिकः कथयति । अथ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो - ॥ ९९ ॥ पुनरपि धर्मकथां श्रोतुमिच्छामीति यदि ब्रवीति तदा 'तादर्श' पूर्ववेलायां यादृशमुक्तं तत्तुल्यमेवान्येऽपि यथाक्रमं वदन्ति, उक्तञ्च - "जारिसयं पढमेहिं कहिअं तारिसं सेसेहिं कहेयवं" इति । एवं सर्वैः सदृशतया कथिते यस्योपतिष्ठते तस्याभवति । अथान्ये विशेषतरेण कथयन्ति तर्हि ते न लभन्ते किन्तु यो रत्नाधिकस्तेषां तस्य स आभवतीति ॥ २२० ॥ तत्तो य सलडीए, कहणे आहवइ जेण उवसमिओ | आयरिअदाणकहणे, बहुआ दिजंति इकिका ॥२१॥ ' तत्तो य'ति । यादृशं प्रथमेन कथितं तादृशेऽन्यैरपि कथिते यदि स न प्रव्रज्याभिमुखो भवति ततश्च 'स्वलब्ध्या' स्वशक्तितुलनया सर्वेषां रानिकप्रभृतीनां कथने येनोपशामितस्तस्य स आभवति, कथनं चैत्रं मा सोऽनुपशान्तः सन् संसारं भ्रमस्त्विति कृत्वा । अथ यदि सर्वेषामाचार्याणां यथासद्भावं बहुगुणकथने यं जानीथ यूयमाचार्य तं मम दर्शयतेति तस्याssवार्य दानकथने तदा यदि बहवः शिष्यास्तदाऽऽचार्याणां प्रत्येकमेकैके दीयन्ते ॥ २१ ॥ अथैक एव शिष्यस्तत्र विधिमाह - रायणिए थेरेऽसइ, कुलगणसंघे दुगाइणो भेआ । एमेव वत्थपाए, तालायरसेवगा वणिआ ॥ २२ ॥ 'रायणि 'ति । यद्येक एव शिष्यस्तदा यस्तेषां सर्वेषामपि रात्रिकस्तत्र स समर्पणीयः । अथ सर्वे समरलाधिकास्ततो यस्तेषां 'स्थविर:' वृद्धतरस्तत्र स समर्पणीयः । अथ सर्वे वृद्धास्तदा यस्य शिष्या न सन्ति तत्र देयः । अथ सर्वेषां शिष्याणाम् 'असति' अभावे कुलस्थविरे, अन्यकुलसत्कानामपि तत्र सच्चे गणस्थविरे, अन्यगणसत्कानामपि तत्र : गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लास: ॥ ९९ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I सत्त्वे सस्थविरे, अथवा स एकः शिष्यः साधारणस्तावत्क्रियते यावदन्ये उपतिष्ठन्ते, उपस्थितेषु च यदा सर्वेषां परिपर्णा भवन्ति तदा विभज्यन्ते । एवं द्विकादयोऽपि भेदा वाच्याः। एवमेव वस्त्रपात्रेऽप्युपस्थिते द्रष्टव्यम् , तच्च वस्त्रहापात्रादिकं तालाचरा वा दद्युः सेवका वा वणिजो वा, एतेषां प्रायो वर्षासु दानसम्भवात् ॥ २२॥ चोएइ वत्थपाया, कप्पंते वासवासि घेत्तुंजे । जह कारणम्मि सेहो, तह तालचरादिसुय वत्था ॥ २३ ॥ I 'चोएइ'त्ति । चोदयति शिष्यः-वर्षावासे वस्त्रपात्राणि ग्रहीतुं कल्पन्ते ?, काक्का पाठ इति प्रश्नावगमः । सूरिराह यथा 'कारणे' पूर्वोपस्थित इत्येवंलक्षणे व्यवस्थितिकारको भविष्यतीत्येवंरूपे वाऽपवादतः शैक्षः कल्पते तथाऽपवादत-IR 18स्तालाचरादिषु वस्त्राणि, उपलक्षणमेतत् पात्राणि च कल्पन्ते ॥ २३ ॥ तदिणमुवसामेई, पडिवजंतं तु जो उ गिहिलिंगं। मूलायरिअन्नो वि हु, तस्सेव तओ पुरा आसि ॥ २४ ॥ 'तदिण मिति । यो व्रतं मुक्त्वा गृहिलिङ्गं प्रतिपद्यमानं तदिनमेव 'उपशामयति' व्रतग्रहणायाभिमुखीकरोति मूलाचा-13 योन्योऽपि, अपिना मूलाचार्यों वा गृह्यते, ततो येनैवोपशमितस्तस्यैवाभवति न मूलाचार्यस्यैव, उक्तश्च-"पच्छाकडो गिहत्थीभूओ जइ तदिवसं चेव पबइउमिच्छइ जस्स सगासे इच्छइ तस्सेव सो ।” इति । एष विधिः पुराऽऽसीत् । सम्प्रति पुनलिङ्गे परित्यक्तेऽपि त्रिषु वर्षेषु तदाभवनपर्यायः परिपूर्णो भवति नारतः ॥ २४ ॥ कुत इयं मयांदा प्रस्थापिता? इत्यत आह नाaarunmamanaras Aaram Jain E For Private Personal use only wanw.ainetorary.org Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः स्वोपज्ञवृ- इण्हि पुणजीवाणं, उक्कडकलुसत्तणं विजाणित्ता। तो भद्दबाहुणा ऊ, तेवरिसा ठाविआ ठवणा ॥२२५॥ गुरुतत्त्व 'इण्हिं पुण'त्ति । इदानीं पुनर्जीवानां 'उत्कटकलुषत्व' कषायाविलत्वं विज्ञाय भद्रबाहुना 'वर्षी' त्रिवर्षप्रमाणा विनिश्चयः द्वितीयो-18मर्यादा स्थापिता, चारित्रतटाके संयमोदकपरिवहनरक्षणार्थ पालिः कृतेति भावः ॥२२५॥ अस्यामेव त्रैवार्षिक्यां स्थाप-18 ल्लास: ॥१०॥ नायां विशेषमभिधित्सुराह तदिवसं तु जमिच्छइ, णिण्हवपरतित्थिएसु संकेतो।जढसम्मत्तो तस्स उ, सम्मत्तजुए समा तिषिण २६|| _ 'तदिवसं तु'त्ति । निह्नवपरतीर्थिकयोः संक्रान्तस्त्यक्तसम्यक्त्वः सन् तद्दिवसमेव यं प्रतिबोधकमिच्छति तस्यैव स॥ | आभवति । सम्यक्त्वयुते तु भग्नचारित्रपरिणामे हि परलिङ्गादिषु गते मूलाचार्यमर्यादाः 'तिम्रः समाः' त्रीणि वर्षाणि - त्रिषु वर्षेषु गतेषु पूर्वपर्यायरुयुट्यतीत्यर्थः ॥२६॥ एमेव देसिअम्मि वि, सभासिएणं तु समणुसिम्मि ।ओसन्नेसु वि एवं, अच्चाइन्ने ण उण इपिंह ॥ २७॥ ___ 'एमेव'त्ति । एवमेव' अनेनैव प्रकारेण दैशिकेऽपि 'सभाषण' समानभाषाव्यवहारिणा समनुशिष्टे ज्ञातव्यम् , अयं | भावः-यद्यन्ध्रादिदेशोद्भवो म्लेच्छप्राय आर्यभाषामजानानो विपरिणतः सन् त्यक्तसम्यक्त्वो गृहस्थीभूतः परिव्राजकादिषु निह्नवेषु वा मिलितेषु यदि केनापि साभाषिकेण समनुशिष्टः सन् प्रत्यावर्त्तते तर्हि तस्य समनुशासकस्याभवति ॥१० ॥ नान्यस्य । अथ ससम्यक्त्वः परलिङ्गादिषु गतस्तहि मूलाचार्यपर्यायपरिमाणं तिम्रः समाः। अवसन्नेष्वप्येवं पूर्वमासीत् ।। JE For Private & Personal use only lanelibrary.org Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OGRAMSASURROUNDER यथा-अवसन्नीभूतं तद्दिवसमपि य उपशमयति स तस्याभवति । इदानीं पुनः कषायैरत्याकीर्णे नेयं व्यवस्था किन्तु त्रीणि वर्षाणि पूर्वदिपर्यायः ॥२७॥ सारूबी जाजीवं, पुवायरिअस्स तेण जाइं पुणो। पवाविआइँ ताणि वि, इच्छाऽपवाविएसुं तु ॥२८॥ 'सारूवित्ति । सारूपिको यावज्जीवं पूर्वाचार्यस्याभवति न तु तस्य त्रैवार्षिकी मर्यादा । तेन पुनर्यानि पुत्रादीनि * प्रवाजितानि तान्यपि मूलाचार्यस्यैव । यानि पुनः 'अप्रत्राजितानि' तेनामुण्डितानि किन्त्वद्यापि सशिखाकानि तदायत्तानि च तेषु 'इच्छा' यस्येच्छया स ददाति तस्य तान्याभवन्तीत्यर्थः ॥ २८ ॥ पुत्ताइआणि मूले, पवावइ जाइं लोअखुरमुंडो। आरेणं वासतिगस्सिमाइं एसों य तत्थेव ॥ २९ ॥ 'पुत्ताइआणि त्ति । पुत्रादीनि तस्य 'मूले' मूलाचार्य आभवन्ति, यानि लोचेन चुरेण वा मुण्डो गृहस्थताधारी न तु|| रजोहरणदण्ड कपात्ररूपसारूपिकवेषधारी 'प्रव्राजयति' मुण्डितानि करोति, वर्षत्रिकस्य 'आरात्' अर्वाक् इमान्येष चार 'तत्रैव' पूर्वाचार्य एवाभवन्ति ॥ २९ ॥ दाइच्छा अमुंडिएसुं, तिण्हं उवरिं च तस्स संगहणं । कुजा मूलायरिओ, संविग्गुदेसणेणावि ॥ २३० ॥ _ 'इच्छत्ति । 'अमुण्डितेषु' सशिखेषु स्थापितेषु'इच्छा' तदिच्छानुसारेण तेषामाभवनमित्यर्थः । त्रयाणां वर्षाणामुपरि | च तस्य तन्मुण्डितानां वा तदिच्छानुसारेणाभवनम् । अतः स यदि सम्यगुपशान्तः सन् मूलाचार्यमाश्रयितुमिच्छति 945454- 55- 55245 For Private & Personal use only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः स्वोपज्ञवृ- तदा स तस्य संग्रहणं कुर्यादन्यथाऽसङ्ग्रहप्रत्ययं मासलघु प्रायश्चित्तं श्रद्धाभङ्गादिप्रत्ययं चाधिकम् । अथ यदि स मूला गुरुतत्त्व चार्य दूरत्वग्लानत्वादिकारणेन नाश्रयते तदान्योऽपि मूलाचार्यस्य संविग्नस्योद्देशेन तस्य संग्रहणं कुर्यान्न तु तस्य, असंवि- विनिश्चय द्वितीयो- 18 नस्योद्दशने गुरुनिन्दकत्वात् । यदि च परकीय इति कृत्वा तं न संस्तरणेऽपि संगृह्णीयात्तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। लासः असंस्तरणे त्वसंगृह्णन्नपि शुद्ध इति द्रष्टव्यम् ॥ २३० ॥ ॥१०॥ अण्णोवगमे पच्छा, पुवायरिओ ण होइ इच्छाए। दिति दिसाऽनाणम्मि वि, लिंगंणाहिति तं पच्छा ३१/३ PI 'अण्णोवगमे'त्ति । अन्यस्याचार्यस्योपगमे नाहं पूर्वाचार्य संविग्नमसंविग्नं वोदिशामि किन्तु त्वमेव ममाचार्य इत्ये-12 हावमङ्गीकारे पश्चाद्विपरिणतस्येच्छया नाहं युष्माकं किन्तु पूर्वाचार्यस्येति वाङ्मात्रेण पूर्वाचार्यों न भवति, प्रभुरिति शेषः। 81 तत्पाक्षिकग्रहणभीतिलज्जादिना पूर्वदिशोऽकथने दिशोऽज्ञानेऽपि लिङ्गं ददति । तस्य पश्चात्कृतस्याचायांस्तां पूर्वाचार्यसालक्षणां दिशं 'पश्चात्' कालान्तरे ज्ञास्यन्ति, स वा पूर्वाचायपरम्परया शृण्वन् तं ज्ञात्यति ततो यस्य समीप तस्य प्रति भासते तमाश्रयतो न दोष इति ॥ ३१॥ समणीणं समणाण य, ओहावंताण कुलममत्तकए। वागंतियववहारो, जो खलु तेणेव आभवं ॥३२॥ _ 'समणीण'ति । श्रमणीनां श्रमणानां च 'अवधावमानानां' संयमादपसरतां कुलममत्वकृते यः खलु 'वागन्तिकव्य-18 ॥१०१ विहार' यथा यान्यपत्यानि तेषां मध्ये ये पुरुषास्ते सर्वे मम याः स्त्रियस्ताः सर्वास्तव, अथवा सवाण्यपत्यानि ममेव। MACRORSCARRORSCRe CALCREACOCKR Jain Education , For Private Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दतवैव वेत्यादि, तेनैव तेषामाभाव्यं भवति ॥ ३२॥ अहण कओ तो पच्छा, तेसिं अब्भुट्टिआण ववहारो।संजइसमाणकुलया, भणंति अम्हं अवच्चाणि ॥३३॥ RI 'अह'त्ति । अथोक्तो वागन्तिकव्यवहारः प्राग न कृतस्तदा पश्चात्तेषां 'अभ्युत्थितानां' प्रव्रज्यार्थमुपस्थितानां 'व्यवहारः ।। स्वकुलममत्वकृते विवादो भवति, तन्त्र संयतीसमानकुलका भणन्ति-अस्माक्रमपत्यान्याभवन्ति ॥३३॥ तत्र गोदृष्टान्तमाहुःगोणीए जं जायं, संसत्ताए परस्स गोणेणं । तं सवं गोवइणो, ण हवइ तं गोणवइणो उ॥३४॥ गोणीएत्ति । गवा यज्जातं परस्य ‘गवा' वृषभेण संसक्तया तत् खलु गोपतेर्भवति न तु वृषभपतेः । अनेन दृष्टान्ते-181 नास्माकमपत्यान्येतान्याभवन्ति न तु युष्मा कमिति ॥ ३४ ॥ एवमुक्तेवितियरे अम्हं खलु. जह वडवाए उ अन्नआसेणं । जंजायइ अविदिपणे, मुल्ले तं आसियस्लेव ॥३५॥ __'वितिय'त्ति । इतरे' संयतसमानकुलका बुबते-अस्माकं खल्वेतान्यपत्यानि, यथाऽदत्ते मूल्येऽन्यसत्केनाश्वेन संसतया वडवया यज्जन्यते तद् 'आश्विकस्यैव अश्वस्वामिन एव न तु बडवास्वामिनः, कारणि कैरेवमेव व्यवहारनिश्चयात् ॥ २३५ ॥ एवमुक्तेउमामिआइ जायइ. महिलाए जस्स तस्स तं सर्व। इय अम्हाण वि एवं, भणंति पुण समणिपक्वत्था ॥ 'उम्भामियाईत्ति । 'उद्रामिकया' उद्रमणशीलया स्वैरिण्येत्यर्थः 'महिलया' स्त्रिया यस्य यज्जायते स्वतः परतश्च । SARKAMARCLOCAL Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो ॥ १०२ ॥ तस्य सर्वं तदाभवति, एवमस्माकमपीति भणन्ति पुनः श्रमणीपक्षस्थाः ॥ ३६ ॥ एवमुक्तेरायसमक्खं सयले, भोगभरे साहिए जहा दुण्हं । दंडो उब्भामगए, दाणं तह अम्ह इय अण्णे ३७ 'रायसमक्खं 'ति । राजसमक्षं सकले भोगभरे 'साधिते' कथितेऽहं देव ! अस्याः सर्वभोगभरं वहामि भर्त्ताऽपि चास्या मदीयेनैव भोगभरेण निर्व्यूढवान् तस्मात्प्रसादं कृत्वा मदीयान्यपत्यानि दापयतेत्येवं कथिते यथा 'द्वयोः' स्वैरिणी तद्भस्तथाभोगभर संवाददर्शनत एवमिमावन्यायकारिणाविति दण्डो दीयते राज्ञा सर्वस्वापहारलक्षणः । उद्धामके च दानमपत्यानां तथाऽस्माकमपीति 'अन्ये' संयतपक्षीया ब्रुवते ॥ ३७ ॥ एवमुक्ते - पुणरवि संजइपक्खा, भणति खरिआइ अण्णखरएण । जं जायइ तं खरिआहिवस्स एवं तु अम्हाणं ३८ 'रवि'त्ति | पुनरपि संयतीपक्षीया: 'भणन्ति' ते 'खरिकायां' गर्दभ्यामन्यसत्केन खरेण यज्जायते तत् सर्व खरिकाधिपस्य भवति, एवमस्माकमपीति ॥ ३८ ॥ परिपाव्यन्तरेण दृष्टान्तभावनायां प्रथमं गोवर्गदृष्टान्तमाहगोणीणं संगिलं, नटुं अडवीइ अन्नगोणेणं । जायाई वच्छगाई, गोणाहिवई उ गिण्हति ॥ ३९ ॥ 'गोणी 'ति । गवां स्त्री गवी गवीनां 'सङ्गिलं' वृन्दं 'नष्टं' अटव्यां पतितम्, तत्र च तस्य 'अन्यगवेन' अन्यसत्केन पुङ्गवेन जातानि वत्सकानि तानि गवेषणतः कथमपि गवां लाभे 'गवाधिपतयः' स्त्रीगवीस्वामिनो गृह्णन्ति न तु पुङ्गवस्वा| मिनः, एवमेतान्यस्माकमिति ॥ ३९ ॥ एवं संयतीपक्षीयैरुक्ते संयतपक्षीया उद्भामिकादृष्टान्तं पूर्वोक्तमुपन्यस्यन्ति तथा चाह गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः ॥ १०२ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CALCUSAKA ६ उभामिय पुवृत्ता, अहवाणीआ य जा परविदेसं। तस्लेव उ सा भवती, एवं अम्हं तु आभवति ॥२४॥ | उम्भामियत्ति । उद्भामिका पूर्वमुक्ता यथा सापत्या तस्य जाता, अथवा या परं विदेशं नीता सा तस्यैवाऽऽभवति । पश्चादपि नान्यस्य, एवमेतान्यपत्यान्येषा चास्माकमिति ॥ २४०॥ एवमुक्तेइयरे भणंति वीअं, तुझं नीअं तु खित्तमन्नं तं । तं होइ खित्तिअस्सा, एवं अम्हं तु आभवति ॥४१॥ ''इयरे'त्ति । इतरे' संयतीसत्का भणन्ति बीजं युष्मदीयं तत् किल क्षेत्रे सादृश्यविप्रलम्भतः कथमपि वापकैः अन्यत्क्षेत्रं नीतं' अन्यक्षेत्रे उप्तमित्यर्थः, तत् लोके क्षत्रिकस्याऽऽभवति, एवमेतान्यपत्यान्यस्माकमिति ॥ ४१॥ संयतसत्का अत्र प्रत्युत्तरमाहुःसानो धआओ खल, न माउछंदाउ वा उदिति। ण य पुत्तो अभिसिच्चइ, तासिं छंदेण एवम्हं ॥४२॥ _ 'रनो'त्ति । न खलु या राज्ञो दुहितरस्ताः 'मातृच्छन्दतः' मातृणामभिप्रायेण दीयन्ते नापि पुत्रोऽभिषिच्यते 'तासां' मातणां'छन्देन' अभिप्रायेण किन्तु राज्ञ एवाभिप्रायेण । ततो यथा राजा प्रधानमिति सर्व राज्ञ आयत्तम् , एवमत्रापि परुष प्रधानमिति सर्व पुरुषस्य ऽऽयत्तमतः सर्वेमस्माकमाभवति ॥४२॥ एवं व्यवहारे प्रवर्तमाने श्रुतधर आचार्यों व्यवहार छेत्तुकाम इदमाहएमाइ उत्तरुत्तरदिता बहुविहा ण हु पमाणं । पुरिसुत्तरिओ धम्मो, होइ पमाणं पवयणम्मि ॥४३॥ CCCCCCCORDCRUGGEX CROCCC गुस्त. १ Jain Educaton Internationa For Private & Pearl Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22622 स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो ॥१०॥ 'एमाइ'त्ति । एवमादय उत्तरोत्तरदृष्टान्ता बहुविधा अभिधीयमाना न प्रमाणं किन्तु प्रवचने पुरुषोत्तरको धर्म इति गुरुतत्त्वपुरुषः प्रमाणमिति सर्व पुरुषसत्का लभन्ते नेतर इति ॥ ४३ ॥ विनिश्चयः एयं पसंगभणियं इत्तो वुच्छं सुअम्मि आभवं । उवसंपया दुहा इह, अभिधारते पढ़ते य ॥ ४४ ॥ ल्लास: __'एय'ति । एतत् क्षेत्राभाव्याधिकारे प्रसङ्गेन भणितम्। इतः' अनन्तरं श्रुते आभाव्यं वक्ष्ये। ‘इह' श्रुते उपसम्पद्विधा । अभिधारयति पठति च ॥४४॥ क्षेत्राभव शव्य हारोपइकिका वि य दुविहा, अणंतरा तह परंपरा चेव । दुण्हं अणंतरा खलु, तिगमाईणं परंपरया ॥२४॥ संहारः श्रु___ 'इक्किक'त्ति । एकैकापि द्विविधा, अनन्तरा तथा परम्परा च । द्वयोः खल्वनन्तरा । त्र्यादीनां परम्परा । अनन्त-IIवयव रायां ह्यभिधार्यमाणोऽन्यं नाभिधारयति । परम्परायां तु सोऽप्यन्यं सोऽप्यन्यमित्यादि । यदाह व्यवहारचूर्णिकृत् महारोपक्षेप"अणंतरा णाम एको साहू कंचि आयरिअं अभिसंधारेइ, जो सो अभिधारिजइ सो ण कचि अण्णं अभिसंधारेइ । दिणम् उपसंप. परंपरा णाम एक्को साहू कंचि आयरिअं अभिधारेइ सो वि अभिधारिजंतो अण्णं अभिसंधारेइ, सो वि अण्णं, एवं अणिययपरिमाणं"ति ॥ ४५ ॥ सट्टाणे अभिधारिय-णिवेअणा जइ इमा उ अच्छिण्णा।छिण्णाइजंतु लद्धं, तं अकहतस्स पच्छित्तं॥४६॥ ॥१०३॥ 'सट्ठाणे'त्ति । यदि इयम्' अभिधारणाकृतोपसम्पत् 'अच्छिन्ना' अन्यलाभासङ्घमात्तदा स्वस्थाने गच्छताऽभिधारितस्य --- Jain Ede For Private & Personal use only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदना कर्त्तव्या । छिन्नायां त्वस्यां यदन्तराले लब्धं स्वयं स्थापितं स्वगच्छे चाप्रेषितं तदकथयतः प्रायश्चित्तम् । सचित्ते चत्वारो 'गुरुकाः, अचित्त उपधिनिष्पन्नम्, स्वरसेन तदनर्पणे स्नानादिसमवसरणे दृष्टस्य व्यवहारेण दापने मायानिष्पन्नश्च | गुरुको मास इति ॥ ४६ ॥ अथ तत्राभिघारयतो यदाभाव्यं भवति तदाह आभवं पुण तत्थ वि, छम्मीसं चेव होइ वलिदुगं । सेसाण उ वलीणं, परलाभो होइ गाएणं ॥ ४७ ॥ 'आभवं पुण'ति । आभाव्यं पुनस्तत्राप्यभिधारयति, पडू नालबद्धानि मिश्रं चेति वह्निद्विकम् । तत्र माता पिता भ्राता भगिनी पुत्रो दुहिता चेति पडू नालबद्धानि एषाऽनन्तरा वह्निरुच्यते । मातृपित्रोर्माता पिता भ्राता भगिनी च, भ्रात्रादीनां चतुर्णां पुत्रो दुहिता च, तथाष्ट प्रार्यकाणि भ्रातृभगिनीसहितानि, मातामह्या अपि माता पिता भ्राता भगिनी व पिता महस्यापि माता पिता भ्राता भगिनी चेति मिश्रवल्लिरियमुच्यते । शेषाणां तु वल्लीनां नालबद्धमिश्रातिरिक्तानां 'परलाभो भवति' अभिधारितस्य लाभो भवतीत्यर्थः । मातुलसुतादयः परतरवल्लिगता हि यदि प्रतीच्छकमभिधारयन्ति तदा स लभते, अथाऽऽचार्यमभिधारयन्ति तदाऽऽचार्यो लभते । ये च परतरे स्वजना ये चान्ये ते सर्वे आचार्यस्यैवाभवन्तीति ॥ ४६ ॥ एतदेव सविशेषमाह - जइ अभिधारेंति तओ, अभिधारंतस्स नालबद्धाई । चिंधाइविसंवाए, सुयगुरुणो हुंति आभवा ॥ ४८ ॥ 'जइ'त्ति । नालबद्धादयः, आदिना घटितज्ञातिसङ्ग्रहः, घटितज्ञातिर्नाम दृष्टाऽभाषित इत्यर्थः, यदि तं प्रतीच्छक : अभिधारयदुपसम्पदि आभाव्योप दर्शनम्. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञव- त्तियुतः द्वितीयो॥१०४॥ CACANCCC0 लास: मभिधारयन्ति तदा अभिधारयतः' प्रतीच्छकस्याभवन्ति । यथा पूर्व सङ्केतः कृतो यूयममुकत्याचार्यस्य पार्चे गच्छत अहं गुरुतत्त्वपादागमिष्यामीति तथैव गुरोनिवेदने तस्त्रादीनां चिहानामुक्तानामविसंवादे चति द्रष्टव्यम् , चिह्नादीनां विसंवादे विनिश्चयः च ते तद्दीक्षिताश्च श्रुतगुरोराभाव्या भवन्ति । ग्लानत्वादिना कारणेन कालविसंवादेन समागतास्त्वभिधारयत एव । सङ्केतकारणानन्तरं च पूर्वोपस्थितानां येषां भावो विपरिणतः पुनरपि कारणान्तरेण जातस्तदा ते तेषां लाभश्च गुरोरेवेति॥४८॥ दिवोऽदिट्ठो य दुहा, अभिधारतो अणप्पणे माई । सो अप्पणे अमाई, अणप्पणे होइ ववहारो ॥ ४९ ॥ दिट्ठोऽदिवो यत्ति । दृष्टोऽदृष्टश्चेत्यभिधारयन् द्विविधः, अन्नाभिशर्यमाणानरीक्षितो दृष्टस्तद्विपरीतस्त्वदृष्ट इत्यर्थः । BI स प्रत्येकं द्विविधा, अनर्पणे गुर्वाभाव्यसचित्तादेहीतस्य मायी, अर्पणे पानायीति । अनपणे च तेन तदाभाव्यस्य है। 'व्यवहारः' सौत्रविचारप्रस्थापनरूप उपढाको ॥४९॥ एवं ता जीवंते अभिधारंतो उ एइ जो साहू । कालगए एयम्मि हु, इहमन्नो होइ ववहारो ॥२५॥ । 'एव'मिति । एवं तावत् 'जीवति'अभिधार्यमाण योऽभिधारयन् साधुरागच्छति तस्य व्यवहारः । कालगते पुनरेत स्मिन्नयमन्यो भवति व्यवहारः॥ २५० ॥ तमेवाह-- अभिधारणकालम्मि य, पुवं पच्छा व होइ कालगए। सीसाणं मज्झिल्ले, जइ अस्थि सुअंच दिति तओ ५१ ॥१०४॥ 'अभिधारण'त्ति। अभिधारणकाले' यदाऽभिधारयन् निर्गतस्तदैव १ ततः पूर्व २ पश्चाद्वा ३ । आचार्य कालगतेऽन्तरा For Private Personal Use Only M inelorary.org Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Issगच्छताऽभिधारयता लब्धं शिष्याणां कालगताचार्यस्याभवति। 'मध्ये' च भङ्गे पूर्वमाचार्यःकालगतः पश्चादभिधारय-11 निर्गत इत्येवंरूपे दूरादागच्छतस्तदपरिज्ञानेन संभवति, यदि श्रुतमस्ति समीपे प्रतीच्छकोचितं ददति च ततस्तच्छिष्याणामेव लाभः, अथ तत् श्रुतं न वा ददति तदा न लाभः। यदि चाभिधारको विपरिणतो न गृह्णाति शिष्याणां सका-४ शात्तदापि कालगताचार्याणां शिष्याणामेव तत्सचित्ताद्याभवति । तद् यद्यभिधारको ददाति तदा शुद्धोऽन्यथा सचित्ताऽदाने चत्वारो गुरुका आदेशान्तरेणानवस्थाप्यम् , अचित्ते उपधिनिष्पन्नम् ॥ ५१॥ उपसंहारमाहएवं नाणे तह दं-सणे य सुत्तत्थतदुभए चेव । वत्तणसंधणगहणे, णव णव भेया य इकिका ॥ ५२॥3 ___ 'ए'ति । 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण ज्ञाननिमित्तमभिधार्यमाणे यदाभवति तदुक्तं 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'दर्शनेऽपि । दर्शनप्रभावकशास्त्राणामप्यायाभिधार्यमाणे आभवत् प्रतिपत्तव्यम् । तत्र ज्ञानार्थं दर्शनार्थं च योऽभिधार्यते सर सूत्रार्थतयाऽर्थार्थतया तदुभयार्थतया च। तत्रापि प्रत्येकं वर्त्तनार्थतया सन्धनार्थतया ग्रहणार्थतया च। तत्र पूर्वगृहीतस्य । पुनरुज्वालनं वर्तना, विस्मृत्याऽपान्तराले त्रुटितस्य पुनः सन्धानं सन्धना, अपूर्वपठनं च ग्रहणमिति । त्रयाणां त्रिभिर्गु-18 णनात् प्रत्यक ज्ञाने दर्शन च नव नव भदा उपसम्पत् ॥ ५२ ॥ चरणार्थमभिधारयन्तमधिकृत्याहपासत्थाऽगीयत्था, उवसंपजति जे उ चरणद्रा। सुत्तोवसंपयाए, जो लाभो सो खल गुरूणं ॥ ५३॥13 'पासत्य'त्ति । ये पार्श्वस्थादयोऽगीतार्थाश्चरणार्थपसम्पद्यन्ते तेषां चरणोपसम्पन्निमित्तं कमप्यभिधारतामागच्छतां Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ त्तियुतः द्वितीयो ॥ १०५ ॥ श्रुतोपसम्पदीवान्तरा यो लाभो भवति स खलु गुरूणाम् ॥ ५३ ॥ गीयत्था ससहाया, असमत्ता जं लहंति सुहदुक्खी । सुत्तत्थे तकता, समत्तकप्पी उ तं तेसिं ॥ ५४ ॥ 'गीत्थ'ति । ये पुनः पार्श्वस्थादयो गीतार्थाः ससहायाः सम्भोगनिमित्तमालोचनां दास्याम इत्यभिधारयन्तः सूत्रार्थान् तर्कयन्तः अनपेक्षमाणा आगच्छन्तोऽन्तरा यलभन्ते सचित्तमचित्तं वा, येsपि च गीतार्थाः 'असमाप्ताः' असमाप्तकल्पा लभन्ते आगच्छन्तः, यच्चैका की एकाकिदोषपरिवर्जनार्थमुपसम्पत्तुकामो लभते सुखदुःखी, यच्च समाप्तकल्पिनस्तत्तेषामेवाभवति, एवं निर्ग्रन्थानां द्रष्टव्यम् ॥ ५४ ॥ अयमभिधारयति विधिरुक्तः, अथ पठति तमाहधम्मक हाइ पढ़ते, कालियसुअ दिट्ठिवाय अत्थे य । उवसंपयसंजोगा, दुगमाइ जहुत्तरं बलिआ ॥ २५५ ॥ 'धम्मक हाइ’त्ति । पठत्युपसम्पद् धर्मकथायां कालिकसूत्रे दृष्टिवादे अर्थे च भवति । तत्र सूत्रतोऽर्थतः सूत्रार्थयोश्च स्वस्थाने द्विकादिसंयोगे यथोत्तरं 'बलिकाः ' बलवन्तः । सूत्रचिन्तायां परं परं सूत्रं पाठयन्, अर्थचिन्तायां परं परमर्थ व्याख्यानयन्, सूत्रार्थयोरेव परस्परं चिन्तायामर्थप्रदाता बलीयानिति भावः ॥ २५५ ॥ | आवलिआ मंडलिआ, पुत्ता छिण्णऽछिण्णभेषणं । उवसंपया सुए इह, परंपराऽणन्तरा णेया ॥ ५६ ॥ गुरुतत्त्व विनिश्चयः लास: Jain Education memational पठत्याभा व्यविधिः 'आवलिअ'त्ति । इह श्रुते उपसम्पत् पठत्यपि छिन्नाच्छिन्नभेदेन द्विधा पूर्वोक्तैव । तत्र याऽनन्तरा सा मण्डली सा ५ ॥ १०५ ॥ चाच्छिन्ना, कथम् ? इति चेदुच्यते - यस्मादभिधारक त्य लाभोऽन्येनाच्छिन्नः सन्नभिधार्यमाणमागच्छति, ततोऽच्छिन्नलाभ- ४ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगात् सा उपसम्पद् अच्छिन्नेत्युच्यते । या त्वावलिका सा छिन्ना, यतस्तस्यां स लाभ आदित आरभ्य परम्परया छिद्यमानोऽन्तिमेऽभिधार्येऽन्यमनभिधारयति विश्राम्यति ततः सा छिन्नोपसम्पदिति ॥५६॥ उक्ता श्रुतोपसम्पत्, अथ सुग्वदुःखोपसम्पदुच्यते अभिधारंतो उवसं-पण्णो दुविहो उ होइ सुहदुक्खी। एगत्तदोसओ सुअ-पुण्णो जो गच्छमब्भेइ॥५७॥ सुखदुःखो8| 'अभिधारतो'त्ति । सुखदुःखितोऽभिधारयन्नुपसम्पन्नश्चेति द्विविधः, स च कः स्यात् ? इत्याह-यः श्रुतपूर्णोऽप्येक पसम्पत् तहै। त्वदोषतस्तत्परिहारार्थ सहायापेक्षी सन् गच्छमभ्येति ॥ ५७ ॥ अत्राभवद्व्यवहारमाह दाभाव्यं च पुति व सुहदुहम्मि वि, आवलिआमंडलीसु आभवं । अभिधारिजंते खलु, अभिधारते उ वल्लिदुगं ॥५॥ | 'पुचिं वत्ति । 'पूर्वमिव' श्रुतोपसम्पदीव सुखदुःखेऽप्युपसम्पन्ने आवलिकामण्डलीवाभाव्यमभिधार्यमाणे खलु भवत्यभिधारयति तु वल्लीद्विकम् ॥ ५८ ॥ किञ्चपुरपच्छसंथुआई, उवसंपन्नो उ लहइ सुहदुक्खे।अण्णं तु तस्स सामी, गाहियसम्माइ सो लहइ॥५९॥ । 'पुरपच्छसंथुआई'ति । 'सुखदुःखे' सुखदुःखार्थमुपसम्पन्नः पूर्वसंस्तुतानि पश्चात्संस्तुतानि च मातृपितृश्वश्रूश्वशुरसंबद्धानि लभते । ये च तद्दीक्षितास्तेषामधस्तनानां लाभोऽपि तस्याभवतीति द्रष्टव्यम् , न तु यस्य समीपे उपसम्पन्नस्तस्य, सूत्रादेशतोऽनाभाव्यत्वात् ; अन्यत्तु तस्य स्वामी लभते । तथा परक्षेत्रास्थितः सुखदुःखोपसम्पन्नो वल्लिद्विकादिसम्बद्धं| CCCCCANCERK Care Main Education International For Private & Personal use only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA खोपजय- विना न लभते । यच्च भिन्नमपि ग्राहितसम्यक्त्वादि कुलम् , आदिना मद्यमांसविरत्यादिपरिग्रहः,तत् स सुखदुःखितो गुरुतत्त्वत्तियतः लभते । अयं पुनरिह विशेषः-यः परक्षेत्रे सुखदुःखितेन ग्राहितसम्यक्त्वस्तत्कालमेव ब्रूते अभिनिष्क्रमामीति स क्षेत्रिक विनिश्चयः द्वितीयो. स्याभवति । अथ तेन पूर्व सम्यक्त्वादि ग्राहितस्तदा प्रतिबोधयत एवाभवति । यतः श्रावके त्रीणि वर्षाणि पूर्वदिग ल्लास: भवतीति, तदुक्तं व्यवहारभाष्ये दशमोद्देशके-"सुहदुक्खिएण जो पर-खेत्ते उवसामिओ तहिं कोई। बेइ अभिणि॥१०६॥ ४ खमामि, सो उ खेत्तिस्स आभवइ ॥१॥ अह पुण गाहिओ देसण, तम्हा सो होइ उवसमंतस्स । कम्हा ? जम्हा सावए, तिष्णि वरिसाणि पुवदिसा ॥२॥” ५९ ॥ प्रकारान्तरेणाभिधारयति मार्गणामाह जइ से अस्थि सहाया, जइ वा वि करंति तस्स तं किच्चं। तो लभते इहरा पुण, तेसि मणुन्नाण साहारं २६० है 'जइ से'त्ति । यदि 'से' तस्य सुखदुःखोपसम्पन्नस्य सहायाः सन्ति, यदि वा त एव येषां समीपे उपसम्पन्नास्तस्य तत्कृत्यं ६वैयावृत्त्यादि कुर्वन्ति तदा यस्योपतिष्ठते स तं लभते, इतरथा पुनस्तेषां 'समनोज्ञाना' साम्भोगिकानां तत्साधारणं भवति २६०४ गीआणऽसमत्ताणं, अभिधारताण होइ अण्णुण्णं । समभागित्तं गच्छेऽपुण्णे मेराइ सारणया ॥ ६१ ॥ है। गीआण'त्ति । 'गीतानां' गीतार्थानाम् 'असमाप्तानाम्' असमाप्तकल्पिकानाम् 'अन्योऽन्य' सुखदुःखोपसम्पदम् । 'अभिधारयतां प्रतिपद्यमानानामन्योऽन्यलाभस्य 'समभागित्वं साधारणत्वं भवति । अपूर्णे प्रत्येकं गच्छे मयोदया सारणा ॥१० ६॥ कर्तव्या । अयं भावः-यावदेकैकस्य प्रत्येकं गच्छो नोपजायते तावत्तमनुपपन्नगच्छमेकतरे सारयन्ति येषामवग्रहे! Jain Education For Private Personal Use Only Thelibrary.org Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्त्तन्ते । अथ ते सारयन्तः परिताम्यन्ति तदा कुलस्थविराणां गणस्थविराणां सङ्घस्थविराणां वा तान् ददति, यो वा कोऽपि तेषां सम्मतस्तस्य समर्पयन्तीति ॥ ६१ ॥ उक्ता सुखदुःखोपसम्पत् । अथ मार्गोपसम्पदमाह - गीयत्थपरिग्गहओ, लहइ अगीओ वि हंदि आभवं । मग्गोवसंपयाए, सा पुण एसा मुणेयवा ॥ ६२ ॥ मार्गोपसंपत् तदाभाव्यविवेकव 'गीयत्थ'ति । मार्गोपसम्पदि गीतार्थपरिग्रहतोऽगीतार्थोऽपि 'हन्दि ' इत्युपदर्शने आभाव्यं लभते, अन्यथाऽगीतार्थस्य न किञ्चिदाभवतीति वचनान्न कोऽपि लाभः स्यादिति सा पुनरेषा ज्ञातव्या ॥ ६२ ॥ जह कोई मग्गन्नू, अन्नं देतं तु वच्चई साहू । उवसंपज्जइ उ तगं, तत्थण्णो गंतुकामो उ ॥ ६३ ॥ 'जह'त्ति । 'यथा’इति मार्गोपसम्पत्प्रदर्शने, यथा कश्चित्साधुर्मार्गज्ञोऽन्यं देशं व्रजति, तत्र देशेऽन्यो गन्तुकामस्तकं साधुमुपसम्पद्यते अहमपि युष्माभिः सह समागमिष्यामीति ॥ ६३ ॥ अथ कीदृशो मार्गोपदर्शन निमित्तमुपसम्पद्यते तत आहअवन्तो अविहाडो, अदिट्ठदेसी अभासिओ वा वि । एगमणेगे उवसं-पयाइ चउभंग जा पंथो ॥ ६४ ॥ 'अवत्तो 'ति । अव्यक्तो वयसा 'अविहाड : ' प्रगल्भः 'अदृष्टदेशी' अदृष्टपूर्वदेशान्तरः 'अभाषकः' देशभाषापरिज्ञानविकलः, सा चोपसम्पदेकस्यानेकस्य च, अत्र चतुर्भङ्गी तद्यथा-एकक एक संपद्यते १ एकोऽनेकम् २ एकमनेके ३ अनेकमनेके ४, सा चोपसम्पत्तावद् यावत्पन्थाः, किमुक्तं भवति ? यावत्पन्थानं व्रजति ततो वा प्रत्यागच्छतीति ॥ ६४ ॥ | अस्यामाभाव्य विवेकमाह - Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः खोपज्ञवृ- द्वितीयो॥१०७॥ लासः आभवं णिताणं, गयागए तह य गयणियत्ते य। उवसंपन्ने वल्ली, दिट्ठाभट्ठा वयंसा य ॥ २६५ ॥ गुरुतत्त्व___ 'आभवति । अव्यक्तादयोऽन्यसाधुमुपसम्पद्यन्तेऽस्मानमुकप्रदेशे नयतेति । अथवा यत्राव्यक्तादीनां गन्तव्यं तत्रैव ॥ विनिश्चयः ये व्यक्तादयो गन्तुकामास्तांस्ते ब्रुवते वयं युष्माभिः सह समागमिष्यामस्ततो यत्र गन्तुकामास्ततो यदि गत्वा प्रत्यागच्छन्ति तदेतद्गतागतमित्युच्यते । तथाऽऽत्मीयेन व्यक्तादिना साधुना सममनुपसम्पन्ना एव ये गतास्तस्य च कालगततया प्रतिभग्नत्वादिना वा कारणेन प्रत्यागन्तव्यं नाभूत् ततस्ते प्रत्यागच्छन्तो ययक्तादिकं साधुमुपसम्पद्यन्ते तद् गतनिवृत्तमुच्यते । अनयोर्मार्गोपसम्पदोनयतां मार्गोपदेशकानामुपसम्पन्नोत्पादितसचित्तादिकमाभाव्यं भवति । उपसम्पन्ने तु वल्ली मातृपितृसम्बद्धा द्विविधापि दृष्टाभाषिता वयस्याश्च ये तमभिधारयन्ति ते आभवन्ति ॥ २६५॥ उवणट्ठाइविगप्पा, अगवेसंता लहंति णो किंचि।अगविट्ठो त्ति परिणए, गवेसमाणा खल्लु लहंति ॥६६॥ हा 'उवणट्ठाइ'त्ति । यः खलूझामकाद्यदृष्टपूर्वे विषये गतस्ततो न जानाति कुतो गन्तव्यम् ? इति स्फिटितः, यो वाऽभाषकोऽ-18 दृष्टपूर्व विषये पृष्ठतो लग्नो याति परं मिलितुं न शक्नोति, न च शेषभाषामजानन्नन्यं पृच्छति ततःस्फिटितः,ततस्तम् उपनष्टादि|विकल्पात् , उपेत्य स्वज्ञातिकान्नष्ट उपनष्टः, आदिना विवक्षितस्थाने गत इत्यादिग्रहः, एवमादिकात् सङ्कल्पाद्विश्वस्ताः सन्तोडगवेषयन्तो मार्गोपदर्शनार्थमपसंपन्ना न किञ्चिलभन्ते, यदि पनरद्याप्यगवेषित इति परिणते चेतसि प्रयत्नं विधाय| ॥१०७॥ गवेषयन्ति तदा तस्यादर्शनेऽपि लभन्ते खलूपसम्पन्नसत्कम् ॥६६॥ उक्ता मार्गोपसम्पत् । अथ विनयोपसम्पदमाह Jain Educate For Private & Personal use only INShelibrary.org Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMACHAR विणओवसंपयाए, पुच्छाए साहणे य गहणम्मि।णाए गुणम्मि दोन्नि वि, णमंति पकिल्लसाली वा ॥६७॥ विनियोपसंI "विणओवसंपयाए'त्ति। विनयोपसम्पदि कारणतोऽकारणतो वा केचिद्विहरन्तोऽदृष्टपूर्व देशं गतास्तर्वास्तव्यानांपत् तदाभासाम्भोगिकानां पृच्छा कर्तव्या मासकल्पप्रायोग्याणां वर्षावासप्रायोग्याणां वा क्षेत्राणाम् । तस्यां च कृतायां तैः 'साधनव्यविधिश्च निवेदनं कर्त्तव्यम् । यदि च न पृच्छन्ति पृष्टा वा ते न कथयन्ति तदा द्वयानामपि प्रत्येक प्रायश्चित्तं लघुको मासः। यच्च पृच्छामन्तरेण कथनमन्तरेण वा स्तेनश्वापदादिभ्योऽनर्थ साधयः प्रानुवन्ति तन्निष्पन्नमपि । तथा साधिते च क्षेत्रे है ग्रहणं सचित्तादीनां यदागन्तुकैर्वास्तव्यैश्च क्रियतेऽन्योन्यं निवेदनीयं च तदपि, यथैतन्मया सचित्तमचित्तं वा लब्धं यूयं प्रतिगृहीत, एवं निवेदने कृते द्वितीयो न गृह्णाति परं सामाचार्येषेत्यवश्यं निवेदनं कर्तव्यम् , अनिवेदने लघको मासः। ततो द्रव्यादिपरीक्षया ज्ञाते गुणे परीक्षापूर्वकमुपसम्पद्यमाना द्वयेऽपि परस्परं नमन्ति, किमुक्तं भवति ?-रत्नाधिकस्य प्रथमतोऽवमरत्नाधिकेनाऽऽलोचना दातव्या, पश्चाद्रत्नाधिकनावमरत्नाधिकस्य, तदुक्तम्-"वंदणालोअणा चेव, तहेव य निवेयणा । सेहेण उपउत्तम्मि, इयरो पच्छ कुबइ॥१॥" अत्र पक्कशालयो दृष्टान्तः-यथा पक्काः शालयः परस्परं नमन्ति तथाऽत्रापीति भावः । अपरीक्ष्योपसम्पत्ती परीक्ष्यापि प्रमादिन उपसम्पत्तो च प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः॥६७ ॥ केई भणंति ओमो, णियमेण णिवेइ इच्छ इयरस्त । तं तु ण जुज्जइ जम्हा, पकिल्लगसालिदिद्रुतो ॥६८॥ 'केईत्ति । केचिद् ब्रुवते नियमेन 'अवमः' अवमरत्नाधिको निवेदयांत, 'इतरत्य' रत्नाधिकस्य 'इच्छा' यदि प्रतिभासते For Private Personal use only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः स्वापानी ततो निवेदयति नो चेन्नेति, तच्च न युज्यते यतः पक्वशालिदृष्टान्त उपन्यस्तः स चोभयनमनसूचक इति ॥ ६॥ उक्तामगुरुतत्त्वतर विनयोपसम्पत्। अथैतासूपसम्पत्सु यदुपसम्पद्यमानो लभते तत्क्रमादेकयैव गाथयाह विनिश्चयः द्वितीयो सुय सुहदुक्खे खित्ते, मग्गे विणए जहकमं लब्भा। बावीस पुवसंथुअ, वयंस दिट्ठालविय सवे ॥६९॥ लासः ॥१०॥ __ 'सुत्ति । श्रुतोपसंपदि उपसम्पद्यमानस्य द्वाविंशतिलभ्यते, पडनन्तरत्र ल्यां मातृपितृभ्रातृभगिनीपुत्रदुहितृलक्षणाः, | पोडश च मिश्रवल्यां मातृपित्रोश्चतुष्टयं भ्रात्रादिषु चर्तुषु च द्वयमिति । सुखदुःखोपर.म्पदि पूर्वसंस्तुता उपलक्षणान्मित्रवयस्यप्रभृतयश्च । क्षेत्रोपसम्पदि वयस्या उपलक्षणात्पूर्वसंस्तुता नालबद्धबल्लीद्विक च । मार्गोपसम्पदि दृष्टालपिता उपलक्षणाद्वल्लीद्विकं मित्राणि च । विनयोपसम्पदि सर्वेऽपि लभ्या नवरं निवेदनं कर्त्तव्यमिति ॥ ६९ ॥ इच्चेयं पंचविहं, आभवं जो जिणाणमाणाए । ववहरइ जहट्ठाणं, सो धुवमाराहओ होइ ॥ २७० ॥ | ॥१०८॥ _ 'इच्चेय'ति । इत्येतत्पञ्चविधमाभाव्यं जिनानामाज्ञया यो यथास्थानं व्यवहरति स ध्रुवमाराधको भवति, जिनाज्ञायाः | परिपालितत्वात् । इतरश्चान्तकाले नाराधनां प्रामोतीत्यर्थः ॥ २७० ॥ आभाव्यनिरूपणं समाप्य प्रायश्चित्तनिरूपणं पचविधस्याप्रतिजानीते भवद्व्यवहाइच्चेसो पंचविहो, ववहारो आभवंतिओ णाम । भणिओ पायच्छित्ते, ववहारमओ परं वुच्छं ॥ ७१ ॥ 'इच्चेसोत्ति । इत्येषः 'आभवान्तिकः' आभवव्यवहर्त्तव्यको नाम पञ्चविधो व्यवहारो भणितः, अतः परं प्रायश्चित्ते, व्यवहारोप दारस्योपसंहार Jain Educ a tional For Private & Personal use only न्यासश्च Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुत. १९ व्यवहर्त्तव्ये व्यवहर्त्तव्यं वक्ष्ये ॥ ७१ ॥ दवे खित्ते काले, भावे य चउविहो इमो होइ । सच्चित्ते अच्चित्ते, दुविहो पुण होइ दवम्मि ॥ ७२ ॥ 'दत्ति' । द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च चतुर्विधोऽयं प्रायश्चित्तव्यवहारो भवति । द्रव्ये पुनर्द्विविधो भवति सचित्तेऽचित्ते च ॥ ७२ ॥ तत्र प्रथमतः सचित्ते विवक्षुरिदमाह - | पुढविदगअगणिमारुअवणस्सइतसेसु होइ सच्चित्ते । पिंडोवहि अच्चित्ते, दस पन्नरसे व सोलसगे ॥ ७३ ॥ 'पुढवि’त्ति । पृथिव्युदकाग्निमारुतवनस्पतित्रसेषु यत् प्रायश्चित्तं तत् सचित्ते भवति । पिण्डविषयमुपधिविषयं चाचित्ते । दशकै एषणादोषाणां पञ्चदशके उद्गमदोषाणामध्यवपूरकस्य मिथेऽन्तर्भावविवक्षणात् षोडशके चोत्पादनादोषाणाम् | ॥ ७३ ॥ सचित्तविषयं प्रकारान्तरमाह - अहवा अट्टारसगं, पुरिसे इत्थीसु वज्जिआ वीसं । दसगं णपुंसकेसु अ, भणिआ आरोवणा तत्थ ॥७४॥ 'अह'ति । अथवाऽष्टादशकं पुरुषे 'वर्जितं' प्रव्राजयितुं निषिद्धम्, स्त्रीषु विंशतिर्वर्जिता, नपुंसकेषु च दशकं वर्जितम् । तत्र ' आरोपणा' प्रायश्चित्तं भणिता कल्पाध्ययने तत्सचित्तविषयमिति भावः ॥ ७४ ॥ क्षेत्रकालविषयमाह - जणवय अद्ध गिरोहे, मग्गातीते अ होइ खित्तम्मि । दुब्भिक्खे य सुभिक्खे, दिया व राओ व कालम्मि ॥ 'जणवय'त्ति । जनपदेऽध्वनि निरोधके मार्गांतीते च यत्प्रायश्चित्तं तत् क्षेत्रविषयं भवति । अयं भावः - जनपदेऽपि वसन् : M प्रायश्चित्त निक्षेपाः द्रव्य - प्रायश्चित्तम् क्षेत्रकालप्रायश्चित्तम् ainelibrary.org Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । स्वोपजव- त्तियुतः द्वितीयो ॥१०९॥ सURNCOMESSASSADCASS संस्तरन्नपि चाध्वानं प्रतिपन्नानां यः कल्पस्तमाचरति । अध्वानं प्रपन्नो वा न यतनां करोति, दर्पण वाऽध्वानं प्रतिप- 1 गस्तत्त्वद्यते । तथा निरोधकेऽपि सेनासूत्रे यो विधिरभिहितस्तं न करोति । मार्गातीतं क्षेत्रातिकान्तमशनादिकमाहारयति । एतेषु यत्प्रायश्चित्तं तत्क्षेत्रविषयमिति । दुर्भिक्षे सुभिक्षे वा दिवा रात्री वा 'काले' कालविषयम् , किमुक्तं भवति ?-सुभि-४॥ ल्लास: क्षेऽपि काले संस्तरन्नपि दुर्भिक्षायतनां करोति । तथा दिवसे यः कल्पस्तं रजन्यामाचरति, रजन्यामपि यः क दिवसकल्पमूनमधिकं वा करोति । एवं रात्रिकल्पमपि । एतेषु यत्प्रायश्चित्तं तत्कालविषयमिति ॥७५॥ भावविषयमाहभावे जोगे करणे, दप्प पमाए अ होइ पुरिसे अ। दव्वाइवसा दिज्जा, तम्मत्तं हीणमहिअं वा ॥७६॥ भावभावेति । 'भावे' भावविषये 'योगे' मनोवाकायलक्षणे त्रिभेदे 'करणे' करणकारणानुमोदनत्रिके 'द' निष्कारण- प्रायश्चित्तम् मकल्प्यस्य प्रतिसेवने 'प्रमादे' पञ्चविधे 'पुरुषे च' गुरुपरिणामकापरिणामकातिपरिणामकद्धिमनिष्क्रान्तानृद्धिमनिष्का-1 न्तसहासहस्त्रीपुंनपुंसकबालतरुणस्थिरास्थिरकृतयोगाकृतयोगदारुणभद्रकादिरूपे । एतद्देदाश्चाग्रेऽपि निरूपयिष्यन्ते ।। अत्र योगत्रिककरणत्रिकाभ्यां सप्तविंशतिर्भङ्गा भवन्ति कालत्रये चिन्त्यमानाः। तत्र मनसा करणमत्रावणं वपामीति | चिन्तया, आम्रवणं वपामि यदि त्वमनुजानासीति गृहस्थप्रश्नेऽनिवारणे च कारणम् , अनुक्तमप्यनिषिद्धं कुशलाः कर्तव्यं जानन्तीति, तदुक्तम्-"मागहा इंगिएणं तु, पेहिएण य कोसला । अद्धुत्तेण य पंचाला, नाणुत्तं दक्षिणावहा॥१॥" अन्योताम्रवणे साध्विति चिन्तनं चानुमोदनम् । एवं वाकाययोरपि द्रष्टव्यम् । कायेन कारणं पुनहेस्तादिसज्जया,INM२०॥ अनुज्ञा च नखच्छोटिकां ददत इति । अत्र च निरपेक्षाणां मनसाऽप्यतिचारसेवने प्रायश्चित्तम् । गच्छस्थितानां च । Jain Educat For Private & Personal use only alnelibrary.org Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CRACKGROCOLLEDGEOGARDS वाचा कायेन चेति व्यवस्था । अन्यदप्याह-'द्रव्यादिवशात्' द्रव्याद्यपेक्षणाद्दद्यात् 'तन्मात्रं यथाऽऽपन्नं हीनमधिक वा ॥७६ ॥ तथा चाहदिजाहिअंपिणाउं, बलिअंसुलहं च दवमसणाई।हीणं पि दिज्ज तं पुण, नाऊणं दुब्बलं दुलहं ॥७७॥ | दिज'त्ति । 'बलिक' बलिष्ठं क्रूरादिस्वभावेनैव सुलभं चाशनादिद्रव्यं ज्ञात्वा 'अधिकमपि' जीतोक्ताद्बहुतरमपि प्रायश्चित्तं दद्यात् । दुर्बलं दुर्लभं च तदशनादि ज्ञात्वा वल्लचणककाञ्जिकादिकं 'हीनमपि' जीतोक्तादल्पमपि दद्यात्॥७॥ लुक्खे खित्ते हीणं, सीए अहिअं जहडिअंदिजा।साहारणम्मि खित्ते, एवं काले वितिविहम्मि ॥ ७ ॥ | 'लुक्खे'त्ति । 'रूक्षे' स्नेहरहिते क्षेत्रे 'हीनम्' अल्पतरमपि दद्यात् । 'शीते' स्निग्धे क्षेत्रेऽधिकमपि । साधारणे' अस्तिग्धरूक्षे च क्षेत्रे 'यथास्थितं' जीतोक्तमात्रं दद्यात् । एवं कालेऽपि त्रिविधे ज्ञातव्यम् ॥७८॥ विशेषतः कालं प्रपञ्चयन्नाह-18 गिम्हसिसिरवासासु, दिजऽहमदसमवारसंताई। गाउं विहिणा णवविहसुअववहारोवदेसेणं॥ ७९ ॥ ॐ विस्त कालप्राय_ 'गिम्हत्ति । इह कालो ग्रीष्मशिशिरवर्षालक्षणस्त्रिविधः, स च सामान्यतो द्विधा-स्निग्धो रूक्षश्च, स च द्विरूपो-है। श्चित्तनिरूप्युत्कृष्टमध्यमजघन्यभेदात्रिधा । तत्रोत्कृष्टस्निग्धः-अतिशीतः,मध्यमस्निग्धः-नातिशीतः, जघन्यस्निग्धः-स्तोकशीतः। पणम् सा उत्कृष्टरूक्षः-अत्युष्णः, मध्यमरूक्षः-नात्युष्णः, जघन्यरूक्षः-कबोष्णः । एवंरूपे काले ग्रीष्पशिशिरवर्षाख्ये कालत्रये नवविधतपोदानलक्षणश्रुतव्यवहारोपदेशेन 'विधिना' वैपरीत्याभावेन ज्ञात्वाऽष्टमदशमद्वादशान्तानि तपांसि दद्यात् । *विस्तरतः IA For Private & Personal use only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- अयं भावः-ग्रीष्मशिशिरवर्षासु यथाक्रमं चतुर्थषष्ठाटमानि जघन्यानि, षष्ठाष्टमदशमानि मध्यमानि, अष्टमदशमद्वादशा गुरुतत्त्वत्तियुतः न्युत्कृष्टानि दद्यादित्यर्थः ॥ ७९ ॥ अत्रैव भङ्गप्रपञ्चमाह-- विनिश्चयः द्वितीयो-18/ पक्खावत्तीदाणे, कालतिगे णवविहम्मि ववहारे। ति णव सगवीस इगसी, भेआ णेया जहाजंतं ॥२८॥ ल्लासः ॥११०॥ _ 'पक्खावत्ति'त्ति। नवविधे श्रुतव्यवहारे पक्षे आपत्तौ दाने च त्रयो नव सप्तविंशतिरेकाशीतिभेदाश्च भेदा यथायन्त्र ज्ञेयाः। कालपायण त्रयो भङ्गाः, आपत्तिभेदतो नत्र, दानतपोभेदतः सप्तविंशतिः, कालत्रिकविशेषेण पुनरेकाशीतिरिति । यन्त्र श्चित्तभङ्गाः स्थापना च यद्यप्येकाशीतिभङ्गानामेव तथापि तद्धटकानां ज्यादीनामपि ततो लाभान्न विरोधः ॥ २८०॥ तत्र पूर्व४ नवविधतपोदानव्यवहारं दर्शयन्नाहअट्ठमदसमदुवालसचरमो कालत्तयम्मि खवणाई । नवविधत. निविअ पुरिमासणंविल, इग वि ति चउ पंच वा णवहा ॥ ८१ ॥ पोदानव्यव'अट्ठम'त्ति । क्षपणं च क्षपणे च क्षपणानि चेत्येकशेषात् क्षपणानि तान्यादिर्यस्य स तथा । अष्टमदशमद्वादशानि दाचरमानि यस्य स तथा। कालत्रयेऽपि यथाक्रमं नवविधः श्रुतव्यवहारो भवतीति शेषः । प्रकारान्तरमाह-'वा' अथवा निर्विकृतिकम् १ पुरिमार्द्धम् २ एकाशनम् ३ आचाम्लम् ४ एकक्षपणं चतुर्थः ५ द्वेक्षपणे पष्ठं ६ त्रीणि क्षपणान्यष्टमं ७ ॥११०॥ चत्वारि क्षपणानि दशमं ८ पञ्च क्षपणानि द्वादशम् ९ इति नवधा श्रुतव्यवहारोपदेशात्तपो भवत्योघतो विभागतश्च COLOCALCUCROCODEO Jain EducaH Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षत्रयम् ग्रीष्मशिशिरवर्षासु दीयमानमिति ॥ ८१॥ अथ यथोद्देशं निर्देश इाते न्यायादादौ पक्षत्रयं स्पष्टयन्नाह गुरुलहुलहुसापक्खा पिहो तिहा तिगुरु गुरुतरा गुरुआ। लहतम लहतर लहआ, लहसतमा लहसतर लहसा ॥ ८२॥ 31. 'गुरु'त्ति । नवविधतपोव्यवहारे गुरुलघुलघुस्वाः सङ्केपतस्त्रयः पक्षाः। तत्र लघुस्वशब्दो लघुकार्थः, स्वशब्दस्याल्पा-3 सार्थकप्रत्ययार्थत्वात् । एते च 'पृथक् प्रत्येक विधा-यतो गुरुपक्षो गुरुतमगुरुतरगुरुभेदः, लघुपक्षोऽपि लघुतमलघुतरलघुभेदः, लघुस्वपक्षोऽपि लघुस्वतमलघुस्वतरलघुस्वभेद इति ॥ ८२ ॥ अथ नवविधापत्तितपोव्यवहारं दर्शयति नवविधापगुरु लहुअछपणमासा, चउतिगमासा दुमासगुरुमासा। तितपोव्य_लहु मास भिन्न वीसं, पनरस दस पण नवावत्ती ॥ ८३॥ । वहारः | 'गुरु'त्ति । गुरुपक्षे लघुपाण्मासिकपञ्चमासिकरूपा उत्कृष्टापत्तिः, चातुर्मासिकत्रिमासिकरूपा मध्यमा, द्विमासिकगुरुमासरूपा जघन्या । लघुपक्षे लघुमासरूपा उत्कृष्टा, भिन्नमासरूपा मध्यमा, विंशतिकरूपा च जघन्या । लघुस्वपक्षे पञ्च नवविधाप त्तितपसो दशकरूपोत्कृष्टा, दशकरूपा मध्यमा, पञ्चकरूपा जघन्येति नवापत्तयः ॥ ८३ ॥ नवविधापत्तितपसो दानतपस्वैवि-18 ध्येन सप्तविंशतिभेदानाह दानतपोभे दतः सप्तर्विसगवीसं खलु भेआ, णवहा पक्खेसु तिसु वि पत्तेअं । उकिझुक्किट्ठाइअदाणेणं भिज्जमाणेसु ॥ ८४ ॥ शतिभेदाः Jain Tonitemtional For Private Personal Use Only anww.jainelibrary.org Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवृ. 'सगवीसत्ति। त्रिष्वपि पक्षेषु प्रत्येकमुत्कृष्टोत्कृष्टादिदानेन नवधा भिद्यनानेषु सप्तविंशतिर्भेदा भवन्ति, उत्कृष्टोत्कृष्टो१- गुरुतत्त्व. चियुतः त्कृिष्टमध्यमो २ त्कृष्टजघन्य ३ मध्यमोत्कृष्ट ४ मध्यममध्यम ५ मध्यमजघन्य ६ जघन्योत्कृष्ट ७ जघन्यमध्यम ८ जघन्य- विनिश्चया द्वितीय जघन्य ९ भेदानां गुरुलघुलघुस्वपक्षाणामेतावतामेव भावात् ॥८४॥ उक्तमेव सप्तविंशतिविधं दानतपो व्यक्तीकुवन्नाह ल्लास: ॥१११॥ जिट्टे वारस दसमट्ठमा य मज्झि दसमट्ठमा छट्ठो। अट्ठमछटुचउत्था, गुरुपक्खि जहन्नए दाणं ॥ ८५॥ सप्तविंशति 'जिट्टे'त्ति । 'ज्येष्ठे' पाण्मासिकपञ्चमासिकाख्योत्कृष्टापत्तिपक्षे द्वादशदशमाष्टमानि-उत्कृष्टोत्कृष्टं द्वादशं तपः, विधं दानउत्कृष्टमध्यमं दशमम् , उत्कृष्टजघन्यं चाष्टमं 'दान' दानतपो ज्ञेयम् । तथा 'मध्ये' इति चातुर्मासिकत्रिमासिका- तपः वर्षासु ख्यमध्यमापत्तिपक्षे दशमाष्टमौ षष्ठं च-मध्यमोत्कृष्टं दशमम् , मध्यममध्यममष्टमम् , मध्यमजघन्यं पष्ठं दानतपो ज्ञेयम्। 'जघन्ये द्विमासिकगुरुमासिकास्यजघन्यापत्तिपक्षेऽष्टमषष्ठचतुर्थानि-जघन्योत्कृष्टमष्टमम् , जघन्यमध्यमं षष्ठम् , जघन्यजघन्यं च चतुर्थ गुरुपक्षे दानतपो ज्ञेयम् ॥ ८५ ॥ अथ लघुपक्षे दर्शयतिदसमहमछट्टऽटमछट्टच उत्था य हुंति लहुपक्खे। छट्ठचउत्थायामा, जिढे मज्झे जहन्ने य ॥ ८६ ॥ __ 'दसम'त्ति । लघुपक्षे 'ज्येष्ठे' लघुमासाख्योत्कृष्टापत्तिपक्षे दशमाष्टमषष्ठानि-उत्कृष्टोत्कृष्टं दशमम् , उत्कृष्टमध्यमम-18 ष्टमम् , उत्कृष्टजघन्यं च षष्ठं दानतपः । 'मध्ये' भिन्नमासाख्यमध्यमापत्तिपक्षेऽष्टमषष्ठचतुर्थानि-मध्यमोत्कृष्टमष्टमम् , मध्यममध्यम षष्ठम् , मध्यमजघन्यं च चतुर्थ दानतपः। 'जघन्ये च विंशत्याख्यजघन्यापत्तिपक्षे च षष्ठचतुर्थाचाम्लानि-12 155945कर Jain Educat nelibrary.org For Private Personal Use Only i onal Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40000 SECRESS REASTROCESS जघन्योत्कृष्ट षष्ठम् , जघन्यमध्यमं चतुर्थम् , जघन्यजघन्यं चाचाम्लं दानतपः ॥८६॥ लघुस्वकपक्षे दानतपो दर्शयतिहै अट्ठमछट्ठचउत्थं, छट्ठचउत्थंबिलं कमा लहुसे। खवणंबिलइक्कासणमिय अद्भुकंति सगवीसा ॥ ८७ ॥ 'अट्ठमत्ति । लघुस्वकपक्षे पञ्चदशाख्योत्कृष्टापत्तावष्टमषष्ठचतुर्थानि-उत्कृष्टोत्कृष्टमष्टमम् , उत्कृष्टमध्यमं षष्ठम् , उत्कृ-| टजघन्यं च चतुर्थ दानतप इत्यर्थः । दशकाख्यमध्यमापत्तौ च षष्ठचतुर्थाचाम्लानि-मध्यमोत्कृष्टं पष्ठम् , मध्यममध्यम चतुर्थम् , मध्यमजघन्यं चाचाम्लं दानतपः । पञ्चकाख्यजघन्यापत्तौ च क्षपणाचाम्लैकाशनानि-जघन्योत्कृष्टं चतुर्थम् , जघन्यमध्यममाचाम्लम् , जघन्यजघन्यं चैकाशनं दानतपः । 'इति'एवम पक्रान्त्या सप्तविंशतिर्भेदा भवन्ति ॥ ८७॥ एतेष्वेव कालत्रययोजनौंकाशीतिभङ्गानाहएवं ता वासासुं, पुरिमंतं सिसिरकालि दसमाइ। निविअंतमट्ठमाई, गिम्हे इगसी इमे भेया ॥ ८८ ॥ कालत्रय___ 'एय'ति । एतत्तावद्वर्षासूक्तम् । शिशिरकाले तु दशमादिपुरिमार्द्धान्तं सप्तविंशतिभेदेषु तपश्चारणीयम् । ग्रीष्मे चाष्टमादि योजनया निर्विकृतिकान्तम् । 'इमे' एकाशीतिर्भेदा दानतपसो भवन्ति । अझैपक्रान्तिश्चेयम्-अर्द्धस्य-असमप्रविभागरूपस्यैकदेशस्य । ४ एकाशीतिएकादिपदात्मकस्यापक्रान्तिः-निवर्त्तनं शेषस्य तु व्यादिपदसङ्घातात्मकस्यैकदेशस्यानुवर्त्तनं यस्यां रचनायां सा समयपरि- भेदप्रदर्शनम् भाषया पक्रान्तिरुच्यते । यथा वर्षासु गुरुतमे उत्कृष्टतो द्वादशं मध्यमतो दशमं जघन्यतोऽष्टमम् , एषां मध्यादेकदेशो द्वादशलक्षणोऽपक्रामति दशमाष्टमी गुरुतरं गच्छतः, अग्रेतनं च षष्ठं मील्यते, ततश्च गुरुतरे उत्कृष्टतो दशमम् , मध्यमतोऽष्टमम् , जघन्यतः षष्ठम् । एषां मध्यादेकदेशो दशमलक्षणो निवर्तते अष्टमषष्ठौ गुरुकं गच्छतः, अग्रेतनं च Jain.Education international For Private Personal Use Only wanamainelorery.org Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- तियुतः द्वितीयो -96 ॥११२॥ चतुर्थ मील्यते, ततश्च गुरुके उत्कृष्टतोऽष्टमम् , मध्यमतः षष्ठम् , जघन्यतश्चतुर्थमिति । एवमन्यत्रापि ज्ञेयम् ॥ ८॥ गुरुतत्त्व असहं तु पप्प इकिकहासणे जा ठियं तु इकिकं । हासिज्ज तं पिअसहे, सट्टाणा दिज परठाणं ॥८९॥ विनिश्चयः 'असहं तु'त्ति । एवंविधापत्तिषु 'असहं तु प्राप्य' द्वादशाद्यं तपः कर्तुमसहिष्णुपुरुषं तु प्रतीत्य एकैकहासने क्रिय-81 ल्लास: माणे यावन्नवस्वपि पतिषु पर्यन्तकोष्ठकगतमेकैकं चतुर्थादिनिर्विकृतिकान्तं तपः स्थितं भवति तावत् हासयेत् । तत्करणेऽपि 'असहे' अशक्ते 'तदपि' पर्यन्तकोष्ठगतमपि तपो हास्यते ततः स्थापनातपो दीयते-वर्षासु वर्षाकालोक्तम् , शिशिरे शिशिरोक्तम् , ग्रीष्मे च ग्रीष्मोक्तम् । तदपि कर्तुमक्षमस्य स्वस्थानात्परस्थानं दद्यात् , वर्षास्वपि शिशिरोक्तम्, शिशिरेऽपि ग्रीष्मोक्तं तपो दीयते ॥ ८९॥ इय हिट्ठमुहे हासे, निविइयं ठाइ अब एमेव । सुद्धो भावे वि इमं, णेयं पुरिसंतरं पप्प ॥ २९० ॥३ ___ इयत्ति । 'इति' एवमधोमुखे हासे स्थाने स्थाने वर्षाशिशिरग्रीष्मरूपे हासयद्भिस्तावन्नेयं यावन्निर्विकृतिकमात्रमेव देय. |तया तिष्ठति; अथवैवमेव शुद्धः, यो निर्विकृतिकमात्रमपि तपः कर्तुमशक्तः स मिथ्यादुष्कृतेनैव शुध्यतीत्यर्थः । केचित्त्वेवमाहुः-आधाकर्मिकाद्युत्पत्तौ या षड्जीवनिकायविराधना तजनितं प्रायश्चित्तं स्वस्थानम् , आधाकर्माद्यासेवाणितं च चतुर्थादिकं परस्थानम् , तहानेऽप्ययमेव हासविधिज्ञेय इति । इदं च दानं कालभेदप्रपञ्चप्रसङ्गागतमुक्तम्। भावेऽप्येतत्पयवस्यद् ज्ञेयं पुरुषान्तरं सहासहरूपं प्राप्य पुरुषस्य भावद्वारे भणितत्वात् ,स्वातन्त्र्येण पुरुषभेदाश्चाग्रे भणिष्यन्त इति २९०॥ ।।११२॥ Jain Educa Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाशीतिभेदयन्त्रम् लघुपक्षे GURUGRALSO ६५ उत्कृष्टापन उत्कृष्टाप० । उत्कृष्टाप० ४३मध्यमाप- मध्यमाप० मध्यमाप० २१जवन्या-जघन्याप० जघन्याप. |त्ता उ.दा.१२ मादा १० ज. दा.८ ती उ.दा.१० म. दा. ८ ज. दा.६ पत्ती उ.दा. म.दा. ६ ज. दा. ४ ३७ उत्कृष्टाप- उत्कृष्टाप० उत्कृष्टाप० २५ मध्यमा- मध्यमाप० मध्यमाप०२० जवन्या- जघन्याप० जघन्यापक ती उ.दा.१० म. दा. ८ ज. दा. ६ पत्ती उ. दा. म. दा. ६ ज. दा. ४ पत्ती उ.दा. ६ म. दा. ४ ज. दा. आ. १५ उत्कृष्टाप- उस्कृष्टाप० उत्कृष्टाप०१० मध्यमा- मध्यमाप० मध्यमाप०५ जघन्याप० जघन्याप. जघन्याप० ती उ. दा. म. दा. ६ ज. दा. ४ पत्ती उ. दा.६ म. दा. ४ ज. दा. आ. उ. दा. ग. दा. आ. ज. दा. ए. ६५ उत्कृष्टाप उत्कृष्टाप० । उत्कृष्टाप० ४३ मध्यमा- मध्यमाप० मध्यमाप० २१ जघन्याप जघन्याप० जघन्याप० गुरुपक्षे ती उ. दा.१० म. दा. ८ ज. दा. ६ पत्ती उ. दा. म. दा. ६ ज. दा. ४ ती उ. दा.६ म. दा. ४ ज. दा. आ. ३७ उत्कृष्टा उत्कृष्टाएक उत्कृष्टाप० २५ मध्यमा- मध्यमाप० मध्यमाप० २० जघन्धाप जघन्याप० जघन्याप० पत्तौ उ. दा.८ म. दा. ६ ज. दा. ४ पत्तौ उ. दा.६ म. दा. ४ ज. दा. आ. तो उ. दा. १ म. दा. आ. ज. दा. ए. १५ उत्कृष्टा- उत्कृष्टाप० उत्कृष्टाप०१० मध्यमा- मध्यमाप० मध्यमाप० ५ जघन्याप० जघन्याप० जघन्याप० "पत्तौ उ. दा. ६ म. दा ४ ज. दा. आ. पत्तौ उ. दाम. दा. आ. ज. दा. ए. उ. दा. आ. म. दा. ए. ज. दा. पुरि० गुरुपक्षे ६५ उत्कृष्टा- उस्कृष्टाप० । उत्कृष्टाप०१३ मध्यमाप- मध्यमाप० । मध्यमाप० २१ जघन्याप- जवन्याप० जघन्याप. पत्ती उ.दा. म. दा. ६ ज. दा. ४ तौ उ. दा. ६ म. दा. ४ ज. दा. आ. तो उ. दा. म. दा. आ. ज. दा. ए. ३. उत्कृष्टा- उत्कृष्टाप० उत्कृष्टाप० २५ मध्यमा- मध्यमाप० मध्यमाप० २०जघन्याप- जघन्याप० जघन्याप० पत्तौ उ. दा.६ म. दा. ज. दा. आ. पत्तौ उ. दा. म. दा. आ. ज. दा. ए. सौ उ.दा.आ. म. दा. ए. ज. दा. पुरि. १५ उत्कृष्टा उत्कृष्टाप. उत्कृष्टाप०१०मध्यमाप- मध्यमाप० मध्यमाप०५जघन्याप० जघन्याप० जघन्याप० पत्तौ उ. दा. म. दा. आ. ज. दा. ए. तो उ.दा.आ. म. दा. ए. ज. दा. पुरि. उ. दा. ए. म. दा. पुरि. ज. दा. नीवी. लघुपक्षे यन्त्रकम् । भेद २७ ग्रीष्मकाले तपो- शिशिरे तपोदान- वर्षासु तपोदान यत्रकम् । भेद २७ । दानयत्रकम् । भेद २७ लघुस्वप० For Private & Personal use only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवृ त्तियुतः द्वितीयो ॥११३॥ प्रकारान्तरेण दानविधिमाह गुरुतत्त्वआवन्नाणं दिज्जा, अहवा एगाइ जाव छम्मासं। तवकालगुरुअलहुअं, सझोसमियरंव जहपत्तं ॥९१॥ विनिश्चयः लासः ___ 'आवन्नाणं' ति । 'अथवा' इति प्रकारान्तरे 'एकादि' एकमासिकमादौ कृत्वा यावत्पण्मासिकमापनानां साधूनां यथागतं तपःकालाभ्यां गुरुकं लघुकं वा सझोषम् 'इतरद्वा' अझोपं 'यथापात्रं' सहासहादिपुरुषविशेषरूपं पात्रमपेक्ष्य प्रायश्चित्तं दीयते ॥ ९१ ॥ अथ तपःकालाभ्यां लघुगुरुप्रायश्चित्तं यदुच्यते तत्स्वरूपं प्ररूपयति तवकाले आसन्ज उ, गुरुओ वि लहू लहू वि होइ गुरू । कालो गिम्हो तवमट्ठमाइ गुरुअं लहू सेसा ॥९२॥ तपःकाला४ा तबकाले'त्ति। तपःकाले आसाद्य त गुरुरपि लघः लघरपि च गुरुर्भवति । तत्र कालो ग्रीष्मस्तपश्चाष्टमादिकाभ्यांप्रायश्चि गुरुकम् , शेषाणि शिशिरवर्षाख्यौ कालौ षष्ठान्तानि च तपांसि लघूनि भवन्ति । अयं भावः-ग्रीष्मे मासलघ्वादिकम-18त्तस्य गुरुलप्यूह्यमानं कालगुरुकम् , शिशिरवर्षासु च मासगुर्वादिकमप्यूह्यमानं काललघुकम् , तथा निर्विकृत्यादिना षष्ठान्तेन घुत्वप्रदर्शतपसा यन्मासगुर्वादिकमप्यूह्यते तत्तपो लघुकम् । अष्टमादिना तूह्यमानं मासलधादिकमपि तपो गुरुकमिति ॥ ९२ ॥ प्रकारान्तरेण गुरुलघुविधिं दर्शयतिदाणे णिरंतरे वा लहुअंपि गुरुं गुरुं पि लहु इहरा । सुत्तविहिणाऽविलंब, जंबुज्झइ तं तु हाडहडं ॥१३॥ ।११३॥ 'दाणे'त्ति । वाशब्दः प्रकारान्तरोपन्यासे। दाने निरन्तरे सति लघुकमपि गुरुकम् , अन्तराले पारणकादानेन दीयमानं ।। SHAH नम् Jain E For Private Personel Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुकमपि तपो गुरुकं भवतीति भावः। तथा 'सूत्रविधिना' सूत्रोक्तप्रकारेण 'यत्' प्रायश्चित्तं 'अविलम्ब कालक्षेपरहितम्ह्यते तत्प्रायश्चित्तं हाडहडमित्युच्यते ॥ ९३ ॥ एतच्चारोपणाविशेषरूपमिति तद्भेदानेव दर्शयति पट्टविइआ य ठविया, कसिणाकसिणा तहेव हाडहडा। आरोवण पंचविहा, पायच्छित्तं पुरिसजाए॥९॥ पञ्चविधा 5 'पद्वविइत्ति । प्रस्थापितका स्थापिता कृत्स्नाकृत्स्ना हाडहडा चेति पञ्चविधाऽऽरोपणा प्रायश्चित्तस्य । तच्च प्राय- आरोपणा |श्चित्तं पुरुषजाते कृतकरणादौ यथायोगमवसेयम् । तत्र यदारोपितं प्रायश्चित्तमूह्यते एषा प्रस्थापितका । वैयावृत्त्यकरण लब्धिसम्पन्न आचार्यप्रभृतीनां वैयावृत्त्यं कुर्वन् यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तस्यारोपितमपि स्थापितं क्रियते यावद्वैयावृत्त्य-& |परिसमाप्तिर्भवति, द्वौ योगावेककालं कर्तुमसमर्थ इति कृत्या साऽऽरोपणा स्थापितका । कृत्स्ना नाम यत्र झोषो न I क्रियते । अकृत्स्ना यत्र किञ्चिज्झोप्यते । हाडहडा त्रिविधा-सद्योरूपा स्थापिता प्रस्थापिता च । तत्र लघुगुरुमासिकादि यत्तप आपन्नस्तद् यदि तत्कालमेव दीयते न कालक्षेपेण तदा सा हाडहडारोपणा सद्योरूपा । यदि पुनर्यन्मासिकादि|कमापन्नस्तद्वैयावृत्त्यमाचार्यादीनां करोतीति स्थापितं क्रियते, तस्मिंश्च स्थापिते यदन्यदुद्धातमनुद्धात वाऽऽपद्यते तत्सवमपि प्रमादनिवारणार्थमनुद्धातं यदारोप्यते सा हाडहडा स्थापिता । पाण्मासिकपाश्चमासिकादितपो वहन् यदन्यदन्तराऽऽपद्यते तत्तस्यातिप्रमादनिवारणार्थमनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वाऽनुद्धातमारोप्यते एषा हाडहडा प्रस्थापिता । अनुग्रहकृत्स्ननिरनुग्रहकृत्स्नस्वरूपं च षट्कृत्स्नप्ररूपणेनावगन्तव्यम् , तानि चेमानि-प्रतिसेवनाकृत्स्नम् १ सञ्चयकृत्स्नम् पद्कृत्स्नआरोपणाकृत्स्नम् ३ अनुग्रहकृत्स्नम् ४ अनुद्धातकृत्स्नम् ५ निरवशेषकृत्स्न ६ मिति। तत्र प्रतिसेवनाकृत्स्नं पाराञ्चितम् , यतः प्ररूपणम् Jain E e mational टस Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः। द्वितीयो. स्वोपज्ञवृ- परमन्यत् प्रतिसेवनास्थानं नास्ति । सञ्चयकृत्स्नमशीतं मासशतम् , अतः परस्य सञ्चयस्याभावात् । आरोपणाकृत्स्नं पाण्मासि-1 गुरुतत्त्व कम् , ततः परस्य भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे आरोपणस्याभावात्। अनुग्रहकृत्स्नं यत् पण्णां मासानामारोपितानां पड़। विनिश्चयः दिवसा गतास्तदनन्तरमन्यान् षण्मासानापन्नस्ततो यद् व्यूढं तत् समस्तं झोषितम् , पश्चाद् यदन्यत् पाण्मासिकमापन्नं लास: तदह्यते, अत्र चतुर्विशतिदिनाधिकपञ्चमासरूपबहदिनझोषणेनानुग्रहसद्भावात् । एतेन च निरनुग्रहकृत्स्नमपि सूचित ॥११४॥ द्रष्टव्यम् , तच्चैवं भावनीयम्-पण्मासे प्रस्थापिते पञ्च मासाश्चतुर्विंशतिदिवसाश्च व्यूढारतदनन्तरमन्यत् पाण्मासिक मापन्नस्ततस्तद्वहति पूर्वषण्मासस्य पडू दिवसा झोषिता इति बहुदिना झोषानुग्रहाभावान्निरनुग्रहकृत्स्नमेतदिति । अनु-17 दीद्वातकृत्स्नं कालगुरुमासगुरुकादि मासलघुकाद्यपि वा निरन्तरं दीयमानम् । अथवाऽनुद्घातं त्रिविधं कालगुरु तपोगुरु उभयगुरु च । तत्र कालगुरु नाम यद ग्रीष्मादौ कर्कशे काले दीयते, तपोगुरु यदष्टमादि दीयते निरन्तरं वा, उभ यगुरु यद् ग्रीष्मादौ काले निरन्तरं च दीयते । निरवशेषकृत्स्नं नाम यदापन्नं तत्सर्वमन्यूनातिरिक्तं दीयत इति ॥९॥ सातदवमुक्तः प्रायाश्चत्तदानविधिः । अथात्र पुरुषविशेषा अधिकारिण इति तद्भेदनिरूपणार्थमाहहै पुरिसा खलु कयकरणा, बहुविहतवकरणभावियसरीरा। तह हंति अकयकरणा, छट्ठाइअभावियसरीरा॥ प्रायश्चित्ताI 'पुरिसत्ति । पुरुषाः खलु द्विविधाः-कृतकरणा अकृतकरणाश्च । तत्र कृतकरणास्तावद्वविधानां-षष्ठाष्टमादिबहभे-राधिकारिपुरु दाना तपसा करणन भावितं-परिकर्मितं शरीरं यैस्ते तथा, अकृतकरणाश्च षष्ठाष्टमादिभिरभावितशरीराः॥९५॥ ॥ पभेदाः कयकरणावि यदुविहा,साविक्खा खलु तहेव हिरवेक्खााणिरविक्खा जिणमाई,साविक्खा आयरिअमाई ॥११४॥ lain Education International For Private & Personal use only aineraryong Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कयकरणा वि य'त्ति । कृतकरणा अपि द्विविधाः-सापेक्षाः खलु तथैव निरपेक्षाश्च । तत्र सहापेक्षया-गच्छवासपालनादिलक्षणया वर्तन्ते ये ते सापेक्षाः, निर्गता अपेक्षा येभ्यस्ते निरपेक्षाः। तत्र निरपेक्षाः 'जिनादयः' जिनकल्पिकाः शुद्धपरि-2 हारविशुद्धिका यथालन्दककल्पिकाश्चेति त्रय इत्यर्थः, एते हि नियमात्कृतकरणा एव, अकृतकरणानामन्यतमस्यापि कल्पस्य: प्रतिपत्तेरयोगात् । सापेक्षाः 'आचार्यादयः' आचार्या उपाध्याया भिक्षवश्चेति त्रय इत्यर्थः । एते प्रत्येकं द्विधा भूयो भवन्ति, तद्यथा-आचार्याः कृतकरणा अकृतकरणाच, उपाध्याया अपि कृतकरणा अकृतकरणाश्च, भिक्षवोऽपि कृतकरणा अकृतकरणाश्च । तत्र कृतकरणानां चिन्त्यमानत्वादस्यां गाथायामेते कृतकरणा ग्राह्याः॥ ९६ ॥ अकयकरणा वि दुविहा, अणहिगया अहिगया य बोधवा। समहीअम्मि अहिगया, पकप्पि इहरा उ अणहिगया ॥ ९७ ॥ 'अकयकरणा वित्ति । इहाचार्या उपाध्यायाश्च कृतकरणा अक्तकरणा वा नियमाद्रीतार्थाः स्थिराश्च, तत इहाकृतकरणा भिक्षव एव ग्राह्याः, तेऽकृतकरणा भिक्षवो द्विविधाः-अनधिगता अधिगताश्च बोद्धव्याः। समधीते 'प्रकल्पे' निशीथाध्ययने जघन्यतोऽप्यधिगताः, 'इतरथा' तदध्ययनाभावे त्वनधिगताः ॥ ९७ ॥ अत्रैव मतान्तरमाहकेइ पुण अहिगयाणं, इह कयकरणत्तमेव इच्छंति।जं आयतगा जोगा, बूढा खलु तेहि णियमेणं ॥१८॥ 'केइ पुण' त्ति । केचित् पुनराचार्या अधिगतानां कृतकरणत्वमेवेच्छन्ति न त्वकृतकरणत्वम्, 'यत्' यस्मात् 'तैः' गुरुत. २० Jain Educaton Internations For Private & Pearl Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SRO खोपज्ञवृ- अधिगतैर्नियमेन 'आयतकाः' विस्तीर्णकाला महाकल्पश्रुतादीनां योगा व्यूढाः, खल्विति पादपूरणे । तदुक्तं व्यवहारपी- गुरुतत्त्वत्तियुतःठिकायाम्-"अहिगय कयकरणत्तं जोगायतगारिहा केई ॥” अधिगतानां कृतकरणत्वमिच्छन्ति केचिदायतकयोगास्त विनिश्चयः द्वितीयोइत्येतदर्थः ॥९८॥ ल्लासः ते वियथिरा अअथिरा, इंति दुभेआथिरा तहिं ते उजे दढधिइसंघयणा, तबिवरीआ पुणो अथिरा ९९/४ ॥११५॥ 'ते वि य' त्ति । ये भिक्षवोऽनधिगता अधिगताश्च तेऽपि प्रत्येकं स्थिरा अस्थिराश्चेति द्विभेदा भवन्ति । तत्र स्थिरास्तु ते ये दृढधृतिसंहननाः, 'तद्विपरीताः' धृतिसंहननाभ्यामसम्पन्नाः पुनरस्थिराः, एवं कृतकरणाकृतकरणयोरपि द्रष्टव्यम् । ॥ ९९ ॥ अत्र प्रायश्चित्तदानविधिमाहहै गीयत्थो कयकरणो, थिरो अजंसेवए तयं दिज्जा । इयरम्मि होइ इच्छा, सुलहं जंतेण दाणं तु ॥३०॥ प्रायश्चित्त दानविधिः __ 'गीयत्थोत्ति । गीतार्थः कृतकरणः स्थिरश्च यत् सेवते प्रायश्चित्तस्थानं तदेव तस्मै परिपूर्ण दद्यात् । 'इतरस्मिन्'तदेव | प्रायश्चित्तस्थान प्राप्तेऽगीतार्थेऽकृतकरणेऽस्थिरे च 'इच्छा' प्रायश्चित्तदानविधौ सूत्रोपदेशानुसारेण स्वेच्छा, तथाहिसमर्थ इति ज्ञाते यत् परिपूर्ण दीयते असमर्थ इति परीक्षिते ततः प्राप्तप्रायश्चित्तादर्वाक्तनमनन्तरं दीयते, तत्राप्यसमर्थ तायां ततोऽप्यनन्तरम् , तत्राप्यसामर्थे ततोऽप्यनन्तरम् , एवं तावन्नेयं यावन्निविकृतिकम् , तत्राप्यसमर्थतार C ॥११५॥ हापौरुषीप्रत्याख्यानम् , तत्राप्यशक्ती नमस्कारसहितम्, गाढग्लानत्वादिना तस्याप्यसम्भवे एवमेवालोचनामात्रेण शुद्ध्या-11 For Private & Personal use only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादनमिति । दानं तु, यथापुरुषमत्र यन्त्रेण सुलभम् । यस्यैवाचार्यस्य कृतकरणस्य सापेक्षस्य महत्यप्यपराधे मूलम् । तस्यैवाकृतकरणस्यासमर्थत्वाच्छेदः । उपाध्यायस्य च कृतकरणस्य मूलप्रायश्चित्तमापन्नस्यापि सापेक्ष इति कृत्वा छेदः, तस्याकृतकरणस्य च मूलमापन्नस्यापि गुरुषाण्मासिकम् , "सावेक्खो त्ति व काउं, गुरुस्स कयजोगिणो भवे छेओ । अकयकरणम्मि छग्गुरु" इति वचनात् , आचार्यस्य प्रागुक्तत्वेन गुरुशब्देनात्रोपाध्यायस्यैव ग्रहणात् । मनाग् निरपेक्षतायां च कृतकरणस्याप्युपाध्यायस्य मूलापत्तौ मूलमेवोच्यते, "बिइए मूलं च छेदो छ गुरुगा” इतिव्यवहारवचनात् , तथाविध-2 धृतिबलसमर्थतायां मूलस्यान्यथा तु च्छेदस्य कृतकरणोपाध्यायपक्षे समर्थनात् , एवमग्रिमा पक्रान्तिरचनाया यथासम्प्रदाय यन्त्रेण स्पष्टमेवोपलम्भादिति ॥ ३०० ॥ यन्त्ररचनाप्रकारमेवाह वारस गिहाइ तिरिअं, वीसं च अहोमुहाइं गेहाइ । ठाविज तओ दुगदुगहाणीइ दसाइगेहाई॥१॥ MI 'बारस' त्ति । तिर्यग् द्वादश गृहाणि अधोमुखानि च विंशतिहाणि स्थापयेत् । एवं च द्वादशगृहात्मिका विंशतिगृह- पतयो भवन्ति, ततो द्विकद्विकहान्या दशादिगृहाणि स्थाप्यन्ते । अयं भावः-विंशतितमायां पङ्को दक्षिणतोऽन्तिमे द्वे गृहके मुक्त्वा तस्या अधस्तादशगृहात्मिका एकविंशतितमा पनि स्थाप्यते, तत्र ये द्वे अन्तिम गृहके ते मुक्त्वाऽधस्तादष्टगृकाहात्मिका द्वाविंशतितमा, तदन्त्ये द्वे गृहे मुक्त्वा तस्या अधस्तात पडगृहात्मिका त्रयोविंशतितमा, तदन्त्ये द्वे गृहके मुक्त्वा तस्या अधस्ताच्चतुर्ग्रहात्मिका चतुर्विंशतितमा, तस्यामपि ये द्वे अन्तिमे गृहे ते मुक्त्वा तस्या अधस्ताविपहात्मिका पञ्चविंशतितमा, तस्या अधस्तादेकगृहात्मिका षडूविंशतितमा पङ्किः स्थाप्या, एवं षडविंशतिपङ्गयात्मकं यन्त्रं भवतीति॥शाएतदेवाह यत्ररचनाप्रकारः, तत्र व्यवहारयब्ररचनाविधिः Main Education internet For Private & Personal use only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aucomame -- स्वोपज्ञव- जा पणवीसइपंती, दुगिहा छबीसिआ अ एगगिहा । कयकरणायरिआई, ठप्पा पढमाइगेहेसु ॥ २॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः 'जा पणवीसइ' त्ति । तत्र प्रथमादिगृहेषु कृतकरणाचार्यादयः स्थाप्याः। प्रथमपङ्केपरि प्रथमगृहे कृतकरण आचार्यः विनिश्चयः द्वितीयो- स्थापनीयः, द्वितीये सोऽकृतकरणः, तृतीये कृतकरण उपाध्यायः, चतुर्थे सोऽकृतकरणः, पञ्चमेऽधिगतस्थिरभिक्षुः कृतकरणः, षष्ठे स एवाकृतकरणः, सप्तमेऽधिगतास्थिरभिक्षुः कृतकरणः, अष्टमे स एवाकृतकरणः, नवमेऽनधिगत-IN स्थिरभिक्षुः कृतकरणः, दशमे स एवाकृतकरणः, एकादशेऽनधिगतास्थिरभिक्षुः कृतकरणः, द्वादशेऽनधिगतास्थिराकृतकरणो भिक्षुरिति । एवं स्थापयित्वा कृतकरणस्याचार्यत्य मूलम् , तस्मिन्नेवापराधेऽकृतकरणस्य तस्य च्छेदः । उपाध्यायस्य मूलमापन्नस्य कृतकरणस्य छेदः, अकृतकरणव पण्मासगुरु । तत्रैवापराधे भिक्षोरधिगतस्य स्थिरस्य कृतकरणस्य षण्मासगुरु, अकृतकरणस्य षण्मासलघु । अधिगतस्य भिक्षोरस्थिरस्य कृतकरणस्य षण्मासलघु, अकृतकरणस्य च चतुर्मासगुरु । अनधिगतस्य भिक्षोः स्थिरस्य कृतकरणस्य चतुर्मासगुरु, अकृतकरणस्य चतुर्मासलघु । अनधिंगतस्य भिक्षोरस्थिरस्य कृतकरणस्य चतुर्मासलघु, तस्यैवाकृतकरणस्य मासगुरु। एवं प्रथमपतौ मूलादारब्धं मासगुरुके निष्ठितम् ॥ २॥ एतदेवाह मूलाओ मासगुरुए, छेयाओ मासलहुअठोणम्मि। छग्गुरुआओ भिन्ने, गुरुम्मि लहुअम्मि छल्लहुआ ॥३॥ 8 'मूलाओ मासगुरुए'त्ति । द्वितीयस्यां पङ्कौ छेदादारभ्य मासलघुके निस्तिष्ठति-प्रथमे गृहे छेदः, द्वितीये पड्गुरु, तृती- ॥११६॥ येऽपि षड्गुरु, चतुर्थे षड्लघु, पञ्चमे षड्लघु, पष्ठे चतुर्गुरु, सप्तमेऽपि चतुर्गुरु, अष्टमे चतुर्लघु, नवमेऽपि चतुर्लघु, दशमे in Mainelibrary.org For Private Personal Use Only an intern a Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासगुरु, एकादशेऽपि मासगुरु, द्वादशे मासलध्विति । तृतीयस्यां पङ्को षड्गुरुकादारभ्य 'भिन्ने' भिन्नमासे गुरौ निष्ठां याति-प्रथमे षड्गुरु, द्वितीयतृतीययोः षडूलघु, चतुर्थपञ्चमयोश्चतुर्मासगुरु, षष्ठसप्तमयोश्चतुर्मासलघु, अष्टमनवमयोर्मासगुरु, दशमैकादशयोर्मासलघु, द्वादशे च भिन्नमासो गुरुरिति । चतुर्थपङ्कौ षडलघुकादारभ्य 'लघुके' भिन्नलघुमासे निष्ठां याति-प्रथमगृहे पडलघु, द्वितीयतृतीययोश्चतुर्गुरु, चतुर्थपञ्चमयोश्चतुर्लघु, षष्ठसप्तमयोर्मासगुरु, अष्टमनवमयोर्मासलघु, दशमैकादशयोभिन्नगुरुमासः, द्वादशे च भिन्नलघुमास इति ॥ ३॥ चउगुरुआ चउलहुआ, वीसइराइंदियम्मि गुरुलॅहुए। मासगुरुमासलहुआ, गुरुम्मि लहुअम्मि पन्नसे. KI 'चउगुरुआ' त्ति । पश्चमपतौ चतुर्गुरुकादारभ्य गुरुके विंशतिरात्रिन्दिवे निष्ठां याति-प्रथमे गृहे चतुर्मासगुरु, द्वितीयतृतीययोश्चतुर्लघु, चतुर्थपञ्चमयोर्मासगुरु, षष्ठसप्तमयोर्मासलघु, अष्टमनवमयोभिन्नगुरुमासः, दशमैकादशयोर्भिनलघुमासः, द्वादशे च गुरुविंशतिरात्रिन्दिवमिति । षष्ठपतौ चतुर्लघुकादारभ्य लघुविंशतिरात्रिन्दिवे निष्ठां याति-प्रथम-12 गृहे चतुर्लघु, द्वितीयतृतीययोर्मासगुरु, चतुर्थपञ्चमयोर्मासलधु, षष्ठसप्तमयोर्गुरुपञ्चविंशतिकम् , अष्टमनवमयोर्लघुपञ्चविं-18 शतिकम् , दशमैकादशयोर्गुरुविंशतिकम् , द्वादशे लघुविंशतिरात्रिन्दिवमिति । सप्तमपतो मासगुरुकादारभ्य गुरुपञ्चदशके । यतृतीययोमोसलघु, चतुर्थपञ्चमयोर्गुरुपञ्चविंशतिकम् , षष्ठसप्तमयोलघुपञ्चविं-11 शतिकम् , अष्टमनवमयोर्गुरुविंशतिकम् . दशमैकादशयोलघुविंशतिकम् , द्वादशे च गुरुपञ्चदशकमिति । अष्टमपतौ ६ CCESSAGAR-OCTOR lain Education International For Private & Personal use only wanamainelorery.org Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥११७॥ स्वोपज्ञवृ- 18 मासलघुकादारभ्य लघुपञ्चदशके निष्ठां याति-प्रथभगृहे मासलघु, द्वितीयतृतीययोर्गुरुपञ्चविंशतिकम् , चतुर्थपञ्चमयोल-8 गुरुतत्त्व त्तियुतः घुपञ्चविंशतिकम् , षष्ठसप्तमयोर्गुरुविंशतिकम् , अष्टमनवमयोलघुविंशतिकम् , दशमैकादशयोर्गुरुपञ्चदशकम् , द्वादशे च । विनिश्चयः द्वितीयो- लघुपञ्चदशकमिति ॥ ४॥ ल्लास: गुरुलहुपणवीसइआ, गुरुलहुदसयम्मि ९-१० वीसदिण गुरुआ। गुरुपंचयम्मि ११ लहुपंचयम्मि लहुवीसराइदिणा १२ ॥ ५॥ 'गुरुलहु'त्ति । नवमपती गुरुपञ्चविंशतिकादारभ्य गुरुदशके निष्ठां याति-प्रथमगृहे गुरुपञ्चविंशतिकम् , द्वितीयत-13 है। तीययोर्लधुपञ्चविंशतिकम् , चतुर्थपञ्चमयोर्गुरुविंशतिकम् , षष्ठसप्तमयोलघुविंशतिकम् , अष्टमनवमयोर्गुरुपञ्चदशकम् , 15 | दशमैकादशयोर्लघुपञ्चदशकम् , द्वादशे च गुरुदशकमिति । दशमपङ्की लघुपञ्चविंशतिकादारभ्य लघुदशके निष्ठां याति-प्रथमगृहे लघुपञ्चविंशतिकम् , द्वितीयतृतीययोर्गुरुविंशतिकम् , चतुर्थपञ्चमयोलघुविंशतिकम् , षष्ठसप्तमयोर्गुरुपञ्चदशकम् , अष्टमनवमयोलघुपञ्चदशकम् , दशमैकादशयोर्गुरुदशकम् , द्वादशे च लघुदशकमिति । एकादशपती गुरुविंशतिरात्रिन्दिवादारभ्य गुरुपञ्चके निष्ठां याति-प्रथमगृहे गुरुविंशतिरात्रिन्दिवम् , द्वितीयतृतीययोलघुविंशतिकम् , चतु-|| र्थपञ्चमयोर्गुरुपञ्चदशकम् , षष्ठसप्तमयोलघुपञ्चदशकम् , अष्टमनवमयोर्गुरुदशकम् , दशमैकादशयोलघुदशकम् , द्वादशे | ॥११७॥ च गुरुपञ्चदशकमिति । द्वादशपङ्गी च लघविंशतिरात्रिन्दिनालघपञ्चके निष्ठां याति-प्रथमगृहे लघुविंशतिकम्, द्विती OGGLES HOSTICOS CARSANGRESSNESS in Education International For Private Personal use only ainelibrary.org Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतृतीययोर्गुरुपञ्चदशकम् , चतुर्थपञ्चमयोलघुपश्चदशकम् , षष्ठसप्तमयोर्गुरुदशकम् , अष्टमनवमयोलधुदशकम् , दशमै-12 कादशयोर्गुरुपञ्चकम् , लघुपञ्चकं च द्वादश इति ॥५॥ गुरुलहुपण्णरसाओ, दसमे तह अट्ठमम्मि य तवम्मि १३-१४ । गुरुलहुदसयाओ पुण, छट्ठम्मि तहा चउत्थे य १५-१६ ॥ ६ ॥ 'गुरुलहुपण्णरसाओत्ति । त्रयोदशपको गुरुपञ्चदशकादारभ्य दशमे तिष्ठति-प्रथमगृहे गुरुपञ्चदशकम् , द्वितीयतृतीययोर्लघुपञ्चदशकम् , चतुर्थपञ्चमयोर्गुरुदशकम् , षष्ठसप्तमयोलघुदशकम् , अष्टमनवमयोर्गुरुपञ्चकम् , दशमैकादशयोलघुपञ्चकम् , द्वादशे च दशममिति । चतुर्दशपती लघुपञ्चदशकादारभ्याष्टमतपसि तिष्ठति-प्रथमगृहे लघुपञ्चदशकम् , द्वितीयतृतीययोर्गुरुदशकम् , चतुर्थपञ्चमयोलघुदशकम् , षष्ठसप्तमयोर्गुरुपञ्चकम् , अष्टमनवमयोलघुपञ्चकम् , दशमैकादशयोर्दशमम्, द्वादशे चाष्टममिति । पञ्चदशपती गुरुदशकादारभ्य षष्ठे निष्ठां याति-प्रथमगृहे गुरुदशकम् , द्वितीयतृतीययोर्लघुदशकम् , चतुर्थपञ्चमयोर्गुरुपञ्चकम् , षष्ठसप्तमयोर्लघुपञ्चकम् , अष्टमनवमयोर्दशमम् , दश-13 मैकादशयोरष्टमम् , द्वादशे च पष्ठमिति । पोडशपङ्को लघुदशकादारभ्य चतुर्थे निष्ठां याति-प्रथमगृहे लघुदशकम् , द्वितीयतृतीययोर्गुरुपञ्चकम् , चतुर्थपञ्चमयोलघुपञ्चकम् , षष्ठसप्तमयोर्दशमम् , अष्टमनवमयोरष्टमम् , दशमैकादशयोः षष्ठम् , द्वादशे च चतुर्थमिति ॥६॥ -OADCASTOCESCRe -E-ACTS For Private Personal use only Mainelibrary.org Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृगुरुलहुपणगा आयंबिलम्मि एक्कासणे १७-१८ य णिट्ठाइ । गुरुतत्त्व त्तियुतः तो विनिश्चयः द्वितीयो. दसमाओ अट्टमाओ, पुरिमढे णिविगइअम्मि १९-२० ॥७॥ ल्लासः है। 'गुरुलहुपणगा आयंबिलम्मित्ति । सप्तदशपङ्कौ गुरुपञ्चकादारभ्याचाम्ले निष्ठां याति-प्रथमगृहे गुरुपञ्चकम् , द्विती॥११८॥ यतृतीययोर्लघुपञ्चकम् , चतुर्थपञ्चमयोर्दशमम् , षष्ठसप्तमयोरष्टमम् , अष्टमनवमयोः पष्ठम् , दशमैकादशयोश्चतुर्थम् , द्वादशे चाचाम्लमिति । अष्टादशपतौ लघुपञ्चकादारभ्यैकाशने तिष्ठति-प्रथमगृहे लघुपञ्चकम् , द्वितीयतृतीययोर्दशमम् , चतुर्थपञ्चमयोरष्टमम् , षष्ठसप्तमयोः षष्ठम् , अष्टमनवमयोश्चतुर्थम् , दशमैकादशयोराचाम्लम् , द्वादशे चैकाशनमिति । एकोनविंशतितमायां पङ्को दशमादारभ्य पुरिमार्द्ध निष्ठां याति-प्रथमगृहे दशमम् , द्वितीयतृतीययोरष्टमम् , चतुर्थपञ्चमयोः षष्ठम् , षष्ठसप्तमयोश्चतुर्थम् , अष्टमनवमयोराचाम्लम् , दशमैकादशयोरेकाशनम् , द्वादशे च पूर्वार्द्धमिति । विंशतितमायां पङ्कावष्टमादारभ्य निर्विकृतिके तिष्ठति-प्रथमगृहेऽष्टमम् , द्वितीयतृतीययोः षष्ठम् , चतुर्थपञ्चमयोश्चतुर्थम् , षष्ठसप्तमयोराचाम्लम् , अष्टमनवमयोरेकाशनम् , दशमैकादशयोः पुरिमार्द्धम् , द्वादशे निर्विकृतिकमिति ॥७॥ छट्ठाओ णिविगइए २१, णिविइयम्मि य तहा चउत्थाओ २२। आयंबिलाओ एक्कासणाओ तह णिविगइअम्मि २३-२४॥८॥ IG॥११८॥ 'छट्ठाओ' त्ति । एकविंशतितमायां पङ्को षष्ठादारभ्य निर्विकृतिके निष्ठां याति-प्रथमगृहे षष्ठम् , द्वितीयतृतीययो 640MACROCCOLOG Jain EducatioRE For Private Personal use only anelibrary.org Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्चतुर्थम्, चतुर्थपञ्च मयोराचाम्लम्, पष्ठसप्तमयोरेकाशनम्, अष्टमनवमयोः पूर्वार्द्धम्, दशमे निर्विकृतिकमिति । द्वाविंशतितमायां च पङ्क्तौ चतुर्थादारभ्य निर्विकृति के तिष्ठति - प्रथमगृहे चतुर्थम्, द्वितीयतृतीययोराचाम्लम्, चतुर्थपञ्चमयोरेकाशनम्, पष्ठसप्तमयोः पूर्वार्द्धम्, अष्टमे निर्विकृतिकमिति । त्रयोविंशतितमायां पङ्कौ आचाम्लदारभ्य निर्विकृतिके निष्ठां याति - प्रथमगृहके आचाम्लम्, द्वितीयतृतीययोरेकाशनम्, चतुर्थपञ्चमयोः पूर्वार्द्धम्, षष्ठे निर्विकृतिकमिति । चतुर्विंशतितमायां पङ्कौ एकाशनादारभ्य निर्विकृति के तिष्ठति प्रथमे गृहे एकाशनम् द्वितीयतृतीययोः पूर्वार्द्धम्, चतुर्थे निर्विकृतिकमिति ॥ ८ ॥ पुरिमणिविगइअं २५, कमेण पंतीसु णिविगइअं च २६ । एसो जंतण्णासो, णायवो आणुपुवीए ॥ ९ ॥ ‘पुरिमड्ड' त्ति । पञ्चविंशतितमायां पङ्कौ प्रथमगृहे पूर्वार्द्धम्, द्वितीये च निर्विकृतिकम् । पड्विंशतितमपङ्कौ चैकस्मिनेव गृहे निर्विकृतिकमेवेति । एतत्सर्वं पङ्गिषु क्रमेण ज्ञेयम् । एष आनुपूर्व्या यन्त्रन्यासो ज्ञेयः ॥ ९ ॥ विवहाराविक्खाए, भणिओ जंतस्स एस विष्णासो । अवराहे मूलं चिय, जं साविक्खस्स बहुए वि ॥३१०॥ 'ववहाराविक्खाए'ति । व्यवहारापेक्षया एप यन्त्रस्य विन्यासो भणितः 'यत्' यस्मात्सापेक्षस्य बहुकेऽप्यपराधे तत्र मूलमेव प्रायश्चित्तं भणितम् ॥ ३१० ॥ w.jainelibrary.org Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारयन्त्रकमेतत् । स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो गुरुतत्वविनिश्चयः ॥११९॥ कृतकरण अकृतकर- कृतकरण अकृतकरण, अधिगत- अधिगत- अधिगता- अधिगता-अनधिग- अनधिग- अनधिग- अनधिगआचार्यः ण आचार्यः उपाध्यायः उपाध्यायः स्थिरभि- स्थिरभि० स्थिरभि० स्थिरभि० तस्थिरभि तस्थिरभि तास्थिरभि तास्थिरभि क्षुः कृत० अकृतकर कृतकरणः अकृतकर कृतकरणः अकृतकर० कृतकरणः अकृतक. | मूलम्. छेदः । छेदः पण्मासगुरु षण्मासगुरु पा.ल. षण्मा.ल. चतुर्मा गु. चतुर्मा.गु. चतुर्मा.ल. चतुर्मा.ल. मासगुरु. २ छेदः । पगुरु पद्गुरु । पड्लघु पडलघु चतुर्गुरु चतर्गर चतर्लघ चतुर्लघु मासगुरु मासगुरु मासलघु षड्गुरु पड्लघु पलघु चतुर्गुरु चतुर्गुरु चतुर्लघु चतुर्लघु मासगुरु मासगुरु मासलघु मासलघु गुरु २५ पडलघु चतुगुरु चतुगुरु चतुर्लघु चतुर्लघु मासगुरु मासगरु मासलघु मासलघु गुरु २५ गुरु २५ लघु २५ चतुगुरु चतुलेघु। चतुलेघु मासगुरु मासगुरु मासलघु मासलघ गुरु २५ गुरु २५ लघु २५ लघु २५ गुरु २० चतुर्लघु मासगुरु मासगुरु मासलघु मासलघु गुरु २५| | गुरु २५ लघु २५ लघु २५ गुरु २० गुरु २० लघु २० मासगुरु मासलघु मासलघु गुरु २५ गुरु २५ लघु २५ लघ २५ गुरु २० गुरु २० लघु २० लघु २० गुरु १५ ८ मासलघु गुरु २५ गुरु २५ लघु २५ लघु २५ गुरु २० गरु २० लघु २० लघु २० गुरु १५ गुरु १५ लघु १५ ९ गुरु २५ लघु २५ लघु २५ गुरु २० गुरु २० लघु २० लघु २० गुरु १५ गुरु १५ लघु १५ लघु १५ गुरु१० १० लघु २५ गुरु २० गुरु २० लघु २० लघु २० गुरु १५ ग १५ लघु १५ लघु १५ गुरु १० गुरु १० लघु १० ११ । गुरु २० लघु २० लघु २० गुरु १५ गुरु १५ लघु १५ लघु १५ गुरु १० गुरु १० लघु १० लघु १० गुरु ५ लघु १५ लघु १५ गुरु १० गुरु १० लघु १० लघु १० गुरु ५ गुरु ५ लघु ५ १३ | गुरु १५ लघु १५ लघु १५ गुरु १० गुरु १० लघु १० लघु 10 गुरु ५ | गुरु ५ लघु ५ लघु ५ दशमम् । ॥११९॥ Jain Edu For Private Personal use only minelibrary.org Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ गुरु १० | लघु १० गुरु ५ दशमम् दशमम् अष्टमम् गुरु ५ लघु ५ लघु ५ लघु ५ दशमम् दशमम् अष्टमम् अष्टमम् षष्ठम् १५ लघु १० गुरु ५ लघु ५ दशमम् १६ गुरु ५ लघु ५ दशमम् अष्टमम् अष्टमम् पष्टम् चतुर्थम् १७ लघु ५ दशमम् १८ लघु ५ दशमम् अष्टमम् अष्टमम् पष्टम् पष्टम् चतुर्थम् चतुर्थम् आचाम्लम् दशमम् अष्टमम् अष्टमम् पष्टम् पष्टम् चतुर्थम् चतुर्थम् आचाम्लम् आचाम्ल० एकाशनम् दशमम् अष्टमम् अष्टमम् पष्टम् पष्टम् दशमम् १९ २० अष्टमम् पष्टम् चतुर्थम् चतुर्थम् आचाम्लम् आचाम्लम् एकाशनम् एकाशनम् पुरिमार्द्धम् षष्टम् पष्टम् चतुर्थम् चतुर्थम् आचामलम् आचाम्लम् एकाशनम् एकाशनम् पुरिमार्द्ध० पुरिमार्द्धम् निर्विकृतिः चतुर्थम् चतुर्थम् आचाम्लम् आचाम्लम् एकाशनम् एकाशनम् पुरिमार्द्धम् पुरिमार्द्धम् निर्विकृतिः २१ २२ चतुर्थम् आचाम्लम् आचाम्लम् एकाशनम् एकाशनम् पुरिमार्द्धम् परिमार्द्धम निर्विकृतिः २३ आचालम् एकाशनम् एकाशनम् पुरिमार्द्धम् पुरिमार्द्धम् निर्विकृतिः २४ एकाशनम् पुरिमार्द्धम् पुरिमार्द्धम् निर्विकृतिः २५ पुरिमार्द्धम् निर्विकृतिः २६ निर्विकृतिः लघु १५ | गुरु १० गुरु १० लघु १० लघु १० गुरु ५ गुरु ५ लघु ५ लघु १० गुरु ५ लघु ५ अर्द्धापत्तिरूपमेकैकस्मिन्नाचार्यादौ स्थाने कृतकरणाकृतकरणभेदेन द्वे प्रायश्चित्ते, तयोः शुद्धयोरेकमाद्यमपक्रमात न तूत्तरस्थानेऽनुवर्तते । एवं द्वयोरर्द्धमित्यर्द्धापत्तिरिति मलयगिरयः || जीअम्मि जंतरयणे, ठविआ पारंचिएऽणवट्टप्पे । आयरियउवज्झाया, सहावणिरवेक्खयाऽभावा ॥ ११ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARAREKAR ROSS-04 अकम् स्वोपज्ञ'जीअम्मित्ति । 'जीते' जीतकल्पे च यन्त्ररचने, गुरुतत्त्वत्तियुतः | नाम लिपिः आपत्तिः दानम् बिशोपकाः | अस्मिन यत्रन्यासेऽन्यत्र च प्रायश्चित्तविधौ विशेपपरिज्ञानाय नामादियश्रकमिदम् ॥ विनिश्चयः द्वितीयोभिन्नमासः ५ नि० अत्र गाथा:-"नामं लिवि आवत्ती, दाणं च विसोवगा य पत्तयं । एए उपंच ठाणा, २५ मुत्कलनि० ॥ ल्लासः निविइआईसु णायव्वा ॥१॥ भिन्न १ लहु २ गुरु ३ मासा, चउलहु ४ चउगुरु ५० लघुमासः 09२७॥ पुरिमार्द्धम् ॥ ॥१२॥ अ छलहु ६ छग्गुरुआ ७ । एआओ सन्नाओ णिव्विइआणं कमा हुंति ।।२।। पणगाप्रायश्चित्तगुरुमासः की ३० एकाशनम् ५ १ कुडलं च रित्तं २, भरिअं ३ चत्तारि ताई रित्ताई ४ । चत्तारि अ भरिआई, छ रित्त । नामादियचतुर्लघुदि १०५ आचाम्लम् . भरिआइँ छ लिबीओ।।३।। पणवीसड्सगवीसं, तीसं पणहिअसयं च वीससयं । पणसट्ठी चतुर्गुरु :: १२० चतुर्थम् २ असीइसया, आवत्तीओ सुए भणिया ।। ४ ।। मुक्कल निविअं पुरिमं, इगभत्तायंबिलं च । पडलघु -१६५ पष्टम् ४० उववासं । छटुं च अट्ठमं तह, संपइ एयासु दिति मुणी ।।५।। निविआईसु विसोवा, षड्गुरु::११८० अष्टमम् । ६० । दिवडू दोसड़ पंच दस चेव । वीसा तह चालीसा, सष्टुिं च कमेण णायव्वा ॥६॥" जीतकल्पस्थापितौ पाराञ्चितेऽनवस्थाप्ये चाचार्योपाध्यायौ स्वभावनिरपेक्षतायाः-तादृशप्रायश्चित्तप्रतिसेवनास्थानानापादि यबरचनाzताया निरपेक्षताया अभावाद् गम्ययपि पञ्चमीविधानात्तामाश्रित्येत्यर्थः, जिनकल्पिकादेः खलु स्वभावत एव स्वकल्प-1 प्रकारः स्थितेर्निरपेक्षतेति न पाराञ्चितस्यानवस्थाप्यस्य वा सम्भवः । अन्येषां तु निरपेक्षीभवतामपि स्वभावनिरपेक्षताभावात्तत्सम्भवो भवत्येवेति । तदुक्तं जीतवृत्तावेव-प्रथमायां पङ्क्ती निरपेक्षस्याधो गृहद्वये शून्यं स्थाप्यं यतस्तयोः पारा- ॥१२०॥ ञ्चिकानवस्थाप्ये भवतः, ते च जिनकल्पिकस्य न संभवतः, तस्य हि स्वभावेनैव निरपेक्षत्वादिति ॥ ११॥ DISEARNER Jain Educationline Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्पयत्रकम् - ॥ जीतकल्पयन्त्रमेतत् ॥ निर- कृतकरण स एवाकृ-कृतकरण स एवाकृ- गीतार्थः स एवाक- गीतार्था-स एवाक- अगीतार्थः स एवाकृ- अगीताथः स एवाकृत पेक्षः | आचार्यः तकरणः उपाध्यायः तकरणः स्थिरकत० तकरणः स्थिरकता तकरणः स्थिरकत० तकरणः आस्थरकृ. तकरणः . पाराजित. अनवस्था. अनवस्था. मूलम् मूलम् छेदः छेदःही दी कि विही . अनवस्था. मूलम् मूलम् छेदः छेदःनी हिनी मूलम् मूलम् छेदः छेदः तीही श्री श्री हि छेदः छेदःचीही ही रिहर ही ीि लि .गुरु०.गुरु० ० लघु० किसी भी हिदि गुरु..गुरु लघु लघु. २५ श्री श्री गुरु० • गुरु०, लघु लघु० २५-२५ गुरु० • गुरु० लघु लघु० २५ २५२०२० गुरुमा. २५२० २०१५ लघुमा. २०५१५ २५ लघु २५ १५ गुरुत. २१ Jain Educati For Private & Personal use only KIMinelibrary.org Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः द्वितीयो ॥ १२१ ॥ Jain Educatio प्रायश्चित्तनिमित्तोपाधिना तु निरपेक्षः पाराञ्चितानवस्थाप्याधिकार्यपि भवत्येवेत्याह जिणकप्पिअपडिरूवो, चरमस्स दुगस्स होइ अहिगारी । एगागी कयतुलणो, मुत्ताविक्खो जओ भणियं १२ 'जिणकप्पि 'ति । 'जिनकल्पिक प्रतिरूपकः' जिनकल्पिकसदृशः 'चरमस्य द्विकस्य' पाराञ्चितानवस्थाप्यलक्षणचरमप्रायश्चित्तद्वयस्याधिकारी भवति 'एकाकी' द्रव्यतो भावतश्चासहायः, तथा कृता तुलना - तपःसत्त्वाद्यभ्यासलक्षणा येन स तथा, तथा मुक्ताऽपेक्षा - कुलगणादिनिश्रालक्षणा येन स तथा । यत उक्तं प्रवचने ॥ १२ ॥ | संघयणविरिय आगमसुत्तत्थविहीए जो समुज्जुत्तो । णिग्गहजुत्त तवस्सी, पवयणसारे गहिअअत्थो ॥ १३ ॥ तिलतुसतिभागमित्तो, वि जस्स असुहो ण विजई भावो । णिज्जूहणारिहो सो, सेसे णिज्जूहणा णत्थि ॥ संघयण' ति । 'तिलतुस' त्ति । उत्तानार्थमिदं गाथाद्वयम्, नवरं 'निग्रहयुक्त:' जितेन्द्रियः 'तपस्वी' कृततपश्चरण इत्यर्थः ॥ १३ ॥ १४ ॥ अत्र फलितं विरोधपरिहारमाह | इयपच्छित्तणिमित्ताविक्खं समविक्ख जीयजंतम्मि । गणरक्खाविक्खं पिय, ववहारे को वि ण विरोहो ॥ 'इ'ति । 'इति' उक्तेन प्रकारेण प्रायश्चित्तनिमित्तेन यापेक्षा - स्वभावनिरपेक्षत्वाभावविवक्षा तां समाश्रित्य जीतकल्पयन्त्रे सापेक्षपाराञ्चितानवस्थाप्य कोष्ठक लिखने गणरक्षालक्षणामपेक्षां च 'अपेक्ष्य' विवक्षाविषयीकृत्य 'व्यवहारे' तद| लिखने च न कोऽपि विरोधः; एकत्रापि विवक्षाभेदेन वचनभेदसम्भवात्, अत एव मनागू निरपेक्षताऽपेक्षया व्यवहारेऽपि : tional गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः ॥ १२१ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCORRORSCOCOCOCK कृतकरणोपाध्याये मूलप्रायश्चित्तसमर्थनात् , कोष्ठकवृद्धेश्च सापेक्षस्यैवाधिकृतत्वेनाभावात्, इतरस्य सूचयैवाभिधानादिति दृढतरमवधारणीयम् ॥ १५॥ ननु सापेक्षनिरपेक्षयोस्तावद्भेद आस्तां सापेक्षाणां त्वाचार्योपाध्यायभिक्षणां कुतो भेदः? इत्याशङ्कां समादधानः प्राहनणु आयरिआदीणं, साविक्खाणं कओमओ भेओ।भण्णइ जंपच्छित्तं,दाणं चण्णं जओ भणियं॥१६॥ का 'नणु' त्ति । नवाचार्यादीनां सापेक्षाणां भेदः कुतः कारणात् 'मतः' अभ्युपगतः ? आचार्योपाध्याययोरपि भिक्षु-11 त्वस्यावस्थितत्वात् , तद्हणेन तयोरपि ग्रहणसम्भवात् ; 'भण्यते' अत्रोत्तरं दीयते-'यत्' यस्मादाचार्यादीनामाभव-131 त्प्रायश्चित्तं समर्थासमर्थपुरुषाद्यपेक्षप्रायश्चित्तस्य दानं च भिन्नं तत आचार्यादीनां भेदः, यतो भणितं व्यवहारभाष्ये ॥१६॥ कारणमकारणं वा, जयणाजयणा व नत्थऽगीयत्थे। एएण कारणेणं,आयरिआई भवे तिविहा॥ १७ ॥ RI 'कारणमकारणं वत्ति । 'इदं कारणं प्रतिसेवनाया इदमकारणम् , तथा इयं यतना इयमयतना' इत्येतन्नास्ति विचारणं 81 अगीतार्थे, अर्थाद्गीतार्थस्यास्तीति प्रतीयते । तत्राचार्योपाध्यायो गीतार्थी भिक्षीतार्थोऽगीतार्थश्च, गीतार्थस्यागीतार्थस्य च कारणे यतनया कारणेऽयतनयाऽकारणे यतनयाऽकारणेऽयतनया पृथक् पृथक् प्रायश्चित्तम् , सहासहपुरुषाद्यपेक्षं तुल्येऽपि प्रायश्चित्ते आपद्यमाने पृथगन्योऽन्यो दानविधिरित्येतेन कारणेनाचार्यादयस्त्रिविधा भवन्ति । सूत्रे 'भवे' इति बहुत्वेऽप्येकवचनं प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि वचनव्यत्ययोऽपि क्वचिद्भवतीति ॥ १७॥ एनामेव गाथां व्याख्यानयति CSCOCCCCCCC - Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- कजाकज जयाजय, अविजाणंतो अगीअजं सेवे।सो होइ तस्स दप्पो, गीए दप्पाऽजए दोसा ॥ १८ ॥गुरुतत्त्वत्तियुतः II 'कज्जाकज' त्ति । कार्य नाम प्रयोजनं तच्चाधिकृतप्रवृत्तेः प्रयोजकत्वात्कारणम् , अत एवोक्तमन्यत्र-"कारणं ति/विनिश्चयः द्वितीयोडावा कजं ति वा एगट्ट" ततोऽयमर्थः-'अगीतः' अगीतार्थः कार्यमिति कारणं न जानाति यस्मिन् प्राप्ते प्रतिसेवना ल्लासः क्रियते । तथाऽकार्यमित्यकारणं न जानाति यस्मिन् प्राप्त प्रतिसेवनान क्रियते । तथा कारणेऽकारणे वा प्राप्ते सेवनं कुर्वन् | यतनामयतनां वा न जानाति । एतान्यजानानो 'यत्' प्रतिसेवते स तस्य दर्पो भवति, सा तस्य दर्पिका प्रतिसेवना भवतीति भावः । गीतार्थः पुनः सर्वाण्येतानि जानाति ततः कारणेऽपि यतनया प्रतिसेवत इति शुद्धः, अगीतार्थस्य त्वज्ञानतया दर्पण प्रतिसेवमानस्य प्रायश्चित्तम् । यदि च गीतार्थोऽपि चारित्रमोहोदयेन दर्पण प्रवर्तते, कारणेऽपि न यतते च, तदा तुल्या अगीतार्थेन सह तस्य दोषाः। तत्राचार्या उपाध्यायाश्च नियमाद्गीतार्था इति गीतार्थत्वापेक्षया वासमाः, केवलं प्रतिसेव्यमानं वस्तु प्रतीत्य विषमाः। भिक्षवो गीतार्था अगीतार्थाश्च भवन्ति, प्रतिसेव्यमपि वस्त्वधिकृत्य भेद इति वस्तुभेदतो गीतार्थत्वागीतार्थत्वतश्च पृथग विभिन्न विभिन्न प्रायश्चित्तम् , सहासहपुरुषाद्यपेक्षया तु तुल्येऽप्याभवति प्रायश्चित्ते पृथग् विभिन्नविभिन्नं प्रायश्चित्तदानम् ॥ १८॥ तथा चाहदोसविहवाणुरूवो, लोए दंडोवि किमुत उत्तरिए। तित्थुच्छेओ इहरा, णिराणुकंपा ण य विसोही ॥१९॥ ॥१२२॥ 'दोस'त्ति । लोकेऽपि दण्डः दोषानुरूपो विभवानुरूपश्च, तथाहि-महत्यपराधे महान् दण्डोऽल्पेऽल्पीयान् । तथा SCOTAGRSSC Jain St For Private & Personal use only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समानेऽपि दोषेऽल्पधनस्याल्पो महाधनस्य महान् लोकेऽपि तावदेवम् , किमुत' किं पुनः 'औतरिके' लोकोत्तरे व्यवहारे, तत्र सुतरां दोषसामोनुरूपो दण्डः, तस्य सकलजगदनुकम्पाप्रधानत्वात् । 'इतरथा' दोषसामर्थ्य अतिक्रम्य दण्डकरणे व्यवस्थाभावात्सन्तानप्रवृत्त्यसम्भवे तीर्थोच्छेदः स्यात् । तथा 'निरनुकम्पा' अनुकम्पाया अभावः, प्रायश्चित्तदायकस्यासमर्थभिक्षुप्रभृतीनामननुग्रहात् । न च तस्य प्रायश्चित्तदायकस्य विशोधिः, अप्रायश्चित्ते प्रायश्चित्तस्य प्रायश्चितेऽप्यतिमात्रप्रायश्चित्तस्य दानतो महाऽऽशातनासम्भवात् , ततः सापेक्षा आचार्यादयस्त्रिविधाः ॥ १९॥ अत्रैव प्रकारान्तरमाहअहवा कज्जाकज्जे, जयाजयंते अ कोविदो गीओ। दप्पाजओ णिसेवं, अणुरूवं पावए दोसं ॥ ३२० ॥ 'अहव' त्ति । 'अथवा इति प्रकारान्तरे 'गीतः' गीतार्थः, स कारणमपि जानात्यकारणमपि जानाति यतनामपि जानात्ययतनामपि जानाति । एवं कार्याकार्ये यतायते कोविदो गीतार्थों यदि दर्पण प्रतिसेवते कारणेऽप्ययतनया च तदा स दायतो निषेवमाणः 'अनुरूपम्' दर्पानुरूपमयतनानुरूपं च दोषं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति, दयितनानिष्पन्नं तस्मै प्रायश्चित्तं दीयत इति भावः ॥ ३२०॥ कप्पे अ अकप्पम्मि य, जो पुण अविणिच्छिओ अकजं पि । कज्जमिति सेवमाणो, अदोसवं सो असढभावो ॥ २१ ॥ For Private & Personal use only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | गुरुतत्त्व 5453- 5 स्वोपज्ञवृ. 'कप्पे अ'त्ति । यः पुनः कल्प्येऽकल्प्ये च'अविनिश्चितः' किंकल्प्यं किमकल्प्यम् ? इति विनिश्चयरहितः सः'अकार्यत्तियतः मपि' अकल्प्यमपि 'कार्यमिति' कल्प्यमिति बुद्ध्या सेवमानोऽशठभाव इति, हेतौ प्रथमा, अशठभावत्वाददोषवान् , न विनिश्चया द्वितीयो-18/ प्रायश्चित्तभाग् भवतीति भावः ॥ २१ ॥ ल्लास ॥१२३॥ जं वा दोसमयाणंतो, हेहंभूतो णिसेवए । हुज्जा णिदोसवं केण, विआणतो तमायरं ॥ २२ ॥ __ 'जं वत्ति । हेहंभूतो नाम गुणदोषपरिज्ञानविकलोऽशठभावः, स यं दोषमजानानो निषेवते तमेव दोषं विजानानः को-16 विदो गीतार्थ आचरन् केन हेतुना 'निर्दोषवान्' दोषस्याभावो निर्दोषस्तद्वान् ? न केनापीत्यर्थः, तीव्रदुष्टाध्यवसायभावात्।। न खलु जानानस्तीवदुष्टाध्यवसायमन्तरेण तथा प्रवर्तत इति ॥२२॥ तदेवं दृष्टान्तमभिधाय दान्तिकयोजनामाह एमेव य तुल्लम्मिवि, अवराहपयम्मि वढिआ दो वि। तत्थ वि जहाणुरूवं, दलंति दंडं दुवेण्हं पि ॥ २३ ॥ HI 'एमेव य'त्ति । एवमेव' अनेनैव दृष्टान्तेन द्वावपि जनौ आस्तामेक इत्यपिशब्दार्थः, 'तुल्येऽपि' समानेऽप्यपराधपदे | वर्तिनी, 'तत्रापि' तुल्येऽप्यपराधे द्वयोरपि तयोः 'यथाऽनुरूपं' गीतार्थागीतार्थयतनाऽयतनासंहननविशेषानुरूपं दण्डं | 'दलयन्ति' प्रयच्छन्ति, तस्मात्प्रायश्चित्तदानभेदतश्चाचार्यादिकस्त्रिविधो भेदः कृतः ॥ २३ ॥ तदेवमाचायोदिभेदत्रयः ॥१२३॥ INसमर्थनायोक्तरूपदृष्टान्तवशतो गीतार्थागीतार्थादिभेदत आभवत्प्रायश्चित्तस्य दानस्य च नानात्वमुपदर्शितम् , अत एव दृष्टान्तादवस्थाभेदतो गीतार्थ एव केवले शोधिनानात्वमुपदर्शयति GROSSO 45946 Main Education international For Private & Personal use only sww.jainelibrary.org Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसेव यदिट्टंतो, तिविहे गीअम्मि सोहिनाणत्ते । वत्थुसरिसो उदंडो, दिज्जइ लोए वि पुत्रुतं ॥ २४ ॥ 'एसेव य'ति । 'गीते' गीतार्थे 'त्रिविधे' त्रिप्रकारे बालतरुणवृद्धलक्षणे यत् शोधिनानात्वं तद्विषय 'एष एव' अनन्तरोदितस्वरूपो दृष्टान्तः । तथाहि —यथा कल्पयाकल्प्य विधिपरिज्ञानविकलोऽकल्प्यमपि कल्प्यमिति बुद्ध्या प्रतिसेवमानो न | दोषवान् भवति कोविदस्तु कल्प्याकल्प्यौ जानानोऽकल्पनीयं प्रतिसेवमानो दोषवान्, एवमिहापि तुल्ये प्रतिसेव्यमाने वस्तुनि तरुणे प्रभूतं प्रायश्चित्तं समर्थत्वात्, बालवृद्धयोः स्तोकमसमर्थत्वात् ; न चैतदन्याय्यम्, यतो लोकेऽपि वस्तुसदृशपुरुषा नुरूपो दण्डो दीयते, तथाहि - बाले वृद्धे च महत्यप्यपराधे करुणास्पदत्वात् स्तोको दण्डः, तरुणे महान्, एतच्च प्रागेवोक्तम् 'दोसविहवाणुरूवो' इत्यादिना, ततो न्याय्यमनन्तरोदितमिति ॥ २४ ॥ संप्रत्याचार्योपाध्यायभिक्षूणामेव चिकित्साविषये विधिनानात्वं दर्शयति तिविहे तेगिच्छम्मि य, उज्जुअ वाउलणसाहणा चेव । पण्णवणमणिच्छंते, दितो भंडिपोएहिं ॥२५॥ 'तिविहे' त्ति । 'त्रिविधे' त्रिप्रकारे आचार्योपाध्याय भिक्षुलक्षणे चिकित्स्यमाने गीतार्थ इति गम्यते 'उज्जुअ'त्ति 'ऋजुकं' स्फुटमेव ' व्यापृतसाधना' व्यापृतक्रियाकथनं कर्त्तव्यम् । इयमत्र भावना - आचार्याणामुपाध्यायानां गीतार्थानां च | भिक्षूणां विचिकित्स्यमानानां यदि शुद्धं प्रासुकमेषणीयं लभ्यते तदा न तत्र विचारः । अथ शुद्धं न लभ्यतेऽवश्यं च चिकित्सा कर्त्तव्या तदाऽशुद्धमप्यानीय दीयते, तथाभूते च दीयमाने स्फुटमेव निवेद्यते इदमेवम्भूतमिति तेषां गीतार्थ - ) आचार्योपा ध्याय भिक्षू णां चिकि त्साकरणे विधिः Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः स्वोपज्ञवृ- त्वेनापरिणामातिपरिणामदोषासम्भवात्। अगीतार्थभिक्षोः पुनः शुद्धाऽलाभे चिकित्सामशुद्धेन कुर्वन्तो मुनिवृषभा गुरुतत्त्व यतनया कुर्वन्ति न चाशुद्धं कथयन्ति, यदि पुनः कथयन्त्य यतनया वा कुर्वन्ति तदा सोऽपरिणामत्वादनिच्छन् यदना-1 विनिश्चयः द्वितीयो- गाढादिपरितापनमनुभवति तन्निमित्तं प्रायश्चित्तमापद्यते तेषां मुनिवृषभाणाम् ; यद्वाऽतिपरिणामतया सोऽतिप्रसङ्गं कुर्यात् ल्लासा तस्मान्न कथनीय नाप्ययतना कर्त्तव्या; कथमपि तत्परिज्ञायानिच्छति च गीतार्थभिक्षी प्रज्ञापना कर्तव्या, यथा-लानत्वे ॥१२४॥ यदकल्पिकमपि यतनया सेव्यते तत्र शुद्धो ग्लानः, यतनया प्रवृत्तेः अशुद्धग्रहणादल्पीयसो दोषस्य भावात् , तस्यापि प्रायश्चित्तेन पश्चाच्छोधयिष्यमाणत्वात् , उत्तरकालं प्रभूतसंयमलाभहेतुत्वेन तस्याश्रयणीयत्वादिति । इयं च प्रज्ञापना तरुणे क्रियते, बालस्तु बालत्वाद् यथाभणितं करोत्येव । यस्तु वृद्धस्तरुणो वाऽतिरोगग्रस्तोऽचिकित्सनीयः स प्रोत्सा-18 ह्यते-कुरु महानुभाव ! भक्तप्रत्याख्यानमेतन्जिनवचनाधिगमफलमिति । यदि च नेच्छति तदा 'भण्डीपोताभ्यां' गन्त्रीप्रवहणाभ्यां दृष्टान्तः करणीयः, स चायम्-या एकदेशे क्वचिददृढा भण्डी सा शीलाप्यते, यतः सा शीलिता सती कार्य करोति, या तु संस्थापिताऽपि कार्यकरणाक्षमा न तां शीलयन्ति । एवं पोतेऽपि भावनीयम् । दार्टान्तिकयोजना त्वियम्-यदि प्रभूतमायुः संभाव्यते प्रगुणीकृतश्च देहः संयमव्यापारेषु समर्थ इति ज्ञायते तदा संयमवृद्धये युक्ता VIचिकित्साऽन्यथा तु निष्फलेति ॥२५॥ उक्तगाथामेव विवृणोतिसुद्धालंभेऽगीए, अजयणकरणकहणे भवे गुरुगा।कुज्जा व अतिपसंगं, असेवमाणे व असमाही ॥ २६ ॥ ॥१२४॥ 'सुद्धालभे' त्ति । 'अगीते' अगीतार्थे भिक्षौ शुद्धालाभेऽशुद्धेन चिकित्स्यमाने यद्ययतना क्रियते कथ्यते वा तदा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिवृषभाणामयतनाकारिणां कथयतां प्रायश्चित्तं भवति 'गुरुकाः' चत्वारो मासा गुरवः। इयमत्र भावना-यद्ययत नाकरणतः कथनतो वा ज्ञातं भवति यथा ममाशुद्धेन चिकित्सा क्रियते तदा तेषां मुनिवृषभाणां चत्वारो गुरुकाः, हिएतच्चासामाचारीप्रवृत्तिनिषेधार्थ प्रायश्चित्तम् ; या पुनरनिच्छतोऽसमाधिप्रवृत्तेरनागाढादिपरितापनाऽन्यदेव पृथगिति । एवमतिप्रसङ्गादिनिमित्तकमपि ॥ २६ ॥ तदेवं सम्मतिग्रन्थं परिसमाप्योपसंहरतिआयरिआई तम्हा, भिण्णा पडिसेवणाइभेएणं। पुरिसंतरे वि एसो, णेओ भणियं जओ जीए ॥ २७ ॥ __'आयरिआई' त्ति । तस्मादाचार्यादयः प्रतिसेवनादिभेदेन भिन्नाः। एष भेदः पुरुषान्तरेऽपि ज्ञेयः, यतो भणितं 'जीते' जीतकल्पे ॥ २७ ॥ पुरिसा गीआगीआ, सहासहा तह सढासढा केई । परिणामापरिणामा अइपरिणामा य वत्थूणं ॥२८॥ | 'पुरिस'त्ति। पुरुषा गीतार्थाः-अधिगतनिशीथान्तश्रुताः, अगीतार्थाः-तदितरे, सहा:-सर्वप्रकारैः समर्थाः,असहा:-अस-13 मर्थाः, तथा केचिच्छठाः-मायाविनः, अशठाः-सरलात्मानः, परिणामका अपरिणामका अतिपरिणामकाश्च वस्तूनाम्॥२८॥ तह धिइसंघयणोभयसंपन्ना तदुभएण हीणा य। आयपरोभयनोभयतरगा तह अन्नतरगा य ॥ २९ ॥ | 'तह' त्ति । तथा धृतिसंहननोभयसंपन्नाः, अत्र चत्वारो भङ्गाः-धृतिसम्पन्नाः संहननहीना इति प्रथमः १, संहन-2 नसंपन्ना धृतिहीना इति द्वितीयः २, उभयेन धृतिसंहननाख्येन संपन्ना इति तृतीयः ३, तदुभयेन हीनाश्चेति चतुर्थः४ । SECURMUSCULOUS For Private & Personal use only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञत्तियुतः द्वितीयो ॥ १२५ ॥ | तथाऽऽत्मपरोभयानुभयतरका इति, अत्रापि चत्वारो भङ्गाः - आत्मानुग्राहकं तपः परोपष्टम्भकारकं वैयावृत्त्यं तयो| द्वयोरपि समर्थाः परं ये तप एव कुर्वन्ति न वैयावृत्त्यं ते आत्मतरका न परतरका इति प्रथमः १, ये तु वैयावृत्त्यमेव कुर्वन्ति न तपस्ते नाऽऽत्मतरकाः परतरका इति द्वितीयः २, ये तूभयमपि कुर्वन्ति ते उभयतरका इति तृतीयः ३, ये पुनरुभयमपि न कुर्वन्ति ते नोभयतरका इति चतुर्थः ४ । तथा 'अन्नतरग'त्ति अन्यतरका ये तपोवैयावृत्त्ययोरन्यतरदेकमेव कर्त्तुं शक्नुवन्ति नोभयकरणक्षमा इत्यर्थः ॥ २९ ॥ कप्पट्ठिआदओ वि य, चउरो जे सेयरा समक्खाया । साविक्वेयरभेआदओ अ जे ताण पुरिसाण ३३० 'कपट्टिआदओ विय'त्ति । कल्पस्थिता आदयो येषां ते कल्पस्थितादयश्चत्वारो ये 'सेतराः' सप्रतिपक्षाश्चत्वारः समाख्याताः - कल्पस्थित १ परिणत २ कृतयोगि ३ तरमाणाख्याः ४ अकल्पस्थिताऽपरिणता कृतयोग्यतरमाणाख्याश्च । तत्राऽऽचेलक्यादिदशविधकल्पे स्थिताः प्रथमचरमजिनसाधवः कल्पस्थिताः, मध्यमद्वाविंशतिजिनसाधवो महाविदेहजाश्चाकल्पस्थिताः । परिणतं परिपाकमापन्नं जीवेन सहैकीभावमागतं चारित्रं येषां ते परिणताः, इतरेऽपरिणताः । कृतयोगिनश्चतुर्थषष्ठाष्टमादिभिर्भावितशरीराः, इतरेऽकृतयोगिनः । तरमाणाश्च " शकेश्चयतरतीरपाराः (सि ८-४-८६ ) इत्यनेन प्राकृतलक्षणसूत्रेण शक्लधातोस्तरादेशे कृते शक्नुवानाः - शक्तितुलनां कुर्वाणा इत्यर्थः, इतरेतरमाणाः । एते च सापेक्षादयः, सापेक्षाः - गच्छवासिनः, निरपेक्षाः - जिनकल्पिकादयः, 'जे' इति पादपूरणे । 'ताण पुरिसाणं'ति इत्यग्रेतनगाथायां संबध्यते ॥ ३३० ॥ सा चेयम् गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः ।। १२५ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो जह सत्तो बहुतरगुणो व तस्साहिअं पि दिजाहि । हीणस्स हीणतरगं, झोसिज्ज व सबहीणस्स ॥ ३१ ॥ 'जो जह सत्तो' त्ति । तेषां पुरुषाणां गीतार्थादीनां कल्पस्थितादीनां च मध्याद् यो 'यथा शक्तः तपः कर्त्तुं क्षमः 'बहुतरगुणो वा' धृतिसंहननसंपन्नः परिणतः कृतयोगी आत्मपरतरो वा भवेत्तस्य' अधिकमपि' जीतोक्तादतिरिक्तमपि दद्यात् । 'हीनस्य' धृतिसंहननादिरहितस्य 'हीनतरं' जीतोत्तादल्पतरं दद्यात् । 'सर्वहीनस्य' सामस्त्येनाक्षमस्य सर्वमपि तपः 'क्षपयेत्' हासयेत् न किमपि तस्य दद्यात् मिथ्यादुष्कृतेनैव तस्य शुद्धिरादेश्येत्यर्थः ॥ ३१ ॥ प्रतिसेवावैचित्र्ये प्रायश्चित्तवैचित्र्यमाहपडिसेवाभेएण वि, पच्छित्तं खलु विचित्तयं होइ । जं जीअदाणसुत्तं, एयं पायं पमाएणं ॥ ३२ ॥ 'पडि सेव' त्ति । प्रतिसेवा भेदेनापि खलु विचित्रं प्रायश्चित्तं भवति । तत्र यज्जीतदानसूत्रमेतत्प्रायः प्रमादेन, प्रमादो दैवात् प्रतिलेखनाप्रमार्जनाद्यनुपयुक्तता, तत्र जीतोक्तं यथास्थितमेव प्रायश्चित्तमित्यर्थः ॥ ३२ ॥ ठाणंतरस्स वुड्डी, दप्पे आउडिआइ वि तहे व । सद्वाणं वा कप्पे, पडिकमणं वा तदुभयं वा ॥ ३३ ॥ 'ठाणंतरस्त' त्ति । 'दर्पे' धावनडेपनवल्गनादिरूपे हास्यजनकवचनकन्दर्पादिरूपे वा स्थानान्तरस्य वृद्धिः कर्त्तव्या, दर्पवतः प्रमादप्रतिसेवकप्रायश्चित्तस्थानान्तरं वर्द्धयेत्, किमुक्तं भवति ? प्रमादप्रतिसेवनया भिन्नमासलघुमासगुरुमासचतुर्लघुचतुर्गुरुषलघुषगुरूणामापत्तौ निर्विकृतिकपुरिमा काशनाचामाम्लचतुर्थषष्ठाष्टमानि तपांसि दीयन्ते । दर्पप्रति| सेवाकारिणस्तु भिन्नमासादीनामापत्तौ निर्विकृतिकं मुक्त्वा पुरिमार्द्धादीनि दशमान्तानि देयानीति । 'आकुट्टिकाया - ) प्रतिसेवा चित्र्ये प्रायश्चित्तवैचि त्र्यम् Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ. त्तियुतः । द्वितीयो ॥१२६॥ ॐॐॐ505151-5 मपि' उपेत्य सावधकरणोत्साहरूपायां 'तथैव' दर्पवदेव स्थानान्तरवृद्धिः कार्या। दर्पप्रतिसेविनो हि भिन्नमासाद्यापत्तौ। गुरुतत्त्वपुरिमार्बादीनि दशमान्तानि दीयन्ते, आकुट्टिप्रति सेविनस्त्वेकाशनादीनि द्वादशान्तानि देयानि, स्वस्थानमेव वा दद्यात् । विनिश्चयः इहापत्तिरूपं प्रायश्चित्तं स्वस्थानमुच्यते, यथाऽऽकुट्टिकया पञ्चेन्द्रियवधे मूलम् , अन्यत्रापि चाकुट्टिकया यत्रापराधे यद् ल्लासः भिन्नमासादिकमुक्तं तत्तत्र स्वस्थानम्, तदेवाकुट्टिकाप्रतिसेविनो दद्यादित्यर्थः । 'कल्प्ये' कारणप्रतिसेवारूपे प्रतिक्रमणं परिणामभेमिथ्यादृष्कृतदानमात्रं वा, अथवा 'तदुभयं' आलोचनामिथ्यादुष्कृतोभयरूपं प्रायश्चित्तम् ॥३३॥ परिणामानुरूप्येणापि दिन प्रायश्चिप्रायश्चित्तदानभेदमाह त्तस्य वैशिआलोअणकालम्मि वि, संकिट्ठविसोहिमेअमुवलब्भ। अहिअंवा हीणं वा, तम्मत्तं वावि दिजाहि ॥३४॥ यम 'आलोअण' त्ति । आलोचनाकालेऽपि कमप्यपराधविशेष यः सर्वधा न प्रकाशयति कथयन्नप्यर्द्धकथितं वा करोति प्रायश्चित्तस संक्लिष्टपरिणाम इति ज्ञात्वा तस्याधिकमपि दद्यात् । यः पुनः संवेगमुपगतो निन्दागहादिभिर्विशुद्धपरिणामस्तस्य द्वारसमाप्तिः हीनमपि दद्यात् । यः पुनर्मध्यस्थपरिणामस्तस्य तन्मात्रमेव दद्यादिति ॥ ३४ ॥ प्रायश्चित्तद्वारसमाप्त्युपदर्शनपूर्व द्वार- व्यवहारप्रयात्मकैव्यवहारनिरूपणसिद्धतामुपदर्शयति रूपणासम:एसो पायच्छित्ते, ववहारो धीरपुरिसपण्णत्तो। भणिओअ परिसमापिअमिय ववहारस्स दारतिगं॥३५॥ प्तिश्च 'एसो' त्ति स्पष्टेयम् ॥ ३५ ॥ अग्रिमगाथाऽष्टकमप्युत्तानार्थमेवेति श्रेयः ॥ ३३६-३४३ ॥ ॥१२६॥ For Private & Personal use only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धापोहासेवणभावेणं जस्स एस ववहारो । सम्मं होइ परिणओ, सो सुगुरू होइ जगसरणं ॥ ३६॥ जो पुण अव्ववहारी, गुरुणामेणेव धंधणं कुणइ । दुट्ठस्स गाहगस्सिव, तस्स हवे कीस वीसासो ॥३७॥ संजमगुणेसु जुत्तो, जो ववहारम्मि होइ उवउत्तो।सुअकेवली व पुजो, संपइकाले वि सो सुगुरू ॥३८॥2 णवणीयसारभूओ, दुवालसंगस्स चेव ववहारो।जो तंसम्म भासइ, कह पुज्जो सोण भावगुरू ॥३९॥ ववहारेण गुरुत्तं, संजमसारं पडुच्च भावेणं । भवजलपडणणिमित्तं, लोहसिलाए व इहरा उ॥३४०॥ सुत्तायरणाणुगओ, ववहारो अस्थि जत्थ अच्छिण्णो। आरूढो तं सुगुरू परंपरं होइ सिवहेऊ ॥४१॥ संघयणादणुरूवं, जो ववहारे अणुं पिणियसत्तिं। णणिगृहइ भावगुरू, सो खल्लु दुक्खक्खयं कुणइ॥४२॥ ववहारणायठाणं, जे पडिवजंति सुगुरुमनिआण। तेजसविजयसुहाणं, भवंति इह भायणं भवा ॥३४३॥ ॥ इति महामहोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्रीलाभविजयगणिशि- द्वितीयोल्लास ष्यमुख्यपण्डितश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यपण्डितश्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकेणपण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेण पण्डितयशोविजयेन विरचिते गुरु तत्त्वविनिश्चये व्यवहारविवेकनामा द्वितीय उल्लासः ॥२॥ समाप्तिः एक्त. २२ lain d an international For Private & Personal use only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञ त्तियुतः ॥ इति महामहोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्रीलाभविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यपण्डितश्रीनयविजयगणिचरणकमल चञ्चरीकेण पण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेण पण्डितयशोविजयेन विरचितायां स्वोपज्ञगुरुतत्त्वविनि श्चयवृत्ती द्वितीयोल्लासविवरणं सम्पूर्णम् ॥ २॥ गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः द्वितीयो ॥१२७॥ प्रशस्तिः अथ प्रशस्तिः । यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशयाः, भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरस्तस्येयं गुरुतत्त्वनिश्चयकृतिः स्तात् पण्डितप्रीतये ॥१॥ अनुग्रहत एव नः कृतिरियं सतां शोभते, खलप्रलपितैस्तु नो कमपि दोषमीक्षामहे । धृतः शिरसि पार्थिवैवरमणिर्न पाषाण इत्यसभ्यवचनैः श्रियं प्रकृतिसम्भवां मुञ्चति ॥२॥ प्रविशति यत्र न बुद्धिर्व्यवहारकथासु तीर्थिकगणानाम् । सूचीव वज्रभित्तिषु, स जयति जैनेश्वरः समयः ॥३॥ ॥१२७॥ For Private Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R अथ गुरुतत्त्वविनिश्चये तृतीयोल्लासः। _ द्वितीयोल्लासे द्वारत्रिकेण व्यवहारविवेकः कृतः । अयं च सद्गुरोरत्यागेन कुगुरुवर्जनेन च स्थेमानमावहतीत्येतदर्थप्रतिपादकस्तृतीयोल्लास आरभ्यते, तत्रेयमाद्यगाथाइहपरलोएसु हिओ, सुववहारी गुरू ण मोत्तवो । अणुसिडिमुवालंभं, उवग्गहं चेव जो कुणइ ॥१॥ | 'इहपरलोएसु हिओत्ति । इह गुरुविषयाश्चत्वारो भङ्गा भवन्ति, तथाहि-इहलोकहितो नामैको न परलोकहितः १, परलोकहितो नामको नेहलोकहितः २, एक इहलोकहितोऽपि परलोकहितोऽपि ३, एको नेहलोकहितो नाऽपि परलोक|हित इति ४ । तत्र यो वस्त्रपात्रभक्तपानादिकं साधूनां पूरयति न पुनः संयमे सीदतः सारयति स इहलोके हितो न पर लोके १ । यःपुनः संयमयोगेषु प्रमाद्यतां सारणां करोति न च वस्त्रपात्रभक्तपानादिकं प्रयच्छति स स्फुटभाषी परलोके * हितो नेहलोके २ । यो वस्त्रपात्रभक्तपानादिकं समग्रमपि साधूनां पूरयति संयमयोगेषु च सीदतः सारयति स इहलोके 5परलोके च हितः ३ । यस्तु न वस्त्रपात्रादिकं साधूनां पूरयति न च संयमयोगेषु सीदतः सारयति स नेहलोके हितो नापि परलोके ४ । तत्र योऽनुशिष्टिमुपालम्भमुपग्रहं च करोति स इहलोकपरलोकयोर्हितः ‘सुव्यवहारी' समीचीनव्यवहारकारी & गुरुर्भवजलधियानपात्रमिति न कदाऽपि मोक्षार्थिना मोक्तव्यः, किन्तु कुलवध्वादिदृष्टान्तस्तस्यैवाश्रयणं कर्त्तव्यमित्यर्थः । सद्गुरोरत्यागोपदेशः गुरुविषयाचतुर्भगी ANSAR Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C त्तियुतः। दण्डितोडी स्वोपज्ञवृ- तत्रानुशिष्टिः स्तुतिरित्येकार्थी शब्दो, यथा-सुलभदण्डे जीवलोके मैवं मतिं कुर्याः, यथाऽहमाचार्येण प्रायश्चित्तदानतो गुरुतत्त्वदण्डितोऽस्मीति दुरन्तभवदण्डनिवारकः खल्वयं प्रायश्चित्तदण्ड इति । किश्चानाचारमलिनस्यात्मनः प्रायश्चित्तजलेन निर्मली-13 ॐा विनिश्चयः तृतीयो- करणान्न युक्ता दण्डबुद्धिरात्मनि परिभावयितुम् , किन्तूपकृतोऽहमनुपकृतपरहितकारिभिराचार्यरिति विचारणैव समीचीन ल्लासः तामञ्चतीति । उपालम्भः-दोषव्यञ्जकं वचनम् , यथा-त्वयैव स्वयं कृतमिदं प्रायश्चित्तस्थानं तस्मान्न कस्याप्युपर्य॥१२८॥ न्यथाभावः कल्पनीयः, न खलु शुद्धकारिणो लोकेऽपि दण्डो दीयते । किञ्च दोष प्राप्तो यदि कथमप्याचार्येणैवमेव मुच्यते तथापीहभवे मुक्तोऽपि परभवे न मुच्यते कृतपापविपाकेन, तस्मादापन्नं प्रायश्चित्तमवश्यं गुणबुद्ध्या कर्तव्यमिति । उपग्रहश्च उपष्टम्भदानम् , स च द्रव्यतोऽसमर्थस्याशनपानाद्यानयनलक्षणः, भावतश्च सूत्रार्थप्रदानग्लानसमाधानो-12 त्पादनादिलक्षण इति ॥ १॥ अत्राऽऽस्तां चतुर्थभङ्गवर्ती प्रथमभङ्गवर्त्यपि त्याज्य इत्याशयवानाहजो भद्दओ विण कुणइ, दितो सीसाण वत्थपत्ताई। सारणयं सो ण गुरू, किं पुण पक्खेण जं भणिअं॥२॥ असारकस्य । 'जो भद्दओ वित्ति । यः ‘भद्रकोऽपि' किं मम साधूनामप्रीत्युत्पादनेन 'सर्वेषां प्रीत्यापादनमेव श्रेयः' इति संमुग्धपरि- गुरोस्त्यागः, पूणामवानपि शिष्याणां वस्त्रपात्रादि दददपि 'सारणाम्' अपराधदण्डदानलक्षणां न करोति स न गुरुः, अतस्त्याज्य-1 एवायम् , गुरुलक्षणहीनस्य सङ्गतेरन्याय्यत्वादित्यर्थः । किं पुनः 'पक्षण' ममत्वपरिणामेन यः सारणां न करोति तस्य वहारसावाच्यम् ? यद्भणितं व्यवहारभाष्ये ॥२॥ क्ष्यम् जीहाए विलिहंतो, ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि । दंडेण वि ताडतो, स भद्दओ सारणा जत्थ॥ ३॥ ॥१२॥ ॐॐॐ For Private Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जीहाए'त्ति । यत्र नाम संयमयोगेषु सीदतां सारणा नास्ति स आचार्यः 'जिह्वया विलिहन्' मधुरवचोमिरानन्दयन् उपलक्षणमेतद् वस्त्रपात्रादिकं च पूरयन् 'न भद्रकः' न समीचीनः, परलोकापायेषु पातनात् । यत्र पुनः सीदतां साधूनां सम्यक् 'सारणा' संयमयोगेषु प्रवर्त्तना समस्ति 'सः' आचार्यों दण्डेनापि ताडयन् 'भद्रकः' एकान्तसमीचीनः, सकलसां| सारिकापायेभ्यः परित्राणकरणात् ॥ ३ ॥ अथ सारणामकुर्वाणो जिह्वया विलिहन् कस्मान्न समीचीनः? इत्यत्राह जह सरणमुवगयाणं, जीविअववरोवणं नरो कुणइ । एवं सारणिआणं, आयरिओऽसारओ गच्छे ॥४॥ हा 'जह'त्ति । यथा कोऽपि नर एकान्तेनाहितकारी शरणमुपगतानां जीवितव्यपरोपणं करोति, एवं साधूनामपि शरण-12 दामुपागतानां 'सारणीयानां' संयमयोगेषु प्रमादच्यावनेन प्रवर्त्तनीयानामाचार्योऽसारको गच्छे भावनीयः, सोऽपि शरणोप-18 गतशिरःकर्त्तक इवैकान्तेनाहितकारीति भावः॥४॥ इत्तो उवसंपज्जइ, विहिणा गच्छंतरं पि धम्मट्ठी। इय भणिअंजिणसमए, परिवाडि इत्थ वुच्छामि ॥५॥ ST 'इत्तो'त्ति । यतः सारणादिकार्ये च गुरुराश्रयणीयो नान्यः, अत एव धर्मार्थी स्वगच्छे सारणाद्यभावे गच्छान्तरमपि3 सारणादिसाम्राज्यकलितं विधिनोपसम्पद्यत इति 'जिनसमये' कल्पादिलक्षणे भणितम् । 'अत्र' गच्छान्तरोपसम्पत्तौ परिपाटीं प्रसङ्गप्राप्तामखिलां यथासूत्रं वक्ष्यामि ॥ ५॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह उपसम्पद्गहनाणे दंसण चरणे, आपुच्छित्ता गणंतरे गमणं । विहिअं इहरा दोसो, णाणइआरा इमे तत्थ ॥ ६॥ णकारणानि For Private Personal use only wanaw.jainelorary.org Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयो ॥ १२९ ॥ 'नाणे'त्ति । ज्ञानार्थं दर्शनार्थं चारित्रार्थं चापृच्छय स्वगुरुं गणान्तरे गमनं विहितम्, 'इतरथा' निष्कारणं गुरुमनापृच्छय वा गणान्तरगमने दोषः यतो निष्कारणं गणान्तरोपसम्पत्तौ चतुर्गुरुकमाज्ञादयश्च दोषाः, गुरुमनापृच्छय गमने च चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमुपदिश्यते । तत्र ज्ञानार्थं तावदेतत् तदा भवति यदा स्वगुरोः सकाशे यावत् श्रुतमस्ति तावदधीतम्, अस्ति च तस्यापरस्यापि श्रुतस्य ग्रहणे शक्तिस्ततोऽधिक श्रुतग्रहणार्थमाचार्यमापृच्छति (ते) आचार्येणापि स विसर्जयितव्य इति । तत्र ज्ञानार्थं गच्छत इमेऽतिचारा भवन्ति ॥ ६ ॥ १ चिंतण २ गाइ ३, संखडि ४ पिसुगाइ ५ अपडिसेहे अ ६ । परिसिले ७ पेसविए ८, आयरिअविसज्जिओ सुद्धो ॥ ७ ॥ 'भय'त्ति । येषां समीपे गन्तव्यं तेषां साध्वादिमुखात् कर्कशचर्यां श्रुत्वा भीतः प्रतिनिवर्तते १ । चिन्तयति किं तत्र गन्तव्यं न वा ? २ । ब्रजिकादिषु प्रतिबन्धं करोति, आदिशब्दाद्दानश्राद्धादिषु दीर्घा गोचरचर्यां करोति, अप्राप्तं वा देशकालं प्रतीक्षते ३ । 'संखडित्ति सङ्घड्यां प्रतिबध्यते ४ । 'पिसुगाइ ति पिशुकमत्कुणादिभयान्निवर्त्ततेऽन्यत्र वा गच्छे गच्छति ५ । 'अपडसे हे अत्ति, कश्चिदाचार्यस्तं परममेधाविनमन्यत्र गच्छन्तं श्रुत्वा परिस्फुटवचसा न तं प्रतिषेधयति किन्तु शिष्यान् व्यापारयति, 'तस्मिन्नागते व्यञ्जनघोषशुद्धं पठनीयं येनात्रैवैष तिष्ठति' इति, एवमप्रतिषेधयन्नपि प्रतिषेधको लभ्यते, तेनैवं विपरिणामितस्तदीये गच्छे प्रविशति ६ । 'परिसिले त्ति पर्षद्वान् यः संविग्नाया असंविग्नायाश्च पर्पदः सङ्ग्रहं करोति : गुरुतत्त्वविनिश्चयः लास : ज्ञानार्थोपसंपत्तावति चाराः ।। १२९ ।। Dainelibrary.org Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश्चित्तम् तस्य पार्श्वे तिष्ठति ७ । 'पेसविए'त्ति, अहमाचार्यः श्रुताध्ययननिमित्तं युष्मदन्तिके प्रेषित इत्यभिधारितसमीपे ब्रवीति ८113 एतेऽष्टावतिचाराः। यस्तु वदति 'आचार्यैर्विसर्जितोऽहं युष्मदन्तिके समायातः' इति स शुद्धो न प्रायश्चित्तभागित्यर्थः ॥७॥ भयादिषु पदेषु प्रायश्चित्तमाहपंणगंच भिन्नेमासो, मासो लहुँओ अहुंति, चउँगुरुआ। मासेलहुं चउँलहुआ चउँलहु लहुओअ एएसुंद ज्ञानोपसंप. दतिचारप्रा'पणगं च'त्ति । आचार्याचरणां कर्कशां श्रुत्वा ज्ञात्वा वा भयेन यः प्रतिनिवर्त्तते तस्य पञ्चकं भवति प्रायश्चित्तम् १ ।। पूर्वमेव यावन्न निर्गम्यते तावञ्चिन्तयितव्यम् , यस्तु निर्गतश्चिन्तयति किं करोमि ब्रजामि निवर्ते वा?, यद्वा तत्र वाऽन्यत्र वा गच्छे गच्छामीति तस्य भिन्नमासः २ । बजिकां श्रुत्वा मार्गादुद्वर्त्तनं यः करोति अप्राप्तां वा वेलां प्रतीक्षते तस्य लघुको मासः, तथा यदि प्रचुरं भुङ्क्ते तदा चतुर्लघु, प्रचुर भुक्त्वाऽजीर्णभयेन प्रकामं स्वपिति (तस्य ) लघुमास इत्यपि द्रष्टव्यम् | ३ । सङ्घड्यामप्राप्तकालप्रतीक्षणप्रभूतग्रहणयोश्चतुगुरुकाः, यच्च तत्र हस्तसङ्कट्टनपात्रसङ्घट्टनादिनिमित्तकं तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तमित्यपि द्रष्टव्यम् ४ । पिशुकादिभयान्निवर्तमानस्य मासलघु ५। अप्रतिषेधकस्य पार्श्वे तिष्ठतश्चत्वारो लघुकाः। यश्चासावध्ययनार्थी मा मामतिक्रम्यान्यत्र गमदिति कृत्वा तस्याकर्षणार्थ शिष्यान् प्रतीच्छकांश्च व्यापारयति, यत्र पथि । ग्रामे स भिक्षां करिष्यति मध्येन वा समेष्यति यस्यां वा वसतौ स्थास्यति तेषु स्थानेषु गत्वा यूयमभिलापशुद्धं परिवर्तयन्तस्तिष्ठत, यदा स आगतो भवति तदा यद्यसौ पृच्छेत् केन कारणेन यूयमिहागताः, ततो भवद्भिर्वक्तव्यम्-अस्माकं वाचनाचार्या अभिलापशुद्धं पाठयन्ति, यद्यमिलापः कथञ्चिदन्यथा क्रियते ततो महदप्रीतिकं ते कुर्वन्ति भणन्ति च-अत्रोपाश्रये | Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- बहुजनशब्दव्याकुलतया नाभिलापशुद्धयविनाश इति तदादेशेन वयमत्र विजने परिवर्त्तयाम इति तस्यैवमाकर्षणं कुर्वतश्च- गुरुतत्त्वत्तियुतः त्वारो लघुकाः। अथ तेनाध्वन्यागच्छता शैक्षो लब्धस्तग्रहणार्थ यदि तमाकर्षति ततश्चतुर्गुरुका इत्यपि द्रष्टव्यम् ६ । यस्य विनिश्चयः तृतीयो- पर्पदि साधवः केचित्पावृताः केचिदप्रावृताः केचित्फेनादिना घृष्टजङ्घाः केचित्तैलादिना मृष्टशरीराः केचिल्लोचमुण्डाः ल्लास केचित्क्षुरमुण्डा एवं विविधवेषधरास्तिष्ठन्ति, न च यस्तेषु कञ्चिद् वारयति स पर्पद्वान् , तस्य गच्छे प्रवेशं कुर्वतश्चतुर्लघु, यदि च सचित्तेन शैक्षण सार्द्ध प्रविशति ततश्चतर्गरव आज्ञादयश्च दोषाः । अथाचित्तेन वस्त्रादिना सह प्रविशति तत उपधिनिष्पन्नं मिश्रसंयोगप्रायश्चितम् , तथा मचित्ताचित्तं ददतो गृह्णतश्चैवमेव प्रायश्चित्तमिति दृश्यम् ७ । अमुक श्रुतार्थ|निमित्तं गुरुभियुष्मदन्तिके प्रेषितोऽहमिति भणतश्च लघको मासः ८ । एतेष्वतिचारेषु क्रमादेतानि प्रायश्चित्तानि ॥८॥ प्रेषितातिहै अष्टमपदे आक्षेपं समाधानं चाह चारे आक्षेनणु गुरुआणाकहणे, कह पच्छित्तं हवे विणीअस्स। भण्णइ जिणसुअभत्तीविरहाविणयाओ जंभणिअं९/ पप्रतिवच_ 'नणु'त्ति । ननु गुरुभिर्युष्मदन्तिके प्रेषितोऽहमिति गुर्वाज्ञा कथने आज्ञाप्रियत्वेन शिष्यस्य विनीतत्वमेव भवेत् , तथा च सी कल्पसादाविनीतस्य तस्य कथं प्रायश्चित्तं स्यात् ? प्रत्युत विनीतत्वप्रत्यया शुद्धिरेव स्यादित्यर्थः, 'भण्यते अनोत्तरं दीयते-जिनश्रुत | क्ष्यं च भक्तिः-जिनाज्ञापुरस्कारलक्षणा तद्विरहलक्षणो योऽविनयस्ततः प्रायश्चित्तम् , गुर्वाज्ञयैवाध्यापनप्रवृत्तौ प्रवृत्त्यर्थं जिनाज्ञानपेक्षणे तदपुरस्कारात्तत्र गौरवबुद्ध्यभावेन भक्तिभङ्गात् , जिनविनयाऽपूर्वकस्य गुरुविनयस्य च लौकिकतुल्यत्वेनाकिञ्चित्कर- ॥१३०॥ त्वादिति । अत्र सम्मतिमाह-'यत' यस्माद् भणितं कल्पभाष्ये ॥९॥ For Private & Personal use only SECRUSSROSAROO Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणाओ जिणिंदाणं, ण हु बलिअतराउ आयरिअआणा। जिणआणाइपरिभवो, एवं गवोअविणओ NI 'आणाओत्ति । जिनेन्द्ररेव भगवद्भिरुक्तम् , यथा-निर्दोषः सूत्रार्थनिमित्तं यः समागतस्तस्य सूत्रार्थों दातव्यौ, न च । जिनेन्द्राणामाज्ञायाः सकाशादाचार्याणामाज्ञा बलीयस्तरा, अपि चैवमाचार्यानुवृत्त्या श्रुते दीयमाने जिनाज्ञायाः परिभवो। भवति । तथा प्रेषयत उपसम्पद्यमानस्य प्रतीच्छतश्च त्रयाणामपि गर्वो भवति, तीर्थकृतां श्रुतस्य चाविनयः कृतो भवति ॥ १०॥ इदं च मासलघुकं प्रायश्चित्तं जिनाज्ञायाः पुरस्काराभावलक्षणं परिभवमभिप्रेत्योच्यते । यस्तु गुर्वाज्ञां पुरः कुर्वन् र जिनाज्ञायाः सकाशाद्गुर्वाज्ञायामधिकष्टसाधनतालक्षणं बलवदपायहेतुभङ्गप्रतियोगित्वलक्षणं वा बलिकत्वमेव जानाति स पुनरद्रष्टव्यमुखोऽधिकतरदोष एवेत्याह गुरुबलियत्तमईए, जो उ जिणासायणं कुणइ मूढो ।सो गुरुतरपच्छितं, पावइ जमिणं सुए भणिअं॥११॥ है 'गुरुवलियत्तत्ति । गुरुबलिकत्वमत्या यस्तु मूढो जिनाशातनां करोति स गुरुतरप्रायश्चित्तं प्रामोति, भक्त्यभावापेक्ष- प्रतिषेधकादयाऽऽशातनाया महादोषत्वात् , यदिदं 'श्रुते' जिनप्रवचने भणितम् ॥ ११ ॥ दीनां पार्श्वेतित्थयर पवयण सुअं, आयरिशं गणहरं महिड्डीयं । आसायंतो बहुसो, आभिणिवेसेण पारंची॥१२॥ तिष्ठतामु__तित्थयर'त्ति । तीर्थडर प्रवचनं श्रतमाचार्य गणधरं महर्जिकमाशातयन बहशः बहवारम 'अभिनिवेशेन' असण त्सर्गापवाSI'पाराञ्चिकः' पाराश्चिकप्रायश्चित्तभागू भवति ॥ १२ ॥ प्रतिषेधकादीनां पार्श्वे तिष्ठति विधिमाह देन विधिः Jain Edt emains For Private & Personal use only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M AUSAM गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लास: स्वोपज्ञवृ- अण्णं अभिधारेउं, अप्पडिसेहाइगच्छमणुपत्ते । दोण्हमुवालंभेणं, थेरा सम्म ववहरंति ॥ १३ ॥ | त्तियुतः तृतीयो _ 'अण्णं'ति । 'अन्यम्' आचार्यमभिधार्य अप्रतिषेधकादीनाम् , आदिना पर्षद्वदादिग्रहः, गच्छम् 'अनुप्राप्ते' अभिधार- यितरि 'स्थविराः' कुलस्थविरा गणस्थविराः सङ्घस्थविरा वा एतद्व्यतिकरं जानाना द्वयोरपि तयोः आचार्यप्रतीच्छकयोरु॥१३॥ पालम्भन कस्मात्त्वयाऽयमात्मपार्थे स्थापितः कस्माच्च त्वमन्यमभिधार्यात्र स्थित इत्येवंरूपेण कृत्वा 'सम्यग' यथासूत्रं व्यव हरन्ति । एवमुपालम्भपूर्वकं प्रतीच्छकं निर्भय॑ तत् सचित्तादिकं सर्वमभिधारितस्याचार्यस्य प्रयच्छन्तीत्यर्थः ॥ १३ ॥ Pइदं तावदुत्सर्गत उक्तम् । अथापवादाभिप्रायेणाह पडिसेहग परिसिल्ले, एसा आरोवणा उ अविहीए। वितिअपए ते दो वि हु, सुद्धा अपडिच्छगो विहिणा॥ | 'पडिसेहगत्ति । 'प्रतिषेधके' प्रतिषेधं कुर्वाणे ‘पर्षद्वति' च पर्षन्मीलनं कुर्वाणे एपाऽऽरोपणाऽविधिना भणिता, विधिना : तु कारणे कुर्वाणस्य न प्रायश्चित्तम् , तथा चाहद्वि-तीयपदे विधिना (तो)द्वावपि प्रतिषेधकपर्षद्वन्तौ शुद्धौ प्रतीच्छकश्च, इयमत्र भावना-यानभिधारयन् प्रतीच्छको व्रजति ते आचार्या यदि पार्श्वस्थादिदोषदुष्टा यच्च श्रुतमसावभिलषति तद् | यदि तस्य प्रतिषेधकस्यास्ति ततः प्रथमं साधुभिस्तं भाणयन्ति मा तत्र व्रजेति, पश्चात्स्वमुखेनापि भणन्ति पूर्वोक्तेन वा शिष्यादिव्यापारणप्रयोगेण वारयन्ति, न चैवं प्रतिषेधकत्वं कुर्वतस्तस्य दोषः, यत्पुनः सचित्तादिकं प्रतीच्छकेनागच्छता लब्धं तदभिधारिताचार्याणां ददाति न पुनः स्वयं गृह्णाति । द्वितीयपदे तु यद्वस्त्रादिकमचित्तं तदशिवादिभिः कारणैः -SCALA ॥१३१॥ Jain Education Intematona For Private Personal Use Only ( Dinelibrary.org Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वगतं काला दिग्बन्धं धमाणो ग ASSOCIAL |स्वयमलभमानो न प्रेषयेदपि । अथवा यावदुपयुज्यते तावद्गृहीत्वा शेषं तेषां समर्पयेत् , यश्च तेन शैक्ष आनीतः४ स परममेधावी तस्य च गच्छे नास्ति कोऽप्याचार्यपदयोग्यः, यच्च तस्य पूर्वगतं कालिकश्रुतं वा समस्ति तस्यापरो ग्रहीता| नास्तीति तयोर्व्यवच्छेदं च ज्ञात्वा स्वयमेव तस्यात्मीयं दिग्बन्धं कुर्यात् न तु प्रागभिधारितानां पायें प्रेषयेत् । तथाऽऽचार्यो ४ायः स्वयमेकाकी शिष्या वा मन्दधर्माणो गुरुव्यापारं न वहन्ति तदा संविग्नमसंविग्न वा यं कञ्चन सहायं गृह्णन् पर्षद्वत्त्व मपि कुर्वाणो न दोषभाक् । श्राद्धा वा मन्दधर्माणो न वस्त्रपात्रादि प्रयच्छन्ति ततो लब्धिसम्पन्नं शिष्यं यं वा तं वा परिगृहन्न दोषभाक् । दुर्भिक्षादिकं वा कालं दीर्घमध्वानं वा प्राप्य यांस्तानुपग्रहकारिणः शिष्यान् परिगृह्णन्नदुष्टः । एवं पर्षद्वत्त्वं कुर्वन् प्रतीच्छकस्य सचित्तादिकमभिधारितान्तिके प्रेषयेत् , पूर्वोक्तकारणे वा सञ्जाते स्वयमपि गृह्णीयात् । प्रतीच्छकोऽपि | यमाचार्यमभिधार्य व्रजति तं कालगतं श्रुत्वा यद्वा यत्र गन्तुकामस्तत्रान्तराऽशिवादीनि श्रुत्वा प्रतिषेधकस्य पर्षद्वतोऽन्यस्य वा पार्थे प्रविशन् शुद्ध इति ॥ १४ ॥ अत्राभाव्यानाभाव्यविशेष विभणिषुराहदुविहो सो उ वियत्तो, अवियत्तो चेव होइ वच्चंतो। मग्गिल्लेऽणचंतियलाभो वत्तस्स पुरिमम्मि ॥१५॥ 'दुविहोत्ति । स च व्रजन प्रतीच्छको द्विविधो व्यक्तोऽव्यक्तश्च । तत्राव्यक्तो द्विधा-श्रुतेन वयसा च, श्रुतेनागीतार्थः, वयसा षोडशवर्षाणामाग् वर्तमानः, तद्विपरीतो व्यक्तः । अत्र व्यक्ताव्यक्ताभ्यां चतुर्भङ्गी भवति-श्रुतेनाप्यव्यक्तो वयसाऽप्यव्यक्तः १, श्रुतेनाव्यक्तो वयसा व्यक्तः २, श्रुतेन व्यक्तो वयसाऽव्यक्तः ३, श्रुतेन व्यक्तो वयसाऽपि व्यक्तः ४ इति। अत्र चाचार्यैः पूर्यमाणेषु साधुषु व्यक्तस्यापि सहाया दातव्याः किं पुनरितरस्य ?इति स्थितिः। ते च द्विविधा भवन्ति 3545525A4%2555 For Private Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतियुतः तृतीयो ॥ १३२ ॥ आत्यन्तिका अनात्यन्तिकाश्च । आत्यन्तिका नाम ये तेन सार्द्धं तत्रैवासितुकामाः ये तु तं मुक्त्वा प्रतिनिवर्त्तिष्यन्ते तेनात्यन्तिकाः । तत्रानात्यन्तिकसहायलब्धिजनितो लाभः 'मग्गिल्ले'त्ति यस्य सकाशात् प्रस्थितस्तस्मिन्नात्मीयाचार्ये व्रजति । व्यक्तस्य स्वलब्ध्युत्पादितो लाभश्च 'पुरिमे' यस्याचार्यस्याभिमुखं व्रजति तस्मिन् पुरोवर्त्तिन्यभिधारिते आचार्ये ॥ १५ ॥ खेत्तविवज्जिअमचं तिएसु लद्धं च गच्छइ पुरिले । मग्गिलेऽणचंतिय सहिओ जा णऽपिओऽवत्तो ॥ १६ ॥ 'खेत्तविवज्जिअ मिति । आत्यन्तिकेषु सहायेषु सत्सु लब्धं च तेन सचित्तादिकं 'पुरिल्ले' अभिधारिताचायें गच्छति, किम्भूतम् ? ' क्षेत्रविवर्जितम्' परक्षेत्रलाभरहितम्, परक्षेत्रे लब्धं तु क्षेत्रिकस्यैवाभवतीत्यर्थः । अव्यक्तस्य तु नियमेनैव सहाया दीयन्ते, ते च यस्यानात्यन्तिकास्तं तत्र नीत्वा निवर्त्तन्त इति यावत्तत्सहितोऽव्यक्तो यावन्नार्पितो भवति तावत्तेन तैश्च लब्धं 'मग्गिले' आत्मीयाचार्ये गच्छति । परक्षेत्रलाभस्तु क्षेत्रिकस्यैव । यस्य चात्यन्तिकाः सहायास्तैस्तेन च लब्धमभिधारितस्यैवाभाव्यमिति ॥ १६ ॥ एगोऽणुग्गहखित्ते, लभइ सचित्तं तयं तु पुरिमस्स । वच्चंतम्मि गिलाणे, साहारणमागयाण भवे ॥१७॥ 'गो'ति । द्वितीयपदे खल्वपूर्यमाणेषु साधुषु श्रुतेन वयसा च व्यक्तस्य सहायान्न दद्यादप्याचार्यः, तस्य व्रजिकादावप्रतिबध्यमानस्योपधिर्नोपहन्यते, अन्यथा तूपहन्यते स चैको व्रजन्ननवग्रहेऽन्याचार्यावग्रहरहिते क्षेत्रे यत् सचित्तं लभते तत् 'पुरिमस्य' अभिधारिताचार्यस्याभवति । योऽसौ ज्ञानार्थं व्रजति स द्वौ त्रीन् वाऽऽचार्यान् कदाचिदभिधारयेदेतेषाम गुरुतत्त्वविनिश्वयः ल्लासः ॥ १३२ ॥ nelibrary.org Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यतरस्य यथारुच्युपसम्पदं ग्रहीष्यामीति, स चान्तरा ग्लानो जातस्ततो ब्रजति ग्लाने सत्यस्मानभिधार्यागच्छन् साधुः पथि ग्लानो जात इति श्रुतवतां तद्गवेषणाय द्विच्या (त्रा)दीनामभिधारिताचार्याणां समागतानां साधारणं तल्लब्धं सचित्तादि भवति । यदि चैक एवागतस्ततोऽनागतस्य चतुर्गुरु न च किञ्चिदसौ लभते, यस्तं गवेषयितुमागतस्तस्य सर्वमाभवति, कालगतेऽपि तत्र गवेषयितुमागतस्यैवाभवति नेतरेषाम् । अथासौ विपरिणतस्ततो यस्य विपरिणतः स न लभते, यत्पुनः सचित्तादिकमभिधारणभावे लब्धं पश्चाद्विपरिणतस्तदविपरिणते भावे लब्धमभिधार्यों लभते न तु विपरिणत इति दृश्यम् ॥१७॥ खित्तम्मि खित्तिअस्सा, वाहिं पुण परिणओ पुरिल्लस्स।आसज्ज विपरिणाम, कहणेऽणेगाओ मग्गणया ॥ 'खित्तम्मित्ति । पथि गच्छतः सहायो मिलितो मिथ्यादृष्टिर्यदि क्षेत्रे' साधुपरिगृहीतक्षेत्रे ‘परिणतः' प्रव्रज्याऽभिमुखीभूत-12 स्तदा क्षेत्रिकस्याभवति । क्षेत्राद्वहिः परिणतस्तु 'पुरिल्लस्स' तस्यैव साधोराभवति । विपरिणाममासाद्य कथने त्वनेका मार्गणा भवन्ति । यदि धर्मकथी ऋजुतया कथयति तदा क्षेत्रे परिणतः क्षेत्रिकस्य, अक्षेत्रे परिणतस्तु धर्मकथकस्याभवति । ४ अथ विपरिणते भावे रागेण न कथयति यदा क्षेत्रान्निर्गतो भविष्यति तदा कथयिष्यामि यतो मे आभवतीत्येवं क्षेत्रनिर्ग तस्य कथनेऽपि परिणतस्य क्षेत्रिकस्यैवाभाव्यत्वमिति विभाषा कर्त्तव्येत्यर्थः ॥ १८ ॥ वीसजिअम्मि एवं, लहुअं अविसज्जिए अआणाई। अवि य पडिच्छंताणं,लहुआ चउरो इमोअविही १९/ 'वीसजिअम्मित्ति। एवमेष विधिर्गुरुणा विसर्जिते शिष्ये मन्तव्यः। 'अविसर्जिते' द्वितीयवारमनापृच्छय गच्छति मास गुरुत. २३ Jain Education For Private Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवृ-लघु आज्ञादयश्च दोषाः, अपि च तमविधिनिर्गतं प्रतीच्छतां चत्वारो लघुकाः सचित्तादिकं च ते न लभन्ते; एषोऽविधिः गुरुतत्त्वत्तियुतः ॥ १९॥ अयं पुनर्विधिरित्याह विनिश्चयः तृतीयोपरिवारपूअहेडं, अविसज्जंता ममत्तदोसा वा । अणुलोमगिरा गज्झा, दुक्खं खु गुरुं विमोत्तुं जे ॥२०॥ | ल्लासः ॥१३३॥ | 'परिवार'त्ति । परिवारहेतोः-आत्मनः परिवारनिमित्तं पूजाहेतोः-बहुभिः परिवारितः पूजनीयो भविष्यामीति धिया | ज्ञानोपसंप'ममत्वदोषाद्वा' मम शिष्योऽन्यस्य पार्चे गच्छतीत्येवंरूपादविसर्जयन्तो गुरवः 'अनुलोमगिरा' अनुकूलवाचा 'ग्राह्या दथै गच्छतां का विधिरुप्रज्ञापनां ग्राहणीयाः। दुःखं खलु गुरून् विमोक्तुम् , परमोपकारित्वान्न ते यतस्ततो मोक्तुं शक्या इति भावः। ततः प्रथमत एव गुरून् विधिनाऽऽपृच्छय गन्तव्यमिति ॥ २० ॥ आपृच्छायामेव विधिमाह | त्सर्गतः नाणम्मि उ पक्खतिगे, सूरिउवज्झायसेसगापुच्छा । इकिक्के पंचदिणे, अहवा पक्खेण इक्किक्के ॥ २१॥ गुर्वाप्रच्छन । 'नाणम्मि उत्ति । ज्ञानार्थ गच्छता त्रीन पक्षान् सूरिणाम्-आचार्याणामुपाध्यायानां शेषसाधूनां चापृच्छा कर्त्तव्या, विधिः एकैकस्मिन् पञ्चदिनानि यावत् । प्रथमपक्षे पञ्चदिवसानाचार्यान् प्रथममापृच्छति, यदि ते न विसर्जयन्ति तदा पञ्चदिवहै सानुपाध्यायानापृच्छति, तेऽपि यदि न विसर्जयन्ति शेषसाधवस्तदा पञ्चदिवसान् प्रष्टव्याः, एवं द्वितीये तृतीये च पक्ष ॥१३३ इत्येकः पक्षः । अथवेति पक्षान्तरे, एकैकमाचार्यादिकं निरन्तरं पक्षणापृच्छेत, एवमपि यदि न विसर्जयन्ति ततोऽवि-IN सर्जित एव गच्छतीति द्रष्टव्यम् ॥ २१ ॥ Jain Education international Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपडिच्छणम्मि लहुआ, , विहिणा समुवागयस्स एएणं । एगाइकारणागयपडिच्छणे हुंति चउगुरुआ ॥२३॥ ८ ‘अपडिच्छणम्मि’त्ति । एतेन विधिना समुपागतस्य प्रतीच्छकस्याप्रतीच्छने लघुकाश्चत्वारः प्रायश्चित्तम् । एकादिकारणागतस्य प्रतीच्छनेऽपि चत्वारो गुरुकाः, तानि चेमानि – एकाकिनमाचार्य मुक्त्वा स समागतः, अथवा तस्याचार्यस्य पार्श्वे ये तिष्ठन्ति तेऽपरिणताः - आहारवस्त्रपात्रशय्यास्थण्डिलानामकल्पिका इत्यर्थः, तं मुक्त्वा स समागतः, अथवा स आचार्योऽल्पाधारस्तमेव दृष्ट्वा सूत्रार्थवाचनां ददाति, स्थविरो वा स आचार्यस्तद्गच्छे वा सर्वे साधवः स्थविरास्तस्य स एव वैयावृत्यकर्त्ता, ग्लानो वा बहुरोगी वा स आचार्यः, ग्लानो नामाधुनोत्पन्नरोगः, बहुरोगी नाम चिरकालं बहुभिर्वा रोगैरभिभूतः, अथवा शिष्यास्तस्याचार्यस्य मन्दधर्माणो न गणसामाचारीं पालयन्ति, तादृशमाचार्य मुक्त्वाऽऽगतः, गुरुणा समं प्राभृतं कृत्वा वा समागत इति एतादृशमाचार्य व्युत्सृज्य हि गमनं कर्त्तुं न कल्पते । यदि च गच्छति तदैकं ग्लानं वा मुक्त्वा शिष्यस्य प्रतीच्छकस्य वा समागतस्य चतुर्गुरुकाः । य आचार्यः प्रतीच्छति तस्यापि चतुर्गुरु, प्राभृते शिष्यप्रतीच्छकयोचतुर्गुरुकमेव, आचार्यस्य पञ्चरात्रिन्दिवच्छेदः । शेषेष्वपरिणतादिषु पदेषु शिष्यस्य चतुर्गुरु, प्रतीच्छकस्य चतुर्लघु-आचायस्यापि शिष्यं प्रतीच्छतः । एतेषु चतुर्गुरु प्रतीच्छकं प्रति, प्रतीच्छतश्च चतुर्लघुकमिति विशेषः ॥ २२ ॥ अथ ज्ञानार्थं त्रीन् पक्षानापृच्छा कर्त्तव्येत्यत्रापवादमाह वितियपदेऽसंविग्गे, आगाढे कारणे य संविग्गे । गमणमणापुच्छाए, कप्पइ गाउं सहावं च ॥ २३ ॥ ) ज्ञानार्थं ग च्छता मप वादतो विधिः Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयो ल्लासः ॥१३४॥ "बितियपदेत्ति । 'द्वितीयपदे' अपवादाख्ये आचार्यादावसंविग्ने सति न पृच्छेदपि, 'संविग्ने अपेर्गम्यमानत्वात् संवि-1 |गुरुतत्त्व|ग्नेऽपि सति 'आगाढे कारणे' चारित्रविनाशकस्त्रीसंसर्गप्रभृतिके आत्मनः समुत्पन्ने सत्यनापृच्छयापि गच्छेत् , 'स्वभावं चा विनिश्चयः नैते पृष्टाः सन्तः कथमपि विसर्जयिष्यन्तीत्येवंरूपं गुरूणां ज्ञात्वाऽनापृच्छयाऽपि गमनं प्रकल्पते ॥ २३ ॥ अथाविसर्जितेन न गन्तव्यमित्यपवदतिअविसजिओ वि गच्छे, अज्झयणच्छेअपयइनाणेहिं । अविहिअणापुच्छागयपडिच्छदिसिबंधया एवं २४|| अविधि-अ. ___ 'अविसजिओ वित्ति । किमप्यध्ययनं व्यवच्छिद्यते, तस्य च तद्हणे सामर्थ्यमस्ति, गुरूणां चेदृशी प्रकृतिरस्ति नापृच्छाग| यदापृष्टाः सन्तो न चिरेणापि गन्तुमनुजानत इत्येवमध्ययनच्छेदप्रकृतिज्ञानाभ्यां कारणाभ्यामविसर्जितोऽपि गच्छेत्। तस्य शिष्यीअविध्यनापृच्छागतप्रतीच्छकतदानीतशैक्षप्रतीच्छनशिष्यीकरणनिषेधापवादे एनमेवातिदेशमाह-अविध्यनापृच्छागतप्रतीच्छादिग्बन्धावपि एवं' पूर्वगतकालिकानुयोगविच्छेदकारणेनैव ज्ञेयो, तदुक्तम्-'नाऊण य वुच्छेयं, पुबगए कालिआणुओगे|| तत्कारणं च य । अविहिअणापुच्छागय, सुत्तत्थविजाणओ वाए ॥ १॥ नाऊण य वुच्छेअं, पुबगए कालिआणुओगे य । सुत्तत्थजाण-18 गस्सा, कारणजाए दिसाबंधो ॥ २॥"त्ति ॥ २४ ॥ दिग्बन्धविषयमेव सविशेष सहेतुकमाहसेहे पडिच्छए वा, पुवायरिअस्स खित्तिआणं वा। दिति दलिअम्मि णाए, ममत्तहेउंदिसावंधं ॥२५॥ ॥१३४॥ 'सेहेत्ति । अव्यक्तेन ससहायेन लाभात् परक्षेत्रोपस्थितत्वाच्च पूर्वाचार्यस्य क्षेत्रिकाणां वाऽऽभाव्येऽपि शैक्षे प्रतीच्छके करणं Inin Education International For Private & Personal use only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANORMALAM वा 'दलिके' परममेधावित्वेनाचार्यपदयोग्ये ज्ञाते 'दिग्बन्धं ददति' स्वशिष्यत्वेन स्थापयन्ति 'ममत्वहेतोः' अस्माकमयमित्येभवभूतायाः स्वगच्छीयसाधूनां तस्य च परस्परं सज्झिलका वयमित्येवंभूताया वा ममत्ववुद्धेरर्थम् , इदमुपलक्षणम्-अनिबद्धः स्वयमेव कदाचिद्गच्छेत् , पूर्वाचार्येण वा नीयेतेत्येतद्दोषवारणार्थमपि दिग्बन्धं ददति ॥ २५॥ है आयरिए कालगए, परिअतम्मि तम्मि गच्छं तु । अपढ़ते य पढंते, भेआऽणेगा उ आभवे ॥ २६ ॥ मूलाचार्य A 'आयरिएत्ति। आचार्य कालगते सति 'तस्मिन् निबद्धाचार्ये तु गच्छं परिवर्तयति सति पठति अपठति चाभाव्येऽनेके कालगते प्र भेदा भवन्ति, तथाहि-नोदिता अपि गच्छसाधवो यदि न पठन्ति तदा प्रथमवर्षे कालगताचार्यसाधारणो लाभः, यत् तीच्छकाप्रतीच्छका उत्पादयन्ति तत्तस्यैवाभवति, यच्चेतरे गच्छसाधव उत्पादयन्ति तत्तेषामेवाभवतीतिभावः। द्वितीय वर्षे यत्क्षेत्रो- चार्ये गच्छ पसंपन्नो लभते तत्तेऽपठन्तो लभन्ते । तृतीये च वर्षे यत्सुखदुःखोपसम्पन्नो लभते तत्ते लभन्ते । चतुर्थे तु वर्षे कालगता- रक्षति आ चायशिष्या अनधीयाना न किञ्चिल्लभन्ते । तत्र क्षेत्रोपसम्पन्नलभ्यम्-अनन्तरपरम्परवल्लीबद्धा द्वाविंशति है पूर्वपश्चात्संस्तुताश्च पौत्रश्वशुरादयः, मित्राणि च सहजातकादीनि न तु दृष्टाभाषिताः। सुखदुःखोपसम्पन्नलभ्यं चैतदेव भाव्यविधिः मित्रवर्जम् , अयमपठतः शिष्यानधिकृत्य विधिरुक्तः । ये तु तेषां शिष्याः पठन्ति तानधिकृत्य पुनरयं विधिरुच्यते--काल-* गताचार्याणां हि चतुर्विधो गणो भवेत्-शिष्याः शिष्यिकाः प्रतीच्छकाः प्रतीच्छिकाश्च । एतेषां पूर्वोद्दिष्टपश्चादुद्दिष्टयोः संवत्स-2 रसङ्ख्यया एकादश गमा भवन्ति । पूर्वोद्दिष्टं यत्तेनाचार्येणोद्दिष्टं जीवसा सता, यत्पुनः प्रतीच्छकाचार्येणोद्दिष्टं तत्पश्चादुदिष्टम् । तत्र यदाचार्येण जीवता प्रतीच्छकस्य पूर्वमुद्दिष्टं तदेव पठन् प्रथमे वर्षे यत्सचित्तमचित्तं वा लभते तत्कालगताचा Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयो - ॥ १३५ ॥ Jain Educat र्यस्याभवतीत्येको विभागः १ । अथ पश्चादुद्दिष्टं पठति प्रतीच्छकस्ततः प्रथमसंवत्सरे यत्स चित्तादिकं लभते तत्प्रवाचयत आचार्यस्याभवतीति द्वितीयो विभागः २ । पूर्वोद्दिष्टं पश्चादुद्दिष्टं वा पठतः प्रतीच्छकस्य द्वितीये वर्षे सचित्तादिकं सर्वमपि प्रवाचयत आभवतीत्येष तृतीयो विभागः ३ । शिष्यस्य कालगताचार्येण प्रतीच्छकाचार्येण वा यदुद्दिष्टं भवेत्तदसौ पठन् यत्सचित्तादिकं लभते तत्सर्वं प्रथमे संवत्सरे कालगताचार्यस्याभवतीत्येष चतुर्थी विभागः ४ । शिष्यस्य पूर्वोद्दिष्टमधीयानस्य द्वितीये वर्षे सचित्तादिकं कालगताचार्यस्याभवतीति पञ्चमी विभागः ५ । पश्चादुद्दिष्टं पठतः शिष्यस्य द्वितीये वर्षे सचित्तादिकं प्रवाचयत आभवतीति षष्ठो विभागः ६ । पूर्वोद्दिष्टं पश्चादुद्दिष्टं वा पठति शिष्ये शिष्यादिकं तृतीये वर्षे सर्वमपि प्रवाचयत आभाव्यं भवतीति सप्तमो विभागः ७ । पूर्वोद्दिष्टं पठन्त्या शिष्यिकया प्रथमवर्षे लब्धं सचित्तादिकं कालगताचार्यस्याभवतीत्यष्टमो विभागः ८ । पश्चादुद्दिष्टमधीयानायां प्रथमवर्ष एव प्रवाचयत आभवतीति नवमो विभागः ९ । पूर्वोदिष्टं पश्चादुद्दिष्टं वा पठन्त्यां शिष्यिकायां सचित्तादिलाभो द्वितीये वर्षे प्रवाचयत आभवतीति दशमो विभागः १० । पूर्वोद्दिष्टं पश्चादुद्दिष्टं वा पठन्त्यां प्रतीच्छिकायां प्रथम एव संवत्सरे सर्वमपि प्रवाचयत आभवतीत्येकादशो विभागः १९ । इत्ययमेक आदेशः । द्वितीयः पुनरयम् - स खलु प्रतीच्छकाचार्यो गच्छसाधूनां कुलसत्को गणसत्कः सङ्घसत्को वा भवेत् । तत्र यदि कुलसत्कस्तदा त्रीन् संवत्सरान् शिष्याणां वाच्यमानानां सचित्तादिकं न गृह्णाति, ये 'पुनः प्रतीच्छकास्तेषां वाच्यमानानां यस्मिन्नेव दिने आचार्यः कालगतस्तदिवसमेव गृह्णाति । यदि च नायमेककुलसत्कः किन्तु गणसत्कस्ततः संवत्सरं शिष्याणां नापहरति सचित्तादिकम् । यस्तु कुलसत्को गणसत्को वा न भवति स नियमात्सङ्घसत्कः, स च षण्मा national गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः ॥ १३५ ॥ elibrary.org Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सान् शिष्याणां सचित्तादि न गृह्णातीति ॥ २६ ॥ अथ कियत्कालं प्रतीच्छकाचार्येण तत्र गच्छे ध्रुवं स्थेयम् ? कथं च मूलाचार्यगच्छस्थसाधूनां निर्माणविधिः? इत्याह गच्छे प्रतीवरिसतिगं ठाइ तहिं, तओ जहिच्छं ठिई अणिम्माणे । सकुले तिन्नि तियाई, गणे दुर्ग वच्छरं संघे॥२७॥च्छकाचा| 'वरिसतिगंति । स प्रतीच्छकाचार्यो वर्षत्रिकं 'तत्र' गच्छे नियमात्तिष्ठति, ततः 'यथेच्छं' यदीच्छा तदा तत्रैव तिष्ठत्य यस्यावश्यथवा नेति । यदि च वर्षत्रये प्रतीच्छकाचार्यसमीपे गच्छे कोऽपि निर्मातस्तदा सुन्दरम् । अथ वर्षत्रयात्परतः स निर्गतस्ते है स्थातव्यकावा गच्छीया एष साम्प्रतमस्माकं सचित्तादिकं हरतीति कृत्वा निर्गताः, न च निर्मातास्ततोऽनिर्माणे सति तेषामियर |लस्तद्गच्छस्थितिः-स्वकुले स्वकीयकुलसमवायं कृत्वा कुलस्थविरपार्थे उपस्थिताः सन्तस्तद्दत्तवाचनाचार्यद्वारा वारकेण वा दीयमानां साधूनां वाचनां गृह्णीयुः । कियत्कालम् ? इत्याह-'त्रीणि त्रिकाणि' नववर्षाणि यावत् , यद्येतावता कोऽपि निर्मातस्तदा सुन्द निर्माणरम् , अथैकोऽपि न निर्मातस्ततः कुलं सचित्तादिकं गृह्णातीति कृत्वा गणमुपतिष्ठन्ते, गणोऽपि वर्षद्वयं पाठयति न विधिश्च. सचित्तादिकं हरति, यद्येवमप्यनिर्मातास्ततः सङ्घमुपतिष्ठन्ते, सङ्घोऽपि वाचनाचार्य ददाति, स च संवत्सरं पाठयति; उक्तमर्यादएवं द्वादशवर्षाणि भवन्ति । यद्येवमेकोऽपि निर्मातस्तदा सुन्दरम् , अन्यथा पुनरपि कुलादिस्थविरेषूपतिष्ठमानास्तावन्तमेव लियाऽनिर्माकालं तेनैव क्रमेण पाठयन्ति, एवं चतुर्विंशतिवर्षाणि भवन्ति । एतावताऽपि कालेनानिष्पत्तौ तृतीयवारमप्यनेन क्रमेण तानामुपपाठयन्ति । एवमप्यवमाशिवदुर्मेधस्त्वादिकारणैरनिष्पत्ती कुलसमवाये कृते कुलस्थविरैरुपसम्पदाहयितव्या ॥ २७ ॥ कथमयमुपसम्पदं गृह्णाति? इत्याह विधिः Jain Ed an International Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञव- गुरुतत्त्व त्तियुतः तृतीयो॥१३६॥ ACCURRECASSAGARMALS सट्ठाणे पवज्जेगपक्खियस्सोवसंपयं कुणइ । छत्तीसाइकंतो, ममत्तगुरुभावलज्जगुणा ॥ २८ ॥ __'सहाणेत्ति । पत्रिंशद्वर्षातिक्रान्तः सन् प्रव्रज्यैकपाक्षिकस्योपसम्पदं करोति कुलस्थविरसंमताम् । तत्र प्रवज्यैकपा-1 विनिश्चयः ल्लास: क्षिका इमे-"गुरुसज्झिलओ सझंतिओ गुरुगुरू गुरुस्स वा णत्तू । अहवा कुलिच्चओ उप्पवजाएगपक्खीओ" ॥१॥ 'गुरुसज्झिलकः' गुरूणां सहाध्यायी पितृव्यस्थानीयः, 'सज्झन्तिकः' आत्मनः सब्रह्मचारी भ्रातृस्थानीयः, 'गुरुगुरुः पितामहस्थानीयः, गुरोः सम्बन्धी नप्ता प्रशिष्य आत्मनो भ्रातृव्यस्थानीयः, एते प्रव्रज्ययकपाक्षिकाः । अथवा 'कुलि-17 चओ'त्ति समानकुलोद्भवः प्रव्रज्यैकपाक्षिक इति ॥ अत्र च प्रव्रज्याश्रुताभ्यां चतुर्भङ्गी भवति-प्रव्रज्यैकपाक्षिकः श्रुतेन |च १, प्रव्रज्यया न श्रुतेन २, श्रुतेन न प्रव्रज्यया ३, न प्रव्रज्यया न श्रुतेन ४ इति । तत्र प्रथमतः प्रथमभङ्गे उपसम्प-IN त्तव्यम् , तदभावे तृतीये भङ्गे, यतः पूर्वाधीतं श्रुतं विस्मृतं सत तेषु सुखेनैवोज्वालयितुं शक्यते श्रुतेकपाक्षिकत्वादिति । तथा स्वस्थान उपसम्पदं कुर्यात् , किमुक्तं भवति?-श्रुतोपसम्पदं प्रतिपित्सोर्यस्य पार्थे श्रुतमस्ति तत्तस्य स्वस्थानम् , सुखदुःखार्थिनः स्वस्थानं यत्र वैयावृत्त्यकराः सन्ति, क्षेत्रोपसम्पदर्थिनो यदीये क्षेत्रे भक्तपानादिकं सुलभमस्ति, मार्गोपसम्पदर्थिनो यत्र मार्गज्ञः समस्ति, विनयोपसम्पदर्थिनो यत्र विनयकरणं युज्यते, एतानि स्वस्थानानि, एतदनतिक्रमेणैवोपसम्पद्रहणमीप्सितार्थहेतुरिति । अथवा स्वस्थानं नाम प्रव्रज्यया श्रुतेन च य एकपाक्षिकः तत्र प्रथममुपसम्पत्तव्यम्, पश्चात्कुलेन श्रुतेन चैकपाक्षिकस्य पार्थे, ततः श्रुतेन गणेन चैकपाक्षिकस्य समीपे, ततः श्रुतेनैकपाक्षिकस्य संनिधौ, ततः प्रव्रज्ययैक- ॥१३६॥ पाक्षिकस्य सकाशे, ततः प्रव्रज्यया श्रुतेन वाऽनेकपाक्षिकस्यापि समीप इति । ननु किमर्थमियं प्रव्रज्याकुलाद्यासन्नतरादि SCRECRUARCRACHAN For Private & Personal use only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAMACHAR क्रमेणोपसम्पत् ? इत्यत आह-ममत्व-कालानुभावेनात्मीयोऽयमिति परिग्रहलक्षणं गुरुभावः बहुमानबुद्धिः लज्जा च४ास्वीयकृत्याकरणे हीनतापत्तिलक्षणा तद्गुणात्-तत्कृतावश्योपकर्त्तव्यत्वाद्यनुग्रहात् ॥ २८ ॥ तदेव सविशेषमाह सवस्स वि कायवं, णिच्छयओ किं कुलं व अकुलं वा । संबंधो गुणहेऊ, तह वि हु थिरपीइहेउ त्ति॥२९॥ MI 'सबस्स वित्ति । निश्चयतः सर्वेण सर्वस्याप्यविशेषेण श्रुतवाचनादिकमात्मनो विपुलतरां निर्जरामभिलपता कर्त्तव्यं किं| कुलं वाऽकुल वा? इत्यादिविचारणया, तथापि ‘सम्बन्धः' कुलाद्यासन्नतरतादिलक्षणः 'स्थिरप्रीतिहेतुरिति’ पारतन्त्र्यधीनि-2 रासद्वाराऽऽलस्यनिवारकत्वेन निरन्तरावश्यकर्त्तव्यक्रियाऽविच्छेदाद्गुणहेतुरिति ॥ २९ ॥ एतदेव तन्त्रसंमत्या द्रढयतिदिसमणुदिसं व भिक्खू , इत्तु च्चिय एगपक्खिओ जुग्गो। धारेउं णिहिट्ठो, इत्तरिआवकहियं वा॥३०॥ __'दिसमणुदिसं वत्ति । 'इत एव सम्बन्धस्य स्थिरप्रीतिहेतुतया गुणहेतुत्वादेव एकः पक्षः प्रव्रज्यया श्रुतेन चास्यास्ती-18 कत्येकपाक्षिको भिक्षुः 'दिशम् आचार्यत्वलक्षणाम् 'अनुदिशं च' उपाध्यायत्वलक्षणाम् 'इत्वरां' कियत्कालभाविनी 'यावत्क थिकी च' यावत्कालभाविनी धारयितुं योग्यो निर्दिष्टः, यदुक्तं व्यवहारे द्वितीयोद्देशके-“एगपक्खिअस्स भिक्खुस्स कप्पति इत्तरिअं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, जहा वा तस्स गणस्स पत्तिअं सिय"त्ति, अस्यार्थःएकपाक्षिकस्य भिक्षोः कल्पते 'इत्वरां' कियत्कालभाविनीमुपलक्षणाद् यावत्कथिकीच दिशमनुदिशं वोद्देष्टुं वा धारयितुं वा, यथा वा तस्य गणस्य प्रीतिकं स्यात् तथा दिशमनुदिशं वोदिशेत् , किमुक्तं भवति?-भिन्नपाक्षिकमप्यपवादपदेन स्वगण For Private Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयो - ॥ १३७ ॥ प्रीत्याऽऽचार्यादिपदाध्यारोपितं कुर्यादिति । सापेक्षः खल्वाचार्यो जीवन्नेवाचार्य स्थापयति, यथा कालगतेऽपि तत्र गच्छो न सीदति; गणधरपदप्रायोग्याभावे प्रमादतो वाऽस्थापित एवाचार्ये कालगते इत्वर आचार्य उपाध्यायो वा स्थाप्यते, गच्छवृहत्तराणां च प्रकाश्यते — यावत्तत्र मूलाचार्यपदे मूलोपाध्यायपदे वाऽन्यो न स्थापितो भवति तावदेष युष्माकमाचार्य उपाध्यायो वा प्रवर्त्तक इति, तदुक्तम् - " गणधर पाङग्गासइ, पमायअट्ठाविए व कालगए । थेराण पगासंती, जावऽन्नो न ठाविओ गच्छे ॥ १ ॥ "त्ति । तस्य च द्विविधस्याप्येकपाक्षिकस्य दिग्बन्धः कर्त्तव्यः । तत्र प्रव्रज्याश्रुताभ्यां चत्वारो भङ्गा भवन्ति, एवं कुलस्य गणस्य सङ्घस्य च श्रुतेन सार्द्धं भङ्गा द्रष्टव्याः । तत्र प्रव्रज्यां कुलं गणं सङ्घ वाऽधिकृत्य प्रथमभङ्गवर्त्ती इत्वरो यावत्कथिको वा स्थापनीयः, तदभावे तृतीयभङ्गवतीं । यदि पुनर्द्वितीयभङ्गवर्त्तिनं चतुर्थभङ्गवर्त्तिनं वा स्थापयति तदा स्थापयितुश्चत्वारो गुरुकाः आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वानि, विराधना च गणभेदरूपा भवति । तथाहि श्रुतानेकपाक्षिकेत्वराचार्यस्थाने मोहरोगान्यतर चिकित्सां प्रदीर्घकालं कृत्वा समागतेन शङ्कितसूत्रार्थः पृष्टः, तस्य भिन्नवाचनाकत्वा| देव न लभ्यते, अभिनवग्रहणमपि गच्छसाधूनामत एव न भवतीति गच्छान्तरोपसम्पत्तौ प्रश्नहेतोर्गणभेदः स्यात् । यावत्कथिकस्यापि तादृशस्य स्थापनेऽयमेव दोषो भावनीयः । अथवा श्रुतानेकपाक्षिकोऽल्पश्रुतोऽप्युच्यते स च पृष्टः सन्न तमालापकं ददातीति गणान्तरे गत्वा पृच्छायां गच्छान्तरवर्त्तिन आचार्यास्तेनोत्पादितं सचित्तादिकं गृह्णन्ति, अगीतार्थानां न किञ्चिदाभाव्यमिति वचनात् । प्रव्रज्याऽनेकपक्षस्य च द्विविधस्यापि स्थापने गच्छसाधूनां तस्य च मिथो वहिर्भावव्यव| साये बहुकालेनापि परकीयत्वानिवृत्त्यध्यवसायात्कलहो गच्छभेदश्च भवति । अन्यतरचिकित्सादिकारणे च तृतीयभङ्गव गुरुतत्त्वविनिश्वयः लासः ॥ १३७ ॥ www.ainelibrary.org Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है दर्शनार्थभु यपि, तदभावे द्वितीयभङ्गवत्ती, तदभावे च चतुर्थभङ्गवर्त्यपि प्रकृत्या मृदुः समस्तगणसम्मतश्च स्थापनीय इति ॥ ३० ॥ है उक्तं ज्ञानार्थ गमनम् । अथ दर्शनार्थं गमनमाह पसंपद् तभिक्खुअबोडिअणिण्हयपण्णवणं कोविओ असहमाणो। दंसणदीवगहेडं, गच्छइ गच्छंतरं अहवा॥३१॥ द्विधिश्व IRI 'भिक्खुत्ति । भिक्षुकाः बौद्धाः, बोटिकाः-दिगम्बराः, निह्नवाः-वहव उत्सूत्रप्रलापिनस्तेषां प्रज्ञापना-स्वसिद्धा न्ततर्कोपन्यासरूपां स्वगुरूणां संसर्गदाक्षिण्येन तर्कग्रन्थाऽप्रवीणतया वा तूष्णीमवस्थाने 'कोविदः' कालिकपूर्वगतनिर्मातस्तर्कग्रहणशक्तिमानसहमानो दर्शनदीपकानि-सम्यग्दर्शनोज्वालनकारीणि यानि सम्मत्यादीनि तेषां हेतोर्गच्छान्तरं गच्छ-18 ति, अथवेति ज्ञानपक्षातिरिक्तपक्षोपन्यासे ॥ ३१ ॥ होउं वहुस्सुओ सो, विहिणा गच्छंतरम्मि संकेतो। परतित्थियणिग्गहओ, गुरुं कुसंगाओ मोएइ ॥३२॥ | 'होति । सः विधिना प्रागुक्ताऽऽपृच्छाविसर्जनादिलक्षणेन गच्छान्तरं सङ्क्रान्तः सम्मत्यादितर्कशास्त्राध्ययनेन बहुश्रुतो भूत्वा चिन्तयति खल्वेतत्-भिक्षुकादीनां स्वसिद्धान्तं शिर उद्घाख्य प्ररूपयतां सूरयो न किमपि ब्रुवते तत लोके परिवादो जातः-एते ओदनमुण्डाः किमपि न जानत इति, ततो गाढतरं जैनं शासनं श्राद्धाश्च तैरपभ्राज्यन्ते, ततः सूरीणामसामर्थेऽपि मया तेषां भिक्षुकादीनां निग्रहः कर्तव्य इति । अथवा तैर्भिक्षुकादिभिः स्थलिकायामाचार्यस्यापि लवण्टको निबद्धः, ततो मधुराहारलाम्पट्यात्सामर्थे सत्यपि न किश्चिदुत्तरं प्रयच्छतीत्येवं विचिन्त्याचार्यदर्शनं प्रागेव कृत्वा *5055- 5 - 65 For Private Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञव-धान्यस्यां वसतौ स्थित्वा वादमार्गकुशलां पर्षदं गृहीत्वा परतीथिकान्निरुत्तरीकृत्य निगृह्णाति, ततः 'कुसङ्गात्' परतीर्थिक- गुरुतत्त्वत्तियुतः संसर्गलक्षणाद्गुरुं मोचयति । यदि वादे पराजयेन कुपिताः सन्तो भिक्षुकादय आचार्यस्य तं वण्टं प्रतिषेधन्ति ततः सुन्द- विनिश्चयः तृतीयो- रमेव । अथ तत्र कोऽपि ब्रूयाद् , एतस्य को दोषश्चिरमनुमत एषोऽस्माकं मा पूर्वप्रवृत्तं दातव्यमस्य हापयतेति, तदा गुरोः लासः ६ प्रणामं कृत्वा एवं निवेदयति-शब्दहेतुशास्त्रादिकं मयाऽधीतं तव्यासङ्गतश्छेदसूत्रार्थो विस्मृत इत्यगीतार्थश्रवणनिषेधा॥१३८॥ यान्यत्र वसतौ वसामः, एवमन्यव्यपदेशेन तं निष्कासयति तस्या वसतेः । तस्माच्च क्षेत्राद्वहिनिर्गन्तुमनिच्छति च तस्मि-18 नाचार्येऽगीतार्थप्रज्ञापनां कृत्वाऽस्माकं क्षिप्तचित्तः साधरस्ति. तं वयमर्द्धरात्रौ वैद्यसकाशं नेष्यामः, स यदि नीयमानो हियेऽहं हियेऽहमित्यारटेत् ततो युष्माभिर्न किमपि भणनीयमित्यारक्षकादिनिवेदनपूर्व बह्वाख्यायिकाकथनादिजागरणनि-18 भरसुप्तं तं बहिर्नयतीति । निह्नवसंसर्गप्रतिषेधेऽपि बहुशः क्रियमाणेऽनभिलष्यमाणेऽयमेव विधिद्रष्टव्य इति ॥ ३२ ॥ उक्तं 31 दर्शनार्थ गमनम् । अथ चारित्रार्थमाहदाचारित्तटुं गमणं, देसायसमुत्थदोसओ दुविहं । एसणथीसुं पढम, गुरुम्मि गच्छे य विइयं तु ॥ ३३ ॥ चारित्रार्थ | 'चारित्तदृ'ति । चारित्रार्थ गमनं द्विविधम्-देशसमुत्थदोपनिमित्तमात्मसमुत्थदोपनिमित्तं च । तत्रैषणादोषस्त्रीदोषयोःTerma गमनम् प्रथमम् , गुरौ गच्छे च सीदति तु द्वितीयम् । तत्र यत्र देशे पुरःकर्मादय एपणादोषा यो वोदकप्रचुरो देशो यो वा परित्रा-18 | जिकाकापलिकीसिद्धपुत्रिकाद्याभिहमोहाभिः स्त्रीभिराकीर्णस्तत्र न गन्तव्यमेव साधुभिः, अशिवादिकारणैस्तत्र गमने तु ॥१३८॥ कार्यसमाप्ती संयमक्षेत्रे समागन्तव्यम् । यद्याचार्याः केनापि प्रतिबन्धेन न निगच्छेयुस्तत एको द्वौ बहवो वा सीदन्तो For Private & Personal use only - - Jain E lemting Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुमापृच्छय निर्गच्छन्ति । तत्रेमं विधिमाहुः-"दो मासे एसणाए, इत्थं वजिज्ज अट्ठ दिवसाई । गच्छम्मि होइ पक्खो, आयसमुत्थेगदिवसं तु॥१॥" एषणायामशुध्यमानायां यतना (नया) अनेषणीयमपि गृह्णन् द्वौ मासौ गुरुमापृच्छन् प्रतीक्षते, स्त्रीदोषेऽष्टौ दिवसान्, गच्छे सीदति पक्षम् , आत्मनः शय्यातर्यादौ प्रतिबन्धे च यदि संनिहितो गुरुस्तदा तदैवापृच्छय गच्छेद् अन्यथाऽपरसाधुनिवेदनपूर्व तदैव गच्छेदिति। अथ गुरुः शय्यातरीकल्पस्थिकादौ प्रतिबद्धः सारूपिकादि-I भावं प्राप्तस्तदा पूर्व स एवं भण्यते-युष्मद्विरहिता अनाथा वयम्, अतः प्रसीद, गच्छामोऽपरं क्षेत्रमिति, एवमुक्ते यदि नेच्छति तदा यस्यां स प्रतिबद्धः सा प्रज्ञाप्यते, अथ न तिष्ठति ततो विद्यामत्रादिभिरावय॑ते, तदभावे दानादिनाऽप्यानुकूल्यं संपाद्यते, गुरुश्च प्रागुक्तक्रमेण रात्रौ हियत इति ॥ ३३॥ भिक्खुम्मि इमं भणियं, विसेसिओ णियपयाण णिक्खेवा। होइ गणावच्छेइअआयरिआणंपिएस गमो॥ गणावच्छे| 'भिक्खुम्मित्ति । एतत्तावद्भिक्षावुक्तम् , तथा च कल्पसूत्रम्-"भिक्खू अ गणाओ अवकम्म इच्छिज्जा अन्नं गणंदकाचार्यउवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तिं वा थेरं वा गणिं वा गणहरं वा. योहपसंपगणावच्छेइयं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ से आपुछित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेअं वा अन्नं गणं द्विधेरतिदेउवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते अ से वितरिजा एवं से कप्पइ अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते असे णो|| वितरेज्जा एवं से णो कप्पइ अन्नं गणं उवसंपजित्ता णं विहरित्तए"त्ति । गणावच्छेदकाचार्ययोरप्येष एव गमो भवति, गुरुत. २४ 1केवलं निजपदयोगणावच्छेदकत्वाचार्यत्वयोनिक्षेपाद्विशेषितः-गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायैर्गणावच्छेदकत्वादिनिक्षेपपूर्व ग SAMACOCALCURE शनम् JainEducationa national For Private & Personal use only Lydinelibrary.org Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व. विनिश्चयः ल्लासः खोपजव-18णान्तरे गन्तव्यमित्यर्थः, तथा च सूत्रम्-"गणावच्छेइए गणाओ अवकम्म'इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरि- सियुतः दत्तए, कप्पइ से गणावच्छेइअस्स गणावच्छेइअत्तं णिक्खिवित्सा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, णो से कप्पइ अणा- तृतीयो- पुच्छित्ता आयरिसंवा जाव अपणं गणं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरिश्रवा जाव विहरित्तए, ते असे वितरंति एवं से कप्पति जाव विहरित्सए, ते असे णो वितरंति एवं से णो कप्पड़ जाव विहरित्तए । आयरि-I ॥१३९॥ अउवज्झाए गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं उवसंपन्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ से आयरियउवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता जाव विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता जाव विहरित्तए, ते य से वितरंति एवं से कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से णो वितरंति एवं से णो कप्पइ जाव विहरित्तए"त्ति ॥ ३४॥ निर्ग्रन्थीविषयमपि गम कल्पभाष्यगाथाभिरतिदिशन्नाहएसेव गमो णियमा, णिग्गंथीणं पि होइ णायवो। नाण? जो उणेई, सच्चित्त अणप्पिणे जाव ॥३५॥ _ 'एसेव'त्ति । 'एष एव' भिक्षुसूत्रोक्तो गमो निर्ग्रन्थीनामप्यपरं गणमुपसंपद्यमानानां ज्ञातव्यः, नवरं नियमेनैव ताः सस- हायाः । यः पुनर्ज्ञानार्थ ता आर्यिका नयति स यावदद्यापि न वाचनाचार्यस्यार्पयति तावत्सचित्तादिकं तस्यैवाभवति, अर्पितासु पुनर्वाचनाचार्यस्याभाव्यम् ॥ ३५ ॥ कः पुनस्ता नयति ? इत्याहपंचण्हं एगयरे, उग्गहवजं तु लहइ सञ्चित्तं । आपुच्छ अट्ठपक्खे, इत्थीसत्थेण संविग्गे ॥ ३६ ॥ निर्ग्रन्थ्युपसंपद्विध्यतिदेशः ॥१३९॥ For Private & Personal use only Linelibrary.org Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** ROGAS * 'पंचण्डं ति। 'पञ्चानाम्' आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकानामेकतरः संयतीनयति । तत्र च सचित्तादिक परक्षेत्रावग्रहवर्ज स एव लभते । निर्ग्रन्थी च ज्ञानार्थं व्रजन्ती अष्टौ पक्षानापृच्छति, अत्राचार्यमेकं पक्षमापृच्छति, यदि न विसर्जयति तत उपाध्यायं वृषभं गच्छं चैवमेव पृच्छति; संयतीवर्गेऽपि प्रवर्तिनीगणावच्छेदिकाभिषेकाशेषसाध्वीयथाक्रममेकै पक्षमापृच्छति । ताश्च स्त्रीसार्थेन समं संविग्नेन परिणतवयसा साधुना नेतव्याः॥ ३६॥ एवं तावत्केवलोपसम्पदर्थं गणान्तरसङ्क्रमणमुक्तम् । अथ संभोगार्थं तदुच्यते संभोगपच्चयं पि हु, संकमणं होइ कारणतिएणं। सुत्तत्थदाणकिरिया, सीअणओ इत्थ चउभंगो॥३७॥ RI 'संभोगपञ्चयं पि हुत्ति । सम्भोगः-एकमण्डल्यां समुद्देशनादिरूपस्तत्प्रत्ययमपि-तन्निमित्तमपि 'सङ्क्रमणं' गणान्तरग- मनं 'कारणत्रयेण' ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणेन भवति, तत्र ज्ञानार्थ दर्शनार्थं वा यस्योपसम्पदं प्रतिपन्नस्तस्मिन् सूत्रार्थदानादौ सीदति गणान्तरसङ्क्रमणं भवति, विधिश्च तत्र पूर्वोक्त एव । चारित्रार्थं तु यस्योपसम्पदं गृहीतवांस्तस्य चरणकर णक्रियायां सीदन्त्याम् , अत्र च चतुर्भङ्गी भवति-गच्छः सीदति नाचार्यः १, आचार्यः सीदति न गच्छः २, गच्छोडदाप्याचार्योऽपि सीदति ३, न गच्छो नाप्याचार्यः ४ इति । अत्र प्रथमभङ्गे गच्छे सीदति गुरुणा स्वयं वा नोदना कर्त्तव्या, कथं गच्छः सीदेत् ? इति चेदुच्यते-साधवः प्रत्युपेक्षणां काले न कुर्वन्ति, न्यूनातिरिक्तादिदोषैर्वा विपर्यासेन प्रत्युपेक्षन्ते, गुरुग्लानादीनां वा न प्रत्युपेक्षन्ते, निष्कारणं दिवा त्वग् वर्त्तयन्ति, दण्डकं निक्षिपन्त आददतो वा न प्रत्युपेक्षन्ते, न वा प्रमार्जयन्ति, दुष्प्रेक्षितं वा कुर्वन्ति, यथार्ह विनयं न प्रयुञ्जते, शय्यातरपिण्डं भुञ्जते, उद्गमाद्यशुद्धं गृह्णन्ति, एवमा संभोगार्थमुपसंपत तद्विधिश्च * * For Private & Personal use only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लास: स्त्रोपज्ञवृदिकारणैर्गच्छः सीदेदिति । द्वितीयभङ्गे सीदन्तमाचार्य स्वयं वा गणेन वा नोदयति । तृतीयभङ्गे गच्छाचार्यों द्वावपि त्तियुतः सीदन्तौ स्वयमेव नोदयति, ये वा तत्र न सीदन्ति तैनॊदयति, साध्यासाध्यमृदुमध्याधिसाध्यादिभेदेनानुलोमादिवाग्भङ्गया तृतीयो- यथा गुणो भवति तथा नोदयेत् । चतुर्थभङ्गस्तु शुद्धः । यस्तु गच्छमाचार्यमुभयं वा सीदन्तं स्वयं भणन्नन्यैश्च भाणयन्नेवं जानाति-एते भण्यमाना अपि नोद्यमं करिष्यन्ति तदोत्कर्पतः पक्षमेकं तिष्ठति, गुरुं पुनः सीदन्तं लज्जया गौरवेण वा ॥१४०॥ जानन्नपि पञ्च त्रीन् वा दिवसानभणन्नपि शुद्धः। अथ नोद्यमानो गच्छो गुरुरुभयं वा भणेत्-तव किं दुखम् ?, यदि वयं सीदामस्तदा वयमेव दुगतिं यास्यामः, तदेवंविधेऽसदहे तेषां परिणते परित्यागो विधेयस्ततश्चान्यं गणं सामति ॥ ३७॥ तत्रापि चतुर्भङ्गीव्यवस्थितिमाहसंकमणे चउभंगो, पढमे आलोइअम्मि संसुद्धो। बितियम्मि बहुद्दोसा, जंभणियं कप्पभासम्मि॥३८॥ _ 'संकमणेत्ति । 'सङ्क्रमणे' गच्छान्तरगमने चत्वारो भङ्गाः, तथाहि-संविग्नः संविग्नं गणं सङ्कामति १, संविग्नोऽसंविग्नम् २, असंविग्नः संविग्नम् ३, असंविग्नोऽसंविग्न ४ मिति । तत्र प्रथमभङ्गे आलोचितः सन् संशुद्धः। इयमत्र व्यवस्थाहागीतार्थोऽगीतार्थो वा संविग्ने गच्छे समागच्छन् यतो दिवसात्संविग्नेभ्यः स्फिटितस्तदिवसादारभ्य सर्वमप्यालोचयति, आलोचिते च शुद्धः। नवरं यथाकृताल्पपरिकर्मसपरिकर्मभेदेन त्रिविधस्योपधेर्मार्गणा कर्त्तव्या, सा चेयम्-यदि गीतार्थो शाजिकादिष्वप्रतिबद्ध आयातस्तत उपधेरुपघातो न भवति न च प्रायश्चित्तम् , अगीतार्थस्यापि जघन्यतः श्रुतीघनियुक्ति कस्याप्रतिबध्यमानस्य नोपधिरुपहन्यते, द्वयोगीतार्थयोगीतार्थविमिश्रयो व्रजतोजिकादिषु प्रतिबध्यमानयोरपि नोप DOCUMEROSCOUS RECCRECTORRORE ॥१४॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिरुपहन्यते न चारोपणा । एवमेकोऽनेके वा विधिना समागता आलोचनादानेन शुद्धाः, यथाकृतादिकमुपधिं वास्तव्ययथाकृतादिना मीलयन्ति, वास्तव्यानां यथाकृताभावे आगन्तुकयथाकृतं वास्तव्याल्पपरिकर्मभिर्मीलयति, माऽसावमीलितः सन्नगीतार्थस्य मदीय उपधिरुत्तमसाम्भोगिकोऽतोऽहमेव सुन्दर इत्येवं गौरवकारणं भवेदिति । गीतार्थो यद्यगौरवी तदा तदीयो यथाकृतः प्रतिग्रहो वास्तव्ययथाकृताभावेऽल्पपरिकर्मभिः सह न मील्यते किन्तूत्तमसाम्भोगिकः क्रियते । यस्तु |गीतार्थोऽपि गौरवं करोति तस्य यथाकृतो वास्तव्याल्पपरिकर्मभिः सह मील्यते, यदि यथाकृतपरिभोगेन परिभुज्यते तदा केनाऽप्यजानताऽल्पपरिकर्मणा समं मेलितं दृष्ट्वा स गीतार्थोऽधिकरणं कुर्यात् , किमर्थ मदीय उत्कृष्टोपधिरशुद्धेन सह मीलित इति, अप्रत्ययो वा शैक्षाणां भवेदू-अयमेतेषां सकाशादुद्यतविहारी येनोपधिमुत्कृष्टपरिभोगेन परिभुड़े, एते हीनतरा इति । 'द्वितीये' संविग्नेऽसंविग्नगच्छं सङ्क्रामति बहवो दोषा यद्भणितं कल्पभाष्ये ॥ ३८॥ सीहगुहं वग्धगुहं, उदहिं च पलित्तगं च जो पविसे। असिवं ओमोयरिअं, धुवं से अप्पा परिच्चत्तो॥३९॥ | ‘सीहगुहंति । सिंहगुहां व्याघ्रगुहां 'उदधि' समुद्रं प्रदीप्तं वा नगरादिकं यः प्रविशति अशिवमवमौदर्य वा यत्र देशे * तत्र यः प्रविशति तेन ध्रुवमात्मा परित्यक्तः ॥ ३९॥ चरणकरणप्पहीणे, पासत्थे जो उ पविसए समणो।जयमाणए अजहिउं, सो ठाणे परिचयइ तिणि४०| 'चरणकरणत्ति । एवं सिंहगुहादिस्थानीयेषु चरणकरणप्रहीणेषु पार्श्वस्थेषु यः श्रमणः 'यतमानान्' संविग्नान् ‘प्रहाय' JainEducation international For Private & Personal use only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - स्वोपज्ञवृ- त्तियुतः ___ तृतीयो- ॥१४१॥ RENCCCC परित्यज्य प्रविशति स मन्दधर्मा त्रीणि स्थानानि' ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाणि परित्यजति । अपि च सिंहगुहादिप्रवेशे एक-2ीगुरुतत्त्वभविकं मरणं प्राप्नोति पार्श्वस्थेषु पुनः प्रविशन्ननेकानि मरणानि प्राप्नोति ॥ ४० ॥ विनिश्चयः एमेव अहाछंदे, कुसीलओसन्ननीअसंसत्ते । जं तिषिण परिच्चयई, नाणं तह दंसण चरित्तं ॥४१॥ ल्लास: | 'एमेवत्ति । एवमेव' पार्श्वस्थवदेव यथाच्छन्देषु कुशीलावसन्ननित्यवासिसंसक्तेषु च प्रविशतो मन्तव्यम् । यच्च त्रीणि स्थानानि परित्यजतीत्युक्तं तत्स्थानत्रयं ज्ञानं दर्शनं चारित्रं चेति द्रष्टव्यम् ॥ ४१ ॥ तृतीयमधिकृत्याहसंविग्गेऽसंविग्गो, आलोइअ संकम करेमाणो । सुद्धोऽसुद्धविवेगे, मग्गणया णवपुराणेसुं ॥ ४२ ॥ _ 'संविग्गे'त्ति । असंविग्नपार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाछन्दानामेकतरः संविग्ने गच्छे सङ्क्रमं कुर्वाणो यदि गीतार्थस्तदा से स्वयमेव महाव्रतान्युच्चायोरोपितव्रतो यतमानो ब्रजिकादायप्रतिबध्यमानो मार्गे यमुपधिमुत्पादयति स साम्भोगिकः, यः पुनः प्राक्तनः पार्श्वस्थोपधिरविशुद्धस्तस्य विवेके परिष्ठापने स शुद्धः। यः पुनरगीतार्थस्तस्य व्रतानि गुरवःप्रयच्छन्ति, उपधिश्च तस्य चिरन्तनोऽभिनवोत्पादितो वा सर्वोऽप्यशुद्धस्तस्य परित्यागे स शुद्धो भवति । नवपुराणेषु चालोचनायां मागणा, तथाहि-यः पार्श्वस्थादिभिरेव मुण्डितस्तस्य दीक्षादिनादारभ्यालोचना भवति । यस्तु पूर्व संविग्नः पश्चात्पार्श्वस्थो जातस्तस्य संविग्नपुराणस्य यत्प्रभृत्यवसन्नो जातस्तदिनादारभ्यालोचना भवति ॥४२॥ ॥१४१॥ इय भणियं चरणट्ठा,दोसु असंविग्गयम्मि सच्छंदो।ववहारम्मि वि भणिया,पंजरभग्गम्मि जंजयणा४३ । RECOR For Private & Personal use only iaHinatibrary.org Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMROSAGARMAHADEOS 'यत्ति । इदं भणितं चरणार्थं योऽसंविग्नः संविग्नमुपसंपद्यते तमधिकृत्य । 'द्वयोः'ज्ञानदर्शनयोरर्थाय योऽसंविग्न उपसंपद्यते तस्य 'स्वच्छन्दः' स्वाभिप्रायो नासौ प्रतीच्छनीय इति; एतत्पदमेवं कल्पभाष्यवृत्ती विवृतं युक्तं चैतत् । 'यत्' यस्मात् 'पञ्जरभन्ने ज्ञानदर्शनार्थमुपसम्पद्यमाने व्यवहारेऽपि यतना भणिता, सा च यतनाकर्तुर्गीतार्थस्येच्छापर्यवसन्नवेति । तत्र पञ्जरो नामाऽऽचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकभिक्षुवृषभक्षुलकवृद्धादिसङ्ग्रहः, अथवाऽऽचार्यादीनामन्योन्यं सारणा आचार्यादीनां परस्परं मृदुमधुरभाषया सोपालम्भा वा शिक्षेत्यर्थः, अथवा खरपरुषतर्जनापूर्व प्रायश्चित्तप्रदानेन यदसामाचारीतो निवर्त्तनम् , तदुक्तम्-"पणगाइसंगहो होइ पंजरो जा य सारणाऽण्णोण्णं । पच्छित्तचमढणाहिं, णिवारणं सउणिदिटुंतो ॥ १॥” त्ति । एतदभिमुखाः पञ्जराभिमुखा उच्यन्ते, अस्मात्प्रतिनिवृत्तमतयस्तु पञ्जरभग्ना उच्यन्ते, तेषां यतना चेयम्-"नत्थेयं मे जमिच्छसि, सुअं मया आम संकियं तं तु । न य संकियं तु दिज्जइ, निस्संकसुए गवेस्साहि ॥१॥" यदिच्छसि शास्त्रं श्रोतुं तदेतन्मे मम पार्श्वे नास्ति । अथ ब्रूयान्मयेदं श्रुतं यथाऽमुकं शास्त्रं भवद्भिः श्रुतमिति, तत्राह-आमं तच्छास्त्रं मया श्रुतं केवलमिदानीं शङ्कितं जातंन च शङ्कितं दीयते तस्मान्निःशङ्कश्रुताद्वेषय । नन्वेवं परविप्रतारणचिन्तया विद्यमानमपि श्रुतं नास्ति शङ्कितं वेत्यादिवचनेन च मायामृषावाददोषः, तथा चानार्जवं ततो विशुद्धिर्न स्यात् , “सोही उजुअभूअस्स” इत्यादि पारमर्पप्रामाण्यात् , तदुक्तम्-"तत्थ भवे मायमोसो, एवं तु भवे अणजवं तस्स । सवुत्तं च उजुभूए, सोही तेलुक्कदंसीहिं ॥ १॥" उच्यते-इयं यतना खल्वगीतार्थे क्रियते, गीतार्थे त्वेवम्भूतदोषः सुविहितैर्न | I प्रतीच्छनीय इति स्फुटाक्षरैरपि निवेदनं क्रियते, न चैवं भणितः स रुष्यति गीतार्थत्वात् , गीतार्थो हि सर्वामपि सामा JainEducation international For Private Personel Use Only . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लास: स्वोपज्ञवृ- चारीमवबुध्यत इति । यदि पुनरगीतार्थेऽपि सद्भूतदोपोच्चारणस्नेहोपदर्शनराहित्याभ्यां स्फुटरूक्षाक्षरैरेव निवारणा क्रियते त्तियुतः तदा तेषां विद्वेषोत्पत्तिरात्मनो मत्सरवादश्च भवतीति विप्रतारणबुद्धिं विना पराप्रीत्यनुत्पादकतया परिणामसुन्दरतया तृतीयो- चोभयोरपि गुणमपेक्ष्य तथाविधवाग्यतनायां क्रियमाणायां न कोऽपि दोष इति, तदुक्तम्-"एस अगीए जयणा, गीए वि करंति जुज्जइ जं तु । विद्दोसकर इहरा, मच्छरवादो व फुडरुक्खे ॥१॥” त्ति ॥ ४३ ॥ चतुर्थभङ्गमधिकृत्याह॥१४२॥ इच्छा तुरिए भंगे, विणओधम्मम्मि जत्थ उत्तरिओ।संभोगो तत्थ मओऽसंविग्गे सो भवे किह णु॥४४॥ 'इच्छत्ति।'तुरीये भङ्गे'असंविग्नोऽसंविग्नेषु संक्रामतीत्येवंरूपे 'इच्छा' स्वाभिप्रायः अवस्तुभूतत्वान्न कोऽपि विधिरित्यर्थः, इत्थमेव "दोसु असंविग्गयम्मि सच्छंदो" इति पदं प्रकारान्तरेण व्याख्यातमिति युक्तं चैतत् , यतो यत्र खलु धर्मे 'विनयः' शिक्षादिरूपः 'उत्तरः' उत्कृष्टस्तत्र सम्भोगः 'मतः' विहितः, स चासंविग्ने कथं नु भवेत् ?, अतोऽसंविग्नेऽसंविग्नसंक्रमणं न विधेयम् , नापि निषेध्यम् , असंविग्नत्वस्यैव निषेध्यत्वात् तस्य च तृतीयभङ्गपर्यवसितत्वादिति सिद्धम् ॥ ४४ ॥ | भिक्खुम्मि इमंभणियं,विसेसिओ णियपयाण णिक्खेवा । होइ गणावच्छेइअ,आयरिआणंपि एस गमो NI 'भिक्खुम्मित्ति प्राग् व्याख्यातेयम् । सूत्राणि चात्र-"भिक्खू अगणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोगवडिआए का उपसंपज्जित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरिअंवा जाव अन्नं गणं संभोगवडिआए उवसंपन्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तए, ते असे वितरंति एवं से कप्पइ जाव विहरित्तए, ते य से णो CRECRUCARROREGAOGRADEGAOG ॥१४२॥ Main Education International For Private & Personal use only dinelibrary.org Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMS 64562525-25616 वितरंति एवं से णो कप्पइ जाव विहरित्तए, जत्थुत्तरिअं धम्मविणयं लभेज्जा एवं से कप्पइ अन्नं गणं संभोगवडिआए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरिअं धम्मविणयं णो लभेज्जा एवं से णो कप्पइ अन्नं गणं जाव विहरित्तए । गणाव-| च्छेइए गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोगवडिआए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, णो से कप्पई भणावच्छेइअत्तं अणिक्खिवित्ता संभोगवडिआए जाव विहरित्तए, कप्पइ से गणावच्छेइअत्तं णिक्खिवित्ता जाब विहरित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरिअं वा जाव विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरिअं वा जाव विहरित्तए, ते असे वितरंति एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगवडिआए जाव विहरित्तए, ते असे णो वितरंति एवं से णो कप्पइ जाव विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेजा एवं से कप्पइ अन्नं गणं जाव विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं णो लभेज्जा एवं से णो र कप्पइ जाव विहरित्तए । आयरियउवज्झाए गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगवडिआए जाव विहरित्तए, णो से कप्पइ आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं जाव विहरित्तए, कप्पड़ से आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता जाव विहरित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरिअं वा जाव विहरित्तए, कप्पड़ से आपुच्छित्ता आयरिअं वा जाव विहरित्तए, ते अ से वितरंति एवं से कप्पइ जाव विहरित्तए, ते असे णो वितरंति एवं से णो कप्पइ जाव विहरित्तए, जत्थुत्तरिअं धम्मविणयं लभेजा एवं से कप्पइ जाव विहरित्तए, जत्थुत्तरिअं धम्मविणयं णो लभेज्जा एवं से णो कप्पइ आचार्योपाजाव विहरित्तए"त्ति ॥ ४५ ॥ संभोगार्थ गणान्तरसमणमुक्तम् । अथाचार्योपाध्यायोद्देशनार्थं तदाह ध्यायोद्देशसंकमणं आयरिओवज्झाउद्देसणे वि तिण्हट्ठा । नाणे महकप्पसुए, विजाई दंसणे हेऊ ॥ ४६॥ नार्थमुपसंपतद्विधिश्च For Private lain Education International Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयो ॥ १४३ ॥ 'संकमणं'न्ति । आचार्ययुक्त उपाध्याय आचार्योपाध्यायः, शाकपार्थिववन्मध्यमपदलोपिसमासः, तस्योद्देशनम् - अन्य - स्यात्मीकरणं तदर्थं यत् 'सङ्क्रमणं' गणान्तरगमनं तदपि त्रयाणां - ज्ञानदर्शनचारित्राणामर्थाय । तत्र 'ज्ञाने' ज्ञानार्थमन्याचार्योपाध्यायमुद्देशयितुं गणान्तरगमनं महाकल्पश्रुतेऽध्येतव्ये भवति । केपाश्चिदाचार्याणां कुले गणे वा महाकल्पश्रुतमस्ति, तैश्चेयं गणसंस्थितिः कृता - योऽस्माकं शिष्यतयोपगच्छति तस्यैव महाकल्पश्रुतं देयं नान्यस्य, तत्र चोत्सर्गतो नोपसंपत्तव्यम्, यद्यन्यत्र नास्ति तदा महाकल्पश्रुताध्ययनाय तमप्याचार्यमुद्दिशेत्, उद्दिश्य चाधीते तस्मिन् पूर्वाचार्याणामेवान्तिके गच्छेन्न तत्र तिष्ठेत्, यतः सा खलु तेषामाचार्याणां स्वेच्छा न तु जिनाज्ञा, नहि जिनैरिदं भणितं शिष्यतयोपगतस्य श्रुतं दातव्यमिति । 'दर्शने' दर्शन निमित्तमन्याचार्योपाध्यायोद्देशने च विद्यादयो हेतवः, दर्शनप्रभावकविद्यामन्त्रनिमित्तहेतुशास्त्राध्ययनार्थमन्यमप्याचार्यमुद्देशयितुमन्यगणमुपसंपद्येतेत्यर्थः ॥ ४६ ॥ चरणट्ठा पुवगमो, ओसन्नोहाविए व कालगए । आयरियउवज्झाए, मग्गणया छविहोसन्ने ॥ ४७ ॥ 'चरणदृ'त्ति । चरणार्थमन्याचार्यादेशने 'पूर्वगमः' प्रागुक्त एव गमो भवति । अथवा तत्रैते आदेशा भवन्ति - अवसन्ने 'अवधाविते वा' गृहस्थीभूते कालगते वाऽऽचार्योपाध्यायेऽन्याचार्योपाध्यायोदेशनाय गणान्तरगमनं भवति । तत्रावसन्ने पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तनित्यवासियथाच्छन्दभेदेन पड़िधे वक्ष्यमाणा मार्गणा भवति ॥ ४७ तामेवाहवित्तस्स दुहा इच्छा, चोआवेइ व गुरुं तु चोएइ । वहावेइ गणं सो, पयावणट्ठा व उद्दिसइ ॥ ४८ ॥ Jain Education nemational : गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः ॥ १४३ ॥ inelibrary.org Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘वत्तस्स ंत्ति । अवसन्नाचार्यादिशिष्य आचार्यपदयोग्यो हि व्यक्तोऽव्यक्तो वा भवेत् । तत्र चतुर्भङ्गी - वयसा व्यक्तः पोडशवार्षिकः श्रुतेन च व्यक्तो गीतार्थ इति प्रथमो भङ्गः १, वयसाऽव्यक्तः श्रुतेन व्यक्त इति द्वितीयः २ वयसा व्यक्तः श्रुतेनाव्यक्त इति तृतीयः ३, वयः श्रुताभ्यामुभाभ्यामप्यव्यक्त इति चतुर्थः ४ । तत्र द्विधा वयसा श्रुतेन च व्यक्तस्य 'इच्छा' अन्यमाचार्यमुद्दिशति वा न वा, यावन्नोद्दिशति तावद् गुरुम् ' अवसन्नीभूतमाचार्य दूरस्थं साधुसङ्घाटकं प्रेषयित्वा नोदापयति आसन्नं च स्वयमेव नोदयति, एकान्तरितं वा पञ्चदिनान्ते वा पक्षान्ते वा चतुर्मासान्ते वा वर्षान्ते वा यत्र समवसर णादौ मिलन्ति तत्र स्वयमेव नोदय त्यपरैर्वा स्वगच्छीयपरगच्छीयैर्नोदनां कारयतीत्यर्थः । यदि च सर्वथाऽपि नेच्छति तदा स्वयमेव स गणं वर्त्तापयति, 'वा' अथवा प्रतापनार्थमवसन्नाचार्यस्य न तु गणस्य सङ्ग्रहोपग्रहनिमित्तमुद्दिशत्यन्यां दिशमिति शेषः, स च तत्र गत्वा भणति - अहमन्यमाचार्यमुद्दिशामि यदि यूयमितः स्थानान्नोपरता भवत, ततः स चिन्तयेत् - अहो ! अमी मम शिष्या मयि जीवत्यप्यपरमाचार्य प्रतिपद्यन्ते ततो मुञ्चामि पार्श्वस्थताम् । यदि नामैवं गौरवेणापि पार्श्वस्थत्वं मुश्चेत्ततः सुन्दरम् । अथ सर्वथा नेच्छन्त्युपरन्तुं ततः स्वयमेव गच्छाधिपत्ये तिष्ठतीति ॥ ४८ ॥ गतः प्रथमो भङ्गः, द्वितीयमाह सुअवत्ते वयऽवत्ते, आइरिए गोइए वणिच्छंते । तिग संवच्छरमद्धं, कुल गण संघे दिसावधो ॥ ४९ ॥ 'सुअवत्ते'त्ति । श्रुतेन व्यक्ते वयसा पुनरव्यक्ते गच्छं वर्त्तापयितुमसमर्थे अहमप्राप्तवयस्त्वेन त्वदीयं गणं सारयितुं न शक्तोऽतः सारय स्वगणमेनम्, अहं पुनरन्यस्य शिष्यो भविष्यामि, अथवाऽहमेते चान्यमाचार्यमुद्दिशाम इत्येवं नोदितेऽ : Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ-तियुतः तृतीयो ॥ १४४ ॥ - प्याचार्येऽनिच्छति संयमे स्थातुं 'त्रिकं' वर्षत्रयं यावत्कुले दिग्बन्धः, कुलसत्कमाचार्योपाध्यायमुद्दिशेदित्यर्थः, ततस्त्रयाणां वर्षाणां परतः सचित्तादिकं कुलाचार्यो हरतीति गणाचार्यमुद्दिशति, तत्र संवत्सरं दिग्बन्धः, ततः संवत्सरं तत्र स्थित्वा सङ्घाचार्यस्य दिग्बन्धं प्रतिपद्यार्द्ध वर्षं तत्र तिष्ठति । कुलागणं गणाच्च सङ्घ सङ्क्रामन्नाचार्यमिदं भणति यत्त्वदीयकुलाचार्या अस्माकं वर्षत्रयादूर्द्ध सचित्तादिकं हरन्ति अतः कुलमपि नेच्छामः, यदि त्वमिदानीमपि न तिष्ठसि ततो वयं गणं सङ्घ वा व्रजाम इति ॥ ४९ ॥ एवं पि अ अणुवरए, वयवत्तो अपंचमे वरिसे । सयमेव धरेइ गणं, अणुलोमेणं च सारेइ ॥ ५० ॥ ‘एवं पिय'त्ति । 'एवमपि' कुलगणसङ्घसङ्क्रमनोदनाक्रमेणापि 'अनुपरते 'अगृहीतचारित्रपरिणामे पूर्वाचार्ये सति अर्द्धपञ्चमैर्वर्षेः, सप्तम्येकवचनस्य तृतीयाबहुवचनार्थत्वात्, वयसाऽपि व्यक्तो जातः स्वयमेव गणं धारयेत् । यत्र च पूर्वाचार्यं पश्यति तत्रानुलोमवचनैस्तथैव सारयति ॥ ५० ॥ विद्यावेउं सत्ता, जइ थेरा संति तम्मि गच्छामि । दुहओ वत्तसरिसओ, ओ गमओ तया तस्स ॥ ५१ ॥ 'वट्टावे 'ति । यदि तस्मिन् गच्छे स्थविरा गच्छं वर्त्तापयितुं शक्ताः सन्ति ततः कुलगणसङ्घषु नोपतिष्ठते किन्तु स स्वयं सूत्रार्थी शिष्याणां ददाति, स्थविरास्तु तं गच्छं परिवर्त्तयन्ति । एवं च तदा तस्य श्रुतव्यस्य द्विधा व्यक्तसदृशो गमो भवति ज्ञेयः ॥ ५१ ॥ गतो द्वितीयो भङ्गः । अथ तृतीयभङ्गमाह - गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः ॥ १४४ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु. २५ वित्तवओ उ अगीओ, थेराणं अंतिअम्मि गीआणं । पढइ अभावे तेसिं, गच्छइ अण्णत्थ चोईतो ॥ ५२ ॥ 'वत्तवओ उ'त्ति । योऽसौ वयसा व्यक्तः परमगीतार्थस्तस्य च गच्छे स्थविरा गीतार्थाः सन्ति तदा स तेषामन्तिके पठति गच्छमपि परिवर्त्तयति, अवसन्नाचार्यं चान्तराऽन्तरा नोदयति, एवं नोदयंस्तेषां स्थविरगीतार्थानामभावे गणं गृहीत्वाऽन्यत्र गच्छति ॥ ५२ ॥ गतस्तृतीयो भङ्गः । अथ चतुर्थभङ्गमाह - वहावगाणऽभावे, उभयावत्तो उ अण्णमुद्दिसइ । संविग्गागी अत्थण्णयरुद्देसम्मि चउगुरुगा ॥ ५३ ॥ 'वट्टावगाण' त्ति । यः पुनः 'उभयाव्यक्तः श्रुतेन वयसा चाव्यक्तस्तस्य यदि स्थविरा: पाठयितारो विद्यन्तेऽपरे च गच्छवर्त्तापकास्ततोऽसावपि नान्यमुद्दिशति, 'वर्त्तापकानां' स्थविराणामभावे च नियमादन्यमुद्दिशति । एतद्भङ्गचतुष्टयान्यतरवित्त अन्यमाचार्यमुद्दिशन् यद्यसंविग्नागीतार्थान्यतरं संविग्नमगीतार्थमसंविग्नमगीतार्थं वा उद्दिशति तदा चतुर्गुरुकप्रायश्चित्तम् । अत्र च " सत्तरत्तं तवो होई" त्यादिना प्रायश्चित्तवृद्धिरपि द्वितीयोल्लासोक्तक्रमेण ज्ञातव्या ॥ ५३॥ छट्ठाणविरहिअं पि हु, संविग्गं काहिआइदोसजुअं । सेवते आणाई, चउरो अ तहा अणुग्घाया ॥ ५४॥ 'छट्ठाण'ति । षट्स्थानानि - पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छन्दनित्यवासिलक्षणानि तैर्विरहितमपि 'संविग्नं' गीतार्थ कायिकादिदोषयुक्तं 'सेवमाने' उपसंपद्यमाने चत्वारो मासा अनुद्धाता आज्ञादयश्च दोषाः । तत्र काथिकादयश्चत्वारः, काथिकदार्शनिकमामकसंप्रसारकभेदात्, एतेषां च स्वरूपमित्थं प्रकल्पाध्ययनेऽभिहितम् - " सज्झायादिकरणिज्जे जोगे Jain Educationational ) काधिकः Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञव- त्तियुतः तृतीयो हासः ॥१४५॥ मोत्तुं जो देसकालादिकहाओ कहेइ सो काहिओ-आहारादीणट्ठा, जसहेउं अहव पूअणनिमित्तं । तकम्मो जो धम्म, गुरुतत्त्वकहेइ सो काहिओ होइ ॥ १॥' 'धम्मकहं पि जो करेइ आहारादिणिमित्तं वत्थपायादिणिमित्तं जसत्यी वा वंदणादिपू विनिश्चयः आणिमित्तं वा सुत्तत्थपोरसिमुक्कवावारो अहो अराओ अ धम्मकहादिपढणकहणलग्गो।' तदेवास्य केवलं कर्म तत्कर्मा एवंविधः काथिको भवति । चोअग आह-'नणु सज्झाओ पंचविहो वायणादिगो, तस्स पंचमो भेदो धम्मकहा, तेण भवसत्ता पडिबुज्झति, तित्थे अ अवुच्छित्ती पभावणा य भवति अतो ताओ णिज्जरा चेव भवति, कहं काहिअत्तं पडिसिज्झइ ? ।' आचार्य आह–'कामं खलु धम्मकहा, सज्झायस्सेव पंचमं अंगं । अबुच्छित्ती य तओ, तित्थस्स पभावणा चेव ॥१॥' पूर्वाभिहितनोदकानुमते कामशब्दः, खलुशब्दोऽवधारणार्थे, किमवधारयति ? इमं सज्झायस्स पंचम चेव अंगं धम्मकहा, जइ अ एवं-तह वि य न सबकालं, धम्मकहा जीए सबपरिहाणी । नाउं च खित्तकालं, पुरिसं| च पवेदए धम्मं ॥१॥' सर्व कालं धम्मो न कहेअब्बो, जओ पडिलेहणाइसंजमजोगाणं सुत्तत्थपोरिसीण य आयरियगिलाणमादिकिच्चाण य परिहाणी भवइ, अतो न काहिअत्तं कायव्यं, जया पुण धम्मं कहेइ तया णारं साधुसाधुणीण |य बहुगच्छुवग्गहं खित्तं ति ओमकाले बहूर्ण साहुसाहुणीणं उवग्गहकरा इमे दाणसड्डादी भविस्संति त्ति धम्मं कहेइ, रायादिपुरिसंवा नाउं कहिज्जा, महाकुले वा इमेण इक्केण उपसंतेणं बहु उवसमंतीति कहिज्जा । जणववहारेसु नडनट्टा-४ प्राश्निकः दिसु वा जो पेक्खणं करेइ सो पासणिओ-'लोइअववहारेसुं, लोइअसत्यादिएस कन्जेस । पासणिअत्तं कुणई, पासणिओF१४५।। सो उणायव्वो ॥१॥' 'लोइअववहारसुति, अस्य व्याख्या-'साहारणे विरेगे, साहइ पुत्तपडए अ आहरणं । दुण्ह | For Private Personal Use Only SCSCARSRUS Sinelibrary.org Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मामकः य इक्को पुत्तो, दुन्नि अ महिलाओ एगस्स ॥१॥' दुहं सामन्नं-साधारणं तस्स विरेगो-विभयणं तत्थन्ने पासणिया छेत्तुमसमत्था सो भावत्थं णारं छिंदति, कहं ? इत्थ उदाहरणं भन्नति–एगस्स वणिअस्स दो महिलाओ, तत्थेगाए पुत्ते एअं उदाहरणं नमुक्कारणिज्जुत्तीए पगडं, आहरणं पि जहा तत्थेव। एवं अन्नेसु बहुसु लोगववहारेसु पासणिअत्तं करेइ छिंदति वा । 'लोइयसत्थादिएसुत्ति, अस्य व्याख्या-'छंद णिरुत्तं सइं, अत्थं वा लोइआण सत्थाणं । भावत्थं च पसाहइ, छलिआई उत्तरे सउणे ॥१॥ छंदादिआणं लोगसत्थाणं सुत्तं कहेइ अत्थं वा, अहवा अत्थं सेतुमादिआणं बहूणं कबाणं, 5कोडिल्लयाण य वेसिअमादिआण य भावत्थं पसाहइ, छलिअंसिंगारकहा थीवण्णगादी। 'उत्तरे'त्ति ववहारे उत्तरं सिक्खदवेड, अहवा उत्तरे वि सउणकहादीणि कहइ । ममीकारं करंतो मामओ-'आहारउवहिदेहे, वीआरविहारवसहिकुल गामे । पडिसेहं च ममत्तं, जो कुणई मामगो सो उ॥१॥' उवगरणादिसु जहासंभवं पडिसेहं करेइ मा मम उवगरणं कोइ गिण्हइ, एवं अन्नेसु वि वीआरविहारभूमिमादिएसु पडिसेहं सगच्छपरगच्छयाणं वा करेइ, आहारादिएसु चेव सब्वेसु ममत्तं करेइ भावपडिबंधं एवं करितो मामओ भवति । विविधदेसगुणेहिं पडिबद्धो मामओ इमो-'अह जारिसओ देसो, जे अ गुणा इत्थ सस्सगोणादी। सुंदरअभिजायजणो, ममाइ णिक्कारणा वदति ॥१॥” 'अहं' त्ति अयं जारिसो देसो रुक्खवावीसरतलागोवसोभिओ एरिसो अन्नो नत्थि सुहविहारो, सुलभवसहिभत्तोवगरणादिआ य बहुगुणा सालिक्खुमादिआ य बहुसस्सा णिप्पजंति, गोमहिसपउरत्तणओ अ पउरगोरसं, सरीरवत्थादिएहिं सुंदरो जणो, अभिजाय "सालिखु०" इति प्रत्यन्तरे। OSAARSAUSHUSHA Jain Education international For Private Personal Use Only . Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CA स्वोपज्ञवृत्तियुतः ततीयो- ॥ १४६॥ SMARCROSALMAN त्तणओ अकुलीणा न साहुमुवदवकारी, एमादीहिं गुणेहिं भावपडिबद्धो निकारणओ वा वयति-प्रशंसतीत्यर्थः । गिहीण गुरुतत्त्वकजाणं गुरुलाघवेणं संपसारंतो संपसारओ-'अस्संजयाण भिक्खू , कजेसु असंजमप्पवत्तेसु । जो देई सामत्थं, संपसारो विनिश्चयः उणायवो ॥१॥'जे भिक्खू असंजयाणं असंजमकजपवत्ताणं पुच्छंताणं अपुच्छंताणं वा सामत्थयं देइ, मा एवं इमं ल्लासः वा करेहि इत्थ बहुदोसा जहा हं भणामि तहा करेसि त्ति, एवं करितो संपसारओ भवति । ते अ इमे असंजमकज्जा संप्रसारकः 'गिहिनिक्खमणपवेसे, आवाहविवाहविक्कयकए वा । गुरुलाघवं कहतो. गिहिणो खलु संपसारीओ ॥१॥' गिहीणं असंजयाणं गिहाओ दिसिजत्ताए वा निग्गमयं देइ, जत्ताओ वा आगच्छंतस्स पवेसं देइ, आवाहो बिट्टिआलंभणयं सुह दिवसं कहेइ, मा वा एअस्स देहि इमस्स वा देहि, विवाहपडलमाइएहिं जोइसगंथेहिं विवाहवेलं देइ, अग्घकंडमादिएहिं गंथेहिं इमं दवं विक्किणाहि इमं वा किणाहि, एवमादिसु कजेसु गिहीणं गुरुलाघवं काहिंतो संपसारत्तणं पावई"त्ति ॥५४॥ एतत्सर्वमवसन्नाचायमधिकृत्योक्तम् । अथावधावितकालगतयोविधिमाह गृहस्थीभूते ओहाविय कालगए, जाविच्छा ताहि उदिसावेड़ । अवत्ते तिविहे वी, णियमा पुण संगहट्ठाए ॥ ५५॥|| कालगते _ 'ओहाविय'त्ति । अवधाविते कालगते वा गुरौ त्रिविधेऽपि प्रथमभङ्गवर्जभङ्गत्रयेऽपि योऽव्यक्तः स यदा इच्छा भवति वाऽऽचार्यातदाऽन्यमाचार्यमुद्देशयति । अथवा त्रिविधेऽपि कुलसत्के गणसत्के सङ्कसत्के वाऽऽचार्योपाध्याये आत्मनोद्देशं कारयति, दो अन्योहेस चाव्यक्तत्वान्नियमात्सङ्ग्रहोपग्रहार्थमेवोदिशति ॥ ५५ ॥ आचार्य गृहस्थीभूतमवसन्नं वा यदा पश्यति तदेत्थं भणति- शविधिः ओहावियओसन्ने, भणइ अणाहा वयं विणा तुब्भे। कमसीसमसागरिए, दुप्पडिअरगं जओ तिण्हं ५६॥ १४६॥ CROCOCC वाह विवाहवेलं दे.' कम् । अथावधादिसु कजेसु गिही का Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ओहावियत्ति । अवधावितस्यावसन्नस्य वा गुरोः क्रमयोः-पादयोः शीर्षमसागारिके प्रदेशे कृत्वा भणति-भगवन् ! अनाथा वयं युष्मान् विनाऽतः प्रसीद भूयः संयमे स्थितः सनाथीकुरु डिम्भकल्पानस्मान् । शिष्यः पृच्छति-तस्याचारित्रिणश्चरणयोः कथं शिरो विधीयते ? गुरुराह–'दुष्पतिकरं' दुःखिनां (खेन ) प्रतिकत्तुं शक्यं यतस्त्रयाणां मातापित्रोः स्वामिनो धर्माचार्यस्य च भणितं स्थानाङ्गे, ततोऽत्र विधौ न दोष इति ॥५६॥ किञ्चजोजेण जम्मि ठाणम्मि ठाविओ दंसणे व चरणे वा।सोतं तओचुअंतम्मि चेव काउंभवे निरिणो॥५७॥ | 'जो जेण'त्ति । यो येनाचार्यादिना यस्मिन् स्थाने स्थापितः, तद्यथा-दर्शने चरणे वा 'स' शिष्यः 'त' गुरुं 'ततः दर्शनाच्चरणाद्वा च्युतं 'तत्रैव' दर्शने वा चरणे वा 'कृत्वा स्थापयित्वा निर्ऋणः'ऋणमुक्तो भवति, कृतप्रत्युपकार इत्यर्थः॥५७॥ तीसु वि दीवियकज्जा, विसजिआ जइ अ तत्थ तं णत्थि। णिक्खिविय वयंति दुवे, भिक्खू किं दाणि णिक्खिवइ ? ॥ ५८॥ | 'तीसु वित्ति । 'त्रिष्वपि' ज्ञानदर्शनचारित्रेषु व्रजन्तो भिक्षुप्रभृतयः 'दीपितकार्याः' पूर्वोक्तविधिना निवेदितस्वप्रयोजना गुरुणा विसर्जिता गच्छन्ति । यदि च 'तत्र' गच्छे 'तद्' अवसन्नतादिकं कारणं नास्ति तत उपसंपद्यते नान्यथा । 'द्वौ' गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायौ यथाक्रमं गणावच्छेदकत्वमाचार्योपाध्यायत्वं च निक्षिप्य ब्रजतः । यस्तु भिक्षुः स किमि18दानी निक्षिपतु ? गणाभावान्न किमपि तस्य निक्षेपणीयमस्ति, अत एव सूत्रे.तस्य निक्षेपणं नोक्तमिति भावः । अत्र ४ CROGRESCOACCALCOMCHOCK For Private & Personal use only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- सूत्राणि-"भिक्खू य इच्छिज्जा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गुरुतत्त्वत्तियुतःअन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, विनिश्चयः तृतीयो- ते असे वितरेजा एवं से कप्पइ अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, ते असे णो वितरिजा एवं से णो कप्पइ अन्नं लासः आयरिअउवज्झायं उद्दिसावित्तए, नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवित्ता अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, कप्पइ से | ॥१४७॥ तेसिं कारणं दीवित्ता जाव उद्दिसावित्तए १ । गणावच्छेइए अ इच्छिज्जा अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, नो से है। कप्पइ गणावच्छेइयत्तं अणिक्खिवित्ता अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, कप्पड़ से गणावच्छेइअत्तं णिक्खिवित्ता अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइ वा अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता जाव उदिसावित्तए, नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवित्ता अन्नं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से तेसिं कारणं दीवित्ता जाव उद्दिसावित्तए २ । आयरियउवज्झाए अ इच्छेज्जा अन्न। आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, नो से कप्पड़ आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अन्नं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरिअंवा जाव गणावच्छेइ वा अण्णं आयरियउवज्झायं उहिसावित्तए, कप्पड़ से आपुच्छित्ता आयरिअं वा जाव गणावच्छेइ वा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते असे वितरंति एवं से कप्पड़ जाव उद्दिसावित्तए, ते असे ॥१४७॥ णो वितरंति एवं से णो कप्पइ जाव उद्दिसावित्तए, णो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दि DOREOCOCCASSOCIEOSEX Jan Education International jainelibrary.org Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PROGRAMM सावित्तए, कप्पइ से तेसि कारणं दीवित्ता जाव उद्दिसावित्तए"त्ति।।५८॥अथ गणावच्छेदकाचार्ययोर्गणनिक्षेपणे विधिमाहदुण्हट्ठाए दुण्ह वि, णिक्खिवणं होइ उज्जमंतेसु।सीअंतेसु अ सगणो, वच्चइ मा ते विणस्सिज्जा॥५९॥ 'दुण्हट्ठाए'त्ति । द्वयोनिदर्शनयोरर्थाय गच्छतोः 'द्वयोरपि' गणावच्छेदकाचार्ययोः स्वगणस्य निक्षेपणं ये उद्यच्छन्तः संविग्ना आचार्यास्तेषु भवति । अथ सीदन्तस्ते ततः सगणः स्वगणं गृहीत्वा ब्रजति न पुनस्तेषामन्तिके निक्षिपति, कुतः? इत्याह-मा ते शिष्यास्तत्र मुक्ताः सन्तो विनश्येयुः ॥ ५९॥ इदमेव भावयतिवत्तम्मि जो गमो खल्लु,गणवच्छे सो गमो उ आयरिए। णिविखवणे तस्मि चत्ता,जमुदिसे तम्मिते पच्छा 'वत्तम्मित्ति । यो गम उभयव्यक्ते भिक्षावुक्तः स एव गणावच्छेदके आचार्य च मन्तव्यः, नवरं गणनिक्षेपं कृत्वा का तावात्मद्वितीयावात्मतृतीयो वावजतः, तत्र च स्वगच्छ एव यः संविग्नो गीतार्थ आचार्यादिस्तत्रात्मीयसाधून्निक्षिपति ।। अथासंविग्नस्य पार्थे निक्षिपति ततस्ते साधवः परित्यक्ता मन्तव्याः, तस्मान्न निक्षेपणीयाः किन्तु येन तेन प्रकारेणात्मना | सह नेतव्याः, ततो यमाचार्य स गणावच्छेदक आचार्यो बोद्दिशति तस्मिंस्तानात्मीयसाधून् पश्चानिक्षिपति-यथाऽहं युष्माकं शिष्यस्तथा इमेऽपि युष्मदीयाः शिष्या इति भावः ॥ ६०॥ इदमेवाहजह अप्पगं तहा ते, तेण पहुप्पंते ते ण घेत्तवा । अपहुप्पते गिण्हइ, संघाडं मुत्तु सो वि ॥ ६१ ॥81 'जह अप्पगं'ति । यथाऽऽत्मानं तथा तानपि साधूनिवेदयति । तेनाप्याचार्येण पूर्यमाणेषु साधुषु ते प्रतीच्छकाचार्य ERLOCALCA For Private & Personal use only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतियुतः तृतीयो - ॥ १४८ ॥ साधवो न ग्रहीतव्याः, तस्यैव तान् प्रत्यर्पयति । अथ वास्तव्याचार्यस्य साधवो न पूर्यन्ते तत एकं सङ्घाटकं तस्य प्रयच्छन्ति, तं मुक्त्वा शेषानात्मना गृह्णाति । अथ वास्तव्याचार्यः सर्वथैवासहायस्ततः सर्वानपि गृह्णाति ॥ ६१ ॥ सहुअसहुस्स वि तेण वि, वेयावच्चाइ सब कायद्दं । ते तेसिमणाएसा, वावारेउं ण कप्पंति ॥ ६२ ॥ 'सहुअस हुस्स वित्ति । तेनापि प्रतीच्छकाचार्यादिना तस्याचार्यस्य सहिष्णोरसहिष्णोर्वा वैयावृत्त्यादिकं सर्वमपि कर्त्तव्यम् । तेऽपि साधवस्तेषामाचार्याणामादेशमन्तरेण व्यापारयितुं न कल्पन्ते ।। ६२ ।। कप्पम्मि इमं सवं, भणिअं णाऊण सुगुरुसंसग्गी । कायवा कुगुरूणं, वजेअवा इमे ते य ॥ ६३ ॥ 'कप्पम्मि'त्ति | 'कल्पे' कल्पाध्ययने तृतीयखण्डप्रान्ते सर्वमिदं भणितं ज्ञात्वा सुगुरुसंसर्गिः कर्त्तव्या । कुगुरूणां च संसर्गिर्वर्जयितव्या, ते चेमे ॥ ६३ ॥ पासत्थो ओसन्नो, होइ कुसीलो तहेव संसत्तो । अहछंदो वि य एए, अवंदणिजा जिणमयम्मि ॥ ६४ ॥ 'पासत्थो 'ति । पार्श्वस्थोऽवसन्नो भवति कुशीलस्तथैव संसक्तो यथाच्छन्दोऽपि च एतेऽवन्दनीया भवन्ति, क्व ? जिनमते, न तु लोक इत्यर्थः ॥ ६४ ॥ तत्र पार्श्वस्थं निरूपयतिपासत्थो दुवियप्पो, देसे सवे य होइ णायवो । सङ्घम्मि नाणदंसणचरणाणं जो उपासम्म ॥ ६५ ॥ 'पासत्थो' त्ति । पार्श्वे ज्ञानादिगुणानां यत्याचारस्य वा तिष्ठति न तु तदन्तर्गत इति पार्श्वस्थः, स च द्विविकल्पः, देशे गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः कुगुरुवर्ज नम् कुगुरवः पार्श्वस्थ ॥ १४८ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3-6500-50*5 सर्वस्मिंश्च भवति ज्ञातव्यः । तत्र सर्वस्मिन् पार्श्वस्थः स उच्यते यो ज्ञानदर्शनचारित्राणां त्रयाणामपि पार्श्वे तिष्ठति न सर्वतः त्वेकमप्यादत्ते । तथा च सर्वपार्श्वस्थः सर्वगुणवाह्यत्वेनैकरूप एव, न तु देशपार्श्वस्थवदनेकभेद इति भावः ॥ ६५॥ ननु पार्श्वस्थः दायद्येवं तदा त्रिविकल्पः सर्वपार्श्वस्थः कथं व्यवहारादावभिधीयते?, तथा च तद्वचनम् ---"सवे तिणि विगप्पा देसे|| सेज्जायरकुलादी"त्येतामाशङ्का निराकुर्वन्नाह इत्तो चिय तिविगप्पो, भणिओ ववहारसुत्तचुन्नीए। सदस्यभेअओवा, इमाओ इत्थं च गाहाओ॥६६॥ शब्दार्थभेET 'इत्तो च्चिय'त्ति । 'इत एव' व्युत्पत्तिनिमित्तघटकत्रैविध्यादेव एकरूपोऽपि सर्वपार्श्वस्थो व्यवहारसूत्रचूण्यां त्रिवि-18 दतःसर्वपाकल्पो भणितः । तथा च तद्वचनम्-"ज्ञानदर्शनचारित्राणि त्रिप्रकारो मोक्षमार्ग इत्यतस्त्रयाणां ग्रहणम्" इति । अथवे स्थत्रैविकोऽपि शब्दार्थभेदात्रिविकल्पः सर्वपार्श्वस्थः, तथा च व्यवहारवृत्तिकार:-तत्र सर्वस्मिन् सर्वतः पार्श्वस्थशब्दसंस्कार ध्यं व्यवहामाश्रित्य त्रयो विकल्पाः, तद्यथा-पार्श्वस्थः प्रास्वस्थः पाशस्थश्चेति । अत्र चेमा गाथा व्यवहारप्रकल्पादिग्रन्थस्था विशेषपरिज्ञानार्थिना ज्ञेयाः ॥६६॥ दसणनाणचरित्ते, तवे अ अत्ताहिओ पवयणे य । तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं विआणाहि ॥ १७ ॥ पार्श्वस्थ: की 'दंसण'त्ति । दर्शन-सम्यक्त्वं ज्ञानम्-आभिनिवोधिकादि चारित्रम्-आश्रवनिरोधः, एतेषां समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् | तथा 'तपसि' बाह्याभ्यन्तररूपे द्वादशप्रकारे, 'प्रवचने च' भगवद्वचने आत्माऽऽहितः-स्थापितो येषामुद्युक्तविहारिणां रचूणा - Main Education International For Private & Personal use only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४९॥ स्वोपज्ञव- लातेषां पार्थे विहारी यस्तं पार्श्वस्थं विजानीहि । अत्र यद्यपि दर्शनादिग्रहणात्तपःप्रवचने गृहीते एव तथाऽपि तयोरुपादानं गुरुतत्त्व मोक्षं प्रति प्रधानाङ्गताख्यापनार्थम् , भवति च तपो मोक्षं प्रति प्रधानमङ्ग पूर्वसञ्चितकर्मक्षपणहेतुत्वात् , प्रवचनं च विधे-II विनिश्चयः तृतीयो- याविधेयोपदेशदायित्वादिति । तदुक्तं व्यवहारचूर्णी-"अथवा त्रिप्रकारादधिकं विशेषज्ञापनार्थं तपःप्रवचनग्रहणं क्रियते" लासा इति । निशीथचू) त्वेवं व्याख्या-“दंसणादिआ पसिद्धा, पवयणं चाउवन्नो समणसंघो, 'अत्ता' आत्मा संधिपओगेण: 'आहितः' आरोपितः स्थापितः जेहिं साहूहिं उजुत्तविहारिण इत्यर्थः, तेसिं साहूणं पासविहारी जो सो एवंविहो पासत्थो। पवयणं पडुच्च, जम्हा साहुसाहुणिसावगसाविगासु एगपक्खे वि ण णिवडइ तम्हा पवयणं पइ तेसिं पासविहारी। अहवा दसणादिसु अत्ता अहिओ जस्स सो अत्ताहिओ दर्शनादीनां विराधक इत्यर्थः, जम्हा सो विराधगो तम्हा तेसिं दंसणादीणं पासविहारी पासत्थो तिविहभेदो भन्नई"त्ति ॥ ६७ ॥ दसणनाणचरित्ते, सत्थो अच्छइ तहिं ण उज्जमइ। एएणं पासत्यो, एसो अण्णो वि पन्जाओ॥६॥ प्रावस्थः । 'दसण त्ति । दर्शनज्ञानचारित्रे यथोक्तरूपे यथाशक्ति नोद्यच्छति अत एव 'स्वस्थः' अलसस्तिष्ठति, एतेन कारणेन | प्रास्वस्थ उच्यते, प्रकर्षण आ-समन्तात् ज्ञानादिषु निरुद्यमतया स्वस्थः प्रास्वस्थ इति व्युत्पत्तेः, उक्तञ्च-"सत्थो अच्छा सुत्तपोरिसिं अत्थपोरिसिं वा न करेइ नोज्जमए, दंसणाइआरे वा न वज्जेइ, एवं सत्थो अच्छड तेन पासत्थो।" 'अन्यः ॥१४९॥ पर्यायः' अन्यो व्याख्याप्रकारः॥ ६८॥ पासो त्ति बंधणं ति य, एगटुं बंधहेअवो पासा। पासस्थिओ पासत्थो, एसो अण्णो वि पजाओ ॥६९॥ SRUSSEUROGROCE पाशस्थ: For Private Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHECROSORICROGRAMOROSCOREOS 'पासोत्ति । पाश इति वा बन्धनमिति वा एकार्थम् , ततः कारणे कार्योपचाराद्वन्धहेतवो मिथ्यात्वादयोऽपि पाशा उच्यन्ते, तेषु पाशेषु स्थितः पाशस्थः, एषोऽन्योऽपि पर्यायः, तदुक्तम्-"पासो ति बंधणं ति वा एगट्ठ, एते पया वि एगवा, बंधस्स हेऊ अविरतिमाई ते पासा भण्णंति, तेसु पासेसु ठिओ पासत्थो"त्ति । पाशा इव पाशा इत्युपमया मिथ्यात्वादिबन्धहेतूनामभिधानं तु मलयगिरिपादानां कार्यकारणयोरपि मेदाभिप्रायेण साधयविवक्षया द्रष्टव्यम् , अन्यथा प्रथमपदव्याख्यानमनुपयुक्तं स्यादिति ॥ ६९ ॥ ननु सर्वपार्श्वस्थ पार्श्वस्थपदस्य त्रयोऽर्था उच्यन्ते ते च न युज्यन्ते, तथा सति पार्श्वस्थपदस्य देशपावस्थेऽप्रवृत्तिप्रसङ्गात् , पार्श्वस्थसर्वपार्श्वस्थवचनयोः समानार्थत्वे सर्वपदोपादानवैफल्यप्रसङ्गान्चेत्यत आह- शब्दार्थभेदसवपओवादाणे, पासस्थपयं विसेसपरमित्थं । इहरा कह तं देसे, गच्छइ सवस्ल कह व गमो ॥७॥ तः सर्वपा1 'सबपओवादाणेत्ति । 'इत्थम्' अर्थत्रयाभिधानप्रकारेण पार्श्वस्थरदं सर्वपदोपादाने विशेषपरम् , संभूयविशिष्टार्थप्रत्याय-1Bध्ये आशङ्का कमिति यावत् , पार्श्वस्थपदस्य योगमहिम्ना बहिःस्थित्यर्थत्वात् सर्वपदार्थस्य च बहिरर्थेऽन्वयात् , पार्श्वस्थपदव्युत्पत्तिनि- तत्प्रतिवचन मित्तं त्वाचारबहिःस्थितत्वमात्रम् , युक्तं चैतत् . इतरथा कथं विशेषाभिधायक पार्श्वस्थपदं 'देशे' देशपावस्थे गच्छति? कथं वा 'सर्वस्य' सर्वपार्श्वस्थस्य 'गमः' त्रिविधः पार्श्वस्थपदव्याख्याप्रकारः स्यात् , तस्य सामान्यपदत्वादित्यवधेयम् ॥ ७० ॥ उक्तः सर्वपार्श्वस्थोऽथ देशपार्श्वस्थमाहदेसम्मि उ पासत्थो, देसवहिब्भावओ उ किरियाए।बहुभेओ जंभणियं, देसे सेजायरकुलाई ॥७॥देशपार्श्वस्थः For Private & Personal use only wownw.jainelibrary.org Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ-31 'देसम्मि उत्ति । देशे पार्श्वस्थस्तु क्रियादेशबहिर्भावतो भवति, यद्भणितं व्यवहारे-देशे देशतः पार्श्वस्थः शय्यातर-18 गुरुतत्त्वत्तियुतः कुलादिप्रतिसेवमान इति । तथा च शय्यातरकुलायन्यतरदोषदुष्टत्वं देशपार्श्वस्थलक्षणमुक्तं भवति ॥ ७१॥ शय्यातर-1 विनिश्चयः तृतीयो- कुलादिदेशपार्श्वस्थस्थानसङ्ग्रहाय प्रकल्पव्यवहारगतां गाथामाह लासः सिजायर कुलणिस्सिय,ठवणकुलपलोअणा अभिहडे । पुदिपच्छासंथव,निइअ अन्गपिंडभोई पासत्थो देशपार्श्वस्थKा 'सिजायर त्ति । शय्यातरपिण्डभोजी, कुलनिश्नितोपजीवी, स्थापनाकुलोपजीवी, प्रलोकनाकारी, तथाऽभ्याहृतभोजी स्थानानि पूर्वपश्चात्संस्तुतोपजीवी, नियतपिण्डभोजी अग्रपिण्डभोजी 'पार्श्वस्थः' देशपार्श्वस्थो भवतीत्यक्षरार्थः ॥ ७२ ॥ विशेषार्थ प्रतिपदं बिभणिषुराहसिज्जाअरोत्ति भण्णइ, आलयसामी उ तस्स जो पिंडो।असणाई तं भुंजइ, सिजायरपिंडभोई उ ॥७३॥ शय्यातर पिण्डः सिजाअरो'त्ति । शय्यातर इति भण्यते 'आलयस्वामी' वसतिप्रदाता, तस्य सत्को यः पिण्डोऽशनादिश्चतुर्विधस्तं यो भुङ्क्ते स शय्यातरपिण्डभोजी भवति ॥ ७३ ॥ |गामे वा णगरे वा, कुलेसु संकामिएसुसंमत्तं । जो गिण्हइ असणाई, सो खल कुलणिस्सिओभणिओ७४ा कुलनिनि तत्वम् _ 'गामे वत्ति । स्वयं सम्यक्त्वं 'सङ्कामितेषु' प्रापितेषु मिथ्यात्वादुत्तार्य कुलेषु ग्रामे वा नगरे वा गत्वाऽशनादि यः सरसाहारलाभबुद्ध्या निरन्तरं तदुपजीवनेन गृह्णाति स खलु कुलनिश्रितो भणितः ॥ ७४ ॥ इदमित्थं व्यवहारवृत्ती।" Dinelibrary.org Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यानम् , उपलक्षणं चैतत् रसलाम्पढ्यादपरिचितभिक्षापरीपहपराजितत्वाद्वा दृष्टाभाषितादिकुलोपजीवनेनापि कुलनिश्रितत्वं स्यादेवेत्यभिप्रायवानाह समुदाणं भिंदंतो, भत्तपडिच्छापरो वि एमेव । जं सड्ढाइकुलाणं, मिस्सा भणिया जिसीहढे ॥७५॥ निधि 5 'समुदाणं ति । 'समुदानम्' अनावर्जनादिभावशुद्धमज्ञातोन्छे भिन्दन्' आत्मनो दोषेण विलुम्पन्नपरिचितकुले दुर्ल-तार्थान भमशनादिकमित्यादि यत्किञ्चित्कदालम्बनं गृहीत्वा भक्तानां-श्रद्धामात्रवता या प्रतीच्छा-तद्दत्ताहारादिग्रहणलक्षणा तस्यां । परः-निबद्धानुवन्धोऽपि 'एवमेव' कुलनिश्रित एव, 'यत्' यस्मात् 'निशीथार्थे' निशीथचूर्णी कुलनिश्रितव्याख्याने श्रा-18 द्धादिकुलानां निश्रा भणिता न तु ग्राहितसम्यक्त्वकुलनिश्रामात्रं गृहीतमिति. तथा च तत्पाठः-"सड्डाइकुलणिस्साए |विहरई"त्ति ।। ७५ ॥ सो ठवणकुल्लवजीवी, जो पविसइ लोगगरहियकुलेसु। सेहगिलाणादिट्ठा,ठविएसु व दायगकुलेसुं ॥७६॥ थापनाकHT 'सो ठवण त्ति । स स्थापनाकुलोपजीवी यो लोकगर्हितेवितरकालं यावत्कालं वा जनरपरिभोग्यतया स्थापितेषु कुलेषु । प्रविशत्याहाराद्युत्पादनार्थम् , यो वा शैक्षग्लानाद्यर्थ स्थापितेषु तदर्थ विना गुर्वनुपदिष्टः स्वार्थमाहारलाम्पध्याद्दायककुलेषु प्रविशति । व्यवहारों तु स्थापितकरचितभोज्यप्यत्र गृहीतः, तदुक्तम्-'उवण त्ति ठवणकुलाणि णिविसइ प्रिलोकना MIअहवा ठवितगरइतगाणि गेण्हइ"त्ति ॥ ७६ ॥ JainEducation'international For Private & Personal use only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *A* गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः अभ्याहृतम्. स्वोपज्ञव संखडिपलोअणाए, भोअणलोलो पलोअणाकारी।आयंसाइसु णियतणुवण्णं वा जो पलोएइ ॥ ७७॥ त्तियुतः तृतीयो 'संखडित्ति । सङ्खण्ड्यन्ते प्राणिनामायूंपि यस्यां सा सङ्घडी-विवाहाद्युत्सवरूपा तस्याः प्रलोकना-बारं वारं विलोकना 18|तया 'भोजनलोलः' आहारलम्पटः प्रलोकनाकारी भण्यते । 'वा' अथवा यो निजतनुवर्णमादशादिषु प्रलोकयति, तदुक्तम् ॥१५॥ -"संखडिं पलोएइ देहं वा पलोएइ आयंसाइसु व”त्ति ॥ ७७ ॥ आइपणमणाइण्णं, णिसीहभिहडं च णोणिसीहं च ।अभिहडभोई तत्थाणाइण्णे णोणिसीहम्मि॥७॥ ___ 'आइण्ण'मिति । अभ्याहृतं द्विविध-आचीर्णमनाचीर्ण च । तत्राचीर्ण हस्तशतप्रमिते क्षेत्रे तन्मध्ये वा त्रिषु गृहेषूपयोगसम्भवे भवति, तदुक्तं पिण्डनियुक्तौ-"आइन्नं पि य दुविहं, देसे तह देसदेसे य ॥ हत्थसयं खलु देसो, आरेणं होइ देसदेसो य । आइन्नं सत्तिगिहा, ते वि य उवओगपुवागा॥१॥” एतच्च हस्तशतादारभ्याहृतमुत्कृष्टम् , स्वापत्यादिपरिवेषणार्थमुत्पाटितं हस्तस्थमेवाभ्याहृत्य दीयमान जघन्यम् , शेषं तु मध्यममिति व्यवस्थितम् । एतद्विपरीतमनाचीर्णम् । तदपि द्विविधं-निशीथाभ्याहृतं नोनिशीथाभ्याहृतं च । तत्र निशीथं मध्यरात्रं तत्रानीतं किल प्रच्छन्नं भवति, एवं साधूनामपि दायकेन मातृस्थानकरणेनाविदितं यदभ्याहृतं तत्प्रच्छन्नत्वसाधान्निशीथाभ्याहृतम् । यत्तु साधोविदितं यथैतदभ्याहृतमिति तन्नोनिशीथाभ्याहृतम् । तत्रानाचीणे नोनिशीथे चाभ्याहृते भुज्यमानेऽभ्याहृतभोजी अन्यथा तु न दोषभागिति ॥ ७८ ॥ SUPRA ॥१५१॥ Main Education International For Private & Personal use only ainelibrary.org Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयणं वा दाणं वा, पडुच्च जो संथवं दुहा कुणइ । पुत्विंपच्छासंथवउवजीवी सो उ पासत्थो ॥ ७९ ॥ पूर्वपश्चात्सं. | 'सयणं वत्ति । 'स्वजनं प्रतीत्य' मातापित्रादिकं पूर्वसंस्तवम् , श्वश्रूश्वशुरादिकं च पश्चात्संस्तवम् , 'दानं वा प्रतीत्या स्तवः अदत्ते पूर्वसंस्तवम् , दत्ते च दिनान्तरे तथाभावसम्पादनाय पश्चात्संस्तवम् , 'द्विधा' रूढियोगार्थाभ्यां द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां यः करोति स तु पूर्वपश्चात्संस्तवोपजीवी पार्श्वस्थः, तदुक्तम्-"सयणं पडुच्च मातापितादिअं पुवसंथवं करेइ, पच्छासंथवं वा सासुससुरादिअं, दाणं वा पडुच्च अदिन्ने पुवसंथवो, दिन्ने पच्छासंथवो"त्ति । एकत्र पक्षे संस्तवशब्दः परिचर्यार्थः, अन्यत्र |च सम्यक्प्रकारेण स्तव इति संमुखीनोऽर्थः ॥ ७९ ॥ साहाविअंणिकाइअमन्नं च निमंतिअंतिहा निययं । अण्णयरं भुंजतो, भपणइ एयं निययपिंडी ॥ ८॥ नियतपिण्डः । 'साहाविऑति । एक स्वाभाविकमपरं निकाचितमन्यच्च निमन्त्रितमित्येतत्रिधा नियतं देयं भवति । तत्र यन्न संयतार्थमेव देयतया कल्पितं किन्तु य एव श्रमणोऽन्यो वा प्रथममागच्छति तस्मै यदग्रपिण्डादि दीयते तत्स्वाभाविकम् , यत्पुनभूतिकर्मादिकरणतश्चतुर्मासादिकं कालं यावत्प्रतिमासं निकाचितं-निबद्धीकृतं गृह्यते तन्निकाचितम् , यत्तु दायकेन निम-| न्त्रणापुरस्सरं प्रतिदिवसं नियतं दीयते तन्निमन्त्रितमिति, एतदन्यतरद्धञ्जानो नियतपिण्डोपभोजी भण्यते ॥ ८ ॥ सो होइ अग्गपिंडी, अग्गं कुराइ भुंजई जो उ । देसेणं एमाइसु, अववायपएसु पासत्थो ॥ ८१ ॥ अग्रपिण्ड भोगः | 'सो होइति । स भवत्यग्रपिण्डोपभोजी यः 'अग्रं' उपरितनं प्रधानं वा कूरादि भुङ्क्ते । एवमादिकेषु 'अपवादपदेषु' POOR Jan Edutan international Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञ- साधुजननिन्दास्थानेष्वपराधेषु देशेन पार्श्वस्थो भवति ॥ ८१ ॥ नन्वेतादृशानि देशपार्श्वस्थस्थानानि श्रमणेऽपि भव-10 गुरुतत्त्वत्तियुतः सन्तीति श्रमणपार्श्वस्थयोः सङ्करप्रसङ्ग इत्यत्राह विनिश्चयः तृतीयो- समणा वि केइ एरिसदोसा तह वि हु ण हुंति पासत्था। ववहरिअवा जम्हा, बाहुलं होइ तब्बीअं॥८॥ ल्लासः ॥ १५२॥ “समणा वित्ति । श्रमणा अपि केचिदपवाददशां विनाऽपि तथाविधकर्मोदयेनेदृशदोषा भवन्त्यतिचारदशायां तथा-1/अमणे देशऽपि पार्श्वस्था व्यवहतव्या न भवन्ति, यस्माद्बाहुल्यं तद्बीजं व्यवहारवीजं भवति । यथा खल्वल्पपिचुमन्दमप्यास्रवण पार्श्वस्थस्था|माम्रवणत्वेनैव व्यपदिश्यते न तु पिचुमन्दवनत्वेन, तथाऽल्पदोषाः साधवोऽपि चरणकरणनिर्वाहैकदृष्टयः साधुत्वे नसंभवादुव्यपदिश्यन्ते न तु पार्श्वस्थत्वेनेति भावः, एवमन्यत्राप्यवसेयम् ॥ ८२ ॥ एवं तावत्पाश्वस्थताया अल्पत्वाच्छ्रमणे : भयोःसङ्करभावो विवक्षितः । अथोत्कृष्टगुणाभिभूतत्वेन पार्श्वस्थत्वं तत्र सदपि न व्यवहर्त्तव्यमित्यभिप्रायवानाह प्रसंगस्याप नोदनम्. जह उक्किट्ठगुणेणं, कवम्मि अदुट्ठया ण सहावा । तह छउमत्थोणेओ, चरणदढत्ता अपासत्थो॥८३॥2 ही जहत्ति । यथोत्कृष्टगुणेन विशिष्टेन वा काव्ये सामाजिकप्रतिभायां दोपतिरोधानाददुष्टता न तु स्वभावात् , निःशेपदोषोत्सारणस्य गीर्वाणगुरोरप्यशक्यत्वादन्ततोऽविमृष्टविधेयांशस्यापि सम्भवात् यत्किञ्चिद्दोषाभावस्य चातिप्रसक्तत्वात्। तथा चादोषत्वं स्फुटदोषाभाववत्त्वमेव काव्यलक्षणघटकम् , व्यक्तं चैतत् तददोषौ शब्दार्थों इत्यत्र काव्यप्रकाशे; तथा छ- ॥१५२॥ मस्थोऽपि चरणदृढत्वादेव स्फुटपार्श्वस्थत्वाभावादपार्श्वस्थोऽन्यथा यावत्संज्वलनोदयमतिचाररूपपार्श्वस्थस्थानानुवृत्तेरित्य Main Education International For Private & Personal use only T hinelibrary.org Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधेयम् ॥ ८३ ॥ उक्तः पार्श्वस्थः । अथावसन्नमाह किरियासु विसीअंतो, ओसन्नो होइ सो विदुविअप्पो। देसे सत्वे अतहा, देसम्मि इमेसु ठाणेसु ॥८४॥ अवसन्नः RI 'किरियासु'त्ति । क्रियासु 'विषीदन्' अकरणवितथकरणादिबहुदोषेणालसीभवन्नवसन्न उच्यते, तदुक्तम्-"अथाव सन्नो बहुतरगुणापराधि"त्ति, सोऽपि द्विविकल्पो 'देशे सर्वस्मिंश्च देशावसन्नः सर्वावसन्नश्चेत्यर्थः । तत्र देशावसन्न इमेषु स्थानेषु प्रमत्तः सन् भवति ॥ ८४ ॥ तान्येवाहआवस्सगसज्झाए, पडिलेहण झाण भिक्ख भत्तटे।आगमणे णिग्गमणे, ठाणे अणिसीअण तुयट्टे ॥८५॥ देशावसन्नः 'आवस्सग'त्ति । आवश्यकादिध्ववसीदन् देशतोऽवसन्न इत्योघतो गाथाऽक्षरयोजना, भावार्थस्त्वयम्-आवश्यकमनि तत्स्थानानि यतकालं करोति कदाचित्करोति कदाचिन्न वा करोति, यदि वा हीनं करोति हीनकायोत्सर्गादिकरणात् , अतिरिक्तं वाऽनुप्रेक्षार्थमधिकतरकायोत्सर्गकरणात् , अथवा यद्देवसिके आवश्यके कर्तव्यं तद्रात्रिके करोति, रात्रिके कर्त्तव्यं च ५ देवसिके । तथा 'स्वाध्यायं' सूत्रपौरुषीलक्षणमर्थपौरुषीलक्षणं वा कुरुध्वमिति गुरुणोक्ते गुरुसम्मुखीभूय किञ्चिदनिष्टं जल्पित्वाविप्रियेण करोति, न करोति वा, सर्वथा विपरीतं वा करोति, कालिकमुत्कालिकवेलायाम् , उमुत्कालिकं वा | कालिकवेलायाम् । प्रतिलेखनामपि वस्त्रादीनामावर्त्तनादिभिरूनामतिरिक्ता विपरीतां वा दोषैर्वा संसक्तां करोति । तथा है ध्यानं' धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा यथाकालं न ध्यायति । तथा भिक्षां न हिण्डति, गुरुणा वा भिक्षायां नियुक्तो गुरुस inte For Private Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञ तृतीयो॥१५३॥ म्मुखं किञ्चिदनिष्टं जल्पित्वा हिण्डते, अनुपयुक्तो वा भिक्षाविशुद्धिं न करोति । तथा 'भक्तार्थ' भक्तविषयं प्रयोजनं गुरुतत्त्व सम्यग् न करोति, किमुक्तं भवति?-न मण्डल्यां समुद्दिशति, काकशृगालादिभक्षितं वा करोति, द्वाभ्यां वा सह भुते, विनिश्चयः तदुक्तं निशीथचूर्णी-"भत्तट्ठ त्ति मंडलीए कयाइ भुंजइ कयाइ ण मुंजइ मंडलिसामायारिं वा ण करेइ दोहिं वा ल्लासः जइ"त्ति । व्यवहारचूर्णी तूक्तम्-"भत्तद्वे त्ति मंडलीए ण समुद्दिसइ कागसिआलक्खइआईहिं वा समुद्दिसइ"त्ति । अन्ये तु व्याचक्षते-'अभत्तट्टत्ति अभक्तार्थग्रहणं सकलप्रत्याख्यानोपलक्षणम् , तथा चायमर्थः-प्रत्याख्यानं न करोति गुरुणा वा भणितो गुरुसंमुखं किञ्चिदनिष्टमुक्त्वा करोति । आगमने नैषेधिकीं न करोति निर्गमने आवश्यकीम् । 'स्थाने अर्द्धस्थाने 'निपीदने उपवेशने 'त्वग्वर्त्तने' शयने, एतेषु क्रियमाणेषु न प्रत्युपेक्षणं करोति न वा प्रमार्जनं करोति, प्रत्यु|पेक्षणप्रमार्जने वा दोषदुष्टे करोति ॥ ८५ ॥ उक्तो देशाबसन्नः । अथ सर्वावसन्नमाह ठवियगरइअगभोई, सवे उउबद्धपीढफलगो य । मिच्छासामायारीलग्गो सो पत्तमकरितो ॥ ८६॥सर्वावसन्नः | 'ठवियगत्ति । स्थापितकभोजी-स्थापनादोषदुष्टप्राभृतिकाभोजी, तथा रचितकं नाम कांस्यपात्र्यादिषु पटादिषु वा यदशनादि देयबुद्ध्या वैविक्त्येन स्थापितं तद्भधे इत्येवंशीलो रचितकभोजी, तथाऽबद्धपीठफलको यः पक्षस्याभ्यन्तरे पीठफलकादीनां बन्धनानि मुक्त्वा प्रत्युपेक्षणां न करोति यो वा नित्यावस्तृतसंस्तारक इति व्यवहारवृत्तौ । निशीथ गोवप्युक्तम्-"जो अपक्खस्स पीढफलगादिआणं बंधे मुत्तु पडिलेहणं न करेइ सो संजओ उब्बद्धपीढफलगो अहवा| ॥१५३॥ णिच्चुत्थरिअसंथारगो उब्बद्धपीढफलगो भण्णति"त्ति । वन्दनकभाष्यव्याख्याने तु सर्वावसन्नाधिकार एवमुक्तम् 5555 For Private Personal Use Only nefibrary.org Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तत्राद्यो वर्षाकालं विनाऽपि शेषकालेऽपि पीठफलगा(का)दिपरिभोजी" इति । उपदेशमालायामपि पार्श्वस्थादिस्थानाभिधानाधिकारे-"पीढफलगपडिबद्धो" इत्यत्र ऋतुबद्धेऽपि पीठादिसेवनासक्त इति व्याख्यातम् । व्यवहारचूर्णावपि -"उडुबद्धे वि णिक्कारणे संथारएसु सुवई"इत्याद्युक्तम् । एतच्च सर्वमप्युद्वद्धऋतुबद्धपाठभेदेन संगतम् । अयं च सङ्केपतोऽवसन्नो यः 'मिथ्यासामाचारीलग्नः' सामाचारीवैतथ्यकारी, यो वा प्राप्तं प्रायश्चित्तमकुर्वस्तिष्ठति । तदुक्तं निशीथचूणौं-"सामायारिं वितह, ओसन्नो जं च पावए जत्थ ।" इत्यस्य प्रतीकस्य व्याख्याने-"सवं सामायारि वितहं करितो ओसन्नो जं वा मूलुत्तरगुणातिआरं जत्थ किरियाविसेसे पयट्टो पावइ तं अनिंदितो अणालोअंतो पच्छित्तं अकरितो ओसन्नो भवई"त्ति । व्यवहारवृत्तौ त्वेतत्प्रतीकं प्रायश्चित्तोपदर्शनपरतया व्याख्यातम् , तथाहि-सामाचारी-ज्ञानादिसामाचारी 'काले विणए' इत्यादिरूपाम् , यदि वा सूत्रमण्डल्यर्थमण्डल्यादिगतां सामाचारी वितथा कुर्वन् यत्र स्थाने यत्प्रायश्चित्तं प्रामोति तत्र तस्य स्वस्थाननिष्पन्नं प्रायश्चित्तमिति ॥ ८६ ॥ उक्तोऽवसन्नः। अथ कुशीलमाहतिविहो होइ कुसीलो, नाणे तह दंसणे चरित्ते य। नाणम्मि णियायारब्भंसे एमेव दसणओ ॥ ८७॥ कुशीलः _ 'तिविहोत्ति । त्रिविधो भवति कुशीलो ज्ञानकुशीलो दर्शनकुशीलश्चारित्रकुशीलश्चेति । तत्र ज्ञाने कुशीलो निजाचा-181 राणां-कालविनयादिकानां भ्रंशे-विराधने भवति । एवमेव निःशङ्कितत्वादीनां निजाचाराणां भ्रंशे दर्शनतः कुशीलः॥८७॥ । चरणकुचरणे कोउअभूई पसिणापसिणे णिमित्तमाजीवी । कककुरुआइलक्षणमुवजीवइ विजमंताई ॥८॥ शीलः JainEducad For Private Personal Use Only wanamainelorery.org Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25% A कौतुकम्. स्वोपज्ञवृ- 'चरणे'त्ति । 'चरणे' चारित्रे च कुशीलो भवति कौतुके भूतिकर्मणि प्रश्नाप्रश्ने च क्रियमाणे निमित्तमुपजीवन् ‘आ- गुरुतत्त्वत्तियुतः जीवी' आजीविकाकारी, तथा कल्ककुरुकयोपलक्षितो यः लक्षणं विद्यामन्त्रादि च य उपजीवति ॥१८॥ एतान्येव पदानि 01 विनिश्चयः तृतीयो- प्रत्येकं व्याचिख्यासुराह ल्लास: ॥१५४॥ सोहग्गाइणिमित्तं, परेसि ण्हवणाइ कोउगं भणियं । मुहजलणकड्डणाइअमहवा अच्छेरयं चरिय॥८९॥ 'सोहग्गाईत्ति । सौभाग्यादिनिमित्तं परेषां यत्स्नपनादि क्रियते तत्कौतुकं भणितम् , तदुक्तम्-"निन्दुमाइआणं तिग-2 डाचच्चराइसु ण्हवणं कारेइ त्ति कोउअं।" अथवा मुखाज्वलनकर्षणादिकमाश्चर्यकृच्चरित्रं कोतुकं भण्यते, तदुक्तं व्यवहार वृत्तौ-"कौतुकं नामाश्चर्य यथा मायाकारको मुखे गोलकान् प्रक्षिप्य कर्णे निष्काशयति नाशिकया वा, तथा मुखा-18 दग्निं निष्काशयति" इत्यादि ॥ ८९॥ जरिआइभूइदाणं, भूईकम्मं तहा विणिद्दिटुं। पसिणापसिणं कहणं, सुविणगविजादिकहियस्स॥९०॥ भूतिकर्म _ 'जरिआइत्ति । ज्वरितादीनां यद्भूतिदानम्-अभिमन्त्रितरक्षाप्रदानं तद्भूतिकर्म विनिर्दिष्टम् , तदुक्तम्-"रक्खणिमित्तं प्रभातच अभिमंतियं भूई देइति । तथा स्वप्नकविद्यादिना कथितस्यार्थस्य यदन्येभ्यः कथनं तत्प्रश्नाप्रश्नम् , प्रश्नस्य आ-समन्तात्प्रश्नो यत्र स्वेष्टदेवतादीनामिति व्युत्पत्तेः, तदुक्तम्-"सुविणगविज्जाकहियं, आइंखिणिघंटिआइकहियं वा । जं सीसइ ॥१५४॥ ६ अण्णेसिं, पसिणापसिणं हवइ एयं ॥१॥" तथा-"अंगुवाहुपसिणाइ करेइ सुविणगविजाए अक्खियं अक्खमाणस्स GREGARDSCAUSES RASACAKACH For Private & Personal use only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECORRECARROR पसिणापसिणं [ हवइ एयं ] ।” ॥ ९० ॥ तीअं च पडुप्पन्नं, भणइ णिमित्तं अणागयं वाणं। जो पूआइणिमित्तं, होइ णिमित्तोवजीवी सो॥९१॥ निमित्तोप__ 'तीअं च'त्ति । अतीतं च प्रत्युत्पन्नं चानागतं वा 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे निमित्तं यो भणति लोकानां पुरः पूजादि-2जीवी निमित्तं स निमित्तोपजीवी भवति ॥ ९१॥ जाईइ कुले अ गणे, कम्मे सिप्पे तवे सुए चेव।सत्तविहं आजीविअमुवजीवइ सो उ आजीवी ॥९॥1 आजीवी | 'जाईइत्ति । 'जातौ' मातृपक्षे 'कुले' पितृपक्षे 'गणे' मल्लगणादिके 'कर्मणि' अनाचार्यके कार्ये 'शिल्पे' आचार्योपदेशजे 'तपसि' बाह्याभ्यन्तरभेदे 'श्रुते च' शास्त्राध्ययने एवंविषयभेदात्सप्तविधामाजीविकामुपजीवति यः स सप्तविध आजीवी भण्यते, तथाहि-जाति कुलं चात्मीयं लोकेभ्यः कथयति येन जातिपूज्यतया कुलपूज्यतया वा भक्तपानादिकं प्रभूतं लभ्यत इति, अनयैव बुद्ध्या मल्लगणादिगणेभ्यो गणविद्याकुशलत्वं कर्मशिल्पकुशलेभ्यः कर्मशिल्पकौशलं कथयति, तपउपजीवी तपः कृत्वा क्षपकोऽहमिति जनेभ्यः कथयति, श्रुतोपजीवी बहुश्रुतोऽहमिति स्वप्रशंसां स्फोरयतीति ॥ ९२॥ लोद्धाइकउबट्टणमहवाऽऽमयखारपाडणं कको । देसेण व सवेण व, सिणाणमंगस्स कुरुआ य॥९३॥ कल्ककुरुक है। 'लोद्धाइत्ति । लोध्रादिकृतमुद्वर्त्तनं शरीरस्य कल्क उच्यते, अथवा आमयेषु प्रसूत्यादिषु रोगेषु क्षारपातनं देशेन वा सर्वेण वाऽङ्गस्य स्नानं च कुरुका। तथा च कल्केन सहिता कुरुका कल्ककृरुकेत्यर्थः, उक्तं च व्यवहारवृत्ती-"कल्को Jan Education temin For Private Personal use only wanamainelorery.org Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञव. नाम प्रसूत्यादिषु रोगेषु क्षारपातनम् , अथवाऽऽत्मनः शरीरस्य देशतः सर्वतो वा रोधादिभिरुद्वर्त्तनम् , तथा कुरुका गुरुतत्त्व त्तियुतः देशतः सर्वतो वा शरीरस्य प्रक्षालनमिति” । तचूर्णावप्युक्तम्-"कक्क त्ति पसुतिमाईसु खारं पाडेइ, अहवा लोद्धमादि- विनिश्चयः तृतीयो-18 एहिं देसुबट्टणं वा सव्वुबट्टणं वा अत्तणो सरीरे करेइ, कुरुअ त्ति देसे सबे वा पक्खालणं करेइ ।” त्ति । निशीथचूर्णी लासः हतूक्तम्-"लोध्रादिकेन कल्केन जङ्घादि घसति सरीरे सुस्सूसाकरणं कुरुआ बकुसभावं करेति त्ति वुत्तं भवति"त्ति ॥१३॥ ॥१५५॥ अण्णे उ कक्ककुरुअं, मायाणियडीइ भासणं विंति।थीलक्खणाइ लक्षणमुग्घाडा विजमंता य ॥९४॥ कल्ककुरुRI 'अण्णे उत्ति । अन्ये तु कल्ककुरुका मायानिकृत्या भाषणं ब्रुवते, कल्केनावद्येन कृत्वा कुरुका कल्ककुरुकेति व्यु-कार्थान्तरम्. त्पत्तेः, तदुक्तमावश्यके-"कक्ककुरुआ य मायाणियडीए णं भणंति ज भणियं" ति । 'स्त्रीलक्षणादि' कररेखामषीतिलकादि लक्षणम् , विद्या मन्त्राश्च 'उद्धाटाः' प्रकटाः, तथाहि-ससाधना विद्या, असाधनो मन्त्रः, यदि वा यस्या(अ)धि- चामवादि ठात्री देवता सा विद्या, यस्य पुरुषः स मन्त्र इति हि व्यक्तमेवेति ॥ ९४ ॥ आदिशब्दग्राह्यमाहआइपया घेतवा, जे दोसा मूलकम्मचुन्नाई । होइ कुसीलो समणो, कुच्छिअसीलो हु एएहिं ॥१५॥ _'आइपय'त्ति । आदिपदाद् ग्रहीतव्या ये दोषा मूलकर्मचूर्णादयः । तत्र मूलकर्म नाम पुरुषद्वेषिण्याः सत्या अपुरुष-18 है दूषिणीकरणम् , अपुरुषद्वेषिण्याः सत्या पुरुषविद्वेषीकरणम् , गर्भोत्पादनशातनादि वा । चूर्णयोगादयश्च प्रतीताः । एतै-18/॥१५५॥ दोषैः कुत्सितशीलः श्रमणः कुशीलो भवति शबलभावसम्पादकविरुद्धक्रियया कुशीलत्वव्यवस्थितेः॥ ९५॥ उक्तः SRUSSISHUHUSICALES लक्षणं वि IXn For Private Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CRORSC 18 कुशीलः । अथ संसक्त उच्यते संसत्तो बहुरूवो, अलिंदनडएलगोवमो दुविहो। एगो असंकिलिट्ठो, इयरो पुण संकिलिट्ठप्पा॥९॥18 सक्तः 'संसत्तोत्ति । 'बहुरूपः' यस्य यस्य सङ्गं करोति तत्तद्गुणदोषानुविधायी संसक्तः, किम्भूतः ? इत्याह-'अलिन्दनटैडको-13 पमः' यथा गोभक्तालिन्दके यत्किञ्चिदुच्छिष्टमनुच्छिष्टं वा ओदनावश्रावणादिकं वा सर्व क्षिप्यते एवमत्र सर्वाण्यपि संनिहितसंविग्नासंविग्नलक्षणानि लभ्यन्त इत्यलिन्दसमः, यथा नटो रङ्गभूमौ प्रविष्टः कथानुसारतस्तत्तद्रूपं करोति तथा यः पार्श्वस्थादिमिलितः पार्श्वस्थादिरूपं संविग्नमिलितश्च संविग्नरूपं भजत इति नटोपमः, यथा एडको लाक्षारसनिमग्नः सन् लोहितवर्णो भवति नीलीकुण्डे निमग्नः संश्च नीलवर्णस्तथाऽयमपि संविग्नमिलितः शुभाशयोऽसंविग्नमिलितश्चाशुभाशय इत्येडकोपमः । स चायं द्विविधा-एकोऽसक्लिष्ट इतरः पुनः सक्लिष्टात्मा ॥ ९६ ॥ असक्लिष्टमाहपासत्थाइसु मिलिओ, तारूवो चेव होइ पिअधम्मो। पियधम्मेसु मिलिओ, असंकिलिट्ठो इमो होइ९७॥ असंक्लिष्ट| 'पासत्थाइसुत्ति । पार्श्वस्थादिषु मिलितः तद्रूप एव' पार्श्वस्थादिरूप एव भवति, प्रियधर्मसु च मिलितः प्रियधर्मा संसक्तः भवति, अयमसंक्लिष्टः संसक्तो भवति, संसृज्यमानगुणदोषानुविधायिस्वभावत्वस्यासक्लिष्टलक्षणत्वादोषेकसङ्क्रमणस्वभावापेक्षया दोषगुणोभयसङ्कमस्वभावेऽसक्लिष्टत्वस्य सार्वजनीनत्वादोषापकर्षमात्रस्यापि तत्त्वतो गुणत्वात् । न चैवं सामान्यलक्षणाऽभेदः, संसृज्यमानस्वभावानुविधायित्वमात्रस्यैव सामान्यलक्षणत्वे तात्पर्याद्, अत एव-"एमेव य मूलुत्तरदोसा AGAROSCORROCCORDS wain Education international For Private & Personal use only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल्लास: स्वोपज्ञवाय गुणा य जत्तिया केई । ते तम्मि उ संनिहिया संसत्तो भन्नई तम्हा ॥ १॥” इत्यनया यथोक्तं मूलोत्तरगुणदोषाणां गुरुतत्त्वत्तियुतः संनिधानं यथासम्भवमेव भावनीयम् ॥ ९७ ॥ उक्तोऽसंक्लिष्टः संसक्तः । अथ सक्लिष्टं तमाह विनिश्चयः तृतीयो. पंचासवप्पवत्तो, जो खलु तिहिं गारवेहिं पडिबद्धो। गिहिइत्थीसु अ एसो, संसत्तो संकिलिट्टप्पा॥९॥ । 'पंचासवप्पयत्तो'त्ति । यः खलु पञ्चस्वास्रवेषु-हिंसादिषु प्रवृत्तः, तथा त्रिभिः 'गारवैः' ऋद्धिरससातलक्षणैः प्रतिबद्धः, संश्लिष्ट5 तथा गृहिषु स्त्रीषु च प्रतिबद्धः, एष संसृज्यमानदोषमात्रानुविधायिस्वभावत्वेन सक्लिष्टात्मा संसक्तो भवति, तथाविध- संसक्तः कुमित्रादिसंसर्गेण तद्गतहिंसादिदोषाणां सङ्कमाद्धिंसादिषु प्रवृत्तेः, गारवमग्नपरिजनादिसंसर्गेण च गारवमन्जनात् , गृहिस्त्रीसंसर्गेण च गृहकार्यकामचेष्टादिसम्भवादिति ॥ ९८ ॥ उक्तः संसक्तः । अथ यथाच्छन्दमाह उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो । एसो उ अहाछंदो, इच्छाछंदु त्ति एगट्ठा ॥ ९९ ॥ 121 81 'उस्सुत्तति । सूत्रादूर्द्धम्-उत्तीर्ण परिभ्रष्टमित्यर्थ उत्सूत्रम् तदाचरन् , प्रतिसेव्यमानमेवोत्सूत्रं यः परेभ्यः प्रज्ञापयन् 81 वर्त्तते एष यथाच्छन्दोऽभिधीयते, यत इच्छाछन्दो यथाछन्द इत्येकार्थों, किमुक्तं भवति ? छन्दो नामेच्छा तामनतिक्रम्य प्रवर्तते यः स यथाछन्द इति युक्तमुक्तमेतत् ॥ ९९ ॥ उत्सूत्रं व्याचष्टे उस्सुत्तमणुवइटुं, सच्छंदविगप्पिअं अणणुवाई । परतत्तिपवित्ते तिंतिणे य एसो अहाछंदो ॥१००॥1॥१५६॥ KI 'उस्सुत्तमणुवइट्ट'ति । उत्सूत्रं नाम यत्तीर्थकरादिभिरनुपदिष्टं तत्र या सूरिपरम्परागता सामाचारी यथा नागिला रजो-18 उत्सूत्रार्थः नायथाच्छन्द: wmanaw.jainelibrary.org Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - E M कारणमद्धमुखं कृत्वा कायोत्सर्ग कुर्वन्तीत्यादि, साऽप्यनेपूपाङ्गेषु नोपदिष्टेत्यनुपदिष्टम् । सङ्केततोऽनुपदिष्ट स्वरूपमाह स्वच्छन्देन-स्वाभिप्रायेण विकल्पितं-रचितं 'स्वच्छन्दविकल्पितं' स्वेच्छाकल्पितमित्यर्थः, अत एव 'अननुपाति सिद्धान्तेन सहाघटमानकमिति व्यवहारवृत्ती व्याख्यातम् । तच्चर्णावप्येवमुक्तम्-"अणुवदिटुंणाम आयरियपरंपरागया सामायारी, जहा नाइला उवराहुत्तं रयहरणं काउं वोसिरंति चारणाणं बंदणए थामति भण्णति, एरिसंण भवइ, केरिसं पुण अणुवदिद?, उच्यते-सच्छन्दविगप्पिअं-स्वेच्छाकल्पितमित्यर्थः, अणणुवाइ-अघडमाणं अनुपपन्नमित्यनान्तरम् । अन्यत्र त्वेवं व्याख्यातम्-"उस्सुत्तं णाम सुत्तादवेअं, अणुवदि8 णाम जं णो आयरियपरंपरागयं मुक्तव्याकरणवत्, सीसो पुच्छइ-किमण्णं सो परूवेइ? आचार्य आह–'सच्छंदविगप्पिों स्वेन च्छन्देन विकल्पितं स्वच्छन्दविकल्पितम् , तं च अणणुवाती न क्वचित्सूत्रेऽर्थे उभये वाऽनुपाति भवति"त्ति । न केवलमुत्सूत्रमाचरन् प्रज्ञापयंश्च यथाच्छन्दः किन्तु यः परतप्तिषु-गृहस्थप्रयोजनेषु करणकारणानुमतिभिः प्रवृत्तः, तथा तिंतिणो नाम यः स्वल्पेऽपि केनचित्साधुनाऽपराधे कृतेनवरतं पुनः पुनझपन्नास्तेऽयमेवंरूपो यथाछन्दः। अन्यत्र त्वेवं व्याख्यातम् -'परो गृहस्थस्तस्य कृताकृतव्यापारवादभापी वा स्त्रीकथादिप्रवृत्तो वा परतप्तिप्रवृत्तः, 'तिंतिणो दवे भावे य, दवे टिंवरुगादिकी अगणिपक्खित्तं तिणतिणेइ, भावे तितिणो आहारोवहिसेज्जाओ इटाओ अलभमाणो सोअइ जूरइ तिप्पइ, एवं दिवसं पि तिडतिडतो अच्छइ।"१००॥ सच्छंदमइविगप्पिअ, किंची सुहसायविगइपडिबद्धो। तिहिं गारवेहिं मजइ, तं जाणाही अहाछंदं ॥१॥ 'सच्छंदमइति । स्वच्छन्दमतिविकल्पितं किञ्चित्कृत्वा तल्लोकाय प्रज्ञापयति कदालम्बनम् , ततः प्रज्ञापनगुणेन लोकाद् NAMASTIPRI शुरुत. २७ १ Jain Education For Private Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः REAK स्वोपज्ञव-1 विकृतीर्लभते, ताश्च विकृतीः परिभुञ्जानः स्वसुखमासादयति, तेन च सुखासादनेन तत्रैव रतिमातिष्ठते, तथा चाह- गुरुतत्त्वसुखासादे विकृतौ च प्रतिबद्धः तथा तेन स्वच्छन्दमतिविकल्पितप्रज्ञापनेन लोके पूज्यो भवति, अभीष्टरसांश्चाहारादीन विनिश्चयः तृतीयो- प्रतिलभते वसत्यादिकं च विशिष्टम् , अतःस आत्मानमन्येभ्यो बहु मन्यते, तथा चाह-'त्रिभिगोरवैः' ऋद्धिरससातलक्षणैर्मा ल्लासः द्यति, य एवंभूतस्तं यथाछन्दं त्वं जानीहि ॥१॥ इहोत्सूत्रं प्ररूपयन यथाछन्द उक्तः, तत्प्ररूपणामेव भेदतः प्ररूपयति-| ॥१५७॥ अहछंदे पडिवत्ती, उस्सुत्तपरूवणम्मि दुवियप्पा। चरणेसु गईसु तहा. जं ववहारम्मि भणियमिणं ॥२॥ उत्सूत्रद्वैवि_ 'अहछंदे'त्ति । यथाछन्दे 'प्रतिपत्तिः' व्याख्याशैली उत्सूत्रप्ररूपणे द्विविकल्पा भवति. चरणेषु तथा गतिषु । यद् इदं ध्यम् व्यवहारे भणितम् ॥२॥ अहछंदस्स परूवण, उस्सुत्ता दुविह होइ णायवा। चरणेसु गईसुं जा, तत्थ चरणे इमा होइ ॥३॥ व्यवहार _ 'अहछंदस्सत्ति । यथाछन्दस्य प्ररूपणा 'उत्सूत्रा' सूत्रादुत्तीर्णा द्विविधा भवति ज्ञातव्या, तद्यथा-'चरणेषु' चरणवि-18 साक्ष्यम् पया 'गतिषु' गतिविषया, तत्र या चरणे चरणविषया सा 'इयं वक्ष्यमाणा भवति ॥३॥ तामेवाहपडिलेहणि मुहपोत्तिय, रयहरणनिसिज्ज पायमत्तए पट्टे । पडलाइं चोल उण्णा,दसिया पडिलेहणा पोत्तं चरणोत्सू 'पडिलेहणि'त्ति । 'मुखपोतिका' मुखवस्त्रिका मैव 'प्रतिलेखनी पात्रप्रत्युपेक्षिका पात्रकेसरिका. किं द्वयोः परिग्रहेण ? अतिरिक्तोपधिग्रहणदोषादेकयैव कायभाजनोभयप्रत्युपेक्षणकार्यनिर्वाहेणापरवैफल्यात् । तथा 'रयहरणणिसिज'त्ति किं ॥१५७॥ COMCOMCHOCOCCCCX - For Private & Personal use only againelibrary.org Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROSSAUROSAISES रजोहरणस्य द्वाभ्यां निषद्याभ्यां कर्त्तव्यम् ? एका निषद्याऽस्तु । 'पायमत्तए'त्ति यदेव पात्रं तदेव मात्रक क्रियताम्, मात्र वा पात्रं क्रियतां किं द्वयोः परिग्रहेण ? एकेनैवान्यकार्यनिष्पत्तेः, भणितं च- "यो भिक्षुस्तरुणो बलवान् स एकं पात्रं गृह्णीयात्" इति । तथा 'पट्टत्ति य एव चोलपट्टकः स एव रात्रौ संस्तारकस्योत्तरपट्टः क्रियतां किं पृथगुत्तरपट्टग्रहेण ? । तथा | 'पडलाई चोल'त्ति पटलानि किमिति पृथग् ध्रियन्ते? चोलपट्टक एव भिक्षार्थ हिण्डमानेन द्विगुणस्त्रिगुणो वा कृत्वा पटलस्थाने निवेश्यताम् । 'दसियत्ति रजोहरणस्य दशाः किमित्यूर्णमय्यः क्रियन्ते ? क्षोमिकाः क्रियन्तां ? ता पुर्णमयीभ्यो मदतरा भवन्ति । 'पडिलेहपोत्तंति प्रतिलेखनावेलायामेकं पोतं प्रस्तार्य तस्योपरि समस्तवस्त्रप्रत्युपेक्षणां कृत्वा तदनन्तकारमुपाश्रयात्तद्वहिः प्रत्युपेक्षणीयम् , एवं हि महती जीवदया कृता भवतीति ॥ ४॥ दंतच्छिन्नमलित्तं, हरियट्ठिय मजणा य णितस्स।अणुवाइ अणणुवाई, परूव चरणे गतीसुं पि॥५॥ । 'दंतच्छिन्न मिति । हस्तगताः पादगता वा नखाः प्रवृद्धा दन्तैश्छेत्तव्या न नखरदनेन, नखरदनं हि ध्रियमाणमधिककरणं भवति । तथा 'अलिप्तमिति पात्रमलिप्तं कर्त्तव्यं न पात्रं लेपनीयमिति भावः, पात्रलेपने बहुसंयमदोषसम्भवात् । 'हरिअट्ठित्ति हरितप्रतिष्ठितं भक्तपानादि डगलादि च ग्राह्यम् , तद्हणे हि तेषां हरितकायजीवानां भारापहारः कृतो भवति, अन्यथा तु दुःखितदुःखानपहारेणादयालुत्वं स्यादिति । 'पमजणा य जिंतस्सत्ति यदि छन्ने जीवदयानिमित्तं | प्रमार्जना क्रियते ततो बहिरप्यच्छन्ने क्रियताम् , जीवदयापरिपालनरूपस्य निमित्तस्योभयत्रापि सम्भवात् । अक्षरघटना त्वेवम्-'नितस्स' निर्गच्छतः प्रमार्जना भवतु यथा वसतेरन्तरिति । एवं यथाछन्देन चरणेषु गतिषु च प्ररूपणा 'अनुपा lain E stonintematon For Private Personel Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- त्तियुतः तृतीयो लासः ॥१५८॥ तिनी' अनुसारिणी 'अननुपातिनी' अननुसारिणी च क्रियते ॥ ५॥ अथ किंस्वरूपाऽनुपातिनी ? किंस्वरूपा वाऽननुपा- गुरुतत्त्वतिनी? इत्यनुपात्यननुपातिन्योः स्वरूपमाह विनिश्चयः अणुवाइ ती णजइ, जुत्तीपडिअं खु भासए एसो।जं पुण सुत्तावेयं, तं होइ अणाणुवाइ ति॥६॥ 1 'अणुवाइत्तित्ति । यद् भाषमाणः स यथाछन्दो ज्ञायते, यथा 'खुनिश्चितं 'युक्तिपतितं' युक्तिसङ्गतमेष भाषते तदनु-18/ अनुपात्यन नुपातिपदपाति प्ररूपणम् , यथा-यैव मुखपोतिका सैव प्रतिलेखनिकाऽस्त्वित्यादि । यत्पुनर्भाष्यमाणं 'सूत्रापेतं' सूत्रोपष्टब्धयुक्तिविकलं व्याख्यानम्प्रतिभासते तद्भवत्यननुपाति, यथा-चोलपट्टः पटलानि क्रियन्तामिति, षट्पदिकानां पतनसम्भवतो युक्त्यसङ्गततया प्रतिभासमानत्वात् । अथवा सर्वाण्येव पदान्यगीतार्थप्रतिभासापेक्षयाऽनुपातीनि, गीतार्थापेक्षया त्वननुपातीनीति, तदुक्तमन्यत्र-"अहवा सबे पया अगीतस्स अणुवाई प्रतिभान्ति, गीतार्थस्याननुपाती नि,]अनभिहितत्वात् सदोषत्वाच्च ।” युक्तं चैतत् , अत एव परमार्थतो यथाछन्दप्ररूपणेऽननुपातित्वमेव प्रागुक्तमिति ॥ ६॥ तदेतच्चरणप्ररूपणायां प्ररूपणमनुपात्यननुपाति चोक्तम् , इदं चान्यद्रष्टव्यम् , तदेवाहसागारिआइ पलिअंक णिसेज्जासेवणा य गिहिमत्ते । णिग्गंथिचेट्टणाई, पडिसेहो मासकप्पस्स ॥७॥ । 'सागारिआदित्ति । सागारिकः शय्यातरस्तद्विषये ब्रूते, यथा शय्यातरपिण्डे गृह्यमाणे नास्ति दोषः प्रत्युत गुणः, ॥१५८॥ वसति दानतो भक्तपानादिदानतश्च प्रभूततरनिर्जरासम्भवात् । आदिशब्दात्स्थापनाकुलेष्वपि प्रविशतो नास्ति दोषः Jain Education international Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्युत भिक्षाशुद्धिरित्यादि ग्राह्यम् । 'पलियंकरत्ति पर्यङ्कादिषु मत्कुणादिरहितेषु परिभुज्यमानेषु न कोऽपि दोषः, केवलं भूमावुपविशतो लाघवादयो बहुतरा दोषाः । 'निसेज्जासेवण'त्ति गृहिनिषद्यायां सेव्यमानायां गृहेषु निषद्याग्रहण इत्यर्थः को नाम दोषोऽपि त्वतिप्रभूतो गुणः, ते हि जन्तवो धर्मकथाश्रवणतः संवोधमा नुवन्ति । 'गिहिमत्ते' त्ति गृहिमात्र के भोजनं कस्मान्न क्रियते ?, एवं हि काष्ठमृदाद्यसुन्दरपात्रानासेवित्वेन प्रवचनोपघातः परिहृतो भवति, अन्यपात्रभारावहनं च स्यादिति । तथा 'णिग्गंथिचेगुणाइति निर्ग्रन्थीनामुपाश्रयेऽवस्थानादौ को दोषः ?, सङ्किष्ट मनोनिरोधेन ह्यसक्लिष्टमनः संप्रधारणीयमिति भागवत उपदेशः, तच्चासङ्किष्टमनः संप्रधारणं यत्र तत्र स्थितेन क्रियतामिति न कश्चिद्दोषः, अन्यथा ह्यन्यत्रापि स्थितो यद्यशुभं मनः संप्रधारयति तत्र किं न लिप्यते ? इति । तथा मासकल्पस्य प्रतिषेधस्तेन क्रियते, यथायदि मासकल्पात्परतो दोषो न विद्यते तदा तत्रैव तिष्ठन्तु मा विहारक्रमं कार्षुरिति ॥ ७ ॥ चारे वेरजे या, पढमसमोसरण तह य णितिएसु । सुन्ने अकपिए आ, अण्णाउंछे य संभोगे ॥ ८ ॥ 'चारे'ति । चारश्चरणं गमनमित्येकोऽर्थः तद्विषये ब्रूते, यथा चतुर्षु मासेषु मध्ये यावद्वर्षं पतति तावन्मा विहारक्रमं कार्षुः, यदा तु न पतति वर्षं तदा को दोषो हिण्डमानानाम् ? इति । तथा वैराज्येऽपि ब्रूते, यथा वैराज्येऽपि साधवो विहारक्रमं कुर्वन्तु, परित्यक्तं हि साधुभिः परमार्थतः शरीरम्, तद् यदि ते ग्रहीष्यन्तीति किं क्षुण्णं साधूनाम् ? सोढव्याः खलु साधुभिरुपसर्गाः, ततो यदुक्तम् — “नो कप्पइ णिग्गंथाणं वेरज्जविरुद्धरजंसि सज्जं गमणं सज्जं आगमणं "ति तदयुक्तमिति । 'पढमसमोसरणं' ति प्रथमसमवसरणं नाम वर्षाकालस्तत्र ब्रूते, यथा प्रथमसमवसरणे उद्गमादिदोषपरिशुद्धं वस्त्रं Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O स्वोपज्ञवृ पात्रं वा किं न कल्पते ग्रहीतुम्?, द्वितीयसमवसरणेऽपि ह्युद्गभादिदोषशुद्धमिति कृत्वा गृह्यते, सा च दोषशुद्धिरुभय- गुरुतत्त्वत्तियुतः त्राप्यविशिष्टेति, तथा च यदुक्तम्-“नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पढमसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिगा-3 विनिश्चयः तृतीयो-1 हित्तए"त्ति तदयुक्तम् । 'तह य णितिएसुत्ति तथा 'नित्येषु' नित्यवासेषु प्ररूपयति, यथा नित्यवासेऽपि यद्युद्गमोत्पादैष- ल्लास: राणाशुद्धं लभ्यते भक्तपानादि ततस्तत्र को दोषः? प्रत्युत दीर्घकालमेकत्र क्षेत्रे वसतां सूत्रार्थादयः प्रभूता भवन्तीति । ॥१५९॥ तथा 'सुन्नेत्ति यद्यपकरणं न केनापि हियते ततः शून्यायां वसतो क्रियमाणायां को दोषः ?; अथोत्सङ्गट्टनेनोपहन्यते, * नैतदेवम् , अचित्तस्योपधेरुपघातासम्भवात् । अथ संविग्नाकल्पिकत्वमुपघात इत्युच्यते, तदपि न, उद्गमादिदोषाभावेन तदकल्पिकत्वस्यापि वक्तुमशक्यत्वात् । 'अकप्पिए'त्ति अकल्पिको नामागीतार्थस्तद्विषये ब्रूते, यथाऽकल्पिकेन प्रथमशैक्षकरूपेण शुद्धमज्ञातोञ्छ वस्त्रपात्राद्यानीतं किं न भुज्यते? तस्याज्ञातोञ्छतया विशेषतः परिभोगार्हत्वात् । 'संभोए'त्ति सर्वे पञ्चमहाव्रतधारिणः साधवः साम्भोगिका इति सम्भोगे ब्रूते ॥८॥'अकप्पिए अत्ति विशिष्य विवृणोतिकिंवा अकप्पिएणं, गहिअं फासु पि होइ उ अभोजं । अण्णाउंछं को वा, होइ गुणो कप्पिए गहिए॥९॥ अगीतार्थेन गृहीतं प्रासुकमज्ञातोञ्छमपि 'अभोज्यं' अपरिभोक्तव्यं । * भवति?, को वा कल्पिकेन, अत्र गाथायां सप्तमी तृतीयाथै, गृहीते गुणो भवति? नैव कश्चित् , उभयत्रापि शुद्ध्यविशेपात् ॥ ९॥ अधुना 'संभोए'त्ति व्याख्यानयति-- | ॥१५९॥ पंचमहत्वयधारी, समणा सव्वे वि किं ण भुंजंति। इय चरणवितहवादी, इत्तो वुच्छं गतीसुंतु ॥११०॥ CALCARDAMOECOLOGROCER For Private Personal Use Only Linelibrary.org Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गत्युत्सूत्रम् 'पंचमहन्वयधारित्ति । पञ्चमहाव्रतधारिणः सर्वे श्रमणाः किं नैकत्र भुञ्जते ? किं नाविशेषेण सर्वे साम्भोगिका भवन्ति ? येनके संभोगिका अपरेऽसंभोगिकाः क्रियन्त इति । 'इति' एवमुपदर्शितप्रकारेण यथाच्छन्दोऽनालोचितगुणदोषश्चरणे , 8-चरणविषये वितथवादी । अत ऊर्द्ध तु गतिषु वितथवादिनं वक्ष्यामि ॥ ११० ॥ यथाप्रतिज्ञातमेव कथयति- 3 खेत्तं गओ अ अडविं, एको संचिक्खए तहिं चेव। तित्थयरो पुण पियरो, खेत्तं पुण भावओ सिद्धी॥११॥ Pा खेत्तं गओ यत्ति । स यथाछन्दो गतिषु विषये एवं प्ररूपणां करोति-“एगो गाहावई, तस्स तिण्णि पुत्ता, ते सबे खित्तकम्मोवजीविणो पियरेण खित्तकम्मे णिओइया, तत्थेगो खेत्तकम्मं जहाणत्तं करेइ, एगो अडविं गओ देसं देसेण | हिंडईत्यर्थः, एगो जिमिओ देवकुलादिषु अच्छति, कालंतरेण तेसिं पिया मओ, तेहिं सर्व पि पितिसंतियं ति काउं समं विभत्तं, तेसिं जं एक्केणं उवजिअं तं सबेसि सामन्नं जायं, एवं अम्हं पिया तित्थयरो, तस्संतिउवदेसेणं सवे समणा कायकिलेसं कुवंति, अम्हे न करेमो, जं तुज्झेहिं कयं तं अम्हं सामन्नं, जहा तुम्भे देवलोगं सुकुलपच्चायाति वा सिद्धिं वा गच्छह तहा अम्हे वि गच्छिस्सामो।" एष गाथाभावार्थः । अक्षरयोजना त्वियम्-एकः पुत्रः क्षेत्रं गतः, एकोऽटविं देशान्तरेषु परिभ्रमतीत्यर्थः, अपर एकस्तत्रैव संतिष्ठते, पितरि च मृते धनं सर्वेषामपि समानम् , एवमत्रापि मातापितृस्थानीयस्तीर्थकरः, क्षेत्रं-क्षेत्रफलं धनं पुनर्भावतः परमार्थतः सिद्धिस्तां यूयमे(मि)व युष्मदुपार्जनेन वयमपि गमिष्याम इति ॥११॥ गतिविषयप्ररूपणायां प्रतिपत्त्यन्तरमाहसंविग्गणिइअपासत्थसावयाणं इमो परूवेइ । अहवा समभागित्तं, चउण्ह पुत्ताण णाएणं ॥ १२ ॥ 45455555 JainEducation International For Private Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनिश्चयः स्वोपज्ञवृ- ___ 'संविग्गति । संविग्नाः-उद्यतविहारिणो नित्याः-नित्यवासिनः पार्श्वस्थाः-ज्ञानादिपार्थवर्तिनः श्रावकाः-देशविर तिधा- गुरुतत्त्व त्तियुतः 15| रिणस्तेषां 'अयं यथाच्छन्दश्चतुर्णा पुत्राणां 'ज्ञान' दृष्टान्तेन 'समभागित्वं' एकफलभोक्तृत्वं प्ररूपयति, अथवेति प्रका___ तृतीयो-1 रान्तरे, अयमक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्-"इमं अहाछंदो दिद्रुतं परिकप्पइ, तंजहा-एगो कुटुंबी, तस्स चउरो पुत्ता, तेण ल्लास: सवे संदिट्ठा, गच्छह खित्ते किसिवावारं करेह, तत्थेगो जहुत्तं खित्ते कम्मं करेइ, बिइओ गामा णिग्गंतुं अडवीए उज्ज॥१६॥ णादिसु सीयलच्छायडिओ अच्छइ, तइओ गिहा णिग्गंतुं गामे चेव देवकुलादिसु जूआदिपसत्तो चिट्ठइ, चउत्थो गिहे चेव किंचि वावारं करेंतो चिट्ठइ, अन्नया तेसि पिता मओ, जं पितिसंतियं किंचि दवं खेत्ताओ उपन्नं तं सर्व समभागेण भवति । इयाणिं दिलैतोवसंहारो-कुडुबिसमा तित्थयरा, भावओ खित्तं सिद्धी, पढमपुत्तसमा संविग्गविहारी उजमंता, बितियपुत्तसमा णिययवासी, तइअपुत्तसमा पासत्था, चउत्थपुत्तसमा सावगधम्मद्विआ गिहिणो, तित्थगरपितिसंतियं दवं नाणदंसणचरित्ता, जं च तुम्भे खित्तं पड़च्च दक्करं किरियाकलावं करेह तं सर्व अम्हं नियतादिभावद्विआणं सुहेण चेव सामण्णं ति ॥ १२॥ ननु यथाछन्दस्य द्विविधैवोत्सूत्रप्ररूपणोक्ता चारित्रविषया गतिविषया च, तथा सति स गौर उक्तोत्सूत्रवार्थ पदार्थान्तरविषयं वितथं प्ररूपयन् पण्डितत्वबुद्ध्युत्पादितां लोकपूजां प्रतीच्छन् यथाछन्दो न स्यादिति शङ्कायामाह-18यस्योपलक्षउस्सुत्ता जा दुविहा, परूवणा दंसिआ अहाछंदे । उस्सुत्तरकहणस्सेसा उवलक्खणं होइ ॥ १३ ॥ णत्वम् 'उस्सुत्तत्ति । यथाछन्दे प्रतिपादयितरि या द्विविधोत्सूत्रा प्ररूपणा दर्शिता व्यवहारग्रन्थे, एषा एवंविधोत्सूत्रान्तर ॥१६॥ 8|कथनस्योपलक्षणं भवति तेन पदार्थान्तरमपि वितथं प्ररूपयन् यथाछन्द एव भवतीति न कोऽपि दोषः ॥ १३ ॥ नन्वे SHUGREECRUGADGURUS Jain Educat i onal Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSNESS ORGEORGEOCLICK तदुपलक्षणव्याख्यानं भवतां स्वमनीषिकाविजृम्भितम् , चूर्णिकृता वृत्तिकृता वा तद्न्थस्योपलक्षणपरतयाऽव्याख्यानादि-18 त्याशङ्कां ग्रन्थान्तरसम्मत्या निराकुर्वन्नाहगंथंतरम्मि इत्तो, परूवणाचरणगइविभेएणं । उस्सुत्तदंसणं खलु, तिविहं भणिअं अहाछंदे ॥१४॥ 'गंयंतरम्मित्ति । 'इतः' प्ररूपणान्तरस्यापि उपलक्षणव्याख्यानेन ग्रहणात् 'ग्रन्थान्तरे' निशीथचूादिलक्षणे यथा-18 छन्द उत्सूत्रदर्शनं प्ररूपणा-चरण-गतिविभेदेन त्रिविधं भणितं 'खलु निश्चितं युज्यते, तदुक्तम्-"सो अ अहाछंदो तिहा उस्सुत्ते दंसेइ परूवणाईसुं। तत्थ परूवणे इमं पडिलेहणमुहपत्ती" इत्यादि यावत्-"एसा परूवणा भणिया, इयाणिं चरणगईसु भण्णइ । तत्थ चरणे सागारिआइपलिअंक" इत्यादि । तथा च व्यवहारे चरणाङ्गविषयं वितथकथनं चरणोत्सूत्रप्ररूपणम् । गतिसाम्यविषयं च गत्युत्सूत्रप्ररूपणं साक्षादुक्तम् , तदन्यविषयं च तृतीयमुपलक्षणाल्लभ्यते । ग्रन्थान्तरे च सागारिकादिविषयं चरणोत्सूत्रं गत्युत्सूत्रं च तदेव, एतदुभयातिरिक्तं च प्ररूपणोत्सूत्रं विवक्षितम् , तत्र चाव-10 शिष्टमप्यन्तर्भवतीति सर्वमवदातम् ॥ १४ ॥ अनुपलक्षणव्याख्यानपक्षेऽपि प्रकारान्तरेण पदार्थान्तरोत्सूत्रसङ्ग्रहमाह- । जं किंचि वितहकहणं, अहवा सुहसायगस्स एयस्स।चरणभंसमईए, चरणुस्सुत्तम्मि संकमइ ॥१५॥ __ 'जं किंचित्ति । 'अथवा इति प्रकारान्तरे यत्किञ्चिद्वितथकथनं 'सुखासादकस्य' सुखास्वादाभिलाषिणः ‘एतस्य' यथाछ-18 |न्दस्य 'चरणद्मशमत्या' इदानी दुप्पमाकालानुभावसंहननादृढत्वादिना नास्ति तादृशं चारित्रम्, केवलं मध्यमैव वर्तनी En Encinas Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयो HO ॥१६॥ SROCCALCASSEMA* श्रेयसी सर्वे वा श्रमणलिङ्गधारिणः समाना इत्यादि चारित्रनिराकरणधिया चारित्रोत्सूत्रे संक्रामति । यद्यपि पदार्थान्त-13 गुरुतत्त्वरोत्सूत्रे न साक्षाच्चारित्रभ्रंशविषयत्वम् , तथाऽप्येवं प्ररूपणेनाहमेव लोकपूज्यः स्याम् अपरेषां च चारित्रिणां चारित्रं विनिश्चयः |भिन्नप्ररूपणयाऽपवादकलुषितमस्त्वित्याशङ्कया तत्रापि फलतश्चरणभ्रंशविषयत्वाप्रतिरोधादिति भावः॥ १५ ॥ यस्तु ल्लास: सुखास्वादेच्छां विनाऽपि निःशङ्क वितथं प्ररूपयति क्लिष्टकर्मोदयात् , स तु यथाछन्दादप्यधिकतरदोषो निह्नव एवेत्याह जो पुण कट्टपरो वि हु, सुहसायफलं विणा विऽभिनिविट्ठो । णाऊण वि जिणवयणं, निहणइ सो निण्हवो चेव ॥ १६ ॥ 'जो पुणत्ति । यः पुनः स्वयं 'कष्टपरोऽपि' उग्रक्रियाकार्यपि सुखास्वादफलं विनापि 'अभिनिविष्टः' अनिवर्तनीयास-3 द्रहवान् ज्ञात्वापि जिनवचनं निहन्ति कुहेतुहेतिभिः स निह्नव एव, अयं च यथाछन्दादप्यधिकतरदोषः सफलानाचारप्रवृत्त्यपेक्षया निष्फलीनाचारप्रवृत्तावतिनिःशङ्कत्वेन महापापदर्शनादिति ॥ १६ ॥ अत्रैव कैश्चिदुक्तामन्यां व्यवस्थामपाकुर्वन्नाहअणवट्ठिअमुस्सुत्तं, अहछंदत्तं अवट्टिउस्सुत्तं । निण्हवयत्तं इय केइ विंति तं णत्थि पडिणिययं ॥१७॥ 'अणवद्विमिति। अनवस्थितमुत्सूत्रं यथाछन्दत्वम् , अवस्थितं चोत्सूत्रं निह्नवत्वमिति केचिद् ब्रुवते, तदुक्तम्-"अन- ॥१६॥ वस्थितकोत्सूत्रं यथाछन्दत्वमेषु न । तदवस्थितकोत्सूत्रं, निह्नवत्वमुपस्थितम् ॥ १॥” इति । तन्न 'प्रतिनियतं' यथास्थानं | Jain Educat For Private Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHRMSRISHCAREESOMEGROCOCCC व्यवस्थितम् , नित्यवासिचैत्यभक्तिपरप्रभृतियथाछन्दानां नित्यवासचैत्यभक्त्यादिविषयस्योत्सूत्रस्यावस्थितत्वान्निह्नवानामपि केषाञ्चित्क्रमिकनानोत्सूत्राभ्युपगमवतामुत्सूत्रस्यानवस्थितत्वाच्च । किञ्च प्रतिसेव्यमानमेव परेभ्यः प्ररूपयन् यथाछन्दो भणित इति स्वप्रतिसेवाननुकूलेनानवस्थितेनाप्युत्सूत्रेण कथं यथाछन्दत्वं स्यात् ? इति प्रागुक्तमेव युक्तमिति यथाऽऽगममवधेयं सुधीभिः ॥ १७ ॥ अथैते यथाछन्दाः किं गीतार्थाः भवन्ति ? उतागीतार्थाः ? इत्येतदाह ते इंति अगीयत्था, एगागिविहारिणो अहाछंदा । सुहपरिणामालंबणदंसी गीया वि भग्गवया॥१८॥ है। 'ते हुतित्ति । 'ते' प्रागुक्तस्वरूपाः 'यथाछन्दाः' यशःपूजाद्यर्थमेकाकिविहारिणोऽगीतार्था भवन्ति, तथाविधशास्त्रपरि ज्ञानाभावेन पारतन्याभावेन च स्वप्रतिज्ञातस्वच्छन्दाचारानुकूलतयैव तैः प्ररूपणात् । तथा 'गीता अपि' गीतार्था अपि द्रव्यतो भावतो भग्नव्रताः सन्तः स्वोत्प्रेक्षितस्य शुभपरिणामस्य-नियतवासादिसुन्दरताऽध्यवसायस्य यदालम्बनं-सङ्गमस्थविरादिज्ञातं तदर्शयितुं शीलं येषां ते तथा, तेऽपि स्वादृतशिथिलाचारानुकूलप्ररूपणाद् यथाछन्दा भवन्तीत्यर्थः॥१८॥ अथैवं वितथप्ररूपणाकारिणां यथाछन्दानां दोषमुपदर्शयति भाष्यगाथयाजिणवयणसवसारं, मूलं संसारदुक्खमुक्खस्स । सम्मत्तं मइलित्ता, ते दुग्गइवड्डया हुंति ॥ १९॥ | 'जिणवयणत्ति । 'ते' यथाछन्दाश्चरणेषु गतिषु चैवं ब्रुवाणाः 'सम्यक्त्वं' सम्यग्दर्शनम् , कथम्भूतम् ? इत्याह-जिनानांसर्वज्ञानां वचनं जिनवचनं-द्वादशाङ्गं तस्य सारं-प्रधानम्, प्रधानता चास्य तदन्तरेण श्रुतस्य पठितस्याप्यश्रुतत्वात् , For Private & Personal use only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयो ॥ १६२ ॥ Jain Education in पुनः किंविशिष्टम् इत्याह- 'मूल' प्रथमं कारणं 'संसारदुःखमोक्षस्य' समस्तसांसारिक दुःख विमोक्षणस्य, तदेवंभूतं सम्यक्त्वं मलिनायित्वाऽऽत्मनो दुर्गतिवर्धका भवन्ति, दुर्गतिस्तेषामेवं वदतां फलमिति भावः ॥ १९ ॥ उक्तो यथाछन्दस्तदेवमभिहिताः पञ्चापि पार्श्वस्थादयः, अथैतेषां वन्दनप्रशंसनयोर्दोषमुपदर्शयति एएसिं पंचण्हं, णिइआणं तह य काहिआईणं । आणाईआ दोसा, पसंसणे वंदणे वावि ॥ १२० ॥ 'एएसिं'ति । एतेषां 'पञ्चानां' पार्श्वस्थादीनां तथा 'नित्यानां' नित्यवासिनां काथिकादीनां च चतुर्णा प्रशंसने वन्दने चापि आज्ञादयो दोषा भवन्ति, आज्ञाभङ्गोऽनवस्था मिथ्यात्वं विराधना चेत्यर्थः । तत्र भगवत्प्रतिकुष्टवन्दने आज्ञाभङ्गः तं दृष्ट्वाऽन्येऽपि वन्दन्त इत्यवस्थाविलोपादनवस्था । तान् वन्दमानान् प्रामाणिकान् दृष्ट्वाऽन्येषां तेषु साधुत्वबुद्ध्या मिथ्यात्वम् । कायक्लेशतो देवताभ्यो वाऽऽत्मविराधना, तइन्दनेन तत्कृताऽसंयमानुमोदनात्संयमविराधना चेति ॥ १२० ॥ पार्श्वस्थांदिवन्दने दोषोक्तौ संमतिमाह - भणिअं च-भणितं चावश्यके पासत्थाई वंदमाणस्स, णेव कित्ती ण णिज्जरा होइ । कायकिलेसो एमेव, कुणई तह कम्मबंधं च ॥२१॥ 'पासत्थाइ'त्ति । ‘पार्श्वस्थादीन्' उक्तलक्षणान् 'वन्दमानस्य' नमस्कुर्वतो नैव कीर्त्तिर्न निर्जरा भवति । तत्र कीर्त्तनंकीर्त्तिः - अहो अयं पुण्यभागित्येवंलक्षणा सा न भवति अपि त्वकीर्त्तिर्भवति, नूनमयमप्येवंस्वरूपो येनैषां वन्दनं करोति । तथा निर्जरणं निर्जरा - कर्मक्षयलक्षणा सा न भवति तीर्थकराज्ञाविराधनद्वारेण निर्गुणत्वात्तेषामिति । चीयत गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः पार्श्वस्थादी नां वन्दना दौ दोषोपद र्शनम्. आवश्यकसाक्ष्यम् ॥ १६२ ॥ www junelibrary.org Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुस्त. २८ इति कायः - देहस्तस्य क्लेशः - अवनामादिलक्षणः कायक्लेशस्तम् 'एवमेव' मुधैव 'करोति' निर्वर्त्तयति । तथा क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणीयादिलक्षणं तस्य बन्धः - विशिष्टरचनयाऽऽत्मनि स्थापनम् तेन चात्मनो बन्धः - स्वरूपतिरस्करणलक्षणः कर्मबन्धस्तं कर्मबन्धं करोति, चशब्दादाज्ञाभङ्गादींश्च दोषानामुते ॥ २१ ॥ एवं तावत्पार्श्वस्थादीन् वन्दमानस्य दोषा उक्ताः, साम्प्रतं पार्श्वस्थादीनामेव गुणाधिकवन्दनप्रतिषेधमकुर्वतामपायान् प्रदर्शयन्नाह — जे वंभचेरभट्ठा, पाए उडेंति वंभयारीणं । ते हुंति कुंटमुंटा, वोही य सुदुलहा तेसिं ॥ २२ ॥ 'जे' त्ति। ‘ये' पार्श्वस्थादयः 'भ्रष्टब्रह्मचर्याः' अपगतब्रह्मचर्या इत्यर्थः, ब्रह्मचर्यशब्दो मैथुनविरतिवाचकस्तथौघतः संयमवाचकश्च, 'पाए उडेंति वंभयारीणं पादावभिमानतोऽवस्थापयन्ति ब्रह्मचारिणां वन्दमानानामिति तद्वन्दननिषेधनं न कुर्वन्तीत्यर्थः, ते तदुपात्तकर्मजं नारकत्वादिलक्षणं विपाकमासाद्य यथाकथञ्चित् कृच्छ्रेण मानुषत्वमासादयन्ति तदापि भवन्ति कोण्टमुण्टाः । 'वोधिश्च' जिनशासनावबोधलक्षणा सकलदुःखविरेकभूता सुदुर्लभा तेषाम्, सकृत्प्राप्तौ सत्यामप्यनन्तसंसारित्वादिति गाथार्थः ॥ २२ ॥ सुट्टुयरं नासंती, अप्पाणं चरणकरणपव्भट्ठा | गुरुजण वंदावंती, सुस्समण जहुत्तकारिं च ॥ २३ ॥ 'सुयरं 'ति । सुतरां नाशयन्त्यात्मानं सन्मार्गात्, के? ये चारित्रात् प्रकर्षेण भ्रष्टाः - अपेताः सन्तः 'गुरुजनं' गुणस्थसाधुवर्ग 'वन्दयन्ति' कृतिकर्म कारयन्ति । किं भूतं गुरुजनम् ? शोभनाः श्रमणा यस्मिन् स सुश्रमणस्तम्, अनुस्वा : गुणाधिकानां वन्दमा नानामप्रति पेधतां पा वस्थादीना मपायदर्श नम्. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञव- रलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, तथा यथोक्तं क्रियाकलापं कर्तुं शीलमस्येति यथोक्तकारी तं चेति गाथार्थः ॥ २३ ॥ एतेषामभ्युत्था गुरुतत्त्वत्तियुतः नादौ प्रायश्चित्तमाह विनिश्चयः तृतीयोअहछंदस्सब्भुट्ठाणंजलिकरणेसु हुंति चउगुरुआ। अण्णेसुं चउलहुआ, एवं दाणाइसु वि णेयं॥२४॥ ल्लासः ॥१६३॥ _ 'अहछंदस्स'त्ति । यथाछन्दस्याभ्युत्थानाञ्जलिकरणयोर्भवन्ति प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तम् । तत्राभ्युत्थानं पार्श्वस्थादीपोढा-अभिमुखोत्थानम् १, आसनोपढौकनम् २, किं करोमीति भणनम् ३, धर्मच्युतस्य पुनधर्म स्थापनारूपमभ्यासक नामभ्युत्थारणम् ४, अभेदरूपाविभक्तिः ५, एतत्पञ्चपदरूपः संयोगश्च ६ इति । तत्राभिमुखोत्थानादिपश्चके कृतेऽभ्यासकरणे पुनः नादौ प्रायसामर्थ्ये सति अकृते प्रायश्चित्तम् । अञ्जलिकरणमपि पोढा-पञ्चविंशत्यावश्यकयुक्तं वन्दनम् १, शिरसा प्रणामकरणम् २, श्चित्तम् एकस्य द्वयोर्वा हस्तयोर्योजनम् ३, बहुमानरसभरेण सरभसं 'नमो खमासमणाणं' इति भणनम् ४, निषद्याकरणम् ५,181 दाएतेषां पदानां योगश्च ६, एतेषु सर्वेष्वपि कृतेषु प्रायश्चित्तम्। 'अन्येषु' पार्श्वस्थादिषु नवसु गृहस्थसहितेषु कृतिकर्माञ्जलि करणयोः प्रत्येकं चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् । एवं दानादिष्वपि ज्ञेयम् , तथाहि-पार्श्वस्थादीनामशनादिदाने तेभ्यो वाऽश-1 नादिग्रहणे चतुलघु, यतः पार्श्वस्थादय उद्गमादिदोषेषु वर्तन्तेऽतस्तेषां दाने तेऽनुमोदिता भवन्ति, तेषां च हस्ताद्रहणे ४ उद्गमादिदोषाः प्रतिसेविता भवन्तीति, उक्तञ्च-"पासत्थोसन्नाणं, कुसीलसंसत्तनीअवासीणं । जे भिक्खू असणाई, दिज पडिच्छिज्ज वाऽऽणाई ॥१॥ उग्गमदोसाईआ, पासस्थाई जओ न वजंति । तम्हा उ तबिसुद्धिं, इच्छंतो ते विवजिजा| ॥१३॥ x॥२॥ सूइजइ अणुरागो, दाणेणं पीइओ अगहणं तु । संसग्गया य दोसा, गुणा य इय ते परिहरिज्जा ॥३॥" पाव-1x Jain Educa t ional For Private & Personal use only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थादीनां वस्त्रदाने तेषां हस्तात्प्रातिहारिकग्रहणे च चतुर्लघुकमेव । पार्श्वस्थादीनां वाचनादाने तेभ्यो वा वाचनाग्रहणे सूत्रे चतुर्लघु, अर्थे चतुर्गुरु । यथाछन्दानां सूत्रे चतुर्गुरु, अर्थे षड्लघु । अनेकदिनवाचनासु पुनः- “सत्तरत्तं तवो होइ” | इत्यादिक्रमेण प्रायश्चित्तवृद्धिरुपढौकते । पार्श्वस्थादिषु वाचनादानादानयोर्वन्दनकदुष्टसंसर्गादयोऽनेके दोषा इति ॥ २४ ॥ एवं पार्श्वस्थादयो न वन्दनीया इति स्थितम् । अथ सुविहितानामपि पार्श्वस्थादिसङ्गत्याऽवन्द्यत्वं स्यादिति प्रकटयन्नाह - णिग्गमणभूमिवसइप्पमुहट्ठाणे ठिआ उ एएसिं । गुणणिहिणो वि हु समणा, अवंदणिजा जओ भणियं २५ 'णिग्गमणभूमि त्ति । निर्गमनभूमिर्यत्र ते निर्गच्छन्ति, वसतिः - उपाश्रयस्तत्प्रमुखस्थाने स्थिताः 'एतेषां' पार्श्वस्थादीनां गुणनिधयोऽपि श्रमणा अवन्दनीया भवन्ति संसर्गदोषात् यतो भणितमावश्यके ॥ २५ ॥ | असुइट्ठाणे पडिआ, चंपगमाला ण कीरई सीसे । पासत्थाइट्ठाणेसु वट्टमाणा तह अपुज्जा ॥ २६ ॥ 'असुइट्ठाणे 'ति । यथा 'अशुचिस्थाने' अमेध्यस्थाने पतिता चम्पकमाला स्वरूपतः शोभनाऽपि सती अशुचिस्थानसंसर्गान्न क्रियते 'शीर्षे' मस्तके, पार्श्वस्थादिस्थानेषु वर्त्तमानाः साधवस्तथा 'अपूज्याः' अवन्दनीयाः । पार्श्वस्थादीनां स्थानानि वसति निर्गमन भूम्यादीनि परिगृह्यन्ते, अन्ये तु शय्यातरपिण्डाद्युपभोगलक्षणानि व्याचक्षते, तत्संसर्गात् पार्श्वस्थादयो भवन्ति न चैतानि सुष्ठु घटन्ते तेषामपि तद्भावापत्तेश्चम्पकमालोदाहरणोपनयस्य च सम्यगघटमानत्वादिति । तत्र कथानकम् - " एगो चंपगपिओ कुमारो चंपयमालाए सिरे कयाए आसगओ वच्चति, आसेण उडुअस्स सा चंपगमाला : पार्श्वस्थादिसंगत्या सु विहितानाम विद्यत्वम् आ. वश्यकसा क्ष्यं च Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः Rammana स्वोपज्ञव- अमेज्झे पडिआ, गिण्हामि त्ति अमेझं दहण मुक्का, सो अ चंपएहिं विणा धिति ण लब्भइ तहावि ठाणदोसेण मुक्का । त्तियतःएवं चंपयमालाथाणीया साहू, अमेज्झथाणीया पासत्थादओ, जो विसुद्धो तेहिं समं मिलति संवसति वा सो वि परिहरतृतीयो- रणिजो ।"त्ति ॥ २६ ॥ अधिकृतार्थप्रसाधनायैव दृष्टान्तान्तरमाह पकणकुले वसंतो, सउणीपारो वि गरहिओ होइ।इय गरहिआ सुविहिया, मज्झि वसंता कुसीलाणं ॥२७॥ पक्कणकुले त्ति । इयं च गाथा यद्यपि प्रागपि व्याख्याता तथापि स्थानानुसारेण सम्प्रत्यपि व्याख्यायते-'पक्कणकुलं गहितकुलं तस्मिन् पक्कणकुले वसन् पारं गतवानिति पारगः शकुन्याः पारगः शकुनीपारगः, असावपि 'गर्हितो भवति' निन्द्यो भवति, शकुनीशब्देन चतुर्दशविद्यास्थानानि परिगृह्यन्ते, 'इय' एवं गर्हिताः 'सुविहिताः' साधवो मध्ये वसन्तः 'कुशीलान' पार्श्वस्थादीनाम् । अत्र कथानकम्-“एगस्स धिज्जाइअस्स पंच पुत्ता सउणीपारगा। तत्थेगो मरुगो एगाए दासीए संपलग्गो, सा मज पियति, इमोण पियति, तीए भन्नइ-जइ तुमं पियसि तो णे सोहणा रती होजा, इहरा I विसरिसो संजोगो त्ति, एवं सो बहुसो भणंतीए पाइओ, सो पढम पच्छन्नं पियति, पच्छा पायर्ड पिविउमाढत्तो, पच्छा अतिप्पसंगेणं मंसासेवी संवुत्तो, पक्कणेहि सह लोद्धे उमाढत्तो, तेहिं चेव सह क्खाइ पिबति संवसति य, पच्छा पिउणा सयणेण य सबवज्झो अप्पवेसो कओ। अन्नया सो पडिलग्गो, वितिओ से भाया सिणेहेण तं कुडिं पविसिऊण पुच्छति देति य से किंचि, सो पिउणा उवलंभिऊण निच्छढो । ततिओ वाहिरपाडए ठिओ पुच्छइ विसज्जेइ से किंचि, सो वि |णिच्छूढो । चउत्थो परंपरएण दवावेइ सो वि णिच्छढो। पंचमो गंध पिणेच्छइ । तेण मरुएण करणं च पडिऊण सबस्स ॥१६४॥ - For Private JainEduca Finelibrary.org Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CONCR MagOCALCERSook घरस्स सो सामी कओ, इयरे चत्तारि वि बाहिरा कया लोगगरहिया य जाया, एस दिलुतो । उवणओ से इमो-जारिसा पक्कणा तारिसा पासत्थादी, जारिसो धिज्जाइओ तारिसो आयरिओ, जारिसा पुत्ता तारिसा साहू, जहा ते निच्छूढा एवं आणिच्छुभंति कुसीलसंसगिंग करिता गरहिआ य पवयणे भवंति, जो पुण परिहरइ सो पुजो साइअपजवसिअं णिहाणं पावई"त्ति ॥ २७॥ ननु कः पार्श्वस्थादिसंसर्गमात्राद्गुणवतो दोषः ? न हि काचमणिकैः सह प्रभूतकालमेकत्र तिष्ठन्नपि वैडूर्यमणिः काचभावमुपैति स्वगुणप्राधान्यात् , न वा नलस्तम्ब इधुवाटमध्ये वसन्नपीक्षुसंसर्गतो मधुरत्वमुपयाति स्वदो-12 पप्राधान्यात् , एवं गुणवानपि पार्श्वस्थादिसंसर्गे न गुणांस्त्यक्ष्यतीत्यत आह भावुगदत्वं जीवो, कुसीलसंसग्गओ विणस्सिजा।थोवो वितप्पसंगो, अओ णिसिद्धो सुविहिआणं॥२८॥ प्रार्श्वस्यादिM भावुगदति । इह हि द्विविधानि द्रव्याणि भवन्ति-भाव्यानि अभाव्यानि च । तत्र भाव्यन्ते-स्वप्रतियोगिना स्वगु- संसयौ दो रात्मभावमापाद्यन्त इति भाव्यानि, तानि प्राकृतशैल्या भावुकान्युच्यन्ते । अथवा प्रतियोगिनि सति तद्गुणापेक्षया पापादनम् तथाभवनशीलानि भावुकानि, ताच्छीलिक उकञ्प्रत्ययः, तद्विपरीतान्यभाव्यानि । तत्र जीवो भावुकद्रव्यमनादिकाली नपार्श्वस्थाद्याचरितप्रमादभावनापाचविपरीतपरिणाम इति यावत् , स च तथाभूतः सन् कुशीलसंसर्गतो विनश्येत्, वैडूठायनडादीनि त्वभावुकद्रव्याणीति न तदृष्टान्तोपष्टम्भेन जीवस्यापि संसर्गजस्वभावाननुविधायित्वमिति भावः । अपि च जीवोऽपि केवली तावदभाव्य एव । सरागास्तु पार्श्वस्थादिभिर्भाव्याः । सरागा अपि परिपाकप्राप्तयोगा उत्कृष्टज्ञानपरिणतिशालिनो यद्यप्यभाव्यास्तथाऽपि मध्यमदशावर्त्तिनो भाव्या एव । अतः स्तोकोऽपि तेषामालापमात्रादिलक्षणः संसर्गः A in Education International For Private & Personal use only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लास: स्वोपज्ञवृ- सुविहितानां प्रतिषिद्धः ॥ १८ ॥ अत्रैव संमतिमाह-भणियं च-भणियं चत्ति । भणितं चत्तियुतः ऊणगसयभागेणं, बिंवाई परिणमंति तब्भाव । लवणागराइसु जहा, वजह कुसीलसंसग्गिं ॥ २९ ॥ तृतीयो 'ऊणग'त्ति । ऊनश्चासौ शतभागश्चोनशतभागो यावता शतभागोऽपि न पूर्यत इत्यर्थः, तेन तावताऽशेन प्रतियोगिना ॥१६५॥ सह संबद्धानीति प्रक्रमाद्गम्यते 'बिम्बानि' रूपाणि 'परिणमन्ति' आसादयन्ति तद्भावं लवणीभवन्तीत्यर्थः, लवणाकरा दिषु यथाऽऽदिशब्दात् खण्डखादिकारसादिग्रहः, तत्र किल लोहमपि तद्भावमासादयति तथा पार्श्वस्थाद्यालापमात्रसंसदार्गाऽपि सुविहितास्तमेव भावं यान्त्यतो वर्जयत कुशीलसंसर्गिम् ॥ २९ ॥ पुनरपि संसर्गिदोषप्रतिपादनायैवाह जह णाम महुरसलिलं, सागरसलिलं कमेण संपत्तं । पावइ लोणीभावं, मेलणदोसाणुभावणं॥१३०॥ है 'जह णामत्ति । 'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासः, 'नाम' इति निपातः, 'मधुरसलिलं' नदीपयः तत् लवणसमुद्रं 'क्रमण परिपाट्या प्राप्तं सत् 'प्रामोति' आसादयति 'लवणभावं' क्षारभावं मधुरमपि सत् मीलनदोषानुभावेन ॥ १३०॥ एवं खु सीलवंतो, असीलवंतेहिं मेलिओ संतो। पावइ गुणपरिहाणिं, मेलणदोसाणुभावेणं ॥३१॥ है एवं खुत्ति । खुशब्दोऽवधारणे, एवमेव शीलमस्यास्तीति शीलवान् स खलु 'अशीलवद्भिः' पार्श्वस्थादिभिः सार्द्ध मिलितः 'प्राप्नोति' आसादयति गुणाः-मूलोत्तरगुणलक्षणास्तेषां परिहाणिस्ताम् , तथैहिकांश्चापायांस्तत्कृतदोषसमुत्थान मीलनदोषानुभावेनेति ॥ ३१॥ यतश्चैवमतः BASKISASSASSRO ॥१६५॥ in Education international For Private & Personal use only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SUSISISIRS खणमविण खमं काउं, अणाययणसेवणं सुविहियाणं। हंदि समुदमुवगयं, उदयं लोणत्तणमुवेइ ॥३२॥ । 'खणमवित्ति । लोचननिमेषमात्रः कालः क्षणोऽभिधीयते, तं क्षणमप्यास्तां तावन्मुहूर्तोऽन्यो वा कालविशेषः 'न क्षम' अयोग्यं 'कर्तुं निष्पादयितुम् , अनायतनं-पार्श्वस्थाद्यनायतनं तस्य सेवन-भजनम् , केषाम् ? सुविहितानाम् , किम् ? इत्यत आह–'हन्दि' इत्युपदर्शने 'समुद्रमतिगतं' लवणजलधिं प्राप्तमुदकं मधुरमपि सत् 'लवणत्वमुपैति' क्षारभावं याति । एवं सुविहितोऽपि पार्श्वस्थादिदोषसमुद्रं प्राप्तस्तद्भावमाप्नोति, अतः परलोकार्थिना तत्संसर्गिस्त्याज्येति । ततश्च व्यवस्थितमिदम्है|येऽपि पार्श्वस्थादिभिः सार्द्ध संसगि कुर्वन्ति तेऽपि न वन्दनीयाः, सुविहिता एव वन्दनीया इति ॥ ३२ ॥ अत्र कश्चिदाह नणु वंदणिज्जयाए, सुविहिअभावो ण जुज्जए अंगं । जं सो छउमत्थाणं, दुन्नेयो लिंगमिय अंगं ॥३३॥ लिङ्गस्यैव | 'नणुत्ति । ननु वन्दनीयताया अङ्गं सुविहितभावो न युज्यते, 'यत्' यस्मात् सः' सुविहितभावः 'छद्मस्थानाम् अनु- वन्दनीयता. पहतघातिकर्मणां दुर्जेयः, अयं सुविहितोऽसुविहितो वेत्यन्तर्गतभावस्य दुरवगमत्वात् । अयं भावः-चन्दनीयत्वं तावदिष्टसा- हेतुत्वमिति धनवन्दनकत्वम् , तज्ज्ञानं च पुरोवर्त्तिन्यवश्यमपेक्षितम् , अन्यथा पुरोवर्तिनि वन्दनप्रवृत्त्यसिद्धेः। तत्र च प्रमाणगवेषणायां न तावत्सुविहितभावोऽनुमानतयाऽङ्गं गमकमित्यर्थः, अनवगतत्वाद्धेतोश्च निश्चितस्यैव साध्यसिद्धिक्षमत्वात् ; नापि प्रत्यभिज्ञानतया, यतो यद्धर्मावच्छेदेन प्रत्यभिज्ञाविधेयमनुभूतं पुरोवर्तिनि तद्धर्मज्ञानमेव प्रत्यभिज्ञानरूपं प्रमाणमित्यस्माकमभ्युपगमः, यथा-"पयोऽम्बुभेदी हंसः स्यात्” इतिवाक्यात् पयोऽम्बुभेदित्वावच्छेदेन हंसपदवाच्यत्वानुभवे सति पुरो-12 पनम् Jain Education international Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- तियुतः तृतीयो ॥१६६॥ CHAROKARDAREK वर्तिनि पयोऽम्बुभेदित्वज्ञानं हंसपदवाच्यत्वप्रत्यभिज्ञायाम् , व्यवस्थितं चैतदाकरे, तदिह सुविहितो वन्दनीय इतिवाक्या- गुरुतत्त्वत्सुविहितत्वावच्छेदेन वन्दनीयत्वानुभवात्पुरोवर्तिनि सुविहितत्वज्ञानं वन्दनीयत्वे प्रमेये प्रत्यभिज्ञारूपतयाऽऽश्रयणीय विनिश्चयः स्यात्तदपि दुर्लभमेवेति । इति हेतोः 'लिङ्गं रजोहरणपतग्रहगोच्छकादिधरणलक्षणमङ्गम् , तस्य सुप्रतीतत्वात् । 'अयंहा वन्दनीयः, लिङ्गधारित्वात् , अयं लिङ्गधारी अतो वन्दनीयः' इत्यनुमानप्रत्यभिज्ञानयोरबाधितप्रसरत्वात् । एवं प्रवृत्त्यङ्ग- II तयाऽपि लिङ्गमेवादरणीयं न तु सुविहितभावो दरवगमत्वात् । भवति चेष्टसाधनतावच्छेदकतया प्रवृत्त्यङ्गमपि तदेव,IXI पुरोवर्तिनीष्टसाधनतावच्छेदकज्ञानस्य प्रवर्तकत्वात । अत एवेदं रजतमितिज्ञानस्य रजतप्रवृत्ती हेतुत्वात् अन्यथाख्याति NI सिद्धेस्तत्र तत्र प्रदर्शितत्वादिति द्रष्टव्यम् ॥ ३३ ॥ उक्तार्थे संमतिमाह-भणिअंच-'भणिअं च'त्ति । भणितं चसुविहिअ दुविहियं वा, णाहं जाणामि हं खु छउमत्थो। लिंगं तु पुअयामी, तिगरणसुद्धेण भावेणं ॥३४॥ 'सुविहियत्ति । शोभनं विहितम्-अनुष्ठानं यस्यासो सुविहितस्तम् , अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, दुर्विहितस्तु पार्श्वस्था-180 दिस्तं दुर्विहितं वा 'नाहं जानामि नाहं वेझि, यतोऽन्तःकरणशुद्ध्यशुद्धिकृतत्वं सुविहितदुर्विहितत्वम् , परभावस्तु तत्त्वतः सर्वज्ञज्ञानविषयः, 'अहं खु छउमत्थोत्ति अहं पुनश्छद्मस्थः, अतः 'लिङ्गमेव' रजोहरणगोच्छपतगृहधरणलक्षणं 'पूजयामि' वन्दे इत्यर्थः 'त्रिकरणशुद्धेन भावेन' वाक्कायशुद्धेन मनसेत्यर्थः ॥ ३४ ॥ एतन्निराकर्तुमाहही एयमजुत्तं जम्हा, वभिआरेणं ण लिंगमवि अंग। भणियमिणं लिंगाभिणिवेसणिरासमहिगिच्च॥३५॥ प्रतिवचः SACROGRESEARC-SCRECORRORCE Jain Educati o nal For Private Personal Use Only egainelibrary.org Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - __ 'एयमजुत्तं ति । एतदयुक्तं यल्लिङ्गमेव वन्दनीयतायां प्रवृत्ती वाङ्गमिति, यस्मालिङ्गमपि व्यभिचारेण नाङ्गमिति न हि 'अयं वन्दनीयः, लिङ्गवत्त्वात्' इत्यनुमानं संभवति, निह्नवेषु व्यभिचारात् , तत्र लिङ्गसत्त्वेऽपि वन्दनीयत्वस्याभावात् , अत एव लिङ्गवत्त्वावच्छेदेन वन्दनीयत्वज्ञानं न संभवतीति 'अयं लिङ्गवानतो वन्दनीयः' इति प्रत्यभिज्ञानमप्यसम्भवि, अत एव च लिङ्गवत्त्वं नेष्टसाधनतावच्छेदकमपीति 'अयं लिङ्गवान्' इति ज्ञानमपि नेष्टसाधनतावच्छेदकप्रकारकं सत् प्रवृत्तिनिर्वाहकमिति । अत्रार्थे संमतिमाह-यद् भणितमिदं लिङ्गस्य योऽभिनिवेशः-लिङ्गमेव वन्दनीयताङ्गमित्याकारो योऽसद्भहस्तन्निरासं अधिकृत्य' अभिप्रेत्य ।। ३५ ॥ जिइ ते लिंग पमाणं, वंदाही णिण्हए तुमं सवे। एए अवंदमाणस्स लिंगमवि अप्पमाणं ते ॥३६॥ 'जइ तेत्ति । 'यदि' इत्ययमभ्युपगमप्रदर्शनार्थः 'ते' तव 'लिङ्गं द्रव्यलिङ्गम् , अनुस्वारोऽत्र लुप्तो द्रष्टव्यः, प्रमाण वन्दनकरणे इत्थं तर्हि वन्दस्व 'निह्नवान्' जमालिप्रभृतीन् त्वं 'सर्वान्' निरवशेषान् , द्रव्यलिङ्गयुक्तत्वात्तेषामिति । अथै- तान् मिथ्यादृष्टित्वान्न वन्दसे त्वम् , ननु एतान् द्रव्यलिङ्गयुक्तानपि 'अवन्दमानस्य' अप्रणमतो लिङ्गमप्यप्रमाणं तव वन्दनप्रवृत्ताविति ॥ ३६ ॥ अत्राहनणु एसा पडिबंदी,ण य एवं पगयसाहगं किंची। ण य वज्झकरणओ चिय,सुविहिअभावस्स विन्नाणं ३७/ 'नणुत्ति । नन्वेषा प्रतिवन्दी यथा सुविहितत्वमगमकं तथा लिङ्गमप्यगमकमिति परपक्षवाधकवाडमात्रमेतत् , न तु किञ्चि SEARCHECK लिङ्गप्रामा ण्यवादिनो दोषापादनम् -SES -8 lain Education n ational For Private Personal Use Only hwnic.jainelibrary.org Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः स्वोपज्ञवृ- दात्प्रकृतसाधकम् , सुविहितत्वस्य स्वयं साधकतयोपन्यस्तस्य दुरवगमत्वानिराकरणात्।न च 'बाह्यकरणत एवं' आलयविहा-1 गुरुतत्त्व रादिसमाचारसौष्ठवलक्षणात् सुविहितभावस्य विज्ञानं भविष्यतीति न हेतोरप्रतीतत्वम् , यत उक्तम्-"आलएणं विहारेणं, | विनिश्चयः तृतीयो- ठाणाचंकमणेण य । सक्को सुविहिओ णाउं, भासावेणइएण य ॥१॥” अस्यायमर्थः-आलयः-वसतिः सुप्रमार्जितादिल-8 ल्लासः क्षणा, अथवा स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता तेनालयेन, नागुणवत एवं खल्वालयो भवति । विहारः-मासकल्पादिस्तेन विहारेण । ॥१६७॥ स्थानम्-ऊर्द्धस्थानम् , चङ्क्रमणं-गमनम् , स्थानं च चङ्कमणं चेत्येकवद्भावस्तेन च-अविरुद्धदेशकायोत्सर्गकरणेन युगमात्रावनिप्रलोकनपुरःसराद्रुतगमनेन चेत्यर्थः। शक्यः सुविहितो ज्ञातुं भाषावैनयिकेन च-विनय एव वैनयिक समालोच्य भाषणेनाचार्यादिविनयकरणेन चेति भावना। नैतान्येवंभूतानि प्रायशोऽसुविहितानां भवन्तीति वाच्यम् ॥३७॥ कुतः ? इत्याहजं लाभाइणिमित्तं, असंजया संजय व चिट्ठति। जयमाणा वि य कारणवसओ अजओवमा हुति॥३८॥ | 'जति । 'यत्' यस्मात् 'लाभादिनिमित्तं' लाभः-सुखप्राप्तिः, आदिना कीर्तिपूजादिपरिग्रहस्तन्निमित्तम् , 'असंयताः'18 अपेर्गम्यमानत्वादसंयता अपि संयतवच्चेष्टन्ते आलयविहारादी, उदायिनृपमारकादिवत् ; अतो बहुशः सहचरितोऽपि सुवि-1 2 हितभावो हेतुर्न वन्दनीयतागमकः, लाभादिनिमित्तं चेष्टमाने व्यभिचारात्न खलु शतशः सहचरितमपि पार्थिवत्त्वं लोह-2 लेख्यत्वगमकम् , हीरकादो व्यभिचारादिति । किञ्च 'यतमाना अपि'सुविहिता अपि 'कारणवशतः' ज्ञानादिपुष्टालम्बनपा-४ हि रतच्यात् 'अयतोपमाः' असंयतवन्मूलोत्तरगुणप्रतिसेविनो भवन्ति, ततः सर्वत्र सुविहितत्वावगमाय न बाह्यकरणं प्रभव-16॥१६७॥ तीति ॥ ३८ ॥ ननु लाभादिनिमित्तं संयतानामसंयतवच्चेष्टमानानां सुविहितत्वेऽपि बाह्यकरणाभावे न दोषः, लिङ्गं विनापि MOREKACRECORLDOGGESTEDGE Jain Educat i onal For Private & Personal use only nant.jainetibrary.org Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARELCASESCOURSESSISEX लिङ्गिनः सद्भावात् , धूमं विनाप्यग्नेस्तप्तायःपिण्डे दर्शनात् ; लाभादिनिमित्तं संयतवच्चेष्टमानेष्वसंयतेषु च न व्यभिचारः, मातृस्थानापूर्वकत्वस्य विशेषस्य दानादित्याक्षेपे सत्याहमाइट्ठाणापुवं, जइ गमगं बज्झकरणमिटुं भे। तो तं पि हु वत्तवं, केण पयारेण णायवं ॥ ३९ ॥ _ 'माइट्ठाणापुर्वति । 'मातृस्थानापूर्व' कुटिलभावानादृतं बाह्यकरणं यदि 'भे' भवतां गमकमिष्टं तदा वक्तव्यं तदपि है मातृस्थानापूर्वकत्वं केन प्रकारेण ज्ञातव्यम् ?, तदपि परभावरूपं दुर्लक्ष्यमेव छद्मस्थानामिति ॥ ३९ ॥ इत्थमाक्षेपे । हाप्रबलीकृते सति समाधानमाह भन्नइ तं सुविसुद्धं, पुणो पुणो दंसणाइणा णेयं । एवं विवजए वि हु, लग्गो सुद्धो असढभावा ॥१४॥ PI भन्नईत्ति । 'भण्यते' अत्रोत्तरं दीयते 'तत्' बाह्यकरणं सुविशुद्धं मातृस्थानापूर्वकं पुनः पुनदर्शनं-यद्रात्री दिवा वा तथैव प्रवृत्तेस्तदादिना बहुलोभेऽप्यपरावृत्त्यादेः परिग्रहः, ज्ञेयं न खलु लोभादिनाऽपराभूतः सर्वथा विरक्तात्मा सदाऽप्रमत्तो मुधाऽऽत्मानमायासयति आत्मनि तथादर्शनादिति । एवं पुनः पुनदर्शनादिना परीक्षायां क्रियमाणायां विपययेऽपि सुप्रयुक्तदम्भापरिज्ञानेनासुविहिते सुविहितत्वभ्रमेऽपि 'लग्नः' वन्दनप्रवृत्तः शुद्धोऽशठभावात् , विपर्ययनिरासानुकूलविचाररूपयतनापरिणामात् ॥ १४॥ ननु सुविशुद्धं बाह्यकरणं सुविहितत्वगमकमित्युक्तम् तच्च न युक्तम् , साध्याविशेषात् , । तस्यैव सुविहितभावत्वादित्यतो बाह्यकरणस्य सुविहितत्वप्रवेशाप्रवेशयोनयविभागमाह RESERESUGCGADGE Main Education International For Private Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थं ववहारणओ, सुविहियभावम्मि वज्झकरणं पि । इच्छइ णेच्छइअणओ, भावं चिय तं परं बेइ ॥४१॥ 'इत्थं'ति । 'अत्र' प्रकृताधिकारे व्यवहारनयो बाह्यकरणमपि सुविहितभावे इच्छति, अनेन भावक्रिययोर्द्वयोरप्यभ्युपगमात् : तथा च न साध्याविशेषः, साध्ये चारित्रलक्षणस्य भावस्याधिकस्य प्रवेशाद्धेतौ च तदाहितवाह्यक्रियाया एव निवे4 शादिति भावः । निश्चयनयस्तु 'परं' केवलं भावमेव 'तं' सुविहितभावं ब्रवीति न तु बाह्य क्रियामिच्छति । तथा च तन्मते न ॥ १६८ ॥ बहिर्वन्द्यवन्दकभावः किन्त्वन्तरेव, अन्तरात्मपरमात्मकल्पनया ध्यातृध्येयभावदशायाम् ; निरस्तसमस्तसङ्कल्पविकल्पसमा| धिदशायां तु चिन्मात्रावस्थाने नायमपीति । अत एव वन्दनप्रवृत्तिर्व्यवहारेणैवेति व्यवहारनयमतमधिकृत्य गुणाधिकत्व| परिज्ञानकारणानि प्रतिपादयन्नाहाचार्य इत्यवतारणिका 'आलएणं' इत्याद्यावश्यकगाथाया इति ॥ ४१ ॥ नन्वेवं बाह्यकरणस्योपयोगोऽभिहितः, लिङ्गस्य तु क उपयोगः ? इत्यत आह लिंगं पि य ववहाराभिमयं जं तं विवज्जयाभावे । तदंसणे वि विणओ, ववट्टिओ जं भणियमेवं ॥४२॥ स्वोपज्ञवृतियुतः तृतीयो Jain Education 'लिंग पि यत्ति | लिङ्गमपि व्यवहाराभिमतम्, 'यत्' यस्मात् तस्यापि मुनिगुणसंभावनाजनकत्वेन व्यवहारत आश्रयणीयत्वात् : 'तत्' तस्मात् 'विपर्ययाभावे' असुविहितत्वज्ञानाभावे 'तद्दर्शनेऽपि' लिङ्गदर्शनेऽपि 'विनयः' वक्ष्यमाणः संभावनामात्रनिमित्तको व्यवस्थितः, लिङ्गदर्शनोत्थापितसंभावनाजनितोऽयमभ्युत्थानादिमात्ररूपः । आलय विहाराद्याचारविशेपदर्शनरूपपरीक्षाजनितस्तु सर्वोऽप्युचित इति व्यवस्थार्थः । अत्र संमतिमाह - यद्भणितमेतदावश्यके ॥ ४२ ॥ : गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः ॥ १६८ ॥ Dhelibrary.org Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुत. २९ जड़ लिंगमप्पमाणं, न नजाई णिच्छण को भावो । दट्ठूण समणलिंगं, किं कायवं तु समणेणं ? ॥४३॥ 'जइ लिंगं'ति । यदि 'लिङ्गं' द्रव्यलिङ्गम् 'अप्रमाणम्' अकारणं वन्दनप्रवृत्तौ इत्थं तर्हि 'न ज्ञायते' नावगम्यते 'निश्चयेन परमार्थेन छद्मस्थेन जन्तुना कस्य को भावः ? इति यतोऽसंयता अपि लब्ध्यादिनिमित्तं संयतवच्चेष्टन्ते, संयता अपि च कारणतोऽसंयतवदिति । तदेवंव्यवस्थिते 'दृष्ट्टा' आलोक्य 'श्रमणलिङ्गं' साधुलिङ्गं किं पुनः कर्त्तव्यं 'श्रमणेन' साधुना ? । पुनः शब्दार्थस्तुशब्दो व्यवहितश्चोतो गाथाऽनुलोम्यादिति ॥ ४३ ॥ इत्थं लिङ्गमात्रस्य वन्दनप्रवृत्तावप्रमाणतायां प्रतिपादितायां सत्यामनभिनिविष्टेनैव सामाचारीजिज्ञासया चोदकेन पृष्ठे सत्याहाऽऽचार्य: अप्पुवं दट्ठणं, अभुट्ठाणं तु होइ काय । साहुम्मि दिट्ठपुबे, जहारिहं जस्स जं जुग्गं ॥ ४४ ॥ 'अप्पु 'ति । 'अपूर्वम्' अदृष्टपूर्वं साधुमिति गम्यते, 'दृष्ट्वा' अवलोक्य आभिमुख्येनोत्थानं 'अभ्युत्थानम्' आसनत्यागलक्षणं तुशब्दाद्दण्डकादिग्रहणं च भवति कर्त्तव्यम्, किमिति ? कदाचिदसावाचार्यादिर्विद्याद्यतिशयसंपन्नस्तत्प्रदानायैवागतो भवेत्, प्रशिष्य सकाशमाचार्यकालकवत्, स खल्वविनीतं संभाव्य न तत् प्रयच्छति । तथा दृष्टपूर्वास्तु द्विप्रकाराः - उद्यतविहारिणः शीतलविहारिणश्च । तत्रोद्यतविहारिणि साधी 'दृष्टपूर्वे' उपलब्धपूर्वे 'यथार्ह' यथायोग्यमभ्युत्थानवन्दनादि 'यस्य' बहुश्रुतादेर्यद् योग्यं तस्य तत् कर्त्तव्यं भवति । यः पुनः शीतलविहारी न तस्याभ्युत्थानवन्दनादि उत्सर्गतः किञ्चित्कर्त्तव्यमिति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ तदेवं सुपरीक्षितस्य सुविहितस्यैव वन्दनं कर्त्तव्यमिति व्यवस्थितम् । अथापवादतः | श्रमणलिङ्ग दर्शने किं कर्त्तव्यम् इति प्रेरणम् प्रतिवचः inelibrary.org Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व स्वोपज्ञवृ- त्तियुतः तृतीयो marnewaNITIAL 7 ॥१६९॥ -61-5-20 पार्श्वस्थादीनामपि तत् कर्त्तव्यमित्याहपासत्थाईणं पि हु, अववाएणं तु वंदणं कजं । जयणाए इहरा पुग, पच्छित्तं जंभणियमेअं॥४५॥ विनिश्चयः 'पासत्थाईणं पि हुत्ति । 'पार्श्वस्थादीनामपि दुर्विहितानामपवादेन तु वन्दनं ‘यतनया' वागनमस्कारादिक्रमलक्षणया । ब्लासः कार्यम् , इतरथाऽपवादेऽपि तत्करणाभावे प्रायश्चित्तं भगवदाज्ञाविलोपात् , यद्भणितमेतत्कल्पभाष्ये ॥ ४५ ॥ उप्पन्न कारणम्मी, कितिकम्मंजो न कुज दुविहं पि । पासत्थादीआणं, उग्धाता तस्स चत्तारि॥ ४६॥ प्रायश्चित्तम् | 'उप्पन्नेत्ति । उत्पन्ने वक्ष्यमाणे कारणे यः कृतिकर्म 'द्विविधमपि' अभ्युत्थानवन्दनकरूपं पार्श्वस्थादीनां न कुर्यात्तस्य । चत्वारः 'उदाताः' मासा भवन्ति, चतुर्लघुकमित्यर्थः ॥ ४६॥ शिष्यः प्राह दुविहे किइकम्मम्मी, वाउलिआ मोणिरुद्धबुद्धीआ।आइपडिसेहियम्मी उरि आरोवणा गुविला॥४७॥ शिष्यः द 'दुविहे त्ति । एवं द्विविधे' अभ्युत्थानवन्दनकलक्षणे कृतिकर्मणि पूर्व प्रतिषिध्य पश्चादनुज्ञाते 'व्याकुलिताः' आकुली भूता वयम् , अत एव निरुद्धा-संशयक्रोडीकृता बुद्धिर्येषां ते तथा संजाता वयम् , अथवा 'निरुद्धबुद्धयः' स्तोकबुद्धयो यतोऽतो व्याकुलिताः-वयं संशयापन्ना इति व्याख्येयम् । संशयकारणमाह-आदौ-प्रथमं प्रतिषिद्धे पार्श्वस्थादीनां कृतिकमणि सति 'उपरि इदानीं तेषां कृतिकर्माकुर्वताम् ‘आरोपणा' चतुर्लधुकाख्या प्रतिपाद्यते सा 'गुपिला' गम्भीरा, नास्या ॥१६९॥ भावार्थं वयमवबुध्यामह इति भावः ॥४७॥ सूरिराह-उत्सर्गतो न कल्पते पार्श्वस्थादीनां वन्दनं तथापि कारणतः कल्पत ४. 95-%-1- 5 For Private & Personal use only wanamainelorery.org Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति पूर्वापराविरोधस्तथाहि18 गच्छपरिरक्खणट्ठा, अणागयं आउवायकुसलेणं । एवं गणाहिबइणा, सुहसीलगवेसणा कज्जा ॥४८॥ आचार्यः ___ 'गच्छत्ति । अवमराजद्विष्टादिषु ग्लानत्वे वा यदशनपानाद्यपग्रहकरणेन गच्छपरिपालनं तदर्थमनागतमवमादिकारणेऽनुत्पन्न एव 'आयोपायकुशलेन' आयो नाम-पार्श्वस्थादेः पाश्चान्निष्प्रत्यूहसंयमपालनादिको लाभः, उपायो नामतथा कथमपि करोति यथा तेषां वन्दनकमददान एव शरीरवार्ता गवेषयति, न च तथाक्रियमाणे तेषामप्रीतिकमुपजायते प्रत्युत स्वचेतसि ते चिन्तयन्ति-अहो! एते स्वयं तपस्विनोऽप्येवमस्मासु स्निह्यन्ति, तत एतयोरायोपाययोः कुश लेन गणाधिपतिना ‘एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण सुखशीलानां गवेषणा कार्या॥४८॥ तत्र येषु स्थानेषु कर्त्तव्या तानि दर्शयति बाहिं आगमणपहे, उजाणे देउले सभाए वा। रच्छ उवस्सयवहिया, अंतो जयणा इमा होइ ॥ ४९ ॥ पार्श्वस्थादी_ 'वाहिति । यत्र ते ग्रामनगरादौ तिष्ठन्ति तस्य बहिःस्थितो यदा तान् पश्यति तदा निरावाधवार्ता गवेषयति, यदानां यत्र यदा वा ते भिक्षाचर्यादौ तत्रागच्छन्ति तदा तेषामागमनपथे स्थित्वा गवेषणं करोति । एवमुद्याने दृष्टानां चैत्यवन्दननिमित्तं यथा वन्दसागतेदेवकुले वा समवसरणे वा दृष्टानां रथ्यायां वा भिक्षामटतामभिमुखागमने मिलितानां वार्ता गवेषणीया । कदाचित ते नादि कर्तव्यं पार्श्वस्थादयो ब्रवीरन्-अस्माकं प्रतिश्रये कदापि नागच्छत, ततस्तदनुवृत्त्या तेषां प्रतिश्रयमपि गत्वा तत्रोपाश्रयस्य बहिः तत्प्रतिपाद्यते ४ स्थित्वा सर्वमपि निराबाधतादिकं गवेषयितव्यम् । अथ गाढतरं ते निर्वन्धं कुर्वन्ति ततः 'अन्तर्' उपाश्रयस्याभ्यन्तरेऽपि Jain Ed an International For Private Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व विनिश्चयः ल्लासः स्वोपज्ञवृ- प्रविश्य गवेषयतां साधूनाम् ‘इयम्' वक्ष्यमाणा पुरुषविशेषवन्दनविषया यतना भवति ॥४९॥ तत्र पुरुषविशेषं तावदाहत्तियुतः मुक्कधुरा संपागडअकिञ्चे चरणकरणपरिहीणे । लिंगावसेसमित्ते, जं कीरइ तारिसं वुच्छं ॥ १५० ॥ तृतीयो RI 'मुक्कधुर त्ति। धूः-संयमधुरा सा मुक्ता-परित्यक्ता येन स मुक्तधुरः, संप्रकटानि-प्रवचनोपघातनिरपेक्षतया समस्तजनप्रप्रत्यक्षाणि अकृत्यानि-मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनारूपाणि यस्य स संप्रकटाकृत्यः, अत एव चरणेन-व्रतादिना करणेन-पिण्डविशु ड्यादिना परिहीनो य ईदृशस्तस्मिन् ‘लिङ्गावशेषमात्रे केवलद्रव्यलिङ्गयुक्ते यत् यादृशं वन्दनं क्रियते तादृशमहं वक्ष्ये॥१५०॥ वायाइ नमुक्कारो, हत्थुस्सेहो अ सीसनमणं च । संपुच्छण अच्छण छोभवंदणं वंदणं वा वि ॥५१॥ 'वायाए'त्ति । वहिरागमनपथादिषु दृष्टस्य पार्श्वस्थादेवाचा नमस्कारः क्रियते-बन्दामहे भगवन्तं वयमित्येवमुच्चार्यत ६ इत्यर्थः । अथासौ विशिष्टतर उग्रतरस्वभावो वा ततो वाचा नमस्कृत्य 'हस्तोत्सेधम्' अञ्जलिं कुर्यात् । ततोऽपि विशिष्टदतरेऽत्युग्रस्वभावे वा द्वावपि वागनमस्कारहस्तोत्सेधौ कृत्वा तृतीयं शीर्षप्रणामं करोति । एवमुत्तरोत्तरविशेषकरणे पुरुष कार्यभेदः प्राक्तनोपचारानुवृत्तिश्च द्रष्टव्या । 'संपुच्छणं ति पुरतः स्थित्वा भक्तिमिव दर्शयता शरीरवातायाः संपृच्छनं कर्त्तव्यं-कुशलं भवतां वर्तते? इति । 'अच्छणं ति शरीरवार्ता पृष्टा क्षणमात्रं पर्युपासनम् , अथवा पुरुषविशेष ज्ञात्वा तिदीयप्रतिश्रयमपि गत्वा छोभवन्दनं संपूर्ण वा वन्दनं दातव्यम् ॥५१॥ अथ किमर्थं प्रथमतो वाचैव नमस्कारः क्रियते कारणाभावे वा किंमिति मूलत एव कृतिकर्म न क्रियते? इत्याशयाह CHECRECORROGRECAUGUCH ॥१७॥ Main Education International For Private Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जइ णाम सूइओमित्ति वजिओवावि परिहरइ कजं। इति वि हु सुहसीलजणो,परिहजो अणुमती मा सा|| | 'जइ नाम त्ति । यदि नाम कश्चित्पार्श्वस्थादिर्वाग्नमस्कारमात्रकरणे अहो ! 'सूचितः' तिरस्कृतोऽहममुना भझ्यन्तरे-* णेति सर्वथा कृतिकर्माकरणेन वा 'वर्जितः' परित्यक्तोऽहममीभिरिति पराभवं मन्यमानः सुखशीलविहारितां परिहरति 'इत्यपि' एवंविधमपि कारणमवलम्ब्य परिहार्यः कृतिकर्मणि सुखशीलजनः, अपि च तस्य कृतिकर्मणि विधीयमाने तदीयसावधक्रियाया अप्यनुमतिः कृता भवतीत्यतः सा मा भूदिति बुद्ध्याऽपि न वन्दनीयोऽसौ ॥ ५२ ॥ किञ्चलोए वेदे समए, दिट्ठो दंडो अकज्जकारीणं । दम्मति दारुणा वि हु, दंडेण जहावराहेण ॥ ५३ ॥ 'लोए'त्ति । 'लोके' लोकाचारे 'वेदे' समस्तदर्शनिनां सिद्धान्ते 'समये' राजनीतिशास्त्रे 'अकार्यकारिणां' चौरादीनां 'दण्डः' असंभाष्यताशलाकानि!हणालक्षणः प्रयुज्यमानो दृष्टः, यतः 'दारुणा अपि' रौद्रा अपि ते 'यथापराधेन' अप-15 राधानुरूपेण दण्डेन दीयमानेन 'दम्यन्ते' वशीक्रियन्ते, अत इहापि मूलगुणाद्यपराधकारिणां कृतिकर्मवर्जनादिको * दण्डः प्रयुज्यते । एतच्च कारणाभावदशायाम् , कारणे तु वागूनमस्कारादिक्रमयतना कर्त्तव्यैव ॥ ५३॥ आह चवायाए कम्मुणा वा, तह चेटुइ जहण होइ से मन्नू । पस्सति जतो अवायं, तदभावे दूरओ वजे॥५४॥ 'वायाए'त्ति । यतः पार्श्वस्थादेः सकाशात् कृतिकर्मण्यविधीयमाने 'अपाय' संयमविराधनादिकं पश्यति तं प्रति 'वाचा' मधुरसंभाषणादिना 'कर्मणा' शिरःप्रणामादिक्रियया तथा चेष्टते यथा तस्य 'मन्युः' स्वल्पमप्यप्रीतिकं न भवति । अथा For Private Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- त्तियुतः तृतीयो- ॥१७१ वन्दनेऽपि संयमोपघातादिरपायो न भवति ततस्तस्यापायस्याभावे दूरतस्तं सुखशीलजनं वर्जयेत् , एप विषयविभागःगुरुतत्त्वकृतिकर्मकरणाकरणयोरिति भावः ॥ ५४ ॥ अथ तेषां कारणप्राप्तवन्दनाऽकरणे दोषमुपदर्शयति विनिश्चयः एयाइं अकुर्वतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे। ण हवइ पवयणभत्ती, अभत्तिमंतादओ दोसा ॥ ५५॥ ४ लासः 'एयाईति। एतानि' वागनमस्कारादीनि पार्श्वस्थादीनां 'यथार्ह' यथायोग्य अर्हद्दर्शने मार्ग स्थितः सन् कषायोत्कटतया कारणे वन्दयो न करोति तेन प्रवचने भक्तिः कृता न भवति, किन्त्वभक्तिमत्त्वादयो दोषाः, प्राकृतशैल्याऽभक्त्यादय इत्यपरे, तत्राभ- नाकरणे दोतिः आज्ञाभङ्गात् , आदिना स्वार्थभ्रंशाभ्याख्यानवन्धनादिप्राप्तिपरिग्रहः।।२५॥ कानि पुनस्तेषां वन्दने कारणानि ? इत्याह-18 | पापादनम् परिवार परिस पुरिसं, खित्तं कालं च आगमंणाउं । कारणजाए जाए, जहारिहं जस्ल जंजोग्गं ॥ ५६॥ कारणानि 'परिवारत्ति । परिवार पर्षदं पुरुषं क्षेत्रं कालं चागमं ज्ञात्वा, तथा कारणानि-कुलगणादिप्रयोजनानि तेषां जातःप्रकारः कारणजातं तंत्र 'जाते' उत्पन्ने सति 'यथाह' यस्य पुरुषस्य यद्वाचिकं कायिकं वा वन्दनमनुकूलं तस्य तत् कर्तव्यम् ॥ ५६ ॥ अथ परिवारादीनि पदानि व्याचष्टेपरिवारो से सुविहिओ, परिसगओ साहए स वेरगं । माणी दारुणभावो, णिसंसपुरिसाधमो पुरिसो ५७/१ लोगपगओ निवे वा, अहवण रायादिदिक्खिओ हुजा। खित्तं विहमाइ अभाविअंच कालो य अणुगालो | ॥१७१ । 'परिवारों'त्ति । ‘लोगपगओत्ति । 'से' तस्य पार्श्वस्थादेयः परिवारः सः 'सुविहितः' विहितानुष्ठानयुक्तो वर्त्तते । पर्षदि । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतो वा सभायामुपविष्टः 'वैराग्यं' वैराग्यजनकमुपदेशं कथयति येन प्रभूताः प्राणिनः संसारविरक्तचेतसः संजायन्ते । अन्यत्र तु परिवारस्थाने पर्यायो गृह्यते ब्रह्मचर्यपर्यायो येन प्रभूतकालमनुभूत इत्यर्थः, पर्षच्च विनीता तत्प्रतिबद्धा साधुसंहतिर्गृह्यते । तथा कश्चित्पार्श्वस्थादिः स्वभावादेव 'मानी' साहङ्कारः, तथा 'दारुणभावः' रौद्राध्यवसायः, नृशंसो नाम-क्रूरकर्मा अवन्द्यमानो वधवन्धादिकं कारयतीत्यर्थः, अत एव पुरुषाणां मध्येऽधम एतादृशः पुरुष इह गृह्यते ॥५७॥ यद्वा 'लोकप्रकृतः' बहुलोकसम्मतो नृपप्रकृतो वा-धर्मकथादिलब्धिसंपन्नतया राज्ञो बहुमतः । 'अहवण'त्ति अथवा राजादिदीक्षितोऽसौ शैलकाचार्यादिवत्, एवंविधः पुरुष इह प्रतिपत्तव्यः । क्षेत्रं नाम - विहादिकमभावितं वा, विहं - कान्तारमा दिशब्दात्प्रत्यनीकाद्युपद्रवयुक्तम्, तत्र वर्त्तमानानां साधूनामसावुपग्रहं करोति, अभावितं नाम संविग्नसाधुविषयश्रद्धाविकलं पार्श्वस्थादिभावितमित्यर्थः, तत्र तेषामनुवृत्तिविदधानैः स्थातव्यम्, कालश्च 'अणुगालो' दुष्काल उच्यते, तत्र साधूनां वर्त्तापनं करोति । एवं परिवारादीनि कारणानि विज्ञाय कृतिकर्म विधेयम् ॥ ५८ ॥ आगमग्रहणेन च द्वारगाथायां दर्शनज्ञानादिको भावः सूचितोऽतस्तमङ्गीकृत्य विधिमाह - दंसणनाणचरित्तं तवविणयं जत्थ जत्तियं पासे । जिणपन्नत्तं, भक्तीइ पूयए तं तहिं भावं ॥ ५९ ॥ ‘दंसण'त्ति । व्याख्यातेयं प्रथमोलासे ॥ ५९ ॥ एवमुद्यतेतरविहारिगतवन्दनविधौ प्रतिपादिते सत्याह चोदकःकिं गुणवियालणाए, लिंगं अज्झप्पसुद्धिहेउ ति । नमणिजं अविसेसा, जह जिणपडिमा जओ भणिअं ॥ 1 ) प्रेरकः Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयो - ।। १७२ ।। 'किं गुण'ति । किं गुणानां लिङ्गप्रतिवद्धानां विचारणया ?, लिङ्गमेवाध्यात्मशुद्धि हेतुरित्यविशेषान्नमनीयम्, यथा | जिनप्रतिमा, नहि नमनीयगतगुणप्रभवा नमस्कर्तुर्निर्जरा, अपि त्वात्मीयाध्यात्मशुद्धिप्रभवा, सा च लिङ्गादपि भवन्ती लिङ्गस्यापि नमनीयत्वमाक्षिपतीति यतो भणितमावश्यके ॥ १६० ॥ तित्थयरगुणा पडिमासु णत्थि णिस्संसयं विआणतो । तित्थयर त्तिणमंतो, सो पावइ णिज्जरं विउलं ॥ ६१ ॥ 'तित्थर'ति । तीर्थकरस्य गुणा ज्ञानादयस्ते 'प्रतिमासु' बिम्बलक्षणासु 'नत्थि' न सन्ति 'निःशंसयं' संशयरहितं 'विजानन्' अवबुध्यमानस्तथापि तीर्थकरोऽयमित्येवं भावशुद्ध्या 'नमन' नमस्कर्त्ता 'प्राप्नोति' आसादयति 'निर्जरां' कर्मक्षयलक्षणां 'विपुल' विस्तीर्णाम् ॥ ६१ ॥ एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः लिंगं जिणपन्नत्तं, एव णमंतस्स णिज्जरा विउला । जइ विगुणविप्पहीणं, बंदइ अज्झप्पसोहीए ॥ ६२॥ 'लिंगं 'ति । यतेऽनेन साधुरिति 'लिङ्गम्' रजोहरणादिधरणलक्षणं जिनैः - अर्हद्भिः प्रज्ञप्तं प्रणीतम्, 'एवं' प्रतिमावत् नमस्कुर्वतो निर्जरा विपुला । यद्यपि गुणैः- मूलोत्तरगुणैर्विविधम्- अनेकधा प्रकर्षेण हीनं-रहितं 'वन्दते' नमस्करोति 'अध्यात्मशुद्ध्या' चेतःशुद्धयेति ॥ ६२ ॥ समाधातुमुपक्रमते|णियअवगरिसावहिओ, उक्करिसो गुणवओ भगवओ उ । तट्टवणाभावेणं, पडिमा खलु होइ णमणिज्जा ॥ 'णिय'त्ति । निजः-स्वीयः अपकर्षः - हीनगुणत्वं तदवधिको यः 'उत्कर्षः' अधिकगुणलक्षणः स गुणवतो भगवतस्त ) गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः आचार्यः ।। १७२ ।। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्त्वतो विद्यते, तत्स्थापनाभावेन प्रतिमा खलु 'नमनीया' वन्दनीया भवति । अयं भावः - मुख्यतस्तावन्नमस्कर्त्तव्यत्वं स्वापकर्षावधिकोत्कर्षप्रतियोगित्वं प्रकृते तीर्थकर एव, तत्स्थापनाद्वारा तूपचारतः प्रतिमापि नमस्कर्त्तव्येति ॥ ६३ ॥ लिङ्गस्य तु नमस्कर्तव्यत्वे नेयं नीतिः किन्तु भिन्नेत्याह- दत्तणेण सम्मं, नमणिज्जं होइ साहुलिंगं तु । तं खलु सक्खं भावे, संबद्धं होइ सब्भावे ॥ ६४ ॥ 'दवत्तणेण 'ति । साधुलिङ्गं तु सम्यक्स्थापनातोऽपि प्राधान्येन द्रव्यत्वेन नमनीयं भवति, यतः 'तत्' द्रव्यत्वं खलु 'सद्भावे' परमार्थे विचार्यमाणे 'साक्षात् समवायेन भावे संबद्धं भवति, भावकारणताया एव द्रव्यपदार्थत्वात्, कार्यकारणभावस्य च कथञ्चिदविश्वग्भाव एव संभवात् ॥ ६४ ॥ इत्थं च नमस्कर्त्तव्यतायां स्थापनातोऽपि प्रत्यासन्नतरतया प्रधानं द्रव्यरूपं लिङ्गम्, तच्च भावसंवद्धं स्यात् ; प्रकृते तु पार्श्वस्थादिलिङ्गे पक्षीकृते भावासंबद्धेन द्रव्यत्वस्यैव पारमार्थिकस्याभावादप्रधानत्वस्यैव पर्यवसाने स्थापनावन्न मनःशुद्धिहेतुत्वं नमस्कर्त्तव्यत्वं वेति, 'असाधूनामपि लिङ्गं नमस्कर्त्तव्यम्, मनःशुद्धिहेतुत्वात्, जिनप्रतिमावत्' इत्यत्र दृष्टान्तवैषम्यमित्यभिप्रायवानाह— जिणपडिमासु जिणाणं, अज्झप्पं ठवणओ व आरोवा । लिंगम्मि उ दवत्ता, इय दिट्टंतस्स वे हम्मं ॥ ६५ ॥ 'जिणपडिमासु'त्ति । जिनप्रतिमासु जिनानामध्यात्मं स्थापनातो वा इयं जिनानां मूर्त्तिः प्रतिष्ठापितेत्येवम्, आरोपाद्वा भगवद्गुणानां 'भगवानेवायं प्रशमरसनिमग्नलोचनः प्रसन्नवदनः स्निग्धकान्तिः सुरासुरनरनिकरपूजितः' इत्येवं : Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः स्वोपज्ञव- भवति । लिङ्गे तु द्रव्यत्वाद् भावसाधूनां सम्बन्ध्येतदित्येवमध्यात्मं भवति द्रव्यत्वप्रत्यासत्तिद्वारा भावाध्यारोपाद्वेत्यपि गुरुतत्त्व बोध्यम् , तच्च प्रकृते पक्षीकृते लिङ्गे नास्तीति दृष्टान्तस्य वैधर्म्यम् । न हि प्रतिमावत् पार्थस्थादिलिङ्गं भावसम्बन्धेनाध्या- विनिश्चयः तृतीयो- तात्मशोधकमीक्षामह इति ॥ ६५ ॥ ननु प्रतिमायां यथा तीर्थकरगुणानामसतामारोपोऽध्यात्मशोधकस्तथा लिङ्गेऽप्यसतां लासः साधुगुणानामारोपस्तादृशः सुलभ एवेत्यत आह॥१७३॥ दवत्ताभावम्मि य, णिरंतरं दवभावणाजणिओ । तत्थ गुणज्झारोवो, किलेसमूलं विवज्जासो ॥६६॥ | 'दवत्ताभावम्मि यत्ति । द्रव्यत्वाभावे च निरन्तरं द्रव्यभावनयोत्कर्षदशायां द्रव्यत्वप्रत्यासत्तिप्रमोषे भाव्यमानयो -18 वद्रव्ययोरभेदपर्यवसितया जनितः 'तत्र' पार्श्वस्थादिलिङ्गे गुणाध्यारोपः 'विपर्यासः' भ्रमरूपः, अस्थानभावनाजनितत्वात् ;13 अत एव क्लेशमूलम् , अज्ञानस्यैवानर्थनिबन्धनत्वात्। प्रतिमायां तु नैवमस्ति, यतस्तत्र स्थापनारूपा भावप्रत्यासत्तिर्भावनास्थानं सद्भूतमेवास्तीति ध्यानसामग्रीमहिम्ना जायमानस्तदभेदाध्यारोपोऽपि न विपर्यासरूपः; भिन्नाभिन्नरूपत्वाद्वस्तुनः प्रत्यासत्तिवशात्कयाचिद्यपेक्षया भिन्नेऽप्यभेदाध्यवसायस्यादुष्टत्वात् । अत एव पारमर्षेऽपि “धूवं दाऊण जिणवराणं” इत्यादी जिनप्रतिमानां जिनाभिन्नतयाऽभिधानमदुष्टम् । यदि त्वध्यारोपिक एव स्थाष्यस्थापनयोरभेदः स्यात् तदा विशेषदर्शिनां तदभिधानं न स्यादिति विचारणीयं सुधीभिः ॥ ६६ ॥ इत्थं विपर्यासे सति पापानुमतिदोषोऽपि स्यादित्याह ॥१७३॥ इत्तो अ अप्पहाणे, पाहण्णमईइ पायडा होइ। तग्गयदोसाणुन्ना, इणमभिपेञ्चेव भणियमिणं ॥६७॥ ROGRESSOCSLAMGIRLS JainEducation international For Private & Personal use only Soyainelibrary.org Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WELCONGRESUMEASURE 'इत्तो अत्ति । 'इतः' द्रव्यत्वाभावेऽपि भावगुणाध्यारोपात् 'अप्रधाने पार्श्वस्थादिलिङ्गे प्राधान्यमत्या प्रकटैव तद्गतदोपानुज्ञा, कूटलिङ्गप्राधान्यस्फूत्तों तत्प्रतिवद्धदोषाणामपि तथात्वस्फुरणात् । इदमभिप्रेत्यैव भणितमिदमावश्यके ॥ ६७ ॥|| संतातित्थयरगुणा, तित्थयरे तेसिमं तुअज्झप्पं । न य सावजा किरिया, इयरेसुधुवा समणुमन्ना ॥६॥ | 'संत'त्ति । 'सन्तः' विद्यमानाः शोभना वा तीर्थकरस्य गुणाः-ज्ञानादयः, क्व ? तीर्थकरे इयं च प्रतिमा तस्य भगवत इति तेषां नमस्कुर्वताम् 'इदमध्यात्मम्' इदं चेतः, तथा न च तासु प्रतिमासु 'सावधा' सपापा 'क्रिया' चेष्टा, 'इतरेषु' पार्श्वस्थादिषु 'ध्रुवा' अवश्यंभाविनी सावद्या क्रिया । प्रणमतस्तत्र किम् ? इत्याह-समणुमन्ना' सावधक्रियायुक्तपार्श्वस्थादिषु प्रणमनात् सावद्यक्रियानुमतिरिति हृदयम् । अथवा सन्तस्तीर्थकरगुणास्तीर्थकरे तान् वयं प्रणमामस्तेषामिदमध्यात्मम् , ततोऽर्हद्गुणाध्यारोपेण च इष्टप्रतिमाप्रणमनान्नमस्कर्तुर्न च सावद्या क्रिया परिस्पन्दनलक्षणा। 'इतरेषु' पार्श्वस्थादिषु । पूज्यमानेष्वशुभक्रियोपेतत्वात्तेषां नमस्कर्तुर्भुवा समनुज्ञेति ॥ ६८ ॥ प्रकारान्तरेण शङ्कते अह ठवणाभावेणं, लिंगं अज्झप्पसोहयं इटुं । ता वत्तवं सा किं, तस्सेव उयाहु अण्णस्स॥ ६९ ॥ | | 'अहं' त्ति । अथ स्थापनाभावेन 'लिङ्ग' पार्श्वस्थादिसम्बन्धि द्रव्यलिङ्गम् ‘अध्यात्मशोधक' शुभभावनाजनकमिष्टं न चैवं पापानुमतिः, अप्रधाने प्रधानत्वस्फूर्तेरेव तद्रूपत्वादिति भावः तत् वक्तव्यं 'सा' लिङ्गे स्थापना किं 'तस्यैव पार्श्व*स्थादेरुताहो! 'अन्यस्य' संविग्नस्य साधोः? ॥ ६९॥ आद्यं पक्षं दूषयितुमुपक्रमते For Private Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयो - ॥ १७४ ॥ तस्सेव साण इट्ठा, किरिया सावज्जया जओ तस्स । असुहविगप्पणिमित्तं, पडिमासुय सा ण थोवावि ७० 'तस्सेव'त्ति । ‘तस्यैव' पार्श्वस्थादेः 'सा' स्थापना लिङ्गे 'नेष्टा' नाङ्गीकृता, यतः 'तस्य' स्थाप्यत्वेनाभिमतस्य क्रिया सावद्या अशुभ विकल्पनिमित्तम्, तादृशस्य भावस्य स्थापनाया अपि तथात्वात्, तथा च पापानुमतिदोषस्तदवस्थ एवेति भावः । प्रतिमासु च 'सा' सावद्यक्रियाऽनुमतिरूपा स्तोकाऽपि नास्ति, स्थाप्ये तीर्थकरे परिस्पन्दरूपसावद्यक्रियाऽभावात्, स्थाप्येऽनुभूयमानयोरेव गुणदोषयोः स्थापनासङ्केतमहिम्नाऽनुमतिसंभवात् तथा च दृष्टान्तवैषम्यमितिभावः । अथवा 'तस्यैव' पार्श्वस्थादेः 'सा' लिने स्थापना नेष्टा यतस्तस्य सावद्या क्रियास्ति, सा च लिङ्गे प्रत्यासन्नाऽशुभविकल्पनिमित्तम् । तथा च तयाऽशुभविकल्पकोडीक्रियमाणं लिङ्गमवन्दनीयम्, प्रतिमासु च सा सावद्यक्रिया स्तोकापि नास्तीति तयाऽशुभविकल्पाविषयीक्रियमाणत्वात् सा वन्दनीयैवेति दृष्टान्तवैषम्यम् ॥ १७० ॥ अत्राह प्रेरकःसुद्धकिरियाणिमित्ता, अह सिद्धी नणु हवेज्ज जीवाणं । पडिमासु वि तयभावा, तो ण हवे सा जओ भणिअं॥ 'सुद्ध'ति । ननु यद्येवमशुभक्रियाजनिताऽशुभसङ्कल्पविषयत्वाल्लिङ्गस्यावन्दनीयत्वं तद्वन्दनस्य पापफलत्वात्, विपर्ययाच्च प्रतिमानां वन्दनीयत्वं व्यवस्थितं तदा शुद्धक्रियानिमित्ता जीवानां नमस्कर्तॄणां 'सिद्धिः' पुण्यनिष्पत्तिर्भवेदिति प्रतिमास्वपि तदभावात्' शुद्धक्रियाऽभावात्पुण्यसिद्धिर्न भवेदिति तासामप्यवन्दनीयत्वं प्रसक्तम् । न खलु पापानिष्पत्तिमात्रार्थ वन्दने प्रवृत्तिः प्रेक्षावताम्, तुल्यायव्ययत्वात्, किन्तु पुण्यनिष्पत्तयेऽपि सा चात्रापि प्रतिमागतशुद्धक्रियाभावे : गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः प्रेरकः ॥ १७४ ॥ ainelibrary.org Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्घटेति । यतो भणितमावश्यके ॥ ७१॥ जह सावजा किरिया, णत्थि य पडिमासु एवमियरा वितयभावे णत्थि फलं,अह होइ अहेउअंहोइ ॥७२॥ | 'जहत्ति । यथा 'सावद्या क्रिया' सपापा क्रिया 'नास्त्येव' न विद्यत एव प्रतिमासु एवं 'इतरापि' निरवद्यापि नास्त्येव, ततश्च 'तदभावे' निरवद्यक्रियाऽभावे नास्ति 'फलं' पुण्यलक्षणम् । अथ भवति 'अहेतुकं भवति' निष्कारणं च भवति, प्रणम्यवस्तुगतक्रियाहेतुगतत्वात् फलस्येत्यभिप्रायः । अहेतुकत्वे चाऽऽकस्मिककर्मसंभवान्मोक्षाद्यभाव इति गाथार्थः॥७२॥ समाधायकः प्राहमणसुद्धिणिमित्तत्ता, पडिमाओ हुंति वंदणिज्जाओ। सा चेव य फलहेऊ, तेणण दोसो जओ भणियं ७३॥ | 'मणसुद्धित्ति । यद्यपि प्रतिमासु निरवद्यक्रियाऽपि नास्ति तथापि मनःशुद्धिः-जिनगुणप्रणिधानलक्षणा तन्निमित्तत्वात् प्रतिमा वन्दनीया भवन्ति, सा चैव मनःशुद्धिः फलहेतुः; तेन न 'दोषः' प्रागुक्तप्रतिमानामवन्द्यत्वापत्तिलक्षणः। यतो भणितम्-आवश्यके ॥ ७३ ॥ कामं उभयाभावो, तहवि फलं होइ मणविसुद्धीए। तीए पुण मणविसुद्धीइ कारणंहुंति पडिमाओ॥७॥ _ 'काम'ति । 'काम' अनुमतमिदं यदुत 'उभयाभावः' सावद्येतरक्रियाभावः प्रतिमासु तथापि ‘फलं' पुण्यलक्षणमस्ति । मनसो विशुद्धः सकाशात् , तथाहि-वगतमनोविशुद्धिरेव नमस्कर्तुः पुण्यकारणं न नमस्करणीयवस्तुगता क्रिया, समाधायकः गुरुन. ३० Jain Educationka For Private Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञव- आत्मान्तरे फलाभावात् । यद्येवं किं प्रतिमाभिः?, इत्युच्यते-तस्याः पुनर्मनोविशुद्धेः 'कारणं' निमित्तं भवन्ति प्रतिमाः, गुरुतत्त्वत्तियुतः इतवारेण तस्याः संभूतिदर्शनादिति गाथार्थः ॥ ७४ ॥ एवं व्यवस्थिते सत्याह पूर्वपक्षी | विनिश्चयः तृतीयो- लिंगं वि पुज्जमेवं, मुणिगुणसंकप्पकारणत्तेणं । णेवं विवजयप्पा, जं सो सावजकम्मजुए ॥ ७५॥ ल्लासः पूर्वपक्षः ॥१७५॥ । 'लिंग वित्ति। लिङ्गमपि पूज्यम् ‘एवं' मनःशुद्धिमात्रस्य फलहेतुत्वे स्यात्', मुनिगुणसङ्कल्पकारणत्वेनादृष्टो हि लिङ्गदर्श-18 नादपि मुनिगुणानां सङ्कल्प इति, तदेतत् समाधातुमाह-नैवं यदुक्तं प्राग् भवता 'यत्' यस्मात्स कूटलिङ्गे 'सावद्यकर्मयुक्ते', 8| मुनिगुणसङ्कल्पो विपर्ययात्मा, अतद्वति तद्रवगाहित्वात् ॥ ७५ ॥ प्रतिमास्वाक्षेपनिरासमाह णिरवजकम्मजणियाऽणहसंकप्पं विणा ण य ण पुण्ण।तित्थयरगुणारोवा, सुहसंकप्पस्स संभवओ ७६ प्रतिकाचः __ 'णिरवजत्ति । निरवद्यकर्मजनितो योऽनघः-शुभः सङ्कल्पस्तं विना न च पुण्यं प्रतिमास्वपि वन्द्यमानास्वितिशेषः, न इत्यपि न वाच्यमित्यर्थः, तीर्थकरगुणाध्यारोपात प्रतिमासु शुभसङ्कल्पस्य सम्भवात् विपर्ययस्याप्युद्देश्यगुणविषयत्वेन | शुभत्वादिति भावः ॥ ७६ ॥ सङ्कल्पशुभाशुभताप्रकारमेवाहजं गुणदोसणिमित्तं, सुहासुहत्तं तयं तु तयहीणं । जं पुण उभयविरहिअं, तं अज्झारोवबललब्भ।७७॥[* | 'जं' ति । ये गुणदोषनिमित्ते शुभाशुभत्वे ते तदधीने, एकवचनं सूत्रे प्राकृतत्वात्, अयं भावः-सङ्कल्पगतं शुभत्वम18|शुभत्वं च द्विविधम्-विशेष्यकृतं प्रकारकृतं च । तत्र यद् विशेष्यकृतं तद् गुणवद्वस्तुविषयत्वं दोषवद्वस्तुविषयत्वं च विषय-21 SCARRIERSARKAR ॥१७५॥ Inn Education International Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतं गुणं दोषं चापेक्षते, यत्पुनः प्रकारकृतं तत्राह-यत्पुनः 'उभयविरहितं' गुणदोषोभयरहिताकारमात्रवस्तुविषयं शुभत्वमहै शुभत्वं च तद् ‘अध्यारोपवललभ्यं' शुभाध्यारोपे शुभप्रकारमशुभाध्यारोपे चाशुभप्रकारमित्यर्थः॥७७॥ प्रकृतयोजनामाह एवं सुहसंकप्पो, पडिमाओ होउ जिणगुणारोवा।उदिस्स निग्गुणे पुण, कह सो जुत्तो जओ भणियं७८ PI एवं ति । एवं विषयगतगुणकृतशुभत्वाभावेऽपि प्रतिमातो जिनगुणारोपात्प्रकारशुभतया शुभसङ्कल्पो भवतु विषयग तोऽपि नाशुभ इति किञ्चिद्गुणसादृश्येन शुभ एवेति । लिङ्गे तु दोषजनिताशुभसङ्कल्पेन प्रतिबन्धाच्छुभसङ्कल्प उत्तिष्ठत एव न । अथ तटस्थतया कथञ्चित्पतिसंहिते लिङ्गे भवेदपि तथाप्ययं 'निर्गुणान्' पार्श्वस्थादीनुद्दिश्य भवन् कथं युक्तः, शुभतया वक्तुं प्रकारकृतशुद्धताया अप्यभावात् । यतो भणितमावश्यके ॥ ७८॥ जइ वि य पडिमासु जहा, मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंगं। उभयमवि अस्थि लिंगे,ण य पडिमासूभयं अत्थि | 'जइ वि यत्ति । यद्यपि च प्रतिमासु यथा मुनीनां गुणाः-व्रतादयस्तेषु सङ्कल्पः-अध्यवसायस्तत्कारणं 'लिङ्गं द्रव्य-४ लिङ्गं तथापि प्रतिमाभिः सह वैधर्म्यमेव, यत उभयमप्यस्ति लिङ्गे सावद्यकर्म निरवद्यकर्म च । तत्र निरवद्यकर्मयुक्त एव यो मुनिगुणसङ्कल्पः स सम्यक्संकल्पः स एव च पुण्यफलः, यः पुनः सावद्यकर्मयुक्तेऽपि मुनिगुणसङ्कल्पः स विपर्याससकल्पः क्लेशफलश्चासौ विपर्यासरूपत्वादेव । न च प्रतिमासूभयमस्ति चेष्टारहितत्वात् , ततश्च तासु जिनगुणविषयस्य क्लेशफलस्य विपर्याससङ्ककल्पस्याभावः, सावद्यकर्मरहितत्वात् प्रतिमानाम् । आहेत्थं तर्हि निरवद्यकर्मरहितत्वात् सम्यक्सङ्क Main Education International For Private & Personal use only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतियुतः तृतीयो ॥ १७६ ॥ ल्पस्यापि पुण्यफलस्याभाव एव प्राप्त इति, उच्यते तस्य तीर्थकर गुणाध्यारोपेण प्रवृत्तेर्नाभाव इति ॥ ७९ ॥ तथा चाहणियमा जिणेसु उगुणा, पडिमा उद्दिस्स जे मणे कुणइ । अगुणे य विआणतो, कं णमउ मणे गुणं काउं १८० 'णियम'त्ति | 'नियमात्' अवश्यंभावात् 'जिनेषु' तीर्थकरेष्वेव तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, 'गुणाः' ज्ञानादयो न प्रतिमासु, प्रतिमा दृष्ट्वा तास्वध्यारोपद्वारेण यान् 'मनसि करोति' चेतसि स्थापयति पुनः पुनर्नमस्करोति, अत एवासौ तासु शुभः पुण्यफलो जिनगुणसङ्कल्पः, सावद्यकर्मरहितत्वात् ; न चायं तासु निरवद्यकर्माभावमात्राद्विपर्याससङ्कल्पः, सावद्यकमोपेतवस्तुविषयत्वात्तस्य; ततश्चोभयविकल एवाकारमात्रतुल्ये कतिपयगुणान्विते वाऽध्यारोपोऽपि युक्तः । 'अगुणे' इत्यादि, अगुणानेव तु शब्दस्यावधारणार्थत्वात्, अविद्यमानगुणानेव 'विजानन्' अवबुध्यन् पार्श्वस्थादीन् कं मनसि कृत्वा गुणं नमस्करोतु तान् ? इति ॥ १८० ॥ नन्वन्यसंविग्नसाधुसम्बन्धिनं गुणमध्यारोपमुखेन मनसि कृत्वा नमस्करोत्वित्यस्तु द्वितीयः पक्ष इत्यत आह एएण अण्णठवणा, पराकया होइ णिग्गुणत्तेणं । गुणसंकप्पाजोगा, गुणमित्ते जं तइच्छा य ॥ ८१ ॥ 'एएण'त्ति । ‘एतेन' निर्गुणविषये शुभसङ्कल्याभावव्यवस्थापनेनाऽन्यस्थापना पराकृता भवति, उद्देश्यगतगुणसाम्राज्ये सत्यपि तस्य निर्गुणत्वेन गुणसङ्कल्पायोगात् निर्गुणस्य विषयस्य विशेषदर्शिना तटस्थतयाऽपि प्रतिसन्धातुमशक्यत्वादित्यपि द्रष्टव्यम् । हेत्वन्तरमाह - 'च' पुनः 'यत्' यस्माद् 'गुणमात्रे' सादृश्यनिरूपकगुणलेशे सति 'तदिच्छा' अध्यारोपेच्छा ) गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः ॥ १७६ ॥ nelibrary.org Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति । अयं भावः-पुद्गलद्रव्यत्वेन जिनभिन्नतयोपस्थितायां जिनप्रतिमायां तदभेदाध्यारोपस्तावन्न स्वारसिकः, किन्ति च्छाधीनतयाऽऽहार्यः, इच्छा च किञ्चिद्गुणसादृश्यवति विषय एव संभवत्यविषयेऽध्यारोपस्यानिष्टसाधनत्वप्रदर्शनात, ततः प्रतिमायां जिनगुणाध्यारोपो युक्तो न तु कूटलिङ्गे साधुगुणाध्यारोप इति ॥ ८१॥ अपि च लिङ्गे स्थापनानिक्षेपो|ऽपि न प्रवर्त्तते कुतस्तरां शुभसङ्कल्पः? इत्याहपण य ठवणा वि पवट्टइ, तज्जातीए तहा सदोसे य। उववाइयं च एयं, सम्मं भासारहस्सम्मि ॥ ८२॥ ‘ण यत्ति । न च स्थापनापि लिङ्गे 'तज्जातीये' साधुजातीये पार्श्वस्थादौ सदोषे च प्रवर्तते, स्थापनायाः सादृश्यरू-3 पत्वात् , तस्य च तद्भिन्नत्वघटितस्य व्यवहारतः साधुभिन्नत्वाभाववत्यप्रवृत्तेः, तद्गतभूयोधर्मवत्त्वभागस्य च सदोषतयैव विरोधात् , अत एव पार्श्वस्थादौ साधुरितिवचनं भावसाधुत्वबाधेनापकृष्टसाधुविषयतया पर्यवस्यद् रूपसत्यं न तु स्थापनासत्यम् , न चेदेवं तदा रूपसत्यस्थापनासत्ययोरभेदप्रसङ्ग इति । उपपादितं चैतत् सम्यग् भाषारहस्येऽस्माभिरिति तत एवाधिकमवसेयम् ॥ ८२ ॥ ननु कूटलिङ्गे मा भूत् स्थापना, परं तत् साधुगुणस्मरणद्वारा वन्दनीयमस्तु, इदमेव च तत्र | ताटस्थ्यं गीयते यत् तत् न स्वयं वन्द्यम् , तदुपस्थापिताः साधुगुणास्तु वन्द्या इत्याशङ्कायामाहसइमजायाए वि हु, सुहसंकप्पो पराकओ इत्तो। णिग्गुणतुल्लत्ताए, जं णायाए ण सो होइ ॥ ८३ ॥ 'सइत्ति । स्मृतिमर्यादयापि 'इतः' स्थापनाप्रवृत्तेः शुभसङ्कल्पो लिङ्गादिष्यमाणः पराकृतः, यत्स शुभसङ्कल्पः स्मर्य Main Education International For Private & Personal use only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञवत्तियुतः तृतीयो ॥१७७॥ माणेषु साधुषु निर्गुणतुल्यतया स्मारकसादृश्यज्ञानोपनयनेन ज्ञातया न भवति, निर्गुणतुल्यताज्ञानस्य गुणसङ्कल्पप्रतिब- गुरुतत्वन्धकत्वादिति भावः ॥ ८३ ॥ ननु कूटलिङ्गेऽपि येन न दोषः प्रतिसंहितस्तं प्रत्यध्यात्मशोधकत्वात् तत् सर्वेषां स्वरूपेण विनिश्चयः वन्दनीयमस्त्वित्यत आह ल्लासः मुद्धस्स जइ विकासइ,लिंगाउ सई हविज्ज सुमुणीणं। तह वि इमं ण पमाणं,विसेसदंसीण जंभणियं ८४ । 'मुद्धस्सत्ति । 'मुग्धस्य' विशेषादर्शिनो धर्माभिमुखस्य कस्यचित् 'लिङ्गात्' द्रव्यलिङ्गदर्शनात् स्मृतिः सुमुनीनां भवेद् एतादृशलिङ्गधारिणो जैनाः साधवः संसारतारका इति, तथाऽप्येतल्लिङ्गं विशेषदर्शिनां न प्रमाणम् । यद्भणितमावश्यके ८४ जह वेलंवगलिंग, जाणंतस्स णमओ धुवं दोसो । णिद्धंधस त्ति णाऊण वंदमाणे धुवं दोसो ॥ ८५ ॥ I 'जहत्ति । यथा 'विडम्बकलिङ्ग' भण्डादिकृतं 'जानतः' अवबुध्यमानस्य 'नमतः' नमस्कुर्वतः सतोऽस्य भवति 'दोषः181 प्रवचनहीलनादिलक्षणः । निद्धन्धसं' प्रवचनोपघातनिरपेक्ष पार्श्वस्थादिकं 'इय' एवं 'ज्ञात्वा' अवगम्य 'वंदमाणे धुवं दोसो'त्ति 'वन्दति' नमस्कुर्वति नमस्कर्तरि 'भ्रवः' अवश्यंभावी 'दोषः' आज्ञाविराधनादिलक्षणः । पाठान्तरं वा "निद्धंधसं पि नाऊण वन्दमाणस्स दोसो उ" इदं प्रकटार्थमेवेति गाथार्थः॥८५॥ तथा च कस्यचिद्गुणहेतुत्वेऽपि कूटलिङ्गं है वन्दनप्रवृत्तौ सामान्यत एव निषिद्धम् , चित्रार्पितकामिनीव सतत्त्वभाविनः कस्यचिद्गुणनिमित्तमपि दर्शनप्रवृत्तौ प्रायो । ॥१७७॥ दोषहेतुत्वादिति सिद्धम् । ननु यद्येवं पार्श्वस्थादीनां वन्दनप्रवृत्तौ दोष उक्तस्तदापवादेन तद्वन्दनमप्ययुक्तं स्याद्दोषानपा Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCASSACROCOM यादित्याशङ्का निराकर्तुमाह अववाएण य दोसो, ण णिग्गुणाणं पि वंदणे होइ । गुरुलाघवचिंताए, एवं दाणाइसु वि णेयं ॥८६॥ | 'अववाएण यत्ति । अपवादेन च निर्गुणानां वन्दनेऽपि गुरुलाघवचिन्तायां न दोषः, तस्या एव दोषप्रतिबन्धकत्वात् ।। एवं दानादिष्वपि ज्ञेयम् , तथाहि-पार्श्वस्थादीनामाहारदानादानयोरशिवादिकारणे पुष्टालम्बनप्रवृत्त्या न दोषः, तदुक्तम् -“असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलन्ने । अद्धाणरोहए वा दिज्जा अवा पडिच्छिज्जा ॥१॥" एवं तेषां वस्त्रा-18 दिदानादानयोरपि पुष्टालम्बने न दोषः, तदुक्तम्-"इमो अववाओ, गिही अन्नतिथिओ वा सेहो पवइउकामो तदिज्जइ जत्थ सुलभं वत्थं तत्थ वि विसए अंतरा वा असिवादि हुज्जा, एवमादिकारणेहिं तं विसयमगच्छंतो इह अलभंतो पासस्थाइवत्थं गिहिज्जा दिज्जा वा तेसिं, अद्धाणे वा वच्चंता मुसिआ अन्नतो अलभंता पासत्थाइवत्थं गिहिज्जा, हिमदेसे वा सीताभिभूआ पाडिहारिअं गिण्हिज्जा, गिलाणस्स वा अत्थुरणादि गिव्हिज्जा, एवमाइ।” तथा कारणे वसत्यादिदानेऽपि न दोषः, यतः कारणेऽसाम्भोगिका अपि पार्श्वस्थाः प्रवचने साम्भोगिका उच्यन्ते । साम्भोगिकानां च वसतिमध्ये विद्यमानं यो न ददाति तस्य चतुर्लघ, अग्यादिना वसत्युपद्रवात् श्वापदादिभयाद्वा शैक्षग्लानाद्यर्थ वाऽध्वप्रपन्ना वा य आगतास्तेषां विद्यमानस्थानादाने चतुर्गुरु प्रायश्चित्तम् । सम्भोगसाधर्मिकवात्सल्यप्रवचनव्युच्छित्तिश्चेति जीतवृत्तावुक्तम् । तथा कारणे पार्श्वस्थादिवाचनादानादानयोरपि न दोषः, यतः पावस्थादिः संविग्नविहारमभ्युपगतोऽभ्युपगन्तुकामो वा वाच्यते । तथाऽन्यत्रालाभे सिद्धान्ताव्युच्छित्त्यर्थं पार्श्वस्थादिभ्योऽपि वाचना गृह्यत इत्यादि ॥८६॥ JainEducation international Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतियुतः तृतीयो - -1181611 Jain Educat इय उज्जएयरगयं, णाऊण विहिं सुआणुसारेणं । उज्जमइ भावसारं, जो सो आराहगो होड़ ॥ ८७ ॥ विहिणा इमेण जो खलु, कुगुरुच्चारण सुगुरुसेवाए। ववहरइ विसेसण्णू, जसविजयसुहाई सो लहइ १८८ इति महामहोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्य मुख्यपण्डितश्रीलाभविजयगणिशिमुख्यपण्डितश्रीजीत विजयगणिसतीर्थ्य पण्डितश्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चकेण पण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेण पण्डितयशोविजयेन विरचिते गुरुतत्त्वविनिश्वये तृतीय उल्लासः सम्पूर्णः ॥ ३ ॥ 'इ'ति । 'विहिणत्ति गाथाद्वयं स्पष्टम् ॥ ८७ ॥ १८८ ॥ ॥ इति महामहोपाध्यायश्री कल्याणविजयगणि शिष्यमुख्यपण्डितश्री लाभविजय गणिशिष्य मुख्यपण्डितश्रीजीत विजयगणि सतीर्थ्यशेखरपण्डितश्री नयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकेण पण्डितश्रीपद्मविजयगणि सहोदरेण पण्डितयशोविजयेन विरचितायां स्वोपज्ञगुरुस्वविनिश्चयवृत्तौ तृतीयोल्लासविवरणं सम्पूर्णम् ॥ ३॥ ational * गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः उपसंहारः ॥ १७८ ॥ Ainelibrary.org Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ प्रशस्तिः । प्रशस्तिः यस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशयाः, भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरस्तस्येयं गुरुतत्त्वनिश्चयकृतिः स्तात् पण्डितप्रीतये ॥१॥ कुर्वन्ति कवयो ग्रन्थं, यशः सन्तो वितन्वते । रत्नानि रोहणः सूते, परीक्षन्ते परीक्षकाः ॥२॥ निपुणो गुरुकुलवासः, कुगुरुत्यागोऽपि यत्र निपुणतरः । सा पारमेश्वरी गीनिपुणधियां गोचरा जयति ॥३॥ Main Education international ForPrivate LPersonal use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ. त्तियुतः चतुर्थो॥१७९॥ उपक्रमः अथ गुरुतत्त्वविनिश्चये चतुर्थोल्लासः । गुरुतत्त्वविनिश्चयः लास: विवृतस्तृतीय उल्लासः । अथ चतुर्थो वित्रियते । तत्र तृतीये कुगुरुत्यागः सुगुरुसेवा चाभिहिता, तदभिधानं च गुरुस्वरूपनिरूपणेन सुज्ञानं भवतीति निर्ग्रन्थप्ररूपणाद्वारा तदिह निरूप्यते, तत्रेयं प्रथमगाथासुगुरुत्तं साहणं, गंथञ्चारण होइ नाणीणं । इहरा विवरीयत्थं, तेसिं णिग्गंथणामं पि ॥१॥ 'सुगुरुत्तति । ज्ञानिनां सुगुरूणां ग्रन्थत्यागेन सुगुरुत्वं भवति, गृणाति तत्त्वमिति गुरुः शोभनो गुरुः सुगुरुरिति हि सुगुरुपदार्थः, स च ग्रन्थत्याग एव घटते नान्यथा, अत्यक्तग्रन्थेन नैर्ग्रन्थ्यप्रधानस्य मार्गस्योपदेष्टुमशक्यत्वात् । विपर्यये दोषमाह-'इतरथा' ग्रन्थत्यागाभावे तेषां साधुत्वाभिमतानां पार्श्वस्थादीनां निर्ग्रन्थनामापि विपरीतार्थ यहच्छामात्रोतापकल्पितत्वेन दरिद्रस्य धनपालनामवद् अपयशस्करमेव स्यात् ॥१॥ कथं तर्हि निर्ग्रन्थनाम्नः सार्थकत्वम् ? का वा निर्य-14 न्थानां प्ररूपणा ? इत्यत आह निर्ग्रन्थलक्षदसचउदसविहवज्झन्भंतरगंथा उ जे मुणी मुक्का । ते णिग्गंथा तेसिं, पंचण्ह परूषणं वुच्छं ॥२॥ विधः खलु बाह्यो ग्रन्थः, तथाहि-क्षेत्रं-सेत्वादि १, वास्तु-खातादि २, धनं च-हिरण्यादि, धान्यं च ॥१७९॥ शाल्यादि तयोः सञ्चयः ३, मित्राणि च सहवर्धितादीनि, ज्ञातयश्च स्वजनास्तैः सह संयोगः ४, यानानि-शिबिकादीनि ! णम् For Private Personal Use Only linelibrary.org Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - RECRACCOCOCCOLOGOO.Gk ५, शयनानि-पल्यङ्कादीनि ६, आसनानि-सिंहासनादीनि ७, दास्यः-अङ्कपतिताः ८, दासा अपि तथाविधा एव ९, कप्पं च विविधगृहोपस्करात्मक १०मिति । चतुर्दशविधश्चाभ्यन्तरो ग्रन्थः, तथाहि-क्रोधः-अप्रीतिलक्षणः १, मानःअहमितिप्रत्ययहेतुः २, माया-स्वपरव्यामोहोत्पादकं शाठ्यम् ३, लोभः-द्रव्यादिकाका ४, प्रेम-प्रियेषु प्रीतिहेतुः ५, द्वेषः-उपशमत्यागात्मको विकारः ६, यद्यपि प्रेम-मायालोभरूपं द्वेषश्च-क्रोधमानात्मकस्तथाऽपि तयोः पृथगुपादानं कथञ्चित् सामान्यस्य विशेषेभ्योऽन्यत्वख्यापनार्थमिति वृद्धाः। मिथ्यात्वं-नास्ति १ न नित्यः २ न करोति ३ कृतं न वेदयति ४ नास्ति निर्वाणं ५ नास्ति निर्वाणोपायः ६ इति षड्डिः स्थानस्तत्त्वार्थाश्रद्धानम् , यदाह सम्मतिकारः-"णस्थिण णिच्चोण कणइ, कयं ण वेएइ णत्थि णेवाणं । णत्थि य मोक्खोवाओ, छ म्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥१॥"७ वेदः-स्त्रीवेदादिस्त्रिधा 1८, अरतिः-संयमेऽप्रीतिः ९, रतिः-असंयमे प्रीतिः १०, हासः-विस्मयादिषु वऋविकासात्मकः ११, शोकः-दृष्टवियोगामानसं दुःखम् १२, भयामहलोकादिभेदभिन्नं सप्तविधम् १३, जुगुप्सा-अस्नानादिमलिनतनुसाधुहीलना १४ । तदक्त- II मुत्तराध्ययननियुक्तो-"दुविहो अ होइ गंथो, बज्झो अभितरो उ णायबो । अंतो अ चोद्दसविहो, दसहा पुण बाहिरो गंथो ॥१॥ कोहे माणे माया लोमे पेजे तहेव दोसे य । मिच्छत्त वेद अरती, रति हासो सोग भय कुच्छा ॥२॥ खेत्तं वत्थु धणधण्णसंचओ मित्तणाइसंजोगा । जाणसयणासणाणि य, दासी दासं च कुवियं च ॥३॥" ततो दशविधचतुर्दशविधाभ्यां वाह्याभ्यन्तरग्रन्थाभ्यां ये मुक्ता मुनयस्ते निग्रन्था भण्यन्ते तेषां पञ्चानां प्ररूपणां वक्ष्ये ॥२॥ तत्र द्वारगाथात्रयं पुरातनमेवाह For Private ainelibrary.org Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः तृतीयोन ॥१८॥ द्वारगाथाः KAMACREGACASSESAGAR पण्णवण १ वेअ २ राए ३, कप्प ४ चरित्त ५ पडिसेवणा ६ नाणे ७ । गुरुतत्त्वतित्थे ८ लिंग ९ सरीरे १०, खेत्ते ११ काल १२ गइठिइ १३ संजम १४ निगासे १५ ॥३॥ M विनिश्चयः ल्लास: जोगु १६ वओग १७ कसाए, १८ लेसा १९ परिणाम २० बंधणे २१ वेए २२।। कम्मोदीरण २३ उवसंपजहण २४ सन्ना २५ य आहारे २६ ॥ ४ ॥ भव २७ आगरिसे २८ कालं २९ तरे ३० य समुघाय ३१ खित्त ३२ फुसणा ३३ य । भावे ३४ परिमाणं ३५ खलु, अप्पावहुअं ३६ णियंठाणं ॥ ५॥ 'पण्णवण'त्ति । एतदर्थश्च प्रतिद्वारं वक्ष्यते ॥ ३ ॥ ४ ॥५॥ तत्र प्रज्ञापनाद्वारमाहपण्णवणाभेआणं, परूवणा तत्थ पंच णिग्गंथा। भणिआ पुलाय बउसा, कुसील णिग्गंथ य सिणाया॥॥ प्रज्ञापनाद्वार ___ 'पण्णवण'त्ति । प्रज्ञापना नाम निर्ग्रन्थपदाभिधेयस्य सामान्यस्य भेदानां प्ररूपणा 'तत्र' तस्यां विचार्यमाणायां पञ्च निर्ग्रन्था भणिताः, पुलाको बकशः कुशीलो निर्ग्रन्थः स्नातकश्चेति ॥ ६॥ तत्र तावत् पुलाकं निरूपयतिगयसारो धन्नकणो, पुलायसद्देण भन्नए तेणं । तुल्लचरणो पुलाओ, सो दुविहो लद्धिसेवाहिं ॥७॥ 'गयसारों'त्ति । गतसारो धान्यकणः पुलाकशब्देन भण्यते, निःसारत्वसाधात् , तेन तुल्यचरणः पुलाक उच्यते । न ॥१८ ॥ CASSES निर्गथाः पुलाक: Jain Educati Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCESSOCOLO चैवं कणस्थानीयसंयमविगमादसंयतत्वापत्तिः, कणस्थानीयोत्कृष्टसंयमस्थानाभावेऽपि पुलाकस्थानीयापकृष्टसंयमस्थानानपायात् ; नहि पुलाकदृष्टान्तेनाकिञ्चित्करत्वमभिप्रेतं किन्तु निःसारत्वमिति । स लब्धिसेवाभ्यां द्विविधो लब्धिपुलाकः सेवनापुलाकश्चेति ॥ ७॥ आद्यमाहदेविंदतुल्लभूई, लद्धिपुलागो उ जो सलद्धीए । सत्तो कज्जे पुढे, चूरेउं चक्कवटि पि ॥ ८॥ लब्धिपु| 'देविंदत्ति । देवेन्द्रेण-सुरपतिना तुल्या-समाना भूतिः-समृद्धिर्यस्य स तथा, लब्धिपुलाको यः स्वलब्ध्या 'पुष्टे' सङ्घा द्यालम्बनत्वेन दृढे कार्ये उत्पन्ने चक्रवर्त्तिनमपि चूरयितुं शक्तः, तदुक्तम्-“लद्धिपुलाओ पुण जस्स देविंदरिद्धिसरिसा ४/ ६ रिद्धी, सो संघाइआण कजे समुप्पण्णे चक्कवदि पि सबलवाहणं चुन्नेउं समत्थो"त्ति ॥ ८॥ द्वितीयमाह आसेवणापुलाओ, णेओ पडिसेवणाइ पंचविहो । नाणे दंसण चरणे, लिंगे अ तहा अहासुहुमे॥९॥ आसेवना M 'आसेवण त्ति । आसेवनापुलाकः 'प्रतिसेवनया' स्वाचारप्रतिकूलसेवनया ज्ञानादिसारविगमात् । स च पञ्चविधो | पुलाकः ४/ ज्ञेयः-ज्ञाने दर्शने चारित्रे लिङ्गे चासेवनारतो यथासूक्ष्मश्च ॥ ९॥ एतेषामेव लक्षणं स्पष्टयति तत्पञ्चविनाणे दंसण चरणे, सटाणायारखलिअओ ईसि।लिंगम्मि विवज्जासे, मणेण दुट्ठो अहासुहुमो॥१०॥ धत्वं च AI 'नाणेत्ति । ज्ञाने दर्शने चारित्रे च स्वस्थानाचारस्य-ज्ञानाद्याचारस्य स्खलितः-परिभ्रंशादीषद्भवति, स्खलितमिलिता दिदूषणैर्ज्ञानपुलाकः, शङ्कादिभिर्दूषणैर्दर्शनपुलाकः, मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनया च चारित्रपुलाक इत्यर्थः । लिङ्गे पुलाकः । R-554552-54-5A5 लाक: %-93-5 गुरुत. ३१ For Private Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः चतुर्थी ॥ १८१ ॥ 'विपर्यासे' निष्कारणं लिङ्गव्यत्यये क्रियमाण इत्यर्थः, 'मनसा' मनोमात्रेण 'दुष्टः' अकल्प्य प्रतिसेवी यथासूक्ष्मपुलाकः । तदिदमाह भाष्यकृत् - " नाणे दंसण चरणे, लिंगे अहमुहुमए अ णायो । नाणे दंसण चरणे, तेसिं तु विराहणे - सारो ॥ १ ॥ लिंगपुलाओ अन्नं, णिक्कारणओ करेइ जो लिंगं । मणसा अकप्पिआणं, णिसेवओ होअहासुमो ॥ २ ॥” त्ति ॥ १० ॥ यथासूक्ष्मस्यार्थान्तरमाह सर्व्वसु वि एएसुं, थोवं थोवं तु जो विराहेइ । सो होइ अहासुमो, एसो अण्णो वि आएसो॥ ११॥ 'सवेसु वित्ति | 'सर्वेष्वप्येतेषु ज्ञानादिषु स्तोकं स्तोकं यो विराधयति स भवति यथासूक्ष्मः, एषोऽन्योऽपि 'आदेशः ' व्याख्याप्रकारः । तदुक्तमुत्तराध्ययनवृद्धविवरणे - " अहासुमो एएस चेव पंचसु वि जो थोवं थोवं विराहेइ "त्ति ॥ ११ ॥ निगमनद्वारा विशेषमाह- इय दुविहो उ पुलाओ, भणिओ लद्धीइ तह य सेवाए। अण्णे लद्धिपुलायं, भिषणं णेच्छंति नाणाओ॥१२॥ ‘इय ंत्ति । 'इति' अमुना प्रकारेण लब्ध्या तथा सेवया पुलाको द्विविधो भणितः । अन्ये पुनर्लब्धिपुलाकं 'ज्ञानात्' ज्ञानासेवकात् पुलाकाद्भिन्नं नेच्छन्ति, नहि लब्धिविशेषमात्रेणासारत्वं पुलाकत्वप्रयोजकं भवति, तदुपजीवनं च सार्वत्रिकमिति लब्धिविशेषवतो ज्ञानासेविन एव लब्धिपुलाकत्वव्यपदेशो युक्त इति तेषामभिप्रायः, तदुक्तं भगवतीवृत्ती|" अन्ये त्वाहुः - " आसेवनातो यो ज्ञानपुलाकस्तस्येयमीदृशी लब्धिः, स एव च लब्धिपुलाको न तद्व्यतिरिक्तः कश्चिदपरः” गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः पुलाकद्वैविध्ये मानान्तरम् ॥ १८१ ॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वकुशः N DER इति ॥ १२ ॥ कृता पुलाकप्रज्ञापना । अथ वकुशप्रज्ञापनामाहसो बउसो चारित्तं, वउसं अइआरपंकओ जस्स । उवगरणसरीरेसुं, सो दुविहो होइ णायवो ॥१३॥ कुशः _ 'सो वउसो'त्ति । यस्यातिचारपङ्कतः 'वकुशं' शवलं कर्बुरमित्यनर्थान्तरं चारित्रं स वकुश उच्यते, स उपकरणशरीर-है। योदिविधो ज्ञातव्यो भवति, उपकरणवकुशः शरीरवकुशश्चेति ॥ १३ ॥ आद्यमाह 'मुत्तुं' इत्यादिनामुत्तुं पुट्ठालंब, वत्थाई अपाउसे वि जो धुवइ । अवि उजलाइँ इच्छइ, सण्हाइँ विभूसहेउं च ॥१॥ उपकरण मुक्त्वा 'पुष्टालम्बनं' प्रवचनमालिन्यपरिहारादिसद्भावकारणं योऽप्रावृष्यपि वस्त्राणि 'धुवइत्ति प्रक्षालयति, 'अपिः आहेत्वन्तरसमुच्चये उज्ज्वलानि वस्त्राणीच्छति श्लक्ष्णानि च विभूषाहेतोरिच्छति ॥ १४ ॥ पत्ताइ घट्ट मटुं, करेइ तेल्लाइणा य कयतेअं । भुंजइ अ विभूसाए, बहुं च पत्थेइ उवगरणं ॥१५॥ __ 'पत्ताइत्ति । पात्रादि आदिना दण्डकादिपरिग्रहः, 'घृष्टं' खरपाषाणादिना ‘मृष्टं' श्लक्ष्णपाषाणादिना करोति, तैलादिना च कृततेजः स्थापयतीति गम्यम् , भुङ्क्ते च विभूषाया हेतोः, वस्त्रपात्रादि वहु च प्रार्थयत्युपकरणम् ॥ १५ ॥ सो वउसो उवगरणे, उवगरणविभूसणाणुवत्तणओ। देहवउसो अकज्जे, करचरणणहाइ भूसेइ ॥१६॥ शरीर_ 'सो'त्ति । स उपकरणे वकुश उपकरणविभूषाऽनुवर्त्तनतः । द्वितीयमाह-'अकार्ये' अशुचिनेत्रविकारापनयनादिसमृतकार्यविरहे करचरणनखादि यो भूषयति स देहविभूषानुवृत्तिस्वाभाव्याद् देहवकुशः॥१६॥ द्विविधस्याप्यस्य साधारणं DEMERGE । बकुशः For Private & Personal use only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपजव- स्वरूपमाह गुरुतत्त्वत्तियुतः। दुविहो वि इमो इडिं, इच्छइ परिवारसंगहाइकयं । पंडिच्चतवाइकयं, जसं च पत्थेइ लोगाओ ॥ १७॥ विनिश्चयः चतुर्थी"18 'दुविहो वित्ति। 'द्विविधोऽप्ययम्' उपकरणबकुशः शरीरबकुशश्च परिवारसङ्ग्रहादिकृताम् 'ऋद्धिं' विभूतिं वाञ्छति, बहु-II ल्लास: ॥१८२॥ शिष्यपरिवारादिना समृद्धिमान् अहं स्यामिति । पाण्डित्यं-तर्कग्रन्थादिपरिज्ञानं तपः-पष्ठाष्टमादि, ततः पाण्डित्यं च तपश्च बकुशपाण्डित्यतपसी ते आदी येषां तानि पाण्डित्यतपआदीनि तैः कृतं यशश्च लोकात्'प्रार्थयति' मदीयं पाण्डित्यादि परीक्ष्य सामान्यललोको मम यशो बृयादिति ॥ १७॥ क्षणम् तुस्सइ नियगुणसवणा,सुहसीलोणऽप्पणो दलइ कटुं। उज्जमइ णेव वाढं, विहियाहोरत्तकिरियासु ॥१८॥ | 'तुस्सइति । निजगुणानां पाण्डित्यादीनां कथञ्चिल्लोकमुखप्रसिद्धिमुपगतानां श्रवणात् तुष्यति । तथा सुखशीलः सन्ना-14 त्मनः कष्टं न ददाति, उद्यच्छति नैव वाढं विहिताः-सूत्रोक्ता या अहोरात्रक्रियाः-दिनरात्रप्रतिवद्धानुष्ठानलक्षणास्तासु ॥१८॥ अविवित्तो परिवारो, संजमहीणो वि होइ एयस्स । ककाइघट्टजंघो, मट्ठो तह कत्तरियकेसो ॥१९॥ ___ 'अविवित्तो'त्ति । एतस्य बकुशस्य 'परिवारः' शिष्यपरिच्छदः 'अविविक्तः' वस्त्रपात्रादिस्नेहादपृथग्भूतः 'संयमहीनो-18 हाऽपि' चारित्ररहितोऽपि भवति । तथा कल्कादिभिः-सुगन्धिद्रव्यष्टजङ्घः, तथा 'मृष्टः' कृततैलाद्यभ्यङ्गः, तथा कर्त्तित-13॥१८२॥ केशो लोचभयवैक्लव्यात् ॥ १९॥ For Private & Personal use only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 505 त्वम् प्रवचनसाक्ष्यम् तह देससबछेआरिहेहि सबलेहिं संजुओ एसो। दुक्खक्खयट्ठमभुढिओ अ सुत्तम्मि जं भणियं॥२०॥ बकुशस्य RT 'तहत्ति । तथा देशसर्वच्छेदाहः 'शबलैः' शबलचारित्रैः संयुत एप शवलः दुःखक्षयार्थमभ्युत्थितश्च, यद्भणितमेतत् कर्मक्षयार्थ प्रवचने ॥२०॥ मभ्युत्थितउवगरणदेहचुक्खा, रिद्धीजसगारवासिया णिच्चं। बहुसवलछेयजुत्ता, णिग्गंथा बाउसा भणिया॥२१॥ 'उवगरण'त्ति । उपकरणदेहाभ्यां चोक्षाः-विशुद्धा ऋद्धियशोगारवाश्रिताः 'नित्यं' सर्वकालं वहवः शवलाः-शबलचारित्रयुक्ता येषां परिवारभूतास्ते च ते छेदयुक्ताः-छेदप्रायश्चित्तयोग्यशवलचारित्रास्ते तथा निर्ग्रन्था बकुशा भणिताः २१॥ अत्र कश्चिदाक्षिपतिउत्तरगुणसेवा विहु, नणु णिच्चं चरणघाइणी भणिया। कम्मक्खयट्ठमभुट्ठिअस्स सा जुजए कह णु॥२२॥ प्रेरकः 'उत्तरत्ति । नन्वित्याक्षेपे, उत्तरगुणसेवाऽपि 'नित्यं सर्वकालं चरणघातिनी भणिता, मण्डपसर्षपदृष्टान्तात् । तथा च १ 18 कर्मक्षयार्थमभ्युत्थितस्य 'सा' नित्यमृद्धियशोगारवाश्रितत्वभणनेन प्रकटीकृता नित्यमुत्तरगुणप्रतिसेवा कथं नु युज्यते !, कर्मक्षयार्थाभ्युत्थाननिरन्तरोत्तरगुणसेवयोः परस्परं विरोधादिति भावः ॥ २२ ॥ एतत्समाधातुमाह ग्रन्थकृत्कम्मक्खयटमब्भुटिअस्स सा हंदि कम्मदोसकया।ण कुणइ चरणविघायं, विवक्खभावेणपडिबदा॥२३॥ आचार्यः 'कम्मक्खयट्ठमिति । कर्मक्षयार्थमभ्युत्थितस्य वकुशनिर्ग्रन्थस्य 'हन्दि' इत्युपदर्शने 'सा' नित्यमुत्तरगुणसेवा व्यसन-2 ACREDEOCOMEOCOCOCOCCC For Private Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतियुतः चतुर्थी ॥ १८३ ॥ स्थानीया 'कर्मदोषकृता' निरुपक्रमतथाविधचारित्रमोहनीय कर्मवैगुण्यजनिता न तूत्कटभावजनिता, तस्य संज्वलनातिरिक्तकषायोदयाभावात्; अतो न करोति चारित्रविघातम्, मन्दभावकृतत्वात् । किञ्च 'विपक्षभावेन' प्रतिसेवनीयगतप्रति सेवाप्रतिकूलपरिणामेन तत्तत्प्रायश्चित्तापत्तिकरणपरिणामेन च प्रतिबद्धा, अतोऽपि न करोति चरणविघातम्, मन्त्रशक्तिप्रतिबद्धमिव विषं प्राणि (ण) विघातमिति ज्ञेयम् ॥ २३ ॥ निगमयति णिधसो ण तम्हा, वउसो साहू फुडं अणायारी । वउसो पुण दुविअप्पो, जुजइ जोगम्मि थिरभावो ॥ २४॥ 'णिर्द्धधसो 'ति । 'तस्मात्' भावविशेषेण निरन्तरोत्तरगुणसेवायाश्चारित्राविघातकत्वात् 'निद्धन्धसः' प्रवचनोपघातनिरपेक्षप्रतिसेवाकारी न बकुशः साधुः, किन्तु स्फुटमनाचारी, चारित्रपालनानुकूल भावलेशस्याप्यभावादना चारप्रवृत्तत्वाच्च । 'बकुशः' वकुशनिर्ग्रन्थः पुनः 'योगे' स्वाङ्गीकृतमार्गे 'स्थिरभावः' दृढभग्नानुसन्धान परिणामः 'द्विविकल्पः' उपकरणशरीराभ्यां द्विभेदो युज्यते । ननु यद्येवं द्विविधोऽप्ययं वकुशो निर्मन्थस्तदा कथं शास्त्रेऽकालवस्त्रधावनादिना बाकुशिकत्वमसङ्गो दूषणमुच्यते ? सत्यम्, बाकुशिकापकृष्टस्थाने प्राप्ते दोषस्याभिधानात् ॥ २४॥ द्वयोरप्यनयोः प्रत्येकं भेदानाहदुविहो वि हु पत्तेयं, पंचविहो होइ सो पुणो वउसो । आभोगमणाभोगे, संबुडय असंबुडे सुहुमे ॥२५॥ 'दुविहो वि हु'ति । स पुनर्वकुशो द्विविधोऽप्युपकरणशरीरभेदात् प्रत्येकमुपकरणे शरीरे च पञ्चविधो भवति - आभोगवकुशोऽना भोगवकुशः संवृतवकुशोऽसंवृतवकुशी यथासूक्ष्मवकुशचेति ॥ २५ ॥ एतानेव विवेचयति Jain Education international : गुरुतत्त्वविनिश्वयः लासः निगमनम् उपकरणश रीरवकुशी उत्तरभेदाः ॥ १८३ ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहूणमिणमकिच्चं इय जागंतो वि कुणइ आभोगे । अमुतोऽणाभोगे, संवुड मूलुत्तरगुणेसु ॥२६॥ 'साहूणं'ति । साधूनामेतदकृत्यमिति जानन्नपि यः करोति दोपं स आभोगे वकुशः । 'अमुणंतो'त्ति, अकृत्यमेतदित्यप्रतिसंदधानो यो दोषं करोति सोऽनाभोगे वकुशः । 'संवुड' त्ति, विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्, मूलोत्तरगुणयोः स्वप्रतिज्ञातयोः 'संवृतः ' निरुद्धविपर्यस्तप्रवृत्तिः सन् वाकुशिकसंयमस्थानयोगात् संवृतो बकुशः ॥ २६ ॥ विवरीओऽसंबुडओ, अहवा इह संवुडोऽपथडदोसो । पयडो असंवुडो अह सुमो नयणाइमजणओ ॥२७॥ 'विवरीओ'ति । विपरीतो मूलोत्तरगुणयोः 'असंवृतकः' असंवृतवकुशः । प्रकारान्तरमाह - अथवा 'इह' लोके 'अप्रकटदोषः' अविदितापराधः संवृतः, 'प्रकटः' लोकविदितदोषोऽसंवृतः अस्ति च दोषप्राकव्याप्राकट्ययोः सापेक्षनिरपेक्षपरिणामाभ्यां भेदः । व्याख्याद्वैविध्यं चेदं भगवतीवृत्तौ व्यवस्थितमित्यस्माभिरप्येवमुक्तम् । क्वचित्तु मूलोत्तरगुणैर्युक्तः संवृत इत्यस्यैव लोकेऽविज्ञातदोषः संवृत्तत्रकुश इति व्याख्यानं दृश्यते । नयनादीनां - लोचनवदनादीनां मज्जनात् प्रक्षालनादक्षिमलाद्यपनयनाद् यथासूक्ष्मवकुशः ॥ २७ ॥ कृता बकुशप्रज्ञापना । अथ कुशीलप्रज्ञापनामाह सीलं चरणं तं जस्स कुच्छिअं सो हवे इह कुसीलो । पडिसेवणाकसाए, सो दुविहो होइ णायवो ॥ २८ ॥ 'सीलं'ति। शीलं चरणं तद् यस्य कुत्सितं भवेत् स इह कुशील उच्यते, स प्रतिसेवनाकषाययोः एकवचनं समाहारद्वन्द्ववशात् द्विविधो भवति ज्ञातव्यः, प्रतिसेवनाकुशीलः कषायकुशीलश्चेति द्विविधः कुशील इत्यर्थः । तत्र सम्यगाराधना : उत्तरभेदविवेचनम् कुशीलः तद्वैविध्यं च Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । स्वोपज्ञव- प्रतिकूला प्रतिगता वा सेवना प्रतिसेवना, तदुक्तम्-"सम्माराहणविवरीआ पडिगया वा सेवणा पडिसेवण"त्ति । कषा- गुरुतत्त्व त्तियुतः याश्च-कषस्य-संसारस्याऽऽयः-लाभो येभ्यस्ते क्रोधादयः प्रसिद्धा एवेति द्रष्टव्यम् ॥२८॥ द्विविधस्याप्यस्य प्रतिभेदानाह- विनिश्चयः ___चतुर्थी- पत्तेअं पंचविहो, सो पुण दुविहो वि होइ णायबो । नाणे दंसण चरणे, तवे अ अहसुहमए चेव ॥२९॥ लासः ॥१८४॥ 'पत्तेय'ति । स पुनर्द्विविधोऽपि कुशीलः प्रत्येकं पञ्चविधो भवति ज्ञातव्यः, प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि पञ्चविधः, कषा- द्विविधस्यायकुशीलोऽपि च पञ्चविध इत्यर्थः । कथम्? इत्याह-ज्ञाने दर्शने चरणे तपसि यथासूक्ष्मश्च ॥ २९ ॥ तत्र प्रतिसेवनाकु पि कुशीलशीलस्य पञ्च भेदान् विवेचयति स्योत्तरभेदाः नाणाईणं पडिसेवणाइ पडिसेवणाकुसीलो सिं।अहसुहुमो पुण तुस्सं, जणविहिअगुणप्पसंसाए ॥३०॥ प्रतिसेवनाPI 'नाणाईणति । 'ज्ञानादीनां' ज्ञानदर्शनचारित्रतपसां 'प्रतिसेवनया' कालाद्यङ्गवैकल्यसेवनयाऽनासेवनया वा 'सि'ति |2कुशीलप्रभे. तेषां-ज्ञानदर्शनचारित्रतपसां प्रतिसेवनाकुशीलो भवति । जनविहिता या गुणप्रशंसा-एष तपस्वी एष चारित्रीत्यादि- दविवेचनम् दलक्षणा तया श्रूयमाणया तुष्यन् पुनर्यथासूक्ष्मः प्रतिसेवनाकुशीलः ॥ ३० ॥ कपायकुशीलस्य पञ्च भेदान् विवेचयति-1 कषायकुशीजो नाणाई जुंजइ, कसायओ सो कुसीलओ तत्थ।चरणम्मि सावदाणा, मणसा कुविओ अहासुहुमो३१ क 'जो नाणाइत्ति । यः कषायतः' संज्वलनकषायोदयात् 'ज्ञानादि' ज्ञानं दर्शनं तपो वा 'युनक्ति' स्वविषये व्यापार- रूपम यति सः 'तत्र' ज्ञाने दर्शने तपसि च कुशीलः कपायतो द्रष्टव्यः । 'चरणे' चारित्रे कषायकुशीलश्च शापदानात् । यथा PSRSTISSAG464 R ॥१८४॥ lain Education International For Private & Personal use only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायकुशील सूक्ष्मश्च ‘मनसा' मनोमात्रेण 'कुपितः' क्रोधाविष्टः, कोपश्च मानमायालोभानामप्युपलक्षणम् , तदुक्तम्-"मणसा कोहा४॥ईए, णिसेवयं होअहासुहुमो ।"त्ति ॥ ३१॥ अभिप्रायान्तरमाह कोहाइएहि अण्णे, नाणाइबिराहणेण इच्छंति । नाणाइकुसीलं तह, अवरे लिंगं तवट्ठाणे ॥ ३२ ॥ al 'कोहाइएहिति । अन्ये व्याख्यातारः क्रोधादिमिर्ज्ञानादिविराधनेन ज्ञानादिकुशीलं कषायत इच्छन्ति, तदुक्तं पञ्च-ला निर्ग्रन्थीप्रकरणे-"अहवा वि कसाएहिं, नाणाईणं विराहगो जो उ । सो नाणाइकुसीलो, णेओ वक्खाणभेएणं ॥१॥" प्रतिभेदिति । तथाऽपरे पञ्चसु भेदेषु द्विविधेऽपि कुशीले विचार्यमाणे तपःस्थाने लिङ्गमिच्छन्ति, तदुक्तम्- "अन्ने लिंगकुसीलं, तु दव्यातवकुसीलस्स ठाणए बिति"त्ति । तत्र भगवत्यां तावत्तपःस्थाने लिङ्गमेव पठ्यते, तदुक्तम्- "कुसीले णं भंते ! कतिविहे ख्यान्तपण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पडिसेवणाकुसीले य कसायकुसीले य । पडिसेवणाकुसीले णं भंते ! कतिविहे र प्रतिसेवपण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-नाणपडिसेवणाकुसीले दसणपडिसेवणाकुसीले चरित्तपडिसेवणाकुसीले लिंगप नाकुशीलप्रडिसेवणाकुसीले अहासुहुमपडिसेवणाकुसीले णामं पंचमे । कसायकुसीले णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे भेदान्तरं च पण्णत्ते, तंजहा-नाणकसायकुसीले दंसणकसायकुसीले चरित्तकसायकुसीले लिंगकसायकुसीले अहासुहुमकुसीले णाम पंचमे"त्ति । भाष्यादौ त्वेवं पठ्यते-"नाणे दंसण चरणे, तवे अ अहसुहुमए अबोहवे । पडिसेवणाकुसीलो, पंचविहो INऊ मुणेयबो॥१॥"त्ति “एमेव कसायम्मि वि पंचविहो होइ सो कुसीलो उ ।"त्ति ॥ ३२॥ कृता कुशीलप्रज्ञापना। अथ निग्रन्थप्रज्ञापनामाह RECRACK nin Education international For Private Personal use only wow.jainelibrary.org Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याmaanuman राज EASESCAM - स्वोपज्ञवृ- गंथाओ मोहाओ, जिग्गंथो णिग्गओ मुणेअबो। उक्सामओ अखबगो, सो दुविहो देसिओ समए॥३३॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः। गंथाओ'त्ति । ग्रन्थात् 'मोहात्' मोहलक्षणान्निगतो निर्गन्धः 'मुणेयवोत्ति ज्ञातव्यः, स द्विविधो दर्शितः 'समये विनिश्चयः चतुर्थी- सिद्धान्ते, उपशामको मोहोपशमकरणात् , क्षपकश्च मोहक्षयकरणात् ॥ ३३ ॥ द्विविधस्याप्यस्य भेदानाह ल्लास: ॥१८५॥ पत्तेअंपंचविहो,दुविहो वि इमो जिणेहिं अक्खाओ। पढमसमओ अपडमो,चरमोऽचरमो अहासुहमो३४ ४ा निग्रन्थः त पत्तेय'ति । द्विविधोऽप्ययमुपशामकक्षपकभेदभिन्नो निग्रन्थः प्रत्येकं जिनैः पञ्चविध आख्यातः-प्रथमसमयोऽअथमस मयश्चरमसमयोऽचरमसमयो यथासूक्ष्मश्चेति ।। ३४ ॥ एतानेव भेदान् विवेचयति अंतमुहत्तपमाणयणिग्गंथद्धाइ पढमसमयम्मि । पढमसमओ अपढमो, बलुतो सेससमएसु ॥३५॥ निम्रन्थRI अंतमुहुत्तत्ति । अन्तर्मुहूर्तप्रमाणकनिम्रन्थाद्धाया अन्तर्मुहूर्त्तमानकनिम्रन्थससयराशेः 'प्रथमसमये वर्तमानः' आदौ 0 प्रभेद्से निम्रन्थत्वं प्रतिपद्यमानः प्रथमसमयनिर्ग्रन्थः । शेषसमयेषु पूर्वानुपूा वर्तमानोऽप्रथमसमयनिम्रन्थः ॥ ३५ ॥ विवेचनम् चरमे समए चरमोऽचरमो सेसेसु चेव समएसु।सामण्णेण य एसो, इह अहसुहुमुत्ति परिभासा॥३६॥ 1 'चरमेति । 'चरमे' निर्ग्रन्थाद्धायाः सन्तिमे समये वर्तमानश्चरमसमयनिग्रन्थः । अचरमश्च शेषेष्वेव समयेषु पश्चा|नुपूया वर्तमानः। सामान्येन च प्रथमाद्यविवक्षया सर्वसमयेषु वर्तमान एष निग्रन्थो यथासूक्ष्म इति इह' जिनशासने परि-15॥१०५॥ भाषा, तदुक्तं भगवतीवृत्ती- सामान्येन तु यथासूक्ष्म इति पारिभाषिकी सझेति ।” प्रथमादीनां चतुणां विवक्षावि तद्भेदप्रभेदाच LATKARELawiman HomVERINISTER a CRICASEAS PLETECTREAA For Private Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नातक: शेषपरिगृहीतसूक्ष्मस्थूलर्जुसूत्रनयकृतो भेदः, पञ्चमो भेदस्तु व्यवहारनयमते, तेनान्तर्मुहर्त्तप्रमाणस्यैकस्य निग्रन्थस्याभ्यपगमात् , सूक्ष्मत्वं चास्य सर्वव्यापकत्वेन; तदुक्तमुत्तराध्ययनवृद्धविवरणे-"अहासुहुमो एएसु सवेसु वि"त्ति । तथा च नयभेदादिमे भेदा इत्यपि सम्यगालोचयामः ॥ ३६॥ कृता निर्ग्रन्थग्ररूपणा । अथ स्नातकप्ररूपणामाह-- सुक्कज्झाणजलेणं, हाओ जो विगयधाइकम्ममलो।सोण्हायगो णियंठो,दुहा सजोगी अजोगी य॥३७॥ हा 'सुक्कझाण'त्ति । शुक्लध्यान-यत्पृथक्त्ववितर्कसवीचारैकत्ववितर्कावीचारलक्षणं तदेव जलं तेन स्नातः सन् यो विगत-14 है घातिकर्ममलो जातः स स्मातको निग्रन्थ उच्यते, स च द्विधा-'सयोगी' त्रयोदशगुणस्थानवत्ती 'अयोगी च' चतुर्दश-8 गुणस्थानवी ॥ ३७॥ अविभक्तस्यास्यैव भेदानाह सो अच्छवी असबलोऽकम्मंसो सुद्धनागदिद्विधरो। अरहा जिणे य केवलि,अपरिस्साई य पंचविहो॥३८॥ FI 'सो अच्छवि'त्ति । 'सः' स्नातकोऽच्छविको १ ऽशवलो २ ऽकर्माशः ३ 'शुद्धज्ञानदृष्टिधरः' संशुद्धज्ञानदर्शनधरोऽर्हन् भेदाः जिनः केवली ४ अपरिश्रावी ५ चेति 'पञ्चविधः' पञ्चभेदः ॥ ३८ ॥ तत्र प्रथमभेदार्थमाहअच्छविओ अवहओ, अहवा भन्नइ छवी सरीरं ति।जोगणिरोहा तस्साभावे अछवि ति सदत्यो॥३९॥ अच्छविकः | 'अच्छविओत्ति । अच्छविकोऽव्यथक इत्येकेषां मतम् , अव्यथकत्वं च मोहक्षये सति प्राणातिपातम्करणनियमस्य परि-४ दे निष्ठितत्वान्न दुर्घटम् , विवेचितं चैतदुपदेशरहस्येऽस्माभिः । अथवा छविरिति शरीरं भण्यते, योगनिरोधात्तस्य शरीर SANS JBIDEducation international For Private Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 स्वोपज्ञवृस्याभावेऽच्छविरिति शब्दार्थो युज्यत इत्यपरेषां मतम् ॥ ३९ ॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः । अहवा अच्छविओ खलु,अखेयवावारजोगओ इट्ठो। घाइक्खएण तत्तो,खवणाभावा व अच्छविओ ॥४॥ विनिश्चयः चतुर्थो 'अहवत्ति । अथवा क्षपा-सखेदो व्यापारस्तद्योगात् क्षपी ततोऽखेदव्यापारयोगतः 'अच्छविओत्ति अक्षपीष्ट इत्य-14 ॥१८६॥ प्यन्येषां मतम् । 'वा' अथवा घातिक्षयेण कृत्वा 'ततः' घातिक्षयानन्तरं क्षपणाभावाद् घातिकर्मणां अक्षपी 'अच्छवित्ति प्राकृतेनोच्यत इत्यपि व्याख्यान्तरम् । मतान्तराणि चैतानि प्रज्ञप्तिवृत्ती व्यवस्थितानि, तथाहि-'अच्छवि'त्ति अव्यथक इत्येके, छवियोगाच्छविः-शरीरं तद् योगनिरोधेन यस्य नास्त्यसावच्छविक इत्यन्ये, क्षपा-सखेदो व्यापारस्तस्या अस्तित्वात्क्षपी तन्निषेधादक्षपीत्यन्ये, घातिचतुष्टयक्षपणानन्तरं वा तत्क्षपणाभावादक्षपीत्युच्यत इति ॥४०॥ द्वितीयभेदमाह सुद्धासुद्धो सबलो, तत्तोऽसवलो हवे विवजत्थो। अइआरपंकविगमा, घाइविणासा अकम्मंसो॥४१॥ अशबलो81 'सुद्धासुद्धोत्ति । 'शुद्धाशुद्धः'चारित्रसत्तापेक्षया शुद्धत्वादतिचारमलापेक्षया चाशुद्धत्वाच्छवल उच्यते, तथा चाह- ऽकर्माशश्च "सबलो सुद्धासुद्धोत्ति । ततः शबलाद्विपर्यस्तो विपरीतोऽतिचारपङ्कविगमादेकान्तशुद्धोऽशबलः, तदाह-"एगंतसुद्धो| असबलो"त्ति । तृतीयभेदमाह-घातिनां विनाशात् 'अकाशः' ज्ञानावरणीयादीनामष्टानां कर्मणां समुदायभूतानामंशाः -अवयवा घातिकर्मलक्षणा न सन्त्यस्येति व्युत्पत्तेः, तदाह-"अंशाः-अवयवाः कर्मणस्ते अवगया जस्स सो अकम्म- ॥१८६॥ सो"त्ति, नास्ति कर्माशः-घातिकर्मसत्ता यस्येति व्युत्पत्तिरित्यन्ये ॥४१॥ चतुर्थ भेदमाह 252525555 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - तह सुद्धनाणदिट्ठी, असहायाणतनाणदंसणवं। अरह जिण केवलि त्ति थ, एगट्ठे होइ सद्दतियं ॥४२॥ शुद्धज्ञानहै। तहत्ति । तथा शुद्धज्ञानदृष्टिरसहायेऽनन्ते च ये ज्ञानदर्शने केवलाख्ये तद्वान् । अर्हन् जिनः केवलीति चैकार्थ दृष्टिधरः शब्दत्रयम्-चतुर्थस्नातकभेदार्थाभिधायकम् , त्रिभिरप्येतैः परस्परोपसंदानेनेतदर्थाभिधानात् , विवरणपरं वैतदिति वोध्यम् ॥ ४२ ॥ पञ्चमं भेदमाहकम्मापरिस्सवणओ, अपरिस्सावी अजोगिभावम्मि। एसा खल्लु परिवाडी, पण्णत्तीए फुडं भणिया॥४३॥ अपरिश्रावी | 'कम्मापरिस्सवणओ'त्ति । कर्मणां अपरिश्रवणतः-अवन्धनात् 'अपरिश्रावी अयोगिभावे' निरुद्धयोगत्वे न परिश्रवति-नाश्रवति कर्माणीत्यपरिभावीति व्युत्पत्तेः । एषा खलु परिपाटी 'प्रज्ञप्तौ' भगवत्यां स्फुटा भणिता, तथा च तदा-| लापः- "सिणाए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-अच्छवी असबले अकम्मसे संसुद्धनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली अपरिस्साइ"त्ति ॥ ४३ ॥ ग्रन्थान्तरविशेषमाहअपरिस्सावित्ति पयं, अणिअंणो उत्तरज्झयणएसु । भणियं च तस्स ठाणे, एगत्थं चेव सदतियं ॥४४॥ ग्रन्थान्तर 'अपरिस्सावित्ति'त्ति । अपरिश्रावति पदं पञ्चमभेदकथकमुत्तराध्ययनेषु न भणितं तस्य स्थाने' अपरिश्रावीतिपदस्य गतः स्नातस्थाने पञ्चमभेदाभिधानाधिकारे एकार्थमेव शव्दत्रिकमहन जिनः केवलीति, तथा च तदालापः-"सो पंचविहो अच्छवी कप्रभेदविअसबलो अकम्मंसो संसुद्धनाणदंसणधरो अरहा जिणो केवली" इति ॥४४॥ नन्वेते भेदा न पुलाकादिभेदवत् परस्पर शेषः गुरुत. ३२ 2-62-63 Jain E For Private Personal Use Only telibrary.org Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञ- त्तियुतः चतुर्थो ॥१८७॥ AGROGRECOREGCOM मतिरिच्यन्त इत्यत आह गुरुतत्वइत्थ दसाभेयकओ, भेओ केण विण हंदि णिदिवोतोसद्दणयावेकखो, भेओतिभणति णिउणमई॥४५॥ विनिश्चयः 'इत्यत्ति । 'अत्र' स्नातकभेदाभिधानाधिकारे दशाभेदकृतो भेदो न केनापि व्याख्यात्रा हन्दि निर्दिष्टः, तत् शब्दन लासः यापेक्षो भेद इति भणन्ति 'निपुणमतयः' अभयदेवसूरयः, तथा च भगवतीवृत्तिः-"इह चावस्थाभेदेन भेदो न केन कास्नातकप्रभेचिद्वृत्तिकृतेहान्यत्र च ग्रन्थे व्याख्यातस्ततश्चैवं संभावयामः-शब्दनयापेक्षया एतेषां भेदो भावनीयः शक्रपुरन्दरादिवत्" बालदविषये आइति ॥ ४५ ॥ अत्रैव विशेषमाह पपरिहारो इह भेओ पज्जाओ, ईहापोहाइवयणओ नेओ । इट्ठा वक्खा जं तत्तभेअपजायओ तिविहा ॥ ४६॥ | 'इह भेओ'त्ति । 'इह' स्नातकभेदाधिकारे शब्दनयापेक्षया यो भेद उच्यते स पर्यायो ज्ञेयः । किंवत् ? इत्याह-ईहापोहादिवचनवत् , यथा खलु-"ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवसणा । सन्ना सई मई पन्ना, सबं आभिणिवोहि ॥१॥" इत्यत्रावश्यकप्रदेशे मतिज्ञाननिरूपणे तत्त्वभेदनिरूपणानन्तरं मतिज्ञानसामान्यविशेषपर्यायाणामभिधानम् , तथा चास्या वृत्तिः-"ईहा गाहा व्याख्या-'ईहि' चेष्टायाम् , ईहनमीहा-सतामर्थानामन्वयिनां व्यतिरेकिणां च पया-13 लोचनेति यावत् । अपोहनमपोहः-निश्चय इत्यर्थः, विमर्शनं विमर्शः, अवायात्पूर्व ईहाया उत्तरः, प्रायः शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधर्मा अत्र घटन्त इति सप्रत्ययो विमर्शः । तथाऽन्वयधर्मान्वेषणा मार्गणा, चशब्दः समुच्चयार्थः, व्यतिरेकधर्मा-2 SANCHAR ॥१८॥ library.org For Private Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NamAHARMA लोचना गवेषणा, तथा सञ्ज्ञानं सन्ज्ञा-व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थः, स्मरणं स्मृतिः-पूर्वानुभूतार्थाल-81 म्बनप्रत्यय इति,मननं मतिः-कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिरिति । तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा-विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगतयथावस्थितधर्मालोचनरूपा मतिरित्यर्थः, सर्वमिदमाभिनिवोधिक मतिज्ञानमित्यर्थः। एवं किञ्चिद्धेदाभेदः प्रदर्शितः, तत्त्वतस्तु मतिवाचकाः सर्व एवैते पर्यायशब्दा इति॥"अत्र हि तत्त्वतस्त्वित्यनेन सामान्यविशेषसाधा रण्येन पर्यायाभिधानमुक्तम् , समानप्रवृत्तिनिमित्तकनानाशब्दानां पर्यायत्वादिति । तथा स्नातकनिरूपणस्थलेऽपि प्रकृते, है अर्थात् स्नातकतत्त्वं सयोग्ययोगिभावेन तद्भेदं चाभिधायाऽच्छवित्वादिभेदाभिधानं तत्पर्यायप्रदर्शनपरमित्यर्थः। ननु पर्यासायाभिधानमपि किमर्थम् ? इत्यत आह-'यत्' यस्माद् व्याख्या तत्त्वभेदपर्यायतस्त्रिविधा, ततः पर्यायव्याख्याऽपि सम्प्र दायानरोधाद युक्तिमतीति भावः । अत्र तश्चमसाधारणो धर्मः, तद्व्याख्यानभितरभेदगमकतयोपयुज्यते; भेदाश्च तत्त्वसाक्षाव्याप्यधर्मवन्तः, तद्व्याख्यानं न्यूनाधिकसङ्ख्याव्यवच्छेदार्थमुपयुज्यते; पर्यायाश्च तत्त्वभेदवाचकनानाशब्दाः, तव्याख्यानं तत्र तत्र व्युत्पत्तिव्यवहारसौलभ्यार्थमुपयुज्यते; तदुक्तं 'ईहा' इत्यादिगाथापातनिकायामावश्यकवृत्ती-"तत्त्वभेदपर्यायैजाख्येति न्यायात्तत्त्वतो भेदतश्च मतिज्ञानस्वरूपमभिधायेदानी नानादेशजविनेयगणसुखप्रतिपत्तये तत्पर्यायशब्दानभिधित्सुराह"इति ॥ ४६॥ इत्थं चात्र शब्दनयः साम्प्रताख्य एवं पर्यवसितो न तु समभिरूढः, तेन पर्यायशब्दामभ्युपगमात् , शब्दभेदेनार्थभेदाभ्युपगमः खलु तदर्थ इति न चैतन्मतेऽपरिश्राविभेदसङ्गतिरपि, तुल्यप्रवृत्तिनिमित्तकतयोपस्थितानामेवार्थभेदस्यानेनाभ्युप For Private Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपन- गमात , अच्छवित्वापरिश्रावित्वादीनां च सामान्यविशेषभावेन भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तकत्वादिति। किञ्च समभिरूढाभिमतै दैःगुरुतत्त्वत्तियतः घटपटादिवद्विशकलितैः पर्यवसितैः किं स्नातकस्य विशेषणीयमपि । न च 'साम्प्रताश्रयणेऽप्येवं पञ्चविधत्वमनुपपन्नम् , विनिश्चयः चतुर्थी- प्रदेशदृष्टान्तेन पञ्चविधत्वस्य व्यवहारेणैवाश्रयणात्' इति वाच्यम् , तत्र भिन्नविषये पञ्चविधत्वस्य व्यवहारकृतस्य व्यवहा-11 रेणैवाश्रयणेऽप्यत्रैकस्मिन् विषये शब्दकृतस्य तस्य शब्देनाश्रयणे विरोधात् ; अस्तु वा शब्दोपगृहीतव्यवहारेणैव तथाऽभिधानमिति, तथा च भगवतीवृत्या समं विरोधः, तत्र "शक्रपुरन्दरादिवत्" इत्यनेन समभिरूढनयस्यैवाभिधानाच्छकपुरन्दराद्यर्थभेदस्य तदुदाहरणत्वादित्यत आहभगवइवित्तीइ पुणोऽतग्गुणविन्नाणओ समासाओ । एयं चेव य इटुं, पन्जायपरं व ठियवयणं ॥ १७॥ प्रज्ञापना द्वारपूर्णता भगवइत्ति । भगवतीवृत्तौ पुनः 'अतद्गुणविज्ञानतः समासात् अतद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिसमासमाश्रित्य शक्रपुरन्दरा15 दिवदित्यत्रेहापोहादिवदित्यर्थस्यैवाश्रयणादित्यर्थः, 'एतदेव' अस्मदुपपादितमेव 'इष्टम् अभिप्रेतम् , 'वा' अथवा 'स्थित वचनं शक्रपुरन्दरादिवदिति यथास्थितवचनं पायपरं' यथा शक्रपुरन्दरादयः पर्यायशब्दास्तथाऽच्छविकाशबलादयः पर्यायशब्दा एवेति सम्मुखीन एवार्थो न तु समभिरूढविषयाभिधानमेतदिति न कोऽपि विरोधः॥४७॥ कृता स्नातकप्र||ज्ञापना । पूर्ण प्रज्ञापनाद्वारम् । अथ वेदद्वारमाह वेदद्वारम् वेओ थीवेआई, तत्थ पुलाओ उ होइ थीवजो । बउसपडिसेवगा पुण, हवंति सवेसु वेएसु ॥४८॥ ४८॥ ॥१८॥ womanamme in Education international For Private Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेओ'त्ति । 'वेदः' स्त्रीवेदादिस्त्रिविधः-स्त्रीवेदः पुरुषवेदो नपुंसकवेदश्चेति । तत्र पुरुषरमणाभिलाषः स्त्रीवेदः, स्त्रीरम-18| राणाभिलापः पुरुषवेदः, उभयाभिलाषश्च नपुंसकवेद इति । तत्र पुलाकस्तु 'तु:' एवकारार्थों भिन्नक्रमश्च स्त्रीवर्ज एव, स्त्रीवेदः खल्वसौ न भवति, तत्र तथाविधलब्धेरभावात् । पुरुषवेदे नपुंसकवेदे च भवति । नपुंसकवेदस्त्वसौ स ज्ञेयो यः पुरुषः सन्नपुंसकवेदो वर्द्धितकत्वादिना भवति न तु स्वरूपेण, अत एव-"पुरिसणपुंसकवेयए वा होज"त्ति सूत्रम् । पुरुषः सन् यो नपुंसकवेदको न स्वरूपेणेत्येतदर्थः । बकुशादिष्वपि नपुंसकवेदकत्वमित्वमेव भावनीयम् । 'बकुशप्रतिसे वको' बकुशप्रतिसेवनाकुशीलौ पुनः सर्वेष्वपि वेदेषु भवतः । पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला अवेदकास्तु न भवन्ति, त तेषामुपशमक्षपकश्रेण्योरभावादिति द्रष्टव्यम् ॥ ४८ ॥ सकसाओ अतिवेओ, भणिओ उपसंतखीणवेओ वा।उवसंतखीणवेओ, णिग्गंथो तक्वएण्हाओ॥४९॥2 _ 'सकसाओं त्ति । 'सकषायश्च' कषायकुशीलश्च त्रिवेदो भणितः प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणगुणस्थानानि यावत् । अनिवृ-12 त्तिबादरे सूक्ष्मसम्पराये च उपशान्तेषु वेदेषु उपशान्तवेदः, क्षीणेषु च तेषु क्षीणवेदो वा । निर्ग्रन्थस्तु न सवेदो भवति किन्तूपशान्तवेदः क्षीणवेदो वा, श्रेणिद्वयेऽपि तस्य भावात् । स्नातः' स्नातकः 'तत्क्षये' वेदक्षये क्षीणवेद एवेत्यर्थः ॥४९॥ उक्त वेदद्वारम् । अथ रागद्वारमाह| रागो कसायउदओ, पुलायवउसा कुसीलभेआ ।तत्थ सरागा णिग्गंथण्हायगा हुंति गयरागा॥५०॥ रागद्वारम् For Private Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्वविनिश्चयः कल्पद्वारम् स्वोपज्ञवृ- 'रागो'त्ति । रागो नाम कपायोदयोऽत्राधिकृतो न तु साभिष्वङ्गं चित्तम् । अप्रमत्तादौ माध्यस्थ्यदशायां तदभावेऽपि त्तियुतः सरागत्वस्यैव व्यवहारात् । तत्र पुलाकवकुशी 'कुशीलभेदी च' प्रतिसेवनाकुशीलकषायकुशीलाख्यौ सरागौ । निग्रन्थस्नाचतुर्थो तको च गतरागी, तयोः कषायोदयाभावात् । केवलं निर्ग्रन्थ उपशान्तकषायवीतरागः क्षीणकषायवीतरागो वा, स्वात॥१८९॥ । कश्च क्षीणकषायवीतराग एवेति विशेषः ।। ५० ॥ उक्तं रागद्वारम् । अथ कल्पद्वारमाहकप्पोठियाऽठियप्या, जिणकप्पाई व तत्थ सवे वि। कप्पे ठिएऽठिए चिय, पढमो तह थेरकम्पम्मि॥५१॥ 'कप्पो त्ति । कल्पः स्थितास्थितात्मा द्विविधः । 'तत्र' आचेलक्यादिषु दशसु पदेष्ववश्यमवस्थाने स्थितकल्पः प्रथमपश्चिमतीर्थकरसाधूनाम् । अनियततयाऽवस्थाने चैतेषु स्थितास्थिततयाऽस्थितकल्पो मध्यमतीर्थकरसाधूनाम् । 'वा' अथवा 'जिनकल्पादिः' जिनकल्पः स्थविरकल्पश्चेत्यर्थः, 'तत्र' कल्पद्वारे वक्तव्ये 'सर्वेऽपि' पुलाकादयः स्थितेऽस्थिते च हकल्पे भवन्ति, सर्वतीर्थकरकाले तेषां भावात् । इदं च स्थितास्थितकल्पविचारमाश्रित्योक्तम् । जिनकल्पस्थविरकल्पविचारे। तुच्यते-'तथा' इति समुच्चये, 'प्रथमः' पुलाकनिर्ग्रन्थः स्थविरकल्प एव भवति न तु जिनकल्पः कल्पातीतो वा, तदुक्तं पञ्च निग्रन्थ्याम्-"पढमो उ थेरकप्पे"त्ति। उत्तराध्ययनवृत्तौ तु-"स्थविरकल्पादिरूपकल्पापेक्षया तु पुलाकः स्थविरकल्पे हवा जिनकल्पे वा न तु कल्पातीतः, तथा चागमः-'पुलाए णं भंते ! किंजिणकप्पे होजा थेरकप्पे होजा कप्पातीते होजा? गोअमा! जिणकप्पे वा होजा थेरकप्पे वा होजा णो कप्पातीते होजत्ति । अन्ये त्वाहः-स्थविरकल्प एव" इति मतद्वयं लिखितमस्ति । पाठस्तु प्रज्ञप्ती-“णो जिणकप्पे होजा थेरकप्पे होजाणो कप्पातीते होजा" इत्येवं दृश्यते । वृत्ती For Private & Personal use only तामा ॥१८९॥ Jain Education brary.org Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCMROCENCRECOGRESS चन किञ्चिदत्रोदृडिन्तमस्ति प्रत्युत वृत्तिकृता ग्रन्थान्तरे स्थविरकल्प एवोक्तोऽस्तीति पाठभेदादिनिबन्धनं मतद्वयम. अन्यतो वा कुतश्चिद्धेतोरिति न सम्यगवगच्छामः ॥ ५१॥ सकसाओ तिविहो विय, कप्पाईआणियंठयसिणाया ।वउसपडिसेवगा पुण, जिणकप्पे थेरकप्पे वा ५२ ॥ 'सकसाओत्ति । 'सकषायः' कषायकुशीलस्त्रिविधोऽपि भवेत्-जिनकल्पवती स्थविरकल्पवती कल्पातीतश्चेति । तत्र |कल्पातीतत्वं छद्मस्थसकपायतीर्थकरस्य कल्पातीतस्य सम्भवात् समर्थितमभयदेवसूरिभिः, वस्तुतः सामर्थ्ययोगवतो धर्मसंन्यासे प्रवर्त्तमाने उपरितनगुणस्थानेषु क्षायोपशमिकानां जिनकल्पस्थविरकल्पधर्माणामभावात्कल्पातीतत्वमेव स्वात्ममात्र विश्रान्तचारित्रयोगादुपजायते, अत एव सूक्ष्मसम्परायेऽपि कल्पातीतत्वमेवेष्टम् , तदुक्तं भगवत्याम्-"सामाइअसं. जए णं भंते ! किं जिणकप्पे होजा थेकरकप्पे होज्जा कप्पातीते होज्जा? गोअमा ! जिणकप्पे वा होज्जा जहा कसायकुसीले तहेव गिरवसेसं. छेओवट्ठावणिओ परिहारविसद्धीओ अ जहा वउसो, सेसा जहा णियंठो"त्ति । इदं च सूक्ष्ममीक्षणीय-1 मध्यात्मग्रन्थविद्भिः। निर्ग्रन्थस्नातको कल्पातीती, जिनकल्पस्थविरकल्पधर्माणामभावादेव । बकुशप्रतिसेवको पुनर्जिनकल्पे। हास्थविरकल्पे वा भवतो न तु कल्पातीती, क्षपकश्रेण्यभावेन धर्मसंन्यासाभावादिति बोध्यम् ॥५२॥ उक्तं कल्पद्वारम् । अथ चारित्रद्वारमाहपंचविहं तु चरित्तं, पढमा खलु तिन्नि तत्थ पढमजुगे। चउसु कसायकुसीलो, णिग्गंथसिणायगा चरमे ५३ चारित्रद्वारम Famoamar JainEducation international For Private Personal use only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञ- IPI पंचविहं तु त्ति । चर्यते निवृत्तानवेनात्मनेति चारित्रम्, तत् तु सामायिकादिकं पञ्चविधं प्रसिद्धमेव । तत्र 'प्रथमाःगुरुतत्त्व 'पच त्तियुतःes खलु त्रयो निर्ग्रन्थाः' पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलाः 'प्रथमयुगे' सामायिकच्छेदोपस्थापनीयरूपचारित्रद्वये भवतः । कषा- विनिश्चयः चतुर्थो- यकुशीलः 'चतुर्यु' सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपरायेषु भवति । निर्ग्रन्थस्नातको ‘चरमे' सौत्रक्रमप्रा- ल्लास: माण्यादन्तिमे यथाख्यातचारित्रे भवतः ॥ ५३॥ उक्तं चारित्रद्वारम् । अथ प्रतिसेवनाद्वारमाहपडिसेत्रणा उसेवा, संजलणोदयवसेण पडिकूला। मूलुत्तरपडिसेवी, तत्थ पुलाओ ण विवरीओ॥५४॥ प्रतिसेवना. | 'पडिसेवणा उत्ति । 'प्रतिसेवना तु' सञ्जवलनोदयवशेन प्रतिकूला यथास्थिताचारविपरीता सेवा। तत्र पुलाको मूलोत्त-18 द्वारम राणां-मूलोत्तरगुणानां प्रतिसेवी भवति, अन्ततो मानसिकातिचारस्यापि यथासूक्ष्मेन सता सेवनात् । न विपरीतः'नाप्रति| सेवकः, तदुक्तम्-“पुलाए णं भंते ! किं पडिसेवए होजा अपडिसेवए होज्जा ? गोयमा ! पडिसेवए होज्जा णो अपडिसेवए| द होज"त्ति ॥ ५४ ॥ पुलाकस्य मूलोत्तरगुणप्रतिसेवकत्वमेवोक्तं विवृणोतिपंचण्हं अण्णयरं, पडिसेवंतो उ होइ मूलगुणे । उत्तरगुणेसु दसविहपञ्चक्खाणस्स अण्णयरं ॥ ५५ ॥ पुलाकस्य मूलोत्तरगु'पंचण्ह'ति । मूलगुणे पञ्चानामाश्रवाणां प्राणातिपातादीनामन्यतरं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति, उत्तरगुणेषु ‘दशवि-131 णसेवित्वम् शोधस्य' कोटीसहितादिभेदभिन्नस्य नमस्कारसहितादिभेदभिन्नस्य वा प्रत्याख्यानस्यान्यतरत् प्रतिसेवमानः, उपलक्षणत्वाच्चास्य पिण्डविशुद्ध्यादिविराधकत्वमप्युत्तरगुणेषु संभाव्यते ॥५५॥ अत्र सम्मतिं प्रदर्शयन् ग्रन्थान्तरोक्तं समुच्चिनोति ॥१९ ॥ R-4-9-SARLSSAGRUGARCAUR Jan Education Intemanong Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इयभगवईइ भणियं, अण्णत्थ पराभिओगओ छण्ह। पडिसेवगो उइट्ठो, मेहुणमित्तस्स एगेसिं ॥५६॥ भगवतीसा| इयत्ति । इतीदं भगवत्यां भणितम् , तथा च तदालापः-"जइ पडिसेवए होजा किं मूलगुणपडिसेवए होजायंप्रन्थान्तउत्तरगुणपडिसेवए होजा? गोयमा! मूलगुणपडिसेवए होज्जा उत्तरगुणपडिसेवए होजा । मूलगुणपडिसेवमाणे पंचण्ह रोक्तसंग्रहश्च आसवाणं अण्णयरं पडिसेवए होजा। उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवए होज"त्ति । 'अन्यत्र' ग्रन्थान्तरे 'पराभियोगतः' बलात्कारात् 'पण्णाम्' पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनस्य च प्रतिसेवकः पुलाकर इष्टः । एकेषामाचार्याणां मते पराभियोगान्मैथुनमात्रस्य प्रतिसेवक इष्टः । तथा चोक्तमुत्तराध्ययनवृत्ती-"इदानीं प्रतिसेवना पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनस्य च पराभियोगात्-बलात्कारेणान्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति, मैथुना-12 नामेव इत्येके । प्रज्ञप्तिस्तु-'पुलाए णं पुच्छा जाव मूलगुणपडिसेवमाणे पंचण्हं आसवाणं अण्णयरं पडिसेविजा, उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पञ्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेविज्जा" इति । निर्युक्तौ तु-"मूलगुणासेवओ पुलाओ"| इत्येतावदेवोक्तम् ॥ ५६॥ उत्तरगुणेसु बउसो, भणिओ पडिसेवगो पुलागसमो । पण्णत्तीए अण्णत्थ देहवउसो दुहासेवी ॥ ५७॥ 'उत्तरगुणेसुत्ति । वकुश उत्तरगुणेषु। प्रतिसेवकः' प्रतिसेवनाकुशीलश्च 'पुलाकसमः' पुलाकवन्मूलोत्तरगुणप्रतिसेवकः प्रज्ञप्ताव भिहितः, तथा च तदालापः-“वउसे णं पुच्छा, गोयमा ! पडिसेवए होज्जा णो अपडिसेवए होज्जा, जइ For Private &Personal use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञव- त्तियुतः चतुर्थी॥१९१॥ पडिसेवए होज्जा किं मूलगुणपडिसेवए होज्जा उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा ? पुच्छा, गोयमा ! णो मूलगुणपडिसेवए होज्जा गुरुतत्त्व उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवेज्जा, पडिसेवणाकुसीले जहा विनिश्चयः का पुलाए"त्ति । 'अन्यत्र' ग्रन्थान्तरे 'देहबकुशः' शरीरबकुशः 'द्विधासेवी' मूलोत्तरगुणप्रतिसेवी भणितः, तथा च पठ्यते । उत्तराध्ययनेषु-"मूलगुणउत्तरगुणे सरीरव उसो मुणेयवो"त्ति। तथा नित्यमुपकरणाकाङ्की प्रतिकारसेव्युपकरणबकुश उत्तरगुणानामेव प्रतिसेवक इत्यपि द्रष्टव्यम् , तदुक्तम्-"चित्तलवत्थासेवी, पराभिओगेण सो भवे बउसो"त्ति ॥ ५७ ॥ पडिसेवगो अ उत्तरगुणेलु थोवं विराहणं कुवं । पहायकसायकुसीला, णिग्गंथा पुण अपडिसेवी ॥ ५८॥ ET 'पडिसेवगो अति । 'प्रतिसेवकच प्रतिसेवनाकुशीलश्च उत्तरगुणेषु स्तोकां विराधनां कुर्वन् भणितः, यदुत्तराध्यय नवृत्ति:-"प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन् उत्तरगुणेषु काश्चिद्विराधनां प्रतिसेवते" इति, एतदपि मतान्तरम् । स्नातककषायकुशीलनिग्रन्थाः पुनरप्रतिसेविनः, तथा चागमः-"कसायकुसीले पुच्छा, गोयमा ! णो पडिसेवए होज्जा अपडिसेवए होज्जा, एवं णियंठे वि, एवं सिणाए बि" ॥ ५८ ॥ अत्राक्षेपमाहनणु संजलणाणुदए, अइआरा आगमम्मिणिदिहातोस कसायकुसीलो, कहमप्पडिसेवगोभणिओ५९।। नोदकः & 'नणुत्ति । ननु सञ्जवलनानामुदयेऽतिचारा आगमे निर्दिष्टाः, तथा चावश्यकवचनम-“सबै वि य अइआरा है। ॥१९॥ संजलणाणं तु उदयओ हुंति"त्ति, 'तत् तस्मात् स कषायकुशीलः कथमप्रतिसेवको भणितः ? तस्य सङ्ग्वलनोदयवत्त्वेन । in F PIR Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECORAKASHARA प्रतिसेवकत्वसम्भवात् ॥ ५९॥ कह तस्सासवलत्तं, णेवं पडिसेवगा य कह णिचं । हुंति पुलागाईआ, ते सुद्धा किंण कइया वि?॥६० ॥ है कहत्ति। कथं च तस्य' कषायकुशीलस्य एवम्'अप्रतिसेवकत्वेऽभ्युपगम्यमानेऽशवलवत्त्वं न स्यात् ? तदेव स्यादित्यर्थः, कथं च नित्यं प्रतिसेवकाः पुलाकादयो भणिताः? किं न कदापि ध्यानादिदशायामपि ते शुद्धा न भवन्ति ?, न तावदित्थमिष्टम् , ध्यानादिदशायां शुद्धत्वस्याभ्युपगमात् जिनकल्पादीनामतिचारत्यागस्य तत्र तत्र प्रदर्शितत्वाच्चः तथा च तेषामप्रतिसेवकत्वनिषेधो न युज्यते किन्तु भजनाप्रतिपादनमेव युज्यत इत्यर्थः ॥ ६० ॥ मूलगुणासेवित्ते कह वा चरणस्स होइ सदहणं । तिसु सबलो मूलगुणे भणिओ तुरिए अणायारी॥६१ME PI 'मूलगुणासेवित्तेत्ति । मूलगुणासेवित्वे कथं वा पुलाकानां चरणस्य सतः श्रद्धानं भवति ?, यतो मूलगुणे 'त्रिषु अति-2 क्रमव्यतिक्रमातिचारेवापद्यमानेषु शबलो भणितः, 'तुरीये' चानाचारे आपद्यमानेऽनाचारी भणितः, तदाह दशाचूर्णिकृत्-"मूलगुणेसु आइमेसु तिसु भंगेसु सबलो भवइ, चउत्थभंगे सबभंगो, तत्थ अचरित्ती चेव भवइ । उत्तरगुणेसु चउसु वि ठाणेसु सबलो"त्ति । तथा दृतिशकटादिदृष्टान्तैरपि मूलगुणभङ्गस्य तत्कालमेव चारित्रनाशकत्वमुक्तम् , तथा तुर्यव्रतभङ्गे सर्वत्रतभङ्गः सर्वैरपि प्रतिपन्नः, इष्यते चान्यतराश्रवसेवित्वं पुलाकप्रतिसेवकयोरिति कथं तस्य चारित्रम् समाधानम इति ॥ ६१॥ समाधित्सुराह Main Elohemia For Private & Personal use only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञ-कभन्नइ नियठाणकयं, णिययं पडिसेवगत्तमण्णं वा । पडिसेवगे सहावो, एसो पडिसेवगे णत्थि ॥६२॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः।3 भन्नईत्ति । 'भण्यते' अत्रोत्तरं दीयते, प्रतिसेवकत्वमन्यथा('अन्य वा'अ)प्रतिसेवकत्वं वा 'नियतं' पुलाकादिकषायकु-181 विनिश्चयः चतुर्थीदशीलादिस्थानानतिक्रमेण स्थितं 'निजस्थानकृतं' स्वस्वसंयमस्थानकृतं न तु सञ्ज्वलनोदयतदभावमात्रजनितम् , विकलस्य ल्लासः ॥१९२॥ कारणस्य कार्यानिष्पादकत्वात् , तथाविधसंयमस्थानानामेव सञ्जवलनोदयतदभावसहकृतानां प्रतिसेवनाऽप्रतिसेवनाधर्मनिष्पादकत्वव्यवस्थितेः, तथा चाह-प्रतिसेवके यः कदापि प्रतिसेवमानोऽवगतस्तज्जातीये 'एषः' प्रतिसेवकत्वलक्षणः स्वभावोऽप्रतिसेवके खल्वयं नास्ति ॥ ६२ ॥ निगमयतिइयं सुत्तप्पामण्णा, स कसायकुसीलओ अपडिसेवी। णासवलत्तं तम्मि उ, कम्मोदयओ णियंठे ॥३॥ | 'इय'त्ति । 'इति’ उक्तप्रकारेण 'सूत्रप्रामाण्यात्' सौत्रनिर्देशस्यापर्यनुयोज्यत्वात्स कषायकुशीलोऽप्रतिसेवी युज्यते, तथाविधचारित्रस्थानस्वाभाव्येन तज्जातीये कदाऽपि प्रतिषेवणानुपलब्धेः; न चैवं तस्मिन्नापादितमशवलत्वं युक्तम् , निर्ग्रन्थ इव कर्मोदयतः शवलत्वस्यैव घटमानत्वात् , प्रतिषेवणाभावमात्रेणाशबलत्वे निग्रन्धस्याप्यशबलत्वप्रसङ्गात् , इष्यते चाशबलत्वं स्नातकस्यैवागम इति ॥ ६३ ॥ अतिदेशेन दूषणान्तरमुद्धरतिणिञ्चपडिसेवगत्तं, मूलगुणासेवणे वि चरणं च । एवं सहावसिद्धं, णेयं परिगिज्झ सुत्ताणं ॥ ६४ ॥8॥१९२॥ 'णिच्च'त्ति । नित्यप्रतिसेवकत्वमप्येवं पुलाकादीनां स्वभावसिद्धं ज्ञेयम्, न तु सर्वदा प्रतिसेवानियम एव, मनोवाका RECAUSER IES For Private & Personal use only anelibrary.org Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुल, ३३ Jain Educatio यसंवृतस्य वकुशादेर्धर्म्यध्यानोपगतस्य निरस्तसमस्तसङ्कल्पविकल्पस्य चिन्मात्रविश्रान्तप्रतिबन्धस्यान्यप्रतिसेवानुपलब्धेः । तथा मूलगुणासेवनेऽपि पुलाकादीनामेवं चरणं सूत्राज्ञां परिगृह्य स्वभावसिद्धं ज्ञेयम्, तद्दशायामपि तेषां चारित्रपातप्रतिबन्धकसंयमस्थानसत्त्वात् । क्वचिदेवमन्यथाभावदर्शनेऽपि मूलगुणभङ्गे चारित्रभङ्गनियमस्य सार्वत्रिकस्याविरोधात्पराभियोगादिना वा मूलगुणभङ्गेऽपि तेषां चारित्राक्षतिः, सूत्रप्रामाण्यात् तथाविधसंयमस्थानानुरोधेन तथाविधचारित्रपरिणतेरविरोधात्, तदुक्तमुत्तराध्ययनवृत्तौ - "अत्र च यत् पुलाकादीनां मूलोत्तरगुणविराधकत्वेऽपि निर्ग्रन्थत्वमुक्तं तत् जघन्यजघन्यतरोत्कृष्टोत्कृष्टतरादिभेदतः संयमस्थानानामसङ्ख्यतया तदात्मकतया च चारित्रपरिणतेरिति भावनीयम्" इति ॥ ६४ ॥ उक्तं प्रतिसेवनाद्वारम् । अथ ज्ञानद्वारमाह नाणं मइनाणाई, तत्थ पुलाओ अ वउससेवी य। दुसु तिसु व केवली खलु, पहाओ सेसा चउसु भज्जा ६५ 'नाणं ति' । ज्ञायतेऽनेन वस्त्विति ज्ञानं मतिज्ञानादि पञ्चविधम् । तत्र पुलाकः 'बकुशासेविनौ च' वकुशप्रतिसेवनाकुशीलौ चेत्येते 'द्वयोः मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः 'त्रिषु वा' मतिश्रुतावधिज्ञानेषु भवन्ति । 'स्नातः' स्नातकः खलु 'केवली' केवलज्ञान एकस्मिन्नैव भवति । 'शेष' कपायकुशीलनिर्ग्रन्थौ चतुर्षु ज्ञानेषु भाज्यौ, तथाहि - तौ द्वयोस्त्रिषु चतुर्षु वा भवतः, द्वयोर्भवन्तौ मतिश्रुतयोः, त्रिषु भवन्तौ मतिश्रुतावधिषु, अथवा मतिश्रुतमनः पर्यायेषु चतुर्षु भवन्तौ च मतिश्रुतावधिमनः पर्यायेषु द्रष्टव्याविति ॥ ६५ ॥ ज्ञानप्रस्तावाज्ज्ञानविशेषं श्रुतं विशेषेण चिन्तयन्नाह - alonal ) ज्ञानद्वारम् Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः चतुर्थी ॥ १९३ ॥ 54-% पढमस्स जहन्नेणं, तइयं आयारवत्थु णवमस्स । पुवस्सुकोसेणं, पुन्नाई नव त्तिपन्नत्ती ॥ ६६ ॥ ‘पढमस्स’त्ति। ‘प्रथमस्य’ पुलाकनिर्ग्रन्थस्य जघन्येन श्रुतमाचारवस्तु तृतीयं नवमस्य पूर्वस्य सम्बन्धि, उत्कर्षेण च पूर्णानि नवपूर्वाणीति प्रज्ञप्तिराह, तथा च तदालाप:-- “ पुलाए णं भंते ! केवइयं सुयं अहिज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं णवमपुत्रस्स त अमायारवत्युं उक्कोसेणं णवपुवाई अहिज्जेज्ज "त्ति ॥ ६६ ॥ | उक्कोसेण दस त्ति य, भणियं अण्णत्थिमस्स सुअनाणं । बउसकुसीलणियंठा, पवयणमाउसु जहन्नेणं ॥ ६७ 'उक्कोसेण'त्ति । उत्कर्षेण दश पूर्वाणीति भणितम् 'अन्यत्र' ग्रन्थान्तरे 'अस्य' पुलाकस्य श्रुतज्ञानम्, तथा चोक्तमु |त्तराध्ययनेषु - " दसपुबधरुक्कोसा, पडिसेव पुलाय वडसा यत्ति । एतद्विवरणेऽप्युक्तम्- “पुलागवउसपडिसेवणाकुसीला य उक्कोसेणं भिन्नदसपुबधर "त्ति । वकुशकुशीलनिर्ग्रन्थाः श्रुतमपेक्ष्य जघन्येन प्रवचनमातृषु भवन्ति, अष्टप्रवचनमातृपरिपालनरूपे चारित्रेऽष्टप्रवचनमातृज्ञानस्यावश्यमपेक्षितत्वेन तदर्थमष्टप्रवचनमातृप्रतिपादकश्रुतस्य जघन्यतोऽप्यपेक्षणीयत्वात् । एतच्च " अट्ठण्हं पवयणमाईणं" एतस्य यद्विवरणसूत्रं तदवसीयते । यत्पुनरुत्तराध्ययनेषु प्रवचनमातृनामकमध्ययनं तद्गुरुत्वाद्विशिष्टतर श्रुतत्वाच्च न जघन्यतः संभवति । बाहुल्याश्रयं चेदं श्रुतप्रमाणम्, तेन न माषतुषादिभिर्व्यभिचार:, तेषां गुरुपारतन्त्र्यमात्रस्यैव ज्ञानत्वाभिधानादिति वृद्धसम्प्रदायः ॥ ६७ ॥ | वउसपडि सेवगाणं, पुवाई दसेव हुंति उक्कोसं । णिग्गंथकसाईणं, चउदस पहाओ सुआईओ ॥ ६८ ॥ गुरुतत्त्वविनिश्वयः लासः ॥ १९३ ॥ nelibrary.org Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व 'वउसपडिसेवगाणं ति । वकुशप्रतिसेवकयोः पूर्वाणि दशैव भवन्त्युत्कर्षतः । 'निर्ग्रन्थकषायिणोः' निर्ग्रन्थकषायकुशी लयोश्चतुर्दश पूर्वाण्युत्कर्षतो भवन्ति । 'स्नातः' स्नातकः श्रुतातीतः, केवलज्ञानोदये श्रुतज्ञानविगमात् , “नट्ठम्मि य । छाउमथिए नाणे” इति वचनात् ॥ ६८ ॥ उक्तं ज्ञानद्वारम् । अथ तीर्थद्वारमाहतित्थं चाउवण्णे, संघे ठविअम्मि होइ तत्थ पुणो। तित्थम्मि तिणि पढमा, तित्थातित्थे उअंततिय॥६९/ तीर्थद्वारम् 'तित्यति । तीर्यतेऽनेन संसारसागर इति 'तीर्थ' प्रवचनम् , तदाधारत्वाच्च चतुर्विधः श्रमणसङ्घोऽपि तीर्थमुच्यते, तत इदमाह-चतुर्वर्णे सङ्घ स्थापिते सति तीर्थ भवति । तत्र पुनर्विचार्यमाणे 'त्रयः प्रथमाः' पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलाः मा निर्ग्रन्थास्तीर्थे भवन्ति । 'अन्त्यत्रिकं तु' कषायकुशीलनिग्रन्थस्नातकाख्यं तीर्थातीर्थयोर्भवति । अतीर्थे च भवन्त एते तीर्थकराः स्युः प्रत्येकबुद्धा वा, तदुक्तं भगवत्याम्-"पुलाए णं भंते ! किं तित्थे होज्जा अतित्थे होजा? गोयमा! * तित्थे होजा णो अतित्थे होज्जा । एवं बउसे वि पडिसेवणाकुसीले वि । कसायकुसीले पुच्छा, गोयमा ! तित्थे वा होजा है अतित्थे वा होज्जा । जइ अतित्थे होज्जा किं तित्थकरे होजा पत्तेअबुद्धे होजा? गोयमा! तित्थकरे वा होजा पत्तेय दबुद्धे वा होजा । एवं णियंठे वि, एवं सिणाए वि"त्ति ॥ ६९ ॥ ग्रन्थान्तरव्याख्याविशेषमाहसवेसु वि तित्थेसुं, होति पुलागाइया णियंठ त्ति । खुड्डागणियंठिज्जे, णिदंसियं तित्थदारम्मि॥७०॥ रम् 'सबेसु वित्ति । सर्वेष्वपि तीर्थेषु पुलाकादयो निर्ग्रन्था भवन्तीति क्षुल्लकनिग्रन्थीऽयेध्ययने तीर्थद्वारे निदर्शितम् । RUARKARSAARCROCE व्याख्यान्त Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञत्तियुतः चतुर्थो ॥ १९४ ॥ एतद्विवरणे चेत्थमुक्तम् — “तीर्थमिदानीम् सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थेषु भवन्ति । एके त्वाचार्या मन्यन्ते - पुलाकवकुश - प्रतिसेवना कुशीलास्तीर्थे नित्यम्, शेषास्तु तीर्थेऽतीर्थे वा " इति ॥ ७० ॥ उक्तं तीर्थद्वारम् । अथ लिङ्गद्वारमाहबज्झभंतरभेअं, लिंगं दवे य होइ भावे य । दवम्मि तिसु विसवे, भावे सवे विणियलिंगे ॥ ७१ ॥ 'बज्झति । लिङ्ग्यते - गम्यते स्वरूपमनेनेति लिङ्गम्, तच्च बाह्याभ्यन्तरभेदं द्रव्ये भावे च भवति । तत्र 'द्रव्ये' द्रव्यलिङ्गे वेपमात्ररूपे 'सर्वे' पुलाकादयः 'त्रिष्वपि लिङ्गेषु स्वलिङ्गपरलिङ्गगृहिलिङ्गलक्षणेषु भवन्ति । भावे पुनः सर्वेऽपि निजलिङ्ग एव भवन्ति, भावलिङ्गस्य ज्ञानादिलक्षणत्वात् तस्य चार्हतामेव भावात्, उक्तञ्च प्रज्ञप्तौ – “पुलाए णं भंते ! किं सलिंगे होज्जा अण्णलिंगे होज्जा गिहिलिंगे होज्जा ? गोयमा ! दबलिंगं पडुच्च सलिंगे वा होज्जा अण्णलिंगे वा होज्जा गिहिलिंगे वा होज्जा, भावलिंगं पडुच्च णियमा सलिंगे होज्जत्ति ॥ ७१ ॥ भावलिङ्गस्यान्यत्रापि सत्त्वमुपपादयन्नाहजं सोहणमत्थपयं, अण्णत्थ वि होइ आयकज्जकरं । तं दिट्टिवायमूलं, पमाणमिय बिंति आयरिआ ॥ ७२ ॥ 'जं सोहणं 'ति । यत् 'शोभनं ' परमार्थरमणीयं ' अर्थपदं' यमनियमादिवचनं 'अन्यत्रापि' जैनग्रन्धातिरिक्तग्रन्थेऽपि 'आत्मकार्यकरं' योगदृष्टिप्राधान्येनासङ्ग्रहनिरासद्वारा भावसम्यक्त्वप्राप्तिरूपाध्यात्मप्रसादकरं तत् पारम्पर्येण दृष्टिवादमूलं सत् प्रमाणम्, भागवतभावलिङ्गरूपत्वादन्येषामीदृशार्थस्य स्वातच्येण ज्ञानायोगात् । इत्थं चान्यत्रापि भावलिङ्गसम्भव इत्यस्माकं 'आचार्याः' हरिभद्रादयो ब्रुवते, व्यक्तं चैतदुपदेशयोगदृष्टिसमुच्चयादौ समर्थितं चास्माभिरपि द्वात्रिंशि ) गुरुतत्त्वविनिश्चयः लास: लिङ्गद्वारम् भावलिङ्गम् ॥ १९४ ॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECORRECASEXX काप्रकरणादाविति नेह भूयान् प्रयासः ॥ ७२ ॥ उक्तं लिङ्गद्वारम् । अथ शरीरद्वारमाह ओरालाइ सरीरं, पढमोतिसुतत्थ दो य चरमिल्ला। सविउव्व बउससेवी, सकसायाऽऽहारगजुआ वि॥७३/ शरीरद्वारम् । ओरालाईत्ति । शीर्यत इति शरीरमौदारिकादि पञ्चविधं व्यक्तम् । तत्र विचार्यमाणे 'प्रथमः' पुलाकः द्वौ च चरमौ' निग्रन्थस्नातको, एते 'त्रिषु शरीरेषु' शिष्टयोर्वक्तव्यत्वादौदारिकतैजसकार्मणेषु भवन्ति । 'बकुशासेविनौ' बकुशप्रतिसेवाकुशीलौ सवैक्रियावपि भवतः, तथा च वैक्रियं विना त्रिषु तत्साहित्येन चतुर्ष वा भवन्तीत्यर्थः। 'सकषायाः' कषायकुशीला आहारकयुता अपि भवन्ति, तथा च त्रिषु चतुषु पञ्चसु वा लभ्यन्त इत्यर्थः ॥७३॥ उक्तं शरीरद्वारम् । अथ क्षेत्रद्वारमाहखित्तं कम्मधराई, तत्थ पुलाओ उ कम्मभूमीए । सेसाजम्मेण तहिं, अण्णत्थ वि संहरणओअ॥७॥ क्षेत्रद्वारम् 'खित्त'ति । क्षेत्रं 'कर्मधरादि' कर्मभूम्यकर्मभूम्याख्यम् । तत्र पुलाकः कर्मभूम्यामेव नाकर्मभूमौ, तज्जातस्य चारित्रा-2 भावात् पुलाकचारित्रवतस्तत्रासंहरणाच्च । 'शेषाः' बकुशादयः 'जन्मना' उत्पादेन 'तहिंति तत्र कर्मभूमावेव, स्वकृतविहारतोऽपि तत्रैव भवन्ति । संहरणतश्च 'अन्यत्रापि' अकर्मभूमावपि भवन्ति । संहरणं हि क्षेत्रान्तरात्क्षेत्रान्तरे देवादिभिर्नयनम् , तच्च कर्मभूमौ वा स्यादकर्मभूमौ वेति ॥ ७४ ॥ उक्तं क्षेत्रद्वारम् । अथ कालद्वारमाहउस्सप्पिणिआई खलु, कालो जम्मेण तत्थ उ पुलाओ।तइयचउत्थसमासु,णियमेणोसप्पिणीइ हवे७५ कालद्वारम् __ 'उस्सप्पिणिआइत्ति । उत्सर्पिण्यादिः खलु कालः, 'तत्र' विचार्ये पुलाको जन्मना तृतीयचतुर्थारकयोर्नियमेनावसर्पिण्यां SSCCCC in Edutan international For Private & Personal use only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो स्वोपज्ञवृ- भवेत् , तदुक्तमवसर्पिणीमधिकृत्य-"जम्मणं पडुच्च णो सुसमसुसमाकाले हो जा णो सुसमाकाले होज्जा सुसमदुसमा- गुरुतत्त्वत्तियुतः काले वा होज्जा दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा णो दुसमाकाले वा होजा णो दुस्समादुस्समाकाले होज"त्ति ॥ ७५ ॥ विनिश्चयः ल्लासः तह पंचमे वि अरए, सब्भावेणं इमो हविजाहि । उस्सप्पिणीइ बिइए, तइए अरए चउत्थे य ॥ ७६ ॥ ॥१९५॥ जम्मेणं सब्भावा, तइअचउत्थेसु चेव सो हुज्जा । तिसु तइआसु एअं, दुहावि अण्णे पुणो विति ॥७॥ ओसप्पिणीइ उस्सप्पिणीइ अरएसु तइअतुरिएसुं।ओसप्पिणिउस्सप्पिणिभिन्नम्मि दुहाचउत्थणिभे॥ है। तहत्ति । तथा पञ्चमेऽप्यरके, अपिना तृतीयचतुर्थयोः सङ्ग्रहः, सद्भावेनायं पुलाकोऽवसर्पिण्यां भवेत् , यदागमः “संतिभावं पडुच्च नो सुसमसुसमाए होज्जा णो सुसमाए होजा सुसमदुसमाए होजा दुसमसुसमाए होज्जा दुस्समाएर होज्जा णो दुस्समदुसमाए होज"त्ति । तत्र तृतीयचतुर्थारकयोः सद्भावस्तजन्मपूर्वकः, पञ्चमे त्वरके चतुर्थारके जातः सन् वर्त्तत इति विशेषः । उत्सर्पिण्यां द्वितीये तृतीये चतुर्थे चारके 'जम्मेणं ति उत्तरगाथास्थपदेनेदं संबध्यते, जन्मना पुलाको |भवेत् , तदुक्तमुत्सर्पिणीमधिकृत्य-"जम्मणं पडुच्च णो दुसमादुसमाकाले होजा दुस्समाकाले वा होज्जा दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा णो सुसमाकाले होजाणो सुसमासुसमाकाले होज"त्ति । अत्र द्वितीयस्यान्ते जातस्तृतीये चरणं प्रतिपद्यते, तृतीयचतुर्थयोश्च जायते चरणं च प्रतिपद्यत इति विशेषः। सद्भावतस्तूत्सर्पिण्यां तृतीयचतु- ॥१९५॥ र्थयोरेवारकयोः 'सः' पुलाको भवेत् , तयोरेव तस्य चरणप्रतिपत्तेः, तदुक्तम्-"संतिभावं पडुच्च णो दुस्समदुसमाकाले होजा AMARSA Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणो दुस्समाकाले होजा दुस्समसुसमाकाले वा होजा सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा णो सुसमाकाले वा होजाणो सुसमसुसहिमाकाले वा हुज"त्ति । मतान्तरमाह-'एनं' पुलाकमन्ये पुनराचार्यास्तृतीयादिषु त्रिष्वरकेषु तृतीयचतुर्थपञ्चमेष्वित्यर्थः, 'ओसप्पिणीइत्ति अग्रेतनगाथास्थमत्र संबध्यते, अवसर्पिण्यां 'द्विधाऽपि' जन्मतः सद्भावतश्च ब्रुवते । उत्सर्पिण्यां तु जन्मसद्भावाभ्यां तृतीयचतुर्थयोरेवारकयोः, तदुक्तमुत्तराध्ययनबृहद्वत्तौ-"कालतः पञ्चापि पुलाकादयो जन्मतःसद्भावतश्चावसर्पिण्यां सुषमदुष्षमादुष्षमसुषमादुष्पमाभिधानेषु कालेषु स्युः, उत्सर्पिण्यां दुष्पमसुषमासुषमदुष्षमयोः" इति ।। अवसर्पिण्युत्सर्पिणीभिन्नकाले 'द्विधा' जन्मतः सद्भावतश्च पुलाकः 'चतुर्थनिभे' दुष्पमासुषमाप्रतिभागे महाविदेहे भव६ति । एवमन्येऽपि द्रष्टव्याः । सुषमसुषमादिप्रतिभागेषु तु देवकुर्वादिषु न सम्भवः ।। ७६ ॥ ७७ ॥ ७८ ॥ वउसकुसीलाओसप्पिणीइ अरएसु जम्मसब्भावे।तइआइसु तिसु उस्सप्पिणीइ बिइआइसु य जम्मे॥ है 'बउसकुसील'त्ति । वकुशकुशीलाववसपिण्यां 'जन्मसद्भावे' समाहारैकत्वाश्रयणात् , जन्ममद्भावयोस्तृतीयादिषु त्रिष्व रकेषु भवतः, तृतीयचतुर्थपञ्चमारकेषु भवत इत्यर्थः । उत्सर्पिण्यां 'द्वितीयादिषु त्रिषु' द्वितीयतृतीयचतुर्थेष्वरकेष्वित्यर्थः जन्मनि विषये भवतः ॥ ७९ ॥ तइए तुरिए अ इमे, सब्भावे आइमो व दो चरिमा । संहरणे अपुलाया, सवे सवेसु कालेसु ॥ ८॥ 'तइएत्ति । तृतीये तुरीये चारके 'इमौ' वकुशकुशीलौ सद्भावतो भवतः। 'आदिम इव' पुलाकनिर्ग्रन्थ इव 'द्वौ चरमौ' For Private Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ त्तियुतः चतुर्थो ॥१९६॥ SAROSAROKAR निग्रन्थस्नातको जन्मसत्तयोर्वक्तव्यौ । संहरणे तु 'अपुलाकाः' पुलाकवर्जिताः 'सर्वे' चत्वारो निर्ग्रन्थाः 'सर्वेषु कालेषु' सुष- गुरुतत्त्वमसुषमादिषु संभवति, पुलाकस्य हि पुलाकलब्धौ वर्तमानस्य देवादिभिः संहरणं कर्तुमशक्यमिति तद्वर्जनम् । निर्ग्रन्थस्ना- विनिश्चयः तकयोरपि च यद्यपि न संहरणसम्भवः, अपगतवेदानां संहरणाभावात् , तदुक्तम्-"समणीमवगयवेयं परिहार पुलायमप्प- ल्लास: मत्तं च । चउदसपुचिं आहारगं च ण य कोइ संहरइ ॥१॥"त्ति तथाऽपि तयोः पूर्वसंहृतयोर्निर्ग्रन्थस्नातकत्वप्राप्तौ सर्वकालसम्भवो द्रष्टव्यः, उक्तं हि-"पुलागलद्धीए वट्टमाणो ण सक्किजइ उवसंहरिउं, तहा सिणायाइआणं जो संहरणादि-13 | संभवो सो पुबोवसंहरिआणं, जओ केवलिआइणो नोवसंहरिजंति"त्ति ॥ ८० ॥ उक्तं कालद्वारम् । अथ गतिद्वारमाह पेञ्चगमणं खलु गई, सा तिण्ह जहण्णओ उ सोहम्मे । पढमाणुकोसेणं, होइ पुलायस्स सहसारे ॥ ८१॥ गति (स्थिति) __'पेच्चत्ति । प्रेत्य-पूर्वशरीरत्यागेन परलोके गमनं खलु गतिः। सा 'प्रथमानां त्रयाणां' निर्ग्रन्थानां पुलाकवकुशद्विभेद-18 द्वारम् |कुशीलानां जघन्यतः सोधर्मे । उत्कर्षेण पुलाकस्य सहस्रारे गतिर्भवति, तदक्तमेनमाश्रित्य भगवत्याम्-"वेमाणिएसु। |उववजमाणे जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं सहसारे"त्ति ॥ ८१॥ वउसपडिसेवगाणं, तु अच्चुएऽणुत्तरेसु सकसाओ। अजहन्नाणुकोसा, तेसु च्चिय गच्छइ णियंठो॥८२॥ __ 'वउसपडिसेवगाणं तु'त्ति । बकुशप्रतिसेवकयोस्तूत्कर्षणाच्युते गतिः, उक्तञ्च-"बउसे णं एवं चेव, णवरं उक्कोसेणं ॥१९६॥ अचुए कप्पे । पडिसेवणाकुसीले जहा वउसे"त्ति। 'सकषायः' कषायकुशील उत्कर्षणानुत्तरेषु विमानेषु गच्छति, उक्तञ्च lain Education International wwwanyong Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSS RS*** "कसायकुसीले जहा पुलाए, णवरं उक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु"त्ति । अजघन्यानुत्कर्षान्निग्रन्थः 'तेष्वेव' अनुत्तरविमा-| नेष्वेव गच्छति, उक्तञ्च-"णियंठे णं एवं चेव, जाव वेमाणिएसु उववजमाणे अजहण्णमणुक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु द उववजिज"त्ति ॥ ८२॥ पहाओ सिज्झइ एए, विराहगा हुंति अण्णयरगामी। इंदा सामाणीय तायतीसया लोगपाला वा॥ ८३॥ ___ 'हाओत्ति । 'स्नातः स्नातकः सिध्यति न त्वन्यगतौ गच्छति । एते' पुलाकादयः 'विराधकाः' लब्ध्याधुपजीवनतहदनालोचनापर्यन्तविराधनाभाजः सन्तः 'अन्यतरगामिनः' भवनपत्यादिदेवलोकगामिनो भवन्ति, विराधितसंयमानांभव नपत्यायुत्पादस्योक्तत्वात् । यच्च निर्ग्रन्थेऽपि विराधनां प्रतीत्यान्यतरगमनमुक्तम्-"णियंठे पुच्छा, जाव विराहणं पडुच्चले अन्नयरेसु उववजिजा"इति ग्रन्थेन, तच्चारित्रान्तरा व्यवधानलक्षणानन्तर्येण संभावनीयम् । यत्पुनरुक्तम्-"पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे कं गई गच्छइ ? गोयमा ! देवगई गच्छइ । देवगई गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववजिज्जा वाणमंतरेसु उववजिज्जा ? जोइसिएसु उववन्जिज्जा? वेमाणिएसु उववजिज्जा? गोयमा! णो भवणवासीसु णो वाणमंतरेसु णो जोइसिएसु उववजेजा वेमाणिएसु उववज्जेज"त्ति, तत्संयमाविराधकत्वपक्षमाश्रित्येति द्रष्टव्यम् । अविराधका इत्यतनगाथास्थमिहाकृष्यते, अविराधकाः सन्त एते इन्द्राः सामानिकास्त्रायस्त्रिंशा लोकपाला वा भवन्ति । तत्र पुलाकबकुशप्रतिसेवका अविराधका इन्द्राः सामानिकास्त्रायस्त्रिंशा लोकपाला वा भवन्ति न त्वहमिन्द्राः । कषायकुशीलास्त्वविराधका इन्द्रादयोऽहमिन्द्रपर्यन्ता भवन्ति । निर्ग्रन्थास्त्वविराधका अहमिन्द्रा एव भवन्तीति द्रष्टव्यम् । उत्तराध्यय For Private & Personal use only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञव- नवृत्तौ वित्थमाराधनाविराधनाकृतो विशेष उच्यते-“पुलाकोऽविराधनात इन्द्रेणूत्पद्यते, विराधनातस्त्विन्द्रसामानिक- गुरुतत्त्वत्तियुतः बायस्त्रिंशलोकपालानामन्यतमेषु । एवं बकुशप्रतिसेवनाकुशीलावपि । कषायकुशीलः पुनरविराधनया इन्द्रेष्वहमिन्द्रेषु विनिश्चयः चतुर्थो- वा जायते, विराधनया इन्द्रादीनामन्यतमेषु । निम्रन्थस्त्वहमिन्द्रेष्वेवोत्पद्यते” इति ॥ ८३॥ ल्लास: ॥१९७॥ अविराहगा जहण्णा, पलिअपुहुत्तं ठिई हवे तिण्हं।आइलाणुक्किट्टा, जा जम्मि उ होइ सुरलोए ॥८४॥ से 'अविराहग'त्ति । 'आद्यानां त्रयाणां' पुलाकबकुशकुशीलानां जघन्या स्थितिः पल्योपमपृथक्त्वमेव सौधर्मे भणिता । उत्कृष्टा तु या यस्मिन् सुरलोके भवति सा तत्र द्रष्टव्येति प्रज्ञस्यभिप्रायः ॥ ८४ ॥ ग्रन्थान्तरमतमाह खुड्डागणियंठिजे, पलियपुहुत्तं, ठिई चउण्हं पि। सोहम्मम्मि उ भणिआ, जहन्नओ जं इमा गाहा ८५ स्थित F] 'खुड्डागणियंठिज्जेत्ति । क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीयेऽध्ययने पल्योपमपृथक्त्वं स्थितिश्चतुर्णामपि पुलाकबकुशकुशीलनिम्रन्थानां जघन्यतः सौधर्मे भणिता । यदियं गाथा तत्र पठ्यते ॥ ८५॥" सहसार अच्चुअम्मी, अणुत्तराणुत्तरे अ मुक्खम्मि । उक्कोसेणं हीणा, सोहम्मे णव उ पल्ला उ॥८६॥ | 'सहसार'त्ति । सहस्रारेऽच्युतेऽनुत्तरेष्वनुत्तरेषु मोक्षे च क्रमात् पुलाकादयो निर्ग्रन्था उत्कर्षेण गच्छन्ति । 'हीनाः' जघ-13 न्यगामिनस्तु सौधर्मे नव पल्योपमानि यावत्। वृत्तिकारोऽण्याह-"उपपातः पुलाकस्योत्कृष्टस्थितिषु देवेषु सहस्रारे, बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोाविंशतिसागरोपमस्थितिष्वच्युते, कषायकुशीलनिग्रन्थयोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिषु सर्वार्थसिद्धे। CI न्तरम् ॥१९७॥ JainEducation International Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वेषामपि जघन्यं पल्योपमपृथक्त्वस्थितिषु सौधर्मे, प्रज्ञप्तिस्तु-"कसायकुसीले जहा पुलाए, णवरं उक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु । णियंठे णं एवं चेव, जाव वेमाणिएसु उववज्जमाणे अजहण्णमणुक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववजई" स्नातकस्य निर्वाणम्" इति ॥ ८६ ॥ उक्तं गतिद्वारम् । अथ संयमद्वारमाह-- ठाणाई संजमोखलु, ताइं असंखिज्जयाइं पत्ते। हुंति चउण्हं ठाणं, इकंचिय दोण्ह चरिमाणं ॥ ८७॥ संयमद्वारम् | 'ठाणाईति । संयमः खलु स्थानानि, संयमशब्देन संयमस्थानान्युच्यन्त इत्यर्थः । तानि च प्रत्येकं सर्वाकाशप्रदेशाग्र-18 गुणितसर्वाकाशप्रदेशपरिमाणानन्तचारित्रपर्यायसमुदायरूपाणि हीनोत्कृष्टादिभेदान्यसङ्ख्येयानि श्रेणिनिष्पादकानि भववन्तीति विवेचितं प्रथमोल्लासे । तत्र 'तानि' संयमस्थानानि प्रत्येकं 'चतुर्णा' पुलाकबकुशप्रतिसेवककषायकुशीलानामसङ्ख्ये यानि भवन्ति । 'द्वयोश्चरमयोः' निर्ग्रन्थस्नातकयोः पुनरेकमेव संयमस्थानं भवति । यत्प्रज्ञप्ति:-"पुलागस्स णं भंते ! केवइआ संजमढाणा ? गोयमा! असंखेजा ठाणा पण्णत्ता, एवं जाव कसायकुसीलस्स । णियंठस्स णं भंते ! केवइआ| संजमहाणा पण्णता ? गोयमा ! एगे अजहण्णमणुकोसए संजमट्ठाणे पण्णत्ते । एवं सिणायस्स वि"त्ति ॥ ८७ ॥ संयमद्वार एव पुलाकादीनां संयमस्थानाल्पबहुत्वमाहणिग्गंथसिणायाणं, तुलं इक्कं च संजमट्ठाणं । अकसाइअंतओ ते, पुलायवउसाणऽसंखगुणा ॥ ८८॥ संयमस्था नाल्पबहुपडिसेवगसकसायाण संखगुणिया तओ अते हुंति। अण्णे णिग्गंथस्ल वि, असंखठाणाइं इच्छंति॥८९॥ पुलाकादीनां त्वम् marwa Main ERT an international For Private & Personal use only Lainelibrary.org Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊक चतुर्थो स्वोपज्ञ- "णिग्गंध'त्ति । निग्रन्थस्नातकयोः "अकापायिक' काषायिकाध्यवसायरहितमत एवैकं कषायाणामुपशमस्य क्षयस्य गुरुतत्त्वत्तियुतः वाऽविचित्रत्वेन शुद्धेरेकविधत्वात् , एकत्वादेव च 'तुल्यम्' अजघन्योत्कृष्टं बहुष्वेव जघन्योत्कृष्टभावसद्भावात्संयमस्थानं विनिश्चयः ल भवति, तच्च सर्वतः स्तोकमित्यर्थः । ततः 'ते'त्ति प्राकृतत्वाल्लिङ्गविपर्ययः, तानि संयमस्थानानि पुलाकबकुशयोरसङ्ख्येय- ल्लास: ॥१९८॥ गुणानि प्रत्येकं भवन्ति, चारित्रमोहनीयक्षयोपशमवैचित्र्यात् । निर्ग्रन्थस्नातकस्थानापेक्षया पुलाकस्य स्थानान्यसङ्ख्येयगुणानि, ततोऽपि च बकुशस्यासङ्ख्येयगुणानीत्यर्थः। ततः 'प्रतिसेवककपायिणोः' प्रतिसेवनाकुशीलकषायकुशीलयोः प्रत्येक तान्यसङ्ख्येयगुणानि । तथा च प्रज्ञप्तिसूत्रम्-"एएसि णं भंते ! पुलागवउसपडिसेवणाकसायकुसीलनिग्गंथसिणायाणं संजमट्ठाणाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा? गोअमा! सबथोवे णियंठस्स, सिणायस्स एगे अजहण्णुकोसए संज मट्ठाणे, पुलागस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, बउसस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, पडिसेवणाकुसीलस्स संजमट्ठाणा असं-18 IN खेजगुणा, कसायकुसीलस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुण"त्ति । अन्यत्राप्युक्तम्-"पुलागकुसीलाणं, सबजहण्णाई हुंति ठाणाई । वोलीणेहिं असंखेहिं होइ पुलागस्स वुच्छित्ती॥१॥ कसायकुसीलो उवरिं, असंखिजाई तु तत्थ ठाणाई।। पडिसेवणवउसे या, कसायकुसीलो तओऽसंखा ॥ २॥ वोच्छिण्णो बउसो उ, उवरि पडिसेवणाकसाओ अ । गंतुमसंखेजाई, छिज्जइ पडिसेवणासीलो ॥३॥ उवरि गंतुं छिज्जइ, कसायसेवी तओ ह सो णियमा । उर्ल्ड एगट्टाणं, णिग्गंथसिणायगाणं तु ॥४॥” त्ति । मतान्तरमाह-अन्ये आचार्या निर्ग्रन्थस्याप्यकाषायिकान्यसङ्ख्यस्थानानीच्छन्ति, प्रतिसमयं निज- ॥१९८॥ रावृद्धवैचित्र्यस्य संयमस्थानवैचित्र्याधीनत्वादुपशान्तक्षीणमोहावान्तरवैचित्र्यस्य न्याय्यत्वात् । तदुक्तं क्षुल्लकनिन्थी जापEENA For Private Personal Use Only www.jainelibrary.oro Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROCCASER-GARCASCORROR ये-"उकोसओ णियंठो, जहण्णओ चेव होइ णायवो । अजहण्णमणुक्कोसा, होति णियंठा असंखिजा ॥१॥" शान्ति-181 मायोऽप्याह:-"असहयेयानि संयमस्थानानि कषायनिमित्तानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यानि लब्धिस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोः, तौ युगपदसङ्ख्येयस्थानानि गच्छतः। ततः पुलाको व्युच्छिद्यते । कषायकुशीलस्ततोऽसद्धयेयानि स्थानान्येकाकी गच्छति । ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलबकुशा युगपदसङ्ख्येयानि स्थानानि गच्छन्ति । ततो बकुशो व्युच्छिद्यते । ततोऽप्यसङ्ख्येयानि स्थानानि गत्वा प्रतिसेवनाकशीलोब्युच्छिद्यते । ततोऽसङ्खयेयानि स्थानानि गत्वा कषायकुशीलो व्युच्छिद्यते । अत ऊर्द्धमकषायस्थानानि निम्रन्थः प्रतिपद्यते । सोऽप्यत्येयानि स्थानानि गत्वा ब्युच्छिद्यते" इति ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ उक्तं संयमद्वारम् । अथ निकर्षद्वारमाहसंजोअणं णिगासो, पुलओ सट्टाणि तत्थ पुलयसमो।हीणहिओ छट्ठाणा, परठाणि कसाइणो एवं ॥ ९०९। | 'संजोअणं'ति । 'संयोजन' सजातीयविजातीयप्रतियोगिकतुल्यत्वादिधर्मसङ्घट्टनं निकर्षः । तत्र विचार्यमाणे स्वस्थाने | सजातीये प्रतियोगिनि पुलाकः पुलाकेन तुल्यः, तुल्यविशुद्धिकपर्यवयोगात् , हीनस्तदपेक्षयाऽविशुद्धिपर्यवयोगात् , अधिक-2 |श्च तदपेक्षया विशुद्धपर्यवयोगात् । तत्र हीनोऽधिकश्च 'षट्स्थानात्' षट्स्थानकमाश्रित्य ज्ञेयस्तथाहि-अनन्तभागहीनो- षट्स्थान| १ऽङ्खयेयभागहीनः २ सङ्ख्येयभागहीनः ३ सङ्ख्येयगुणहीनो४ऽसङ्ख्येयगुणहीनो५ऽनन्तगुणहीनश्च ६ इति। तथाहि-अस- कानि झावस्थापनया पुलाकस्योत्कृष्टसंयमस्थानपर्यवाग्रं दश सहस्राणि १००००, तस्य सर्वजीवानन्तकेन शतपरिमाणतया कल्पितेन भागे हृते शतं लब्धम् १००, द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं नव सहस्राणि नवशताधिकानि:, पूर्व निकर्षद्वारम गुरुत. ३४ | Jain Education Intematon For Private Personal use only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञ त्तियुतः चतुर्थो ॥१९९॥ ROSSROCISESSA भागहारलब्धशतस्य १०० तत्र प्रक्षेपे दश सहस्राणि जायन्ते, ततोऽसौ द्वितीयपुलाकः सर्वजीवानन्तभागहारलब्धेन गुरुतत्त्वशतेन हीन इत्यनन्तभागहीनः १। पूर्वोक्तपर्यायराशेर्दशसहस्रमानस्य लोकाकाशप्रदेशपरिमाणेनासङ्ख्येयकेन कल्पनया विनिश्चयः पञ्चाशत्प्रमाणेन भागे हृते लब्धे द्वे शते, द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं नव सहस्राण्यष्टौ शतानि .., पूर्वभा-8 गलब्धायां द्विशत्यां तत्र प्रक्षिप्तायां दश सहस्राणि भवन्तीत्यतोऽसौ द्वितीयपुलाको लोकाकाशप्रदेशपरिमाणासङ्ख्येयभागहारलब्धेन शतद्वयेन हीन इत्यसङ्ख्येयभागहीनः २ । तथा पूर्वकल्पितराशेर्दशसहस्रमितस्योत्कृष्ट सङ्ख्येयकेन कल्पनया 2 दशकपरिमाणेन भागे हृते लब्धं सहस्रम् , द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्ययाग्रं नव सहस्राणि९०००, पूर्वभागलब्धे च सहने : तत्र प्रक्षिप्ते दश सहस्राणि भवन्ति, ततोऽसावुत्कृष्टसङ्ख्येयभागहारलब्धेन सहस्रेण हीन इति सङ्ख्येयभागहीनः ३ । तथैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवाग्रं सहस्रदशकं कल्पितम् , द्वितीयप्रतियोगिपलाकचरणपर्यवाग्रं सहस्रम्, ततश्चोत्कृष्टसखथेयकेन कल्पनया दशकपरिमाणेन गुणकारेण गुणितः सहस्रो राशिर्जायते दश सहस्राणि, स च तेनोत्कृष्टसद्धयेयकेन कल्पनया दशपरिमाणेन गुणकारेण हीनोऽनभ्यस्त इति सङ्ख्येयगुणहीनः ४ । तथैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवाग्रं कल्पनया दश सहस्राणि, द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं द्वे शते, ततश्च लोकाकाशप्रदेशपरिमाणेनासद्धयेयकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन गुणकारेण गुणितो द्विशतिको राशिर्जायते दश सहस्राणि, स च तेन लोकाकाशप्रदेशप्रमाणासङ्ख्येयकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन गुणकारेण हीनोऽनभ्यस्त इत्यसङ्ख्येयगुणहीनः ५। तथैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवाग्रं कल्पनया | ॥१९९॥ सहस्रदशकम् , द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं च शतम् , ततश्च सर्वजीवानन्तकेन कल्पनया शतपरिमाणेन गुण 562 For Private & Personal use only wrana.jainelibrary.org. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECOMESSACROSOLASS कारेण गुणितः शतिको राशिर्जायते दश सहस्राणि, स च तेन सर्वजीवानन्तकेन कल्पनया शतपरिमाणेन गुणकारेण ही. नोऽनभ्यस्त इत्यनन्तगुणहीनः ६ । एवमधिकषट्स्थानकशब्दार्थोऽप्येभिर्भागहारगुणकारैर्व्याख्येयः, तथाहि-एकस्य पुलाकस्य कल्पनया दश सहस्राणि चरणपर्यवाग्रम् , तदन्यस्य नव शताधिकानि नव सहस्राणि, ततो द्वितीयापेक्षया प्रथमोऽनन्तभागाधिकः १। तथा यस्य नव सहस्राण्यष्टौ शतानि चरणपर्यवाय तस्मात्प्रथमोऽसङ्ख्येयभागाधिकः २। तथा यस्य नव सहस्राणि चरणपर्यवाग्रं तस्मात्प्रथमः सङ्ख्येयभागाधिकः ३ । तथा यस्य चरणपर्यवानं सहस्रमानं तदपेक्षया प्रथमः सङ्ख्येयगुणाधिकः ४ । तथा यस्य चरणपर्यवाग्रं द्विशती तदपेक्षयाऽऽद्योऽसङ्खयेयगुणाधिकः ५ । तथा यस्य चरणपर्यवाग्रं शतमानं तदपेक्षया प्रथमोऽनन्तगुणाधिकः ६ इति ॥ 'परस्थाने विजातीये प्रतियोगिनि विचार्यमाणे 'कषायिणः' कषायकुशीलस्यापेक्षया 'एवं' पुलाकवदेव-तुल्यो हीनोऽधिको वा पदस्थानपतितः, कपायकुशीलस्थानानामादौ पुलाक स्थानसमधारया प्रवृत्तानामुपरिष्टात्तत्परित्यागेनानिम्रन्थप्रारम्भं यावत्प्रवृद्धेः प्रदर्शितत्वादिति ॥ ९ ॥ है हीणोऽणंतगुणेणं अण्णेहिंतो सठाणि बउसो य । पडिसेवकसाईण य, तुल्लो छट्ठाणवडिओ वा ॥ ९१॥ 'हीणो'त्ति । 'अन्येभ्यः' पुलाककपायकुशीलव्यतिरिक्तेभ्यो बकुशप्रतिसेवाकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकेभ्योऽनन्तगुणेन हीनः पुलाको न तु तुल्योऽधिको वा, तदुक्तम्-"वउसासेविणियंठगण्हायाणं हुजणंतगुणहीणो"त्ति । आगमेऽप्युक्तम्-"पुलाए णं भंते ! बउसस्स परठाणसन्निगासेणे चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे तुल्ले अन्भहिए ? गोयमा! हीणे णो तुल्ले णो अन्भहिए अणंतगुणहीणे । एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि । कसायकुसीलेणं समं छट्ठाणवडिए जहेव सट्ठाणे । णियंठस्स जहा बउ CASSAUR For Private & Personal use only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो ल्लास: खोपज्ञव- सस्स । एवं सिणायस्स वि"त्ति । केचित्तु प्रतिसेवनापुलाकापेक्षयाऽप्ययं पदस्थानपतित इत्याहुः । बकुशश्च स्वस्थाने पर- गुरुतत्त्वत्तियतः|| स्थाने च प्रतिसेविकषायिणोरपेक्षया स्यात्तुल्यः, षट्स्थानपतितो वा हीनत्वाधिकत्वाभ्यां प्रागुक्कदिशा भावनीयः ॥ ९१॥ विनिश्चयः पुलयाओऽणतगुणो, णियंठण्हाएहिं णंतगुणहीणो। एवं सेविकसायी, कसायवि पुलाय छट्ठाणी ॥९॥ ॥२०॥ 'पुलयाउ'त्ति । पुलाकादनन्तगुणाधिकश्चारित्रपर्यायैः निर्ग्रन्थस्नातकेभ्यस्त्वनन्तगुणहीनो द्रष्टव्यः । एवं 'सेविकषायि-18 Pणावपि' प्रतिसेवकषायकुशीलावपि स्वस्थाने तुल्यौ षट्रस्थानपतितौ च, परस्थानेऽपि प्रत्येकं वकुशादिभिस्तथा निर्ग्रन्थस्ना तकाभ्यां स्वनन्तगुणहीनौ, पुलाकात्प्रतिसेवकश्चानन्तगुणाधिकः, केवलं 'कषायवान्' कषायकुशीलः पुलाकापेक्षया षट्स्थानीयः, हीनत्वाधिक्याभ्यां षट्स्थानपतितः॥१२॥ |णिग्गंथसिणायाणं, दोण्ह वि तुल्लत्तणं तु सट्ठाणे । परठाणेऽणंतगुणब्भहिअत्तं होइ इयरेहिं ॥ ९३ ॥ HI 'णिगंथ'त्ति । निर्ग्रन्थस्नातकयोद्धयोरपि तु स्वस्थाने तुल्यत्वम् , एकसंयमस्थानवर्त्तित्वात् । परस्थाने तु 'इतरेभ्यः' ६ पुलाकादिभ्योऽनन्तगुणाभ्यधिकत्वं भवति, विशुद्धतरसंयमपर्यायवत्त्वात् ॥ ९३ ॥ पर्यवाधिकारात्तेपामेव जघन्यादिभेदानां पुलाकादिसम्बन्धिनामल्पत्वादि प्ररूपयन्नाह पर्यवाणामसकसायपुलायाणं, जहन्नया पज्जवा समा थोवा । तेहिंतोऽणंतगुणा, उकिट्ठा ते पुलायस्स ॥ ९४ ॥ त्पत्वादि zi 'सकसाय'त्ति । 'सकषायपुलाकयोः' कषायकुशीलपुलाकनिम्रन्थयोर्जघन्याः पर्यायाः समाः' परस्परं तुल्याः, ते च सर्व- ॥२०॥ CAUSAHASRA Main Education International For Private & Personal use only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GROGAMGA स्तोकाः । 'तेभ्यः' सकषायपुलाकजघन्यपर्यायेभ्यः पुलाकस्य ते पर्याया उत्कृष्टा अनन्तगुणाः ॥ ९४ ॥ बउसासेवीण समा, जहन्नया तेहिं पुण अणंतगुणा । उक्किट्ठा ते बउसासेविकसाईणऽणंतगुणा ॥९५॥ 8] 'बउसासेवित्ति । वकुशासेविनोर्जघन्याः पर्यायाः 'समाः' परस्परं तुल्याः, तेभ्यः पूर्वोक्तेभ्यः पुनरनन्तगुणाः । बकुशा सेविकषायिणामुत्कृष्टाः 'ते' पर्यायाः पुनरनन्तगुणाः क्रमेण द्रष्टव्याः ॥ ९५ ॥ अजहन्नुक्कोस समा, णिग्गंथसिणायगाण दुण्हं पि । पुविल्लेहितो पुण, अणंतगुणिया इमे हुंति ॥९॥ 5 'अजहन्नुक्कोस'त्ति । अजघन्योत्कृष्टाः सन्तः 'समाः' परस्परं तुल्याः पर्याया निर्ग्रन्थस्नातकयोईयोरपि । 'पूर्वेभ्यः' पुला-2 कादिपर्यायेभ्यः पुनः 'इमे' निर्ग्रन्थस्नातकपर्याया अनन्तगुणिता भवन्ति ॥९६॥ उक्तं निकर्षद्वारम् । अथ योगद्वारमाह-13 जोगो मणमाईओ, तत्थ चउण्हं हवंति तिणि वि ते। हायस्स होइ भयणा,जंसोजोगी अजोगीय९७४ योगद्वारम् IN 'जोगो'त्ति। 'योगः' मनआदिको जीवव्यापारः, मनोयोगो वाग्योगः काययोगश्चेति त्रिविध इत्यर्थः । तत्र 'चतुर्णा' पुला-18 151 कबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थानां त्रयोऽपि 'ते' योगा भवन्ति । स्नातकस्य पुनः भजना' कदाचिद् योगत्रयवत्त्वं कदाचिच्च नेत्यर्थः, दतथा चाह-यत् 'सः स्नातको योगी अयोगी च भवति, तदिदमुक्तम्-"मणवयकाइयजोगा, एए उसिणायओ अजोगी वि"त्ति ॥ ९७ ॥ उक्तं योगद्वारम् । अथोपयोगद्वारमाह उपयोगद्वासागाराणागारो, उवओगो ते उ दो वि सवेसि । कोहाइआ कसाया, ते पुण चउरो वि आइतिए ॥ ९८॥ 549HARASSSSS रम् JainEducation international For Private Personal use only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञत्तियुतः चतुर्थी ॥ २०१ ॥ 'सागाराणागारो 'ति । उपयुज्यत इति 'उपयोगः ' ग्रहणपरिणामः, स द्विविधः - साकारोऽनाकारश्च । तत्र विशेषग्रह - णाभिमुखः साकारः, सामान्यग्रहणाभिमुखश्चानाकारः । तत्र तौ द्वावप्युपयोगौ सर्वेषां निर्ग्रन्थानां भवतः, सर्वजीवानामुपयोगद्वयस्वाभाव्यात् । उक्तमुपयोगद्वारम् ॥ अथ कषायद्वारमाह- कपस्य- संसारस्यायः - लाभो येभ्यस्ते 'कषायाः ' क्रोधादयश्चत्वारः प्रसिद्धा एव । ते पुनश्चत्वारोऽपि 'आदित्रिके' पुलाकब कुशप्रतिसेवक लक्षणे भवन्ति ॥ ९८ ॥ सकसाए चउरो वा, तिण्णि दुवे वा वि इक्कओ लोहो । खीणुवसंतकसाओ, णिग्गंथो तक्खए पहाओ ॥९९ 1 'सकसाएत्ति । ‘सकषाये' कपायकुशीले चत्वारो वा कषाया भवेयुर्यावदुपशमश्रेण्यां क्षपकश्रेण्यां वा नान्यतमविच्छेदः, सवलनक्रोधे पुनरुपशान्ते क्षीणे वा त्रयः, माने विगते द्वौ वा, मायायां तु विगतायां सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानक एकक एव लोभः । निर्ग्रन्थः क्षीणकषायो वोपशान्तकषायो वा । स्नातकस्तु तेषां कषायाणां क्षय एव भवति ॥ ९९ ॥ उक्तं कषायद्वारम् । अथ लेश्याद्वारमाह लेसा किण्हाईआ, अंततिए तत्थ होइ आइतियं । सकसाओ छसु सुक्का, नियंठि पहाए परम सुक्का॥ १००॥ 'लेस’त्ति । लेश्या कृष्णादिका षड्विधा द्रव्यरूपा भावरूपा च । तत्र भावरूपा विशुद्धाऽविशुद्धा च । विशुद्धा कषायाणामुपशमात्क्षयाच्च जायमाना शुक्ला, क्षयोपशमाच्च तैजसपद्मशुक्लास्तिस्रः । अविशुद्धाश्च रागद्वेषमय्यस्तिस्रः कृष्णनीलकापोताख्या औदयिक्यः, एतन्निमित्तभूता च कर्मद्रव्यलेश्याऽपि षड्विधैव कृष्णादिकसञ्ज्ञा । तत्र शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव कर्मद्रव्यले गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः कपायद्वारम् लेश्याद्वारम् · ॥ २०१ ॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ श्येत्येके, यतो योगपरिणामाभावेऽयोगिनो लेश्याभाव इति योगपरिणामो लेश्या, स च योगः शरीरनामकर्मपरिणतिवि-18 लेश्येति शेष इति । अन्ये त्वाः-सामान्यतः कर्मद्रव्याण्येव द्रव्यलेश्याः, कर्मनिष्यन्दरूपत्वाल्लेश्यानां कर्मस्थितिहेतुत्वात्; योगप- कोऽर्थः |रिणामरूपत्वे योगानां प्रकृतिप्रदेशबन्धहेतुत्वेन तदनुपपत्तेः । न च कर्मनिष्यन्दरूपत्वे लेश्यानां समुच्छिन्नक्रियशुक्लध्यानदशायामपि कर्मचतुष्टयसद्भावेन लेश्यासद्भावापत्तिः, निष्यन्दवतो निष्यन्दध्रौव्याभावात् कदाचिन्निष्यन्दवत्स्वपि वस्तुषु। तथाविधावस्थायां तदभावदर्शनात् । अपरे त्वाः-कार्मणशरीरवत्पृथगेव कर्माष्टकात्कर्मवर्गणानिष्पन्नानि कर्मलेश्याद्र-18 व्याणीति प्रासङ्गिको विवेकः । अथ प्रकृतं प्रस्तुमः-'तत्र' षट्सु लेश्यासु 'आदित्रिकं' पुलाकबकुशप्रतिसेवाकुशीललक्ष णम् 'अन्त्यत्रिके' तैजसपद्मशुक्ललेश्यालक्षणे भवति, तदुक्तम्-"पुलाए णं भंते ! किं सलेसे होज्जा अलेसे होजा? * गोयमा! सलेसे हुज्जा णो अलेसे हुज्जा । जदि सलेस्से हुज्जा से णं भंते ! कतिसु लेसासु हुन्जा ? गोअमा! तिसु विसु द्धलेसासु होजा, तंजहा-तेउपम्हसुक्कलेसाए । एवं बउसे वि, एवं पडिसेवणाकुसीले वि"त्ति । 'सकषायः कषायकुशीलः षट्सु लेश्यासु भवति, तदुक्तम्-“कसायकुसीले पुच्छा, गोयमा! सलेसे होज्जा णो अलेसे होजा । जइ सलेसे हुज्जा से णं भंते! कइसु लेसासु हुज्जा? गोयमा! छसु लेसासु हुज्जा, तंजहा-किण्हलेसाए होज्जा जाव सुक्कलेसाए"। निर्ग्रन्थे एका शुक्ला लेश्या, तदुक्तम्-"णियंठे णं पुच्छा, गोयमा! सलेसे हुज्जा नो अलेसे हुजा। जइ सलेसे हुज्जा से णं भंते ! कतिसु लेसासु हुजा? गोयमा! एगाए सुक्कलेसाए हुज्जा।" 'स्नाते' स्नातके 'परमशुक्ला' शुक्लध्यानतृतीयभेदावसरे या लेश्या सा खलु परमशुक्ला, अन्या तु शुक्लैव, तथाऽपीतरजीवशुक्ललेश्याऽपेक्षया परमशुक्लैवेति ॥१०॥ Jain Educaremaliona For Private & Personal use only bani.jainelibrary.org Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- लेसाभावो व भवे, खुडणियंठिजयम्मि पुण भणियं । लेसा उ पुलागस्सा, उवरिल्लाओ भवे तिणि॥१०१ || गुरुतत्त्वत्तियुतः। 'लेसाभावो वत्ति । लेश्याऽभावो वा भवेत् स्नातकस्यायोगित्वदशायाम् , तदुक्तम्-"सिणाए पुच्छा, गोयमा ! विनिश्चयः चतुर्थी- सलेसे वा हुज्जा अलेसे वा हुज्जा । जइ सलेसे हुज्जा से णं भंते ! कतिसु लेसासु हुज्जा ? गोयमा! एगाए परमसुक्कलेसाए ब्लासः ॥२०२॥ हुज"त्ति । अयं तावद्भगवत्यभिप्राय उक्तः, क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीये पुनरिदं भणितम्-लेश्यास्तु पुलाकस्योपरितन्यस्तिस्रो भवन्ति ॥ १०१॥ हूबउसपडिसेवयाणं, सवा लेसा हवंति णायवा । परिहारविसुद्धीणं, तिण्णुवरिल्ला कसाए य ॥ १०२ ॥ । 'बउस'त्ति । बकुशप्रतिसेवकयोः सर्वा लेश्या भवन्ति ज्ञातव्याः । परिहारविशुद्धिकचारित्रवता 'कषाये' कषायकुशीले | Pाच 'उपरितन्यस्तिस्रः' लेश्यास्तेजःपद्मशुक्ला भवन्ति ॥ १०३ ॥ णिग्गंथसुहुमरागे, सुक्का लेसा तहा सिणाए अ। सेलेसीपडिवण्णो, लेसाईओ मुणेअबो ॥ १०३ ॥ I णिग्गंथ'त्ति । निर्ग्रन्थे सूक्ष्मसम्पराये च चारित्रे तथा स्नातके च शैलेश्यर्वाक् शुक्ला लेश्या भवति । शैलेशीप्रतिपन्नस्तु स्नातको लेश्यातीतो ज्ञातव्यः । आह च वृत्तिकारः-"पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो लेश्या भवन्ति । बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः सर्वा अपि । कषायकुशीलस्य परिहारविशुद्धश्च तिस्र उत्तराः। सूक्ष्मसम्परायस्य निर्ग्रन्थस्नातकयोश्च शुक्लेव केवला भवति ॥२०२॥ शैलेशीप्रतिपन्नोऽलेश्यो भवति" इति ॥ १०३ ॥ नम्वत्र कषायकुशीले षडूलेश्याऽभिधानं कथं युक्तम् ? संयतेषु लेश्यात्रय CAMERASACCAMSAROKES For Private & Personal use only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educatio स्यैवाभिधानात् आद्यानां तितॄणां लेश्यानां चतुर्व्वे गुणस्थानेषु परिसमाप्तेः, यदुक्तम्- "तिथु दुसु सुक्काइ गुणा चर सग तेरिति तत आह---- एएसु ढलेसाणं, भावपरावत्तिओ उ अभिहाणं । एडिओ जं. अण्णपरीए उ लेसाए ॥ १०४ ॥ 'एएसुत्ति । ‘एतेषु पुलाकादिषु निर्धन्थेषु मध्ये यथास्थानं पण मधानं तु 'भावपरावृतिः' भावपरावृत्तिमपेक्ष्व, अवस्थिताः खलु तत्र प्रशस्तास्तिस्र एवं लेश्या पायान सास्येव भावो भवतीत्येतावन्मात्रेणाभिप्रायेणेत्यर्थः । 'यत्' यस्मात्पूर्वप्रतिपन्नश्चारित्री अन्यतरस्यामपि लेश्यायां भणिता, तथा - "सम्मत्त सवासु लहर सुद्धा ती अ चरितं । पुपडिन्नपुण, अन्नयरीय व लेखाए ॥ १ ॥ ति । अत्र हि परखपि लेश्यासु सम्यक्त्व श्रुतप्रतिपचिद्रव्य लेश्यापेक्षयोक्ता, अवस्थित कृष्णादिद्रव्यश्या नारकादेरपि तेजोलेश्यादिद्रव्यसम्पर्कतः प्रतिभागादिमात्रभावेन तेजोलेश्यादिपरिणामसम्भवे तस्या युक्तत्वात् ; भालेश्यापेक्षया तु सम्यक्त्वादीनां प्रतिपद्यमानक उपरितनी तिसृष्वेव भवति । पूर्वप्रतिपन्नस्तु यथापरिणामं लेश्याद्रव्यान्तरसम्पर्कत उपजायमानायामन्यतरस्यामपि भवति, द्रव्यान्तरसम्पर्कतो लेश्यानां परिणामान्तरस्याभिहितत्वात् । तथा च प्रज्ञापासूत्रम् - " से नूणं भंते! कण्ह लेसा णीललेसं पप्प नो तारूवत्ताए नो तावन्नत्ताए नो तागंधत्ताए नो तारसताए नो ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ ? हंता गोयमा ! किण्हलेसा नीललेसं पप्प नो तारूवत्ताए जाव परिणमइ । से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चर किण्हलेसा नीललेसं पप्प जाव णो परिणमइ ? गोयमा ! आगारभावमायाए वा से सिया पलिभागमायाए वा से सिया, : Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ त्तियुतः चतुर्थो ॥२०३॥ कण्हलेसा णं सा णो खलु णीललेसा, तत्थगया उस्सकइ, से तेणटेणं गोअमा! एवं वुच्चइ किण्हलेसा नीललेसं पप्प जाव |गुरुतत्त्वणो परिणमइ ।” अत्राकार एव भाव आकारभावः, आकारभाव एवाकारभावमात्रा, मात्राशब्दः खल्वाकारभावव्यति- विनिश्चयः रिक्तप्रतिबिम्बादिधर्मान्तरप्रतिषेधवाचकः, तेनाकारभावमात्रेणासौ स्यान्नीललेश्या न तु तत्स्वरूपापत्तितः । तथा प्रतिरूपो लासः भागः प्रतिभागः-प्रतिबिम्बमित्यर्थः, प्रतिभाग एव प्रतिभागमात्रा, अत्र मात्राशब्दो वास्तवपरिणामप्रतिषेधवाचकतयार प्रतिभागमात्रयाऽसौ नीललेश्या स्यान्न तु तत्स्वरूपतः, स्फटिक इवोपधानवशादुपधानरूप इति दृष्टान्तः, ततः स्वरूपेण कृष्णलेश्यैवासौ न नीललेश्या, किं तर्हि 'तत्रगतोत्सर्पति' तत्रगता-तत्रस्था स्वरूपस्थेत्यर्थः, नीललेश्यादिकं लेश्यान्तरं प्राप्योत्सर्पति-आकारभावं प्रतिबिम्बभावं वा नीललेश्यासम्बन्धिनमासादयति । एवम्-"णीललेसा काउलेसं पप्प जाव णीललेसा णं सा, णो खलु काउलेसा, तत्थगया उस्सकइ वा ओसक्कइ वा।" तत्रगता-स्वरूपस्थैवोत्सर्पति-कापोतलेश्यासम्बन्धिनं भावमासादयति, अवसर्पति वा-कृष्णलेश्यां प्राप्य तद्भावमासादयतीत्यर्थः । “एवं काउलेसा तेउलेसं पप्प, तेउलेसा पम्हलेसं पप्प, पम्हलेसा सुक्कलेसं पप्प, एवं सुक्कलेसा पम्हलेसं पप्प, एवं किण्हलेसा नीललेसं काउलेसं जाव सुक्क-18 लेसं पप्प, एवं इक्किका सबाहिं चारिजइ"त्ति । तदेवं चारित्रिणोऽपि प्रशस्तलेश्यावस्थितस्य कर्मगतिवैचिच्यादध्यवसायोपनीतकृष्णादिद्रव्यसंसर्गेण कृष्णादिसद्भावोऽप्यविरुद्धः, तदिदमुक्तमुत्तराध्ययनवृत्तावपि-"यदप्येषां संयमित्वेऽपि पड्लेश्याभिधानं तदप्याद्यानां भावपरावृत्तिमपेक्ष्य "अगारभावमायाए वा सिया पलिभागमायाए वा सिया"ला ॥२०३॥ इत्याद्यागमप्रामाण्यादविरुद्धमेवेत्यलं प्रसङ्गेन" इति । ननु यद्येवं पूर्वप्रतिपन्ने लेश्याषट्रस्यापि सम्भवस्तदा कथं न पुला Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANGALORG RECORRECOLOCAUSAREL कादौ तदभिधानं कषायकुशील एव च तदभिधानम् ? इति चेत् , अत्र केचित् पूर्वप्रतिपन्नः कषायकुशील एव गृह्यत इत्याहः, तदुक्तं भगवतीवृत्ती सकषायमेवाश्रित्य-"पुवपडिवन्नओ पुण अण्णयरीए उ लेस्साए" इत्युक्तमिति संभाव्यत इति । इदं पुनरिहावधेयम्-अशुद्धलेश्यासद्भावे चारित्रिणां प्रमत्तताविशेषस्तत्र न तु कषायकुशीलता, प्रेमद्वेषविशेषरूपत्वा|दप्रशस्तलेश्यानाम् , तदुक्तं पूज्यपादैः-"अविसुद्धभावलेसा, दुविहा णियमा उ होइ णायबा । पेज्जम्मि य दोसम्मि य"त्ति । तथा चान्यत्रापि कथं न तत्सम्भवः?, किञ्चान्यस्यापि दशाविशेष आर्तरोद्रध्यानसम्भवस्तावदिष्टः, तत्र चाप्रशस्तलेश्यानामेव सम्भव इति, अत एव षडशीतिके-"छसु सब"त्ति प्रतिकेनाविशेषतः षट्सु गुणस्थानकेषु लेश्याषट्सम्भव उक्तः, उपपत्तिश्चात्राभिहिता-इह लेश्यानां प्रत्येकमसङ्ख्येयानि लोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, ततो मन्दाध्यवसायस्थानापेक्षया शुक्ललेश्यादीनामपि मिथ्यादृष्ट्यादौ कृष्णलेश्यादीनामपि प्रमत्तगुणस्थानकेऽपि सम्भवो न विरुध्यत इति । ततोऽन्यत्रापि प्रमत्तसंयते मन्दानुभावानि कृष्णाद्यध्यवसायानि प्राप्यन्तेऽत एव कृष्णलेश्या मनःपर्यवज्ञानेऽपि पठिता, तथा चागम:-"कण्हलेसा णं भंते! कइसु नाणेसु होजा? गोयमा! दोसु तिसु वा चउसु व"त्ति, एतच्च सूत्रं प्रम|त्ततायां कृष्णादिलेश्यासद्भावमभ्युपगम्योपपादितं वृत्तिकृतेति, ततः कषायकुशीले तथाविधकषायसहकारेण संसर्गिकृ प्णादिद्रव्यजनिता कृष्णादिलेश्याकाररूपोत्कृष्टेति तद्विवक्षणम् , अन्यत्र तु तद्विपर्ययात्तदविवक्षणम् , सतोऽप्यर्थस्य कया-2 चियपेक्षया क्वचिदनभिधानात् , अत एव "परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए"त्ति भगवतीसूत्रे परिहारविशुद्धिके पुलाकातिदेशेन लेश्यात्रयमुक्तम् । अन्यत्र पुनरेतस्य लेश्याद्वारे इत्थमुक्तम्-"लेसासु विसुद्धासुं पडिवज्जइ तीसु ण उण| - ॐॐ For Private & Personal use only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः चतुर्थो 11| 208 11 विनिश्चय लासः सेसासु । पुषपरिवन्नभ पुण, हुजा सधासु वि कहंचि ॥ १ ॥ नश्चंतसंकिलिट्ठासु धोवकालं च हंदि इयरासु । चित्ता गुरुतस्यकम्माण गई, तहावि विवरियफलं देइ ॥ २ ॥ त्ति, बन्धस्वामित्वे कृष्णादिलेश्यात्रयस्याविरतिगुणस्थानकान्तत्वाभिधानमपि - " लेसा तिन्नि पमत्तंता" इति बृहद्बन्धखामित्वानुसारेणोपरिष्टात्तदविवक्षणादेव न तु तत्त्वतः, अन्यथा षडशीतिकेन सह विरोधप्रसङ्गादिति ॥ १०४ ॥ उक्तं लेश्याद्वारम् । अथ परिणामद्वारमाहणिग्गंथभावरूवो, परिणामो होइ वडमाणाई । वŚतहायमाणयवट्ठिअपरिणामया तत्थ ॥ १०५ ॥ सकसायंता णो हीयमाणभावा नियंठयसिणाया । समयमवट्ठियभावो, जहन्न समया उ सत्तियरो१०६ आइलाण चउण्हं, समर्थतमुहुत्तयाई सेसाई । णिग्गंथो अ दुहा वि हु, अंतमुहुतं पवतो ॥ १०७ '' 'forrie'ति । 'निर्व्रन्थभावरूपः ' पुलाकादिपर्यायात्मा वर्द्धमानादिः परिणाम उच्यते, वर्द्धमानो हीयमानोऽवस्थितश्चेति त्रिविध इत्यर्थः । तत्र वर्द्धमानत्वं पूर्वावधिकोत्कर्षशालित्वम्, हीयमानत्वं पूर्वावधिकापकर्षशालित्वम्, अवस्थितत्वं च पूर्वतुल्यत्वम् । तत्र वर्द्धमानहीयमानावस्थितपरिणामाः सकपायान्ता निर्ग्रन्था इत्युत्तरेण सम्बधः ॥ १०५ ॥ ' सकषायान्ताः' पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलकपायकुशीलाः । निर्ग्रन्थस्नातको नो हीयमानभावौ, निर्ग्रन्थस्य हीयमानपरिणामत्वे कषायकुशीलत्वव्यपदेशान्निर्ग्रन्थहानिसामय्या अपकृष्टकपाय कुशीलचारित्रजनकत्वादित्थमेवागमप्रामाण्यात् । स्नातकस्तु हानिकारणाभावादेव न हीयमानपरिणाम इति द्रष्टव्यम् । परिणामाधिकारादेव तत्कालमानमाह--' समयं 'ति, समयमेक T परिणामद्वा रम् 11208 11 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवस्थितो भावो जघन्यः, 'इतरः' उत्कृष्टावस्थितपरिणामः सप्त समयाः॥१०६॥ 'आदिमानां चतुर्णा' पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलकषायकुशीलानां 'शेषो तु' वर्द्धमानहीयमानो भावी जघन्यतः समयमुत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्तम् । तत्र पुलाकस्य जघन्यत एकसमयस्थितिः प्रवर्द्धमानादिभावेऽपि कषायविशेषेण बाधिते तस्मिन् समयानन्तरमेव कपायकुशीलत्वादिगमनेन भवति । बकुशादीनां त्वेकसमयता मरणादपीष्टा, पुलाकस्य तु मरणं नास्ति, उक्तञ्च-"पुलाके तत्थ णो मरइ"त्ति । पुलाको हि कषायकुशीलत्वादिपरिणामप्राप्त्यनन्तरमेव म्रियते, यच्च प्राक् पुलाकस्य कालगमनमुक्तं तद्भूतभावापेक्षयेति । वृद्धिहानिपरिणामयोरुत्कर्षत आन्तर्मुहूर्त्तकत्वं च तथास्वाभाव्यात् । निर्ग्रन्थश्च 'द्विधाऽपि' जघन्यत उत्क-2 प्रतश्चेत्यर्थः, प्रवर्द्धमानो (अन्तर्मुहर्तम् ,) जघन्येनोत्कर्षेण च तस्यान्तर्मुहत्तमेव वर्द्धमानपरिणामस्य भावात् , केवलोत्पत्तौ परिणामान्तरस्य भावात् । घातिकर्मच्छेदव्यापाररूपो हि निर्ग्रन्थपरिणामः, तदुपरमात्मा च केवलिपरिणाम इति व्यापारस्थैर्यलक्षणोऽनयोर्भेद इति ॥ १०७॥ अंतमुहुत्तुक्कोसं, समयं च अवढिओ जहन्नेणं । अण्णे अवट्ठियमिमं, उकिट्ठ विंति सग समया ॥१०॥ II 'अंतमुहुत्तुक्कोसं'ति । उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त स्थितपरिणामानुवृत्तौ, जघन्येन च समयमेकं निर्ग्रन्थत्वप्राप्तिसमयानन्तरमेव || है मरणादवस्थितो निर्ग्रन्थः । अन्ये पुनराचार्याः 'इम' निर्ग्रन्थमुत्कृष्टमवस्थितं सप्त समयान् यावद् ब्रुवते, तदुक्तमुत्तरा ध्ययनवृत्ती-"निर्ग्रन्था जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहर्त वर्द्धमाने परिणामे, अवस्थिते तु जघन्यत एक समयमुत्कृष्टेनागुरुत. ३५ 18न्तर्मुहूर्त्तम् , तथा चागमः-"णियंठे णं भंते! केवतियं वड्डमाणपरिणामे हुज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं । For Private Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व विनिश्चयः ल्लासः स्वोपज्ञवृ- पि अंतोमुहत्तं । केवतियं कालं अवट्ठियपरिणामे हुज्जा? गोयमा! जहन्नेणं एक समय उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं"ति । अप त्तियतः तात्वयमुत्कृष्टतोऽवस्थितपरिणामे सप्त समयानित्याहुः" इति ॥ १०८॥ चतुर्थो- हायस्स वड्डमाणो, अंतमुहत्तं दुहा वि परिणामो । एवं ठिओ जहन्नो, उक्कोसो पुवकोडूणा॥१०९॥ ॥२०५॥ । हायस्सत्ति । 'स्नातस्य' स्नातकस्य 'द्विधाऽपि' जघन्यत उत्कर्षतश्च वर्द्धमानपरिणामोऽन्तर्मुहूर्त्तम् , शैलेश्यामेव तस्य वर्द्धमानपरिणामस्येष्यमाणत्वात् , तस्याश्च द्विधाऽप्यन्तर्मुहूर्तमानत्वात्। जघन्यः 'स्थितः' अवस्थितपरिणामोऽपि तस्य एवं' वर्द्धमानपरिणामवदन्तर्मुहूर्त्तमान एव, यः केवलज्ञानोत्पादानन्तरमन्तर्मुहूर्तमवस्थितपरिणामो भूत्वा शैलेशी प्रतिपद्यते तदपेक्षया द्रष्टव्यः । उत्कृष्टस्तु स्नातकस्यावस्थितपरिणामः पूर्वकोटिरूना, नवभिर्वरिति परिष्कारः । पूर्वकोट्यायुषः पुरुषस्य जन्मतो जघन्येन नवसु वर्षेष्वतिगतेषु केवलज्ञानमुत्पद्यते, ततोऽसौ तदनां पूर्वकोटीमवस्थितपरिणामः शैलेशी यावद्विहरति, शैलेश्यां च वर्तमानपरिणामः स्यादित्येवमुत्कर्षतोऽवस्थितः परिणामः स्नातकस्य देशोना पूर्वकोटिरिति P॥१०९ ॥ नन्वनपगतमोहानां संयमस्थानतारतम्यादृद्धियुक्ता, निरन्तरोत्कृष्टसंयमस्थानधारासम्भवात् ; निम्रन्थस्नातक योस्तु सा न संभवति संयमस्थानावैचित्र्यादित्यत आहदणिग्गंथण्हायगाणं, वुड्डी फलवुड्डिणिम्मिया णेया। णो ठाणंतरजणिया, एगं ठाणं जओ दुहं ॥११०॥ | "णिग्गंथ'त्ति । निम्रन्थस्नातकयोवृद्धिः फलवृद्धिनिर्मिता ज्ञेया, उत्तरोत्तरोत्कृष्टफलधारोपधानरूपमेव तयोः प्रवर्द्धमा ॥२०५॥ in due to i mations For Private & Personal use only ww.jainelibrary.org Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धद्वारमाह बन्धद्वारम् SANSAGAR नत्वमित्यर्थः, न तु स्थानान्तरजनिता उत्कृष्टसजातीयस्थानप्रवाहरूपा, यतो द्वयोरप्येकमेव स्थानं कालभेदेऽपि न स्थानभावेन वैचित्र्यभागिति । अथैकरूपत्वे तस्य फलोत्कर्षभेदोऽपि कथम्? इति चेदुच्यते-प्रयत्नविशेषरूपसहकारिवैचिव्यात् । अथैवं सहकार्यपेक्षाकृतमपि वैचित्र्यं तस्य दुरपह्नवमिति चेत्, न, ईदृशस्य परप्रत्ययवैचित्र्यस्य स्वरूपवैचिच्याप्रयोजकत्वादित्येतदधिकमध्यात्ममतपरीक्षावृत्तावुपपादितमस्माभिः ॥११०॥उक्तं परिणामद्वारम्।अथ बन्धद्वारमाहबंधो कम्मग्गहणं, तत्थ पुलायम्मि सत्त पयडीओ।बउसासेविसु अट्ट वि, सकसाओ छसगअडबंधी १११। 'बंधोत्ति । बन्धः कर्मणां ग्रहण-प्राथम्येनाऽऽदानम् । 'तत्र' वन्धेऽधिकृते पुलाके सप्त प्रकृतयो भवन्ति, अयं खल्वा युर्वर्जानि ज्ञानावरणीयादीनि सप्तैव कर्माणि बध्नाति न त्वायुः, तद्वन्धाध्ययसायस्थानानां तस्याभावादिति । बकुशासे-31 विनोरष्टावपि प्रकृतयो बन्धे भवन्ति, आयुर्बन्धस्यापि तयोः सम्भवात् । 'सकषायः' कषायकुशीलः षड्वन्धकः सप्त-13 बन्धकोऽष्टवन्धकश्च । तत्र सूक्ष्मसंपरायेऽप्रमत्तत्वेनायुर्वन्धाभावाद्वादरकपायोदयाभावेन च मोहनीयवन्धाभावात् षड्| बन्धकः, प्रमत्ततादशायां चायुरबन्धकाले सप्तबन्धकः, तद्वन्धकाले चाष्टबन्धक इति ॥ १११ ॥ है उवसंतखीणमोहो णिग्गंथो वेअणिजमेविकं । पहाओ उ सायवेजं, बंधइ बंधेण रहिओ वा ॥११२॥ 'उवसंतत्ति। उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा निर्ग्रन्थ एकमेव वेदनीयं कर्म बध्नाति, वन्धहेतुषु योगानामेव सद्भावात् । स्मात-18 वेदद्वारम कस्तु सातवेद्यं बध्नाति, बन्धेन रहितो वा, अयोग्यवस्थायां बन्धहेत्वभावादिति॥११२॥उक्तं बन्धद्वारम् । अथ वेदद्वारमाह in Estonia For Private & Personal use only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः चतुर्थी ॥ २०६ ॥ वेओ कम्माणुदओ, तत्थ य अडवेयगा उ चउरो वि । णिग्गंथो सत्तण्हं, चउण्ह पुण वेअगो पहाओ ११३ ॥ 'वे 'ति । वेदः कर्मणामुदयो विपाकानुभवनमिति यावत् । तत्र च विचार्यमाणे 'चत्वारोऽपि' पुलाकवकुशप्रतिसेवककषायकुशीला 'अष्टवेदकास्तु' नियमादष्टकर्मोदयवन्तः । निर्ग्रन्थः सप्तानां वेदकः, मोहनीयस्य क्षीणत्वादुपशान्तत्वाद्वा । स्नातकः पुनश्चतुर्णामघातिकर्मणां वेदकः ॥ ११३ ॥ उक्तं वेदद्वारम् । अथोदीरणद्वारमाहउदयावलिआखेवो, जत्तेणोदीरणं अपत्तस्स । तत्थ पुलाओ छण्हं, उदीरगो तहसहावाओ ॥ ११४ ॥ 'उदयावलिय'त्ति । 'अप्राप्तस्य' उदयावलिकानुपगतस्य कर्मणो यत्नेनोदयावलिकायां क्षेपः उदीरणम् । तत्र पुलाकः षण्णां प्रकृतीनामायुर्वेदनीयवर्णानामुदीरकः 'तथास्वाभाव्यात्' पण्णामेवोदीरणस्वाभाव्यात्; आयुर्वेदनीयप्रकृती खल्वयं नोदीरयति, तथाविधाध्यवसायाभावात्, किन्तु पूर्व ते उदीर्य पुलाकतां गच्छति । एवमुत्तरत्रापि यो याः प्रकृतीर्नोदीरयति स ताः पूर्वमुदीर्य बकुशादितां प्रामोतीति द्रष्टव्यम् ॥ ११४ ॥ अट्ठण्हं सत्तण्ह व बउसासेवी व छह पयडीणं । एवं चिय सकसाओ, उदीरगो वा वि पंच ॥ ११५ ॥ 'अट्ठण्हं'ति । बकुशासेविनावष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदीरकौ, आयुर्वजनां सप्तानां वा वेदनीयवर्णानां षण्णां वा । 'सकषायः कषायकुशीलोऽपि 'एवमेव' बकुशासेविवदेवाष्टानां सप्तानां पण्णां वोदीरकः, वेद्यायुर्मोहनीयवर्जानां पञ्चानां वाऽप्युदीरकः ॥ ११५ ॥ ) गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः उदीरणद्वा रम् ॥ २०६ ॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिग्गंथो पंचण्हं, दोण्हं व उदीरगो विणिदिवो।दोण्हं चेव सिणाओ, उदीरणावजिओ व हवे ॥११॥ है 'णिग्गंथो'त्ति । 'निर्ग्रन्थः' उपशान्तमोहः 'पञ्चानाम्' आयुर्वेदनीयमोहनीयवर्जानां 'द्वयोर्वा' क्षीणमोहो नामगोत्रयो-14 रुदीरको विनिर्दिष्टो भगवद्भिः । स्नातकः 'द्वयोरेव' नामगोत्रयोरुदीरकः, आयुर्वेदनीये तु तस्य पूर्वोदीर्णे एव स्तः, उदीरजाणावर्जितो वा भवेदयोग्यवस्थायाम् ॥ ११६ ॥ गतमुदीरणाद्वारम् । अथोपसम्पद्धानद्वारमाहदाउवसंपया य जहणं, मिलिअंउवसंपजहणमिय सिद्धं। मिलिअंच इमं भणिअं, णिच्चाणिञ्चत्तसिद्धत्थं११७/उपसम्पद्ध नद्वारम् ___ 'उवसंपया य'त्ति । उपसम्पद् नाम-अन्यरूपापत्तिः, सा च हानं च-स्वरूपपरित्याग इति 'मिलितं' समाहारद्वन्द्वमहिम्नेकीकृतम् उपसम्पद्धानमिति रूपं सिद्धम् । मिलितं चेदं भणितं वस्तुनो नित्यानित्यत्वसिद्ध्यर्थम् , उभयोः कथञ्चिदेकत्वस्य समाहारार्थत्वात् , प्रकृतवदन्यत्रापि वस्तुनोऽन्यरूपापत्त्या ध्रुवत्वात् दलस्यैवान्यरूपापत्तेः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्, स्वरूपपरित्यागेन चाध्रुवत्वात् , स्वस्यैव कथञ्चिद्विचलितत्वात् , भिन्ननाशसम्बन्धायोगात्, नाशस्यापि निरुच्यमाणस्योत्पत्तिवत्कथञ्चिद्भिन्नत्वाभिन्नत्वाभ्यामेव पर्यवसानादिति दिक् ॥ ११७ ॥ चइऊण पुलायत्तं, तत्थ कसाई हवे अविरओ वा।वउसत्तचुओ वि तहा, पडिसेवी सावगोवा वि॥११८॥ 1 'चइऊण'त्ति । 'तत्र' उपसम्पद्धाने विचार्ये पुलाकत्वं त्यक्त्वा पुलाकः 'कषायी' कषायकुशीलो भवेत् संयतः सन् है. अविरतो वा' असंयतो वा । तत्र संयतस्य सतः पुलाकस्य कषायकुशील एव गमनम् , तत्सदृशसंयमस्थानसद्भावात् । For Private & Personal use only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः स्वोपज्ञवृ- एवं यस्य यत्सदृशानि संयमस्थानानि सन्ति स तद्भावमुपसंपद्यते मुक्त्वा कषायकुशीलादीन , कषायकुशीलो हि विद्य गुरुतत्त्व विनिश्चयः 18 मानस्वसदृशसंयमस्थानकान् पुलाकादिभावानुपसम्पद्यतेऽविद्यमानसमानसंयमस्थानकं च निर्ग्रन्थभावम्, निर्ग्रन्थस्तु ल्लासः चतुर्थो- कपायित्वं स्नातकत्वं वा याति, स्नातकस्तु सिध्यत्येवेति । बकुशत्वच्युतोऽपि बकुशः 'तथा' पुलाकवदेव कषायी भवेदवि करतो वा, प्रतिसेवी श्रावकोऽपि वा भवेत् ॥ ११८॥ ॥२०७॥ सेवित्तचुओ वउसो, कसायवं सावगो अविरओ वा। अण्णयरोव चउण्हं, सड्ढो वऽजयो कसायचुओ११९ । | 'सेवित्तचुओत्ति । 'सेवित्वच्युतः' प्रतिसेवकत्वच्युतः प्रतिसेवाकुशीलो बकुशो वा भवेत् , 'कषायवान्' कषायकुशीलो वा श्रावको वाऽविरतो वा भवेत् । 'कषायच्युतः कषायकुशीलत्वात्परिभ्रष्टः कषायकुशीलः 'चतुणां' पुलाकबकुशप्रतिसेवकनिर्ग्रन्थानामन्यतरो वा स्यात् 'श्राद्धो वा' देशविरतः 'अयतो वा' अविरतो वा स्यात् ॥ ११९॥ णिग्गंथत्तचुओ पुण, सकसाओ पहायगो अविरओ वा । चइऊण व्हायगत्तं, पहाओ सिद्धो च्चिय हविजा - 'णिग्गंथत्तचुओत्ति । निर्ग्रन्थत्वच्युतः पुनर्निर्ग्रन्थः 'सकषायः' कषायकुशीलो भवेत् , उपशमनिर्ग्रन्थस्य श्रेणितः प्रच्य-3 वमानस्य संयमपरिणामे सति कषायकुशीलस्यैव भावात् । स्नातको वा, क्षीणमोहनिर्ग्रन्थस्य केवलोत्पादे स्नातकत्वस्यैव भावात् , अविरतो वा, श्रेणिमस्तकेषु मृतस्य तस्य देवत्वेनोत्पादात् , तत्र च ध्रुवमसंयतत्वस्य भावात् , न तु संयतासंय ॥२०७॥ तोऽसौ भवति, देवत्वे तदभावात् । यद्यपि च श्रेणिपतितोऽसौ संयतासंयतोऽपि भवति तथापि नासाविहोक्तः, अनन्तर For Private & Personal use only Jain Educatar ina jainelibrary.org Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCC0MMSACROSMANA तया तदभावात , अत एव पुलाकस्यापि कपायकुशीलत्वप्राप्तिक्रमेण श्राद्धत्वभावेऽपि न तदुक्तिरिति वदन्ति । 'स्नातः' स्नातकः स्नातकत्वं त्यक्त्वा सिद्ध एव भवेत् , उक्तञ्च-"सिणाए पुच्छा, गोयमा! सिद्धिगई उवसंपज्जई"त्ति ॥ १२०॥ स्नातकत्वत्यागेन सिद्धत्वप्रात्यभिधाने चारित्रानुवृत्तिभवेन्न वा? इत्यत आहपहायत्तविगमओ च्चिय,णोचारित्तीय णोअचारित्ती। सिद्धो ण चरणमित्ताभावा इय विंतिआयरिया१२१ 'हायत्त'त्ति । 'स्नातकत्वविगमत एवं' अघातिकर्मनिर्जरणविशेषितचारित्रदेशविगमादसंयतत्वानुपसम्पत्तेश्च सिद्धो नोचारित्री नोअचारित्री भणितः, न तु चरणमात्राभावात् : असंयतत्वोपसम्पत्तिप्रसङ्गादिति ब्रुवत आचार्या हरिभद्रसूरयः। तदक्तं शास्त्रवार्तासमुच्चये-"चारित्रपरिणामस्य निवृत्तिनं च सर्वथा । सिद्ध उक्तो यतः शास्त्रे, न चारित्री न चेतरः। ॥” इति । मतान्तरे तु सिद्धानां निषिद्धमेव चारित्रम् , नोचारित्रित्वनोअचारित्रित्वाभिधानस्य नोभव्यत्वनोअभव्यत्वाद्यभिधानवदेवोपपत्तेरित्यधिक मेतद्वृत्तावेवोपपादितमस्माभिः॥१२१॥गतमुपसम्पद्धानद्वारम् । अथ सञ्ज्ञाद्वारमाह-18 सज्ञाद्वारम् सन्ना साभिस्संगं, चित्तं सण्णोवउत्तया णेव । हायणियंठपुलाया, तत्थपणे इंति दुविहा वि॥१२२॥ _ 'सन्नत्ति। सञ्ज्ञा ‘साभिष्वङ्ग नैरन्तर्यादराभ्यां सप्रतिवन्धं चित्तम् , आहारभयमैथुनपरिग्रहसज्ञाभेदम् , तदुक्तम्"सञ्ज्ञानं सज्ञा, मोहाभिव्यक्तं चैतन्यमित्यर्थः” इति । 'तत्र' सज्ञायां विचार्यायां स्नातकनिर्ग्रन्थपुलाका नैव सज्ञोप-18 युक्ताः, आहाराद्युपभोगेऽपि तत्रानभिष्वङ्गात् , आहाराद्यभिष्वङ्गवतामेव सज्ञोपयुक्तत्वात्। ननु निर्गन्धस्नातकावेवंभूतौ For Private LPersonal use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ: युक्ती वीतरागत्वात्, न तु पुलाकः सरागत्वात्, नैवम् , नहि सरागत्वे निरभिष्वङ्गता सर्वथा नास्तीति वक्तुं शक्यते. गुरुतत्त्वत्तियुतः जीवकुशादीनां सरागत्वेऽपि निःसङ्गताया अपि प्रतिपादितत्वात् , अत एवाह-'अन्ये' बकुशादयो द्विविधा अपि भवन्ति, विनिश्चयः चतुर्थो- तथाविधसंयमस्थानाभावात् सज्ञोपयुक्ता नोसञोपयुक्ताश्च भवन्तीत्यर्थः । नन्वेवं बकुशादीनां सज्ञोपयोगकाले साभि- ल्लास: * प्वङ्गं चित्तं प्राप्तम् , तथा च सामायिकव्याघातः, तस्य निरभिष्वङ्गचित्तरूपत्वात् , तदुक्तं साधुधर्मविधिपश्चाशके॥२०८॥ 131"समभावो सामइअं, तणकंचणसत्तुमित्तविसउत्ति । णिरभिस्संगं चित्तं, उचियपवित्तिप्पहाणं च ॥१॥” मैवम् , ध्यान योगरूपस्यैव तस्य तल्लक्षणप्रतिपादनात् , व्युत्थानदशायामाहाराद्यभिष्वङ्गेण तदतिचारेऽपि तच्छक्तिनिवृत्त्यभावादिति ॥ १२२ ॥ व्याख्यानान्तरमाहभगवइचुण्णिइ पुणो, णोसण्णा होइ नाणसपण त्ति।भणियं तत्थ वि नाणप्पाहण्णा अपणपडिसेहो१२३ । सञ्जाव्या_ 'भगवइत्ति । भगवतीचूर्णी पुनः-"पुलाए णं भंते ! किं सण्णोवउत्ते हुज्जा णोसण्णोवउत्ते हुज्जा ? गोयमा! णोस-18 ख्यान्तरम् *ण्णोवउत्ते हुज्जा । बउसे णं पुच्छा, गोयमा! सण्णोवउत्ते वा हजाणोसण्णोवउत्ते वा हज्जा । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । एवं कसायकुसीले वि । णियंठे सिणाए अ जहा पुलाए"त्ति सूत्रव्याख्यानाधिकारे "नोसा ज्ञानसज्ञा भवति" इति भणितं 'तत्रापि' व्याख्याने ज्ञानप्राधान्यादन्यासाम्-आहारादिसञ्ज्ञानां निषेध एवाभिप्रेत इति दृश्यम् । पुलाकनिग्रेभन्थस्नातकाः 'नोसज्ञोपयुक्ताः' ज्ञानप्रधानोपयोगवन्तो न पुनराहारादिसझोपयुक्ताः, बकुशादयस्तूभयथाऽपि, तथावि-IM॥२०८॥ धसंयमस्थानाभावादिति ॥ १२३ ॥ उक्त सज्ञाद्वारम् । अथाऽऽहारद्वारमाह Jain Educationanimonal Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारद्वा SANGANAGANAGAR आहारो कवलाई, चउरो आहारगा तहिं पढमा। आहारओ अणाहारओ व हुजा सिणाओ उ ॥१२४॥ 'आहारों त्ति । आहारः 'कवलादिः' कवलौजोलोमाहाराद्यन्यतरः । 'तत्र' आहारे चिन्त्यमाने 'चत्वारः प्रथमा निम्रन्थाः' पुलाकबकुशकुशीलनिग्रेन्थाख्या आहारका एव न त्वनाहारकाः, विग्रहगत्यादीनामनाहारकत्वकारणानामभावादिति । स्नातकस्तु आहारकोऽनाहारको वा भवेत् , केवलिसमुद्घाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेष्वयोग्यवस्थायां चानाहारकः स्यात् , ततोऽन्यत्र पुनराहारक इति ॥ १२४ ॥ उक्तमाहारद्वारम् । अथ भवद्वारमाह जम्मं भवो जहण्णो, इक्को पंचण्ह सो कमेणियरे। पुलयस्स तिण्णि तिण्हं, तु अट्ट तिन्नेव इक्को य॥१२५॥ RI 'जम्मति । भवो जन्म, तच्च चारित्रयुतं द्रष्टव्यम् । तत्र पञ्चानामपि जघन्यो भव एक एव, जघन्येनैकेनैव भवेन | सिद्धिगमनात् । इतरे' उत्कृष्टाश्च भवाः क्रमेण पुलाकस्य त्रयः, 'त्रयाणां तु' बकुशप्रतिसेवककषायकुशीलानामष्टी, त्रयश्च निर्ग्रन्थस्य, एकश्च स्नातकस्येति । तत्र पुलाको जघन्यत एकस्मिन् भवग्रहणे भूत्वा कषायकुशीलत्वादिकं संय-| तत्वान्तरमेकशोऽनेकशो वाऽनुभूय तत्रैव भवे भवान्तरे वा सिद्धिमवाप्नोति, उत्कृष्टतस्तु देवादिभवान्तरितान् त्रीन भवान् पुलाकत्वमवाप्नोति । बकुशादिस्त्वेकत्र भवे कश्चिद्वकुशत्वादिकमवाप्य कषायकुशीलत्वादिप्राप्तिक्रमेण सिध्यति, कश्चित्त्वेकत्र भवे वकुशत्वादिकमवाप्य भवान्तरेषु तदन्यानि संयतत्वान्यनुभूय सिध्यतीत्यत उच्यते-जघन्येनेकभवन-1 पाहणमुत्कर्पतोऽष्टौ भवग्रहणानि चरणमात्रमाप्यते । तत्र कश्चित्वान्यष्टौ बकुशादितया पर्यन्तिमभवसकषायत्वादियुक्तया भवद्वारम् Inin Education International For Private & Personal use only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः चतुर्थी ॥ २०९ ॥ कश्चित्तु प्रतिभवं प्रतिसेवाकुशीलत्वादियुक्तया पूरयति । निर्ग्रन्थो जघन्यत एकत्र भवग्रहणे स्नातकत्वं प्राप्य सिध्यति, उत्कर्षतश्च देवादिभवान्तरिततया द्वयोर्भवयोरुपशमनिर्ग्रन्थत्वं प्राप्य तृतीयभवे क्षीणमोहः सन् स्नातकत्वं प्राप्य सिध्यति । स्नातकस्य त्वजघन्यानुत्कृष्ट एक एव भव इति ज्ञेयम् ॥ १२५ ॥ उक्तं भवद्वारम् । अथाकर्षद्वारमाहतप्पढमतया गहणं, आगरिसो ते कमेण इक्कभवे । पुलयस्स तिष्णि तिपहं, सयग्गसो दुन्नि इको य॥ १२६ ॥ ‘तप्पढमतय'त्ति । तस्य-अधिकृतव्यक्तिविशेषस्य प्रथमतया ग्रहणमाकर्षः । ते क्रमेणैकस्मिन् भवे पुलाकस्य त्रयः । 'त्रयाणां ' वकुशप्रतिसेवककषायकुशीलानां 'सयग्गसो'त्ति शतपरिमाणेन शतपृथक्त्वमिति भावः, उक्तञ्चावश्यके"सयपुहुत्तं च होइ विरईए "त्ति । भगवत्यां चोक्तम् - " वउसस्स णं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं एक्को उक्कोसेणं सयग्गसो । एवं पडिसेवणाकुसीले वि कसायकुसीले वि" । निर्ग्रन्थस्य द्वावाकर्षो, एकत्र भवे वारद्वयमुपशमश्रेणिकरणादुपशमनिर्ग्रन्थत्वे द्रष्टव्यौ, उपशमक्षपकश्रेणिद्वयं त्वेकत्र भवे न संभवति, उक्तञ्च कल्पाध्ययने -- "एवं अपरिवडिए, सम्मत्ते देवमणुअजम्मेसु । अण्णयरसेढिवज्जं, एगभवेणं च सवाई ॥ १ ॥” सर्वाणि सम्यक्त्वदेशविरत्यादीनि । अन्यत्राप्युक्तम् - " मोहोपशम एकस्मिन् भवे द्विः स्यादसन्ततः । यस्मिन् भवे तूपशमः, क्षयो मोहस्य तत्र न ॥ १ ॥” इति, अयं तावत्सैद्धान्तिकाभिप्रायः । कार्मग्रन्थिका स्त्वाहुः – “य उत्कर्षत एकस्मिन् भवे द्वौ वारावुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते तस्य तस्मिन् भवे नियमादेव क्षपकश्रेण्यभावः, यः पुनरेकवारं प्रतिपद्यते तस्य क्षपकश्रेणिर्भवेदपि " । उक्तञ्च सप्तति| काचूर्णी - " जो दुवारे उपसमसेटिं पडिवज्जइ तस्स णियमा तम्मि भवे खवगसेढी णत्थि, जो इक्कर्सि उवसमसेटिं पडि . गुरुतत्त्वविनिश्चयः लासः आकर्षद्वारम् ॥ २०९ ॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIGADGACADULHAND ६ वजइ तस्स खबगसेढी हुज"त्ति । एकश्च स्नातकस्याकर्षः तस्य प्रतिपाताभावादाकर्षान्तरासम्भवात् ॥ १२६ ॥ उकोसओ जहन्नो, एगो सवेसि दुन्नि नाणभवे। उक्कोसओ अ णेया, सत्त पुलायस्स आगरिसा॥१२७॥ है। 'उक्कोसओत्ति। इदं तावदुत्कर्पत उक्तम्। जघन्यतः पुनः सर्वेषा' पुलाकादीनामेक एवाकर्षः, एकभवे एकवारं पुलाका-1 | दिप्रास्यैव सिद्धिगमनात्। 'नाणभवेत्ति नानाभवेषु सर्वेषां द्वावाकर्षों, एक आकर्ष एकत्र भवे द्वितीयोऽन्यत्रेत्येवं पुलाकादीनामाकर्षद्वयसम्भवात् । उत्कर्षतश्च नानाभवेषु पुलाकस्य सप्ताकर्षा ज्ञेयाः, पुलाकत्वमुत्कर्षतस्त्रिषु भवेषु स्यात् , एकत्र च तदुत्कर्षतो वारत्रयं भवति, ततश्च प्रथमभवे एक आकर्पोऽन्यत्र च भवद्वये त्रयस्त्रय इत्यादिविकल्पैः सप्त ते भवन्तीति१२७ वउसाईणं तिण्हं, हुंति सहस्सग्गसो उ आगरिसा।पंचेव णियंठम्मी, पहायम्मि भवंतरं णस्थि॥१२॥ | 'वउसाईण ति । 'बकुशादीनां त्रयाणां' वकुशप्रतिसेवककषायकुशीलानामाकर्षा भवन्ति 'सहस्सग्गसोत्ति सहस्रपरि-३ माणेन सहस्रपृथक्त्वमिति भावः, तेषां खल्वष्टौ भवग्रहणान्युक्तानि, एकत्र च भवग्रहणे उत्कर्षत आकर्षाणां शतपृथक्त्वमुक्तम् , तत्र यदाऽष्टसु भवग्रहणेषत्कर्षतो नव नव प्रत्येकमाकर्षशतानि भवन्ति तदा नवानां शतानामष्टाभिर्गुणनात् सप्त सहस्राणि शतद्वयाधिकानि स्युरिति । निग्रन्थे पञ्चैवाकर्षाः, निग्रन्थस्योत्कर्षतस्त्रीणि भवग्रहणानि, एकत्र च भवे द्वावाकर्षावित्येवमेकत्र द्वावपरत्र च द्वौ अन्यत्र चैकं क्षपकनिर्ग्रन्थत्वाकर्ष कृत्वा सिध्यतीति । स्नातके भवान्तरं नास्ति, अतो नानाभविकाकर्षचिन्ता तत्र दुरापास्तैवेति भावः ॥ १२८ ॥ कथितमाकर्षद्वारम् । अथ कालद्वारमाह कालद्वारम् For Private Jain Education intentional Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तियुतः स्वोपज्ञव-कालो ठाणं सो खलु, अंतमुहत्तं दुहा पुलायस्स।तिण्ह जहण्णो समओ, उकिट्ठो पुवकोडूणा ॥१२९॥ गुरुतत्त्वII. 'कालो ठाणं'ति । काल इह 'स्थान' तद्भावेनावस्थानमानमुच्यते । स खलु 'द्विधा' जघन्यत उत्कर्षतश्च, पुलाकस्यान्त-15 विनिश्चयः चतुर्थो-II मुहूर्त्तम् , पुलाकत्वं प्रतिपन्नः खल्वन्तर्मुहूर्तापरिपूत्तौ न म्रियते नापि प्रतिपततीति जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मु-14 ल्लासः ॥२१०॥ तम् , एतत्प्रमाणत्वादेव तत्स्वभावस्येति । 'त्रयाणां' वकुशप्रतिसेवककपायकुशीलानां जघन्यः 'समयः' कालः, बकु ४ शादेश्चरणप्रतिपत्त्यनन्तरसमय एव मरणसम्भवात् । उत्कर्षतः पूर्वकोटी 'ऊना' देशोना, सा च पूर्वकोट्यायुषोऽष्टवर्षान्ते चरणप्रतिपत्तौ द्रष्टव्या ॥ १२९॥ |णिग्गंथे अ जहन्नो, समओ अंतोमुहुत्तयं इयरो।इय भगवईइ भणियं, अंतमुहुत्तं दुहा वऽण्णे ॥१३०॥ | 'णिग्गंथे अत्ति। निर्ग्रन्थे च जघन्यः कालः समयः, उपशान्तमोहस्य प्रथमसमय एव मरणसम्भवात्। 'इतरः' उत्कृष्टः कालोऽन्तर्मुहर्तम् , निर्ग्रन्थाद्धाया एतत्प्रमाणत्वात् , इत्येतद्भगवत्यां भणितम , तथा च तदालापः-"णियंठे पुच्छा, गो-18 |यमा ! जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं”ति । अन्ये पुनः 'द्विधाऽपि' जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त निर्ग्रन्थकालं ब्रुवते, तदुक्तमुत्तराध्ययनवृत्ती-“अन्ये तु निम्रन्थेऽपि जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहुर्तमेवेति मन्यन्ते” इति ॥ १३० ॥ पहाए अंतमुहुत्तं, जहन्नओ इयरओ अ पुवाणं । देसूणा कोडी खलु, एगत्तेणं इमे भणियं ॥१३१॥ ॥२१ ॥ HI ‘ण्हाए'त्ति। 'स्नाते'स्नातके जघन्यतः कालोऽन्तर्मुहूर्त्तम् , आयुष्कान्तिममुहूर्ते केवलोत्पत्तौ स्नातकस्य जघन्यत एता-13 SASSAGARMACHAR For Private Personal use only elbrary.org Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SUCES SASURESHEMALERICA वत्कालस्य प्राप्यमाणत्वात् । ‘इतरः' उत्कृष्टश्च कालः पूर्वाणां कोटी खलु देशोना, इदमेकत्वेन पुलाकादीनामेकत्वापेक्षया | भणितम् ॥ १३१ ॥ अथानेकत्वापेक्षयोच्यतेबउसाई सम्बद्धं, पुहुत्तओ तह पुलायणिग्गंथा । इक्कसमयं जहन्ना, इयरे अंतोमुहुत्तं तु ॥ १३२ ॥ | 8] 'बउसाइत्ति । 'पृथक्त्वतः' पृथक्त्वं-नानात्वं ततः-तदपेक्ष्येत्यर्थः, वकुशादयः 'सर्वाद्धं' सर्वकालं भवन्ति, प्रत्येकं 4 | तेषां बहुस्थितिकत्वात् । तथा पुलाकनिम्रन्थौ 'जघन्यौ' जघन्यकालौ एकसमयं भवतः । तत्र पृथक्त्वेन निर्ग्रन्थैकसमयभावना एकत्वपक्षवदेव, निर्ग्रन्थानामुपशान्तमोहे समसमयमेव समयानन्तरं मरणसम्भवात् । पुलाकानां पृथक्त्वेन जघन्यत एकसमयभावना चेयम्-एकस्य पुलाकस्य योऽन्तर्मुहर्तकालः तस्यान्त्यसमयेऽन्यः पुलाकत्वं प्रपन्न इत्येवं जघन्यत्वविवक्षायां द्वयोः पुलाकयोरेकत्र समये सद्भावः, द्वित्वे च जघन्यं पृथक्त्वं भवतीति । 'इतरौं' उत्कृष्टकालौ पुलाकनिग्रन्थौ 'अन्तर्मुहूर्त तु' अन्तर्मुहूर्तमेव भवतः । यद्यपि पुलाका उत्कर्षत एकदा सहस्रपृथक्त्वपरिमाणाः प्राप्यन्ते तथाsप्यन्तर्मुहूर्त्तत्वात्तदद्धाया बहुत्वेऽपि तेषामन्तर्मुहुर्तमेव तत्कालः, केवलं बहूनां स्थितौ यदन्तर्मुहूर्त तदेकपुलाकस्थित्यन्त-14 मुहूर्तान्महत्तरमित्यवसेयम् । निर्ग्रन्थेऽप्येवमेव भावनीयम् ॥ १३२ ॥ उक्तं कालद्वारम् । अथान्तरद्वारमाहपुणपत्तिमज्झकालो, अंतरमेअं तु होइ पंचण्हं । अंतमुहुत्त जहन्नं, उक्किट्ठमवड्ढपरिअट्टो ॥ १३३ ॥ 'पुणपत्ति'त्ति।पुनःप्राप्तिः-प्रतिपतितस्य सतोऽन्यो लाभस्तन्मध्यः कालोऽन्तरमुच्यते । एतत्पुनः ‘पञ्चानां' पुलाकवकुश - अन्तरद्वारा गुरुत.३६ For Private Personal use only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्व| विनिश्चयः ल्लासः स्वोपज्ञवृह प्रतिसेवककषायकुशीलनिर्ग्रन्थानां जघन्यमन्तर्मुहूर्त भवति, पुलाकादिर्भूत्वा ततः प्रतिपतितो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त स्थित्वा त्तियुतः पुनः पुलाकादिर्भवतीति । उत्कृष्टमन्तरं पुलाकादीनाम् 'अपार्द्ध परावतः' अर्द्धमात्रपुद्गलपरावर्त्त इत्यर्थः, अयं च देशोनो चतुर्थो- द्रष्टव्यः, उक्तञ्च भगवत्याम-"पुलागस्स णं भंते ! केवइअंकालं अंतर होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं । है। कालं अणंताओ ओसप्पिणीउस्सप्पिणिओ कालओ, खेत्तओ अवडं पोग्गलपरिअट्ट देसूणं, एवं जाव णियंठस्स"त्ति ॥१३३॥ ॥२१॥ हायस्स णत्थि एअं, समयं तु जहन्नओ पुलायाणं । उकिट्ठमंतरं पुण, तेसिं संखिजवासाई ॥१३॥ __'पहायस्स'त्ति । स्नातस्य एतत्' अन्तरं नास्ति, प्रतिपाताभावात्। एतदेकत्वमधिकृत्योक्तम् । अथ पृथक्त्वमधिकृत्योच्यते-पुलाकानां बहूनां जघन्यतः 'समयं तु' समयमेवान्तरम्। उत्कृष्टं पुनरन्तरं तेषां' पुलाकानां सङ्ख्येयानि वर्षाणि ॥१३४॥ समयं णिग्गंथाणं, जहन्नमुकिट्ठयं तु छम्मासा । सेसाणं तु चउण्हं, धुवत्तओ अंतरं णत्थि ॥१३५॥ I 'समय'ति । निर्ग्रन्थानां जघन्यमन्तरं समयमेकमेव भवति, उत्कृष्टकं त्वन्तरं षण्मासान् यावत् , ततः परमवश्यं श्रेणि प्रतिपत्तेः, उक्तं हि-"सेटिं णियमा छम्मासाओ पडिवजंति"त्ति । 'शेषाणां तु चतुर्णा' बकुशप्रतिसेवककषायकुशीलहै स्नातकानां 'ध्रुवत्वतः' महाविदेहे सदा सद्भावान्नास्त्यन्तरम् ॥ १३५ ॥ उक्तमन्तरद्वारम् । अथ समुद्घातद्वारमाह समुघाय वेअणाई, पुलए वेयणकसायमरणे ते । पंच बउससेवीणं, वेउवियतेअगेहि सह ॥ १३६ ॥ 'समुघाय'त्ति । सं-सामस्त्येन उत्-प्रावल्येन हननम्-आत्मप्रदेशानां बहिनिःसारणं समुद्घातो वेदनादिः सप्तविधः। समुद्धात द्वारम् ॥२१॥ Myimelibrary.oro Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NCCESSACX 'ते' समुद्घाता वेदनाकषायमरणाख्यास्त्रयः पुलाके भवन्ति, पुलाकस्य मरणाभावेऽपि समुद्घातान्निवृत्तस्य कषायकुशी-18 लत्वादिपरिणामे सति मरणभावान्मारणान्तिकसमुद्घाताविरोधात् । 'बकुशसेविनो' बकुशप्रतिसेवाकुशीलयोक्रियतै-| जससमुद्घाताभ्यां सह ते त्रयो मिलिताः पञ्च समुद्घाता भवन्ति ॥ १३६ ॥ आहारएण सहिआ,सकसाए छप्पि णो णियंठम्मि । केवलिअसमुग्घाओ,इक्को च्चिय होइ पहायम्मि१३७/३ 8'आहारएण'त्ति । 'आहारकेण' समुद्घातेन सहिताः ‘सकषाये' कपायकुशीले षडपि समुद्घाता भवन्ति । निर्ग्रन्थे 3 है 'नो' नैव समुद्धाताः, असमुद्धतैरेव निर्ग्रन्थभावस्पर्शात् । स्नातके एक एव केवलिसमुद्घातो भवति ॥ १३७ ॥ उक्त समुद्घातद्वारम् । अथ क्षेत्रद्वारमाहखित्तमवगाहणा सा, लोआसंखिज्जभागि पंचण्हं । पहायस्स असंखिज्जे, असंखभागेसु लोए वा॥१३॥ __ 'खित्त'मिति । क्षेत्रमवगाहना-स्वव्याप्यनभ प्रदेशसंयोग इति यावत् । सा 'पञ्चानां' पुलाकबकुशप्रतिसेवककपायकुशीलनिर्ग्रन्थानां लोकाऽसङ्ख्येयभागे, पुलाकादीनां शरीरस्य लोकाऽसङ्ख्येयभागमात्रावगाहित्वात् । स्नातकस्यावगाहना लोकस्यासङ्ख्येये भागे, शरीरस्थतादशायाम् दण्डकपाटकरणदशायाम् ; असङ्ख्येयेषु भागेषु वा, मन्थिकरणकाले बहोर्लोकस्य व्याप्ततया स्तोकस्य चाव्याप्ततयोक्तत्वाल्लोकस्यासङ्ख्येयभागेषु स्नातकस्य वृत्तिसम्भवात् ; 'लोके वा' सर्वत्र लोकपूरणदशायाम् । उक्तञ्च भगवत्याम्-"सिणाए णं पुच्छा, गोयमा! णो संखेज्जइभागे हुज्जा असंखेजइभागे हुज्जा णो ACCORRUCLEARCCCCCC क्षेत्रद्वारम् Main Education International For Private & Personal use only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो स्पर्शना स्वोपज्ञवृ-12 संखेजेसु भागेसु हुज्जा असंखेज्जेसु भागेसु हुजा सबलोए वा हुज"त्ति । चूर्णिकारस्त्वाह-“सङ्ख्येयभागादिषु सर्वेषु गुरुतत्त्वत्तियुतः भवति" इति ॥ १३८ ॥ समर्थितमवगाहनाद्वारम् । अथ स्पर्शनाद्वारमतिदिशन्नाह विनिश्चयः ल्लास: 18 एवं चेव य फुसणा,णवरि विसेसो उ खित्तफुसणाण।एगपएसं खित्तं,फुसणा पुण पासओ वि हवे॥१३९॥ ॥२१२॥ ‘एवं चेव यत्ति । ‘एवं चैव' क्षेत्रवदेव स्पर्शना, नवरं क्षेत्रस्पर्शनयोस्तु विशेषो वाच्यः, तत्र 'एकप्रदेशम्' अवगाह्यसमव्याप्तप्रदेशावच्छिन्नं नमःक्षेत्रम् । स्पर्शना पुनः पावतोऽपि भवेत् । संयोगमात्रं स्पर्शना, व्यास्याख्यः संयोगस्तु द्वारम् क्षेत्रमिति फलितार्थः । अत एव वृत्तिद्वैविध्यसिद्धौ कात्स्न्यैकदेशविकल्पाभ्यामवयवावयव्यादिभेदाभेदसाधनं सम्मत्यादी व्यवस्थितमिति विचारणीयं प्रामाणिकैः ॥ १३९ ॥ उक्तं स्पर्शनाद्वारम् । अथ भावद्वारमाहभावो ओदइआई,चउरो तत्थ उ खओवसमिअम्मिाहाओ खाइअभावे,उवसमि खइए वणिग्गंथो१४० भावद्वारम् ___ 'भावो'त्ति । भवनं 'भावः' आत्मपरिणाम औदयिकादिः। 'तत्र' विचार्ये 'पुलाकादयः चत्वारः' पुलाकबकुशप्रतिसेव-13 ककषायकुशीलाःक्षायोपशमिके भावे भवन्ति । स्नातकःक्षायिकभावे। निर्ग्रन्थ औपशमिके क्षायिकेवा, तथा च प्रज्ञप्तिः"पुलाए णं भंते ! कतरम्मि भावे हुज्जा ? गोयमा ! खओवसमिए भावे हुजा, एवं जाव कसायकुसीले । णियंठे पुच्छा, गोयमा! उवसमिए वा खइए वा भावे हुजा । सिणाए पुच्छा, गोयमा ! खइए भावे हुज"त्ति ॥१४०॥ ननु पुलाकादीनां क्षायोपशमिकादेरेव भावस्य कथं निर्धारणम् , मनुष्यत्वादीनामौदयिकादीनामपि भावानां संभवात् , अत आह MCGMCCORMCLREASCAMER OSCILOSOS For Private & Personal use only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है णिग्गंथत्तणिमित्तं,भावं अहिगिच्च भणियमेअंतु।मणुअत्ताईण अओ,ओदइआदीण ण णिसेहो॥१४१॥ | 'णिग्गंथत्त'त्ति । निम्रन्थत्वनिमित्तं भावमधिकृत्यैतद्भणितम् , अतो मनुष्यत्वादीनामौदयिकादीनां भावानां सतां न निषेधः, जन्यजनकभावसम्बन्धेन भाववृत्तितैवात्र विचारयितुमुपक्रान्तेति गर्भार्थः । तदाहोत्तराध्ययनवृत्तिकृत्"इह तु पुलाकादयो निम्रन्थाः, निर्ग्रन्थत्वं तु चारित्रनिमित्तमिति तद्धेतुभूतस्यैव भावस्य विवक्षितत्वादित्थमभिधानम् , अन्यथा मनुष्यत्वादेरौदयिकादिभावस्य सम्भवात्" इति ॥ १४१ ॥ उक्त भावद्वारम् । अथ परिमाणद्वारमाह- . परिमाणं संखा सा, पडिवजंताण सयपुहुत्तंता । सहसपुहुत्तंता पडिवण्ण पुलायाण इकाई ॥१४२॥ | 'परिमाणं'ति । परिमाणं सङ्ख्या सा प्रतिपद्यमानानां पलाकानामेकादिः शतपथक्त्वान्ता, अयं भावः-पलाका प्रतिपद्यमानाः कदाचित्सन्ति कदाचिच्च न सन्ति, यदि सन्ति तदा जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षतः शतपृथक्त्वम् । पूर्वप्रतिपन्नपुलाका अपि कदाचित्सन्ति कदाचिच्च न सन्ति, यदि सन्ति तदा जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षतः | सहस्रपृथक्त्वमिति । प्रतिपन्नपुलाकानामेकादिसहस्रपृथक्त्वान्ता सङ्ख्या ॥ १४२ ॥ सेविबउसा वि एवं, पडिवजंता जहन्नमुकिट्ठा। पडिवनगा उणियमा, हवंति कोडीसयपुहत्तं ॥१४३॥ | 'सेविवउसा वित्ति। सेविवकुशा अपि प्रतिपद्यमानकाः एवं' पुलाकवदेव-कदाचित्सन्ति कदाचिन्न सन्ति, यदि सन्ति | तदा जघन्यत एको दो वा त्रयो वा, उत्कृष्टतः शतपृथक्त्वम् । प्रतिपन्नकास्तु जघन्यका उत्कृष्टाश्च नियमात्कोटिशत परिमाणद्वारम् For Private Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृ- पृथक्त्वं भवन्ति ॥ १४३ ॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः इकाई सकसाया, सहसपुहुत्तं सिया पवजंता । उकिट्ठियरे कोडीसहसपुहुत्तं तु पडिवन्ना ॥ १४४ ॥ विनिश्चयः चतुर्थोRT 'इक्काइत्ति । 'सकषायाः' प्रतिपद्यमानकाः कदाचित्सन्ति कदाचिन्न सन्ति, यदि सन्ति तदा जघन्येनैको द्वौ वा | ल्लासः ॥२१३॥ त्रियो वा, उत्कर्षतस्तु सहस्रपृथक्त्वमिति स्यात् , प्रपद्यमानाः सकषाया एकादयः सहस्रपृथक्त्वं भवन्ति । प्रतिपन्नास्तु सकपाया उत्कृष्टा 'इतरे च' जघन्याः कोटीसहस्रपृथक्त्वं भवन्ति ॥ १४४॥ पडिवजंत णियंठा, वासटुं जा सयं तु इकाई । खवगाणं अट्ठसयं, उवसमगाणं तु चउवन्ना ॥१४५॥18 KI 'पडिवजंत'त्ति । निर्ग्रन्थाः प्रतिपद्यमानकाः कदाचित्सन्ति कदाचिन्न सन्ति, यदि सन्ति तदा जघन्येनैको द्वौ वा 8 त्रयो वा, उत्कृष्टतस्तु द्विषट्यधिकं शतम् । क्षपकानामष्टाधिकं शतम् । उपशामकानां तु चतुष्पञ्चाशत् ॥ १४५ ॥ पुवपडिवन्नया जइ, इकाई जाव सयपुहुत्तं ते । पडिवजंता पहाया, अट्ठसयं जाव समयम्मि ॥१४६॥ 1 'पुवपडिवन्नय'त्ति । पूर्वप्रतिपन्ना यदि ते निम्रन्था भवन्ति तदा एकादयो यावत् शतपृथक्त्वम् , जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, उत्कुष्टतस्तु शतपृथक्त्वमित्यर्थः । प्रतिपद्यमानाः स्नातका यदि भवन्ति तदा समये एकस्मिन्नष्टशतं यावत् , | जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, उत्कृष्टतस्त्वष्टशतमित्यर्थः ॥ १४६॥ ॥२१३॥ पुवपवन्ना ते पुण, कोडिपुहुत्तं जहन्नया हुंति । तह उक्कोसा इयरं, पुहुत्तमहियं जहन्नाओ ॥ १४७ ॥ For Private & Personal use only H elibrary.org Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पचपवन्नत्ति । पूर्वप्रपन्नाः पुनः 'ते' स्नातकाः जघन्यकाः कोटिपृथक्त्वं भवन्ति, उत्कृष्टा अपि 'तथा' कोटिपृथक्त्वमेव । अयं पुनर्विशेषः-जघन्यात्पृथक्त्वात् 'इतरत्' उत्कृष्टं पृथक्त्वं प्रतिस्थानमुच्यमानमधिकं मन्तव्यमिति । आह चोत्तराध्ययनवृत्तिकृत्-"इह च जघन्यत उत्कृष्टतस्तु पृथक्त्वमेवोच्यते, तत्र तजघन्यं लघुतरम् , उत्कृष्टं बृहत्तरमिति भावनीयम्" इति ॥ १४७॥ कषायकुशीलपरिमाणे आक्षेपमाह कोडीसहसपुहुत्तं, नणु माणं सवसंजयाण मयं । इह सकसायाण तयं, भणियं एसो खलु विरोहो॥१४॥ आक्षेपः RI 'कोडीसहसपुहत्तति । ननु सर्वसंयतानां मानं कोटिसहस्रपृथक्त्वं मतं "कोडीसहसपुहुत्तं जईण"त्ति वचनात् , इह है। 'तत्' कोटीसहस्रपृथक्त्वमानं 'सकपायाणां' कषायकुशीलानां भणितम् । एष खलु विरोधः पुलाकादिमानानामाधिक्यात् , विशेषसङ्ख्यया सामान्यसङ्ख्याव्याघातादिति भावः ॥ १४८ ॥ समाधत्ते णेवं सकसायाणं, पुहूत्तयं मज्झिमं तु काउं जे। अण्णेसिं संखाए, अंतब्भावो जओ इट्टो॥१४९॥|| समाधान है। वंति। नैवं' यथोक्तं त्वया, यतः सकपायाणां पृथक्त्वं मध्यमं 'कृत्वा' बुद्धावारोप्य 'अन्येषां' पुलाकादीनां सङ्ख्याया से अन्तर्भाव इष्ट इति। न च 'एवमप्युत्कृष्टपरिमाणसमाधानेऽपि जघन्यपरिमाणसमाधानानुपपत्तिः, जघन्यतोऽपि सामान्यसंयतानां कोटिसहस्रद्वयमानत्ववचनात् , कषायकुशीलानामप्येतावन्मानत्वात्' इति वाच्यम् , कषायकुशीलापेक्षयैव सामा-18 न्यमानवचनसम्भावनादवशिष्टाधिक्ये दोषाभावात् , उक्तञ्च भगवतीवृत्तिकृता-"ननु सर्वसंयतानां कोटीसहस्रपृथ RIPARAZIOSAS Jain Educun Hemational Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्वविनिश्चय लासः अल्पबहुत्व द्वारम् स्वोपज्ञवृ- भक्त्वं श्रूयते, इह तु केवलानामेव कषायकुशीलानां तदुक्तम् , ततः पुलाकादिमानानि ततोऽतिरिच्यन्त इति कथन त्तियुतः विरोधः? उच्यते-करायकुशीलानां यत्कोटीसहस्रपृथक्त्वं तद् द्वित्रादिकोटीसहस्ररूपं कल्पयित्वा पुलाकबकुशादिसङ्ख्या चतुर्थो- तत्र प्रवेश्यते, ततः समस्तसंयतमानं यदुक्तं तन्नातिरिच्यते” इति ॥ १४९॥ उक्तं परिमाणद्वारम् । अथाल्पबहुत्वद्वारमाह हीणाहियत्तसंखा, अप्पबहुत्तं णियंठयपुलाया। हाया तिण्णि य थोवा, संखिज्जगुणा कमा तत्थ॥१५०॥ | ॥२१४॥ | 'हीणाहियत्तसंख'त्ति । हीनाधिकत्वसङ्ख्यं परस्परं भेदेष्वल्पबहुत्वमुच्यते । तत्र विचारणीये निर्ग्रन्थाः पुलाकाः स्नातकाः 'त्रयश्च' बकुशप्रतिसेवककषायकुशीलाः क्रमात् स्तोकाः सङ्ख्येयगुणाश्च । इयं भावना-सर्वस्तोका निर्ग्रन्थाः, तेषामुत्कर्षतोऽपि शतपृथक्त्वसङ्ख्यत्वात्; तेभ्यः पुलाकाः सङ्ख्येयगुणाः, सहस्रपृथक्त्वसङ्ख्यत्वात्; तेभ्यः स्नातकाः सङ्ख्येय-1 गुणाः, कोटीपृथक्त्वमानत्वात्; तेभ्यो बकुशाः सङ्ख्येयगुणाः, कोटीशतपृथक्त्वमानत्वात्। तेभ्यः प्रतिसेवनाकुशीलाः सङ्ख्येयगुणाः, तत्रोपपत्तिः सूत्र एव वक्ष्यते; तेभ्यः कषायकुशीलाः सङ्ख्येयगुणाः, तेषां कोटीसहस्रपृथक्त्वमानतयोक्तत्वादिति ॥ १५० ॥ ननु बकुशप्रतिसेवकयोः कोटीशतपृथक्त्वमानतयैवोक्तत्वात्कथं प्रतिसेवकानां बकुशेभ्यः सङ्ख्येयगुणत्वम् ? इत्याशङ्कायामाहबउसपडिसेवगाणं, आवाया जइ वि तुल्लया भाइ।कोडीण सयपुहृत्तं,तहवि विचित्तं ति णो दोसो॥१५१॥ 'बउस'त्ति । बकुशप्रतिसेवकानां 'आपातात्' यथाश्रुतार्थश्रवणमात्राद् यद्यपि तुल्यता भाति तथापि कोटीनां शतपृ. ASSALAMUALOR *S*HSXXSHILASSA ॥२१४। For Private & Personal use only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थक्त्वं परस्परं विचित्रमिति न दोषः, उक्तञ्च-"पडिसेवणाकुसीला संखेजगुण"त्ति। कथमेतत् , तेषामप्युत्कर्षतः कोटीशतपृथक्त्वमानतयोक्तत्वात् ? सत्यम् , किन्तु बकुशानां यत्कोटीशतपृथक्त्वं तद् द्वित्रादिकोटीशतमानम् , प्रतिसेवकानां तु कोटीशतपृथक्त्वं चतुःषट्कोटीशतमानमिति न विरोध इति ॥ १५१ ॥ निग्रंथप्ररूपणायाः परिसमाप्ति निरूपयन्नेतेषां भावनिम्रन्थत्वमवधारयति इय णिग्गंथसरूवं, भणियं सम्मं सुआणुसारेणं । एएसिं अण्णयरो, भावणियंठो मुणेयवो ॥ १५२॥ उपसंहारः IPL इयत्ति । ‘इति' अमुना प्रकारेण निर्ग्रन्थस्वरूपं भणितं 'सम्यग्' यथास्थितं श्रुतानुसारेण' भगवत्याद्यानुकूल्येन । भावनि न्थत्वं च एतेषां' पुलाकादीनामन्यतरो यः कश्चन भावनिर्ग्रन्थो ज्ञातव्यः ॥ १५२ ॥ ६ इयरे दवणियंठा, तं दत्वत्तं तु हुज्ज दुविअप्पं । एगं अप्पाहण्णे, इयरं पुण भावहेउत्ते ॥ १५३ ॥ तिव्यनिम्रन्थ त्वं द्रव्यपः RI 'इयरे'त्ति । 'इतरे' पुलाकादिवहिर्भूता द्रव्यनिर्ग्रन्था भवन्ति, निर्ग्रन्थभावविरहात् । तत्तु द्रव्यत्वं द्विविकल्पं भवेत् , दार्थश्च एकम् 'अप्राधान्ये' भावविपरीतत्वेनाप्रशस्तत्वे, इतरत्पुनः भावहेतुत्वे, प्राधान्यभावहेतुत्वविषयभेदाद् द्रव्यपदशक्तिः । सामयिकी द्विधेति भावः ॥ १५३ ॥ एतद्विषयविभागमाहणिद्धंधसाण पढम, पासत्थाईण पाववुद्धिकरं । संविग्गपक्खिआणं, वितियं मग्गाणुसारीणं ॥१५४॥ RRICRANG For Private & Personal use only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तियुतः चतुर्थी ॥ २१५ ॥ 'णिद्धंधसाण’त्ति । ‘निद्धन्धसानां' प्रवचननिरपेक्षप्रवृत्तीनां पार्श्वस्थादीनां 'पापवृद्धिकरं साधुत्वभ्रमजननद्वारा लोकानामात्मनां च क्लिष्टकर्मप्रवर्द्धकं 'प्रथमम्' अप्राधान्यलक्षणं द्रव्यत्वम्, सारविरहित बाह्यरूपस्याप्रधानत्वात् । 'द्वितीयं' भावहेतुत्वलक्षणं द्रव्यत्वं 'मार्गानुसारिणां संयमानुकूलप्रवृत्तिमतां संविग्नपाक्षिकाणाम् ॥ १५४ ॥ एतेषां मार्गानुसारित्वमेव समर्थयति मग्गाणुसारिणो खलु, संविग्गा सुद्धमग्ग कहणगुणा । इय एएसिं वयणे, अविगप्पेणं तहक्कारो ॥१५५॥ ‘मग्गाणुसारिणो’त्ति । ‘संविग्नाः' संविग्नपाक्षिकाः 'खलु' निश्चितं शुद्ध मार्गकथनगुणान्मार्गानुसारिणः । न हि चारित्ररूपशुद्धमार्गानुसारित्वं विना शुद्धमार्गकथकत्वं संभवति, 'इति' अनेन शुद्धमार्गकथनगुणेन हेतुना 'एतेषां' संविग्नपाक्षिकाणां वचनेऽविकल्पेन तथाकारः पञ्चाशकादौ प्रतिपादित इति शेषः ॥ १५५ ॥ इत्थं च भावनिर्ग्रन्थानामुग्रविहारिणां द्रव्यनिर्ग्रन्थानां च संविग्नपाक्षिकाणामुभयेषामपि यथायोगं गुरुत्वं तरतमभावेन संसिद्धमित्याहभावणियंठाण तओ, णेयं अविगप्पगज्झवयणाणं । संविग्गपक्खिआणं, दवणियंठाण य गुरुत्तं ॥ १५६ ॥ 'भाव' ति स्पष्टा । नवरम् -- ' अविगप्पगज्झवयणाणं ति अविकल्पतथाकारविषयवचनानामित्यर्थः, अयमेव गुणः साधारणगुरुत्वगमक इति भावः ॥ १५६ ॥ ननु यद्येवं द्रव्यनिर्ग्रन्थानां संनिपाक्षिकाणामपि गुरुत्वं व्यवस्थापितं तदा गुरुतत्त्वनिश्चयार्थमनेकगुणान्वेषणाऽकिञ्चित्करी, अकिञ्चित्करश्च तदर्थोऽयं प्रयासः इत्याशङ्कायामाह - . गुरुतत्त्वविनिश्चयः ल्लासः भावनिर्म न्थसंविम पाक्षिकयो गुरुत्वम् ॥ २१५ ॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकृतिसाफल्यम् गुरुतत्तणिच्छओ पुण, एसो एक्काइगुणविहीणे वि।जा सुद्धमन्गकहणं, ताव ठिओ होइ दट्ठवो॥१५७॥ | 'गुरुतत्तत्ति । गुरुतत्त्वनिश्चयः पुनरेष एतावता महता प्रवन्धेन क्रियमाणः परीक्षणीये गुरावनन्तानसाधारणगुणानवगाहमानोऽपि कालादिवशादेकादिगुणविहीनेऽपि चण्डरुद्राचार्यादिन्यायेन कतिपयोत्तरगुणहीनेऽपि तिष्ठंश्चारित्रापेक्षया मूलगुणसत्तामपेक्षमाणोऽपि सम्यक्त्वपक्षापेक्षया यावच्छुद्धमार्गकथनं तावस्थितो द्रष्टव्यो भवति, उक्तश्चागमे|"ओसन्नो वि विहारे, कम्मं सोहेइ सुलहबोही य । चरणकरणं विसुद्धं, उवव्हतो परूवंतो॥१॥"त्ति । अत्र हि शुद्धमा प्ररूपणरूपगुरुलक्षणेनैव कर्मशोधनं सुलभवोधित्वं च प्रतिपादितम् , किञ्च-"जो जेण सुद्धधम्मम्मि ठाविओ संजएण गिहिणा वा । सो चेव तस्स जाणह, धम्मगुरू धम्मदाणाओ॥१॥” इत्यादिवचनामृहिणोऽपि यदि धर्मदानगुणेन धर्मगुरुत्वं प्रसिद्धं तदा संविग्नपाक्षिकाणामखिलधर्ममर्यादाप्रवर्तनप्रवणानामुचिततरमेव धर्मगुरुत्वमित्युच्चदृष्ट्या विचारणीयम् ॥ १५७॥ एतदेव समर्थयतिसंसारुद्धारकरो, जो भवजणाण सुद्धवयणेणं । णिस्संकियगुरुभावो, सो पुज्जो तिहुअणस्सा वि॥१५८॥ | 'संसारुद्धारकरोत्ति स्पष्टा ॥ १५८ ॥ तदेवं गुरुतत्त्वं विनिश्चित्यैतद्न्थफलमाहपवयणगाहाहिं फुडं, गुरुतत्तं णिच्छियं इमं सोउं। गुरुणो आणाइ सया, संजमजत्तं कुणह भवा!॥१५९॥ 'पवयणगाहाहिति । प्रवचनगाथाभिः क्वचित् सूत्रतोऽप्यर्थतश्च सर्वत्राभिन्नाभिरिदं गुरुतत्त्वं निश्चितं श्रुत्वा गुरोरा ग्रन्थफलम् For Private Personel Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो स्वोपज्ञवृ- या सदा 'संयमयत्न' चारित्रपालनोद्यमं कुरुत भव्याः !, गुर्वाज्ञया चारित्रपालनस्यैव परमश्रेयोरूपत्वात् ॥ १५९॥ गुरुतत्त्वत्तियुतः उक्तमेव समर्थयति विनिश्चयः है गुरुआणाइ कुणंता, संजमजत्तं खवित्तु कम्ममलं । सुद्धमकलंकमउलं, आयसहावं उवलहंति ॥१६०॥ ल्लासः | 'गुरुआणाइत्ति । गुर्वाज्ञया संयमयत्नं कुर्वन्तः सर्वथा गलिता-सद्महत्वेन 'कर्ममलं' अध्यात्मप्राप्तिप्रतिवन्धककर्ममालिन्यं | क्षपयित्वा 'शुद्धं पर्यायक्रमेण तेजोलेश्याऽभिवृद्ध्या शुक्लशुक्लाभिजात्यभावादतिनिर्मलं 'अकलई'क्रोधादिकालिकानाकलिततया कलङ्करहितं अतुलं सहजानन्दनिस्यन्दसुन्दरतयाऽनन्योपमेयमात्मस्वभावमुपलभन्ते॥१६०॥ ततः किं स्यात् ? इत्याह|विन्नाणाणंदघणे, आयसहावम्मि सुद्द उवलद्धे । करयलगयाइं सग्गापवग्गसुक्खाइं सवाइं॥ १६१॥ | 'विन्नाणाणंदघणे'त्ति । विज्ञानानन्दघने आत्मस्वभावे 'सुष्टु' यथावस्थितद्रव्यगुणपर्यायावलम्बित्वेनोपलब्धे सति सर्वाणि स्वर्गापवर्गसुखानि करतलगतानि, आत्ममात्रप्रतिबन्धविश्रान्तसखसिन्धमग्नस्य योगिनो नियमतः स्वगोपवर्गभागित्वादिति भावः ॥१६१ ॥ लब्धात्मस्वभावस्य योगिनस्तादात्मिकसुखमेव समर्थयति आयसहावे पत्ते, परपरिणामे य सवहा चत्ते । वाहिविगमे व सुक्खं, पयर्ड अपयत्तसंसिद्धं ॥ १६२॥ BI 'आयसहावे'त्ति । आत्मस्वभावे प्राप्ते परपरिणामे च सर्वथा त्यक्ते परपरिणामजकषायनोकषायादिमानसदुःखबीजोच्छे-13 दाद्व्याधिविगम इवाप्रयत्नसंसिद्धं सुखं प्रकटं भवतीति शेषः, उक्तञ्च वाचकचक्रवर्तिना-"संत्यज्य लोकचिन्तामात्मप HALARSAMACANSAR ॥२१६। Jain Educational For Private Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिज्ञानचिन्तनेऽभिरतः। जितरोषलोभमदनः, सुखमास्ते निर्भरं साधुः ॥ १॥” इति । तथा “प्रशमितवेदकषायस्य हास्य-I रत्यरतिशोकनिभृतस्य । भयकुत्सानिरभिभवस्य यत्सुखं तत्कुतोऽन्येषाम् ? ॥२॥” इति ॥१६२॥ नन्वीदृशं सुखं क्रियामा-181 त्राद्भविष्यति? इत्यत आहसुद्द विजयमाणाणं,ण तयं किरियामलम्मि संतम्मि।जं खल्लु उवसमसुक्खं,लद्धसहावस्स णाणिस्स१६३ ।। 'सुट्ठ वित्ति । 'सुष्टुपि' मासक्षपणादिकरणेनात्यर्थमपि यतमानानां 'क्रियामले' मदमात्सर्यादिरूपे सति न, तदुपशमसुखं भवति, यत् खलु लब्धस्वभावस्य ज्ञानिनः प्रादुर्भवति, तस्मात् क्रियामलापनायकत्वाद् ज्ञानमत्यन्तमभ्यहितमितिका भावः ॥ १६३ ॥ तत्किं ज्ञानमात्र एव सन्तोष्टव्यम् ? इत्याशङ्कायामधिकारिभेदेनोचितोपदेशमाहसितम्हा गुरुआणाए, कायद्या नाणपुश्विना किरिया । अब्भासो कायहो, सुहनाणे वा जहासत्ति ॥१६॥ 'तम्हत्ति । तस्मात् शुद्धचारित्रिणा गुर्वाज्ञया ज्ञानपूर्विका क्रिया कर्त्तव्या । संविग्नपाक्षिकेण शुभज्ञाने वा यथाशक्त्यभ्यासः कर्त्तव्यः, अधिकारिवैचित्र्यात्पक्षद्वयेऽपि न दोष इति सर्वमवदातम् ॥ १६४ ॥ किंबहुणा इह जह जह, रागद्दोसा लहुं विलिजंति। तह तह पयट्टिअवं, एसा आणा जिणंदाणं ॥ १६५ ॥ गुरुत. ३० ६ गुरुतत्तणिच्छयमिणं, सोहिंतु बुहा सया पसायपरा । पवयणसोहाहेडं, परगुणगहणे पवदंता ॥ १६६ ॥ SOSSES ROUSSOS -CSCANCCCASICALCASS Jain Education inter Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवत्तियुतः चतुर्थो॥२१७॥ इति महामहोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्रीलाभविजयगणिशिप्यमुख्यपण्डितश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यपण्डितश्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकेण पण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेण पण्डितयशोविजयेन विरचिते गुरु तत्त्वविनिश्चये चतुर्थे उल्लासः सम्पूर्णः ॥ ४॥ गुरुतत्त्व विनिश्चयः ॥ इति महामहोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्रीलाभाविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यशेखरपण्डितश्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकेण पण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेण पण्डितयशोविजयेन विरचितायां स्वोपज्ञ गुरुत त्वविनिश्चयवृत्तौ चतुर्थोल्लासविवरणं सम्पूर्णम् ॥ ४॥ यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रसन्नाशयाः, भ्राजन्ते सुनया नयादिविजयाः प्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः। प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरस्तेन न्यायविशारदेन रचितो ग्रन्थः श्रिये स्तादयम् ॥१॥ ॥ समासश्चायं ग्रन्धः । ग्रन्थाग्रम् ८०००। NCREAC-4-4COMCOEACCOR SSACRAC उपसंहारः ॥२१७॥ JainEducation For Private Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाद्यचरणम्. अककरणावि दुबिहा अग्गग्धाओ मूलं अश्चंत णिसे हत्थं अच्छविओ अवहओ अजहनुकोस समा अट्ठण्हं सत्तण्ह व अट्ठमछट्ठच उत्थं अहमदसमदुवालसअट्ठविहं पच्छित्तं अट्ठा हिअवासाणं उल्लासः २ १ १ ४ गुरुतत्त्वविनिश्चयमूलगाथाऽकाराद्यनुक्रमः । ९० अणुवाइ ती णजइ १३० अणु मिलिआणं ३९ अ उ कककुरुअं ४ ९६ अण्णोवगमे पच्छा ४ ११५ अण्णं अभिधारेडं २ २८७ अतिसंथरणे इयरे R १ १ गाथा. गाथाद्यचरणम् २९७ अणवद्विअमुस्तुतं २८१ अत्था वि हुंति एवं १८७ अत्थि य से सावसेसं १४९ अस्थि हु व सहग्गामा उल्लासः गाथा. गाथाचचरणम्. ३ ३ १ ३ २ ३ २ २ १ २ . ११७ अथिरो अ होइ भावो १०६ अन्नन्ना समिईणं ५२ अपच्छिणम्मि लहुआ ९४ अपमत्तस्स य गच्छं २३१ अपरिण्णा कालाइसु १३ अपरिस्सावित्ति पयं १८६ अपुत्रं दुहूणं २११ अभुट्टिए काउं १०२ अभिधारणकालम्मि य १९० अमिधारंतो उवसं उल्लासः गाथा. १ १२७ २ ११३ 9 ܗ ३ १ १७५ २ ४५ ४ ४४ ३ १४४ २ ८१ २ २५१ २ २५७ २२ 22-2 ২6 अ । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु० मूल गाथा ॥ १ ॥ गाथाद्यचरणम्. अम्हारिसा वि मुक्खा अलसे वा परिवारे अववाएणय दोसा अववाएणं कत्थइ अविरागा जहण्णा अविवित्तो परिवारो अविसजिओ वि गच्छे अन्वत्तो अविहाडो असमाहिडाणा खलु असहं तु पप्प इकि असुइट्ठाणे पि अह अण्णा प अहछंदस्स परूवण उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १ ९ अहछंदस्सन्भुट्ठा २ ८३ अछंदे पडिवत्ती ३ १ ४ ४ ३ २ १ २ ३ २ ३ १८६ अठवणाभावेणं ८१ अह ण कओ तो पच्छा ८४ अति दुब्विया १९ अहवा अच्छविओ खलु २४ अहवा अट्ठारसगं २६४ अहवा आहारादी ९६ अहवा कजाकज्जे २८९ अहवा जेणं सोही १२६ अंतमुहुत्तपमाणय ९३ अंतमुत्तुको सं १०३ अंतोठियाण खित्तं उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १२४ अंतो भयणा बाहि १०२ १६९ आइण्णमणाइणं २३३ आइपया घेत्तव्वा १२६ आइल्लाण चउन्हं ४० आगभववहारीण वि ३ ३ ३ २ २ ४ २ २ २ २ ४ ४ २ : आ. २७४ आगम सुअ आणा धा ६३ आगमसुआइँ सुत्तं ३२० आणाओ जिनिंदाणं २९ आबालभावओ जे ३५ आभव्वं णिताणं १०८ भवं पुण तत्थ वि २१५ आरआई तम्हा उल्लासः गाथा. १ १११ ३ ३ ९५ ४ १०७ १ १८१ ४ ५५ १० ४ २ २ ३ or ७८ ४ २ २ २ १५० २६५ २४७ ३२७ डकाराद्य नुक्रमः । अ-आ । ॥१॥ ५। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासः له له ه २ २३० उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ३ २६ आसासो वीसासो ४ १६२ आसुक्कारोवरए १ १५७ आसेवणापुलाओ १ १६२ आहायरिओ एवं २ १२१ आहारएण सहिआ १ १८४ आहारमाइगहिओ १ १८६ आहारेउं सव्वं २ १७ आहारो कवलाई २ ३३४ आहारोवहिसेज्जा م ه गाथाधचरणम्. आयरिए कालगए आयसहावे पत्ते आयारपकप्पो या आयारस्स उ उवरि आयारे वटुंतो आलोअणपडिकमणे आलोअणा विवेगा | आलोइजा काले आलोयणकालम्मि वि आवन्नाणं दिज्जा आवलिआ मंडलिआ م उल्लास: गाथा. गाथाद्यचरणम्. २ १३४ इकं चिय अट्ठारस२ १०४ इच्चेयं पंचविह ९ इच्चेसो पंचविहो '२ ३५ इच्छा अमुंडिएमुं १३७ इच्छा तुरिए भंगे २ ८९ इट्ठविसयाणुगाण य २५ इण्हि पुण जीवाणं ४ १२४ इण्हि पुण वत्तव्वं २ ८२ इत्तरसामाइअछे इत्तु च्चिय पडिकमणं ४ १४४ इत्तो अ अप्पहाणे २ २४५ इचो अ व्वओ भा१ ३१ इत्तो उवसंपज्जा आ-इ। CASSOCALMORADARS ع م قه م مه سه २ २१० इकाई सकसाया , २ २५६ इक्विका वि य दुविहा ३ ८५ इको य णोवलब्भइ له Xआवस्सगसज्झाए سه Main Education International For Private & Personal use only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु०मूल ऽकाराद्य. नुक्रमः। गाथा उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ४ १५२ इह भेओ पज्जाओ ४ १२ इहरा तुसिणीयत्तं ३१५ इहलोअम्मि अकित्ती ४ ५६ इहलोअम्मि य कित्ती ॥२॥ | गाथाद्यचरणम्. इत्तो कालियसुत्ते इत्तो गुरुकुलवासो इत्तो च्चिय तिविगप्पो इत्तो पण्णत्तीए इत्तो महाणिसीहे इत्तो लक्खणजुत्तो इत्थ दसाभेयकओ इत्थमफासुअणीरं इत्थ सकोसमकोसे इत्थं ववहारणओ इत्थं संजमसेटिं इय उजएयरगए इय एस पुन्वपक्खो उल्लास: गाथा. गाथाद्यचरणम्. ४९ इय णिग्गंथसरूवं ११ इय दुविहो उ पुलाओ ६६ इय पच्छित्तणिमित्ता १ ५७ इय भगवईइ भणियं १३३ इय भणियं चरणहा ७७ इयरगुणाणुगमम्मि वि ४५ इयरामिणिवेसाहिय २६ इयरे दवणियंठा २ १८९ इयरे भणंति बीअं ३ १४१ इय ववहारपसिद्धी १ १३४ इय सुत्तप्पामण्णा ३ १८७ इय हिट्ठमुहे हासे १ ३५ इहपरलोएसु हिओ Mmm co-on commccc SAEECRECORRECORPOS ६४ उक्कोसओ जहन्ना १ ५१ उक्कोसेण दस त्ति य ४ १५३ उज्झियघरवासाण वि .२ २४१ उत्तरगुणसेवा वि हु १ २०७ उत्तरगुणाण विरहा ४ ६३ उत्तरगुणातियारा २ २९० उत्तरगुणेसु बउसो ३ १ उदयावलिआखेवो RCMCN ॥२॥ Main Education International For Private Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाद्यचरणम्. उद्धारणा विधारण | उप्पन्न कारणम्मी | उब्भामिआइ जायइ | उम्भाभिय पुवुत्ता | उम्मग्गदेसणाए २ १२९ २ १५९ २ २४३ CONCENGALOCCASSROO उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. २ २७ उस्सुत्तमायरंतो ३ १४६ उस्सुत्ता जा दुविहा २ २३६ ऊणगसयभागेणं २ २४० १ ६० एएण अण्णठवणा २ १४४ एएण विआरेणं ४ २१ एएसिं पंचण्हं २ २६६ एएसु छलेसाणं ४ ११२ एएहिं दिहिवाए ४ ११७ एक्कासणपुरिमड्डा १ १२३ एगदुगपिंडियाण वि उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ३ ९९ एगागिस्स उ दोसा ३ ११३ एगोऽणुग्गहखित्ते ३ १२९ एगो साहू एगा एते उ कञकारी ३ १८१ एमाइ उत्तरुत्तर१ ७७, एमेव अहाछंदे ३ १२० एमेव देसिअम्मि वि ४ १०४ एमेव य तुल्लम्मि वि १ ५० एयगओ अ विसेसो १ १९८ एयमजुत्तं जम्हा २ १९८ एयाई अकुव्वतो २ २१६ एयं च एत्थ रूवं १ २४ एयं चरित्तसेटिं ormed medam ३ ४१ Pउ-ऊ-ए। २ २२७ २ ३२३ |उवगरणदेहचुक्खा उवणट्ठाइविगप्पा | उवसंतखीणमोहो उवसंपया य जहणं उस्सग्गओ अ एवं | उस्सप्पिणिआई खलु | उस्सुत्तमणुवइह ३ १३५| ३ १०० एगयरम्मि वि ठाणे For Private Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऽकाराद्यनुक्रमः। ام به سد سد गुरु०मूल- गाथाद्यचरणम्. गाथा एयं ता वासासुं एयं पसंगभणियं | एवमसंतो वि इमो एवं अत्थपएणं एवं आयरिआदी एवं खु सीलवंतो एवं चेव य फुसणा | एवं णिहोडणाए | एवं ता जीवंते एवं नाणे तह दंएवं पि अ अणुवरए एवं बहुगुरुपूजा दिएवं विहाण वि इहं उल्लासः याथा. गाथाद्यचरणम्. २ २८८ एवं सदयं दिजति २ २४४ एवं सीमच्छेवं १ ६८ एवं सुओवएसा १ ७६ एवं सुहसंकप्पो १६८ एसणदोसे सीयइ ३ १३१ एस समुक्कसिअव्वे ४ १३९ एसेव गमो णियमा २ १०० एसेव य दिटुंतो २ २५० एसो पायच्छित्ते २ २५२ एसो य पुरिसकारो مع उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १ २०० ओसन्नचरणकरणे २ १९४ ओसप्पिणीइ उस्स२ १६५ ओहावियओसन्ने ३ १७८ ओहाविय कालगए १ १०९ २ १०५ कज्जम्मि कीरमाणे ३ ३५ कज्जाकज जयाजय २ ३२४ कप्पट्ठिआदओ वि य २ ३३५ कप्पम्मि इमं सव्वं २ ८५ कप्पस्स उ णिजुति RCMCGLEONEX م م بم له ओ لم له १ १७ ओरालाइ सरीरं १ १२६ ओसण्णे बहुदोसे ४ २ ७३ कप्पे अ अकप्पम्मि य ४९ कप्पो ठियाऽठियप्पा به an Education internations For Private LPersonal use only. wanamainelorery.org Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाद्यचरणम्. कम्मक्खयद्रुमब्भुकम्माण णिजरट्ठा कम्मा परिस्वणओ कम्मोदय भेअकओ ककरणा विदुविहा | कयसुअनाणा विक्खा कल्ला गमावले कह तस्सासबलत्तं कहिए कहिए कज्जे कामं उभयाभावो कायन्वो उद्देसो कारणजयणाजणिए कारणमकारणं वा Jain Educator international उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ४ २३ कालोइअगुणजुत्ते २ ७१ कालो ठाणं सो खलु ४ ४३ किरियासु विसीअंतो १ २ २ १ ४ २ ३ २ २ २ ९९ हि पुण एवं सोही २९६ कि सुपरिच्छियकारी ७ किं गुणवियाला १९७ किं बहुणा इह जह जह ६० किं वा अकपिणं १५३ कुगुरूणं सिरिकारं १७४ कुइ वयं धणहेडं २०३ कुणमाणो वि य कडणं १६९ केइ पुष्प अहिगयाणं ३१७ केई भणति ओमो उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १ १५२ केवलमणपज्जवना ४ १२९ केसिंचि णाममित्ता ३ ८४ कोडी सहसपु १ १६७ को व कुण ववहारं २ १३२ कोहाइएहि अण्णे ३ १६० कंकडुए कुणिमे तह ४ १६५ कंकडुओ सो जस्स उ ३ १०९. कंडगमित्ताणंतं १ १ १ २ २ ख ११९ खणचि ण खमं काउं ११५ खार हडी हरमाला २९८ वित्तमवगाणा सा २६८ खितम्मि खित्तिअस्सा उल्लासः गाथा. २ ३९ १ १७३. ४ १४८ १ २९ ४ ३२ २ १४८ २ १ ३ २ ४ ३ १४९ १३८ १३२ ४८ १३८ १८ क ख । w.jainelibrary.org Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु०मूल- गाथा उल्लास: गाथा. २ १०३ ऽकाराद्य नुक्रमः। ॥४॥ गाथाद्यचरणम्. खित्ते सुअ सुहदुक्खे खित्तं कम्मधराई खुड्डागणियंठिन्जे खेत्तविवजिअमञ्च खेत्ते उवसंपन्ना खेत्तं गओ अ अडविं २ २८३ ३ उल्लास: गाथा. गाथाधचरणम्. २ २७९ गुरुदिन्ना वि हु एसा १ ६३ गुरुबलियत्तमईए २ १४० गुरु लहुअछपणमासा २ २६२ गुरुलहुपणगा आयं गुरुलहुपणवीसइआ २ २५४ गुरुलहुपण्णरसाओ गुरुलहुलहुसापक्खा or NEURNAMASTERY उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १७१ गिम्हसिसिरवासासुं ७४ गिहिदिसबंधरयाणं ८५ गिहिसंघायं जहिलं १६ गीयत्थपरिग्गहओ १९५ गीयत्थपारतंता ३ १११ गीयत्या ससहाया गीयत्थो कयकरणो ३ १४८ गीयाणऽसमत्ताणं १ ८० गुरुआणाइ कुणंता २ १४६ गुरुआणाए मुक्खो ७'गुरुगुणरहिओ अ इहं ३ ७४ गुरुतत्तणिच्छओ पुण २ २०४'गुरुतत्तणिच्छयमिणं INCRECRUGARCANCY ३ २८२ १७४ ४ १६०/गेलण्णवाउलो पुण गच्छपरिरक्खणट्ठा . गच्छाणाभंगस्स य गझो बहुस्सुअकओ गयसारो धन्नकणो गामे वा णगरे वा गामंतरे वि पुढे गोणीए जं जायं १ १७० गोणीणं संगिलं ४ १५७ गंथाओ मोहाओ ४ १६६ गंथंतरम्मि इत्तो ११४ For Private & Personal use only www.ainelibrary.org Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X गाथाद्यचरणम्. उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. उल्लासः गाथा. X X घरखित्तनयरगोउल- घुट्ठम्मि संघकजे उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. चरमा दो पच्छित्ता १ ६२ चरमे समए चरमो२ ९४ चारित्तटुं गमणं चारे वेरजे या ४ ११८ चोअग छकायाणं २ ३०४ चोएइ वत्थपाया १ १९९ चोदेई वुच्छिन्ने २ २६३ *** घ-च-छ AMRACK-MARCCC ४ ३६ जइ अभिधारेंति तो ३ ३३ जइआणेणं चत्तं ३ १०८ जइ कोई मग्गन्नू १ ९१ जइ णाम सूइओ मि. २ २२३ जइ ते लिंगपमाणं २ ३३ जइ पुण समत्तकप्पो जइ लिंगमप्पमाणं २ ३०८ जइ वि पुहब्भावो सिं ३ ५४ जइ वि य पडिमासु जहा १ १४१ जइ से अस्थि सहाया १ १०० जणवय अद्ध णिरोहे . १ १८८ जत्तो चिय पासत्थे चइऊण पुलायत्तं चउगुरुआ चउलहुआ चउतिगदुगकल्लाणं चउदसपुव्वधरेणं चरणकरणप्पहीणे चरणट्ठा पुब्वगमो चरणस्स पक्खवाओ चरणे कोउअभूई चरमाउ तओ पढम * ४० छट्ठाओ णिव्विगइए छठाणविरहि पि हु १ ७८ छट्ठाणसमत्तीए ३ ८८ छेअस्स जाव दाणं १ १३९ छेओवट्ठावणिए २ २६० ******* JainEdication international momw.jainelibrary.org Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु ० मूलगाथा ॥ ५ ॥ गाथाद्यचरणम्. जत्थ खलु तिण्णि गच्छा जत्थ चउन्हं विरहो जम्मेणं सम्भावा जम्मं भवो जहण्णो जम्हा उ होइ सोही जयणाइ ठिआण पुणो जरिआइभूइदाणं जस्स जयावर णिज्जं जह अप्पगं तहा ते जह उद्विगुणेणं जह कारुणिओ विज्जो जह गुरुअसुह विवागं जह गोअमाइआणं उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. २ २ ४ ४ २ २ ३ १ ३ ३ १ १ १ १९१ जह जह बहुस्सुओ सं ४३ जह णाम महुरसलिलं ७७ जह दीवो अप्पाणं १२५ जह दुद्धपाणियाणं २१४ जह धनि सत्तं १८५ जह वे लंबलिंग ९० हरणमुवा १५१ जह सावज्जा किरिया ६१ जह हुज्ज अप्पदोसो ८३ जाईइ कुले अ गणे ४ जातित्थं अणुवित्ती ७४ जा पणवीसइ पंती १५ जावज्जीवं सुत्ते उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ૨ ३ १ १ २ ३ ३ ३ २ ३ १ २ २ ७६ जिट्टे बारस दसम - १३० जिगकप्पिअपडिरूवो ५ जिणपडिमा जिणाणं ४२ जिणवयणतिव्वरुणो १०२ जिणवयण सव्वसारं १८५ जीअम्मि जंतरयणे ४ जीहाए विलिहतो १७२ जुत्तो पुण एस कमो १०१ जुत्तं जाणसि तं भण ९२ जे उ सयं पासत्था १९० जे किर एसिपमुहा ३०२ जेण सुसीलाइगुणो ८८ जे बंभ चेरभट्ठा उल्लासः गाथा. २ २८५ २ ३१२ ३ १६५ १ १६९ ३ ११९ २ ३११ ३ १ २ १ १ १ ३ ३ २८ १११ १७१ ६ ३० ४ १२२ Sकाराद्य नुक्रमः । ज । ॥ ५॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लास: गाथा. उल्लासः गाथा. गाथाधचरणम् २ ३६ जो पुण कट्ठपरो वि हु २ १२० जो पुण कुणइ विलो १५५ जो पुण पमायदोसो .. १६१ जो भद्दओ वि न कुणइ ४ जो सुअमहिज्जइ बहुं २ ९९ गाथाद्यचरणम् जे भावा जहियं पुण जेसि भग्गवयाणं जेहिं कया ववहारा 5ोजो एवं पियधम्मो जोगुवओगकसाए जोगो मणमाईओ जो जह्वायं न कुणइ जो जह सत्तो बहुतरजो जेण जम्मि ठाण जो णिच्छओ पवइ . दिजो नाणाई जुंजइ जो पुण अत्तट्ठीणं गुरुत. ३८18जो पुण अव्ववहारी २ १०७ उल्लास: गाथा. गाथाद्यचरणम्. ३ ११६ जं जीअमसोहिकरं १ ७९ जं जीअं सावज ८२ जंजीअं सोहिकर २ जंपइ भेअणि मित्तं २ ६५ जंपि य महाणिसीहे २ ६६ जं भणियं पच्छित्तं १ १४७ जं लाभाइणिमित्तं २ ८७ जं वा दोसमजाणतो २ ९५ जं सोहणमत्थपयं moc wwwwcc c 000 साNKEDINDIAN ज-ठ। ३ १३८/ २ ३२२ ४ ७२ १३१ जं एएण कमेणं ३३१ जं एगस्स बहूण व ५७ जे काहिंति अकर्ज ३८ जं किंचि वितहकहणं ३१ जं गुणदोसणिमित्तं १७७ जं जस्स व पच्छित्तं २ ३३७ जं जीअमसोहिकरं ३ १७७ ठवियगरइअगभोई २ ४६ ठाणाई संजमो खलु २ ५१ ठाणेहिं पढमठाणा For Private & Personal use only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लास: गाथा. गुरु०मूल- गाथाद्यचरणम्. गाथा ठाणतरस्स वुड़ी 8ठावेउ दुप्पकप्पे ऽकाराद्यनुक्रमः। orror ३ उल्लास: गाथा. गाथाद्यचरणम्. उल्लास: गाथा. गाथाद्यचरणम्. २ ३३३ णिग्गंथभावरूवो ४ १०५ णिच्छयववहाराणं २ २२ णिग्गंथसिणायाणं ४ ८८ णिज्जरहेउववसिया ४ ९३ णिजवगाण वि इण्हि २ १०६ णिग्गंथसुहुमरागे १०३ णिजवगाण वि विरहा ३ १८२ णिग्गंथे अ जहन्नो १३० णिद्धंधसाण पढमं ३३९ णिग्गंथो पंचण्हं ११६ णिद्धंधसो ण तम्हा १ १७२ णिच्चपडिसेवगत्तं ४ ६४ गिरवज्जकम्मजणिया९० णिच्छयओ च्चिय सिद्धी ३६ णियअवगरिसावहिओ १ १९३ णिच्छयो दुन्नेयं ७१ णियमइविगप्पिओ चिय २५ णिच्छयठिय व्व मुणिणो ५३ णियमा जिणेसु उ गुणा ४ ११० णिच्छयबहुमाणेणं ४० णिययवयणिजसञ्चा ४ १२० णिच्छयमवलंबंता ३७ णेवं सकसायाणं ४ १४१ णिच्छयलाभालाभे १ २२ णोआगमओ दवे पण य गुरुआणाभंगो ण य ठवणा वि पवट्टइ णवणीयसारभूओ ण हु सव्वह वेहम्मे णाएण तेण छिन्नो णासेइ किलेसेणं णिग्गमणभूमिवसइणिग्गंथण्हायगाणं णिग्गंथत्तचुओ पुण |णिगंथत्तणिमित्तं um tec 000000 or or or or or or 00 m or or ATMarmananews KAKUCCCCCARE ठ-ण। م م س wcom Main Education International For Private & Personal use only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासः गाथा. ه २ ३२९ गाथाद्यचरणम् णो देसविरइकंडयहाए अंतमुहुत्तं हाओ सिज्झइ एए पहायत्तविगमओ च्चिय हायस्स णत्थि एअं पहायस्स वडमाणो ه ه २ १२३ مه उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १ २७ तत्थाणंता उ चरि४ १३१ तद्दिणमुवसामेई ८३ तदिवसं तु जमिच्छइ ४ १२१ तप्पढमतया गहणं ४ १३४ तम्हा उ संघसदे ४ १०९ तम्हा गुरुआणाए तम्हा छेयत्थविऊ ४ ८० तम्हा दोसु वि णियमा २ १४७ तम्हा पयट्टियव्वं २ २२१ तयलाभम्मि वि णिचं १ १४ तवकाले आसज्ज उ १ ११७ तस्स उ उद्धरिऊणं २ ५ तस्सेव सा ण इट्ठा 0000000 15555625645-5-15 उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १ १३५ तह देससव्वछेआ२ २२४ तह धिइसंघयणोभय२ २२६ तह पंचमे वि अरए ४ १२६ तह सुद्धनाणदिट्ठी २ ९६ ता अम्हे अपमाणं ४ १६४ तालुग्घाडणिओसो२ ८६ तित्थगरहाणं खलु १ ८५ तित्थपभावगपूआ १ १७९ तित्थयरगुणा पडिमा१ ६६ तित्थयर पवयण सुअं २ २९२ तित्थयरसमा भावा२ ३१ तित्थयरे भगवंते ३ १७० " " ण-त। २ २१३ २ ७५ MACROGRAMSARDAS م س ३ १२४ | तइए तुरिए अ इमे तगराए णगरीए | तत्तो य सलद्धीए तत्थ निओगो एसो तत्थ भवे जइ एवं तत्थागमो विसिटुं messammans م २ १२४ २ १२५ For Private & Personal use only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासः गुरु०मूल- गाथा مواد ऽकाराद्यनुक्रमः। له له لم لم २ २०६व्वत्तणेण सम्म س गाथाद्यचरणम्. तित्थस्स ठिई मिच्छा तित्थुग्गाली एत्थं तित्थं चाउवण्णे तिलतुसतिभागमित्तो तिविहे तेगिच्छम्मि य तिविहो होइ कुसीलो | तेहिं विरोहो संजम तीअं च पडुप्पन्नं 5 तीसु वि दीवियकज्जा तुच्छमवलंबमाणो तुझंतो मम बाहिं तुस्सइ नियगुणसवणा ते जाणंति जह जिणा उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. उल्लासः गाथा. गाथाधचरणम्. १ २०३ तेण ण बहुस्सुओ वी २ १५७ २ ४२ तेणागएण णायं २ ९७ दद्दुरमाइसु कल्ला४ ६९ तेणं तित्थुच्छेओ १ १९६ दप्प अकप्प गिरालं. २ ३१४ ते वि य थिरा अ अथिरा २ २९९६ष्प दप्पम्मि असीइसयं २ ३२५ तेसिं जं रायणिओ दप्पस्स य कप्पस्स य ८७ ते हृति अगीयस्था ११८ दव्वत्ताभावम्मि य तो सेविसं पवत्ता ९१ दब्बे खित्ते काले तो सो ठावेयव्यो २ ७८ व्वे परिच्छओ खलु तं घोसणयं सोउं २ १८७ दसचउद्सविबज्झ दसमट्ठमछट्टऽहम दाउं अहे उ खारं १८ थोवाऽसंखगुणाई १ १४५ दाणे णिरंतरे वा ८ थोवं बहुं च दिति उ २ १० दिज्जाऽहिअंपिणाउं سه سه له مه दा سه س لم ه amana م م م مهم لم ه ع For Private & Personal use only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लास: गाथा. गाथाद्यचरणम्. उल्लास: गाथा. गाथाद्यचरणम्. २ २४९ दुगन्भि मोहगब्भे ३ ३० देविंदतुल्लभूई १ ३३ देसम्मि उ पासत्थो १९१ दोसविह्वाणुरूवो م २ १४३ दंतच्छिन्नमलित्तं गाथाद्यचरणम्. दिट्ठोऽदिट्ठो य दुहा दिसमणुदिसं व भिक्खू दिता वि ण दीसंती अदिति करिति य एवं दुक्खेण लहइ बोहिं दुगमाइ समा सुत्तहादुण्हट्ठाए दुण्ह वि दुविहा उ दप्प कप्पे दुविहासईइ तेसिं 8 दुविहे किइकम्मम्मी है दुविहो वि इमो इडि दुविहो वि हु पत्तेयं विहो सो उ वियत्तो २ २०१ दसणनाणचरित्ते orror morrm war or COCOCOCOCCALCRECRUCIEOGRAM ४ धम्मकहाइ पढ़ते । ३ ७१ धर्म सो इच्छा ३१९ नणु आयरिआदीणं ३ १०५ नणु आलंबणमित्तं २ २० नणु एसा पडिबंदी ३ ६७ नणु गुरुआणाकहणे नणु चरणस्साभंग नणु पासत्थाईणं द-धन Error or morrore م م م ३ १४७ दंसणनाणचरितं १ १२२ बंदणिजयाए ३ १५९ नणु संजलगाणुदए ه ४ ३ २५ दंसणनाणठिअं जइ १५ दंसणनाणसमग्गा १ २०२ न हु ते संजमहेउं १ २०६ नाऊण परिभवेणं JainENE con internationa For Private & Personal use only Lainelibrary.org Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु० मूलगाथा ॥ ८ ॥ गाथाद्यचरणम्. नाणचरणसंघायं 13 नाणम्मि उ पक्खतिगे नाणाईणं पडिसेनाणे दंसण चरणे 33 नाणं मइनाणाई नाल पुरपच्छसंधुय निवसरिसो आयरिओ पक्कणकुले वसंतो " |पको पडणा पागा प उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १४१ पक्खावतीदाणे २ २ ३ ४ ३ ४ ४ २ १ १ ३ २ १४२ पश्चक्खागमसरिसो २१ पश्चक्खो वि अ दुविहो ३० पञ्चत्थी हिमवयं ६च्छा विणिग्गओ विहु १० पच्छा विणिग्गया खलु ६५ च्छित्तं दिति इमे १९६ पट्ठविइआय ठविया १०८ पडिणि मुहपोत्तिय | पडिवजंत नियंठा ११२ १२७ १५० डिसेवग सकसाया डिसेवगो अ उत्तर डिसेवा उ सेवा उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. २८० डिसेवाभेण वि २ २ २ २ २ २ २ २ ३ ४ ४ ४ ४ ८ डिसेहग परिसिल्ले नेणं ६ पढमस्स ९२ पढमे उस मित्ते १७६ पढमं वयणठियाणं १७८ पणगं च भिन्नमासो ११ पणमिय पासजिणिदं २९४ पण्णवण अराए १०४ पण्णवणाभेआणं १४५ पत्ता अनंतजीवा ८९ पत्ताइ घट्ट म ५८ पत्ताण अणुन्नवणा ५४ बुद्ध उल्लासः गाथा. २ ३३२ ३ १४ ४ ६६ १५८ ५६ २ १ ३ ८ १ १ ४ ३ ४ ६ १ १४६ ४ १५ २ १८१ १ ५९ $ Sकाराद्य नुक्रमः । न-प । ॥ ८ ॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. पत्ते पंचविहो ه २०२ ه م २७३ २ २३८ PROCAROORDSMSACROSOM م उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. २९ पासत्वस्स ण चरण ३४ पासत्थाइसु मिलिओ ५६ पासत्थाईणं पि हु १ १९ पासत्थाई वंदमा२ २१२ पासत्थाऽगीयत्था २ १३१ पासत्थाणं संवि४ १४२ पासत्थो ओसन्नो ३ १५६ पासत्थो दुवियप्पो ३ २० पासो त्ति बंधणं ति य ३ १५७ पियधम्मा दृढधम्मा १ १८९ पियधम्मे ढधम्मे ४ १५९ पिंडस्स जा विसोही २ १४५ पुक्खरणी आयारे २२९ उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १ १२४ पुक्खरणीओ पुब्बि ३ ९७ पुच्छातिगेण दिवसं ३ १४५ पुढविदगअगणिमारुअ३ १२१ पुणपत्तिमज्झकालो २ २५३ पुणरवि संजइपक्खा २ ८० पुत्ताइआणि मूले ६४ पुरपच्छसंथुआई ६५ पुरिमणिव्विगइ ६९ पुरिसा खलु कयकरणा ६१ पुरिसा गीआगीआ ६२ पुलयाओऽणतगुणो १ ९४ पुवपडिवन्नया जइ १ १५४ पुब्वपवना ते पुण परमत्थओ अ सब्बो परमरहस्समिसीणं | परिकम्मेहि य अत्था | परिणामियबुद्धीए परिमाणं संखा सा परिवार परिस पुरिसं परिवारपूअहेर्ड परिवारो से सुविहिओ परिहारविसुद्धीए पवयणगाहाहिं फुडं पव्वज खित्त कालं س acoc000000 ocm २ २५९ २ ३०९ م ه २ २९५ मा २ ३२८ م م ४ १४६ ४ १४७ For Private Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासः ऽकाराद्य नुक्रमः। उल्लास: गाथा. गाथाद्यचरणम्. १ १५३ पंचविहो ववहारो १ १६४ पंचविहं तु चरित्तं १ १५९ पंचासवप्पवत्तो गुरु०मूल- गाथाद्यचरणम्. गाथा- 18 पुत्वं वण्णेऊणं पुटिव कोडीबद्धा पुचि चउदसपुव्वी पुचि छम्मासेहिं है पुचि व सुहदुहम्मि वि पुचि विणिग्गयाणं पुवि विणिग्गया जइ पुटिव सत्थपरिन्नापूआसक्काराणं पेञ्चगमणं खलु गई पंचण्हं अण्णयरं ४ा पंचण्हं एगयरे पंचमहव्वयधारी 60-OCROCE000000000 २ २५८ बउसकुसीला ओस२ १७२ बउसपडिसेवगाणं २ १७५ , उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. २ ५७ बज्झन्भंतरभे ४ ५३ बत्तीसं च सहस्सा ९८ बलवंतेहिं इमेहि बहुगणजुत्ते पुरिसे बारस गिहाइ तिरि १ १८५ बाहिं आगमणपहे बिइआइआणि ताणि वि ४ १५१ बितियपदेऽसंविग्ये ४ १०२ बितियम्मि बंभचेरे ४ १२८ बितियरे अम्हं खलु ४ १३२ बीयाहाणत्थं पुण ४ ९५ बंधो कम्मग्गणं cccccccccccccccc KOREGAORGANGANAGAR م م १६० ८२ م ४ ८१ बउसपडिसेवयाणं ४ ५५ बउसाईणं तिण्हं ३ ३६ बउसाई सव्वद्धं ३ ११० बउसासेवीण समा For Private & Personal use only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाद्यचरणम्. भगवइचुण्णीइ पुणो भगवइवित्तीइ पुणोभणइ अ अहिक्खिवंतो भणिअं च कप्पभासे भन्नइ तं सुविसुद्ध भन्नइ नियठाणकयं भन्नइ सेढीवज्झा भय चिंतण वइगाइ भरहाईणं णाया भरहो पसन्नचंदो भव आरिसे कालं भवसय सहस्सलद्धं भ उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. भावणियंठाण तओ १२३ | भावम्मि लोइआ खलु ४७ भावुगदव्वं जीवो ११५ भावे जोगे करणे १०३ भावे ववहारी ४ ४ २ १ ३ ४ १४० भावो ओदइआई ६२ भिक्खुअबोडिअणिण्हय १०४ भिक्खुम्मि इमं भणियं ७ १ ३ १ ५८ १ २९ मग्गपवेसण ४ ५ मग्गाणुसारिणो २ ११८ मज्झत्थाण बहूणं "" म उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ४ १५६ मज्झे वा उवरिं वा २ ६० मणपर मोहिपुलाए ३ १२८ मणसुद्धिनिमित्तत्ता २ २७६ मतंगाई तरुवर २ १६२ माइट्ठाणा पुत्रं ४ १४० मिच्छत विसोहीए ३१ मुक्कधुरा संपागड ३४ मुत्तुं पुट्ठावं ४५ मुद्द अविद्दवंती - ३ ३ ३ १ ४ २ | मुद्धस्स जइ विकासइ ६९ मूलइयारे चेयं १५५ मूलगुण उत्तरगुणा १०८ मूलगुण दइअसगडे : उल्लासः गाथा. १ १४४ २ ३७ ३ १७३ १ १६३ १३९ ४६ ३ १ ३ ४ १ ३ १ १ १ १५० १४ १०७ १८४ ૮ ८९ ९३ भ-म । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु० मूलगाथा 1180 11 गाथाद्यचरणम्. मूलगुणाणऽइयारा मूलगुणासेवित्ते मूलगुण उत्तरगुणे मूलव्वयाइआरा मूलाओ मासगुरुए रन्नो धूआओ खलु रागो कसायउदओ रायणिए थेरेसइ रायसमक्खं सयले र ल लद्धम्मि णिच्छयम्मि बि लम्भइ णिच्छयधम्मो उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. १ ४ १ १ २ २ ४ २ २ १ १ ८४ लिंगेण णिग्गओ जो ६९ लिंगं जिणपन्नत्तं ११० लिंगं पि य ववहारा ८७ लिंगं वि पुज्जमेवं ३०३ लक्खे खित्ते हीणं लेसा किन्हाईआ १ ३ ३ ३ २ ४ ४ २ २ २ २ ३ ३ २४२ लेसाभावो विभवे ५० लोइअधम्मणिमित्तं २२२ लोउत्तरा अगीआ २३७ लोउत्तरिओ दब्बे उल्लासः गाथा. गाथाधचरणम्. १०५ लोढाइकउव्वण लोए चोराईआ ६५ लोए वेदे समए ६७ | लोगपगओ निवे वा १६२ १४२ वावगाणऽभावे १७५ वेडं सत्ता २७८ वत्तणुवत्त वित्तो १०० वत्तम्मि जो गमो खलु १०१ वत्तवओ उ अगीओ ७३ वत्तस्स दुहा इच्छा ५९ वत्थाइअं तु दिन्नं १६७ वयभंगे गुरुदोसो १६६| १५३ वरिसतिगं ठाइ तहिं १५८ बहरियव्वं तेसिं व " उल्लासः गाथा. ३ ९३ ३ ३ २ ३ ३ ३ २ १ १ ३ २ ५३ ५१ ३२ ६० ५२ ४८ १९७ २३ ७३ २७ १७० Sकाराद्य नुक्रमः । म-र-ल. व। ॥ १० ॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासः उल्लासः गाथा. गाथाधचरणम्. ३ १५१ वेओ थीवेआई ३ १५४ वेणइए मिच्छत्तं २ २०५ वेयावच्चकरो वा HARAMPRIMARRIAGu ९९ गाथाद्यचरणम्. ववहारचउकस्स य ववहारणयस्साया ववहारणयाभिमयं दाववहारणायठाणं ववहारसमाहाणं ववहारस्स पयाणं ववहाराविक्खाए ववहारेण गुरुत्तं ववहारे वि मुणीणं ववहारो ववहारी ववहारो वि हु बलवं | ववहारं जाणतो वसभेण वसभसागा उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. २ ४१ वायाइ नमुक्कारो १ ४८ वायाए कम्मुणा वा ८३ वासासुं अमणुण्णा २ ३४३ विणओवसंपयाए १ २०८ विन्नाणाणंदघणे २ १६४ विवरीओऽसंवुडओ २ ३१० विविहं वा विहिणा वा २ ३४० विसयविरत्तमईणं ५४ विहिणा इमेण जो खलु २ वीसज्जिअम्मि एवं ७२ वीसत्थो जइ अच्छइ १ वीसुं ठिएसु असम२ १५२ वेओ कम्माणुदओ तिवेओ ४९ # orm 00000 orror. व-स। or aroor rrrrr १६१ सइमज्जायाए वि हु २७ सकसाए चउरो वा ३ सकसाओ अ तिवेओ ६४ सकसाओ तिविहो वि य ३ १८८ सकसायपुलायाणं ३ १९ सकसायंता णो ही२ १७३ सका वि णेव सका २ २०७ सगणे अणरिहगीयं४ ११३ सगवीसं खलु भेआ ९४ For Private Personal Use Only www.jainelorary.org Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासः गाथा. ऽकाराद्य नुक्रमः। m می or » or سه ه गुरु मूल- गाथाद्यचरणम्. गाथा- सच्छंदमइविगप्पिक्ष सट्ठाणे अभिधारिय॥११॥ 5सट्ठाणे पव्वजे सडाण निबंधेण य सत्थपरिन्ना छक्कासद्धापोहासेवणसन्ना साभिस्संग समग पत्ता साहा18 समणा वि केइ एरिस समणीणं समणाण य समणुन्नयाविहाणासमयं णिग्गंथाणं | समयं पि पत्थिएK उल्लासः गाथा. गाथाघवरणम्. ४ १३६ सब्वेसु वि तित्थेसुं ७५ सव्वं पि संतविभवो ७९ सहसार अञ्चुअम्मी ३ सहुअसहुस्स वि तेण वि २ १३ सागाराणागारो १ २०४ सागारिआइ पलिअंक १ १४२ सारूबी जाजीवं १ २०५ साहस्सीमल्ला खलु ३ ७० साहारणट्ठियाणं ته उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ३ १०१ समुघाय वेअणाई २ २४६ समुदाणं भिंदंतो ३ २८ सयणं वा दाणं वा २ १८८ सरणं भव्वजिआणं १ १५५ सलुद्धरणाभिमुहो २ ३३६ सव्वगईसु वि सुद्धी ४ १२२ सव्वजिएहि अणंतं २ १८० सवण्णूहिं परूविय ३ ८२ सव्वपओवादाणे २ २३२ सव्वस्स वि कायवं २ २०८ सम्वे उद्दिसिअव्वा ४ १३५ सव्वेसि बहुगणत्ते २ १७७ सव्वेसु वि एएसुं له مم ل م س २ २१८ साहाविअं णिकाइअ२ २१९ साहूणमिणम किच्चं ४ ११ सिज्जाअरोत्ति भण्णइ ه 18॥१९ س For Private Personal use only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासः २ २६९ ANSAUDA गाथाद्यचरणम्. सिज्जायर कुलणिस्सिय सीमाइसु पत्ताणं सीलंगाण वि एवं सीलं चरणं तं जसीसस्स देइ आणं सीसे पडिच्छए वा सीसो पडिच्छओ वा उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ३ ७२ सुगुरुत्तं साहूणं २ १७९ सुच्चा उट्टिठियाणं १ १२८ सुच्चा उट्टिसमेओ ४ २८ सुजओ अकुडिलवित्ती २ २६ सुहृयरं नासंती २ १३९ सुटु वि जयमाणाणं २ १३५ सुत्तायरणाणुगओ २ १३६ सुत्तेण ववहरते २ १३७ सुदढप्पयत्तवावा२ १३८ सुद्धकिरियाणिमित्ता ३ ३९ सुद्धत्तं पुण दोण्ह वि ३ ४९ सुद्धालंभेऽगीए । ३७ सुद्धासुद्धो सबलो उल्लासः गाथा गाथाद्यचरणम्. ४ १ सुद्धो अ णिच्छयणओ २ १८४ सुय सुहदुक्खे खित्ते २ १८३ सुविहिअ दुविहियं वा २ १६८ सेढीए भट्ठस्स वि ३ १२३ सेवित्तचुओ बउसो . ४ १६३ सेविबउसा वि एवं २ ३४१ सेहे पडिच्छए वा २ ४० सो अच्छइ तुसिणीओ १ ५५ सो अच्छवी असबलो. ३ १७१ सोऊण तस्स पडिसे१ ४४ सो अंबिलो ण जस्स उ २ ३२६ सो खलु णो अपमाणं ४ ४१ सो गीओ तं सीसं arromocrar ormor orm ormoranarror ROASIS BAR २ १५४ सीहगुहं वग्घगुहं सुअवत्ते वयऽवत्ते सुक्कज्झाणजलेणं गुरुत. ३९ For Private Personal use only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु० मूलगाथा ॥ १२ ॥ गाथाद्यचरणम्. सो ठवणकुलवजीवी सो पुण तस्स सगासे सो बउसो उवगरणे सो बउसो चारितं सोवाहणेण पाएसोहग्गा इणिमित्तं सो होइ अग्गपिंडी संकमणे चउभंगो संकमणं आयरिओ संकिन्न वराहपदे संखडिपलोअणाए संखाईआणि उकंसंघयणधिति विहीणा उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ૨ ર ४ ४ २ ३ ३ ३ १ ३ १ १ ७६ संघयणविरिय आगम १५ संघयणादणुरुवं १६ संघयणं संठाणं १३ 33 १५१ संघस्सायरियस्स य ८९ संघो गुणसंघाओ ८१ संघो महाणुभागो ३८ संघो महाणुभावो ४६ संघ अणुमण्डं ११३ संजमगुणे जुत्तो १७७ संजमठाणाइविऊ १३६ संजमहेउं अजय १९५ संजलणाणं उदया उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ३१३ संजोअणं णिगासो ३४२ संत विभवेहिं तुल्ला ३४ संता तित्थयरगुणा ३८ संपयमवि तं विज्जइ २ २ २ २ २ ર २ २ २ २ १ १ १ : २१ संभोगपच्चयं पहु १२७ संविग्गणिइअप सत्थ ११२ संविग्गबहुलकाले १३० संविग्गे पियधम्मे ११४ संविग्गेऽसंविग्गो ३३८ | संविग्गोऽणुवएस ३२ संसत्तो बहुरुवो ११६ संसारुद्धारकरो ९८ | संसारविरत्तस्स उ उल्लासः गाथा. ९० १९४ १६८ १८२ ४ १ ३ १ ३ ३ २ ३७ ११२ १८२ २ ५० ३ ४२ १२२ ९६ १५८ ११९ २ ३ ४ २ डकाराद्य, नुक्रमः । स । ॥ १२ ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाद्यचरणम्. उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. ४ ९१ होउं बहुस्सुओ सो ह उल्लासः गाथा. गाथाद्यचरणम्. हीणोऽणतगुणेणं १ ११४ हीणं वा अहियं वा ४ १५० हेउ विसुद्धा किरिया he हिट्ठाणठिओ वी हीणाहियत्तसंखा १ ३९ होहिंति अद्धतेरस गुरुतत्त्वविनिश्चयवृत्त्यन्तर्गतगाथायनुक्रमणिका ॥२॥ EUROSHUSHUSHUSUSISIES पत्राङ्क. पत्राङ्क. गाथादि. १५४ अट्टण्हं पवयणमाईणं १८६ अट्ठ भवा उ चरित्ते १० गाथादि. अंगुट्ठबाहुपसिणाइ अंशाः-अवयवाः कर्मअइसयकओवओगो अकामनिर्जराङ्गमन्यत् अच्छिन्नोवसंपया १९३ पत्राङ्क, गाथादि. १९३ अत्थं पडुच्च सुत्तं ४१ अत्र च यत् पुलाकादीनां ४१ अथवा त्रिप्रकारादधिकं १०३ अथावसन्नो बहुतर१५७ अनवस्थितकोत्सूत्रं ३ १४१ १५३ २३ अणंतरा णाम एक्को ९६ अणुवदिढ णाम आ १६१ For Private & Personal use only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु०वृत्ति- गतगाथा द्यनुक्रम णिका। पत्राङ्क. गाथादि. १७ अहवा वि कसाएहिं ३७ अहवा सब्वे पया १८५ अहासुहुमो एएसु ॥१३॥ २१० " गाथादि. अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः | अन्नं च सो बहूवाए | अन्ने लिंगकुसीलं अन्ये तु निम्रन्थेऽपि अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र अबहुस्सुए अगीयत्थे अमिधारते पढ़ते य अविसुद्धभावलेसा असंख्येयानि संयमअस्संजयाण भिक्खू असिवे ओमोयरिए अह जारिसओ देसो अह पण गाहिओ सण १६ अहिगय कयकरणतं ७० आइन्नं पि हु दुविहं ९६ आगमसुआउ सुत्तेण २०४ आगमो एवं बहुमा१९९ आघाइत्ता णामं १४६ आदिगरा धम्माणं १७८ आयरियउवज्झाए १४६ आलएणं विहारेणं १०६ आसेवनातो यो ज्ञा पत्राङ्क, गाथादि. १८५ आहच्च कारणम्मी १५८ आहारउवहिदेहे १८१ आहारादीणट्ठा १८६ इंदियपञ्चक्खो विय ११५ इकं पि सुपरिसुद्धं १५ इणमो सव्वमवि प६७ इदानी प्रतिसेवना . ७१ इमा णं भंते रयणप्पभा८० इमो अववाओ गिही ५६ इयं सप्तभङ्गी प्रति७८ इह च जघन्यतः १६७ इह चावस्थाभेदेन १८१ इह तु पुलाकादयो CARRRRRRRC www ainelibraryong Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथादि. इह यो नयो नयान्तर ईहा अपोह वीमंसा ईहि चेष्टायां इहनउबद्धे वासासु य उक्कोसओ नियंठो उग्गमदोसाईआ उज्जुमईविलमई उडुबद्धे वि णिक्का उपपात: पुलाकस्यो उपयोगी भावनिक्षेपः उप्परिवाडी भवे गुरुगा उवरिं गंतुं छिज्जई एएसि णं भंते! पुला पत्राङ्क. गाथादि. १५ एकत्रतभंगे सर्वत्र त १८७ एगंतसुद्धो असबलो १८७ एपक्खिस्स भि ९४ एते ते गोयमोवाए १९९ एत्थ पुण सव्वेसिं १६३ एत्थं जं कप्पेणं ५६ एमेव कसायम्मि वि १५४ एमेव य मूलोत्तर १९७ एयारिसे पंचकुसील ५६ एवं अपरिवडिए ६५ एवं तु समणा वेगे १९८ एस अगीए जयणा १९८ ओसन्नो वि विहारे पत्राङ्क. गाथादि. २६ ओहीगुणपञ्चइए १८६ | कंडे ति इत्थ भन्नइ १३७ कक्ककुरुआ य माया ३७ कक्कत्ति पसुतिमा ९६ कलेसा णं भंते! ६२ कम्माण निज्जरट्ठा १८५ कल्को नाम प्रसुत्यादि १५६ कसायकुसीले जहा ३४ २०९ २० " "" १४२ कसायकुसीलो उवरिं २१६ काउलेसा तेउलेसं . " " पुच्छा पत्राङ्क. ५६ ३८ १५५ १५५ २०४ ७१ १५५ १९७ १९८ १९१ २०२ १९८ २०३ *** इ-ई-उ ए-ओ क । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *5 गुरु०वृत्ति धनुक्रम गतगाथा णिका। * ॥१४॥ * * * गाथादि. काम खलु धम्मकहा कायं बंधिऊण मरिकारणं ति वा कर्ज कालतः पञ्चापि पुला| किं अम्ह लक्खणेहिं किमयं भंते ! कालो त्ति ६ कुसीले णं भंते ! कति कोडीसहसपुहुत्तं कोहे माणे माया कौतुकं नामाश्चर्य खेत्तं वत्थु धणधण्णगच्छेज मा हु मिच्छं गणधरपाउग्गासइ पत्राङ्क. गाथादि. १४५ गणधारस्साहारो ३७ गणावच्छेइए गणाओ १२२ गस्तु गातरि गंधर्वे १९६ गिहिनिक्खमणपवेसे ७३ गीयत्थजायकप्पो १६ गुणभूइढे दव१८५ गुरुपारतंतनाणं २१४ गुरुसज्झिलओ १८० गोयम! तस्स पविढं मे १५४ ग्रामक्षेत्रगृहादीनां १८० चउमासतवं कुणह १४ चारित्रपरिणामस्य १३७ चित्तलवत्थासेवी पत्राङ्क. गाथादि. ७१ चोद्दसपुव्वधराणं १३९ छंद निरुत्तं सई १ छट्ठाणगअवसाणे १४६ छन्भागंगुलपणगा ९४ छम्मासतवं कुणह ४ छसु सव्व ३ छिंदतु तयं भाणं १३६ छिन्नाछिन्नविसेसो ३७ जं जत्तिएण सुज्झइ २० ज मोणं ति पासहा ६१ जइ जिणमयं पवजह २०८ जइ पडिसेवए होजा १९१ जदित्थं च णं लोए क-ख-ग * च-छ-ज। ॥१४॥ www.iainelibrary.org Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथादि. जम्मणं पडुच णो दुस सुस " जम्हा पंचविहे वव जह ण वि सकमणज्जो जह रुवाइ विसेसा जहा ढंका य कंका य 'जाओ अ अजाओ आ जा य ऊणाहिए दाणे जारिसयं पढमेहिं जे इमे भंते! अज्जत्ताए जे उण वाससय जो अ पक्खस्स पीढजो उ मज्झिल्लए जाइ पत्राङ्क. | गाथादि. १९५ जो जेण सुद्धधम्मम्मि १९५ जो दुवारे उवसम ६७ | जो सुअनाणं सव्वं ६ जो हि सुरण हिंगच्छ ४८ ज्ञानदर्शनचारित्राणि २० ठवण त्ति ठवणकुलाणि ९४ णत्थि एहिं विहूणं १० णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ ९९ णाऊण रक्खिअज्जो १९ णिच्छयणयस्स चर४ यिमाणा वेगे १५३ नियंठे णं एवं चैत्र ९६ नियंठे णं पुच्छा पत्र. गाथा. २१६ नियंठे णं पुच्छा २०९ नियंठे णं भंते! केवतियं ६ नियंठे पुच्छा जाव ६ णिरुद्धवासपरिआए १४९ नीललेसा काउलेसं १५१च्छइओ अपे १४ णो जिणकप्पे होज्जा १८० तत्थ भवे मायमोसो १४ तत्त्वभेदपर्यायै ३६ तत्राद्यो वर्षाकालं ८० तददोषौ शब्दार्थो १९७ तद्विपरीतस्तु विक २०२ तमेव अविजाणता पत्राङ्क. २१० २०५ १९७ २०३ ४ १८९ १४२ १८२ १५४ १५२ १५ २० ज-ठ । ण-त । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्राङ्क धनुक्रमणिका। पत्राङ्क, गाथादि. १४९ नयवाक्यमपि स्ववि१९३ नयोऽपि तथैव सम्य १० नयोऽपि नयं प्रति१८० नाऊण य वुच्छेयं गुरु०वृत्ति- गाथादि. गतगाथा- तमेव वयणं सरमाणो तवमट्ठगुणं घोरं ॥१५॥ तह वि य न सव्वकालं ता कम्मखओवसमा तात्त्विकः पक्षपातश्च तित्थं च नाणदंसणतित्थं भंते ! तित्थं तित्थयरसमो सूरी तिसु दुसु सुक्काइगुणा. 18| तीताणागतकाले है| तीर्थमिदानीम् ते कित्तिआ पएसा ४ ते य बीयोदगं चेव ४९ नाणे दंसणचरणे त-द-ध पत्राङ्क. गाथादि. .३७ दंसणादिआ पसिद्धा ३७ दसपुव्वधरुकोसा १४५ दिता वि ण दीसंती ४० दुविहो अ होइ गंथो ७ दो मासे एसणाए १० दोसु अवुच्छिन्नेसुं ५३ धर्माद्भूम्यादीन्द्रिय- ३ धूवं दाऊण जिणव२०३ नचंतसंकिलिहासु ४ नटुम्मि य छाउमथिए १९४ नणु सज्झाओ पंचविहो ३७ नत्थेयं मे जमिच्छसि २० ननु सर्वसंयतानां १ न। re.. २०५ १७३ नाम लिवि आवत्ती २०४ निंदुमाइआणं तिग१९४ निर्मन्था जघन्यतः १४५ निविआईसु विसोवा १४२ निश्चयत एव सिद्धिः २१४ नीयते येन श्रुताख्य- . . १५ in lamang For Private LPersonal use only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्राङ्क. SURESHERS दगाथादि. नो कप्पइ णिग्गंथाणं , वा नोकारो खलु देसं नोसंज्ञा ज्ञानसंज्ञा पंचविहे ववहारे पण्णत्ते पच्छाकडो गीहत्थीपडिसेवणाकुसीला पडिसेवयम्मि सोहि | पढमस्स य कजस्स य पढमस्स य कजस्सा पढमो उ थेरकप्पे पणग कुडलं च रित्तं पणगाइ संगहो होइ पणवीसससगवीसं ००००० पत्राङ्क. गाथादि. १५९ पयोऽम्बुभेदी हंसः स्यात् १५९ परिहारविसुद्धीए ७० पायं संववहारो २०८ पायालं अवि उड़मुहं ६४ पारगमपारगं वा १०० पासत्थोसन्नाणं २१५ पासो त्ति बंधणं ति वा .८८ पीढफलगपडिबद्धो ६१ पुरिसणपुंसवेयए ६० पुलाए णं भंते ! कतर१८९ काल१२० किं तित्थे १४२ किं पडि१२० पुलाए णं भंते ! किं सण्णो पत्राङ्क- गाथादि. १६६ पुलाए णं भंते ! किं सलिंगे किं सलेसे १४ केव वउ- १० पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो १६३ पुलाके तत्थ णो १५० पुलाकोऽविराधनतः १५४ पुलागकुसीलाणं १८९ पुलागबउसपडि२१२ पुलागलद्धीए वट्ट१९७ पुलागस्स णं भंते ! केवइथे १९४ , केवइआ १९० पुवपडिवन्नओ पुण २०५प्रतिसेवनाकुशीलो ००००००००० ०ी6 Now SANSACROSAROKAR. COM न-प। १९८ २०४ For Private & Personal use only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु वृत्ति गतगाथा ॥ १६ ॥ गाथादि. प्रमाणप्रतिपन्नानन्तप्रशमित वेदकषाय बउसस्स णं पुच्छा बउसासे विणियंठ बउसे णं एवं चैव बउसे णं पुच्छा बायाला अट्ठेव उ विइअस्स य कज्जस्स य "3 बिइए मूलं च छेदो बिइयं भवे ठाणं ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्यः भत्तट्ठेति मंडलीए " पत्राङ्क. गाथादि. १५ भयणा विहु भइयव्वा २१७ भयवं जो रत्तिदिअहं २०९ भयवंता कीस दुस २०० भयवं ते केरिसोवाए १९६ भागेहिँ असंखिज्जे हि १९१ भासेज्ज वित्थरेण वि २७ भिक्खू अ गणाओ अब ६० " ६२ भिक्खू य इच्छिज्जा अण्णं ११६ भिक्खू य इच्छिना " ६० भिक्खू य बहुस्सुए ६ भिन्न लहु गुरुअ मासा १५३ मुंजइ चक्की भोए १५३ भेदाभेदात्मके ज्ञेये पत्राङ्क. गाथादि. १७ मणवयकाइयजोगा ३७ मणसा कोहाईए ३७ महाफलं खलु थेराणं तहा ३७ " ४० मागा इंगि १४ मासच उमास १३९ मुक्कल निविअं पुरिमं १४२ मूलगुणउत्तरगुणे १४७ मूलगुणासेवओ पुलओ ६९ मूलगुणे आइने ७५ मो मन्त्रे मन्दिरे माने १२० मोहोपशम एकस्मिन् ४८ य उत्कर्षत एकस्मिन् १६ यदप्येषां संयमित्वेऽ पत्राङ्क. २०१ १८५ | ४ ४ १०९ ६२ १२० १९१ १९१ १९२ १ २०९ ४ २०९ २०३ द्यनुक्रमणिका । प-व-भ म-य । ॥ १६ ॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथादि. यदा तु प्रमाणव्यापारयो भिक्षुस्तरुणो बलरक्खणिमित्तं अभिलक्खणजुत्ता पडिमा लद्धिपुलाओ पुण जलिंगपुलाओ अन्नं लेसा तिन्नि पमत्तता लेसासु विसुद्धासुं लोइअधम्मणिमित्तं लोइअववहारेसुं | वंदणालोअणा चेव ववहारोऽभूयत्थो विदेसे जत्थ नागच्छे वेणइओ णाम मि य-र-ल. पत्राङ्क गाथादि. १७ वेमाणिएसु उव१५८ वोच्छिण्णो बउसो उ १५४ शकेश्चयतरतीरपाराः ४ शतमवध्यं सहस्र१८१ सज्झायादि करणिजे १८१ सडाइकुलणिस्साए २०४ सत्तरत्तं तवो होइ २०४ सत्थो अच्छइ सुत्त ७२ सदेव सत्स्यात्सदिति १४५ सबलो सुद्धासुद्धो १०८ समणीमवगयवेयं ५ समभावो सामइअं ३७ सम्मत्तसुयं सव्वा १४ सम्माराहणविवरीआ पत्राङ्क गाथादि. १९६ सयणं पडुच्च मातापि१९८ सयपुहुत्तं च होइ १२५ सविसयमसद्दहतो ७५ सव्वं पि य पच्छित्तं १४५ सव्वं सामायारिं १५१ सव्वामगंधं परिन्नाय ७० सव्वे णया मिच्छावा१४९ सव्वे तिणि विगप्पा १५ सव्वे वि अ अइआरा १८६ सब्वे वि होंति सुद्धा १९६ साणुग्गहोऽणुओगे २०८ सामाइअसंजए णं भंते ! २०३ सामान्येन तु यथासू१८४ सामायारि तिविहं *50*5055 १५व-श-स G For Private Personal use only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्राङ्क. द्यनुक्रमणिका। 0 06 0 गुरु०वृत्ति- गाथादि. गतगाथा- सा वेक्खो त्ति व काउं साहारणे विरेगे ॥१७॥ | सिद्धतगयमेगं पि सिणाए णं पुच्छा सिणाए णं भंते ! कतिसिणाए पुच्छा गो. स , ,, सि४ सुअवं अतिसयजुत्तो | सुअंमे आउसंतेणं | सुत्तमणागयविसयं | सुत्तेण अत्थेण य उसुद्धो सुद्धादेसो सुविगणविजाकहियं | सुहृदुक्खिएण जो पर PROGRESS BARBORG पत्राङ्क. गाथादि. ११६ सूइज्जइ अणुरागो १४५ सेदि णियमा छम्मा ३७ सेविट्ठाणठियाणं २१२ से नूणं भंते ! कण्ह१८७ से भयवं कयरेणं २०२ से भयवं किं तेसिं २०८ से भयवं किं पञ्चइ ४से भयवं केरिसगुण ३ से भयवं केवइएणं का६५ से भयवं जया णं सीसे ७१ से भयवं जे णं गणी .६ से भयवं तित्थयर१५४ सो अ अहाछंदो १०६ सो उभयक्खयहेऊ पत्राङ्क. गाथादि. १६३ सो पंचविहो अच्छवी २११ सोही उज्जुअभूअस्स ३० संखडिं पलोएइ २०३ संख्येयभागादिषु "संजमजोगेसु सया संज्ञानं संज्ञा ३६ संतिभावं पडुच्च णो दुस " सुससंत्यज्यलोकचिन्ता४६ संपूर्णवस्तुकथनं प्रमा ३ स्थविरकल्पादिरूप१६१ स्वाभिप्रेतादशादित१८ हत्थसयं खलु देसो स-ह। १९६ १९५ २१६ ७ ॥ Jain E aston tema For Private Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुत. ४० ग्रन्थनाम. अध्यात्ममतपरीक्षा. आगम. गुरुतत्त्वविनिश्चयवृत्तौ प्रमाणतयोपन्यस्तानि ग्रन्थनामानि ॥ ३ ॥ आवश्यकवृत्ति. उत्तराध्ययन. पत्रांक ग्रन्थनाम. पत्रांक ग्रन्थनाम. १८० कल्पभाष्य. १९३ १८१-१८६ कल्पसूत्र. १८९-१९१ - कल्पाध्ययन. १९३ - १९७ - २०३-२०५-२१० काव्यप्रकाश. २० उत्तराध्ययननियुक्ति. १९१ - १९५ - २०० - २०४- उत्तराध्ययनविवरण. २०५-२१६ उत्तराध्ययनवृद्धविवरण. ३-३६ उत्तराध्ययनवृत्ति. आचाराङ्ग. आवश्यक. ११-१४-१९-२२-३२-४० -४१-१५५-१६२-१६४ - १६८ - उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति. १७४-१७५-१७६-१७७ उपदेशपद. - १८७-१९१-२०३ - २०९ उपदेशमाला. - १५-१८७-१८८ | उपदेशरहस्य. १८७-१९१-१९३-|ओ नियुक्ति : पत्रांक. १४-३०-३७-४० १३० - १३९ - १४१-१६९ १३९ २०९ १५२ १९६ क्षुल्लक निर्ग्रन्थीयाध्ययन. १९४-१९७३-१९४ १९८-२०२ १५४ क्षुल्लक निधीयाध्ययनविवरण. १९४ ३-१८६ गच्छाचार. ३ ५-११ चूर्णि ९६ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनामानि. ॥१८॥ जीतकल्पवृत्ति. धर्मविन्दु. धर्मसंग्रहणी. गुरुतत्त्व- ग्रन्थनाम. पत्रांक. ग्रन्थनाम. पत्रांक. ग्रन्थनाम. पत्रांक. वृत्तिगत- जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति. ४२ पञ्चवस्तु. ४१ प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार. १५ जीतवृत्ति. १२० पञ्चाशक. ३-४-७-४० बन्धस्वामित्व. ६१ पापश्रमणीयाध्ययन, ३४ बृहद्वन्धस्वामित्व. द्वात्रिंशिका. १९४ पारमर्ष. १७-१७३ भगवती. १८५-१८७-१९०-१९१२३ पिण्डनियुक्ति. ३६-१५१ १९४-१९६-२०४-२०९ १८ , भाष्य. २१०-२११-२१२ नियरहस्य, १५ प्रकल्पव्यवहार २०८ नियुक्ति. १९१ प्रकल्पाध्ययन. 'भगवतीवृत्ति, १८१-१८५-१८७निशीथचूर्णि. १४९-१५१-१५३- प्रज्ञप्ति. ५३-१८९-१९१-१९३-" १८८-२०४ १५४-१५५-१६१ १९४-१९८-२१२. १९४-१११भाषारहस्य, हानिशीथभाष्य. १४ प्रज्ञप्तिवृत्ति. ७६-८२-१८५ न्यायावतारविवृति. १७ प्रज्ञापनासूत्र. २०३ महानिशीथ. ३-४-७-८-२३-३५पञ्चनिर्घन्धीप्रकरण. १८५-१८९ प्रथमाङ्ग. ३६-३७-४५-४६ meaninsumnameswar १५० भगवतीचूर्णि. १८६ भाष्य. For Private & Personal use only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रांक. 0 . VV 20 ० 0 ० A-NCROCOCRA ० १४९ समयसार. ग्रन्थनाम. पत्रांक. ग्रन्थनाम. पत्रांक. ग्रन्थनाम. यतिलक्षणसमुच्चय. ३ व्यवहारतृतीयोद्देशक. ७३ शास्त्रवार्तासमुच्चय. योगदृष्टिसमुच्चय. ७-१९४ व्यवहारदशमोद्देशक. ६४ , वृत्ति. ललितविस्तरा. ५ , द्वितीयोद्देशक. १३७ षडशीतिका. वन्दनकभाष्य. १५३ व्यवहारपीठिका. ८८-११५ सप्ततिकाचूर्णि. विशेषावश्यक. १८ व्यवहारप्रकल्पादि. व्यवहार. २५-५६-६३-७५-११६- व्यवहारभाष्य. ४-१३-२९-४२-६९ ... १४९-१६१ -७७-१२२-१२८ व्यवहारचतुर्थोद्देशक. ७८ व्यवहारभाष्यदशमोद्देशक. साधुधर्म विधिपञ्चाशक. १०६ व्यवहारचूर्णि. १४-१४९-१५१-१५३- व्यवहारवृत्ति. ६१-१५०-१५३-सूत्रकृत्. १५४-१५५-१५७ १५४-१५५-१५७ स्थानाङ्ग. व्यवहारतृतीयोद्देशक. ६९ व्याख्याप्रज्ञप्ति. १९ स्याद्वादकल्पलता. सम्मति. G E-ACCORRECAUG For Private Personal Use Only www.jainetitrary.org Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुतत्त्ववृत्तिगत गुरुतत्त्वविनिश्चयवृत्तावुल्लिखितान्याचार्याभिधानानि ॥ ४ ॥ ग्रन्थकृन्नामानि. ---009 पत्रांक. ६२-१०३ पत्रांक. आचार्यनाम. ६१-६७ व्यवहारचूर्णिकृत्. १५व्यवहारभाष्यकृत्. १९२ व्यवहारवृत्तिकार. १५ शान्तिसूरि. आचार्यनाम. पत्रांक. आचार्यनाम. अकलङ्क. १६-१७ चूर्णिकृत. अभयदेवसूरि. १८७ टीकाकार. आर्यरक्षित. १३ दशाचूर्णिकृत्. आवश्यकचूर्णिकार. ४१ देवसूरि. उत्तराध्ययनचूर्णिकृत् २१३-२१४ पूज्यपाद. कार्मग्रन्थिक. २०९ भगवतीवृत्तिकृत्. क्षुल्लकनिम्रन्थीयवृत्तिकार. २०२ भाष्यकृत्. क्षुल्लकनिम्रन्थीयाध्ययनवृत्तिकार. १९७ मलयगिरि. २६ महामति. |चूर्णिकार. २१२ वाचक. २१४ २०४ समन्तभद्र. १४-२२-६३ सम्मतिकार. १५-१८ सिद्धव्याख्याता. १७ हरिभद्रसुरि. ७-२१६ हेमचन्द्रसूरि. २१-३५-१९४-२०८ Main Education International For Private & Personal use only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय-श्रीयशोविजयविरचितः अस्पृशद्गतिवादः। OCOCONUAGEMEMOGLOGOOGLE अस्पृशद्गतिमतीत्य शोभते, सिद्ध्यतो नहि मतिः सुमेधसाम । इत्यखण्डतमपण्डपण्डिताचारमण्डणमसावुपक्रमः ॥ १॥ इह केचिदतिस्थूलमतयः 'अन्तरालप्रदेशस्पर्शनं विना कथमुपरिभागप्रदेशस्पर्शनसम्भवः ?' इति बम्भ्रभ्यमाणाः सिद्धिगमनसमये। दास्पृशन्तीमेव गतिमभिमन्यन्ते सूत्रोक्तां च सिद्ध्यतो गतेरस्पृशत्तामुभयपार्श्वप्रदेशास्पर्शनेन समर्थयन्ति तेषां कामप्यपूर्वा वैदग्धीमाकल यामः, यत एवमुपरितनोपरितनप्रदेशस्पर्शनस्याधस्तनाधस्तनप्रदेशस्पर्शपूर्वकत्वनियमोपगमे समयबाहुल्यापत्त्या समयान्तरास्पर्शनोक्ति | ग्रन्थस्यास्यादृष्टपूर्वस्यैकमेवाचं पत्रमासादितं लीम्बडीनगरीयश्रीसङ्घसरकभाण्डागारविप्रकीर्णपत्रसंग्रहात् । अमिधान किलास्य "अस्पृशगतिवाद"IA 18|इति-"इत्यादि समर्थितं महता प्रबन्धेनास्पृशद्गतिवादेऽस्माभिरिति किमतिपल्लवितेन" इति न्यायखण्डखाद्यान्तनिष्टतितोल्लेखातिनिश्चितम्। उपलब्धो भवेच्चेत् कैश्चिन्मुनिवरैः परिपूर्णोऽयं ग्रन्थः कुतश्चित् तहि ते स्वयं प्रकाशयन्तु ज्ञापयन्तु वाऽस्मानित्येतन्मुद्रणे प्रयतिष्यामो वयम् । For Private Personal use only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्पृश द्वातिवादः COCCASEASEENUGROSCOR व्याघातः, तन्नियमाऽनुपगमे चैकहेलयैवाखिलान्तरालिकप्रदेशास्पर्शनेनैव सिद्धिक्षेत्रावगाहनोपपत्तावस्मदभिमताभ्युपगमप्रसङ्गः । न च 'एकस्मिन्नपि समयेऽखिलान्तरालिकप्रदेशस्पर्शनं दण्डकरणवदुपपत्स्यते' इति शङ्कनीयम , तथासति तदानीं तावतो दण्डस्यैव करणप्रसङ्गात् 'यावत्यैवावगाहनया जीवोऽवगाढस्तावत्यैवोर्द्ध गच्छति' इत्युक्तिव्याघातप्रसङ्गात् । इदमेव हि "उज्जुसेढीपडिवन्ने अफुसमाणगई एगसमएणं अविग्गहेणं उड़ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ" इति प्रज्ञापनासूत्रस्थले "अविग्रहेण-विग्रहस्य अभावोऽविग्रहः तेन एकेन समयनाऽस्पृशन्-समयान्तरप्रदेशान्तरास्पर्शनेनेत्यर्थः, अजुश्रेणिं च प्रतिपन्नः। एतदुक्तं भवति-यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहाबगाढस्तावत एव प्रदेशानूई ऋजुश्रेण्याऽवगाहमानो विवक्षिताच समयादन्यत् समयान्तरमस्पृशन् गत्वा । तथा चोक्तमावश्यकचूर्णी-'जत्तिए जीवोsवगाढो तावतिआए ओगाहणाए उडु उजुगं गच्छइ, न वंक, वितिअं च समयं न फुसति ।" भाष्यकारोऽप्याह-"रिउसेढिं पडिवन्नो, समयपएसंतरं अफुसमाणो । एगसमएण सिज्झइ, अह सागारोवउत्तो सो॥ १॥” इत्यादिवृत्तिवचनममृतप्रायमपि निपीय समुत्पन्नस्य भ्रमविपस्य (स्यो) परममुत्पश्यामः, तावतामेव प्रदेशानामूर्द्धमवगाहनयाऽऽन्तरालिकप्रदेशास्पर्शनस्य स्पष्टमुपपत्तेः । न च सिद्धिक्षेत्रावच्छिन्नप्रदेशस्पर्शनेनाप्यस्पृशताव्याघातः, आन्तरालिकप्रदेशास्पर्श ने] नेवास्पृशत्ताविवक्षणात् । तदिदमुक्तं वादिवेतालेन श्रीमता| शान्तिसूरिणा-"अफुसमाणा गइ” इति अस्पृशद्गतिरिति नायमर्थः-यथा सर्वान आकाश[प्रदेशा]न स्पृशति अपि तु यावत्सु जीवोऽवगाढस्तावत एव स्पृशति न तु ततोऽतिरिक्तमेकमपि प्रदेशमिति ।” अत्र हि स्वावगाहातिरिक्तप्रदेशास्पर्शनेनैवास्पृशत्त्वमुपपादितम् । इत्थमेवाऽऽवश्यकचूर्णी-"उजुसेढिपत्तो जत्ति[आ]ए जीवो अवगाढो तावतिआए अवगाहणाए उड़े उजुगं गच्छइ, न वंकं, अफुसमाणगती बितिअं समयं ण फुसति; अह्वा जेसु अवगाढो जे अ फुसति उडमवि गच्छमाणो तत्तिए चेव आगासपएसे फुसमाणो ॥१॥ JainEducation international For Private Personal use only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छति" इति । अत्र विवक्षाभेदाद् व्याख्यानभङ्गद्वयोपपत्तिः, यथाक्रमं सिद्धिक्षेत्रप्रदेश-आन्तरालिकप्रदेश-स्पर्शन-अस्पर्शनविवक्षणात् । अत्र च प्रदेशापेक्षयाऽस्पृशत्ता प्राचि पक्षे उपसर्जनीकृता उत्तरपक्षे च प्रधानीकृतेति विशेषः । न चैवं गौणमुख्यत्वाभ्यां व्याख्यानोपपत्तिरदृष्टचरी, "नामाइतिअं दव्वढिअस्स भावो अपजवणयस्स । भावं चित्र सद्दणा, सेसा इच्छन्ति सव्वनिक्खेवे ॥" इत्यादि विशेषावश्यकादौ शतश एवंव्याख्यानभेदस्य दृष्टपूर्वत्वात् । हन्त अस्पृशदतिः" इति कोऽर्थः ? स्वावगाहातिरिक्तनभःप्रदेशान् अस्पृशन् ( एतावानुपब्धोऽयं प्रन्थः) JainEducation international For Private Personal Use Only . Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः यता ।। अहम् ॥ न्यायाचार्य-श्रीमद्-यशोविजयोपाध्यायविरचितलंघुवृत्त्युपेता कर्मप्रकृतिः। ऐन्द्रश्रेणिनतं नत्वा वीरं तत्वार्थदेशिनम् । अथै संक्षेपत्तः कर्मप्रकृतेर्यनतो ध्रुवे ॥ १॥ सिद्धं सिद्धत्थसुअं वंदिय निद्धोयसवकम्ममलं । कम्मट्ठगस्स करणट्ठगुदयसंताणि वोच्छामि ॥१॥ । सिद्धं ति ॥ सिद्धं सिद्धार्थसुतं, वंदित्वा निधीतसर्वकर्ममलम् । कर्माष्टकस्य करणाष्टकं उदयसत्ते च वक्ष्यामि ॥ १॥ तत्रादौ करणाष्टकमेव प्रतिपादयति ACCOUNDRORRECRY १ लीम्बडीनगरीय श्रीसङ्घसत्कचित्कोशगत-कर्मप्रकृति-मूलादर्शप्रथमपत्रे पूरितैतावती वृत्तिः पञ्चपाठरूपेण श्रीमद्भिः स्वहस्तेन, रिक्तानि च शेषपत्राणीति | सम्भाव्यते 'कार्यान्तरव्यापृतैः पूज्यैरुपेक्षितेयम्' इति । अन्यत्र वा कुत्रचित्पूर्णीकृताऽपि स्यादित्यतीन्द्रियज्ञानिगम्यमेतत् । उपलब्धा स्याचेत्कैश्चिन्मुनिवरैरियं वृत्तिः कुतश्चित्तर्हि ज्ञापनीया वयं तैः । ज्ञापिताः सन्तो न प्रमदिप्याम एतम्मुद्रण इति ॥ For Private & Personal use only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधन - संकमणु-घणा य अववहणा उदीरणया । उवसामणा णिवन्ती णिकायणा च त्ति करणाई ॥ २ ॥ वंधण ति ॥ बध्यते - अपूर्वं गृह्यतेऽनेन तद्बन्धनम् । संक्रम्यते - अन्यप्रकृतिरूपतया स्थितमन्यप्रकृतिरूपतयाऽऽपाद्यते येन तत्संक्रम णम् । उद्वयेंते-प्रभूतीक्रियेते स्थितिरसौ यया वीर्यपरिणत्या सोद्वर्तना । एवमपवते - ह्रस्वीक्रियेते तो यया साऽपवर्त्तना । उदीर्यते - अनुदयप्राप्तमुदयावलिकायां यया सोदीरणा । उदयोदीरणानिधत्तिनिकाचनाऽयोग्यत्वेन व्यवस्थापनमुपशमना । उद्वर्त्तनापवर्त्तनान्यकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं निधत्तिः । सकलकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापन निकाचना इति एतानि करणानि ॥ २ ॥ एषां वीर्य विशेषरूपत्वादादौ वीर्यमेव प्ररूपयति— विरियंत राय दे सक्खएण सङ्घक्खएण वा लद्वी । अभिसंधिजमियरं वा तत्तो विरियं सलेसस्स ॥ ३ ॥ विरियं इत्यादि । वीर्यान्तरायस्य देशक्षण-क्षयोपशमेन च्छद्मस्थानां सर्वक्षयेण च केवलिनां वीर्यलब्धिर्भवति, ततस्तस्याः सकाशात् सलेश्यजीवमात्रस्य (अभिसंधिर्ज' बुद्धिपूर्वकं धावनादिक्रियाहेतुः 'इतरत् अनभिसंधिजं च मुक्ताहारस्य धातुमलत्वाद्यापादकं करणवीर्यं भवति, सलेश्यवीर्यलब्धेर्हेतोः सदातनत्वेन तत्कार्यकरणवीर्यस्यापि तथात्वात् । यत्तु भगवत्यादावशैलेशीप्रतिपन्नानां करणवीर्यस्य भजनीयत्वमुक्तं तदुत्थानादिक्रिया हेतु बाह्यकरणमाश्रित्यैवेति ध्येयम् ॥ ३ ॥ परिणामाबणगहण साहणं तेण लद्धनामतिगं । कज्जन्भासण्णोण्णप्पवेसविसमीकयपएसं ॥ ४ ॥ परिणामति । तत् करणवीर्य योगनामधेयं परिणामालम्बनग्रहणसाधनं तेन हेतुना च परिणामादिसंज्ञया लब्धनामत्रिकं भवति तथाहि — ग्रहणवीर्येणैौदारिकादिवर्गणा गृह्णाति, परिणामवीर्येणैौदारिकादिरूपतया परिणमयति, आलम्बनवीर्येण च मन्दशक्तिर्यष्टिमिव : Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः ॥ ३ ॥ भाषादिद्रव्याणि भाषादिनिसर्गार्थमालम्बत इति । तथा कार्यस्याभ्यासः - नैकट्यं परस्परं प्रवेशश्च - शृङ्खलावयवानामिवैकक्रियानियतक्रियाशालित्वं ताभ्यां विषमीकृताः प्रदेशाः येन तत् तथा । येषु कार्याभ्यासः तेष्वधिकं वीर्यमन्येषु चात्मप्रदेशेष्वल्पाल्पतरमित्यर्थः ॥ ४ ॥ अत्र एतानि द्वाराणि - अविभाग- वग्ग-फड्डुग- अंतर- ठाणं परंपरोवणिहा । जोगे परंपरा - बुद्धि-समय- जीवप्पबहुगं च ॥ ५ ॥ अविभाग ति || अविभागप्ररूपणा १ वर्गणाप्ररूपणा २ स्पर्द्धकप्ररूपणा ३ अन्तरप्ररूपणा ४ स्थानप्ररूपणा ५ अनन्तरोपनिधा ६ 'योगे' योगविषये परम्परोपनिधा ७ वृद्धिप्ररूपणा ८ समयप्ररूपणा ९ ततो जीवानामल्पबहुत्वप्ररूपणेति १० ॥ ५ ॥ पन्नाछेयणछिन्ना, लोगासंखिजगप्पएससमा । अविभागा एक्केके, हुंति पएसे जहणेणं || ३ || पन्न त्ति || केवलप्रज्ञाछिन्ना अविभागा एकैकस्मिन् प्रदेशे लोकस्यासंख्येयकं - असंख्याता लोकाः तत्प्रदेशसमा जवन्येन भवन्ति । | उत्कर्षतोऽप्येतावन्त एव किन्तु जघन्यतोऽसंख्यातगुणाः ॥ ६ ॥ जेसिं परसाण समा, अविभागा सवओ अ थोवतमा । ते वग्गणा जहण्णा, अविभागहिआ परंपरओ ॥ ७ ॥ जेसिंति ॥ येषां प्रदेशानां समा अविभागाः सर्वतश्चान्येभ्यः स्तोकतमास्ते घनीकृतलोका संख्येयभागवृत्त्य संख्येयगत प्रदेश राशिप्रमाणाः समुदिता एका वर्गणा । 'परंपरतः' यथोत्तरं एकाद्य विभागाधिका वाच्याः ॥ ७ ॥ ( एतावानेव संकलितोऽयं ग्रन्थः ! ! ! ) लघुवृत्तियुता. ॥ ३ ॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SONGMANORAMANNARENRNARRANGITY NAVRUTA GEWS RAMMARIES AJMER NERMAN MPIESTI KA समाप्तोऽयं सवृत्तिको गुरुतत्त्वविनिश्चयः / For Private Personal Use Only