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________________ दावानी आ उदार योजना जैनशासनमा रहेल धर्म अने विनयनी महत्ताने सूचवे छे. धर्म अने विनयनी प्राप्ति तथा वृद्धिमाटे बीजें बधुं जतुं करवानी उदार आज्ञामां गुणोनी कीमतनुं भान थाय छे. गणावच्छेदक, आचार्य अने उपाध्याय जेवा पधरोने खास कारणवश उपसंपत् लेवी पडे त्यारे तेओए शुं शुं करवं एनुं शास्त्रीय वर्णन साधुसंघना बंधारणनी पाछळ रहेली दीर्घदर्शिता, व्यवहारकुशळता अने सूक्ष्म चातुरीनुं भान करावे छे. उपर ए कहेवामां आव्यु के बीजा अने त्रीजा प्रकारना गुरुओनी संगति कोइ पण रीते छोडवी न घटे अर्थात् प्रथम अने| चतुर्थ भंगवी गुरुओ कुगुरु होइ तेमनो सर्वथा त्याग करवो जोइए. आ कुगुरुओना,-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त अने यथाच्छन्द ए प्रमाणे,-पांच प्रकारचें विस्तृत वर्णन ते विषयना खास जुदा प्रकरणर्नु भान करावे छे. MI पार्श्वस्थादि पांच, छठो नित्यवासी एटले खास कारण सिवाय पौद्गलिक सुखोनी लालसाथी एक ज स्थानमा नित्य वसनार अने ए छथी भिन्न संविग्न पण काथिक आदि चार होय तो तेवाओ अवंदनीय होइ तेमने वांदवा अने प्रशंसवामां शा शा दोषो| दारहेला छे ए बताववा साथे वंदन करावनार तेवा कुगुरुओ पण केवा दोषभागी थाय छे ते बताववामां आव्युं छे. काथिक, दार्शनिक-प्रानिक, मामक अने संप्रसारक ए चार प्रकारना त्याज्य संविग्न गुरुओनां लक्षणो जाणवा जेवां छे४१ जे स्वाध्याय आदि कर्त्तव्य योगोने छोडी धर्मकथा अगर देशकाळनी कथा केवळ आजीविका, पूजा प्रतिष्ठा आदि पौगलिक लालसाखातर करे ते काथिक. २ जे लोकोमां, नटनाटकोमा फरी तमाशा जोया करे अने कोइ गृहस्थोने तेओना व्यवहारमा पडी तेओना प्रभोनुं निराकरण कर्या करे ते दार्शनिक अथवा तो प्रानिक, ३ जे उपकरणोमां एटलो बधो आसक्त होय के दरेक वखते ARC HICS JainEducation International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600159
Book TitleGurutattva Vinischaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Chaturvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1925
Total Pages540
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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