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________________ टुंकामां SACROR वस्तु. ॥१८॥ 18 जेम ज्ञानना निरूपणमा ज्ञानी अने ज्ञेय ए बन्नेनुं निरूपण आवश्यक छ, तेम व्यवहारतुं स्वरूप बताववामां व्यवहारी (व्यवहारकर्ता)[81 ग्रन्थy अने व्यवहर्त्तव्य (व्यवहारन्ते विषय ) ए बन्नेनुं स्वरूप बतावq पण जरूरी छे, आम कही तेओ अनुक्रमे व्यवहार, व्यवहारी अने व्यवहर्त्तव्यनुं स्वरूप वर्णवे छे. (क) व्यवहार-व्यवहारना अहीं बे अर्थ छे. १ योग्यतानो विचार करी शास्त्रोक्तरीते तप आदि अनुष्ठान आपी अतिचार दूर करवा अर्थात् प्रायश्चित्त आपq ए व्यवहार, २ कोइ पण एक वस्तु प्राप्त करवा ज्यारे बे जणमा विवाद उभो थाय अने तेओ है चुकादामाटे गुरुपासे आवे त्यारे गुरु शास्त्रीय दृष्टिए जेने जे वस्तु मळवी घटे ते वस्तु बीजा पासेथी लइ तेने आपे ए व्यवहार. अर्थात् मध्यस्थतरीके गुरुए शास्त्रानुसार आपेल चुकादो के न्याय, (ख) व्यवहारी-जे गुरुओ प्रियधर्म, दृढधर्म, पापभीरु, सूत्रार्थादिज्ञाता होइ निष्पक्षपातपणे व्यवहार करे ते व्यवहारी कहेवाय छे. | (ग) व्यवहर्त्तव्य-जे दोषपात्र होवाथी प्रायश्चित्तनो अधिकारी होय ते व्यवहर्त्तव्य, तेम ज जेओ विवादना चुकादामाटे गुरुनो प्रमाणतरीके आश्रय ले तेओ पण व्यवहर्त्तव्य.. आ प्रमाणे त्रणेनुं स्वरूप बतावी उपाध्यायजीए आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीत एम व्यवहारना पांच प्रकारो वर्णव्या8॥१८॥ छे. आ प्रत्येक प्रकारना संबंधमां तेओए घणुंज शास्त्रीय तत्त्व व्यवस्थित रीते आलेखेलु छे, जे ते विषयना जिज्ञासुओर्नु खास ध्यान For Private Personal Use Only SUSUGAUSAMSUNGAR E CASSES www.jainelibrary.org
SR No.600159
Book TitleGurutattva Vinischaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Chaturvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1925
Total Pages540
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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