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________________ ग्रन्थy वस्तु टुंकामां गच्छान्तर केम स्वीकारखो एना संबंधमां बहु ज विगतवार बारीकीथी वर्णन कर्यु छे. जेमां जैनसंघना खास करी साधुसंघना है 18| विशिष्ट अने व्यवस्थित बंधारणनो इतिहास समायलो छे. ॥१९॥ ___उपसंपतूना प्रकरणमा घणी ए वातो असाधारण महत्त्वथी भरेली छे, ए तेना अभ्यासथी ज खरी रीते जाणी शकाय. छतां 8 तेमांनी एकाद वात अहीं नोंधवामां आवे छे. गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्याय आदि महान् पदउपर प्रतिष्ठित पुरुषोए पण धर्म अने विनय एटले के ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी वृद्धिने माटे गच्छांतरमा रहेल विशिष्ट ज्ञानादिगुणोथी युक्त आचार्यपासे उपसंपत् स्वीकारवी. अने तेम करवा पहेला तेओए | पोताना गच्छमांनी योग्य व्यक्ति उपर पोतपोताना पदनो भार आरोपीने अने तेमनी एटले नवीन आचार्यादिकनी आज्ञा के अनुमति लइने ज उपसंपत् स्वीकारवी जोइए, उपसंपत् स्वीकारतां पहेला तेओए आ वात खास ध्यानमा राखवी जोइए के-जे आचार्या-18 |दिकनी पासे उपसंपत् स्वीकारवा धार्यु छे त्यां तेमने सविशेष धर्म अने विनयनी प्राप्ति थवी शक्य होवी ज जोइए. पोताना पदपर प्रस्थापित नवीन आचार्यादिनी आज्ञा लेवामां तेमनो उद्देश ए ज छे के-पोताना अन्य शिष्य-प्रशिष्यो पोतानी जेम ते नवीन आचार्यादिनो यथायोग्य विनय, बहुमान आदि करे, अने ते द्वारा तेओ ते नवीन आचार्यादिकनी पासेथी| उत्तरोत्तर धर्म अने विनयनी वधारे ने वधारे प्राप्ति करे. गणावच्छेदक, आचार्य अने उपाध्याय जेवा पदधरोने पण पोतानुं पद छोडी साधारण साधु तरीके बीजार्नु शिष्यत्व स्वीकार ॥१९॥ nelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.600159
Book TitleGurutattva Vinischaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Chaturvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1925
Total Pages540
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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