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________________ सम्पादकीय वक्तव्य. आ जे जे ग्रंथरत्न दुर्लभताना अंधकारमाथी नीकळी सुलभताना प्रकाशमां मूकाय छे, तेनो छपामणीने लगतो बधो य इतिहास | टुंकमा अहीं आपी देवो योग्य छे. ते उपरथी वाचकोने ख्याल आवशे के मुद्रणनी यत्रणाओ सही जे पुस्तको - एकवार सुलभ थाय छे तेनी पाछळ केटली मुश्केली भरेली क्रियाओ अने संपादकनी कठण जवाबदारी रहेली छे? आजथी लगभग सात वरस पहेला संवत् १९७३ मां मारा पूज्य गुरु प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराज अने ते वखतना तू मुनि पण आजे श्रद्धेय आचार्य श्री १०८ श्रीविजयवल्लभसूरि महाराज साथे चोमासुं रह्यो हतो. एक प्रसंगे विद्यारसिक श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देशाई बी. ए. एल. एल. बी. द्वारा मालुम पड्यु के गुरुतत्त्वविनिश्चयनी एक हस्तलिखित प्रति अहींनी मोहनलालजी जैन लाइब्रेरीमा छे. ते उपरथी ते प्रति श्रीयुत मोतीचंदभाई गीरधरभाई कापडीया द्वारा मंगावी अने जोइ. जोतां प्रथमदर्शने ज भान थयु के आ प्रतिना मार्जिनमा जे अक्षरपंक्तिओ छे ते तेम ज वचमा पण ज्या ज्या सुधारेल अक्षरो छे ते खुद उपाध्यायजीनी ज हस्तलिपि छे. ए कारणथी अने ग्रंथना महत्त्वने लीधे तेने छपावी सौने माटे सुलभ करवानो विचार त्यां ज उद्भव्यो. 'कोइ पण काम करवानो विचार थाय ए ज तेनो प्रथम पायो छे.' ए नियम प्रमाणे आ ग्रंथना मुद्रणनो पायो मुंबइमां । Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600159
Book TitleGurutattva Vinischaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Chaturvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1925
Total Pages540
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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