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________________ रनी टीपमा जाणवानी खातर 'पूर्वार्ध, उत्तरार्ध' एम लख्यु होय एवा बे अंशो बे कृतिरूपे नोंधाया छे. आ भ्रमनिरसन ज्यारे शक्य होय त्यारे तो तेवो भ्रम आवा प्रखर विद्वाननी कृतिओना संबंधमा चालु रहे ए वांछनीय न ज होइ शके. I (ग) उपाध्यायजीनी घणी कृतिओ अनुपलब्ध छे छतां धणानां नामो मळे छे. अने केटलीक कृतिओना खंडित अप्रकाशित अंशो पण मळे छे. आ बधी पूर्ण अपूर्ण उपलब्ध अनुपलब्ध कृतिओनुं लीस्ट करी ते ते उल्लेखो उपरथी ते ते कृतिओना रचनासमयनुं पौर्वापर्य नकी करी प्रथमनी कृति अने छेवटनी कृतिना समय उपरथी तेओना आयुष्यनुं मान काढवं कठण छतां शक्य छे ज. एवी दशामां आवा महान पुरुषना जीवनने लगती, खास करी आयुष्यने लगती, शोधमा कोइ पण रीते उपेक्षा करवी ए ऐतिहासिकने न ज गमे. आ अने आना जेवां बीजां कारणोथी उपाध्यायजीनुं जीवन तेओना समग्र साहित्यना वारवारना अवलोकन अने मनन पछी ज प्रामाणिक रीते लखी शकाय. आ काम गमे तेटलुं श्रम, समय अने धनव्ययसाध्य होय छतां आवश्यक छ ज. कोइ आज करे के काल, पण तेओनुं तेवू गवेषणापूर्ण जीवन लखावाथी घणा साधु-साध्वीओने अने गृहस्थोने नवी ज प्रेरणा मळशे तेमां जरा ये शक नथी, जैनेतर साक्षरो आ काम करे एवी आशा तो अस्थाने छे. पण कोइ विद्यारसिक जैन ए विषयमा श्रम करे तो जैनेतर ऐतिहासिक साक्षरोने तो जरूर आकर्षित करी शके. _ आवी दृढ मान्यता छता, अने एवा जीवनने लखवानुं काम इष्ट तथा शक्य छता, बीजां प्रथमथी ज स्वीकारेल अगत्यनां| कार्योने लीधे अमे अत्यारे आ बाबतमां कशें करी शकीए तेम नथी. अलबत ते, जीवन लखवामा उपयोगी थाय तेवी सामग्री ज्यां| PIROSLAOSISULISTRO Jan Education internations For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600159
Book TitleGurutattva Vinischaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Chaturvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1925
Total Pages540
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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