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आ ते व्यवहार अने निश्चयदृष्टिए विचार करवानी भूमिका रची, गुरुतत्त्वना विचारमां ते बन्ने दृष्टिनो उपयोग उपाध्यायजी करे छे. तेओ प्रारंभमां केवळ निश्चयवादीने पूर्वपक्षी ( शंकाकार) तरीके उभो करी तेनी मारफत केटलीक दलीलो शंकारूपे रजू करावे छे। अने त्यार बाद उत्तरपक्षी ( सिद्धान्ती ) रूपे पोते ए बधी शंकात्मक दलीलोनुं उंडाण अने औदार्यथी समाधान करे छे. आ शंका-समाधानमांथी केटलीक दलीलो नमूनारूपे नीचे, जोइए
शंकाओ.
(क) केवळनिश्वयवादी व्यवहारने निष्फळ बताववा कहे छे, के-'भरते व्यावहारिक गुरुपद ( प्रव्रज्याविधान, लिंग आदि ) लीधुं न हतुं, छतांए केवळ ज्ञान प्राप्त कर्यु. एटले व्यवहारस्वरूप कारणना अभावमां पण कार्यनी निष्पत्ति भरतने थइ. ए व्यतिरेकव्यभिचार. तेवी रीते प्रसन्नचंद्रे व्यावहारिक गुरुपदमां स्थित छतां कायोत्सर्गदशामां केवळज्ञान न मेळव्युं. ए व्यवहाररूप कारण छतां कार्यनी असिद्धिरूप अन्वयव्यभिचार थयो. आ रीते केवळज्ञाननी प्राप्तिरूप फळ सिद्धिप्रत्ये व्यावहारिक गुरुत्वनो व्यतिरेकव्यभिचारं अने अन्वयव्यभिचार होवाथी, तेवा व्यवहारने मोक्षनुं कारण मानी तेने पोष्या करवो ए शुं नकामुं नथी ?'
(ख) मात्र निश्चय उपर भार मूकनार शंकाकार कहे छे, के 'धारो के कोइने संयमयोग्य गुणो प्राप्त थया छे. तो पछी तेवाने प्रत्रज्याविधानादि व्यवहारमां पडवु, ए तृप्त मनुष्यने जळनी शोधमां पडवा जेवुं नथी ?. तेथी उलटुं एम धारो, के कोइने संयमयोग्य गुणो प्राप्त थया नथी, तो पछी तेवा अयोग्यने व्यावहारिक प्रव्रज्याविधान ए ऊखर जमीनमां बीज बाववा जेवुं नथी शुं ?. एटले के जेणे संयमयोग्य गुणो मेळव्या होय तेने ल्यो, के न मेळव्या होय तेने ल्यो, बन्ने रीते व्यावहारिक प्रव्रज्यानो शो उपयोग छे ?'
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