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खेंचे अने मनस्तर्पण करे तेवु छे. त्यार पछी व्यवहारीना वर्णनमा प्रन्थनो पुष्कळ भाग रोकी तेनो दरेकरीते विचार कयों छे. अने छेवटे व्यवहर्तव्यना संबंधमां पण विस्तृत चर्चा करी छे जे अहीं आपवी कठण छे.
तृतीय उल्लास. त्रीजा उल्लासना प्रारंभमा उपाध्यायजी गुरुविषयक चतुर्भगी बतावी कहे छे के अमुक प्रकारनो गुरु त्याज्य अने अमुक प्रकारनो गुरु अत्याज्य छे. ते चतुर्भगी जाणवा जेवी छे. १ वस्त्रपात्रादि साधन पूरं पाडनार अने संयममा सीदाताने सारणा न करनार एवो इहलोकहितकारी छतां परलोकहितकारी नहि. २ वरपात्रादि साधन पूरुं न पाडनार अने प्रमादमा पडताने सारणा आदिथी सावध करनार एवो इहलोकहितकारी नहि छतां परलोकहितकारी. ३ इहलोकहितकारी तथा परलोकहितकारी. ४ इहलोकहितकारी ए नहि अने परलोकहितकारी ए नहि. आवा चार प्रकारना गुरुओमांथी बीजा अने त्रीजा प्रकारना गुरुओनी संगति कोइ पण रीते छोडवी न घटे. खास करी त्रीजा प्रकारना गुरुनी संगति तो शिष्यमाटे अत्यंत हितावह होवाथी तेनुं महत्त्व बताववामां आव्युं छे. 15
चतुर्भगीना वर्णन पछी उपसंपद् लेवानी एटले गच्छान्तर करवानी परिपाटीनुं बहु ज विस्तृत अने व्यवस्थासूचक वर्णन छे. एक साधु ज्ञान, दर्शन के चारित्रनी वृद्धिनिमित्ते उत्सर्गथी पोताना गुरुने पुछीने के अपवादे वगर पुछथे पण सकारण गच्छान्तर खीकारे अर्थात् बीजानो मर्यादापूर्वक गुरुतरीके आश्रय ले ए उपसंपदू कहेवाय छे. ज्ञाननिमित्ते दर्शननिमित्ते अने चारित्रनिमित्चे
गुस्त
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