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धवला-टीका-समन्वितः
पट्खंडागमः
क्षुद्रकबन्ध
खंड २
पुस्तक ७
सम्पादक हीरालाल जैन
Jain Education in
wwwjainelibrary.org
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श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीत:
षट्खंडागमः
श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः ।
तस्य द्वितीय-खंडः
क्षुद्रकबन्धः हिन्दीभाषानुवाद-तुलनात्मक टिप्पण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टेः सम्पादितः
सम्पादकः नागपुरस्थ-गारिस-कालेज-संस्कृताध्यापकः एम्. ए., एल्. एल्. बी., डी. लिट. इत्युपाधिधारी
. हीरालालो जैनः
सहसम्पादकः पं. बालचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री
संशोधने सहायको व्या. वा., सा. सू., पं. देवकीनन्दनः डा. नेमिनाथ-तनय-आदिनाथः
सिद्धान्तशास्त्री - उपाध्याय एम् . ए., डी. लिट.
प्रकाशक: श्रीमन्त शेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र जन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालयः
अमरावती (बरार )
वि. सं. २००२
]
।
ई. स. १९४५
वीर-निर्वाण-संवत् २१७१ मूल्यं रूप्यक-दशकम्
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प्रकाशक
श्रीमन्त शेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र, जैन-साहित्ये|द्धारक-फंड - कार्यालय अमरावती ( बरार )
मुंदेक
टी. एम्. पाटील
मैनेजर सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, अमरावती.
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THE
ŞAȚKHANDĀGAMA
OF
PUSPADANTA AND BHUTABALI
WITH
THE COMMENTARY DHAVALA OF VĪRASENA
VOL. VII KSUDRAKA-BANDHA
Edited with introduction, translation, indexes and notes
BY Dr. HIRALAL JAIN. M. A., LL. B., D. Litt., C. P. Educational Service, Morris College, Nagpur.
ASSISTED BY Pandit Balchandra Siddhānta Shastri.
with the cooperation of Pandit DEVAKINANDAN
Dr. A. N. UPADHYE Siddhanta Shastri X
M. A. D. LITT.
Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sāhitya Uddhāraka Fund Kāryālaya.
AMRAOTI Berar ).
1945 Price rupees ten only:
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Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Uddhāraka Fund Kāryālaya,
AMRAOTI (Berar ).
Printed by T. M. Patil, Manager, Saraswati Printing Press,
AMRAOTI ( Berar ).
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विषय-सूची
प्राक्कथन
i-ii
प्रस्तावना
Introduction १ क्या षट्खंडागम जीवट्ठाणकी
सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में 'संयत' पद अपेक्षित नहीं
मूल, अनुवाद और टिप्पण
क्षुद्रकबन्ध बन्धक-सत्त्व-प्ररूपणा १ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व .... २५ २ , , , काल .... ११४ ३ , , , अन्तर .... १८७ ४ नाना जीवोंकी , भंगविचय.... २३७ ५ द्रव्यप्रमाणानुगम .... .... २४४ ६ क्षेत्रानुगम. .... .... २९९ ७ स्पर्शनानुगम .... ८ नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगम ४६२ ९, , , अन्तरानुगम ४७८ १० भागाभागानुगम .... .... ४९३ ११ अल्पबहुत्वानुगम
महादण्डक
२ मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रति
योंमें जीवट्ठाणकी सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में 'संजद' पाठ है। ३ विषय-परिचय .... १ क्षुद्रकबन्धकी विषय-सूची ५ शुद्धिपत्र
....
.... ५२०
परिशिष्ट
१ क्षुद्रकबन्ध-सूत्रपाठ .... २ अवतरण गाथा-सूची .... ३ न्यायोक्तियां ४ ग्रंथोल्लेख .... ५ पारिभाषिक शब्दसूची
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धाक कथन
इससे पूर्व प्रकाशित पुस्तकमें षट्खंडागमका प्रथम खण्ड जीवस्थान ( जीवट्ठाण ) समाप्त हो चुका है | उसे प्रकाशित हुए लगभग डेढ़ वर्ष हुआ है। अब प्रस्तुत पुस्तकमें षट्खंडागमका दूसरा खण्ड क्षुदकबन्ध ( खुद्दाबंध ) पूर्व पद्धति अनुसार अनुवादादि सहित प्रकाशित किया जाता है । इस खण्डके ग्यारह मुख्य तथा प्रास्ताविक व चूलिका इस प्रकार कुल तेरह अधिकारें। क्रमशः ४३, ९१, २१६, १५१, २३, १७१, १२४, २७४, ५५, ६८, ८८, २०६ और ७९ योग १५८९ सूत्र पाये जाते हैं। इन अनुयोगोंका विषय प्रायः वही है जो जीवस्थान खण्डमें भी आ चुका है। विशेषता यह है कि यहां मार्गणास्थानोंके भीतर गुणस्थानोंकी अपेक्षा रखकर प्ररूपण किया गया है जैसा कि विषय परिचयसे प्रकट होगा । यही कारण है कि इस खण्डमें उतने तुलनात्मक टिप्पण देने व विशेषार्थ लिखनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई।
इसी समयमें हमारी स्वीकृत संशोधन प्रणालीकी कठोर परीक्षाका अवसर आ उपस्थित हुआ । पाठकोंको ज्ञात है कि हमने अत्यन्त सावधानीसे उपलब्ध प्रतियोंके पाठकी रक्षा की है । उपलभ्य पाठमें या तो भाषाकी दृष्टिसे केवल वे ही संशोधन किये गये हैं जिनके नियम हम प्रथम पुस्तककी प्रस्तावनामें प्रकट कर चुके हैं । या यदि कहीं कुछ पाठ जोड़ना आवश्यक प्रतीत हुआ तो वह पाठ कोष्ट कमें रखा गया है या उसकी संभावना पाद टिप्पणमें बतलाई गई है । जीवस्थानकी सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में इसी प्रकारका एक प्रसंग उपस्थित हुआ था जहां अर्थ, शैली, टीका, सिद्धान्तपरम्परा आदि समस्त उपलब्ध प्रमाणोंपर विचार कर फुटनोटमें ' संजद ' पद छूट जानेकी सभावना प्रकट की गई थी और अनुवाद उस पदको ग्रहण करके ही बैठाया गया था। इस पर पाठकोंको जो शंका उत्पन्न हुई उसका समाधान भी पुस्तक ३ की प्रस्तावनामें कर दिया गया था । किन्तु अभी अभी उस प्रश्नपर फिर बड़ा विवाद उपस्थित हो उठा । बहुतसे पंडितोंने यह आक्षेप किया कि उक्त सूत्रमें 'संयत' पद ग्रहण करनेसे दिगम्बर मान्यताको आघात पहुंचता है और उसकी संभावना सम्प्रदायको क्षति पहुंचने की दृष्टिसे ही सम्पादकने प्रकट की है । इन आक्षेपोंसे बचने के लिये उस समयके मेरे एक सहकारी सम्पादक पं. हीरालालजीने तो प्रकट ही कर दिया कि वह पाठ-संशोधन उनकी सम्मतिसे नहीं हुआ । दूसरे सहयोगी पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री उस सम्बन्धमें अभी तक मौन ही रहे । इस परिस्थतिमें मैंने पं. लोकनाथजी शास्त्रीसे पुनः प्रेरणा की कि वे मूडविद्रीकी तीनों ताड़पत्र प्रतियोंमें उक्त
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प्राक् कथन सूत्रका पाठ देखने की कृपा करें । इसके फलस्वरूप दो ताड़पत्रीय प्रतियोंमें सूत्र पाठ · संयत' पदसे युक्त पाया गया और तीसरी प्रतिमें वह ताड़पत्र ही उपलभ्य नहीं है। इस स्पष्टीकरणके लिये हम पं. लोकनाथजी शास्त्रीके बहुत उपकृत हैं । इस तुलनात्मक अन्वेषणसे हमारी पाठ संशोधन प्रणालीकी प्रामाणिकता सिद्ध हो गई ।।
हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त दुःख होता है कि इस खंडके प्रकाशित होनेसे कुछ ही मास पूर्व इस फंडके ट्रस्टी तथा इस प्रकाशन योजनामें बड़े भारी सहायक अमरावती निवासी श्रीमान् सिंघई पन्नालाल जी का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने इस संस्थाका जो उपकार किया है उसका उल्ले व उनके चित्र सहित प्रथम पुस्तकमें ही किया जा चुका है । सिंघईजीको इस प्रकाशनका बड़ा उत्साह था और इस सिद्धान्तको पूर्णतः प्रकाशित देखने की उन्हें प्रबल अभिलाषा थी । विधिके विधानसे वह सफल नहीं हो सकी । हम उनकी विधवा पत्नी तथा सुपुत्र व अन्य कुटुम्बियोंसे समवेदना प्रकट करते हुए उनकी आत्माको स्वर्ग में शान्ति मिलने के प्रार्थी हैं।
___ गत जुलाई १९४४ में मेरा तबादला अमरावतीसे नागपुरका हो गया । तथापि प्रकाशन ऑफिस व मुद्रणकी व्यवस्था अमरावतीमें ही रखना उचित प्रतीत हुआ । इस स्थान विच्छेदकी कठिनाई तथा अनेक आपत्तियां उपस्थित होनेपर भी जो यह कार्य प्रगतिशील बना हुआ है इसमें हमारे पाठकोंकी सद्भावना, श्रीमन्त सेठजी व अन्य अधिकारियों की सुदृष्टि व पूर्व समस्त सहायकोंके उपकारके अतिरिक्त पं. बालचन्द्रजी शास्त्रीका समुचित सहयोग व सरस्वती प्रेसके मैनेजर श्रीयुत टी. एम. पाटिलका उत्साह सराहनीय है । मैं सबका विशेष आभारी हूं। इसी सहयोगके बलपर आगे भी संशोधन प्रकाशन कार्य विधिवत् चलते रहने की आशा की जा सकती है ।
मारिस कॉलेज नागपुर
२-७-४५
हीरालाल
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प्रस्तावना
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INTRODUCTION.
The first part of Satkhandāgama called Jivatthana was completed with volume VI published an year and a half ago. The present volume contains the second Khanda called Khudda-bandha ( SK. Kşudraka-bandha ), which means Bondage in brief. It consists of eleven chapters, besides the two additional ones, one being introductory and the other in the form of an appendix. The subjectmatter is for the most part identical with what had already been propounded in the previous Khanda. But one important point of distinction between the two treatments is that here the Gunasthāna division of souls has been ignored in dealing with the Mārganā-sthānas, while in the former treatment it was strictly adhered to. The categories adopted in this part are also slightly different in scope as well as arrangement from those of the previous Khanda. In place of the eight divisions of Jīvatthāņa, namely, Existence ( Sat ), Numbers ( Samkhyā ), Volume (Ksetra ), Space traversed ( Sparśana ). Time (Kāla ), Interruption (Antara ), Quality (Bhāva ), and Comparative numerical strength (Alpa-bahutva), the headings adopted here are Ownership of karma ) from the point of view of a single soul ( Swāmitva ), Time from the point of view of a single soul ( Kāla ), Interruption from the point of view of a single soul ( Antara ), Being or non-being of the different conditions of existence from the point of view of the souls in the aggregate ( Bhanga-vicaya ), Numbers (Dravya-pramāņa ), Volume (Kþetrānugama), Space traversed ( Sparśana ), Time from the point of view of the souls in the aggregate, Interruption from the point of view of the souls in the aggregate, Ratio ( Bhāgābhāgānugama ), and Comparative numerical strength ( Alpabahutva ). Besides these eleven categories which constitute the main chapters of this Khanda, the introductory chapter deals with the souls that contract karmas and those that do not (Bandhaka-sattva-prarūpaņā ), and the supplementary chapter at the end supplies information seriatim about the comparative numerical strength of the different classes of souls in an ascending order (Mahādandaka of Alpa-bahutva ). The information being for the most part the same as found in the first Khanda, it was not necessary to add many comparative foot-notes and explanatory notes, because a reference to the corresponding section of Jīvatthāņa would easily supply the wanted information. But where any novel or intricate point occurs, the necessary explanations and notes have been added.
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(ii)
One point, which is very important for its bearing on our principles of text-constitution, needs mention here. In the text of the 93rd Sütra of Satprarů. paṇā of Jivaṭṭhāņa ( Volume I, page 332 ), we had felt that the word Sanjada' which was necessary there, had probably been omitted by a scribal mistake. Therefore this fact was noted in a foot-note and the word was adopted in the translation because otherwise the discussion there would be unintelligible. But this was objected to by some critics and the justification for it was supplied by us in the introduction to volume III (page 28). Recently, however, there was again a storm of criticism on the point because it was suspected that the addition. of the word Sanjada in the Sütra goes contrary to the Digambara faith and supports the Svetambara view of the possibility of women-salvation (Strl-mukti). The previous collation of the palm-leaf manuscripts, the results of which were tabulated in the Appendix to volume III, had also not brought out the ward Sanjada' in the Sutra. But because I was certain that the text was incomplete and inconsistent without that word. I arranged for a closer scrutiny of the Moodbidri mss. as a result of which the two palm-leaf mss., which have preserved the text of the Sutra, yielded the required reading, while in the third manuscript the leaf itself containing the text of the Sutra is missing. This discovery together with the results of the previous collation as noted in the introduction to volume III (page 51) has proved beyond doubt the validity of our system of text-constitution. I am very thankful to Pandit Loknath Shastri of Moodbidri for the great pains he took in scrutinizing the palm-leaf manuscripts and bringing to light the true and correct reading of that Sutra.
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(क्या पदखंडागम जीवहाणकी सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में
'संयत' पद अपेक्षित नहीं है ? पखंडागम जीवट्ठाण सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ का जो पाठ उपलब्ध प्रतियोंमें पाया गया था उसमें संयत पद नहीं था। किन्तु उसका सम्पादन करते समय सम्पादकोंको यह प्रतीत हुआ कि वहां 'संयत' पद होना अवश्य चाहिये और इसीलिये उन्होंने फुटनोटमें सूचित किया है कि "अत्र 'सजद' इति पाठशेषः प्रतिभाति ।" तथा हिन्दी अनुवादमें संयत पद ग्रहण भी किया है । इस पर कुछ पाठकोंने शंका भी उत्पन्न की थी, जिसका समार्धान पुस्तक ३ की प्रस्तावनाके पृष्ठ २८ पर किया गया है। इस समाधानमें ध्यान देने योग्य बातें ये हैं कि एक तो उक्त सूत्रकी धवला टीकामें जो शंका-समाधान किया गया है वह मनुष्यनीके चौदहों गुणस्थान ग्रहण करके ही किया गया है। दूसरे, सत्प्ररूपणाके आलापाधिकारमें भी धवलाकारने सामान्य मनुष्यनी व पर्याप्त मनुष्यनीके अलग अलग चौदहों गुणस्थान प्ररूपित किये हैं। तीसरे द्रव्यप्रमाणादि प्ररूपणाओंमें भी सर्वत्र मनुष्यनीके चौदहों गुणस्थान कहे गये हैं । और चौथे गोम्मटसार जीवकाण्डमें भी मनुष्यनीके चौदहों गुणस्थानोंकी ही परम्परा पाई जाती है, पांच गुणस्थानोंकी नहीं। इन प्रमाणोंपरसे स्पष्ट है कि यदि उक्त सूत्रमें संयत पद ग्रहण न किया जाय तो शास्त्रमें एक बड़ी भारी विषमता उत्पन्न होती है । अतएव षखंडागमके सम्पादनमें जो वहां संयत पदकी सूचना करके भाषान्तर किया गया वह सर्वथा उचित और आवश्यक था।
किन्तु मनुष्यनीके कहीं भी केवल पांच गुणस्थानोंका उल्लेख न पाकर कुछ लोग इसी सूत्रको स्त्रियोंके केवल पांच गुणस्थानोंकी योग्यताका मूलाधार बनाना चाहते हैं। परन्तु इसके लिये उन्हें उपर्युक्त चार बातोंका उचित समाधान करना आवश्यक है जो वे अभी तक नहीं कर सके । एक हेतु यह दिया जाता है कि प्रस्तुत सूत्रमें मनुष्यनीका अर्थ द्रव्य स्त्री स्वीकार करना चाहिये और द्रव्यप्रमाणादिमें जहां मनुष्यनीके चौदहों गुणस्थान बतलाये गये हैं वहां भाव स्त्री अर्थ लेना चाहिये । किन्तु ऐसा करनेपर शास्त्रमें यह विषमता उत्पन्न होगी कि उक्त प्रकरणमें जिन जीवोंके गुणस्थान बतलाये, उनका द्रव्यप्रमाण नहीं बतलाया गया, और जिनका द्रव्यप्रमाण बतलाया है उनके सब गुणस्थानोंका सत्त्व ही प्रतिपादित नहीं किया, तथा धवलाकारने वह शंका-समाधान अप्रकृत रूपसे किया, एवं आलापाधिकार भी निराधार रूपसे लिखा । पर धवलाकारने स्वयं अन्यत्र यह स्पष्ट कर दिया है कि जिन जीवोंके जो गुणस्थान प्रतिपादित किये गये हैं, उन्हीं जीवोंके उसी प्रकार द्रव्यप्रमाणादि बतलाये गये हैं । उदाहरणार्थ, सत्प्ररूपणाके ही सूत्र २६ में जो तियचोंके पांच गुणस्थान कहे गये हैं वहां धकलाकार शिका
.
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सत्प्ररूपणा सूत्र ९३ की चर्चा उठाते हैं कि तिथंच तो पांच प्रकारके होते हैं - सामान्य, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, तिर्यंचनी और अपर्याप्त । इनमेंसे किनके पांच गुणस्थान होते हैं यह सूत्रसे ज्ञात नहीं हो सका ? इसका वे समाधान इस प्रकार करते हैं
न तावदपर्याप्तपंचेन्द्रियातयक्ष पंच गुणा सन्ति, लब्ध्यपर्याप्तेषु मिथ्यादृष्टिव्यतिरिक्तशेषगुणासम्भवात् । तत्कुतोऽवगम्यते इति चेत् 'पंचिंदियतिक्खिअपज्ज तमिच्छाइट्टी दव्वपमाणेग केवडिया? 'असंखेज्जा' इति तत्रैकस्यैव मिथ्याष्टिगुणस्य संख्यायाः प्रतिपाइकार्षात् । शेषेषु पंचापि गुणस्थानानि सन्ति, अन्यथा तत्र पंचानां गुणस्थानानां संख्यादिप्रतिपादकद्रव्याद्यावस्याप्रामाण्यप्रसंगात् । ( पुस्तक १, पृ. २०८-२०९)
इस शंका-समाधानसे ये बातें सुस्पष्ट हो जाती हैं कि सत्त्वप्ररूपणा और द्रव्यप्रमाणादि प्ररूपणाओंका इस प्रकार अनुषंग है कि जिन जीवसमासोंका जिन गुणस्थानोंमें द्रव्यप्रमाण बतलाया गया है उनमें उन गुणस्थानोंका सत्त्व भी स्वीकार किया जाना अनिवार्य है, और यदि वह सत्व स्वीकार नहीं किया तो वह द्रव्य प्रमाण प्ररूपण ही अनार्ष हो जावेगा । यही बात द्रव्यप्रमाणके प्रारम्भमें भी कही गई है कि
संपहि चोइसण्हं जीवसमासागमास्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबोहण? भूदबलियाइरियो सुत्तमाह । " (पुस्तक ३ पृ. १)
अर्थात् जिन चौदह जीवसमासों का अस्तित्व शिष्योंने जान लिया है उन्हींका परिमाण बतलाने के लिये भूतबलि आचार्य आगे सूत्र कहते हैं । तात्पर्य यह कि मनुष्यनीके सत्वमें केवल पांच और द्रव्यप्रमाणादि प्ररूपणमें चौदह गुणस्थानोंके प्रतिपादनकी बात बन नहीं सकती। और यदि उनका द्रव्यप्रमाण चौदहों गुणस्थानोंमें कहा जाना ठीक है, तो यह अनिवार्य है कि उनके सत्त्वमें भी चौदहों गुणस्थान स्वीकार किये जाय ।
एक बात यह भी कही जाती है कि जीवट्ठाणकी सत्यरूपणा पुष्पदन्ताचार्य कृत है और शेष प्ररूपणायें भूतबलि आचार्य की । अतएव संभव है कि पुष्पदन्ताचार्यको भनुष्यनीके पांच ही गुणस्थान इष्ट हों । किन्तु यह बात भी संभव नहीं है, क्योंकि यदि उक्त सूत्रमें पांच गुणस्थान ही स्वीकार किये जाय तो उसका उसी सत्प्ररूंपणाके सूत्र १६४-१६५ से विरोध पड़ेगा जहां स्पष्टतः सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी, इन तीनोंके असंयत संयतासंयत व संयत, इन सभी गुणस्थानोंमें क्षायिक, वेदक और उपशम सम्यक्त्व स्वीकार किया गया है । यथा
मणुसा असंजदसम्माइटि-संजदासंजद-संजदहाणे अस्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्वी उवलमसम्माइट्टी॥ एवं मणुसपज्जत्त-मणुसणीसु ॥ १६४-१६५ ।
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना इन सूत्रोंके सद्भावमें स्वयं पुष्पदन्तकृत सत्प्ररूपणामें ही मनुष्यनीके संयंत गुणस्थान । व तीनों सम्यक्त्वोंका सद्भाव स्वीकार किया गया है।
इन सब प्रमाणों व युक्तियोंसे स्पष्ट है कि सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में संयत पदका ग्रहण करना अनिवार्य है । यदि उसका ग्रहण नहीं किया जाय तो शास्त्रमें बड़ी विषमता और विरोध उत्पन्न हो जाता है । इस परिस्थितिमें यदि उसी सूत्र के आधार पर स्त्रियों के केवल पांच ही गुणस्थानों की मान्यता स्थिर की जाती है तो कहना पड़ेगा कि यह मान्यता एक स्खलित और त्रुटित पाठके आधारसे होने के कारण भ्रान्त और अशुद्ध है।)
मूडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियों में जीवाणकी सत्प्ररूपणाके
सूत्र ९३ में 'संजद' पाठ है। ऊपर बतलाया जा चुका है कि किस प्रकार उपलब्ध प्रतियोंमें उक्त सूत्रके अन्तर्गत 'संजद ' पाठ न होने पर भी सम्पादकोंने उसे ग्रहण करना आवश्यक समझा और उसपर उत्तरोत्तर विचार करनेपर भी उसके विना अर्यकी संगति बैठाना असम्भव अनुभव किया । किन्तु कुछ विद्वान् इस कल्पनापर वेहद रुष्ट हो रहे हैं और लेखों, शास्त्रार्थों व चर्चाओंमें नाना प्रकारके आक्षेप कर रहे हैं। प्रथम भागके एक सहयोगी सम्पादक पं. हीरालालजी शास्त्रीने तो प्रकट भी कर दिया है कि उस पाठके रखने में उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। दूसरे सहयोगी पं. फूल चन्द्रजी शास्त्रीने उसके सम्बन्धमें कुछ भी न कहकर मौन धारण कर लिया है । इस कारण समालोचकोंने प्रधान सम्पादकको ही अपने क्रोध का एक मात्र लक्ष्य बना रखा है । इस परिस्थिति को देखकर प्रधान सम्पादकने मूडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंसे उस सूत्रके पुनः सावधानीसे मिलान करानेका प्रयत्न किया । पुस्तक ३ के 'प्राक् कथन' व 'चित्र-परिचय' के पढ़नेसे पाठकोंको सुविदित हो ही चुका है कि मूडविदीमें धवलसिद्धान्तकी एक ही नहीं तीन ताड़पत्रीय प्रतियां हैं, यद्यपि इनमें की दोमें ताड़पत्र पूरे पूरे न होनेसे वे त्रुटित हैं । इन तीनों प्रतियोंका सावधानीसे अवलोकन करके श्रीयुत् पं. लोकनाथ जी शास्त्री अपने ता. २४.५-१५ के पत्र द्वारा सूचित करते हैं कि
" जीवट्ठाण भाग १ पृष्ठ नं. ३३२ में सूत्र ताड़पत्रीय मूलप्रतियोंमें इस प्रकार है
। तत्रैव • शेषगुणस्थानविषयारेकापोहनार्थमाद- सम्मामिछाइट्टि-असंजदसम्माइट्टिसेजदासंजद संजदहाणे णियमा पजत्तियाओ।'
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विषय-परिचयः ___टीका वही है जो मुद्रित पुस्तकमें है। धवलाकी दो ताड़पत्रीय प्रतियोंमें सूत्र इसी प्रकार ' संजद ' पदसे युक्त है । तीसरी प्रतिमें ताड़पत्र ही नहीं है । पहले. संशोधन-मुकाविला करके भेजते समय भी लिखकर भेजा था। परन्तु रहा कैसा, सो मालूम नहीं पड़ता, सो जानियेगा।"
ताडपत्रीय प्रतियोंके इस मिलानपरसे पाठक समझ सकेंगे कि षखंडागमका पाठ संशोधन कितनी सावधानी और चिन्तनके साथ किया गया है। तीसरे भागकी प्रस्तावनामें हम लिख ही चुके थे कि उस भागमें हमने जिन १९ पाठोंकी कल्पना की थी उनमेंसे १२ पाठ जैसेके तैसे ताड़पत्रीय प्रतियोंमें पाये गये और शेष पाठ उनमें न पाये जाने पर भी शैली और अर्थकी दृष्टिसे उनका वहां ग्रहण किया जाना अनिवार्य है । अब उक्त सूत्रमें भी 'संजद' पाठ मिल जानेसे मर्मज्ञ पाठकोंको सन्तोष होगा और समालोचक विचार कर देखेंगे कि उनके आक्षेपादि कहां तक न्यायसंगत थे। जिनके पास प्रतियां हों उन्हें उक्त सूत्रमें संजद पाठ सम्मिलित करके अपनी प्रति शुद्ध कर लेना चाहिये ।
विषय परिचय
(पूर्व प्रकाशित छह पुस्तकोंमें षट्खंडागमका प्रथम खंड ' जीवट्ठाण ' प्रकट हो चुका है। प्रस्तुत पुस्तकमें दूसरा खंड 'खुद्दाबंध ' पूरा समाविष्ट है । इस खंडका विषय उसके नामसे ही सूचित हो जाता है कि इसमें क्षुद्र अर्थात् संक्षिप्तरूपसे बंध अर्थात् कर्मबन्धका प्रतिपादन किया गया है । पाठकोंको इस बृहत्काय ग्रंथमें बन्धका विवरण देखकर स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि इसे क्षुद्र व संक्षिप्त विवरण क्यों कहा ! किन्तु संक्षिप्त और विस्तृत आपेक्षिक संज्ञाएं हैं । भूतबलि आचार्यने प्रस्तुत खंडमें बन्धक अनुयोगका व्याख्यान केवल १५८९ सूत्रोंमें किया है जब कि उन्होंने बंधविधानका विस्तारसे व्याख्यान छठवें खंड महाबन्धमें तीस हज़ार ग्रंथरचना रूपसे किया। इन्हीं दोनों खंडोंकी परस्पर विस्तार व संक्षेपकी अपेक्षासे छठा खंड. ' महाबन्ध ' कहलाया और प्रस्तुत खंड खुदाबंध या क्षुद्रकबन्ध ।
खुद्दाबन्धकी उत्पत्ति प्रथम पुस्तककी प्रस्तावनाके पृ. ७२ पर दिखाई जा चुकी है और उसके विषय व अधिकारोंका निर्देश उसी प्रस्तावनाके पृष्ठ ६५ पर कर दिया गया है । उसके अनुसार बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादके चतुर्थ भेद पूर्वगतका जो दूसरा पूर्व, आग्रायणीय था उसकी पूर्वान्त आदि चौदह वस्तुओंमेंसे पंचम वस्तु ' चयनलाब्ध' के कृति आदि चौवीस
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना पाहुड़ोंमेंसे छठे पाहुड बन्धन के बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और. बन्धविधान नामक चार अधिकारों में से 'बन्धक ' अधिकारसे इसः खंडकी उत्पत्ति हुई है।
कर्मबन्धके कती हैं जीव जिनकी प्ररूपणा जीवट्ठाण खण्डमें सत् संख्या आदि आठ अनुयोग द्वारोंके भीतर मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थानों द्वारा व गति आदि चौदह मार्गणाओंमें की जा चुकी है। प्रस्तुत खण्डमें उन्हीं जीवोंकी प्ररूपणा स्वामित्त्वादि ग्यारह अनुयोगों द्वारा गुणस्थान विशेषणको छोड़कर मार्गणास्थानों में की गई है। यही इन दोनों खण्डोंमें विषय प्रतिपादनकी विशेषता है। इस खण्ड के ग्यारह अनुयोग द्वारोंका नामनिर्देश स्वामित्त्वानुगाके दूसरे सूत्रमें किया गया है जिनके नाम हैं - (१) एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व (२) एक जीवकी अपेक्षा काल ( ३) एक जीवकी अपेक्षा अन्तर (४) नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय (५) द्रव्यप्रमाणानुगम (६) क्षेत्रानुगम (७) स्पर्शनानुगम (८) नाना जीवोंकी अपेक्षा काल (९) नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर (१०.] भागाभागानुगम और (११) अल्पबहुत्वानुगम.। इनसे . पूर्व प्रास्ताविक रूपसे बंधकोंके सत्त्वकी भी प्ररूपणा की गई है
और अन्तमें ग्यारहों अनुयोगद्वारोकी चूलिका रूपसे ' महादंडक ' दिया गया है। इस प्रकार यद्यपि खुद्दाबन्धके प्रधान ग्यारह ही अधिकार माने गये हैं, किन्तु यथार्थतः उसके भीतर तेरह अधिकारोंमें सूत्र रचना पाई जाती है जिनके विषयका परिचय इस प्रकार है
बन्धक-सच्चप्ररूपणा इस प्रस्तावना रूप प्ररूपणा केवल. ४३. सूत्र हैं जिनमें चौदह मार्गणाओं के भीतर कौन जीव कर्म बन्ध करते हैं और कौन नहीं करते यह बतलाया गया है। सब मार्गणाओंका मथितार्थ. यह. निकलता है कि जहां तक योग अर्थात् मन वचन कायकी क्रिया विद्यमान है वहां तक सब जीव बन्धक हैं, केवल अयोगी मनुष्य और सिद्ध अबन्धक हैं ।
१ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व इस अधिकारमें ९१ सूत्र हैं जिनमें बतलाया गया है कि मार्गणाओं सम्बन्धी गुण व पर्याय जीवके कौनसे भावोंसे प्रकट होते हैं । इनमें सिद्धगति व तत्सम्बन्धी अकायत्व आदि गुण, केवलज्ञान, केवलदर्शन व अलेश्यत्व तो क्षायिक लब्धिसे उत्पन्न होते हैं । एकेन्द्रिय आदि पांचों जातियां, मन वचन काययोग, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान, परिहारशुद्धि संयम, चक्षु, अचक्षु व अवधि दर्शन, सम्यग्मिथ्यात्व और संज्ञित्व ये क्षयोपशम लब्धिजन्य हैं। अपगतवेद, अकषाय, सूक्ष्मसाम्पराय व यथाख्यात संयम, ये औषशमित तथा क्षायिक लब्धिसेप्रकट होते हैं । सामायिक व छेदोपस्थापन संयम औरः सम्यग्दर्शन औषशमिक, क्षायिक व
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विषय-परिचयं .. क्षायोपशमिक लब्धिसे प्राप्त होते हैं । तथा भव्यत्व, अभव्यत्व एवं सासादनसम्यक्त्व, ये पारिणामिक भाव हैं। शेष गति आदि समस्त मार्गणान्तर्गत जीवपर्याय अपने अपने कर्मों के व विरोधक कर्मोंके उदयसे उत्पन्न होते हैं । सूत्र ११ की टीकामें धवलाकारने एक शंकाके आधारसे जो नामकर्मकी प्रकृतियोंके उदयस्थानोंका वर्णन किया है वह उपयोगी है।
२ एक जीवकी अपेक्षा काल इस अनुयोगद्वारमें २१६ सूत्र हैं जिनमें प्रत्येक गति आदि मार्गणामें जीवकी जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थतिका निरूपण किया गया है । जीवस्थानमें जो काल की प्ररूपणा की गई है वह गुणस्थानोंकी अपेक्षा है, किन्तु यहां गुणस्थानका विचार छोड़कर मार्गणाकी ही अपेक्षा काल बतलाया गया है यही इन दोनोंमें विशेषता है।
३ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर इस अनुयोगद्वारके १५१ सूत्रोंमें यह प्रतिपादन किया गया है कि एक जीयका गति आदि मार्गणाओंके प्रत्येक अवान्तर भेदसे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अर्थात् विहरकाल कितने समयका होता है।
४ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय इस अनुयोगद्वारमें केवल २३ सूत्र हैं। भंग अर्थात् प्रभेद और विचय अर्थात् विचारणा । अतएव प्रस्तुत अधिकारमें यह निरूपण किया गया है कि भिन्न भिन्न मार्गणाओंमें जीव नियमसे रहते हैं या कभी रहते हैं और कभी नहीं भी रहते । जैसे नरक, तिथंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमें जीव सदैव नियमसे रहते ही है, किन्तु मनुष्य अपर्याप्त कभी होते भी हैं और कभी नहीं भी होते । उसी प्रकार इन्द्रिय, काय, योग आदि मार्गणाओंमें भी जीव सदैव रहते ही हैं, केवल वैक्रियिक मिश्र, आहार व आहारमिथ' काययोगोंमें, सूक्ष्मसाम्पराय" संयममें तथा उपशम', सासादन व सम्पग्मिथ्या दृष्टि सम्यक्त्वमें, कभी जीव रहते हैं और कभी नहीं भी रहते । इस प्रकार उक्त आठ मार्गणारं सान्तर हैं और शेष समस्त मार्गणाएं निरन्तर हैं ( देखो गो. जी. गाथा १४२ )।
५ द्रव्यप्रमाणानुगम . इस अनुयोगद्वारके १७१ सूत्रों में भिन्न भिन्न मार्गणाओं के भीतर जीवोंका संख्यात, असंख्यात व अनन्त रूपसे अवसर्पिणी उत्सर्पिणी आदि कालप्रमाणोंसे अपहार्य व अनपहार्य रूपसे एवं योजन, श्रेणी, प्रतर व लोकके यथायोग्य भागांश व गुणित क्रम रूपसे प्रमाण बतलाया
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खंडागमकी प्रस्तावना
गया है । पूर्व निर्देशानुसार जीवस्थानके द्रव्यमाण व इस अधिकारके प्ररूपण विशेषता केवल इतनी ही है कि यहां गुणस्थानकी अपेक्षा नहीं रखी गई ।
६ क्षेत्रानुगम
इस अनुयोगद्वार में १२४ सूत्रोंमें चौदह मार्गगानुसार सामान्य लोक, अधोलोक. ऊर्ध्वलोक, तिर्यग्लोक व मनुष्यलोक, इन पांचों लोकों के आश्रय से स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, सात समुद्घात और उपपादकी अपेक्षा वर्तमान निवासकी प्ररूपणा की गई है । पूर्वके समान यहां भी गुणस्थानों की अपेक्षा नहीं रखी गई ।
७ स्पर्शनानुगम
सूत्रों में गुणस्थानक्रम को छोड़कर केवल चौदह मार्गणाओं के अपेक्षा स्वस्थान, समुद्घात व उपपाद पदोंसे वर्तमान व
इस अनुयोगद्वार में २७४ अनुसार सामान्यादि पांच लोकों की अतीत कालसम्बन्धी निवासकी प्ररूपणा की गई है ।
८ नाना जीवों की अपेक्षा फालानुगम
इस अनुयोगद्वार में ५५ सूत्रों में चौदह मार्गणानुसार नाना जीवोंकी अपेक्षा अनादिअनन्त, अनादि- सान्त, सादि - अनन्त व सादि-सान्त कालभेदों को लक्ष्य कर जीवोंकी कालप्ररूपणा
की गई है ।
९ नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरानुगम
इस अनुयोगद्वारमें ६८ सूत्रों में चौदह मार्गणानुसार नाना जीवोंकी अपेक्षा बन्धकोंके जघन्य व उत्कृष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा की गई है ।
१० भागाभागानुगम
भाग,
इस अनुयोगद्वारमें ८८ सूत्रों में चौदह मार्गणाओं के अनुसार सर्व बन्धकोंके भागाभागकी प्ररूपणा की गई है। यहां भागसे अभिप्राय अनन्त और संख्यातवें भागसे; तथा अभाग से अभिप्राय अनन्त बहुभाग, असंख्यात बहुभाग व संख्यात बहुभाग से है । उदाहरण स्वरूप 'नारकी जीव सब जीवों की अपेक्षा कितने भागप्रमाण हैं ? ' इस प्रश्न के उत्तर में उन्हें सब जीवों के अनन्तवें भागप्रमाण बतलाया गया है ।
जीवों की अपेक्षा असंख्यातवें भाग
P
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विषय-परिचय
११ अल्पबहुत्वानुमम इस अनुयोगद्वारमें २०५ सूत्रोंमें चौदह मागगाओंके आश्रय से जीवसमासोका तुलनात्मक प्रमाणप्ररूपण किया गया है। इस प्रकरणमें एक यह बात ध्यान देने योग्य है कि सूत्रकारने वनस्पतिकाय जीवोंसे निगोद जीवोंका प्रमाण विशेष अधिक बतलाया है जिसका अभिप्राय धवलाकारने यह प्रकट किया है कि जो एकेन्द्रिय जीव निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित हैं उनका वनस्पतिकाय जीवोंके भीतर ग्रहण नहीं किया गया। यहां शंकाकारके यह पूछने पर कि उक्त
आवोंकी वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं मानी गई, धवलाकारने उत्तर दिया है कि यह प्रश्न गौतमसे करो, हमने तो यहां उनका अभिप्राय कह दिया । " (पृ. ५४१)।
इन ग्यारह अधिकारों के पश्चात् एक अधिकार चूलिकारूप महादंडकका है जिसके ७९ सूत्रोंमें मार्गणा विभागको छोड़कर गर्मोपक्रान्तिक मनुष्य पर्याप्तसे लेकर निगोद जीवों तक जीवसमासों का अल्पबहुत्व प्रतिपादन किया गया है और उसीके साथ क्षुद्रकबन्ध खण्ड समाप्त होता है।
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विषय-सूची
क्रम नं. . . विषय पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय पृष्ठ बन्धक-सवप्ररूपणा
२ ग्यारह अनुयोगद्वारोंका क्रम १धवलाकारका मंगलाचरण
१ ३ गतिमार्गणानुसार नैगमादिक २बन्धकोंका निर्देश
नयोंकी अपेक्षा नारकप्ररूपणा . ३ गतिमार्गणाणुसार बन्धक
| ४ तिर्यंच, मनुष्य व देवगतिमें और अबन्धकोंकी प्ररूपणा
___ स्वामित्वप्ररूपण ४बन्धकारणोंका निर्देश
५ नारकियोंके पांच उदय- . ५ इन्द्रियमार्गणानुसार बन्धक
स्थानोंका निरूपण - अबन्धकोंका प्ररूपण
६ तिर्यंचोमें नौ उदयस्थानोंका
- निरूपण .६ कायमार्गणानुसार बन्धक प्ररूपणा.
७ उदयस्थानभंगोंकी संख्या- . .७ योगमार्गणानुसार बन्धक
दिकके जाननेका उपाय प्ररूपणा
८ मनुष्यों में ग्यारह उदय८ वेदमार्गणानुसार बन्धक
स्थानोंका निरूपण प्ररूपणा
९ देवों में पांच उदयस्थानोंका .. ९ कषायमार्गणानुसार बन्धक
निरूपण प्ररूपणा
१० इन्द्रियमाणानुसार स्वामि१० ज्ञान व संयम मार्गणानुसार
त्वप्ररूपण बन्धक प्ररूपणा
११ इन्द्रिय शब्दका निरुक्त्यर्थ ११ दर्शन व लेश्या मार्गणानुसार १२ एकेन्द्रिय भावमें शायोपशमिबन्धक प्ररूपणा
कत्व प्रकट करते हुए घाति१२ भव्य व सम्यक्त्व मार्गणा
अघाति काँका प्ररूपण नुसार बन्धक प्ररूपणा
। १३ द्वीन्द्रियादि भावों में क्षायो१३ संक्षिमार्गणानुसार बन्धक
पशमिकता प्ररूपणा
१४ एकेन्द्रियादि भावों में औद१४ आहारमार्गणानुसार बन्धक ।
यिके भावकी आशंका व प्ररूपणा
उसका समाधान ____ स्वामित्वानुगम .
१५ अनिन्द्रियत्वमें क्षायिक भाव
बतलाते हुए इन्द्रियविनाशमें १बन्धकोंकी प्ररूपणामें ग्यारह .
शानादिके विनाशकी आशंका . . अनुयोगद्वारोंका निर्देश २५ । व उसका समाधान .. २८
. २४
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पृष्ठ नं.
१४३
१४९
१५२
षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय १६ कायमार्गणानुसार स्वामित्व ८ पृथिवीकायिकादिक जीवोंकी प्ररूपणा
७० कालप्ररूपणा १७ योगमार्गणानुसार स्वामित्व
९सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंसे प्ररूपणामें तीनों योगोंके
सूक्ष्म निगोदजीवोंकी पृथक् लक्षण व उनमें क्षायोपशामिक
प्ररूपणा भावका निरूपण
७४ १० त्रसकायिकोंकी कालप्ररूपणा १८ वेदमार्गणानुसार स्वामित्व
११ मनोयोगी व वचनयोगी प्ररूपणा
जीवोंकी कालप्ररूपणा १९ स्त्रीवेद क्या स्त्रीवेद द्रव्य कर्म १२ काययोगी जीवोंकी काल जनित परिणाम है या नाम:
प्ररूपणा कर्मोदयजनित शरीरविशेष ? १३ स्त्रीवेदी जीवोंकी कालप्ररूपणा इस शंकाका समाधान
७९ १४ पुरुषवेदी , २० कषायमार्गणानुसार स्वामित्व
१५ नपुंसकवेदी, " २१ ज्ञानमार्गणानुसार स्वामित्व
१६ अपगतवेदी ,, , २२ संयममार्गणानुसार स्वामित्व १७ क्रोधादि कषाय युक्त जीवोंकी २३ दर्शनमार्गणानुसार स्वामित्व
कालप्ररूपणा प्ररूपणामें दर्शनाभावकी
१८ मति-श्रुत अज्ञानी जीवोंकी आशंका और उसका समाधान ९६ । कालप्ररूपणा २४ लेश्यामार्गणानुसार स्वामित्व- १०४ | १९ विभंगशानियों का काल २५ भव्यमार्गणानुसार स्वामित्व १०६ २० मति श्रुतशानियोंका काल २६ सम्यक्त्वमार्गणानुसार
| २१ मनःपर्ययज्ञानी और केवल स्वामित्व प्ररूपणा . १०७ २७ संशिमार्गणानुसार स्वामित्व
ज्ञानी जीवोंकी कालप्ररूपणा १११
२२ परिहारशुद्धिसंयत व संयता. २८ आहारमार्गणानुसार स्वामित्व ११२
____संयत जीवोंकी कालप्ररूपणा एक जीवकी अपेक्षा कालानुगम २३ सामायिक-छेदोपस्थापना१ गतिमार्गणानुसार नारकि
शुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्पयोकी कालप्ररूपणा
रायिकशुद्धिसंयतोंका काल २ तिर्यंचोंकी कालप्ररूपणा
| २४ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंकी ३ मनुष्योंकी कालप्ररूपणा १२५
कालप्ररूपणा ४ देवोंकी कालप्ररूपणा .. १२७ | २५ असंयतोंकी कालप्ररूपणा ५ इन्द्रियमाणानुसार एके
२६ चक्षुदर्शनी जीवोंका काल न्द्रिय जीवोंकी कालप्ररूपणा १३५ / २७ अचक्षुदर्शनी व अवधि६ विकलेन्द्रियोंकी कालप्ररूपणा १४१ | दर्शनियोंकी कालप्ररूपणा ७पंचेन्द्रियोंकी कालप्ररूपणा १४२ / २८ केवलदर्शनी जीवोंका काल
१६१ १६३ १६४
१६८
र
:
१२१
१७२
१७३ १७४
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१७६
२१७
विषय-सूची फ्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. २९ कृष्णादिक तीन लेश्यावालोंकी १० स्त्री-पुरुषवेदियोंका अन्तर २१३ कालप्ररूपणा
१७४ | ११ नपुंसकवेदियोंका , २१४ ३० पीतादिक तीन लेश्यावालोंकी १२ अपगतवेदियोंका , २१५ कालप्ररूपणा
१३ क्रोधादि कषाय युक्त जीवोका ३१ भव्यसिद्धिक जीवोंकी काल
अन्तर
२१६ प्ररूपणा
| १४ अकषायी जीवोंका अन्तर २१७ ३२ अभव्यसिद्धिक जीवोंकी १५ मतिश्रुत अक्षानी जीवोंका कालप्ररूपणा
___ अन्तर ३३ सम्यग्दृष्टि जीवोंकी काल
१६ विभगज्ञानी जीवोका अन्तर २१८ प्ररूपणा
१७ मतिज्ञानी आदि चार सम्य३४ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी
___ शानियोंका अन्तर
२१९ कालप्ररूपणा
| १८ केवलज्ञानियोंका अन्तर २२१ ३५ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंकी
१९ संयत जावोंका , कालप्ररूपणा
२० असंयत ,
२२५ ३६ मिथ्यादृष्टि जीवोंकी काल
२१ चक्षुदर्शनी ., , २२६ प्ररूपणा
| २२ अचक्षदर्शनी व अधि. ३७ संत्री जीवोंकी कालप्ररूपणा
दर्शनियोका अन्तर
२२७ ३८ असंही जीवोंकी कालप्ररूपणा
२३ केवलदर्शनियोंका अन्तर ૨૨૮ ३९ आहारक ,
२५ कृष्णादिक तीन लेश्या युक्त ४० अनाहारक, " १८५ जीवोंका अन्तर
२५ पीतादिक तीन लेश्या युक्त . एक जीवकी अपेक्षा अन्तरानुगम
जीवोंकी अन्तरप्ररूपणा १ गतिमार्गणानुसार नारकियोंका २६ भव्य व अभव्य जीवोंका अन्तर अन्तर
१८७ २७ सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्या२ तिर्यंच व मनुष्योंका अन्तर १८८ दृष्टि जीवोंका अन्तर ३ देवोंका अन्तर
२८ सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी ४ एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर १९८
अन्तरप्ररूपणा
२९ मिथ्यादृष्टियोंकी अन्तरप्ररूपणा ५ द्वीन्द्रियादिक जीवोंका
३० संशी जीवोंकी अन्तरप्ररूपणा __अन्तर ६ पृथिवीकायिकादिक जीवोंका
३१ असंशी ,
२३५ अन्तर
३२ आहारक-अनाहारक जीवोकी २०२
अन्तरप्ररूपणा ७प्रसकायिक जीवोंका अन्तर ८ पांच मनोयोगी व पांच नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम वचनयोगी जीवोंका अन्तर
१ गतिमार्गणामें अस्ति-नास्ति ९काययोगियोंकी अन्तरप्ररूपणा २०६ / भंगोंका निरूपण
२३१
२३२
२०४
२०५
.
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षट्खंडागमको प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय पृष्ठ नं.
२ इन्द्रिय व कायमाणामें १. द्वीन्द्रियादिक जीवोंका प्रमाण २६९ __ अस्ति नास्तिभंगोंका निरूपण १५ पृथिवीकायिकादिक स्थावर ३ योग, वेद व कषाय मार्गणामें
जीवोंका प्रमाण
२७० __ अस्ति-नास्ति भंगोंका निरूपण २४० १६ त्रसकायिक जीवोंका प्रमाण ४ज्ञान व संयम मागंणाम
१७ मनोयोगी व वचनयोगी अस्ति-नास्ति भंगोंका निरूपण ___ जीवोंका प्रमाण ५दर्शन,लेश्या वभव्य मार्गणामें
१८ काययोगी जीवोंका प्रमाण २७८ अस्ति नास्ति भंगोंका निरूपण
१९ स्त्री-पुरुषवेदी , ,
૨૮૨ ६ सम्यक्त्व, संझी व आहार
२० नपुंसकवेदी , ,
२८२ मार्गणामें अस्ति-नास्ति
२१ अपगतवेदी , , २८३ भंगोंका निरूपण
२२ क्रोधादिकषायी , " २८४ द्रव्यप्रमाणानुगम २३ अकषायी " "
२८५ १ गतिमार्गणानुसार द्रव्य, काल
२४ मति-श्रुत अज्ञानी, " व क्षेत्रकी अपेक्षा नारकी
२५ विभंगहानी " " जीवोंका प्रमाण
२४४ २६ मति, श्रुत व अवधिज्ञानी २ द्रव्य, काल व क्षेत्रकी अपेक्षा
जीवोका प्रमाण तिर्यच जीवोंका प्रमाण २५० २७ मनःपर्यय व केवलज्ञानी ३ मनुष्य वं मनुष्य अपर्याप्तोंका ___ जीवोंका प्रमाण प्रमाण
२८ संयत जीवोंका प्रमाण
२८८ ४ मनुष्य पर्याप्त और मनुष्य
२९ असंयत , ,
२८९ नियोंका प्रमाण
२५७
३० चक्षुदर्शनी जीवोंका प्रमाण ५ सामान्य देघोंका प्रमाण २५९
३१ अचक्षुदर्शनी और अवधि६ भवनवासी देवोंका प्रमाण
दर्शनी जीवोंका प्रमाण ७ वानव्यन्तर " "
३२ केवलदर्शनी जीवोंका प्रमाण २९२ ८ ज्योतिषी , " ९ सौधर्म-ईशानकल्पवासी देवोंका
३३ कृष्णादिक चार लेश्यावाले
जीवोंका प्रमाण प्रमाण १० सनत्कुमारादि शतार-सहस्रार ३४ पद्म व शुक्ल लेश्यावाले . कल्पवासी देवोंका प्रमाण २६५
२९३
जीवोंका प्रमाण ११ आनतादि अपराजित विमान
३५ भव्यसिद्धिक जीवोंका प्रमाण २९४ __ वासी देवोंका प्रमाण
३६ अभव्यसिद्धिक , , १२ सर्वार्थसिद्धि विमानवासी ३७ सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादेवोंका प्रमाण २६७ दृष्टि जीवोंका प्रमाण
२९६ १३ एकेन्द्रिय जीवोका प्रमाण , ३८ मिथ्यारष्टि जीयोंका प्रमाण २९७
२८७
२९१
२६२ २६३
२६६
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पृष्ठ नं.
३०१
विषय सूची क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय ३९. संक्षी और असंही जीवों का १५ पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंकी क्षेत्रप्रमाण
प्ररूपणा
३२८ ४० आहारक व अनाहारक
१६ पृथिवीकायिकादिक व सूक्ष्म जीवोंका प्रमाण
पृथिवीकायिकादिक जीवोंकी क्षेत्रानुगम क्षेत्रप्ररूपणा
३२९
१७ बादर पृथिवीकायिकादिक १ स्वस्थान समुद्घात व उपपादके भेद और उनके लक्षण
___ आठ वाँकी क्षेत्रप्ररूपणा ३३० २ नारकियोंकी क्षेत्रप्ररूपणा
१८ आठ पृथिवियोंका जगप्रतरऔर उनके मारणान्तिक क्षेत्रके
प्रमाण
३३१ निकालने का विधान
१९ पर्याप्त बादर पृथिवीकायि३ उपपादक्षेत्रके निकालनेका
कादिकोंकी क्षेत्रप्ररूपणा. विधान
२० बादर वायुकायिक व उनके ४ पांच प्रकारके तिर्यंचोंकी
__ अपर्याप्तोंकी क्षेत्रप्ररूपणा • क्षेत्रप्ररूपणा
२१ बादर वायुकायिक पर्याप्तोंकी ५ मनुष्य, ममुष्य पर्याप्त और
क्षेत्रप्ररूपणा
३३६ मनुष्यनियोंकी क्षेत्रप्ररूपणा २२ वनस्पतिकायिक व निगोद ६ मनुष्य अपर्याप्तोंका क्षेत्र
जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा
३३७ ७ मारणान्तिक क्षेत्रके निकाल
२३ बावर वनस्पतिकायिक व नेका विधान
बादर निगोद जीवोंकी क्षेत्र८ सामान्य देवोंका क्षेत्रप्रमाण ३१३ प्ररूपणा
३३८ ९ भवनवासी आदि सर्वार्थ- २४ त्रसकायिक जीवोंका क्षेत्र सिद्धि पर्यंत देवोंका क्षेत्र
२५ पांचों मनोयोगी और पांचों १० भवनवासी आदि देवोंका
___ वचनयोगियोंकी क्षेत्रप्ररूपणा ३५० शरीरोत्सेध
२६ काययोगी और औदारिक११ सामान्य एकेन्द्रिय व सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त
__मिश्रकाययोगियोंका क्षेत्र ३४१ अपर्याप्तोंकी क्षेत्रप्ररूपणा
२७ औदारिककाययोगियोंका क्षेत्र ३४२ १२ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त व
२८ वैक्रियिककाययोगियोंका क्षेत्र ३४३ अपर्याप्तोंकी क्षेत्रप्ररूपणा
२९ वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंकी १३ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतु.
क्षेत्रप्ररूपणा
३४५ रिन्द्रिय जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा ३२४ | ३० आहारकाययोगियोंका क्षेत्र १४ पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त
३१ आहारमिश्रकाययोगियों की जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा
३२६ । क्षेत्रप्ररूपणा
३३९
३२०
३५६
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पृष्ठ नं.
"
३६५
३५१
षट्खंडागमको प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय ३२ कार्मणकाययोगियोंका क्षेत्र ३४६ ५० सम्यग्मिथ्याष्टि जीवोंकी। ३३ स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंकी
क्षेत्रप्ररूपणा .
३६३ क्षेत्रप्ररूपणा
| ५१ मिथ्यादृष्टि जीवोका क्षेत्र ३४ नपुंसकवेदी और अपगत
५२ संशी जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा वेदियोकी क्षेत्रप्ररूपणा
३४८ ५३ असंही " " ३५ क्रोधादि चारों कषाय युक्त
५४ आहारक , " जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा
५५ अनाहारक, "
३६६ ३६ मति-श्रुत अज्ञानी जीवोंकी
स्पर्शनानुगम क्षेत्रप्ररूपणा ३७ विभंगशानी और मनःपर्यय
१ सामान्य नारकियोंकी स्पर्शन प्ररूपणा
३६७ झानी जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा ३८ मति-श्रुत और अवधिज्ञानी
२ झालर समान तिर्यग्लोककी जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा ३५२
मान्यताका खण्डन
३७१ ३९ केवलज्ञानी जीवोंका क्षेत्र
३ द्वितीयादि पृथिवियोंके नार.
३७३ ४० संयत जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा
कियोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ३५४
४ सामान्य तिर्यचौकी स्पर्शन ४१ असंयत " "
प्ररूपणा
३७४ ४२ चक्षुदर्शनी जीवोंका क्षेत्र
५ शेष चार प्रकारके तिर्यचोंकी ४३ अचक्षुदर्शनी जीवोंकी क्षेत्र
स्पर्शनप्ररूपणा
.३७६ प्ररूपणा
३५६
६ मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और ४४ अवधिदर्शनी व केवलदर्शनी
मनुष्यनियोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ___ जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा ३५७
७ मनुष्य अपर्याप्तोंकी स्पर्शन ४५ कृष्णादिक पांच लेश्यावाले
प्ररूपणा जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा
८ सामान्य देवोंका स्पर्शन ४६ शुक्ललेश्यावाले जीवोंकी
९ भवनत्रिक देवोंकी स्पर्शनक्षेत्रप्ररूपणा
३५९
प्ररूपणा ४७ भव्य व अभव्य जीवोंकी
१० सौधर्म और ईशान कल्पवासी क्षेत्रप्ररूपणा
३६०
देवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ४८ सम्यग्दृष्टि और क्षायिक
११ सनत्कुमारादि सहस्रार कल्पसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र ३६१ वासी देवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ३८९ ४९ वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशम. | १२ आनतादि चार कल्पवासी सम्यग्दृष्टि और सासादन
देवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा सम्यग्दृष्टि जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा ३६२ १३ कल्पातीत देयोका स्पर्शन
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क्रम नं. विषय १४ एकेन्द्रिय जीवोंका स्पर्शन १५ विकलेन्द्रिय जीवोंका स्पर्शन १६ पंचेन्द्रिय जीवोंका स्पर्शन १७ पृथिवीकायिकादिक जीवोंकी
स्पर्शनप्ररूपणा १८ तेजस्कायिक जीव कहां पाये
जाते हैं, इसपर मतभेद १९ त्रसकायिक जीवोंकी स्पर्शन
प्ररूपणा २० पांच मनोयोगी और पांच
वचनयोगी जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा २१ काययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा २२ औदारिककाययोगी जीवोंकी
स्पर्शनप्ररूपणा २३ वैक्रियिककाययोगी जीवोंकी
स्पर्शनप्ररूपणा २४ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी
जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा २५ आहारकाययोगी जीवोंकी __ स्पर्शनप्ररूपणा २६ आहारमिश्रकाययोगी जीवोंकी ___स्पर्शनप्ररूपणा २७ कार्मणकाययोगी जीवोंकी
स्पर्शनप्ररूपणा २८ स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी
जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा २९ नपुंसकवेदी और अपगतवेदी
जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ३० क्रोधादि चार कषायवाले
जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ।
विषय-सूची पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय ३९२ | ३१ मति-श्रुत अज्ञानी जीवोंकी ३९४ स्पर्शनप्ररूपणा ३९६ | ३२ विभंगज्ञानी जीवोंकी स्पर्शन
प्ररूपणा . ४०० ३३ मति, श्रुत और अवधिज्ञानी
जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ।.३४ मनःपर्ययज्ञानी जीवोंकी स्पर्शन
प्ररूपणा ३५ केवलज्ञानी जीवोंकी स्पर्शन.
प्ररूपणा ३६ संयत, यथाख्यातविहारशुद्धि.
संयत, सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंकी
स्पर्शनप्ररूपणा
३७ संयतासंयत जीवोंका स्पर्शन ४३२ ४१५ ३८ असंयत जीवोंका स्पर्शन ।
३९ चक्षुदर्शनी जीवोंका स्पर्शन ४० अचक्षुदर्शनी , , ४१ अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी ___ जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ४२ कृष्णादिक चार लेश्यावाले
___ जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ४१९
४३ पदूमलेश्यावाले जीवोंकी ___ स्पर्शनप्ररूपणा
४४१ |४४ शुक्ललेश्यावाले जीवोंका स्पर्शन ४४२
४५ भव्य और अभव्य , , ४४४ ४२०
४६ सम्यग्दृष्टि , ,
४७ क्षायिकसम्यग्दृष्टि , , ४४९ ४२३ | ४८ वेदकसम्यग्दृष्टि , , ४५१
४९ उपशमसम्यग्दृष्टि , , ४५३ ४२५ । ५० सासादनसम्यग्दृष्टि , १
४३७
४३८
४१८
४४५
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११ लेश्या और भव्य मार्गणा
"
षट्वंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. ५१ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शन ४५७ ३ देवोंकी अन्तरप्ररूपणा ५२ मिथ्याधि
, , ४५८ ४ इन्द्रिय मार्गणामें अन्तरप्ररूपणा ४८२ ५३ संज्ञी
५ काय "
४८३ ५२ असंही , , ४६१ ६ योग ,
४८४ ५३ आहारक व अनाहारक
७ वेद
४८६ जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा
, ८ कषाय और ज्ञान मार्गणामें
अन्तरप्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगम। ९ संयम मार्गणा अन्तरप्ररूपणा ४८८ १ नारकी जीवोंकी कालप्ररूपणा ४६२ १० दर्शन , '२ तिर्यच और मनुष्यों की कालप्ररूपणा
अन्तरप्ररूपणा
४९० ३ देवोंकी कालप्ररूपणा
| १२ सम्यक्त्व मार्गणा अन्तरप्ररूपणा ४९१ ४ एकेन्द्रियादि पांच प्रकारके
१३ संज्ञी
४९३ जीवोंकी कालप्ररूपणा
४६६१४ आहार " ५ त्रसकाय और स्थावरकाय
भागाभागानुगम जीवोंकी कालप्ररूपणा ४६७ ६ योगमार्गणामें कालप्ररूपणा. ४६८
१ नरकगतिमें भागाभागप्ररूपणा ४९५ ७ वेदमार्गणामें , ४७१
२ तिर्यंच गतिमें , ८ कषाय और शान मार्गणामें
३ मनुष्य , , कालप्ररूपणा
४७२ ४देव , " ९ संयम मार्गणामें कालप्ररूपणा ४७३ ५ एकेन्द्रिय और बादर एके१० दर्शन व लेश्या मार्गणामें
न्द्रिय जीवों में भागाभागप्ररूपणा ४९९ कालप्ररूपणा . ४७४ ६ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में , ११ भव्य और सम्यक्त्व मार्गणामें
७ द्वीन्द्रियादिक , , ५०१ . कालप्ररूपणा
४७५
८ काय मार्गणामें , १२ संक्षी और आहार मार्गणामें
| ९ सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंसे सूक्ष्म कालप्ररूपणा
निगोद जीवोंकी पृथक्मरूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरानुगम | १० योग मार्गणा भागाभागप्ररूपणा ५०७ १ गतिमार्गणामें नारकी जीवोंकी ११ वेद , अन्तरप्ररूपणा ४७८ १२ कषाय ,
,, २ तिर्येच व मनुष्योंकी अन्तर
१३ ज्ञान " - प्ररूपणा
४८० १४ संयम , "
५०२
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पृष्ट नं.
५५९
५६२
५६३ .
शुद्धिपत्र क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय १५ दर्शन मार्गणामें भागाभागप्ररूपणा ५१३ | ११ वेदमार्गणामें अन्य प्रकारसे १६ लेश्या ,
५१४ अल्पबहुत्व १७ भव्य ,
५१५/ १२ कषाय मार्गणामें अल्पबहुत्व १८ सम्यक्त्व,
५१६ १३ शान " " १९ संझी ,
| १४ संयम , " २० आहार ,
१५ , ,, अन्य प्रकारसे
अल्पबहुत्वप्ररूपणा अल्पबहुत्वानुगम
१६ चरित्रलब्धि स्थानोंमें अल्प१ गतिमार्गणामें अल्पबहुत्वप्ररूपणा ५२० बहुत्वप्ररूपणा २ इन्द्रिय ,,
१७ दर्शन मार्गणामें अल्पबहुत्व ३ इन्द्रियमार्गणामें प्रकारान्तरसे __ अल्पबहुत्वप्ररूपणा
५२६
१८ लेश्या , , ४ कायमार्गणामें अल्पबहुत्वप्ररूपणा ५३० १९ भव्य , ५ , , अन्य प्रकारसे ,
२० सम्यक्त्व , , ६ , ,, एक और अन्य प्रकारसे २१ ,,, अन्य प्रकारसे __ अल्पबहुत्वप्ररूपणा
अल्पबहुत्व ७ बनस्पतिकायिकोंसे निगोद २२ संज्ञी मार्गणामें अल्पबहुत्व
जीवोंकी पृथक्त्वप्ररूपणा ५३९ २३ आहार , ८ काय मार्गणामें चतुर्थ प्रकारसे २४ महादण्डक और उसके अल्पबहुत्वप्ररूपणा
कहनेका प्रयोजन ९ योग मार्गणामें अल्पबहुत्वप्ररूपणा ५५० | २५ मार्गणा निरपेक्ष अल्पबहुत्व२० वेद ,
५५४
प्ररूपणा
"
५२४
५७२ ५७३
५७४
५७६
शुद्धिपत्र
MIMIMIMGmunity
(पुस्तक ७)
पृष्ठ
पंक्ति अशुद्ध ३-४ भावि १३ क्योंकि बन्धके ३ रूपं
चावि क्योंकि बन्ध और बन्धके
रूवं
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१८
पृष्ठ
४८
७३
८२
१२९
१७६
२१४
३२५
३२६
53
३३४
३३६
३४७
४००
""
४३९
39
५०३
५४०
५७३
27
पंकि
.
२१
२
२
१५
५
७
९
८
२३
७
५
६
७
२०
९
२३
१५
२९
७
२०
अशुद्ध
घट्खंडागमकी प्रस्तावना
नं. ११
भवति
ओसहाणं
उद्वर्तनघा
भावसिद्धिया
) UT)
अण्णगो
सत्थाणेण केवडिखेत्ते
स्वस्थान से कितने
असंखेज्जगणे केवडिखेत्ते, सव्वलोगे ? समुद्घादगदा पुढविकाइय वाउकाइय सुहुमतेउकाइय सुहुमवाउकाइय
पृथिवीकायिक, वायुकायिक सूक्ष्म तेजस्ायिक
अट्ठचोद सभागा
आठ बटे चौदह भाग
विरलित
आधेयसे, आधारका
X X X
X X X
नं. १२
भवदि
ओसहीणं अपवर्तनाघात से भवसिद्धिया
( 10 )
शुद्ध
अण्णेगो
सत्थाणेण उववादेण केवडिखेत्ते
स्वस्थान और उपपाद से कितने असंखेज्जगुणे
hasखेते ? सव्वलोगे
समुग्धादगदा
पुढविकाइय- आउकाइय-तेउकाइयवाउकाइय- सुहुमपुढविकाइय-सुहुमआउकाइय- सुहुमते उकाइय-सुहुम
वाउकाइया
पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म अष्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक अट्ठ-णवचोद सभागा
आठ व नौ बटे चौदह भाग
अपहृत
आधेयसे आधारका
मिच्छाइट्ठी अनंतगुणा ॥ २०० ॥ सुगमं ।
सिद्धों से मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं ॥ २०० ॥ यह सूत्र सुगम है 1
पृ. ५७३ - ५७४ पर सूत्र संख्या २००, २०१, २०२, २०३, २०४ और २०५ के स्थानपर क्रमशः २०१, २०२, २०३, २०४, २०५ और २०६ होना चाहिये ।
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खुद्दाबंधो
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(सिरि-भगवंत-पुष्पदंत-भूदयलि-पणीदो
छक्खंडागमो - सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो
तस्स विदियखंडो
खुद्दाबंधो)
(बंधग-संतपरूवणा जयउ धरसेणणाहो जेण महाकम्मपयडिपाहुडसेलो ।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फयंतस्स ॥) जे ते बंधगा णाम तेसिमिमो णिदेसो ॥१॥
'जे ते बंधगा णाम' इदि वयणं बंधगाणं पुव्वपसिद्धत्तं सूचेदि । पुव्वं कम्हि पसिद्धे बंधगे सूचेदि ? महाकम्मपयडिपाहुडम्मि । तं जहा- महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदि-वेदणादिगेसु चदुवीसअणियोगदारेसु छट्ठस्स बंधणेत्ति अणियोगद्दारस्स बंधो बंधगो
जिन्होंने महाकर्मप्रकृतिप्राभृतरूपी शैलका अपने बुद्धिरूपी शिरसे उद्धार किया और पुष्पदन्ताचार्यको समर्पित किया ऐसे धरसेनाचार्य जयवन्त होवें।
जो वे बंधक जीव हैं उनका यहां निर्देश किया जाता है ॥१॥
शंका-'जो वे बंधक हैं' ऐसा यह वचन बंधकोंकी पूर्वमें प्रसिद्धिको सूचित करता है। अतएव पूर्वतः किस ग्रंथमें प्रसिद्ध बंधकोंकी यह सूचना है ?
समाधान-यह सूचना महाकर्मप्रकृतिप्राभृतमें प्रसिद्ध बंधकोंकी है। यह इस प्रकार है-महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में छठवें
१ प्रतिषु — कदि-वेदणादिगो' इति पाठः ।
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२]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, १. बंधणिज्जं बंधविहाणमिदि चत्तारि अधियारा । तेसु बंधगेत्ति विदिओ अधियारो, सो एदेण वयणेण सूचिदो। जे ते महाकम्मपयडिपाहुडम्मि बंधगा णिदिवा तेसिमिमो णिदेसो त्ति वुत्तं होदि।
बंधया णाम जीवा चेव । कुदो' ? अजीवस्स मिच्छत्तादिपच्चएहि चत्तस्स बंधगताणुववत्तीदो। ते च जीवा जीवट्ठाणे चोदसगुणट्ठाणविसिट्ठा चोदसमग्गणट्ठाणेसु संतादिअट्टहि अणियोगद्दारेहि मम्गिदा। संपहि तेसिं जीवाणं संतादिणा अवगदाणं पुणरवि परूवणे कीरमाणे पुणरुत्तदोसो ढुक्कदि ति ? ढुक्कदि पुणरुत्तदोसो जदि तेसिं जीवाणं तेहि चेव गुणट्ठाणेहि विसेसियाणं चोद्दससु मग्गणट्ठाणेसु तेहिं चेव अट्ठहि अणियोगद्दारेहि मग्गणा कीरदे। णवरि एत्थ चोदसगुणट्ठाणविसेसणमवणिय चोदससु मग्गणट्टाणेसु एक्कारसेहि अणियोगद्दारेहि पुव्वुत्तजीवाणं परूवणा कीरदे । तेण पुणरुत्त. दोसो ण ढुक्कदि त्ति।
जीवट्ठाणम्मि कदपरूवणादो चेव एत्थ परूविज्जमाणो अत्थो जेण णव्वदि, तेण
अनुयोगद्वार बन्धनके बंध, बंधक, बंधनीय और बंधविधान, ये चार अधिकार हैं। उनमें जो बन्धक नामका दूसरा अधिकार है वही यहां सूत्रोक्त वचन द्वारा सूचित किया गया है। कहनेका तात्पर्य यह कि जो वे महाकर्मप्रकृतिप्राभृतमें बन्धक कहकर निर्दिष्ट किये गये हैं उन्हींका यहां निर्देश है।
बन्धक जीव ही होते हैं, क्योंकि, मिथ्यात्व आदिक बन्धके कारणोंसे रहित अजीवके बन्धकभावकी उपपत्ति नहीं बनती।
शंका-उन ही बन्धक जीवोंका जीवस्थान खण्डमें चौदह गुणस्थानोंकी विशेषता सहित चौदह मार्गणस्थानों में सत् , संख्या आदि आठ अनुयोगोंके द्वारा अन्वेषण किया गया है। अब सत् आदि प्ररूपणाओं द्वारा जाने हुए उन्हीं जीवोंका फिर प्ररूपण किये जानेसे तो पुनरुक्ति दोष उत्पन्न होता है ?
___ समाधान-पुनरुक्ति दोष प्राप्त होता यदि उन जीवोंका उन्हीं गुणस्थानोंकी विशेषता सहित चौदह मार्गणाओंमें उन्हीं आठ अनुयोगों द्वारा अन्वेषण किया जाता। किन्तु यहां तो चौदह गुणस्थानोंकी विशेषताको छोड़कर चौदह मार्गणास्थानोंमें ग्यारह अनुयोगद्वारोंसे पूर्वोक्त जीवोंकी प्ररूपणा की जा रही है । अतः यहां पुनरुक्ति दोष नहीं प्राप्त होता।
शंका-जीवस्थान खण्डमें जो प्ररूपणा की गई है उसीसे यहां प्ररूपित किये
१ प्रतिषु · कदो' इति पाठः ।
२ प्रतिषु · तेइं' इति पाठः ।
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२, १, १.]
बंधगसंतपरूवणाए णिदेसपरूवणं एदीए परूवणाए ण किंचि फलं पेच्छामो ? ण, मग्गणहाणेसु चोदसगुणहाणाणं संतादिपरूवणादो मग्गणट्ठाणविसेसिदजीवपरूवणाए एगत्ताणुवलंभादो । जदि तत्ता एयत्तमत्थि तो अवगम्मदे, ण च एयत्तं पेच्छामो । एदेण कमेण द्विददव्यादिअणियोगद्दाराणि घेत्तूण जीवट्ठाणं कयमिदि जाणावणहूँ वा बंधयाणं परूवणा आगदा । तम्हा बंधयाणं परूवणं णायपत्तमिदि।
___णामबंधया ठवणबंधया दव्यबंधया भावबंधया चेदि चउबिहा बंधया। तत्थ णामबंधया णाम 'बंधया' इदि सद्दो जीवाजीवादिअट्ठभंगेसु पयट्टतो। एसो णामणिक्खेवो दवट्ठियणयमवलंबिय द्विदो । कुदो ? णामस्स सामण्णे पउत्तिदसणादो, दिट्ठाणंतरसमए णट्ठदव्येसु संकेयगहणाणुववत्तीदो। कट्ट-पोत्त-लेप्पकम्मादिसु सब्भावासम्भावभेएण जे ठविदा बंधया त्ति ते ठवणबंधया णाम । एसो णिक्खेवो दव्यट्ठियणयमवलंबिय विदो । कुदो ? 'सो एसो' त्ति एयत्तज्झवसाएण विणा ढवणाए अणुक्वत्तीदो। जे ते दव्यबंधया
जानेवाले अर्थका ज्ञान हो जाता है, अतः इस प्ररूपणाका हमें तो किंचित् भी फल दिखाई नहीं देता?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि मार्गणास्थानोंमें चौदह गुणस्थानोंकी सत्, संख्या आदिरूप प्ररूपणासे मार्गणाविशेषित जीवप्ररूपणाका एकत्व नहीं पाया जाता। यदि उससे एकत्व होता तो वैसा हमें ज्ञान हो जाता। किन्तु हमें उनका एकत्व दिखाई नहीं देता?
अथवा, इस क्रमसे स्थित द्रव्यादि अनुयोगद्वारोंको लेकर जीवस्थान खण्डकी रचना की गई है, यह जतलानेके लिये बन्धकोंकी प्ररूपणा प्रस्तुत है। अतरव बन्धकोंकी प्ररूपणा न्यायप्राप्त है ।
बन्धक चार प्रकारके हैं- नामबन्धक, स्थापनाबन्धक, द्रव्यबन्धक और भावबन्धक । उनमें नामबन्धक तो 'बन्धक' यह शब्द ही है जो जीव, अजीव आदि आठ भंगोंमें प्रवृत्त होता है । ( इन आठ भंगोंके लिये देखो जीवस्थान भाग १, पृ. १९)। यह नामनिक्षेप द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करके स्थित है, क्योंकि, नामकी सामान्यमें प्रवृत्ति देखी जाती है, चूंकि दिखाई देनेके अनन्तर समयमें ही नष्ट हुए पदार्थों में संकेत ग्रहण करना नहीं बनता।
____ काष्ठकर्म, पोतकर्म, लेप्यकर्म आदिमें सद्भाव व असद्भावके भेदसे जिनकी 'ये बन्धक हैं' ऐसी स्थापना की गई हो वे स्थापनाबन्धक है । यह निक्षेप भी द्रव्यार्थिक मयके अवलम्बनसे स्थित है, क्योंकि, 'वह यही है ' ऐसे एकत्वका निश्चय किये बिना स्थापनानिक्षेप बन नहीं सकता ।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, १. णाम ते दुविहा आगम-णोआगमभेएण । बंधयपाहुडजाणया अणुवजुत्ता आगमदव्वबंधया णाम । कधमागमेण विप्पमुक्कस्स जीवदव्यस्स आगमववएसो ? ण एस दोसो, आगमाभावे वि आगमसंसकारसहियस्स पुव्वं लद्धागमववएसस्स जीवदधस्स आगमववएसुवलंभा। एदेणेव भट्ठसंसकारजीवदव्वस्स वि गहणं कायव्यं, तत्थ वि आगमववएसुवलंभा। णोआगमादो दव्यबंधया तिविहा, जाणुअसरीर-भविय-तव्यदिरित्तबंधय भेदेण । जाणुगसरीर-भवियदव्वबंधया सुगमा ! तव्यदिरित्तदव्यबंधया दुविहा-कम्मबंधया णोकम्मबंधया चेदि । तत्थ जे णोकम्मबंधया ते तिविहा-सचित्तणोकम्मदव्यबंधया अचित्तणोकम्मदव्वबंधया मिस्सणोकम्मदव्वबंधया चेदि । तत्थ सचित्तणोकम्मदव्वबंधया जहा हत्थीणं बंधया, अस्साणं बंधया इच्चेवमादि । अचित्तणोकम्मदनबंधया जहा कट्ठाणं बंधया, सुप्पाणं बंधया कडयाणं बंधया, इच्चेवमादि । मिस्सणोकम्मदव्वबंधया जहा साहरणाणं' हत्थीणं बंधया इच्चेवमादि ।
जो द्रव्यबन्धक हैं वे आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारके हैं। बन्धकप्राभूतके जानकार किन्तु (विवक्षित समय पर ) उसमें उपयोग न रखनेवाले आगमद्रव्यबन्धक हैं।
शंका-जो आगमके उपयोगसे रहित है उस जीव द्रव्यको 'आगम' कैसे कहा जा स
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आगमके अभाव होने पर भी आगमके संस्कार सहित एवं पूर्वकालमें आगम संज्ञाको प्राप्त जीव द्रव्यको आगम कहना पाया जाता है । इसी प्रकार जिस जीवका आगम-संस्कार भ्रष्ट हो गया है उसका भी ग्रहण कर लेना चाहिये, क्योंकि, उसके भी आगम संज्ञा पाई जाती हैं।
शायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे नोआगमद्रव्यवन्धक तीन प्रकारके हैं। तद्व्यतिरिक्त द्रव्यवन्धक दो प्रकारके हैं - कर्मवन्धक और नोकर्मबन्धक । उनमें जो नोकर्मबन्धक हैं वे तीन प्रकारके हैं- सचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक, अचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक और मिश्रनोकर्मद्रव्यबन्धक । उनमें सचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक, जैसे- हाथी बांधनेवाले, घोड़े बांधनेवाले इत्यादि । अचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक, जैसे- लकड़ी बांधने- . वाले, सूपा बांधनेवाले, कट ( चटाई ) बांधनेवाले, इत्यादि । मिश्रनोकर्मद्रव्यबन्धक, जैसे- आभरणों सहित हाथियोंके बांधनेवाले, इत्यादि ।
१ प्रतिषु — आगमभावे ' इति पाठः । २ प्रतिषु । किद्दयाणं ' मप्रतौ ' किदयाणं ' इति पाठः । ३ भ-कात्योः ' साहारणाणं ' हति पाठः ।
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२, १, १.]
बंधगसंतपरूवणाए णिदेसपरूवणं जे कम्मबंधया ते दुविहा- इरियावहबंधया सांपराइयबंधया चेदि । तत्थ जे इरियावहबंधया ते दुविहा- छदुमत्था केवलिणो चेदि । जे छदुमत्था ते दुविहा- उवसंतकसाया खीणकसाया चेदि । जे सांपराइयबंधया ते दुविहा- सुहुमसांपराइया बादरसांपराइया चेदि । जे सुहुमसांपराइया बंधया ते दुविहा- असंपराइयादिया बादरसांपराइयादिया चेदि । जे बादरसांपराइया ते तिविहा- असंपराइयादिया सुहुमसांपराइयादिया अणादि. बादरसांपराइया चेदि । तत्थ जे अणादिबादरसांपराइया ते तिविहा- उवसामया खवया अक्खवयाणुवसामया चेदि । तत्थ जे उवसामया ते दुविहा-- अपुवकरणउवसामया अणियट्टिकरणउवसामया चेदि । जे खवया ते दुविहा- अपुव्यकरणखवया अणियहिकरणखवया चेदि । तत्थ जे अक्खवयअणुवसामगा ते दुविहा- अणादिअपज्जवसिदबंधा च अणादिसपज्जवसिदबंधा चेदि । तत्थ जे भावबंधया ते दुविहा- आगम-णोआगमभावबंधयभेदेण । तत्थ जे बंधपाहुडजाणया उवजुत्ता आगमभावबंधया णाम । णोआगमभावबंधया जहा कोह-माण-माया-लोह-पेम्माई अप्पणाई करेंता ।
एदेसु बंधगेसु कम्मबंधएहि एत्थ अधियारो । एदेसि बंधयाणं णिद्देसे कीरमाणे चोद्दसमग्गणट्ठाणाणि आधारभूदाणि हॉति । काणि ताणि मग्गणट्ठाणाणि त्ति वुत्ते
..........................................
जो कर्मों के बन्धक हैं वे दो प्रकारके हैं- ईर्यापथबन्धक और साम्परायिकबन्धक । उनमें जो ईपिथबन्धक हैं वे दो प्रकारके हैं-छमस्थ और केवली। जो छद्मस्थ हैं वे दो प्रकारके हैं- उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय । जो साम्परायिकबन्धक हैं वे दो प्रकारके हैं- सूक्ष्मसाम्परायिक और वादरसाम्परायिक।
जो सूक्ष्मसाम्परायिक बन्धक हैं वे दो प्रकारके हैं- असाम्परायादिक और धादरसाम्परायादिक । जो बादरसाम्परायिक है वे तीन प्रकारके हैं- असाम्परायादिक, सूक्ष्मसाम्परायादिक और अनादिबादरसाम्परायिक । उनमें जो अनादिवादरसाम्परायिक हैं वे तीन प्रकारके हैं- उपशामक, क्षाक और अक्षपकानुपशामक । उनमें जो उपशामक हैं वे दो प्रकारके हैं- अपूर्वकरण उपशामक और अनिवृत्तिकरण उपशामक । जो क्षपक हैं वे दो प्रकारके हैं - अपूर्वकरण क्षपक और अनिवृत्तिकरण क्षपक । उनमें जो अक्षपकानुपशामक हैं वे दो प्रकारके हैं- अनादि-अपर्यवसित बन्धक और अनादिसपर्यवसित बन्धक।
___ उनमें जो भावबन्धक हैं वे आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारके हैं। उनमें बन्धप्राभृतके जानकार और उसमें उपयोग रखनेवाले आगमभावबन्धक हैं। नोआगमभावबन्धक, जैसे क्रोध, मान, माया, लोभ व प्रेमको आत्मसात करनेवाले।
इन सब बन्धकों में कर्मवन्धकोंका ही यहां अधिकार है । इन्हीं बन्धकोंका निर्देश करनेपर चौदह मार्गणास्थान आधारभूत हैं। वे मार्गणास्थान कौनसे हैं? ऐसा पूछे
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, १, २. उत्तरसुत्तं भणदि
गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्साए भविए सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि ॥२॥
गम्यत इति गतिः। एदीए णिरुत्तीए गाम-णयर-खेड-कव्वडादीणं पि गदित्तं पसज्जदे ? ण, रूढिबलेण गदिणामकम्मणिप्पाइयपज्जायम्मि गदिसद्दपवुत्तीदो । गदिकम्मोदयाभावा सिद्धिगदी अगदी। अथवा, भवाद् भवसंक्रांतिर्गतिः, असंक्रांतिः सिद्धिगतिः । स्वविषयनिरतानीन्द्रियाणि, स्वार्थनिरतानीन्द्रियाणीत्यर्थः । अथवा, इन्द्र आत्मा, इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम् । आत्मप्रवृत्युपचितपुद्गलपिंडः कायः, पृथ्वीकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा कार्य-कारणोपचारेण कायः, चीयन्ते अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा कायः । आत्मप्रवृत्तस्संकोचत्रिकोचो योगः, मनोवाक्कायावष्टंभवलेन जीव
जाने पर आचार्य अगला सूत्र कहते हैं
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक, ये चौदह मार्गणास्थान हैं ॥२॥
जहांको गमन किया जाय वह गति है ।
शंका-गतिकी इस प्रकार निरुक्ति करनेसे तो ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट आदि स्थानोंको भी गति माननेका प्रसंग आता है ?
समाधान नहीं आता, क्योंकि, रूढ़िके बलसे गतिनामकर्म द्वारा जो पर्याय निष्पन्न की गई है उसीमें गति शब्दका प्रयोग किया जाता है। गतिनामकर्मके उदयके अभावके कारण सिद्धिगति अगति कहलाती है । अथवा, एक भवसे दूसरे भवमें संक्रान्तिका नाम गति है, और सिद्धिगति असंक्रान्तिरूप है।
जो अपने अपने विषयमें रत हों वे इन्द्रियां हैं, अर्धात् अपने अपने विषयरूप पदार्थों में रमण करनेवाली इन्द्रियां कहलाती हैं । अथवा इन्द्र आत्माको कहते हैं, और इन्द्र के लिंगका नाम इन्द्रिय है । आत्माकी प्रवृत्ति द्वारा उपचित किये गये पुद्गलपिंडको काय कहते हैं। अथवा, पृथिवीकाय आदि नामकर्मों के द्वारा उत्पन्न परिणामको कार्यमें कारणके उपचारसे काय कहा है। अथवा, 'जिसमें जीवोंका संचय किया जाय' ऐसी व्युत्पत्तिसे काय बना है। आत्माकी प्रवृत्तिसे उत्पन्न संकोच-विकोचका नाम योग है, अर्थात् मन, वचन और कायके अवलम्बनसे जीवप्रदेशोंमें परिस्पन्दन होनेको योग कहते
२ आप्रतौ सिद्धगतिः' इति पाठः।
१ प्रतिषु 'आगदि ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'आत्मप्रवृत्तिस्संकोच-' इति पाठः।
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२, १, ३.]
बंधगसंतपरूवणाए गदिमागणा प्रदेशपरिस्पन्दो योग इति यावत् । आत्मप्रवृत्तेमैथुनसंमोहोत्पादो वेदः। सुख-दुःखबहुसस्यं कर्मक्षेत्रं कृषन्तीति कषायाः। भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानं तत्वार्थोपलंभकं वा । व्रतसमिति-कषाय-दंडेन्द्रियाणां रक्षण-पालन-निग्रह-त्याग-जयाः संयमः, सम्यक् यमो वा संयमः। प्रकाशवृत्तिर्दर्शनम् । आत्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकरी लेश्या, अथवा लिम्पतीति लेश्या । निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः, तद्विपरीतोऽभव्यः। तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् , अथवा तत्वरुचिः सम्यक्त्वम् , अथवा प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वम् । शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञी, तद्विपरीतः असंज्ञी । शरीरप्रायोग्यपुद्गलपिंडग्रहणमाहारः, तद्विपरीतमनाहारः । एदेसु जीवा मग्गिज्जति त्ति एदेसि मग्गणाओ इदि सण्णा ।
गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइया बंधा ॥३॥
हैं। आत्माकी प्रवृत्ति से मैथुनरूप सम्मोहकी उत्पत्तिका नाम वेद है । सुख-दुखरूपी खूब फसल उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी क्षेत्रका जो कर्षण करते हैं वे कषाय हैं। जो यथार्थ वस्तुका प्रकाशक है, अथवा जो तत्त्वार्थको प्राप्त करानेवाला है, वह शान है। व्रतरक्षण, समितिपालन, कषायनिग्रह, दंडत्याग और इन्द्रियजयका नाम संयम है, अथवा सम्यक् रूपसे आत्मनियंत्रणको संयम कहते हैं। प्रकाशरूपवृत्तिका नाम दर्शन है। आत्मा और प्रवृत्ति ( कर्म ) का संश्लेषण अर्थात् संयोग करनेवाली लेश्या कहलाती है। अथवा, जो (कर्मोसे आत्माका) लेप करती है वह लेश्या है । जिस जीवने निर्वाणको पुरस्कृत किया है अर्थात् अपने सन्मुख रखा है वह भव्य है, और उससे विपरीत अर्थात् निर्वाणको पुरस्कृत नहीं करनेवाला जीव अभव्य है। तत्त्वार्थके श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है । अथवा, तत्त्वोंमें रुचि होना ही सम्यकत्व है । अथवा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी अभिव्यक्ति ही जिसका लक्षण है वही सम्यक्त्व है। शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलापको ग्रहण कर सकनेवाला जीव संज्ञी है; उससे विपरीत अर्थात् शिक्षा, क्रियादिको ग्रहण नहीं कर सकनेवाला जीव असंही है। शरीर बनाने के योग्य पुद्गलपिंडको ग्रहण करना ही आहार है; उससे विपरीत अर्थात् शरीर बनाने योग्य पुद्गलपिंडको ग्रहण नहीं करना अनाहार है।
इन्हीं पूर्वोक्त चौदह स्थानोंमें जीवोंकी मार्गणा अर्थात् खोजकी जाती है, इसीलिये इनका नाम मार्गणा है।
गतिमार्गणाके अनुसार नरकगतिमें नारकी जीव बन्धक हैं ॥३॥
१ प्रतिषु ' ग्रही ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, १. बंधया त्ति वुत्तं होदि । कुदो ? दोण्हं पि पदाणमेक्ककारये णिप्पत्तीदो । तिरिक्खा बंधा ॥४॥
कुदो ? मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं बंधकारणाणं तत्थुवलंभादो । एत्थ तिरिक्खगदीए इदि किण्ण वुत्तं ? ण एस दोसो, अत्थावत्तीए तदुवलंभादो।
देवा बंधा॥५॥ सुगममेदं । मणुसा बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अत्थि ॥ ६॥
मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं बंधकारणाणं' सव्वेसिमजोगिम्हि अभावा अजोगिणो अबंधया । सेसा सब्बे मणुस्सा बंधया, मिच्छत्तादिबंधकारणसंजुत्तत्तादो ।
सिद्धा अबंधा ॥७॥
... यहां सूत्रोक्त 'बन्ध' शब्दसे बन्धकका ही अभिप्राय है, क्योंकि, बन्ध और बन्धक इन दोनों पदोंकी एक ही कारकमें निष्पत्ति है । अर्थात् ये दोनों ही शब्द 'बन्ध्' धातुसे का कारकके अर्थमें क्रमशः 'अच् ' व 'वुल' प्रत्यय लगकर बने हैं।
तिर्यच बन्धक हैं ॥ ४ ॥
क्योंकि, उनमें बन्धके करणभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग पाये जाते हैं।
शंका-यहां सूत्रमें 'तिरिक्खगदीए ' अर्थात् 'तिर्यंच गतिमें ' ऐसा पद क्यों नहीं कहा?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, तिर्यंच गतिका अर्थ वहां अर्थापत्ति न्यायसे आ ही जाता है।
देव बन्धक हैं॥५॥ यह सूत्र सुगम है। मनुष्य बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥६॥
कर्मबन्धके कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग, इन सबका अयोगिकेवली गुणस्थानमें अभाव होनेसे अयोगी जिन अबन्धक हैं। शेष सब मनुष्य बन्धक हैं, क्योंकि, मिथ्यात्वादि बन्धके कारणोंसे संयुक्त पाये जाते हैं।
सिद्ध अबन्धक हैं ॥७॥
१ प्रतिषु ' -जोगाणुबंधकारणाणं ' इति पाठः ।
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२, १, ७.]
बंधगसंतपरूवणाए बंधकारणाणि कुदो ? बंधकारणवदिरित्तमोक्खकारणेहि संजुत्तत्तादो। काणि पुण बंधकारणाणि, बंध-बंधकारणावगमेण विणा मोक्खकारणावगमाभावा । वुत्तं च
(जे बंधयरा भावा मोक्खयरा भावि जे दु अझप्पे ।
जे भावि बंधमोक्खे अकारया ते वि विण्णेया ॥ १ ॥) तदो बंधकारणाणि वत्तव्याणि ? मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगा बंधकारणाणि । सम्मइंसण-संजमाकसायाजोगा मोक्खकारणाणि । वुत्तं च
( मिच्छत्ताविरदी वि य कसायजोगा य आसवा होति ।
दंसण-विरमण-णिग्गह-णिरोहया संवरा' होति ॥ २॥ जदि चत्तारि चेव मिच्छत्तादीणि बंधकारणाणि होति तो
.ओदइया बंधयरा उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा । भावो दु पारिणामिओ करणोभयवज्जियो होदि ॥ ३
क्योंकि, सिद्ध बन्धकारणोंसे व्यतिरिक्त मोक्षके कारणोंसे संयुक्त पाये जाते हैं।
शंका-वे बन्धके कारण कौनसे हैं, क्योंकि बन्धके कारण जाने बिना मोक्षके कारणोंका ज्ञान नहीं हो सकता। कहा भी है
जो बन्धके उत्पन्न करनेवाले भाव हैं और जो मोक्षको उत्पन्न करनेवाले आध्यात्मिक भाव हैं, तथा जो बन्ध और मोक्ष दोनोंको नहीं उत्पन्न करनेवाले भाव हैं, वे सब भाव जानने योग्य हैं ॥१॥
अतएव बन्धके कारण बतलाना चाहिये ?
समाधान-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग, ये चार बन्धके कारण हैं। और सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय और अयोग, ये चार मोक्षके कारण हैं। कहा भी है
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये कौके आश्रव अर्थात् आगमनद्वार हैं। तथा सम्यग्दर्शन, विषयविरक्ति, कषायनिग्रह और मन-वचन-कायका निरोध, ये संवर अर्थात् कर्मों के निरोधक हैं ॥२॥
शंका-यदि ये ही मिथ्यात्वादि चार बन्धके कारण हैं तो
औदयिक भाव बंध करनेवाले हैं, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव मोक्षके कारण हैं, तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष दोनोंके कारणसे रहित हैं ॥३॥
१ सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णति बंधकतारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसाय-जोगा य बोदना॥ समयसार ११६.
२ प्रतिषु संवरो ' इति पाठः ।
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१०) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ७. एदीए सुत्तगाहाए सह विरोहो होदि त्ति वुत्ते ण होदि, ओदइया बंधयरा त्ति वुत्ते ण सव्वेसिमोदइयाणं भावाणं गहणं, गदि-जादिआदीणं पि ओदइयभावाणं बंधकारणत्तप्पसंगा । देवगदीउदएण वि काओ वि पयडीयो वज्झमाणियाओ दीसंति, तासिं देवगदिउदओ किण्ण कारणं होदि ति वुत्ते ण होदि, देवगदिउदयाभावेण तार्सि णियमेण बंधाभावाणुवलंभादो । 'जस्स अण्णय-वदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णय-वदिरेगा उवलंभंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं' इदि णायादो मिच्छत्तादीणि चेव बंधकारणाणि ।
तत्थ मिच्छत्त-णबुंसयवेद-णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिदियजादि हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी-आदाव-थावर-सुहुमअपजत्त-साहारणाणं सोलसण्हं पयडीणं बंधस्स मिच्छत्तुदओ कारणं, तदुदयण्णय-वदिरेगेहि सोलसपयडीबंधस्स अण्णय-वदिरेगाणमुवलंभादो । णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धी
इस सूत्रगाथाके साथ विरोध उत्पन्न होता है । . समाधान-विरोध नहीं उत्पन्न होता है, क्योंकि 'औदयिक भाव बन्धके कारण हैं ' ऐसा कहनेपर सभी औदयिक भावोंका ग्रहण नहीं समझना चाहिये, क्योंकि वैसा माननेपर गति, जाति आदि नामकर्मसम्बन्धी औदयिक भावोंके भी बन्धके कारण होनेका प्रसंग आ जायगा।
शंका-देवगतिके उदयके साथ भी तो कितनी ही प्रकृतियोंका बन्ध होना देखा जाता है, फिर उनका कारण देवगतिका उदय क्यों नहीं होता?
समाधान-उनका कारण देवगतिका उदय नहीं होता, क्योंकि देवगतिके उदयके अभावमें नियमसे उनके बन्धका अभाव नहीं पाया जाता।" जिसके अन्वय और व्यतिरेकके साथ नियमसे जिसके अन्वय और व्यतिरेक पाये जावें वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है" (अर्थात् जब एकके सद्भावमें दूसरेका सद्भाव और उसके अभावमें दूसरेका भी अभाव पाया जावे तभी उनमें कार्य-कारणभाव संभव हो सकता है, अन्यथा नहीं।) इस न्यायसे मिथ्यात्व आदिक ही बन्धके कारण हैं।
इन कारणोंमें मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, हुंडसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिका शरीरसंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इन सोलह प्रकृतियोंके बन्धका मिथ्यात्वोदय कारण है, क्योंकि मिथ्यात्वोदयके अन्वय और व्यतिरेकके साथ इन सोलह प्रकृतियोंके बन्धका अन्वय और व्यतिरेक पाया जाता है।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और
......................
१ अ-कप्रत्योः · अष्णय-वदिरेगेण हि ' इति पाठः।
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२, १, ७. ]
बंध संतपरूवणार बंध कारणाणि
[ ११
अताणुबंधिकोध-माण- माया-लोभा-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ - तिरिक्खगदी - णग्गोह- सादिखुज्ज-वामणसरीरसंठाण वज्जणारायण-नारायण-अद्धणारायण - खीलिय सरीरसंघडण - तिरिक्खगदी पाओग्गाणुपुब्बी-उज्जोव - अप्पसत्थविहायगदि-दु मग दुस्सर- अणादेज-णीचागोदाणं बंधस्स अणंताणुबंधिचउक्क्स्स उदयो कारणं । कुदो ! तदुदयअण्णय वदिरेगेहिमेदासिं पयडीणं बंधस्स अण्णय-वदिरेगाणं उवलंभादो । अपच्चक्खाणावरणीयकोध-माण- मायालोभ मणुस्सा उ-मणुस्सगदी-ओरालि यसरीर अंगोवंग- वज्जरि सहसंघडण मणुस्सगदीपाओगाणुपुत्रीणं बंधस्स अपच्चक्खाणावरणचदुक्कस्स उदओ कारणं, तेण विणा एदासिं बंधाणुवलंभा' । पच्चक्खाणावरणीय कोध-माण- माया - लोभाणं बंधस्स एदासिं चेव उदओ कारणं, सोदएण विणा एदासिं बंधाणुवलंभा । असादावेदणीय-अरदि-सोग - अथिर-असुहअजसकित्तीणं बंधस्स पमादो कारणं, पमादेण विणा एदासि बंधाणुवलंभा । को पमादो णाम ? चदुसंजलण- णवणोकसायाणं तिब्वोदओ । चदुन्हं बंधकारणाणं मज्झे कत्थ
लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यचायु, तिर्यचगति, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक और वामन शरीरसंस्थान, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच और कीलित शरीरसंहनन, तिर्यचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुभंग, दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्र, इन पञ्चीस प्रकृतियोंके बन्धका अनन्तानुबन्धीचतुष्कका उदय कारण है, क्योंकि उसीके उदय के अन्वय और व्यतिरेकके साथ इन प्रकृतियोंका भी अन्वय और अतिरेक पाया जाता है ।
अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक शरीरांगोपांग, वज्रऋषभसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, इन दश प्रकृतियोंके बन्धका अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका उदय कारण है, क्योंकि उसके बिना इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं पाया जाता ।
प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार प्रकृतियों के बन्धका कारण इन्हींका उदय है, क्योंकि अपने उदयके बिना इनका बन्ध नहीं पाया जाता । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति, इन छह प्रकृतियों के बन्धका कारण प्रमाद है, क्योंकि प्रमाद के बिना इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं
पाया जाता ।
शंका - प्रमाद किसे कहते हैं ?
समाधान --- चार संज्वलन कषाय और नव नोकपाय, इन तेरह के तीव्र उदयका है
1
शंका- पूर्वोक्त चार बन्धके कारणोंमें प्रमादका कहां अन्तर्भाव होता है ?
१ कप्रतौ ' बंधाणुवमादो' इति पाठः ।
नाम प्रमाद
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१२) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ७. पमादस्संत-भावो ? कसायेसु, कसायवदिरित्तपमादाणुवलंभादो । देवाउवबंधस्स वि कसाओ चेव कारणं, पमादहेदुकसायस्स उदयाभावेण अप्पमत्तो होदण मंदकसाउदएण परिणदस्स देवाउअबंधविणासुवलंभा। णिदा-पयलाणं पि बंधस्स कसाउदओ चेव कारणं, अपुव्वकरणद्धाए पढमसत्तमभाए' संजलणाणं तप्पाओग्गतिव्वोदए एदासिं बंधुवलंभादो । देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउबिय-आहार-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससरीरसंठाण-वेउन्वियआहारसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज.. णिमिण-तित्थयराणं पि बंधस्स कसाउदओ चेव कारणं, अपुव्वकरणद्धाए छसत्तभागचरिमसमए मंदयरकसाउदएण सह बंधुवलंभादो । हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं बंधस्स अधापवत्तापुवकरणणिबंधणकसाउदओ कारणं, तत्थेव एदासि बंधुवलंभादो । चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं बंधस्स बादरकसाओ कारणं, सुहुमकसाए एदासिं बंधाणुवलंभा ।
समाधान-कषायों में प्रमादका अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, कषायोंसे पृथक् प्रमाद पाया नहीं जाता।
देवायुके बन्धका भी कषाय ही कारण है, क्योंकि, प्रमादके हेतुभूत कषायके उदयके अभावसे अप्रमत्त होकर मन्द कषायके उदयरूपसे परिणत हुए जीवके देवायुके बन्धका विनाश पाया जाता है। निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंके भी बन्धका कारण कषायोदय ही है, क्योंकि, अपूर्वकरणकालके प्रथम सप्तम भागमें संज्वलन कषायोंके उस कालके योग्य तीव्रोदय होने पर इन प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। देव. गति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थकर, इन तीस प्रकतियोंके भी बन्धका कषायोदय ही कारण है, क्योंकि, अपूर्वकरणकालके सात भागोंमेसे प्रथम छह भागोंके अन्तिम समयमें मन्दतर कषायोदयके साथ इनका बन्ध पाया जाता है। हास्य, रति, भय, और जुगुप्सा, इन चारके बन्धका अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरणसम्बन्धी कषायोदय कारण है, क्योंकि उन्हीं दोनों परिणामोंके कालसम्बन्धी कषायोदयमें ही इन प्रकृतियोका बन्ध पाया जाता है।
चार संज्वलन कषाय और पुरुषवेद इन पांच प्रकृतियोंके बन्धका बादर कषाय कारण है, क्योंकि, सूक्ष्मकषाय गुणस्थानमें इनका बन्ध नहीं पाया जाता। पांच ज्ञाना
१ प्रतिषु 'पदमसम्मत्तमभाए' इति पाठः ।
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२,१, ७.] बंधगसंतपरूवणाए बंधकारणाणि
[१३ पंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-जसगित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं सामण्णो कसाउदओ कारणं, कसायाभावे एदासिं बंधाणुवलंभा । सादावेदणीयबंधस्स जोगो चेव कारणं, मिच्छत्तासंजम-कसायाणमभावे वि जोगेणेक्केण चेवेदस्स बंधुवलंभादो, तदभावे तदणुवलंभादो। ण च एदाहिंतो वदिरित्ताओ अण्णाओ बंधपयडीओ अस्थि जेण तासिमण्णं पच्चयंतरं होज्ज ।
असंजमो वि पच्चओ पदिदो, सो काणं पयडीणं बंधस्स कारणमिदि ? ण, संजमघादिकम्मोदयस्सेव असंजमववदेसादो। असंजमो जदि कसाएसु चेव पददि तो पुध तदुवदेसो किमटुं कीरदे ? ण एस दोसो, क्वहारणयं पडुच्च तदुवदेसादो । एसा पज्जवट्ठियणयमस्सिऊण पच्चयपरूवणा कदा । दव्वट्टियणए पुण अवलंबिज्जमाणे बंधकारणमेगं चेव, चदुपच्चयसमूहादो बंधकज्जुप्पत्तीए । तम्हा एदे बंधपच्चया । एदेसिं
वरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इन सोलह प्रकृतियोंका सामान्य कषायोदय कारण है, क्योंकि, कषायों के अभावमें इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं पाया जाता । सातावेदनीय के बन्धका योग ही कारण है, क्योंकि, मिथ्यात्व, असंयम, और कषाय, इनका अभाव होनेपर भी एकमात्र योग के साथ ही इस प्रकृतिका बन्ध पाया जाता है, और योगके अभावमें इस प्रकृतिका बन्ध नहीं पाया जाता।
इनके अतिरिक्त और अन्य कोई बन्ध योग्य प्रकृतियां नहीं है जिससे कि उनका कोई अन्य कारण हो।
शंका- असंयम भी बन्धका कारण कहा गया है, सो वह किन प्रकृतियों के बन्धका कारण होता है?
समाधान- यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, संयमके घातक कषायरूप चारित्रमोहनीय कर्म के उदयका ही नाम असंयम है।
शंका-यदि असंयम कषायों में ही अन्तर्भूत होता है, तो फिर उसका पृथक् उपदेश किसलिये किया जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि व्यवहारनयकी अपेक्षासे उसका पृथक उपदेश किया गया है । बन्धकारणोंकी यह प्ररूपणा पर्यायार्थिकनयका आश्रय करके की गयी है। पर द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर तो बन्धका कारण केवल एक ही है, क्योंकि, कारणचतुष्कके समूहसे ही बंधरूप कार्य उत्पन्न होता है।
इस कारण ये ही बंधके कारण हैं । इनके प्रतिपक्षी सम्यक्त्वोत्पत्ति, देशसंयम,
३ प्रतिषु 'पदिदं ', मप्रतौ 'पददि ' इति पाठः। ..
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१५ छक्खडागमे खुदाबंधी
[२, १, ७. पडिवक्खा सम्मत्तुप्पत्ती-देससंजम-संजम-अणंताणुबंधिविसंजोयण-दंसणमोहक्खवणचरितमोहुवसामणुवसंतकसाय-चरित्तमोहक्खत्रण-खीणकसाय-सजोगिकेवलीपरिणामा मोक्खपच्चया, एदेहितो समयं पडि असंखेज्जगुणसेडीए कम्मणिज्जरुवलं भादो। जे पुण पारिणामियभावा जीव-भव्या भव्यादओ, ण ते बंध-मोक्खाणं कारणं, तेहितो तदणुवलंभा ।
एदस्स कम्मस्स खएण सिद्धाणमेसो गुणो समुप्पणो त्ति जाणावणट्ठमेदाओ गाहाओ एत्थ परूविज्जति
दव्व-गुण-पज्जए जे जस्सुदएण य ण जाणदे जीवो । तस्स क्खएण सो च्चिय जाणदि सव्वं तयं जुगवं ॥ ४ ॥ दव्व-गुण-पज्जए जे जस्सुदएण य ण पस्सदे जीवो । तस्स क्खएण सो च्चिय पस्सदि सव्वं तयं जुगवं ॥५॥ जस्सोदएण जीवो सुहं व दुक्खं व दुविहमणुहवइ । तस्सोदयक्खएण दु जायदि अप्पत्थणंतसुहो ॥ ६ ॥ मिच्छत्त-कसायासंजमेहि जस्सोदएण परिणमइ । जीवो तस्सेब खया त्तविबरीदे गुणे लहइ ।। ७ ॥
संयम, अनन्तानुबन्धिविसंयोजन, दर्शनमोहक्षपण, चारित्रमोहोपशमन, उपशान्तकषाय, चारित्रमोहक्षपण, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली, ये परिणाम मोक्षके कारणभूत हैं, क्योंकि, इन्हीं के द्वारा प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे कर्मोंकी निर्जरा पायी जाती है। किन्तु जीव, भव्य,अभव्य आदि जो पारिणामिक भाव हैं, वे बन्ध और मोक्ष दोनोंमेंसे किसीके भी कारण नहीं हैं, क्योंकि उनके द्वारा बन्ध या मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती।
'इस कर्मके क्षयसे सिद्धोंके यह गुण उत्पन्न हुआ है ' इस बात का शान कराने के लिये ये गाथायें यहां प्ररूपित की जाती हैं -
जिस ज्ञानावरणीय कर्मके उदयसे जीव जिन द्रव्य, गुण और पर्याय, इन तीनोंको नहीं जानता, उसी ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयसे वही जीव उन सभी तीनोंको एक साथ जानने लगता है ॥ ४॥
जिस दर्शनावरणीय कर्मके उदयसे जीव जिन द्रव्य, गुण और पर्याय, इन तीनोंको नहीं देखता है, उसी दर्शनावरणीय कर्मके क्षयसे वही जीव उन सभी तीनोंको एक साथ देखने लगता है ॥५॥
जिस वेदनीय कर्मके उदयसे जीव सुख और दुःख इस दो प्रकारको अवस्थाका भनुभव करता है, उसी कर्मके क्षयसे आत्मस्थ अनंतसुख उत्पन्न होता है ॥ ६ ॥
जिस मोहनीय कर्मके उदयसे जीव मिथ्यात्व, कषाय और असंयम रूपसे परिणमन करता है, उसी मोहनीयके क्षयसे इनके विपरीत गुणोंको प्राप्त करता है ॥७॥
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[१५
२, १, ८.]
बंधगसंतपरूवणाए इंदियमग्गणा जस्सोदएण जीवो अणुसमयं मरदि जीवदि वराओ । तस्सोदयक्खएण दु भव-मरणविवज्जियो होइ ॥ ८॥ अंगोवंग-सरीरिंदिय-मणुस्सासजोगणिप्फत्ती । जस्सोदएण सिद्धो तण्णामखएण असरीरो ॥९॥ उच्चुच्च उच्च तह उच्चणीच णीचुच्च णीच णीचं च। जस्सोदएण भावो णीचुच्चविवज्जिदो तस्स ॥१०॥ विरियोवभोग-भोगे दाणे लाभे जदुदयदो विग्धं । पंचविहलद्धिजुत्तो तक्कम्मखया हवे सिद्धो ॥ ११ ॥ जयमंगलभूदाणं विमलाणं णाण-दसणमयाणं ।
तेलोक्कसेहराणं णमो सिया सव्वसिद्धाणं ॥ १२ ॥ इंदियाणुवादेण एइंदिया बंधा वीइंदिया बंधा तीइंदिया बंधा चदुरिंदिया बंधा ॥ ८॥
कुदो ? एदेसु मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणमण्णयं मोत्तूण वदिरेगाभावा।
जिस आयु कर्मके उदयसे बेचारा जीव प्रतिसमय मरता और जीता है, उसी कर्मके उदयक्षयसे वह जीव जन्म और मरणसे रहित हो जाता है ॥ ८॥
जिस नाम कर्मके उदयसे अंगोपांग, शरीर, इन्द्रिय,मन और उच्छ्वासके योग्य निष्पत्ति होती है, उसी नाम कर्मके क्षयसे सिद्ध अशरीरी होते हैं ॥९॥
जिस गोत्र कर्मके उदयसे जीव उच्चोच्च, उच्च, उच्चनीच, नीचोच्च,नीच या नीचनीच भावको प्राप्त होता है, उसी गोत्र कर्म के क्षयले वह जीव नीच और ऊंच भावोंसे मुक्त होता है ॥ १०॥
जिस अन्तराय कर्मके उदयसे जीवके वीर्य, उपभोग, भोग, दान और लाभमें विघ्न उत्पन्न होता है, उसी कर्मके क्षयसे सिद्ध पंचविध लब्धिसे संयुक्त होते हैं॥११॥
जो जगमें मंगलभूत हैं, विमल हैं, ज्ञान-दर्शनमय हैं, और त्रैलोक्यके शेखर रूप हैं ऐसे समस्त सिद्धोंको मेरा नमस्कार हो ॥ १२॥
इन्द्रियमार्गणाके अनुसार एकेन्द्रिय जीव बन्धक हैं, द्वीन्द्रिय बन्धक हैं, त्रीन्द्रिय बन्धक हैं और चतुरिन्द्रिय बन्धक हैं ॥ ८॥
क्योंकि, उक्त जीवोंमें (कर्मबन्धके कारणभूत ) मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग, इनके अन्वयको छोड़कर व्यतिरेकका अभाव है, अर्थात् उन जीवोंमें बन्धके कारणोंका सद्भाव ही पाया जाता है, असद्भाव नहीं।
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१६]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, १, ९. पंचिंदिया बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अस्थि ॥९॥
कुदो ? मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति बंधा चेव, तत्थ बंधकारणमिच्छत्तादीणमुवलंभादो । अजोगिकेवली अबंधा चेव, मिच्छत्तादिवंधकारणाणं सव्वेसिमभावा । तेण पंचिंदिया बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अत्थि ति भणिदं । सजोगिअजोगिकेवलीणं केवलणाण-दसणेहि दिवासेसपमेयाणं करणवावारविरहियाणं कधं पंचिंदियत्तं ? ण एस दोसो, पंचिंदियणामकम्मोदयं पडुच्च तेसिं तव्ववएसादो।
अणिंदिया अबंधा ॥१०॥ कुदो ? सिद्धेसु णिरंजणेसु सयलबंधाभावादो, णिरामएसु बंधकारणाभावा ।
कायाणुवादेण पुढवीकाइया बंधा आउकाइया बंधा तेउकाइया बंधा वाउकाइया बंधा वण'फदिकाइया बंधा ॥ ११ ॥
पंचेन्द्रिय जीव बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥ ९॥
क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली तकके जीव तो बन्धक ही हैं, क्योंकि, उनमें बन्धके कारणभूत मिथ्यात्वादि पाये जाते हैं । किन्तु अयोगिकेवली
: ही हैं, क्योंकि, उनमें मिथ्यात्व आदि सभी बन्धके कारणोंका अभाव है। इसीलिये 'पंचेन्द्रिय जीव बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं' ऐसा कहा गया है।
शंका-जिन्होंने केवलज्ञान और केवलदर्शनसे समस्त प्रमेय अर्थात् शेय पदाढेको देख लिया है और जो करण अर्थात् इन्द्रियोंके व्यापारसे रहित हैं, ऐसे सयोगी और अयोगी केवलियोंको पंचेन्द्रिय कैसे कह सकते हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, उनमें पंचेन्द्रिय नामकर्मका उदय विद्यमान है, अतः उसकी अपेक्षासे उन्हें पंचेन्द्रिय कहा गया है।
अनिन्द्रिय जीव अवन्धक हैं ।। १०॥
क्योंकि, निरंजन सिद्धोंमें समस्त बन्धका अभाव है, चूंकि निरामय अर्थात् निर्विकार जीवोंमें बन्धका कोई कारण नहीं रहता।
कायमार्गणानुसार पृथिवीकायिक जीव बन्धक हैं, अप्कायिक बन्धक हैं, तेजस्कायिक बन्धक हैं, वायुकायिक बन्धक हैं और वनस्पतिकायिक बन्धक हैं ॥११॥
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.१ प्रतिषु 'बंधा' इति पाठः।
२ करतौ -णामकम्म' इति पाठः ।
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[१७
२, १, १५.] बंधगसंतपरूवणाए जोगमग्गणा
सुगममेदं। तसकाइया बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अत्थि ॥ १२ ॥
कुदो ? मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति तसकाइएसु बंधकारणुवलंभा, अजोगिकेवलिम्हि तदणुवलंभादो ।
अकाइया अबंधा ॥ १३ ॥ सुगममेदं । जोगाणुवादेण मणजोगि-वचिजोगि-कायजोगिणो बंधा ॥१४॥ एवं पि सुगमं । अजोगी अबंधा ॥ १५॥
जोगो णाम किं ? मण-वयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिप्फंदो । जदि एवं तो णत्थि अजोगिणो, सरीरयस्स जीवदव्यस्स अकिरियत्तविरोहादो । ण एस दोसो,
यह सूत्र सुगम है। त्रसकायिक जीव बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥ १२ ॥
क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली तकके त्रसकायिक जीपोंमें बन्धके कारणभूत मिथ्यात्वादि पाये जाते हैं, किन्तु अयोगिकेवलीमें वे बन्धके कारण नहीं पाये जाते।
अकायिक जीव अवन्धक हैं ॥ १३ ॥ यह सूत्र सुगम है। योगमार्गणानुसार मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी बन्धक हैं ॥१४॥ यह सूत्र भी सुगम है। अयोगी जीव अबन्धक हैं ॥१५॥ शंका-योग किसे कहते हैं ?
समाधान-मन, वचन और काय सम्बन्धी पुद्गलोंके आलम्बनसे जो जीवप्रदेशोंका परिस्पन्दन होता है वही योग है।
शंका-यदि ऐसा है तो शरीरी जीव अयोगी हो ही नहीं सकते, क्योंकि शरीरगत जीव द्रव्यको अक्रिय मानने में विरोध आता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि आठों काँके क्षीण हो जानेपर जो
१ प्रतिषु 'आकीरियत्तविरोहादो' इति पाठः ।
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१८]
छक्खंडागमे खुदावंधो
[२, १, १६. अट्टकम्मेसु खीणेसु जा उड्डगमणुवलंबिया किरिया सा जीवस्स साहाविया, कम्मोदएण विणा पउत्तत्तादो । सहिददेसमछंडिय छदित्ता वा जीवदधस्स सावयवेहि परिप्फंदो अजोगो' णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो । तेण सक्किरिया वि सिद्धा अजोगिणो, जीवपदेसाणमद्दहिदजलपदेसाणं व उव्यत्तण-परियत्तणकिरियाभावादो । तदो ते अबंधा त्ति' भणिदा।
वेदाणुवादेण इत्थिवेदा बंधा, पुरिसवेदा बंधा, णqसयवेदा बंधा ॥ १६ ॥
सुगममेदं । अवगदवेदा बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अस्थि ॥ १७ ॥ सकसायजोगेसु अकसायजोगेसु च अवगयवेदत्तुवलंभा ।
ऊर्ध्वगमनोपलम्बी क्रिया होती है वह जीवका स्वाभाविक गुण है, क्योंकि यह कर्मोदयके विना प्रवृत्त होती है । स्वस्थित प्रदेशको न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीवद्रव्यका अपने अवयवों द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षयसे उत्पन्न होता हैं। अतः सक्रिय होते हुए भी शरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि उनके जीवप्रदेशोंके तप्तायमान जलप्रदेशोंके सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रियाका अभाव है। इसीलिये अयोगियोंको अबन्धक कहा है।
वेदमार्गणानुसार स्त्रीवेदी जीव बन्धक हैं, पुरुषवेदी बन्धक हैं और नपुंसकवेदी बन्धक है ॥१६॥
यह सूत्र सुगम है। अपगतवेदी बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥१७॥
क्योंकि, कषाय व योग सहित तथा कषाय व योग रहित जीवोंमें अपगतवेदत्व पाया जाता है।
विशेषार्थ-नौ के अवेदभागसे लेकर तेरहवें तकके गुणस्थान यद्यपि अपगत वेदियोंके हैं, तो भी उनमें कषाय व योगका सद्भाव होनेसे कर्मबन्ध होता ही है, और इस प्रकार इन गुणस्थानोंके जीव अपगतवेदी होनेपर भी बन्धक हैं। चौदहवें गुणस्थानमें बंधका अन्तिम कारण योग भी नहीं रहता और इस कारण इस गुणस्थानके अपगतवेदी जीव अबन्धक हैं।
२ कप्रतौ वि सिट्ठा' इति पाठः।
१ प्रतिषु 'परिप्फंदो जोगो' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'तदो ति अबंधो ति' इति पाठः।
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[१९
२, १, २१.] बंधगसंतपरूवणाए कसायमांगणा
सिद्धा अबंधा ॥ १८ ॥
अवगदवेदत्तं सिद्धेसु वि अत्थि जेण कारणेण तेण अवगदवेदपरूवणाए चेव सिद्धा वि परूविदा ति सिद्धाणं पुधपरूवणा णिप्फला किण्ण होदि ति वुत्ते, ण होदि, अवगदवेदत्तेण बंधगाबंधगा दो वि रासीओ पडिग्गहिदाओ जेण संदेहो सिद्धेसु वि बंधगाबंधगविसओ समुप्पज्जदि । तण्णिराकरणटुं सिद्धा अबंधा त्ति पुधपरूवणा कदा । सेसं सुगमं ।
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई बंधा॥१९॥
सुगममेदं । अकसाई बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अस्थि ॥ २० ॥ कुदो ? सजोगाजोगेसु अकसायत्तस्सुवलंभा । सिद्धा अबंधा ॥ २१ ॥
सिद्ध अबन्धक हैं ॥१८॥
शंका-अपगतवेदत्व सिद्धोंमें भी तो है अत एव उपर्युक्त सूत्रमें अपगतवेदोंकी प्ररूपणासे सिद्धोंका भी प्ररूपण हो गया। इसलिये सिद्धोंकी पृथक् प्ररूपणा निष्फल है ?
समाधान - सिद्धोंकी पृथक् प्ररूपणा निष्फल नहीं है, क्योंकि, अपगतवेदत्वकी अपेक्षा बंधक और अबन्धक ये दोनों राशियां ग्रहण की गयी हैं जिससे सन्देह होने लगता है कि क्या सिद्धोंमें भी बन्धक और अबन्धक ऐसे दो भेद है। इसी सन्देहको दूर करनेके लिये 'सिद्ध अबन्धक हैं ' ऐसी पृथक् प्ररूपणा की गयी है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
कषायमार्गणानुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी बन्धक हैं ॥१९॥
यह सूत्र सुगम है। अकषायी बन्धक भी हैं, अवन्धक भी हैं ॥ २० ॥
क्योंकि, ग्यारहवें गुणस्थानसे लेकर तेरहवे गुणस्थान तकके सयोगी जीवोंके बन्धक होनेपर भी अकषायत्व पाया जाता है, और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जीबोंके अवन्धक होते हुए भी अकषायत्व पाया जाता है।
सिद्ध अबन्धक हैं ॥ २१॥
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२०]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, १, २२. एदस्स सुत्तारंभस्स कारणं पुर्व व परूवेदव्यं । ___णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणी आभिणिबोहियणाणी सुदणाणी ओधिणाणी मणपज्जवणाणी बंधा ॥२२॥
सुगममेदं । केवलणाणी बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अत्थि ॥ २३ ॥ सिद्धा अबंधा ॥ २४ ॥
एत्थ अबंधा वेत्ति एवकारो किण्ण कदो ? ( ण,) सुत्तारंभादो चेव तदुवलद्धीदो। सेसं सुगमं ।
संजमाणुवादेण असंजदा बंधा, संजदासजदा बंधा ॥ २५॥ संजदा बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अत्थि ॥ २६ ॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
इस सूत्रके पृथक् रचे जानेका कारण पूर्वमें कहे अनुसार प्ररूपित करना चाहिये।
ज्ञानमार्गणानुसार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी बन्धक हैं ॥२२॥
यह सूत्र सुगम है। केवलज्ञानी बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥ २३ ॥ सिद्ध अवन्धक हैं ।। २४ ॥
शंका-यहां ' अबन्धक ही हैं ' ऐसा अन्य विकल्पका निषेधात्मक एव' पदका प्रयोग क्यों नहीं किया ?
समाधान नहीं किया, क्योंकि, सूत्रकी पृथक् रचनामात्रसे ही वही अर्थ जान लिया जाता है।
शेष सूत्रार्थ सुगम है। संयममार्गणानुसार असंयत बंधक हैं और संयतासंयत बंधक हैं ॥२५॥ संयत बंधक भी हैं, अबंधक भी हैं ॥२६॥ ये दोनों सूत्र सुगम हैं।
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२, १, ३१.] बंधगसतपरूवणाए लेस्सामग्गणा
(२१ णेव संजदा णेव असंजदा णेव संजदासजदा अबंधा ॥२७॥
विसएसु दुविहासंजमसरूवेण पवुत्तीए अभावा असंजदा ण होति सिद्धा । संजदा वि ण होंति, पवुत्तिपुरस्सरं तण्णिरोहाभावा । तदो णोभयसंजोगो वि । सेसं सुगमं ।
__ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओधिदसणी बंधा ॥२८॥
केवलदसणी बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अत्थि ॥ २९ ॥ सिद्धा अबंधा ॥ ३०॥ सबमेदं सुगमं ।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्कलेस्सिया बंधा । ३१ ।।
सुगममेदं ।
न संयत न असंयत न संयतासंयत, ऐसे सिद्ध जीव अबंधक हैं ॥२७॥
विषयों में दो प्रकारके असंयम अर्थात् इन्द्रियासंयम और प्राणिवध रूपसे प्रवृत्ति न होनेके कारण सिद्ध असंयत नहीं हैं । और सिद्ध संयत भी नहीं हैं, क्योंकि, प्रवृत्तिपूर्वक उनमें विषयनिरोधका अभाव है। तदनुसार संयम और असंयम इन दोनोंके संयोगसे उत्पन्न संयमासंयमका भी सिद्धोंके अभाव है।
शेष सूत्रार्थ सुगम है। दर्शनमार्गणानुसार चक्षुदर्शनी अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी बन्धक हैं ॥२८॥ केवलदर्शनी बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥२९॥ सिद्ध अबन्धक हैं ॥३०॥ . ये सब सूत्र सुगम हैं।
लेश्यामार्गणानुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले बन्धक हैं ॥३१॥
यह सूत्र सुगम है।
१ प्रतिषु ' अबंधा' इति पाठः ।
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१२]
छखंडागमे खुदाबंध
अलेस्सिया अबंधा ॥ ३२ ॥
सिद्धा अबंधा ति एत्थ पृधणिद्देसो किण्ण कदो ! ण, अलेस्सिएस बंधाबंधोभयभंगाभावेण संदेहाणुष्पत्तदो । सेसं सुगमं ।
[ २, १,३२.
भवियाणुवादेण अभवसिद्धिया बंधा, भवसिद्धिया बंधा वि अथ अबंधा व अत्थि ॥ ३३ ॥
व भवसिद्धिया व अभवसिद्धिया अबंधा ॥ ३४ ॥ मेदं सुगमं ।
सम्मत्ताणुवादेण मिच्छादिट्टी बंधा, सासणसम्मादिट्टी बंधा, सम्मामिच्छादिट्टी बंधा ॥ ३५ ॥
कुदो ? सयलासव संजुत्तत्तादो ।
सम्मादिट्टी बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अत्थि ॥ ३६ ॥
क्यारहित जीव अबन्धक हैं ॥ ३२ ॥
शंका- 'सिद्ध अबन्धक हैं ' ऐसा पृथक् निर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान- नहीं किया, क्योंकि लेश्यारहित जीवोंमें बन्धक और अबन्धक
ऐसे दो विकल्प न होनेसे कोई सन्देह उत्पन्न नहीं होता । अर्थात् ' अलेश्य अबधक हैं' इतना कहनेमात्र से ही स्पष्ट हो जाता है कि लेश्यारहित अयोगी जिन भी अबन्धक हैं और सिद्ध भी अबन्धक हैं ।
शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
भव्यमार्गणानुसार अभव्यसिद्धिक जीव बन्धक हैं, भव्यसिद्धिक जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं ॥ ३३ ॥
न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक ऐसे सिद्ध जीव अबन्धक हैं || ३४ ॥ यह सब सूत्रार्थ सुगम है ।
सम्यक्त्वमार्गणानुसार मिध्यादृष्टि बन्धक हैं, सासादन सम्यग्दृष्टि बन्धक हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं ।। ३५ ।।
क्योंकि, उक्त जीव समस्त कर्मास्रवोंसे संयुक्त होते हैं। सम्यष्टि बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥ ३६ ॥
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२, १, ४०.] बंधगसंतपस्वणाए सण्णिमग्गणा
कुदो ? सासवाणासवेसु सम्मईसणुवलंमा । सिद्धा अबंधा ॥ ३७॥ सुगममेदं । सण्णियाणुवादेण सण्णी बंधा, असण्णी बंधा ॥ ३८ ॥
णेव सण्णी णेव असण्णी बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अत्थि ॥३९॥
विणगुणोइंदियखओवसमादो केवलणाणी णो सणिणो; तत्थ इंदियोवढंभषलेणाणुप्पण्णबोधुवलंभादो णो असण्णिणो । तदो ते बंधा वि अबंधा वि, बंधाबंधकारणजोगाजोगाणमुवलंभा।
सिद्धा अबंधा ॥४०॥ सुगममेदं ।
। क्योंकि, चौथेसे तेरहवें गुणस्थान तकके आस्रव सहित और चौदहवें गुणस्थामवर्ती आस्रव रहित, ऐसे दोनों प्रकारके जीवों में सम्यग्दर्शन पाया जाता है।
सिद्ध अबन्धक हैं ॥ ३७॥ यह सूत्र सुगम है। संज्ञीमार्गणानुसार संज्ञी बन्धक हैं, असंज्ञी बन्धक हैं ॥ ३८ ॥
न संज्ञी न असंज्ञी ऐसे केवलज्ञानी जिन बन्धक भी हैं, अवन्धक भी हैं ॥ ३९॥ - जिनका नाइन्द्रिय क्षयोपशम नष्ट हो गया है ऐसे केवलज्ञानी संसी नहीं हैं। और चूंकि उनमें इन्द्रियालम्बनके बलसे अनुत्पन्न अर्थात् अतीन्द्रिय शान पाया जाता है इसलिये केवलज्ञानी असंही भी नहीं हैं । अतः न संशी न असंक्षी बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं, क्योंकि उनमें सयोगि अवस्थामें बन्धका कारण योग पाया जाता है और अयोगि अवस्थामें अबन्धका कारण अयोग पाया जाता है।
सिद्ध अबन्धक हैं ॥ ४०॥ यह सूत्र सुगम है।
१ प्रतिषु ' केवलणाणी सणिणो तत्थ णोइंदिया-' इति पाठः ।
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२४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ४१. आहाराणुवादेण आहारा बंधा ॥ ४१ ॥ अणाहारा बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अस्थि ॥ ४२ ॥ सिद्धा अबंधा ॥ ४३॥
सुगममेदं । . ... एसो बंधगसंताहियारो पुव्वमेव किमटुं परूविदो ? 'सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्त' इति न्यायात् बंधयाणमत्थित्ते सिद्धे संते पच्छा तेसिं विसेसपरूवणा जुज्जदे । तम्हा संतपरूवणं पुव्वमेव कादम्वमिदि। एवमत्थित्तेण सिद्धाणं बंधयाणमेक्कारसअणियोगद्दारेहि विसेसपरूवणमुत्तरगंथो अवइण्णो ।
( एवं बंधगसंतपरूवणा समत्ता ।।
आहारमार्गणानुसार आहारक जीव बन्धक हैं ॥ ४१ ॥ अनाहारक जीव बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥ ४२ ॥ सिद्ध अबन्धक हैं ।। ४३ ॥ ये सूत्र सुगम हैं। शंका-यह बन्धकसत्वाधिकार पूर्वमें ही क्यों प्ररूपित किया गया है ?
समाधान-'धर्मीके सद्भावमें ही धौका चिन्तन किया जाता है' इस न्यायके अनुसार बंधकोंका अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर पश्चात् उनकी विशेष प्ररूपणा करना योग्य है। इसलिये बन्धकोंकी सत्प्ररूपणा पहले ही करना चाहिये । इस प्रकार अस्तित्वसे सिद्ध हुए बन्धकोंके ग्यारह अनुयोगों द्वारा विशेष प्ररूपणार्थ भागेकी प्रन्थरचना हुई है। .
इस प्रकार बन्धकसत्प्ररूपणा समाप्त हुई।
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सामित्ताणुगमो ( एदेसिं बंधयाणं परूवणट्ठदाए तत्थ इमाणि एक्कारस अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति ॥ १॥)
अणद्धेसु' बंधएसु कधमेदेसिं बंधयाणमिदि पच्चक्खणिदेसो उववज्जदे १. ण, एस दोसो, बंधगविसयबुद्धीए पच्चक्खत्तमवेक्खिय पच्चक्खणिदेसुववत्तीदो। संताणियोगद्दारं पुव्वमपरूविय तेण सह बारसअणियोगद्दारेहि बंधगाणं किण्ण परूवणा कीरदे ? ण, बंधगत्तेण असिद्धाणं तस्सिद्धिपरूवणाए बंधगपरूवणत्ताणुववत्तीदो । तेसिमेक्कारसअणियोगद्दाराणं णामणिदेसट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
एगजीवेण सामित्तं, एगजीवेण कालो, एगजीवेण अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ, दवपरूवणाणुगमो, खेत्ताणुगमो, फोसणाणुगमो, णाणाजीवेहि कालो, णाणाजीवेहि अंतरं, भागाभागाणुगमो, अप्पाबहुगाणुगमो चेदि ॥ २ ॥
इन बन्धकोंके प्ररूपणार्थ ये ग्यारह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं ॥१॥
शंका-बन्धकोंके उपस्थित न होनेपर भी ‘इन बन्धकोंका' इस प्रकार प्रत्यक्ष निर्देश कैसे उपयुक्त ठहरता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, बन्धकविषयक बुद्धिसे प्रत्यक्षत्वकी अपेक्षा करके प्रत्यक्ष निर्देशकी उपपत्ति बन जाती है।
शंका-सत् अनुयोगद्वारको पहले ही प्ररूपित न करके उसके साथ बारह अनुयोगद्वारोसे बन्धकोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की जाती ?
समाधान नहीं, क्योंकि बन्धकभावसे असिद्ध जीवोंको बन्धक सिद्ध करनेवाली प्ररूपणाके लिये बन्धकप्ररूपणा नाम देना अनुपयुक्त ठहरता है।
उन ग्यारह अनुयोगद्वारोंके नामनिर्देशके लिये आचार्य अगला सूत्र कहते हैं
एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, द्रव्यप्ररूपणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व ॥२॥
१ मप्रतौ । अणत्थे', कातौ ' अणद्वेसु' इति पाठः।'
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२६)
छक्खडागमे खुदाबंधो
[२, १, २. अंतिल्लो चसद्दो समुच्चयत्थो । इदिसदो एदेसि बंधगाणं परूवणाए एत्तियाणि चेव अणियोगद्दाराणि होति ण वड्डिमाणि त्ति अवहारणटुं कदो । एगजीवेण सामित्तं पुव्वमेव किमटुं बुच्चदे ? ण, उवरिल्लसव्वयाणिओगद्दाराणं कारणत्तेण सामित्ताणियोगद्दारस्स अवट्ठाणादो। कुदो ? चोदसमग्गणट्ठाणं ओदइयादिपंचसु भावेसु को भावो कस्स मग्गणट्ठाणस्स सामिओ णिमित्तं होदि ण होदि ति सामित्ताणिओगद्दारं परूवेदि, पुणो तेण भावेण उवलक्खियमग्गणाए बंधएसु सेसाणिओगद्दारपवुत्तीदो । सेसाणिओगद्दारेसु कालो चे किमट्ठ पुव्वं परूविज्जदि ? ण, कालपरूवणाए विणा अंतरपरूवणाणुववत्तीदो। पुणो अंतरमेव वत्तव्यं, एगजीवसंबंधिणो अण्णस्स अणिओगहारस्साभावा । णाणाजीवसंबंधिएसु सेसाणिओगद्दारेसु पढमं णाणाजीवेहि भंगविचओ किमढे वुच्चदे ? ण, एदस्स मग्गणट्ठाणपवाहस्स विसेसो अणादिअपज्जवसिदो, एदस्स
सूत्रके अन्तमें आया हुआ 'च' शब्द समुच्चयार्थक है; और 'इन बन्धकोंकी प्ररूपणामें इतनेमात्र ही अनुयोगद्वार हैं, इनसे अधिक नहीं' ऐसा निश्चय करानेके लिये 'इति' शब्द का प्रयोग किया गया है।
शंका-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका कथन सबसे पूर्वमें ही क्यों किया जाता है ?
समाधान-क्योंकि, यह स्वामित्वसम्बन्धी अनुयोगद्वार आगेके समस्त अनुयोगद्वारोंके कारण रूपसे अवस्थित है । इसका कारण यह है कि चौदह मार्गणास्थान औदयिकादि पांच भावों से किस भाव रूप हैं, किस मार्गणास्थानका स्वामी निमित्त होता है या नहीं होता, यह सब स्वामित्वानुयोगद्वार प्ररूपित करता है, और फिर उसी भावसे उपलक्षित मार्गणासहित बन्धकोंमें शेष अनुयोगद्वारोंकी प्रवृत्ति होती है।
शंका-शेष अनुयोगद्वारों में काल ही पहले क्यों प्ररूपित किया जाता है ?
समाधान-क्योंकि, कालकी प्ररूपणाके विना अन्तरप्ररूपणाकी उपपत्ति नहीं बैठती।
कालप्ररूपणाके पश्चात् अन्तर ही कहा जाना चाहिये, क्योंकि, एक जीवसे सम्बन्ध रखनेवाला अन्य कोई अनुयोगद्वार है ही नहीं ।
शंका-नाना जीव सम्बन्धी शेष अनुयोगद्वारों में पहले नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय ही क्यों कहा जाता है ?
समाधान-क्योंकि, इस मार्गणास्थानके प्रवाहका विशेष (भेद) अनादि-अनन्त
..१ आ-कप्रत्योः उवरिल्लसव्वथा' इति पाठः।
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२, १, २. 1
सामित्तानुगमे अणियोगद्दारक्कमणिद्देसो
[ २७
सादिसपज्जवसिदो त्ति सामण्णेण अवगदे सेसाणिओगद्दाराणं पदणसंभवादो | दव्त्रपमाणे अणवगदे' खेत्तादिअंणियोगद्दाराणमधिगमोवाओ णत्थि त्ति दव्वाणिओगद्दारस्स पुव्वणिवेसो कदो । वट्टमाणपास परूवणाए विणा अदीद- वट्टमाणफासपरूवय फोसणाणिओगद्दाराधिगमोवाओ णत्थि त्ति खेत्ताणिओगद्दारस्स पुत्रं णिवेसो कदो | मग्गणाणमच्छिदखेत्ते अगदे तेसिं दव्वसंखाए च अवगदाए पच्छा तीदकालफासपरूवणा णायागदेति णिवेसिदा । मग्गणकाले अणवगदे तेसिमंतरादिपरूवणा ण घडदि ति पुव्वं कालाणिओगद्दारं परूविदं । कालजोणि अंतरमिदि कड्ड अंतरं तदणंतरे परूविदं । पुरा वुच्चमाणअप्पाबहुअस्स साहणो इदि भागाभागो परुविदो । एदेसिं पच्छा अप्पाबहुगागमो परुविदो, सव्वाणिओगद्दारेसु पडिबद्धत्तादो |
णाणाजीवेहि काल-भंगविचयाणं को विसेसो ? ण णाणाजीवेहि भंगविचयस्स
है, इसका सादि- सान्त है, ऐसा सामान्यरूपसे जान लेनेपर ही शेष अनुयोगद्वारोंका अवतार संभव हो सकता है । द्रव्यप्रमाणके जाने बिना क्षेत्रादि अनुयोगद्वारोंके जाननेका उपाय नहीं, इसलिये द्रव्यानुयोगद्वारका उनसे पहले स्थापन किया गया है । फिर उनमें भी वर्तमान स्पर्शन प्ररूपणाके बिना अतीत और वर्तमान स्पर्शन के प्ररूपक स्पर्शनानुयोगद्वारके जानने का उपाय नहीं, इसलिये क्षेत्रानुयोगद्वारका पहले निवेश किया । मार्गणाओंसम्बन्धी निवासक्षेत्रको जान लेने पर और उनके द्रव्यप्रमाणका भी ज्ञान हो जाने पर पश्चात् अतीतकालसम्बन्धी स्पर्शनप्ररूपणा न्यायागत है, इसलिये स्पर्शनप्ररूपणा रखी गई । मार्गणासम्बन्धी कालका जब तक ज्ञान न हो जाय तब तक उनकी अन्तरप्ररूपणा नहीं बनती, अतः उससे पूर्व कालानुयोगद्वारका प्ररूपण किया । कालसे ही उत्पन्न अन्तर है, ऐसा जानकर कालके अनन्तर अन्तरानुयोगद्वार प्ररूपित किया। आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वका साधन होने से पहले भागाभाग प्ररूपित किया । और इन सबके पश्चात् अल्पबहुत्वानुगम प्ररूपित किया, क्योंकि वह पूर्ववर्ती सभी अनुयोगद्वारोंसे सम्बद्ध है ।
शंका- नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय इन दोनों में क्या भेद है ?
समाधान - नहीं, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय नामक अनुयोगद्वार मार्गणा
१ प्रतिषु ' दव्वपमाणे ण अवगदे ' इति पाठः ।
२ कतौ ' णिव्वेसो ' इति पाठः ।
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२८ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, १, ३.
मग्गणाणं विच्छेदाविच्छेदत्थित्तपरूवयस्स मग्गणकालंतरेहि सह एयत्तविरोहादो । एयजीवेण सामित्तं ॥ ३॥
जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति णायाणुसरणट्टमेगजीवेण सामित्तं भणिस्सामो इदि वृत्तं ।
गदियानुवादेण णिरयगदीए रईओ णाम कथं भवदि ? ॥४॥
एदं पुच्छात्तं किष्णिवंधणं' ? णयसमूहणिबंधणं । जदि एक्को चेत्र णयो हो तो संदेहो विण उप्पजेज्ज । किंतु गया बहुआ अस्थि । तेण संदेहो समुप्पादे कस्स णयस्स विसयमस्सिदूण ट्ठिदणेरईओ एत्थ पडिग्गहिदो त्ति । णयाणमभिप्पाओ एत्थ उच्चदे । तं जहाI
-
कंपि णरं दहूण य पावजणसमागमं करेमाणं । गमण भण्णइ रइओ एस पुरिसोति ॥ १ ॥
ओके विच्छेद और अविच्छेद के अस्तित्वका प्ररूपक है, अतः उसका मार्गणाओंके काल और अन्तर बतलाने वाले अनुयोगद्वारोंके साथ एकत्व माननेमें विरोध आता है । एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है ॥ ३ ॥
'जैसा उद्देश, तैसा निर्देश ' इस न्यायके अनुसरणार्थ एक जीवकी अपेक्षा earerant वर्णन करते हैं, ऐसा प्रस्तुत सूत्रमें कहा गया है ।
गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकी जीव किस प्रकार होता है १ ॥ ४ ॥ शंका- यह प्रश्नात्मक सूत्र किस आधारसे रचा गया है ?
समाधान - यह प्रश्नात्मक सूत्र नयसमूहके आधारसे रचा गया है । यदि एक ही नय होता तो कोई सन्देह भी उत्पन्न न होता । किन्तु नय अनेक हैं इसलिये सन्देह उत्पन्न होता है कि किस नयके विषयका आश्रय लेकर स्थित नारकी जीवका यहां ग्रहण किया गया है | यहांपर नौका अभिप्राय बतलाते हैं। वह इस प्रकार है
किसी मनुष्य को पापी लोगोंका समागम करते हुए देखकर नैगम नयसे कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है ॥ १ ॥
( जब वह मनुष्य प्राणिबध करनेका विचार कर सामग्रीका संग्रह करता है तब वह संग्रह मयसे नारकी कहा जाता है | )
१ प्रतिषु ' किष्णबंधणं ' इति पाठः ।
२ प्रति ' चेव ण होज्ज ' इति पाठः ।
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२, १, १.] सामित्ताणुगमे णय-णिक्खेवादिपरूवणं
'ववहारस्स दु वयणं जइया कोदंड-कंडगयहत्थो । भमइ मए मग्गंतो तइया सो होइ णेरइओ ॥ २ ॥ उज्जुसुदस्स दु वयणं जइआ इर ठाइदूण ठाणम्मि । आहणदि मए पावो तइया सो होइ णेरइओ ॥ ३ ॥ सद्दणयस्स दु वयणं जइया पाणेहि मोइदो जंतू । तइया सो णेरइयो हिंसाकम्मेण संजुत्तो ॥ ४ ॥ वयणं तु समभिरूढं णारयकम्मस्स बंधगो जइया । तइया सो णेरइओ णारयकम्मेण संजुत्तो ॥५॥ णिरयगई संपत्तो जइया अणुहवइ णारयं दुक्खं ।
तइया सोणेरइओ एवंभूदो णओ भणदि ॥६॥ एदं सव्वणयविसयं णेरइयसमूहं बुद्धीए काऊण णेरइओ णाम कधं होदि सि पुच्छा कदा।
अधवा णाम-द्ववण-दव्य-भावभेएण णेरइया चउबिहा होति । णामणेरइयो णाम णेरइयसहो । सो एसो ति बुद्धीए अप्पिदस्स अणप्पिदेण' एयत्तं काऊण
व्यवहार नयका वचन इस प्रकार है-जब कोई मनुष्य हाथमें धनुष और बाण लिये मगोंकी खोजमें भटकता फिरता है तब वह नारकी कहलाता है॥२॥
__ ऋजुसूत्र नयका वचन इस प्रकार है-जब आखेटस्थानपर बैठकर पापी मृगोंपर आघात करता है तब वह नारकी कहलाता है ।। ३॥
शब्द नयका वचन इस प्रकार है- जब जन्तु प्राणोंसे विमुक्त कर दिया जाय तभी वह आघात करनेवाला हिंसाकर्मसे संयुक्त मनुष्य नारकी कहा जाय ॥४॥
__ समभिरूढ नयका वचन इस प्रकार है- जब मनुष्य नारक कर्मका बन्धक होकर नारक कर्मसे संयुक्त हो जाय तभी वह नारकी कहा जाय ॥ ५॥
जब वही मनुष्य नरक गतिको पहुंचकर नरकके दुःख अनुभव करने लगता है तभी वह नारकी है, ऐसा एवंभूत नय कहता है ॥६॥
इन समस्त नोंके विषयभूत नारकीसमूहका विचार करके ही 'नारकी जीव किस प्रकार होता है' यह प्रश्न किया गया है।
अथवा, नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे नारकी चार प्रकारके होते हैं। नाम-मारकी 'नारकी' शब्दको ही कहते हैं। यह घही है ' ऐसा बुद्धिसे विवक्षित नारकीका अविवक्षित वस्तुके साथ
१ अतः प्राक् संग्रहन यसम्बन्धिनी गाथा स्खलिता प्रतिभाति । २ प्रतिषु ' बुद्धीए अप्पिदस्स ', मप्रतौ 'बुद्धीए अप्पिदस्स अप्पिदेण ' इति पाठः ।
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३०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ५. सम्भावासम्भावसरूवेण ठविदं ठवणणेरइओ। णेरइयपाहडजाणओ अणुवजुत्तो आगमः दव्वणेरइओ । अणागमदव्वणेरइओ तिविहो जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तभेएण । जाणुगसरीर-भवियं गदं । तव्वदिरित्तणोआगमदवणेरइओ णाम दुविहो कम्म-णोकम्मभेएण । कम्मणेरइओ णाम णिरयगदिसहगदकम्मदव्वसमूहो । पास-पंजर-जंतादीणि णोकम्मदव्वाणि णेरइयभावकारणाणि णोकम्मदव्वणेरइओ णाम । गेरइयपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगम भावणेरइओ णाम । णिरयगदिणामाए उदएण णिरयभावमुवगदो णोआगमभावणेरइओ णाम । एदं गेरइयसमूहं बुद्धीए काऊण णेरइओ णाम कधं होदि त्ति पुच्छा कदा ।
अधवा गैरइओ णाम किमोदइएण भावेण, किमुवसमिएण, किं खइएण, किं खओवसमिएण, किं पारिणामिएण भावेण होदि त्ति बुद्धीए काऊण गेरइओ णाम कधं होदि त्ति वुत्तं ।
एदस्स संदेहस्स णिराकरणटुं उत्तरसुत्तं भणदि...णिरयगदिणामाए उदएण ॥५॥
................
एकत्व करके सद्भाव और असद्भाव स्वरूपसे स्थापित स्थापना नारकी कहलाता है। नारकीसम्बन्धी प्राभृतका जाननेवाला किन्तु उसमें अनुपयुक्त जीव आगम द्रव्य नारकी है। शायक शरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे अनागम द्रव्य नारकी तीन प्रकारका है। शायकशरीर और भव्य तो गया। कर्म और नोकर्मके भेदसे तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य नारकी दो प्रकारका है। नरकगतिके साथ आये हुए कर्मद्रव्यसमूहको कर्मनारकी कहते हैं। पाश, पंजर, यंत्र आदि नोकर्मद्रव्य जो नारक भावकी उत्पत्तिमें कारणभूत होते हैं, नोकर्म द्रव्य नारकी हैं। नारकियों सम्बन्धी
भूतका जानकार और उसमें उपयोग रखनेवाला जीव आगम भाव नारकी है। नरक गति नामप्रकृतिके उदयसे नरकावस्थाको प्राप्त हुआ जीव नोआगम भाव नारकी है । इस नारकीसमूहका विचार करके 'नारकी जीव किस प्रकार होता है। यह प्रश्न किया गया है।
अथवा, 'क्या नारकी औदयिक भावसे होता है, क्या औपशमिक भावसे, क्या क्षायिक भावसे, क्या क्षायोपशमिक भावसे, क्या परिणामिक भावसे होता है ?" ऐसा बुद्धिसे विचार कर ' नारकी जीव किस प्रकार होता है ? ' यह पूछा गया है।
इस सन्देहको दूर करनेके लिये आचार्य अगला सूत्र कहते हैंनरकगति नामप्रकृतिके उदयसे जीव नारकी होता है ॥५॥
१ प्रतिषु — पास-पंजरवंतादीणि ' इति पाठः ।
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[ ३१
२, १, ९.]
सामित्ताणुगमे गदिमग्गणा एवंभूदणयविसएण' णोआगमभावणिक्खेवेण णिरयगदिणामाए उदएण णेरइओ णाम भवदि।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खो णाम कधं भवदि ? ॥६॥
एत्थ वि गए णिक्खेवे ओदइयादिपंचविहभावे च अस्सिद्ग पुव्वं व संदेहस्सुप्पत्ती परूवेदव्या।
तिरिक्खगदिणामाए उदएण ॥७॥
तिरिक्खगदिणामकम्मोदएणुप्पण्णपज्जायपरिणदम्मि जीवे तिरिक्खाभिहाणववहार-पच्चयाणमुवलंभादो।
मणुसगदीए मणुसो णाम कधं भवदि ? ॥ ८॥ एत्थ वि पुत्वं व णय-णिक्खेवादीहि संदेहुप्पत्ती परूवेदव्वा । मणुसगदिणामाए उदएण ॥ ९ ॥ कुदो ? मणुसगदिणामकम्मोदयजणिदपज्जायपरिणयजीवम्मि मणुस्साहिहार्णवव
एवंभूतनयके विषयसे, नोआगमभावनिक्षेपसे एवं नरकगति नामप्रकृतिके उदयसे जीव नारकी होता है।
तिर्यंचगतिमें जीव तिर्यंच किस प्रकार होता है ? ॥६॥
यहां भी नय, निक्षेप और औदयिकादि पांच प्रकारके भावोंके आश्रयसे पूर्वोक्तानुसार संदेहकी उत्पत्तिका प्ररूपण करना चाहिये ।
तिर्यंचगति नामप्रकृतिके उदयसे जीव तिर्यंच होता है ॥७॥
क्योंकि, तिर्यंचगति नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई पर्यायमें परिणत जीवके तिर्यंच संक्षाका व्यवहार और ज्ञान पाया जाता है।
मनुष्यगतिमें जीव मनुष्य कैसे होता है ? ॥ ८॥ ___ यहां भी पूर्वानुसार नय-निक्षेपादिसे सन्देहकी उत्पत्तिका प्ररूपण करना चाहिये।
मनुष्यगति नामप्रकृतिके उदयसे जीव मनुष्य होता है ॥९॥ क्योंकि, मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई पर्यायमें परिणत जीवके
१ प्रतिषु ' एवंभूदणयविसएण ओदइएण ' इति पाठः। २ आ-कप्रत्योः ‘मणुस्साहियाण-' इति पाठः ।
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३२ ]
हार - पच्चयाणमुवलंभा ।
छक्खंडागमे खुदाबंधो
देवगदीए देवो णाम कथं भवदि ? ॥ १० ॥
सुगममेदं ।
देवग दिणामाए उदएण ॥ ११ ॥
कुदो देवगदिणामकम्मोदयजणिद अणिमादिपजयपरिणदजीवम्मि देवाहिहाणववहार- पच्चयाणमुवलंभा । णिरय-तिरिक्ख - मणुस देवगदीओ जदि केवलाओ उदयमागच्छंति तो णिरयगदिउदएण णेरइओ, तिरिक्खगदिउदएण तिरिक्खो, मणुस्सगदिउदरण मणुसो, देवगदिउदएण देवो त्ति वोत्तुं जुत्तं । किं तु अण्णाओ वि पयडीओ तत्थ उदयमागच्छंति, ताहि विणा णिरय-तिरिक्ख- मणुस्स- देवगदिणामाणमुदयाणुवलंभादो । तं जहा
रयाणं पंच उदयद्वाणाणि होंति एक्कवीस-पंचवीस-सत्तावीस अठ्ठावीसएगूणती ति | २१ | २५ | २७ | २८ | २१ | तत्थ इङ्गवीसपयडिउदयद्वाणं वुच्चदे | तं जहाणिरयगदि-पंचिदियजादि - तेजा कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास- णिरयगदि
[ २, १, १०.
मनुष्य संज्ञाका व्यवहार और ज्ञान पाया जाता है ।
देवगतिमें जीव देव कैसे होता है ? ॥ १० ॥ यह सूत्र सुगम है ।
देवगति नामप्रकृतिके उदयसे जीव देव होता है ॥ ११ ॥
क्योंकि, देवगति नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई अणिमादिक पर्यायों में परिणत जीवके देव संज्ञाका व्यवहार और ज्ञान पाया जाता है।
शंका- यदि नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव, ये गतियां केवल अपनी एक एक प्रकृतिरूपसे उदयमें आती हों तो नरकगतिके उदयसे नारकी, तिर्यचगतिके उदयसे तिर्यच, मनुष्यगतिके उदयसे मनुष्य और देवगतिके उदयसे देव होता है, ऐसा कहना उचित है। किन्तु अन्य भी तो प्रकृतियां वहां उदयमें आती हैं जिनके विना नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति नामकर्मोंका उदय पाया ही नहीं जाता ? वह इस प्रकार है
नारकी जीवोंके पांच उदयस्थान हैं
इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठ्ठाईस और उनतीस प्रकृतियों सम्बन्धी २१ । २५ २७ । २८ । २९ । इनमें इक्कीस प्रकृतियोंके उदयस्थानको कहते हैं । वह इस प्रकार हैनरकगति', पंचेन्द्रियजाति', तैजस' और कार्मण शरीर", वर्ण', गन्ध', रस,
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा
[ ३३ पाओग्गाणुपुव्वि-अगुरुअलहुअ-तस-चादर-पजत्त-थिराथिर-सुभासुभ-दुभग-अणादेख-अजसगित्ति-णिमिणाणि त्ति एत्तियाओ पयडीओ घेत्तूण इगिवीसाए ठाणं होदि । एत्थ भंगो एक्को चेव | १ || एदमुदयट्ठाणं कस्स होदि ? विग्गहगदीए वट्टमाणस्स गैरइयस्स । तं केवचिरं कालं होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया।
____तत्थ इमं पणुवीसाए हाणं । एदाओ चेव पयडीओ। णवरि आणुपुबीमवणेदण वेउव्वियसरीर-हुंडसंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-उवघाद-पत्तेयसरीराणि पुव्वुत्तपयडीसु पक्खित्ते पणुवीसहं ठाणं होदि । तं कस्स ? सरीरंगहिदणेरइयस्स । तं केवचिरं
स्पर्श', नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघुक, त्रस', बादर, पर्याप्त, स्थिर"
और अस्थिर'५, शुभ और अशुभ", दुर्भग, अनादेय", अयशकीर्ति और निर्माण, इन प्रकृतियोंको लेकर इक्कीस प्रकृतियों सम्बन्धी पहला स्थान होता है । यहां भंग एक ही हुआ (१)।
शंका-यह इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किसके होता है ? __ समाधान-विग्रहगतिमें वर्तमान नारकी जीवके यह इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है।
शंका-यह उदयस्थान कितने काल तक रहता है ?
समाधान-यह उदयस्थान कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक दो समय तक रहता है।
उन नारकियोंका पच्चीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान यह है- इन्हीं उपर्युक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे नरकगतिआनुपूर्वीको छोड़कर वैक्रियिकशरीर, हुंडसंस्थान, वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, उपघात और प्रत्येकशरीर, इन पांच प्रकृतियोंको मिला देनेसे पञ्चीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है।
शंका-यह पच्चीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किसके होता है ?
समाधान—जिस नारकी जीवने शरीर ग्रहण कर लिया है उसके यह पञ्चीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है।
शंका- यह उदयस्थान कितने काल तक रहता है ?
१ णामधुवोदयबारस गइ-जाईणं च तसतिजुम्माणं । सुभगादेज्जजसाणं जुम्मेक्कं विग्गहे वाणू ॥ गो. क. ५८८.
२ विग्गहकम्मसरीरे सरीरमिस्से सरीरपज्जत्ते । आणा-बचिपज्जत्ते कमेण पंचोदये काला ॥ एक्कं व दो तिषिण व समया अंतोमुहुत्यं तिसु वि । हेट्ठिमकालूणाओ चरिमस्स य उदयकालो दु । गो. क. ५८३-५८४.
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३] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, १, ११. कालं होदि ? सरीरंगहिदपढमसमयमादि कादूण जाव सरीरपज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ ति, अंतोमुहुत्तमिदि वुत्तं होदिं। भंगा वि पुबिल्लभंगेण सह दोण्णि | २ ||
. परघादमप्पसत्थविहायगदिं च पुबिल्लपणुवीसपयडीसु पक्खित्ते सत्तावीसपयडीणमुदयट्ठाणं होदि । तं कम्हि होदि ? सरीरपजत्तीणिव्वत्तिपढमसमयमादि कादण जाव आणापाणपज्जत्तिअणिल्लेविदचरिमसमओ ति एदम्हि काले होदि । तं केवचिरं? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एत्थ भंगसमासो तिण्णि |३||
पुव्विल्लसत्तावीसपयडीसु उस्सासे पक्खित्ते अट्ठावीसपयडीणमुदयट्ठाणं होदि । तं कम्हि होदि ? आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदपढमसमयमादि कादूण जाव भासापज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ त्ति एदम्हि द्वाणे होदि । तं केवचिरं ? जहण्णुक्क
समाधान-शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समयको आदि लेकर शरीरपर्याप्ति अपूर्ण रहनेके अन्तिम समय पर्यंत अर्थात् अन्तर्मुहूर्तकाल तक यह उदयस्थान रहता है।
पूर्वोक्त एक भंगके साथ अब दो भंग हो गये (२)।
पूर्वोक्त पञ्चीस प्रकृतियोंमें परघात तथा अप्रशस्तविहायोगति मिला देनेसे सत्ताईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है।
शंका-यह सत्ताईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किस कालमें होता है ?
समाधान-शरीरपर्याप्ति पूर्ण होजानेके प्रथम समयको आदि लेकर आनप्राणपर्याप्ति अपूर्ण रहने के अन्तिम समय पर्यन्त इतने काल तक यह सत्ताईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है।
शंका-यह काल कितने प्रमाण होता है ? समाधान-जघन्यतः और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्तमात्र। यहां तकके सब भंगोंका जोड़ हुआ तीन (३)।
पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतियोंमें उच्छ्वासको मिला देनेसे अट्ठाईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है।
शंका-यह अट्ठाईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किस कालमें होता है ?
समाधान-आनप्राणपर्याप्तिके पूर्ण होजानेके प्रथम समयको आदि लेकर भाषापर्याप्ति अपूर्ण रहनेके अन्तिम समय तकके कालमें होता है ?
शंका-वह काल कितने प्रमाण है ? समाधान-जघन्य और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्तमात्र ।
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा स्सेण अंतोमुहुत्तं । एत्थ भंगसमासो चत्तारि |४||
पुविल्लअट्ठावीसपयडीसु दुस्सरे पक्खित्ते एगूणत्तीसपयडीणमुदयद्वाणं होदि । तं कम्हि ? भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पढमसमयमादि कादण जाव अप्पप्पणो आउअद्विदीए चरिमसमओ ति एदम्हि अद्धाणे होदि । तं केवचिरं ? जहण्णेण दसवस्ससहस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तूणतेत्तीससागरोवमाणि । एत्थ भंगसमासो पंच |५||
तिरिक्खगदीए एकवीस-चदुवीस-पंचवीस-छव्वीस-सत्तावीस-अट्ठावीस-एगणचीस-तीस-एक्कत्तीस त्ति णव उदयट्ठाणाणि । २१।२४ । २५।२६ ॥ २७॥ २८ ॥ २९ ३० । ३१ । संपदि सामण्णेण एइंदियाणं एक्कवीस-चउवीस-पंचवीस-छब्बीस-सत्तावीस त्ति पंच उदयट्ठाणाणि । आदावुज्जोवाणमणुदएण एइंदियस्स सत्तावीसट्टाणेण विणा चत्तारि उदयट्ठाणाणि । आदावुज्जोवाण उदएण सहिदएइंदियस्स पणुवीसट्ठाणेण विणा
यहां तकके सब भंगोंका जोड़ हुआ चार (४)।
पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियों में दुस्वरको मिला देनेसे उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है।
शंका-वह उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किस कालमें होता है?
समाधान-भाषापर्याप्ति पूर्ण करलेनेवालेके प्रथम समयको लेकर अपनी अपनी आयुस्थितिके अन्तिम समय पर्यन्त, इतने कालमें वह उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है।
शंका-वह कितने काल प्रमाण है ?
समाधान-जधन्यतः अन्तर्मुहूर्त कम दश हजार वर्ष और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपमप्रमाण होता है।
यहां तक सब भंगोंका योग हुआ पांच (५)।
तिर्यंचगतिमें इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अढाईस उनतीस, तीस और इकतीस, ये नौ उदयस्थान होते हैं । २१।२४।२५।२६।२७।२८।२९।३०।३१। • अब सामान्यतः एकेन्द्रिय जीवोंके इक्कीस, चौवीस, पच्चीस, छब्बीस और सत्ताईस,ये पांच उदयस्थान है । आताप और उद्योत इन दो प्रकृतियोंके उदयके विना एकेन्द्रिय जीवके सत्ताईस प्रकृतियोंवाले स्थानसे रहित शेष चार उदयस्थान होते हैं। आताप और उद्योतके उदय सहित एकेन्द्रिय जीवके पच्चीस प्रकृतियोंवाले स्थानसे रहित शेष चार उदयस्थान
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१६]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ११. चत्तारि उदयट्ठाणाणि होति ।
तत्थ आदावुज्जोवुदयविरहिदएइंदियस्स भण्णमाणे तिरिक्खगदी-एइंदियजादितेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवी-अगुरुगलहुअ-थावर बादर-सुहुमाणमेक्कदरं पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिरं सुभासुभं दुभगं अणादेज्ज जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणमिदि एदासिं एक्कवीसपयडीण उदओ विग्गहगदीए वड्माणस्स एइंदियस्स होदि। केवचिरं? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया। एत्थ अक्खपरावत्त काऊण मंगा उप्पाएदया। तत्थ अजसकित्तिउदएण चत्तारि भंगा । जसकित्तिउदएण एक्को चेव । कुदो ? सुहुम-अपज्जत्तेहि सह . जसकित्तीए उदयाभावा, जसगित्तीए सह सहुम-अपज्जत्ताणं उदयाभावादो वा । तेणेत्थ भंगा पंचव होंति' |५)।
पुव्विल्लएक्कवीसपयडीसु आणुपुव्वीमवणेदण ओरालियसरीर हुंडसंठाण-उवघाद पत्तेय-साधारणसरीराणमेकदरं पक्खित्ते चदुवीसपयडीणं उदयट्ठाणं होदि । तं कम्हि होदि ?
होते हैं। उनमें आताप और उद्योतसे रहित एकेन्द्रिय जीवके उद्यस्थान कहते हैं
तिर्यंचगति', एकेन्द्रियजाति', तैजस और कार्मण शरीर', वर्ण', गंध', रस स्पर्श', तियंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघुक", स्थावर", बादर और सूक्ष्म इन दोमेसे कोई एक, पर्याप्त और अपर्याप्तमेंसे एक३, स्थिर" और अस्थिर", शुभ६ और अशुभ, दुर्भग", अनादेय, यशकीर्ति और अयशकीर्तिमेसे एक और निर्माण', इन इक्कीस प्रकृतियोंका उदय विग्रहगतिमें वर्तमान एकेन्द्रिय जीवके होता है।
शंका-यह इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान कितने काल तक रहता है ? समाधान-जघन्यतः एक समय और उत्कर्षतः तीन समय यह उदयस्थान
रहता है।
यहां अक्षपरावर्तन करके भंग निकालना चाहिये । उनमें अयशकीर्तिके उदयसहित (बादर-सूक्ष्म और पर्याप्त-अपर्याप्तके विकल्पसे)चार भंग होते हैं । यशकीर्तिके उदयसहित एक ही भंग होता है, क्योंकि, सूक्ष्म और अपर्याप्तके साथ यशकीर्तिके उदयका अभाव है, अथवा यों कहो कि यशकीर्ति के साथ सुक्ष्म और अपर्याप्त प्रकृतियोंका उदय नहीं होता । इस प्रकार यहां भंग पांच होते हैं (५)।
पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे आनुपूर्वी को छोड़कर औदारिकशरीर, हुंडसंस्थान, उपघात, तथा प्रत्येक और साधारण शरीरोंमेंसे कोई एक, इन चारको मिला देनेपर चौवीस प्रकृतियोंघाला उदयस्थान हो जाता है।
शंका-यह चौवील प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किस कालमें होता है ?
१ तत्थासत्था णारय-साहारण-सुहुमगे अपुष्णे य । सेसेग-विगलऽसपणी जुदठाणे जस जुगे भंगा॥गो.क. ६...
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपर्वणी
[३७ गहिदसरीरपढमसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ त्ति एदम्हि हाणे । केवचिरं ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एत्थ अजसगित्तीए उदएण अट्ट मंगा। जसकित्तीए उदएण एक्को चेव । कुदो ? जसकित्तीए सह सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं उदयाभावा । तेण सयभंगसमासो णव | ९ ।।
पुणो अपज्जत्तमवणिय सेसचउवीसपयडीसु परघादे पक्खित्ते पंचवीसपयडीणमुदयट्ठाणं होदि । एत्थ भंगा अजसकित्तीउदएण चत्तारि । कुदो ? अपज्जत्तउदयस्स अभावादो । जसकित्तिउदएण एकको चेव । तेण भंगसमासो पंच |५|| तं कम्हि ? सरीरपज्जत्तयदपढमसमयमादि कादूग जाव आणापाणपज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ त्ति एदम्हि हाणे । तं केवचिरं ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
समाधान-शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समयसे लेकर शरीरपर्याप्ति अपूर्ण रहनेके अन्तिम समय तकके कालमें यह उदयस्थान होता है।
शंका-इस उदयस्थानका काल कितने प्रमाण है ? समाधान-जघन्य और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ।
यहां अयशकीर्ति के उदयसहित ( बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त अपर्याप्त और प्रत्येक साधारणके विकल्पसे) आठ भंग होते हैं । यशकीर्तिके उदयसहित एक ही भंग है, क्योंकि, यशकीर्ति के साथ सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इन प्रकृतियोंका उदय नहीं होता । इस प्रकार सब भंगोंका योग नौ हुआ (९)।
__ पूर्वोक्त उदयस्थानकी प्रकृतियों से अपर्याप्तको छोड़कर शेष चौवीस प्रकृतियोंमें परघातको मिला देने पर पच्चीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है । यहांपर भंग अयशकीर्तिके उदयके साथ (बादर-सूक्ष्म, और प्रत्येक-साधारणके विकल्पसे) चार होते हैं, क्योंकि, यहांपर अपर्याप्तका उदय नहीं होता । यशकीर्तिके उदयसहित पूर्ववत् भंग एक ही होता है । इससे यहां भंगोंका योग हुआ पांच (५)।
शंका- यह पच्चीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किस कालमें होता है ?
समाधान-शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेके प्रथम समयको आदि लेकर आनप्राणपर्याप्ति अपूर्ण रहनेके अन्तिम समय तकके कालमें यह उदयस्थान होता है।
शंका-यह उदयस्थान कितने काल तक रहता है। समाधान--जघन्य और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण इस उदयस्थानका काल है।
१ मिस्सम्मि तिअंगाणं संठाणाणं च एगदरगं तु । पत्तेय दुगाणेवको उवधादोहोदि उदयगदो॥ गो. क. ५८९.
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३८ ]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ११. तस्सेव आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पुबिल्लपंचवीसपयडीसु उस्सासे पक्खित्ते छब्बीसपयडीणमुदयट्ठाणं होदि । तं कस्स ? आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स । केवचिरं ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तूगवावीसवस्ससहस्साणि । एत्थ भंगा पुत्वं व पंचेव होति | ५||
___ आदावुज्जोवुदयसहिदएइंदियस्स वुच्चदे- एक्कवीस-चदुवीसपयडिउदयट्ठाणाणं पुव्वं व परूवणा कादया । णवरि दोहं पि उदयट्ठाणाणं जसकित्ति-अजसकित्सिउदएण दोणि दोणि चेव भंगा ति । कुदो ? आदावुज्जोवुदयभावीणं सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणं उदयाभावा । पुणो एदे पुव्वुत्तएक्कवीसचउवीसपयडि उदयद्वाणाणं भंगेसु लद्धा त्ति अवणेदव्या । पुणो सरीरपज्जतीए पज्जत्तयदस्स परघादे आदावुज्जोवाणामेक्कदरं च पुघिल्लचदुवीसपयडीसु पक्खित्ते पणुवीस
उसी आनप्राणपर्याप्तिसे पूर्ण हुए जीवके पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियों में उच्छ्वास मिला देनेपर छब्बीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है।
शंका-- यह छव्वीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किसके होता है ?
समाधान--आनप्राणपर्याप्तिसे पूर्ण हुए एकेन्द्रिय जीवके यह छठवीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है ।
शंका-यह उदयस्थान कितने काल तक रहता है ?
समाधान-जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्तसे हीन वाईस हजार वर्ष तक यह उदयस्थान रहता है।
यहां भंग पूर्ववत् पांच ही होते हैं (५)।
अब आताप और उद्योत नामकर्म प्रकृतियों के साथ होनेवाले एकेन्द्रियके उदयस्थानोंको कहते हैं-- इनमें इक्कीस और चौवीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानोंकी पूर्ववत् प्ररूपणा करना चाहिये। विशेषता केवल इतनी है कि उक्त दोनों उदयस्थानोंके यशकीर्ति और अयशकीर्ति प्रकृतियोंके उदय सहित केवल दो दो ही भंग होते हैं, क्योंकि, जिन जीवोंके आताप और उद्योतका उदय होनेवाला है उनके सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर, इन प्रकृतियोंका उदय नहीं होता। किन्तु ये दो दो भंग पूर्वोक्त इक्कीस व चौवीस प्रकृतिसम्बन्धी उदयस्थानों में पाये जाते हैं, अतः उन्हें निकाल देना चाहिये।
पुनः शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके परघात तथा आताप और उद्योत इन दोनों से कोई एक, इस प्रकार दो प्रकृतियोंको पूर्वोक्त चौवीस प्रकृतियों में मिला देनेसे
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा
[ ३९ पयडिट्ठाणमुल्लंघिय छब्बीसपयडिट्ठाणमुप्पज्जदि । एदं कस्स १ सरीरपज्जत्तीए पजत्तयदस्स। केवचिरं? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एत्थ भंगा चत्तारि हवंति । एदे चत्तारि भंगे पढमछव्वीसभंगेसु पक्खित्ते णव भंगा होति । तस्सेव आणापाणपजसीए पजत्तयदस्स छब्बीसपयडीसु उस्सासे पक्खित्ते सत्तावीसपयडीणं उदयट्ठाणं होदि । एत्थ भंगा चत्तारि चेव । सव्वेइंदियाणं सबभंगसमासो बत्तीस | ३२||
पच्चीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानका उल्लंघनकर छब्बीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान उत्पन्न होता है।
शंका-यह छव्वीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किसके होता है ? समाधान–शरीरपर्याप्तिसे पूर्ण हुए एकेन्द्रिय जीवके होता है। शंका-इस छव्वीस प्रकृतियोंवाले उद्यस्थानका समय कितना है ? समाधान--जघन्य और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त ।
यहां (यशकीर्ति-अयशकीर्ति तथा आताप-उद्योतके विकल्पसे) भंग चार हैं । इन चार भंगोंको पूर्वोक्त छव्वीस भंगोंवाले उदयस्थानसम्बन्धी पांच भंगोंमें मिला देनेसे नौ भंग हो जाते हैं।
आनप्राणपर्याप्तिसे पूर्ण हुए उसी एकेन्द्रिय जीवके उक्त छव्वीस प्रकृतियोंमें उच्छ्वासको मिलादेनेपर सत्ताईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है । यहां (यशकीर्ति-अयशकीर्ति और आताप-उद्योतके विकल्पसे ) भंग चार हैं।
समस्त एकेन्द्रियोंके सब उदयस्थानसम्बन्धी विकल्पोंका योग होता है बत्तीस (३२)।
आताप-उद्योत रहित २१ प्र. स्थान- ५
" " २४
आताप-उद्योत सहित
-- २।
ये पूर्वोक्त भंगोंमें आ चुके हैं इसलिये इन्हें नहीं जोड़ा।
"
,
२४
,
, २७
३२
विशेषार्थ-गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ५८८ आदि गाथाओंमें जो उदयस्थान बतलाये गये हैं उनमें २१ और २४ प्रकृतिसम्बन्धी उदयस्थानोंमें आताप-उद्योत प्रकृतियों के उदयका कहीं उल्लेख या संकेत नहीं किया गया। विग्रहगतिमें व अपर्याप्त अवस्थामें इन
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४०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ११. विगलिंदियाणं सामण्णेण एकवीस छब्बीस अट्ठावीस-एऊणत्तीस-तीस-एकत्तीस त्ति छ उदयट्ठाणाणि । २१।२६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । उज्जोवुदयविरहिदविगलिंदियस्स पंच खुदयट्ठाणाणि होति, एक्कत्तीसुदयट्ठाणाभावा । वुजोवुदयसंजुत्तविगलिंदियस्स वि पंचेवुदयट्ठाणाणि, परघादुज्जीव-अप्पसत्थविहायगदीणमक्कमप्पवेसेण अट्ठावीसट्ठाणाणुप्पत्तीदो।
उज्जोवुदयविरहिदबेइंदियस्स ताव उच्चदे- तत्थ इमं इगिवीसाए हाणं, तिरिक्खगदि-बेइंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुब्धिअगुरुअलहुअ-तस-चादर पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिर-सुभासुभ-दुभग-अणादेज्ज जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं च, एदासिमेक्कवीसपयडीणमेकं ठाणं । तं कस्स ?
प्रकृतियोंका उदय भी संभव नहीं प्रतीत होता। धवलाकारने स्वयं पृष्ठ ३८ पर इन दोनों प्रकृतियोंके साथ अपर्याप्त प्रकृतिके उदयका अभाव बतलाया है। अतएव यहां पर ऐसा अर्थ लेना चाहिये कि जिन एकेन्द्रिय जीवोंके आगे चलकर शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो जाने पर आताप या उद्योत प्रकृतिका उदय होनेवाला है, उनके सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंका उदय नहीं होगा अतएव तत्सम्बन्धी भंग भी उनके नहीं होंगे। केवल यशकीर्ति और अयशकीर्तिके विकल्पसे दो दो ही भंग होंगे।
विकलेन्द्रिय जीवोंके सामान्यतः इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतियोंके सम्बन्धसे छह उदयस्थान हैं । २१ ।२६।२८।२९ । ३० । ३१ उद्योतके उदयसे रहित विकलेन्द्रिय जीवके पांच उदयस्थान होते हैं, क्योंकि, उसके इकतीस प्रकतियोंवाला उदयस्थान नहीं होता । उद्योतके उदय सहित विकलेन्द्रियके भी पांच ही उदयस्थान होते हैं, क्योंकि, उसके परघात, उद्योत और अप्रशस्तविहायोगति, इन तीन प्रकृतियोंका एक साथ प्रवेश होनेके कारण अट्ठाईस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानकी उपपत्ति नहीं बनती।
अब पहले उद्योतोदयसे रहित द्वीन्द्रिय जीवके उदयस्थान कहते हैं। उनमें यह इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान है-तिर्यंचगति', द्वीन्द्रियजाति', तैजस और कार्मण शरीर', वर्ण', गंध, रस, स्पर्श', तिर्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघु, प्रस" बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तमेंसे कोई एक, स्थिर", अस्थिर", शुभ, अशुभ", दुर्भग', अनादेय", यशकीर्ति और अयशकीर्तिमेंसे कोई एक और निर्माण', इन इक्कीस प्रकृतियोका एक उदयस्थान होता है।
शंका-यह इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किस जीवके होता है ?
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा
[११ बेइंदियस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स । तं केवचिरं ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया। जसगित्तिउदएण एक्को भंगो। कुदो? अपज्जत्तोदएण सह जसकित्तीए उदयाभावा । अजसगित्तिउदएण बे भंगा । कुदो ? पज्जत्तापज्जत्ताणमुदएहि सह अजसगित्तिउदयस्स संभवुवलंभा । एत्थ सव्वभंगसमासो तिण्णि | ३ ।।
____एदासु एक्कवीसपयडीसु आणुपुबिमवणेदूण गहिदसरीरपढमसमए ओरालियसरीर-इंडसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसंघडण-उवघाद-पत्तेयसरीरेसु पक्खित्तेसु छब्बीसाए द्वाणं होदि । एत्थ भंगसमामो तिण्णि ।३।। सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पुव्वुत्तपयडीसु अपज्जत्तमवणिय परघादअप्पसत्थविहायगदी पक्खिसासु अट्ठावीसाए हाणं होदि । एत्थ जसकित्तिउदएण एक्को भंगो, अजसकित्तिउदएण वि एक्को चेव । कुदो ? पडिवक्खपयडीणमभावादो। एत्थ सव्वभंगा दो चेव | २।।
आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पुव्वुत्तपयडीसु उस्सासे पक्खित्ते एगुण
समाधान-यह उदयस्थान उस जीवके होता है जो द्वीन्द्रिय है और विग्रहगतिमें वर्तमान है।
शंका-यह उदयस्थान कितने काल तक रहता है ? समाधान-कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक दो समय।
यशकीर्तिके उदयके साथ एक ही भंग होता है, क्योंकि, अपर्याप्तोदयके साथ यशकीर्तिका उदय नहीं होता । अयशकीर्तिके उदय सहित दो भंग होते हैं, क्योंकि, पर्याप्त और अपर्याप्तके उदयके साथ अयशकीर्तिका उदय होना संभव है। इस प्रकार यहां सब भंगोंका योग हुआ तीन (३)।
__ इन इक्कीस प्रकृतियोंमेसे आनुपूर्वीको छोड़कर शरीरग्रहण करनेके प्रथम समयमें औदारिकशरीर, हुंडसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर, इन छह प्रकृतियोंको मिला देनेसे छव्वीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है । यहां भंगोंका योग (पूर्वोक्तानुसार ही) होता है तीन (३)।
शरीरपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले द्वीन्द्रिय जीवके पूर्वोक्त छन्वीस प्रकृतियोंमेंसे अपर्याप्तको निकालकर परघात और अप्रशस्तविहायोगति मिलादेनेसे अट्ठाईस प्रकृतियों
थान हो जाता है। यहां यशकीर्तिके उदय सहित एक ही भंग है। और अयशकीर्तिके उदय सहित भी एक ही भंग है, क्योंकि, यहां भी प्रतिपक्षी प्रकृतियोंका भभाव है। यहां सब भंग हैं केवल दो (२)।
आनप्राणपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले द्वीन्द्रिय जीवके पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियोंमें
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४२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ११. तीसाए हाणं भवदि । एत्थ वि भंगा दो चेव |२।। भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पुव्वुत्तपयडीसु दुस्सरे पक्खित्ते तीसाए हाणं होदि । एत्थ भंगा दो चेव | २ ||
___ संपदि उज्जोवुदयसंजुत्तबेइंदियस्स भण्णमाणे एक्कवीस-छब्बीसाओ जधा पुव्वं वुत्ताओ तधा वत्तव्यं । पुणो छब्बीसाए उवरि परघादुज्जोव-अप्पसत्थविहायगदीसु पक्खित्तासु एगुणतीसाए द्वाणं होदि । जसकित्तिउदएण एक्को भंगो, अजसकित्तिउदएण एक्को । एत्थ भंगसमासो दोण्णि | २ ।। पुणो एदेसु दोसु पढमेगूणत्तीसभंगेसु पक्खित्तेसु चत्तारि भंगा होति । आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे पक्खित्ते तीसाए हाणं होदि । एत्थ वि भंगा दो चेव । एदेसु पढमतीसभंगेसु पक्खित्तेसु चत्तारि भंगा होति । भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स दुस्सरे पक्खित्ते एक्कतीसाए द्वाणं होदि । एत्थ भंगा दोणि । सब्वभंगसमासो अट्ठारस । तिण्हं विगलिंदियाणं भंग
उच्छ्वास मिला देनेसे उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है। यहां भी भग दो ही हैं (२)।
भाषापर्याप्तिको पूर्ण करलेनेवाले द्वीन्द्रिय जीवके पूर्वोक्त उनतीस प्रकृतियोंमें दुस्वर मिला देनेसे तीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है। यहां भी भंग दो ही हैं (२)।
अब उद्योतके उदय सहित द्वीन्द्रिय जीवके उदयस्थान कहे जाते हैं-- इनके इक्कीस और छव्वीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थान तो जैसे ऊपर कह आये हैं उसी प्रकार कहना चाहिये। फिर छव्वीसके ऊपर परघात. उद्योत और अप्रशस्तविहायोगति, इन तीनको मिला देनेपर उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है । यशकीर्तिके उदय सहित एक भंग होता है और अयशकीर्तिके उदय सहित एक । इस प्रकार यहां भंगोंका योग हुआ दो (२)। फिर इन दो भंगों में पूर्वोक्त उनतीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थान सम्बन्धी दो भंगोंको मिला देनेसे भंग हो जाते हैं चार (४)।
आनप्राणपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले द्वीन्द्रिय जीवके पूर्वोक्त उनतीस प्रकृतियोंमें उच्छ्वास और मिला देनेपर तीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है । यहां भी भंग दो ही हैं (२)। इनमें प्रथम तीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थान सम्बन्धी दो भंग मिला देनेसे चार भंग हो जाते हैं (४)।
__भाषापर्याप्तिको पूर्ण करलेनवाले द्वीन्द्रिय जीवके पूर्वोक्त तीस प्रकृतियोंमें दुस्वर मिला देनेसे इकतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है। यहां भंग होते हैं दो (२)।
सब विकल्पोंका योग हुआ अठारह (१८)।
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा
[१३ समासमिच्छामो त्ति अट्ठारससु तिगुणिदेसु चउप्पण्णभंगा होति ५४ । एत्थ सामित्तादिवियप्पा णेरइयाणं व वत्तव्वा । णवरि बेइंदियादीणं तीस एक्कत्तीसाणं कालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण जहाकमेण वारस वस्साणि, एगुणवण्णरादिदियाणि, छम्मासा अंतोमुहुत्तणा ।
पंचिंदियतिरिक्खस्स सामण्णेण एक्कवीस-छव्वीस-अट्ठावीस-गुणतीस-तीस एकत्तीसेत्ति छउदयट्ठाणाणि । २१ । २६ । २८ । २९ ३० । ३१ । वुज्जोवुदयविरहिदपंचिंदियतिरिक्खस्स पंच उदयट्ठाणाणि होति । कुदो ? तत्थेक्कत्तीसाए उदयाभावा । वुज्जोवुदयसंजुत्तपंचिंदियतिरिक्खस्स वि पंचेवुदयट्ठाणाणि होति । कुदो ? तत्थद्वी
उद्योत रहित उद्योत सहित २१ प्रकृतियोंवाले स्थानभंग ३ ३। ये छह भंग पूर्वके ही समान
, ३ . ३, होनेसे नहीं जोड़े गये।
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अब हमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय, इन तीनों विकलेन्द्रिय जीवोंके उदयस्थानोंके भंगोंका योग चाहिये । अतएव अठारहको तीनसे गुणा कर देनेपर चौवन भंग हो जाते हैं (५४)। यहां स्वामित्व आदिके विकल्प जैसे नारकी जीवोंकी प्ररूपणामें पहले कह आये हैं उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि द्वीन्द्रियादि जीवोंके तीस और इकतीस प्रकृतियोंवाले उदय स्थानोंका काल कमसे कम अन्तर्मुहूर्त, और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त कम क्रमशः बारह वर्ष, उनचास रात्रि दिवस और छह मास होता है। अर्थात् तीस और इकतीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानोंका जघन्य काल तो तीनों विकलेन्द्रिय जीवोंके अन्तर्मुहूर्त ही होता है, किन्तु उत्कृष्ट काल द्वीन्द्रियोंके अन्तर्मुहूर्त कम बारह वर्ष, त्रीन्द्रियोंके अन्तर्मुहूर्त कम उनचास रात्रि-दिन और चतुरिन्द्रिय जीवोंके अन्तर्मुहूर्त कम छह मास होता है।
पंचेन्द्रिय तिर्यंचके सामान्यतः इक्कीस, छव्वीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इंकतीस प्रकृतियोंवाले छह उदयस्थान होते हैं । २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । उद्योत
तोदयसे रहित पंचेन्द्रिय तिर्यचके पांच उदयस्थान होते है, क्योंकि, उसके इकतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान नहीं होता । उद्योतोदय सहित पंचेन्द्रिय तिर्यंचके भी पांच
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४४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ११. सुदयद्वाणाभावादो। वुज्जोवुदयविरहिदपंचिंदियतिरिक्खस्स भण्णमाणे तत्थ इदमेक्कवीसाए हाणं होदि-तिरिक्खगदि-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फासतिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवी-अगुरुगलहुग-तस-बादर पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिरं सुभासुभं सुभग-दुभगाणमेक्कदरं आदेज्ज-अणादेज्जाणमेक्कदरं जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं च एदासिमेक्कवीसपयडीणमेक्कं चेव द्वाणं । एत्थ पज्जत्तउदएण अह भंगा, अपज्जत्तउदएण एक्को । कुदो ? सुभग-आदेज्ज-जसकित्तीहि सह एदस्सुदयाभावा । सव्वभंगसमासो णव |९| । सरीरे गहिदे आणुपुग्विमवणिय ओरालियसरीरं छहं संठाणाणं एकदरं ओरालियसरीरअंगोवंग छण्हं संघडणाणमेकदरं उवघाद-पत्तेयसरीरमिदि एदेसु कम्मेसु पक्खित्तेसु छब्बीसाए हाणं होदि । एत्थ पज्जत्तउदएण अट्ठासीदा बे सदा भंगा होति । अपज्जत्तउदएण एको चेव । कुदो ? सुहेहि सह अपजत्तस्स उदयाभावा । एत्थ सयभंगसमासो एकारमणतिसदमेत्तो |२८९।। एत्थ भंगविसयणिच्छयसमुप्पायणट्ठमेदाओ गाहाओ बत्तव्बाओ । तं जहा
ही उदयस्थान होते हैं, क्योंकि, उसके अट्ठाईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान नहीं होता।
अब उद्योतोदय रहित पंचेन्द्रिय तिर्यचके उदयस्थान कहते हैं। उनमें इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान इस प्रकार है-तियंचगति', पंचेन्द्रियजाति', तैजस और कार्मणशरीर', वर्ण", गंध', रस, स्पर्श', तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघुक", प्रस", बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तमेंसे कोई एक, स्थिर, और अस्थिर, शुभ
और अशुभ, सुभग और दुर्भगमेंसे कोई एक, आदेय और अनादेयमें से कोई एक", यशकीर्ति और अयशकीर्तिमेसे कोई एक और निर्माण', इन इक्कीस प्रकृतियोंका एक ही स्थान होता है। यहां पर्याप्तके उदय सहित (सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यशकीर्ति-अयशकीर्तिके विकल्पोंसे) आठ भंग होते हैं । अपर्याप्तके उदय सहित केवल एक ही भंग है, क्योंकि, सुभग आदेय और यशकीर्ति प्रकृतियोंके साथ अपर्याप्तका उदय नहीं होता । इन सब भंगोंका योग नौ है (९)।
शरीर ग्रहण करनेपर आनुपूर्वीको छोड़ औदारिकशरीर, छह संस्थानों से कोई एक संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक संहनन, उपघात, और प्रत्येकशरीर, इन छह कर्मोंको मिला देने पर छम्चीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है । यहां पर्याप्तोदय सहित (सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति-अयशकीर्ति, छह संस्थान और छह संहनन, इनके विकल्पोंसे २४२४२४६x६२८८ ) दो सौ अठासी भंग होते हैं। अपर्याप्तोदय सहित एक ही भंग है, क्योंकि, उक्त वैकल्पिक प्रकृतियोंमेंसे शुभ प्रकृतियोंके साथ अपर्याप्तका उदय नहीं होता। यहां सब भंगोंका योग ग्यारह कम तीनसौ अर्थात् दोसौ नवासी होता है (२८९)।
यहां भंगोंके विषयमें निश्चय उत्पन्न करानेके लिये ये गाथायें कहने योग्य
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२, १, ११. ]
सामित्ताणुगमे उदयद्वाणपरूवणा
संखा तह पत्थारो परियहण णट्ठ तह समुद्दिट्ठे' । एदे पंच वियप्पा द्वाणसमुक्कित्तणा । ' ॥ ७ ॥
सव्वे विपुव्वभंगा उवरिमभंगेसु एक्कमेसु । मेलति त्तिय कमसो गुणिदे उप्पज्जदे संखा ॥ ८ ॥
पढमं पडिपमा कमेण णिक्खिविय उवरिमाणं च । पिंडं पडि एक्के णिक्खेित्ते होदि पत्थारो ॥ ९ ॥ णिक्खित्तु विदियमेत्तं पढमं तस्सुवरि विदियमेक्केक्कं । पिंडं पडिणिक्खित्ते एवं सेसा वि कायव्वा ॥ १० ॥
पढमक्खो अंतगओ आदिगदे संक्रमेदि बिदियक्खो । दोणि वि गंतूत आदिगदे संक्रमेदि तदियक्खो ॥ ११ ॥
संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट और समुद्दिष्ट, इन पांच विकल्पोंको स्थानोंका समुत्कीर्तन अर्थात् विवरण करनेवाले जानना चाहिये ॥ ७ ॥
सभी पूर्ववर्ती भंग उत्तरवर्ती प्रत्येक भंग में मिलते हैं, अतएव उन मंग क्रमशः गुणित करनेपर सब भंगों की संख्या उत्पन्न होती है ॥ ८ ॥
पहले प्रकृतिप्रमाणको क्रमसे रखकर अर्थात् उसकी एक एक प्रकृति अलग अलग रखकर एक एकके ऊपर उपरिम प्रकृतियोंके पिंडप्रमाणको रखनेपर प्रस्तार होता है ||१२|| दूसरे प्रकृतिपिंडका जितना प्रमाण है उतने वार प्रथम पिंडको रखकर उसके ऊपर द्वितीय पिंडको एक एक करके रखना चाहिये । ( इस निक्षेपके योगको प्रथम समझ और अगले प्रकृतिपिंडको द्वितीय समझ तत्प्रमाण इस नये प्रथम निक्षेपको रखकर जोड़ना चाहिये ।) आगे भी शेष प्रकृतिपिंडों को इसी प्रक्रियासे रखना चाहिये ॥ १० ॥
[ ४५
प्रथम अक्ष अर्थात् प्रकृतिविशेष जब अन्त तक पहुंचकर पुनः आदि स्थानपर आता है, तब दूसरा प्रकृतिस्थान भी संक्रमण कर जाता है अर्थात् अगली प्रकृतिपर पहुंच जाता है; और जब ये दोनों स्थान अन्तको पहुंचकर आदिको प्राप्त हो जाते हैं तब तृतीय अक्षका भी संक्रमण होता है ॥ ११ ॥
१ प्रतिषु ' तस्समुद्दिद्धं ' इति पाठः ।
२ गो. जी. ३५.
४ गो. जी. ३८.
३ गो. जी. ३६.
५. गो. जी. ४०.
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[२, १, ११.
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो सगमाणेण विहत्ते सेसं लक्खित्तु पक्खिवे' रूवं । लक्खिजंते सुद्धे एवं सव्वत्थ कायव्वं ॥ १२ ॥ संठाविदूण रूपं उवरीदो संगुणित्तु सगमाणे । अवणेज्जोणंकिदयं कुज्जा पढमंतियं जावं ॥ १३ ॥
जितनेवां उदयस्थान जानना अभीष्ट हो उसी स्थानसंख्याको पिंडमानसे विभक्त करे । जो शेष रहे उसे अक्षस्थान समझे । पुनः लब्धमें एक अंक मिलाकर दूसरे पिंडमानका भाग देवे और शेषको अक्षस्थान समझे। जहां भाग देनेसे कुछ न बचे वहां अन्तिम अक्षस्थान समझे और फिर लब्धमें एक अंक न मिलावे । इस प्रकार समस्त पिंडों द्वारा विभाजनक्रिया करनेसे उद्दिष्ट स्थान निकल आता है ॥ १२ ॥
एक अंकको स्थापित करके आगेके पिंडका जो प्रमाण हो उससे गुणा करे और लब्धमेंसे अनंकितको घटा दे। ऐसा प्रथम पिंडके अंत तक करता जावे। इस प्रकार उदिष्ट निकल आता है ॥ १३ ॥
विशेषार्थ-पूर्वोक्त सात गाथाओंमें यह बतलाया गया है कि जब अनेक पिंडोंके अन्तर्गत विशेष पदोंके विकल्पोंसे भिन्न भिन्न भंग बनते हैं तब उन सब भंगोंकी संख्या किस प्रकार निकाली जाय, उस संख्याप्रमाण सब भंगोंको क्रमसे जाननेके लिये किस किस प्रकार विस्तार किया जा सकता है, उस विस्तारसे किस प्रकार भंगोंमें परिवर्तन होते हैं, किसी स्थानविशेषकी क्रमसंख्यामात्रके उल्लेखसे उस स्थानवर्ती विशेषोंको कैसे जाना जा सकता है या विशेषोंके नामोल्लेखसे उसकी क्रमसंख्या किस प्रकार जानी जा सकती है। गाथा नं. ७ में इन्हीं प्रक्रियाओंके पांच नामोंका उल्लेख है । भंगाके प्रमाणको संख्या, उस संख्याप्रमाण भंग प्राप्त करनेकी प्रक्रियाको प्रस्तार, उत्तरोत्तर एक एक विकल्पके नामपरिवर्तनको परिवर्तन, क्रमिक संख्या उल्लेखसे विकल्पके विशेषों को जाननेके प्रकारको नष्ट, और विकल्प-विशेषके नामोल्लेखसे उसकी क्रमिक संख्याको जाननेके प्रकारको समुद्दिष्ट कहा है।
गाथा नं. ८ में भंगोंकी सम्पूर्ण संख्या निकालने का प्रकार बतलाया गया है जिसका उपयोग प्रकृतमें पंचेन्द्रिय जीवोंके सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति अयशकीर्ति, छह संस्थान और छह संहनन, इनके विकल्पों द्वारा उत्पन्न उदयस्थामोंकी भंगसंख्या निकालने में किया जा सकता है। इसके लिये प्रक्रिया यह है कि प्रकृत पिंडप्रमाणोंकी संख्याओंको क्रमशः रखकर परस्पर गुणा कर दो जिससे २४२४२४६४६-२८८ दो सौ अठासी विकल्प आ जाते हैं।
१ प्रतिषु 'पक्खिमे ' इति पाठः । प्रतिषु संधाविदण' इति पाठः।
२ गो. जी. ४१. ४ गो. जी. ४२.
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२, १, ११.]
सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा
गाथा नं.९ और १० में बतलाई गई दो भिन्न भिन्न प्रकारकी प्रस्तारप्रक्रियाका स्पष्टीकरण अक्षपरिवर्तनकी प्रक्रियासे होता है जो निम्न प्रकार है
गाथा नं. ११ में जो अक्षपरिवर्तनका क्रम बतलाया गया है वह द्वितीय प्रस्तारकी अपेक्षा (गाथा नं. १० के अनुसार ) सम्भव है । प्रथम प्रस्तारकी अपेक्षा अक्षपरिवर्तनकी निरूपक गाथा यहां नहीं दी गई। यह गाथा गोम्मटसार (जी. कां.) के प्रमाद प्रकरणमें इस प्रकार पायी जाती है
तदियक्खो अंतगदो आदिगदे संकमेदि विदियवखो।
दोण्णि वि गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि पढमक्खो ॥ ३९ ॥ अर्थात् तृतीय अक्ष जब आलापक्रमसे अपने अन्त तक जाकर व फिरसे लौटकर एक साथ अपने प्रथम स्थानको प्राप्त हो जाता है, तब द्वितीय अक्ष बदलकर दूसरे स्थानको प्राप्त होता है। इस प्रकार दोनों ही अक्ष अन्तको प्राप्त होकर व फिरसे लौटकर जब अपने अपने प्रथम स्थानको प्राप्त होते हैं तब प्रथमाक्ष प्रथम स्थानको छोड़कर द्वितीय स्थानपर पहुंच जाता है।
इसके अनुसार प्रकृतमें आलापभेदोंका क्रम निम्न प्रकार होगा१ सुभग, आदेय, यशकीर्ति, समचतुरन., वज्रवृषभ.
वज्रनाराच. नाराच. अर्धनाराच. कीलित.
असंप्राप्ता. न्यग्रोध. वज्रवृषभ.
वज्रनाराच. नाराच.
अर्धनाराच. इस प्रकार जैसे समचतुरस्र सहित ६भंग बने हैं वैसे ही न्यग्रोध सहित ६भंग बनेंगे और फिर शेष चार संस्थानोंके भी क्रमशः छह छह भंग होंगे जिनका योग होगा ३६ । फिर ये ही ३६ भंग अयशकीर्ति के साथ होंगे । फिर अनादेयके यशकीर्तिके साथ ३६ और अयशकीर्तिके साथ ३६ भंग होकर ७२ भंग होंगे। पश्चात् दुर्भगको लेकर ३६ . आदेय यशकीर्ति सहित, ३६ आदेय-अयशकीर्ति सहित, ३६ अनादेय-यशकीर्ति सहित और ३६ अनादय-अयशकीर्ति सहित ऐसे १४४ भंग होंगे। इस प्रकार इन सबका योग होगा ३६+३६+७२+१४४२८८ ।
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१८]
छक्खंडागमै खुद्दाबंधो
[२, १, ११.
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द्वितीय प्रस्तारकी अपेक्षा (गाथा नं. ११ के अनुसार) आलापभेदोंका क्रम निम्न प्रकार होगा
१ सुभग, आदेय, यशकीर्ति, समचतुरन., वज्रवृषभ. २ दुर्भग " ३ सुभग, अनादेय
दुर्भग सुभग, अयशकीर्ति, दुर्भग
सुभग, अनादेय ८ दुर्भग ९ सुभग, आदेय, यशीर्ति, न्यग्रोध. १० दुर्भग , ,
, इस प्रकार जैसे यहां आदेय सहित २, अनादेय सहित २, फिर अयशकीर्तिआदेय सहित २ और अयशकीर्ति-अनादेय सहित २ ऐसे ८ भंग वने हैं, वैसे ही न्यग्रोध-यशकीर्ति-आदेय सहित २, न्यग्रोध-यशकीर्ति-अनादय सहित २, न्यग्रोध अयशकीर्ति-आदेय सहित २ और न्यग्रोध-अयशकीर्ति-अनादेय सहित २ ऐसे ८ भंग बनेंगे और फिर शेष चार संस्थानोंके भी क्रमशः आठ आठ भंग होकर छहों संस्थानोंके ४८ भंग होंगे । जिस प्रकार ये ४८ भंग प्रथम संहनन सहित हुए हैं उसी प्रकार शेष पांच संहननोंके भी क्रमशः अड़तालीस अड़तालीस भंग होकर सब भंगोंका योग ४८४६-२८८ हो जायगा।
गाथा नं.११ में क्रमिक संख्यापरसे विवक्षित भंग जाननेकी विधि बतलाई है। उदाहरणार्थ- हमें यह जानना है कि उक्त २८८ भंगोंमेंसे १४५ वां भंग कौनसा होगा। अब हमें १४५ को सबसे पहले प्रथम पिंडमान २ से भाजित करना चाहिये जिससे लब्ध ७२ आये और शेष बचा १ । अतएव प्रथम स्थानमें सुभग है। फिर लब्धमें १ मिलाकर दूसरे पिंडप्रमाण २ का भाग देनेसे लब्ध आये ३६ और शेष बचा १ । इससे जाना गया कि दूसरे स्थानमें आदेय है। फिर लब्धमें १ मिलाकर तीसरे पिंडमान २ का भाग देनेसे लब्ध आये १८ और शेष रहा १। इससे जाना कि तीसरे स्थानमें यशकीर्ति है । फिर लब्धमे एक मिलाकर चौथे पिंडमान ६ का भाग देनेसे लब्ध आये ३
और शेष बचा १ । इससे जाना कि चौथे स्थानमें समचतुरस्रसंस्थान है। फिर लब्धमें १ मिलानेपर अन्तिम पिंडमान ६ का भाग न जाकर शेष बचे ४ से अन्तिम पिंडकी चौथी प्रकृति अर्धनाराचसंहनन समझना चाहिये । अतएव १४५ वां भंग सुभग आदेय यशकीर्ति समचतुरस्रसंस्थान व अर्धनाराचसंहनन प्रकृतियोंवाला होगा।
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२, १, ११.]
सामित्ताणुगमे उदयट्ठाण परूवणा
[ १९
गाथा नं. १३ में विकल्प के नामोल्लेख परसे उसकी क्रमिक संख्या जाननेकी विधि यतलाई गयी है । उदाहरणार्थ- हम जानना चाहते हैं कि दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान और कीलकशरीरसंहनन कौनसे नम्बरके भंगमें आवेंगे। यहां १ अंकको रखकर उसे अन्तिम पिंडमान ६ से गुणा किया और लब्धमें ले अनंकित १ घटा दिया, क्योंकि, कीलकशरीर पांचवां संहनन है। घटानेसे जो ५ बचे उन्हें अगले पिंडमान ६ से गुणा किया जिससे लब्ध आये ३० । इसमेंसे घटाये ४, क्योंकि, न्यग्रोधपरिमंडल ६ संस्थानों से दूसरा ही है। शेष बचे २६ को उससे पूर्ववर्ती पिंडमान दोसे गुणा किया और घटाया कुछ नहीं, क्योंकि, पिंडमान दोमेंसे द्वितीय प्रकृतिको ही ग्रहण किया है अतः अनंकित कुछ नहीं है । इस प्रकार लब्ध ५२ को पुनः २ से गुणा किया फिर भी कुछ नहीं घटाया, क्योंकि, यहां भी दोमेंसे दूसरी ही प्रकृति ग्रहण की है। अतएव लब्ध हुए १०४ जिसे पुनः प्रथम पिंडमान २ से गुणा किया और यहां भी कुछ नहीं घटाया, क्योंकि, यहां भी दुसरी प्रकृति ग्रहण की है। अतएव उक्त विकल्पकी क्रमिक संख्या १०४४२२०८ वीं हुई।
इस प्रकार जहां भी अनेक पिंडान्तर्गत विशेषोंके विकल्पसे अनेक भंग बनते हैं वहां उनकी संख्यादि ज्ञात की जा सकती है। नीचे दो यंत्र दिये जाते हैं जिनसे किसी भी भंगसंख्याके आलापका व किसी भी आलापसे उसकी भंगसंख्याका ज्ञान पांचों अक्षोंके कोटकोंमें दिये हुए अंकोंके जोड़नेसे प्राप्त किया जा सकता है
प्रथम प्रस्तार ( गाथा २० ) की अपेक्षा भंगोंके जाननेका यंत्र
सुभग | दुर्भग
२
आदेय
| अनादेय
यशकीर्ति अयशकीर्ति
समचतु. न्यग्रोध.
स्वाति.
कुब्जक.
वामन ३२
हुण्डक. ४०
वज्रवृषभ. वज्रनाराच.
नाराच. अर्धनाराच. कीलित. असंप्राप्ति.
। १९२ । २४०
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५०]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ११. सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स अपज्जत्तमवणिय परघादो दोहं विहायगदीणमेक्कदरे च पक्खित्ते अट्ठावीसाए द्वाणं होदि । भंगा पंच सदा छावत्तरा होंति | ५७६ || आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे पक्खित्ते एगुणतीसाए द्वाणं होदि । मंगा तेत्तिया चेव | ५७६ || भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सुस्सर-दुस्सरेसु एक्कदरे पक्खित्ते तीसाए हाणं होदि । मंगा एक्कारस सदाणि बावण्णाहियाणि |११५२ ।
द्वितीय प्रस्तार ( गाथा २१ ) की अपेक्षा भंगोंके जाननेका यंत्र वज्रवृषभ. वज्रनाराच. नाराच. अर्धनाराच.| कीलित | असंप्राप्ति.
समचतु. | न्यग्रोध.
स्वाति. | कुब्जक.
वामन.
हुण्डक.
यशकीर्ति अयशकीर्ति
आदेय | अनादेय
।
७२
सुभग | दुर्भग
शरीरपर्याप्तिको पूर्ण करलेनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचके पूर्वोक्त छब्बीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानमेंसे अपर्याप्तको निकालकर व परधात और दो विहायोगतियोमेसे कोई एक, इन दो प्रकृतियोंके मिला देनेपर अट्ठाईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है। यहां भंग ( सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति-अयशकीर्ति, छह संस्थान, छह संहनन तथा प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति, इन विकल्पोंके भेदसे) पांच सौ छयत्तर होते हैं ( ५७६)।
___ आनप्राणपर्याप्तिको पूर्ण करलेनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचके पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियोंमें उच्छ्वास मिलादेनेसे उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है। यहां भंग उतने ही अर्थात् पांच सौ छयत्तर ही हैं (५७६)।
भाषापर्याप्तिको पूर्ण करलेनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचके पूर्वोक्त उनतीस प्रकृतियों में सुस्वर और दुस्वरमेंसे कोई एक मिलादेनेसे तीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। यहां (सुभग-दर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति-अयशकीर्ति, छह संस्थान, छह संहनन. प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति और सुस्वर-दुस्वर, इनके विकल्पसे) भंग ग्यारह सौ बावन हो जाते हैं (१९५२)।
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा
[ ५१ उज्जोवुदयसंजुत्तचिंदियतिरिक्खस्स एक्कवीस-छब्बीसुदयट्ठाणाई पुव्वं व वत्तव्वाइं । पुणो सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स परघादुज्जोवेसु पसत्थापसत्थाण विहायगदीणमेक्कदरे च पविद्वेसु एगुणतीसाए हाणं होदि । भंगा पंच सदा छावत्तरा|५७६ । पुणो एदेसु पढमेगुणतीसाए भंगेसु पक्खित्तेसु सबभंगपमाणं एक्कारस सदाणि बावण्णाणि होदि | ११५२ । । आणापाणपजत्तीए पजत्तयदस्स उस्सासे पक्खित्ते तीसाए हाणं होदि। एत्थ पंच सदा छावत्तरि भंगा |५७६ । पुणो एदेसु पढमतीसाए भंगसु छुद्धेसु सत्तारस सयाइमट्ठवीसाइं तीसाए सव्वभंगा होति । १७२८।। भासापज्जत्तीए पजत्तयदस्स सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरे छुद्धे एक्कत्तीसाए हाणं होदि । भंगा एक्कारस सदाणि बावण्णाणि । ११५२] । पंचिंदियतिरिक्खाणं सव्वभंगसमासो
उद्योतोदयके सहित पंचेन्द्रिय तिर्यचके इक्कीस और छब्बीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थान पूर्वोक्त प्रकारसे ही कहना चाहिये । पुनः शरीरपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले पंचन्ति
न्द्रिय तिर्यचके उक्त छव्वीस प्रकृतियों में परघात, उद्योत, और प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगतियों से कोई एक, इस प्रकार तीन प्रकृतियां मिलादेनेसे उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है । यहां ( सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति-अयशकीर्ति, छह संस्थान, छह संहनन, और प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति, इनके विकल्पसे) भंग पांच सौ छयत्तर होते हैं (५७६ ) । पुनः इन भंगोंको पूर्वोक्त उनतीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थान सम्बन्धी भंगोंमें मिलादेनेसे उनतीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानोंके सब भंगोंका योग ( ५७६५५७६= ) ११५२ ग्यारह सौ बावन हो जाता है।
____आनप्राणपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचके पूर्वोक्त उनतीस प्रकृतियों में उच्छ्वास मिलादेनेपर तीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। यहां भंग (पूर्वोक्त प्रकारसे) पांच सौ छयत्तर हैं (५७६) । पुनः इन भंगोंमें पूर्वोक्त तीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थान सम्बन्धी ११५२ भंग मिलादेनेपर तीस प्रकृतियोवाले उदयस्थान सम्बन्धी सव भंगोका योग (१९५२+५७६= ) १७२८ सत्तरह सौ अट्ठाईस होता है।
भाषापर्याप्तिको पूर्ण करलेनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यचके पूर्वोक्त तीस प्रकृतियों में सुस्वर और दुस्वर इनमेंसे कोई एक मिलादेनेपर इकतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है। यहां भंग ( सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति अयशकीर्ति, छह संस्थान, छह संहनन, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति, और सुस्वर-दुस्खरके विकल्पोंसे) ग्यारह सौ बावन होते हैं (११५२)।
पंचन्द्रिय तिर्यंचोंके समस्त भंगोंका योग चार हजार नौ सौ छह होता
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५२) - छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, १, ११. चत्वारि सहस्साई णव सयाई छच्चेव होइ । ४९०६ || तिरिक्खाणं सव्वभंगसमासो पंच सहस्साणि अट्टणाणि | ४९९२ | । पंचिंदियतिरिक्खुदयट्ठाणाणं सामित्तं कालो च पुव्वं . व वत्तव्यो। णवरि तीसेक्कतीसाणं कालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तणाणि तिण्णि पलिदोवमाणि ।
मणुस्साणं' सामण्णण एक्कारसुदयट्ठाणाणि वीस-एकवीस-पंचवीस-छव्वीससत्तावीस-अट्ठावीस-एगूणतीस-तीस-एकत्तीस-णव-अट्ट होंति । २०।२१।२५।२६ । २७ । २८ । २९।३०।३१ । ९ । ८। सामण्णमणुस्सा विसेसमणुस्सा विसेसविसेसमणुस्सा त्ति तिविहा मणुस्सा । सामण्णमणुस्साणं भण्णमाणे तत्थ इमं एक्कत्रीसाए ट्ठाणं- मणुस्सगदि-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुस्सगदि
है ( ४९०६)।
उद्योत रहित उद्योत सहित २१ प्रकृतियोंवाले उदयस्थान ९ ९ पूर्व भंगोंके ही समान होनेसे
२८९ २८९ । इन्हें नहीं जोड़ा गया।
__ ५७६ + ५७६ , ११५२ + ५७६
x ११५२
२६०२ + २३०४ = ४९०६ पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके उदयस्थानोंके स्वामित्व और कालका कथन पूर्वानुसार अर्थात् जैसा नारकियोंके उदयस्थानोंकी प्ररूपणामें कर आये हैं उसी प्रकार करना चाहिये । यहां विशेषता इतनी है कि तीस और इकतीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम है।
मनुष्योंके सामान्यतः वीस, इक्कीस, पच्चीस, छव्वीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस, नौ और आठ प्रकृतियोंवाले ग्यारह स्थान होते हैं । २० । २१ । २५ । २६ २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ९।८।
मनुष्य तीन प्रकारके हैं- सामान्य मनुष्य, विशेष मनुष्य और विशेष-विशेष मनुष्य । सामान्य मनुष्योंके कथनमें यह प्रथम इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान है-- मनुष्यगति', पंचेन्द्रिय जाति', तैजस और कार्मण शरीर, वर्ण', गंध', रस, स्पर्श', मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघुक", त्रस', वादर", पर्याप्त और अपर्याप्तमेसे
१ प्रतिषु · मस्साणि ' इति पाठः ।
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा
[५३ पाओग्गाणुपुचि-अगुरुगलहुग-तस-बादर पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदर थिराथिरं सुभासुभं सुभग-दुभगाणमेक्कदरं आदेज्ज-अणादेज्जाणमेक्कदरं जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं च एदासिं पयडीणमेकमुदयट्ठाणं । पज्जत्तउदएण अट्ठ भंगा, अपअत्तउदएण एक्को, तेसिं समासो णव |९|| गहिदसरीरस्स मणुस्साणुपुस्विमवणेदण ओरालियसरीर-छसंठाणाणमेकदरं ओरालियसरीरअंगोवंग छण्ण संघडणाणमेकदरं उवघादं पत्तेयसरीरं च घेत्तूण पक्खित्ते छव्वीसाए डाणं होदि । भंगा एक्कारसूणतिसदमेत्ता |२८९ । सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स अपज्जत्तमवणिय परघाद पसत्थापसत्थविहायगदीणमेक्कदरं च घेत्तूण पक्खित्ते अट्ठावीसाए हाणं होदि । भंगा चउवीसूणछसदमेत्ता ५७६। आणापाणपज्जत्तीए पञ्जत्तयदस्स उस्सासं घेत्तूण पक्खित्ते एगुणतीसाए हाणं होदि।
कोई एक, स्थिर", अस्थिर", शुभ, अशुभ", सुभग और दुर्भगमेंसे कोई एक, आदेय और अनादेयमें से कोई एक", यशकीर्ति और अयशकीर्ति से कोई एक और निर्माण', इन प्रकृतियों का एक उदयस्थान होता है। यहां पर्याप्तादय सहित (सुभग
दुर्भग, आदेय-अनादेय और यशकीर्ति अयशकीर्तिके विकल्पोंसे ) आठ भंग होते हैं। अपर्याप्तोदय सहित एक ही भंग है ( क्योंकि सुभग, आदेय और यशकीर्तिके साथ अपर्याप्तका उदय नहीं होता)। पर्याप्त और अपर्याप्तके भंगोंका योग हुआ नौ ( ८+ १ = ९)
शरीर ग्रहण करलेनेवाले मनुष्यके पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे आनुपूर्वीको छोड़कर औदारिकशरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक, उपघात और प्रत्ये कशरीर, इस प्रकार छह प्रकृतियां मिलादेनेपर छब्बीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है । यहां भंग (पर्याप्तके उदय सहित सुभग दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति-अयशकीर्ति, छह संस्थान और छह संहननके विकल्पोंसे २४२४२४६४६-२८८ और अपर्याप्तोदय सहित भंग १, इस प्रकार ) दो सौ नवासी होते है ( २८९ )।
शरीरपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले मनुष्य के पूर्वोक्त छन्वीस प्रकृतियों मेंसे अपर्याप्तको छोड़कर परघात तथा प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगतियोंमेंसे कोई एक, ऐसी दो प्रकृतियोंको मिलादेनेसे अट्राईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। यहां भंग (सुभग दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति अयशकीर्ति, छह संस्थान, छह संहनन और प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति, इनके विकल्पोंसे २x२x२x६४६४२= ) ५७६ पांच सौ छयत्तर या चौवीस कम छह सौ होते हैं ।
आनप्राणपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले मनुष्यके पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियोंमें उच्छ्वासको लेकर मिलादेनेसे उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। यहां भंग
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५४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, १, ११. भंगा तत्तिया चेव | ५७६ || भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सुस्सग्दुस्सराणमेक्कदरे पक्खित्ते तीसाए द्वाणं होदि । मंगा अद्वेदालीसूणवारससदमेत्ता' | ११५२ ।।
संपहि आहारसरीरोदइल्लाणं विसेसमणुस्साणं भण्णमाणे तेसिं पंचवीस-सत्तावीसअंडावीस-एगुणतीस त्ति चत्तारि उदयट्ठाणाणि । २५ । २७ । २८ । २९ । मणुस्सगदिपंचिंदियजादि-आहार-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-आहारसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंधरस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-तस-बादर-पज्जत्त-पतेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभगआदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणणामाणि एदासिं पणुवीसपयडीणमेक्कमुदयट्ठाणं । भंगो एक्को |१|| सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स परघाद-पसत्थविहायगदीसु पक्खित्तासु सचावीसाए द्वाणं होदि । भंगो एको |१|| आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे संछुद्धे अट्ठावीसाए द्वाणं होदि। भंगो एक्को | १ | । भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स
पूर्वोक्त प्रकार पांच सौ छयत्तर ही हैं ( ५७६ )।
__ भाषापर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले मनुष्यके पूर्वोक्त उनतीस प्रकृतियों में सुस्वर और दुस्वरमेंसे कोई एक मिलादेनेपर तीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है । यहां भंग (पूर्वोक्त विकल्पोंके अतिरिक्त सुस्वर दुस्वरके विकल्पसे २४२४२४६४६४२४२%) १९५२ ग्यारह सौ बावन या अड़तालीस कम बारह सौ हैं।
अब आहारकशरीरके उदयवाले विशेष मनुष्योंके उदयस्थान कहते हैं । उनके पञ्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतियोंवाले चार उदयस्थान होते हैं। २५।२७। २८ । २९ । मनुष्यगति', पंचेन्द्रिय जाति', आहारक', तैजस' और फार्मण' शरीर, समचतुरस्रसंस्थान', आहारकशरीरांगोपांग', वर्ण', गंध', रस, स्पर्श', अगुरुलघुकर, उपघात३, त्रस", बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर", स्थिर, अस्थिर', शुभ, अशुभ, सुभग", आदेय, यशकीर्ति और निर्माण, इन पञ्चीस प्रकृतियोंका एक उदयस्थान होता है । यहां भंग एक ही है (१)।
शरीरपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले विशेष मनुष्यके पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियोंमें परघात और प्रशस्तविहायोगति मिलादेनेसे सत्ताईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है। यहां भंग एक है (१)।
आनप्राणपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले विशेष मनुष्यके पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतियों में उच्छ्वास मिलादेनेसे अट्ठाईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है । यहां भंग एक है (१)।
भाषापर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले विशेष मनुष्यके पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियों में
१ सण्णिम्मि मणुस्साम्मि य ओघेक्कदरं तु केवले वज्जं । सुभगादैजनसाणि य तित्थुजुदे सत्यमेदीदि ॥ गो. क. ६०१.
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा सुस्सरे पक्खित्ते एगूणतीसाए ट्ठाणं होदि । भंगो एक्को | १ || सवभंगसमासो चत्तारि' | ४ ||
विसेसविसेसमणुस्साणं पणुवीसं मोत्तूण दस उदयट्ठाणाणि होति । २० । २१ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ९।८। मणुस्सगदि-पंचिंदियजादि-तेजाकम्मइयसरीर-वण्ण गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-पज्जत थिराथिर सुभासुभसुभग-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणणामाणि एदासिं वीसण्हं पयडीणं पदरलोकपूरणगद. सजोगिकेवलिस्स उदओ होदि । भंगो एको | १ || जदि तित्थयरो तो तित्थयरोदएण एक्कवीसाए द्वाणं होदि। भंगो एक्को । कवाडं गदस्स एदाओ चेव पयडीओ। णवरि
ओरालियसरीर-समचउरससंठाणं । तित्थयरुदयविरहियाणं छण्णं संठाणाणमेक्कदरं ओरालियसरीर अंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-उवघाद-पत्तेयसरीरं च घेत्तूण छव्वीसाए वा सत्त
सुखर मिलादेनेपर उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। यहां भंग एक है (१)। इस प्रकार विशेष मनुष्यके चारों उदयस्थानों सम्बन्धी सब भंगोंका योग चार हुआ (४)।
विशेष विशेष मनुष्योंके पूर्वोक्त ग्यारह उदयस्थानोंमसे पच्चीस प्रकृतियोंवाले एक उदयस्थानको छोड़कर शेष दश उदयस्थान होते हैं । २० । २१ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ।९।८। मनुष्यगति', पंचेन्द्रियजाति', तैजस और कार्मणशरीर', वर्ण', गंध', रस', स्पर्श', अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर", शुभ, अशुभ, सुभग", आदेय, यशकीर्ति और निर्माण इन वीस नामकर्म प्रकृतियोंका उदय प्रतर और लोकपूरण समुद्धात करनेवाले सयोगिकेवलोके होता है। यहां भंग एक है (१)।
यदि वह सयोगिकेवली तीर्थकर हो तो पूर्वोक्त वीस प्रकृतियोंके अतिरिक्त तीर्थकर प्रकृतिके उदय सहित इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है । भंग एक (१)।
कपाट समुद्घात करनेवाले विशेषविशेष मनुष्यके भी ये ही प्रकृतियां उदयमें आती हैं, विशेषता केवल यह है कि उनके औदारिकशरीर और समचतुरस्रसंस्थान होता है। तीर्थकर प्रकृतिके उदयसे रहित जीवोंके छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिक शरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर, इन प्रकृतियोंके ग्रहण करलेनेसे छव्वीस या सत्ताईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है। यहां भंग छव्वीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानमें छहों संस्थानोंके विकल्पसे छह होंगे और
१देवाहारे सत्थं कालवियप्पेसु मंगमाणेज्जो। वोच्छिण्णं जाणित्ता गुणपडिवण्णेसु सव्वसु ॥ गो.क.६.२.
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ११. वीसाए वा हाणं होदि। भंगा दोण्हं पि छ एक्को । ६ । १। तित्थयरुदएण वा अणुदएण वा दंडगदस्स परघादं पसत्थापसत्थविहायगदीणमेक्कदरं च घेत्तूण पक्खित्ते अट्ठावीसाए वा एगुणतीसाए वा ठाणं होदि । णवरि तित्थयराणं पसत्थविहायगदी एक्का चेव उप्पज्जदि । भंगा अट्ठावीसाए बारस, एगुणतीसाए एक्को। १२।१। आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे पक्खित्ते तीसाए एगुणतीसाए वा ठाणं होदि । भंगा एगुणतीसाए बारस, तीसाए एक्को । १२।१। भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सुस्सर-दुस्सरेसु एक्कदरम्मि पविढे तीसाए एक्कतीसाए वा हाणं होदि । भंगा तीसाए चउवीस |२४|| एक्कत्तीसाए एक्को, तित्थयराणं दुस्सर-अप्पसत्थविहायगदीणं उदयाभावा | १ ||
.............
सत्ताईस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानमें केवल एक होगा। ६।१।
तीर्थकर प्रकृतिके उदयसे रहित पूर्वोक्त छब्बीस प्रकृतियोंमें परघात और प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगतिमेसे कोई एक लेकर मिलादेनेसे अट्ठाईस प्रकृतियोंवाला तथा तीर्थकर प्रकृतिके उदय सहित सत्ताईस प्रकृतियों में उक्त दो प्रकृतियां मिलादेनेसे उनतीस प्रकृतियोंवाला दंडसमुद्घातगत केवलीका उदयस्थान होता है। विशेषता यह है कि तीर्थंकरोंके केवल एक प्रशस्तविहायोगति ही उदयमें आती है । इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानके (छह संस्थान और प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगतिके विकल्पोंसे) बारह भंग होते हैं, और उनतीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानका विकल्प रहित केवल एक ही भंग है । (१२ । १।)।
पूर्वोक्त विशेष-विशेष मनुष्यके आनप्राणपर्याप्ति पूर्ण करलेनेपर उक्त अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतियोंमें उच्छ्वास मिलादनेपर क्रमशः उनतीस व तीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है । इनके भंग पूर्वोक्तानुसार उनतीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानके बारह और तीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानका केवल एक है। (१२।१)।
___ उसी विशेष-विशेष मनुष्यके भाषापर्याप्ति पूर्ण करलेनेपर पूर्वोक्त उनतीस व तीस प्रकृतियों में सुस्वर और दुस्वरमेंसे कोई एक मिलादेनेसे क्रमशः तीस और इकर्तास प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। तीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानके भंग (छह संस्थान, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति और सुखर-दुस्खरके विकल्पोंसे) चौवीस होते हैं ( २४ )। तथा इकतीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानका भंग केवल मात्र एक होता है (१) क्योंकि, तीर्थकरोंके दुखर और अप्रशस्त विहायोगति ( तथा प्रथम संस्थानको छोड़ शेष पांच संस्थानों) का उदय नहीं होता।
... १ मप्रतौ — उज्जदि' इति पाठः ।
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२, १, ११.] __सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा
[५७ एकत्तीसपयडीणं णामणिदेसो कीरदे- मणुस्सगदि-पंचिंदियजादि-ओरालियतेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससरीरसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परबाद-उस्सास-पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-तित्थयराणि त्ति एदाओ एक्कत्तीसपयडीओ उदेति तित्थयरस्स। एदस्स कालो जहण्णेण वासपुधत्तं । कुदो ? तित्थयरोदइल्लसजोगिजिणविहारकालस्स सव्वजहण्णस्स वि वासपुधत्तादो हेवदो अणुवलंभा। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तब्भहियगम्भादिअट्ठवस्सेणूणा पुधकोडी । सेसाणं ट्ठाणाणं कालो जाणिदूण वत्तव्यो ।
अजोगिभयवंतस्स भण्णमाणे- मणुस्सगदि-पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्तसुभग-आदेज्ज-असकित्ति-तित्थयरमिदि एदाओ णव । भंगो एक्को | १] । तित्थयरविरहिदाओ अट्ट । भंगो एक्को । १ | । मणुस्साणं सबभंगसमासो बत्तीसूणसत्तावीस
उन तीर्थंकरोंके उदयमें आनेवाली इकतीस प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हैंमनुष्यगति', पंचेन्द्रियजाति', औदारिक', तेजस' और कार्मण शरीर', समचतुरस्रसंस्थान. औदारिकशरीरांगोपांग', वज्रऋषभनाराचसंहनन', वर्ण', गंध, रस, स्पर्श, अगुरुकलघु, उपघात", परघात", उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति", अस८, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर', स्थिर, अस्थिर३, शुभ, अशुभ", सुभग, सुखर, आदेय, यशकीर्ति , निर्माण और तीर्थकर', ये इकतीस प्रकृतियां तीर्थंकरके उदयमें आती हैं। इस उदयस्थानका जघन्यकाल वर्षपृथक्त्व है, क्योंकि, तीर्थकर प्रकृतिके उद्यवाले सयोगि जिनका विहारकाल कमसे कम होनेपर भी वर्षपृथक्त्वसे नीचे नहीं पाया जाता । इस उदयस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक गर्भसे लेकर आठ वर्ष हीन एक पूर्वकोटि है । शेष उदयस्थानोंका काल जानकर कहना चाहिये।
___ अब अयोगि भगवान्के उदयस्थान कहते हैं- मनुष्यगति', पंचेन्द्रियजाति', प्रस', बादर', पर्याप्त', सुभग', आदेय, यशकीर्ति और तीर्थंकर', ये नव प्रकृतियां ही अयोगिकेवलीके उदय होती हैं। यहां भंग एक है (१)। इन्हीं नौ प्रकृतियोंमेंसे तीर्थकर प्रकृतिसे रहित होनेपर आठ प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। यहां भी भंग एक है (१)।
मनुष्यों के उदयस्थानों संबंधी समस्त भंगोंका योग बत्तीस कम सत्ताईस सौ
१ प्रतिषु ‘मणुसगदीए' इति पाठः। .२ पं. सं. भाग १, पृ. २०४.
३ गयजोगस्स य बारे तदियाउग-गोद इदि विहीणेसु । णामस्स य णव उदया अद्वेव य तित्थहीणेसु ॥ गो, क. ५९८.
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५८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ११. सदमेत्तो | २६६८ ।
देवगदीए एक्कवीस-पंचवीस-सत्तावीस-अट्ठावीस-एगुणतीसउदयट्ठाणाणि होति । २१ । २५ । २७। २८ । २९ । तत्थ इमं एक्कवीसाए उदयट्ठाणं- देवगदि-पंचिंदियजादितेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास देवगदिपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुगलहुअ-तस-बादरपज्जत्त-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणमिदि एदासिं पयडीणं एक्कट्ठाणं । भंगो एक्को |१।। सरीरं गहिदे आणुपुग्विमवणेद्ण वेउब्वियसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-उवघाद-पत्तेयसरीरेसु पविढेसु पणुवीसाए हाणं होदि । मंगो एको । १ ।। सरीरपजत्तीए पज्जत्तयदस्स परघाद-पसत्थविहायगदीसु पक्खित्तासु
अर्थात् छठवीस सौ अड़सठ होता है ( २६६८ )।
___सामान्य विशेष वि. वि. १-२० प्रकृतियोंवाले उदयस्थान x २-२१ ३-२५ ४-२६ ५-२७
x १ + १ ६-२८
५७६ + १ + १२ ७-२९
५७६ + १ + १+१२ ८-३०
११५२
१+२४ ९-३१
orax Word
xx arxrarar x xxx
+
+
saxxx
२६०२ + ४ + ६२२६६८ देवगतिमें इक्कीस, पञ्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतियोंवाले पांच उदयस्थान होते हैं। उनमें इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान इस प्रकार है- देवगति', पंचेन्द्रियजाति', तैजस और कार्मण शरीर, वर्ण', गंध, रस, स्पर्श', देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघुक, त्रस", बादर, पर्याप्त३, स्थिर", अस्थिर, शुभ, अशुभ', सुभग, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण' इन इक्कीस प्रकृतियोंका एक उदयस्थान होता है। भंग एक है (१)।
शरीर ग्रहण करलेनेपर देवगतिमें आनुपूर्वीको छोड़कर व वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, उपघात और प्रत्येकशरीर, इन पांच प्रकृतियोंको मिलादेनेपर पच्चीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। भंग एक है (१)।
शरीरपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले देवके पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियों में परघात और
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२, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयहाणपरूवणा
[ ५९ सत्तावीसाए डाणं होदि । भंगो एक्को | १ |। आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासो पविट्ठो । ताधे अट्ठावीसाए ट्ठाणं । भंगो एको | १।। भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सुस्सरे पविढे एगुणतीसाए द्वाणं होदि । भंगो एको |१|| तं केवचिरं ? भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पढमसमयप्पहुडि जाव आउअचरिमसमओ त्ति। तस्स पमाणं जहण्णेण अंतोमुहुत्तणदसवस्ससहस्साणि, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तणतेत्तीससागरोवमाणि। एत्थ सव्वभंगसमासो पंच | ५।। चदुगदिभंगसमासो सत्तसहस्सछस्सदसत्तरिपमाणं होदि | ७६७० ।।
तम्हा णिरयगदि-तिरिक्खगदि-मणुस्सगदि-देवगदीणमुदएणेव णेरइओ तिरिक्खो
प्रशस्तविहायोगति, इन दोको मिलादेनेपर सत्ताईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। भंग एक है (१)।
___ आनप्राणपर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले देवके पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतियोंमें उच्छ्वास और प्रविष्ट हो जाता है । उस समय अट्ठाईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। भंग एक है (१)।
भाषापर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले देवके पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियोंमें सुस्वरके प्रविष्ट हो जानेपर उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है । भंग एक है (१)। .
शंका-इस उनतीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानका काल कितना है ?
समाधान--भाषापर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले देवके प्रथम समयसे लेकर आयुका अन्तिम समय आने तक इस उदयस्थानका काल है । उस कालका प्रमाण कमसे कम अन्तर्मुहूर्तसे हीन दश हजार वर्ष और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपमप्रमाण है।
देवोंके पांचों उदयस्थानोंके समस्त भंगोंका योग पांच हुआ (५)।
चारों गतियोंके उदयस्थानोंके भंगोंका योग हुआ सात हजार छह सौ सत्तर (७६७०)।
गति उदयस्थान भंग नरक तिर्यंच
३२+५४+४९०६-४९९२ मनुष्य
२६६८ देव
७६७० इस प्रकार चूंकि एक एक गतिके साथ अनेक कर्मप्रकृतियोंका उदय पाया जाता है, अतएव केवल नरकगतिके उदयसे नारकी होता है, तिर्यंचगतिके उदयसे
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६०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, १२. मणुस्सो देवो होदि त्ति ण घडदे ? विसमो उवण्णासो । कुदो ? णिरयगदिआदिचदुगदिउदयाणं व सेसकम्मोदयाणं तत्थ अविणाभावाणुवलंभादो। जिस्से पयडीए उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ त्ति णियमेण उदओ होदूग अप्पिदगई मोत्तूण अण्णत्थ उदयाभावणियमो दिस्सइ तिस्से उदएण णेरइओ तिरिक्खो मणुस्सो देवो ति णिदेसो कीरदे अण्णहा अणवट्ठाणादो।
सिद्धिगदीए सिद्धो णाम कधं भवदि ? ॥ १२॥ एत्थ वि पुव्वं व णय-णिक्खेवे अस्सिदूण चालणा कायव्वा उदयादिपंचभावे वा। खइयाए लद्धीए ॥ १३॥
कम्माणं णिम्मूलखएणुप्पण्णपरिणामोखओ णाम, तस्स लीए खइयलद्धीए सिद्धो होदि । अण्णे वि सत्त-पमेयत्तादओ तत्थ परिणामा अत्थि, तेहि किण्ण सिद्धो होदि ?
तिर्यंच, मनुष्यगतिके उदयसे मनुष्य और देवगतिके उदयसे देव यह कथन घटित नहीं होता?
समाधान~यह उपन्यास विषम है, क्योंकि, नारक आदि चार पर्यायोंके प्राप्त होनेमें जिस प्रकार नरकगति आदि चार प्रकृतियोंके उदयका क्रमशः अविनाभावी सम्बन्ध हैं वैसा शेष कर्मोंके उदयोंका वहां अधिनाभावी सम्बन्ध नहीं पाया जाता। उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लगाकर पर्यायके अन्तिम समय तक जिस प्रकृतिका नियमसे उदय होकर विवक्षित गतिके सिवाय अन्यत्र उदय न होनेका नियम पाया जाता है, उसी कर्मप्रकृतिके उदयसे नारकी, तिथंच, मनुष्य और देव होता है, ऐसा निर्देश किया गया है। अन्यथा अनवस्था उत्पन्न हो जायगी।
सिद्ध गतिमें जीव सिद्ध किस प्रकार होता है ? ॥ १२ ॥
यहां भी पूर्वानुसार नय और निक्षेपोंका आश्रय लेकर चालना करना चाहिये, अथवा उदय आदि पांच भावोंके आश्रयले चालना करना चाहिये।
क्षायिक लब्धिसे जीव सिद्ध होता है ॥ १३ ॥
कर्मों के निर्मूल क्षयसे उत्पन्न हुए परिणामको क्षय कहते हैं और उसीकी लब्धि अर्थात् क्षायिक लब्धिके द्वारा सिद्ध होता है।
शंका-सिद्ध गतिमें सत्व, प्रमेयत्व आदि अन्य परिणाम भी तो होते है, उनसे सिद्ध होता है, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
१ प्रतिबु तिस्से' इति पाठः।
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२, १, १५. ]
सामित्ताणुगमे इंदियमग्गणा
[ ६१
ण, जदि ते सिद्धत्तस्स कारणं तो सच्चे जीवा सिद्धा होज्ज, तेसिं सव्वजीवेसु संभवोवलंभा । तम्हा खड्याए लडीए सिद्धो होदि त्ति घेत्तनं ।
इंदियाणुवादेण एइंदिओ बीइंदिओ तीइंदिओ चउरिंदिओ पंचिंदिओ णाम कथं भवदि ? ॥ १४ ॥
एत्थ णामादिणिक्खेवे णेगमादिणए ओदइयादिभावे च अस्सिदूण पुच्वं व इंदियस्स चालणा कायव्वा ।
खओवसमियाए लडीए ॥ १५ ॥
free लिंगमिंदिi | इंदो जीवो, तस्स लिंग जाणावयं सूचयं जं तर्मिदियमिदि वृत्तं होदि । कधमेईदियत्तं खओवसमियं ? उच्च दे - पस्सिंदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणं संतोवसमेण देसघादिफदयाणमुदएण चक्खु-सोद-घाण - जिब्भिदियावरणाणं देसघादिफदयाणमुदयक्खण तेसिं चैव संतोवसमेण तेसिं सव्वघादिफद्दयाणमुदएण जो उप्पण्णो जीव परिणामो सो खओवसमिओ बुच्चदे | कुदो ? पुब्बुत्ताणं फक्ष्याणं खओवसमेहि
समाधान- नहीं, क्योंकि, यदि सत्व प्रमेयत्व आदि सिद्धत्वके कारण हैं, तब तो सभी जीव सिद्ध हो जायेंगे, क्योंकि, उनका अस्तित्व तो सभी जीवों में पाया जाता है । इसलिये क्षायिक लब्धिसे सिद्ध होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
इन्द्रियमार्गणानुसार एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जीव कैसे होता है ? ॥ १४ ॥
यहां पर नामादि निक्षेपों, नैगमादि नयों और औदायिकादि भावोंका आश्रय लेकर पूर्वानुसार इन्द्रियकी चालना करना चाहिये ।
क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव सिद्ध होता है ॥ १५ ॥
इन्द्रके चिह्नको इन्द्रिय कहते हैं । तात्पर्य यह कि इन्द्र जीव है और उसका जो चिह्न अर्थात् ज्ञापक या सूचक है वह है इन्द्रिय |
शंका - एकेन्द्रियत्व क्षायोपशमिक किस प्रकार होता है ?
समाधान - कहते हैं । स्पर्शेन्द्रियावरण कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके सरवोपशमसे, उसीके देशघाती स्पर्धकोंके उदयले; चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिव्हा इन्द्रियावरण कर्मोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं कर्मोंके सत्त्वोपशमसे तथा सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे जो जीवपरिणाम उत्पन्न होता है उसे क्षयोपशम कहते हैं, क्योंकि, वह भाव पूर्वोक्त स्पर्धकोंके क्षय और उपशम भावोंसे ही उत्पन्न होता है । इसी जीव
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६२) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
(२, १, १५. उप्पण्णत्तादो । तस्स जीवपरिणामस्स एइंदियमिदि सण्णा । एदेण एक्केण इंदिएण जो जाणदि पस्सदि सेवदि जीवो सो एइंदिओ णाम ।
___ सव्वघादी-देसघादित्तं णाम किं ? वुच्चदे-दुविहाणि कम्माणि घादिकम्माणि अघादिकम्माणि चेव । णाणावरण-दंसणावरण-मोहणीय-अंतराइयाणि घादिकम्माणि वेदणीय-आउ-णाम-गोदाणि अघादिकम्माणि । णाणावरणादीणं कधं घादिववदेसो ? ण, केवलणाण-दसण-सम्मत्त-चरित्त-वीरियाणमणेयभेयभिण्णाणं जीवगुणाणं विरोहित्तणेण तेर्सि घादिववदेसादो । सेसकम्माणं घादिववदेसो किण्ण होदि ? ण, तेसिं जीवगुणविणासणसत्तीए अभावा । कुदो ? ण आउअंजीवगुणविणासयं, तस्स भवधारणम्मि वावारादो । ण गोदं जीवगुणविणासयं, तस्स णीचुच्चकुलसमुप्पायणम्मि वावारादो । ण खेतपोग्गलविवाइणामकम्माई पि, तेसिं खेत्तादिसु पडिबद्धाणमण्णत्थ वावारविरोहादो ।
परिणामकी एकेन्द्रिय संशा है ।
इस एक इन्द्रियके द्वारा जो जानता है, देखता है, सेवन करता है वह जीव एकेन्द्रिय होता है।
शंका-सर्वघातित्व और देशघातित्व किसे कहते हैं ?
समाधान-कहते हैं । कर्म दो प्रकारके हैं, घातिया कर्म और अघातिया कर्म । शानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, ये चार घातिया कर्म हैं। तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, ये चार अघातिया कर्म हैं।
शंका-ज्ञानावरण आदिको घातिया कर्म क्यों नाम दिया है ?
समाधान-क्योंकि, केवल शान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र और वीर्य अर्थात् आत्माकी शक्ति रूप जो अनेक भेदोंमें भिन्न जीवगुण हैं उनके उक्त कर्म विरोधी अर्थात् घातक होते हैं और इसीलिये वे घातिया कर्म कहलाते हैं।
शंका-(जीवगुणोंके विरोधक तो शेष कर्म भी होते हैं, अतएव )शेष कर्मीको भी घातिया कर्म क्यों नहीं कहते ?
समाधान-शेष कर्मोंको घातिया नहीं कहते, क्योंकि, उनमें जीवके गुणोंका विनाश करनेकी शक्ति नहीं पाई जाती । जैसे, आयु कर्म जीवके गुणोंका विनाशक नहीं है, क्योंकि, उसका काम तो भव धारण करानेका है । गोत्र भी जीवगुणविनाशक नहीं है, क्योंकि, उसका काम नीच और उच्च कुल उत्पन्न करना है । क्षेत्रविपाकी और पुद्गलविपाकी नामकर्म भी जविगुणविनाशक नहीं हैं, क्योंकि, उनका सम्बन्ध यथायोग्य क्षेत्र और पुद्गलोंसे होनेके कारण अन्यत्र उनका व्यापार माननेमें विरोध आता है।
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२, १, १५.] सामित्ताणुगमे इंदियमग्गणा
[६३ जीवविवाइणामकम्मवेयणियाणं' धादिकम्मववएसो किण्ण होदि ? ण, जीवस्स अणप्पभूदसुभग-दुभगादिपजयसमुप्पायणे वावदाणं जीवगुणविणासयत्तविरोहादो । जीवस्स सुहं विणासिय दुक्खुप्पाययं असादवेदणीयं घादिववएस किण्ण लहदे ? ण, तस्स घादिकम्मसहायस्स घादिकम्मेहि विणा सकज्जकरणे असमत्थस्स सदो तत्थ पउत्ती पत्थि ति जाणावणहूं तव्ववएसाकरणादो। तत्थ घादीणमणुभागो दुविहो सबघादओ देसघादओ त्ति । वुत्तं च
सव्वावरणीयं पुण उक्कस्सं होदि दारुगसमाणे ॥ हेट्ठा देसावरणं सव्वावरणं च उवरिल्लं' ॥ १४ ॥
शंका-जीवविपाकी नामकर्म एवं वेदनीय कर्मोंको घातिया कर्म क्यों नहीं माना?
समाधान नहीं माना, क्योंकि, उनका काम अनात्मभूत सुभग, दुर्भग आदि जीवकी पर्यायें उत्पन्न करना है, जिससे उन्हें जीवगुणविनाशक मानने में विरोध उत्पन्न होता है।
शंका-जीवके सुखको नष्ट करके दुख उत्पन्न करनेवाले असाता वेदनीयको घातिया कर्म नाम क्यों नहीं दिया?
समाधान नहीं दिया, क्योंकि, वह घातिया कर्मीका सहायकमात्र है और घातिया कौके विना अपना कार्य करने में असमर्थ तथा उसमें प्रवृत्ति-रहित है। इसी बातको बतलानेके लिये असाता वेदनीयको घातिया कर्म नहीं कहा।
__ इन कर्मों में घातिया कर्मीका अनुभाग दो प्रकारका है- सर्वघातक और देशघातक । कहा भी है
घातिया कर्मोंकी जो अनुभागशक्ति लता, दारु, अस्थि और शैल समान कही गयी है उसमें दारुतल्यसे ऊपर अस्थि और शैल तुल्य भागोम तो उत्कृष्ट सवावरणाय शक्ति पाई जाती है, किन्तु दारुसम भागके नीचले अनन्तिम भागमें ( व उससे नीचे सब लतातुल्य भागमें ) देशावरण शक्ति है, तथा ऊपरके अनन्त बहुभागोंमें सर्वावरणशक्ति है ॥ १४ ॥
१ प्रतिषु -कम्ममयणियाणं ' इति पाठः ।
२ सत्ती य लदा-दारू-अट्ठीसेलोवमा हु घाणिं । दारुअणंतिमभागो ति देसघादी तदो सव्वं ॥ गो. क. १८०.
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६४ ]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
णाणावरणचदुक्कं दंसणतिगमंतराइगा पंच | ता होंति देघादी संजणा णोकसाया य ॥ १५ ॥
फासिंदियावरण सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतोत्रसमेण अणुदओवसमेण वा देसघादिफद्दयाणमुदएण जिम्मिदियावरणस्स सन्त्रघादिफदयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा देसघादिफदयाणमुदएण चक्खु-सोद-घाणिंदियावरणाणं देसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतोत्रसमेण अणुदओवसमेण वा सव्त्रघादिफद्दयाणमुदएण खओवसमियं जिभिदियं समुप्पज्जदि । पस्सिदियाविणाभावेण तं चैव जिभिदियं बीइंदियं ति भण्णदि बहिदियजादिणामकम्मोदयाविणाभावादो वा । तेण बेइदिएण बेईदिएहि वा जुत्ता जेण बीइंदिओ णाम तेण खओवसमियाए लडीए बीइंदिओ ति सुत्ते भणिदं ।
[ २, १, १५.
परिसदियावरणस्स सव्वघादिफदयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुद एण जिन्भा - घार्णिदियावरणाणं सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतावसमेण अणुदओवसमेण वा देसघादिफद्दयाणमुदएण चक्खु-सोदिदियाणं (देसघादि ) फदयाणं उदय
मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय, ये चार ज्ञानावरण, चक्षु, अचक्षु और अवधि, ये तीन दर्शनावरण, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, ये पांचों अन्तराय, तथा संज्वलनचतुष्क और नव नोकपाय, ये तेरह मोहनीय कर्म देशघाती होते हैं ॥ १५ ॥ स्पर्शेन्द्रियावरण के सर्वघाति स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं के सत्त्वोपशमसे अथवा अनुदयोपशम से, और देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे: जिव्हेन्द्रियावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं के सरवोपशम से अथवा अनुदयोपशमसे, और देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे; एवं चक्षु, श्रोत्र व घ्राणेन्द्रियावरणों के देशघाती स्पर्शकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं के सत्रोपशम अथवा अनुदयोपशम से और सर्वघाती स्पर्धकोंके उदय से क्षायोपशमिक जिव्हेन्द्रिय उत्पन्न होती है । स्पर्शेन्द्रियका अविनाभावी अथवा द्वीन्द्रियनामकर्मोदयका अविनाभावी होनेसे जिव्हेन्द्रियको द्वितीय इन्द्रिय कहते हैं, चूंकि उक्त द्वितीय इन्द्रियसे अथवा दो इन्द्रियोंसे युक्त होने के कारण जीव द्वीन्द्रिय होता है, इसलिये ' क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव द्वीन्द्रिय होता है ' ऐसा सूत्र में कहा गया है ।
स्पर्शेन्द्रियावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके सत्त्वोपशमसे और देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे जिव्हा और घ्राणेन्द्रियावरणोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं के सत्त्वोपशम से अथवा अनुदयोपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे; एवं चक्षु और श्रोत्रन्द्रियोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षय से उन्हीं के सत्वोपशमसे अथवा अनुदयोपशमसे
१ णाणावरणचउक्कं तिदंसणं सम्मगं च संजलणं । णव णोकसाय विग्धं छब्बीसा देसघादीओ ॥ गो. क. ४०.
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२, १, १५.]
सामित्ताणुगमे इंदियमग्गणा क्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा सव्वघादिफद्दयाणमुदएण घाणिदियमुप्पञ्जदि । तं चेव घाणिदियं पास-जिभिदियाविणाभावेण तेइंदियजादिणामकम्मोदयाविणाभावेण वा तेइंदियो णाम । तेण जुत्तो जीवो वि तेइंदियो होदि । एदेण कारणेण खओवसमियाए लद्धीए. तेइंदिओ होदि त्ति सुत्ते उत्तं ।
पस्सिदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण चक्खु-घाण-जिभिदियावरणाणं सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा देसधादिफद्दयाणमुदएण सोइंदियावरणस्स देसघादिफद्दयाणं उदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा सव्वधादिफद्दयाणमुदएण चक्खिदियं उप्पज्जदि । फास जिब्भा-घाणिदियाविणाभावेण चक्खिदियं (चरिंदियं) ति भण्णदि । तेण जुत्तो जीवो चउरिदियो । चउरिंदियजादिणामकम्मोदयाविणाभावेण वा चक्खु चउरिदियं ति वत्तव्यं । फासिंदियादिचउहि इंदिएहि जुत्तो ति वा जीवो चउरिंदिओ णाम । तेण कारणेण खओवसमियाए लद्धीए चउरिंदिओ होदि ति उत्तं ।
फासिंदियावरणस्स सव्वधादिफयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण चदुण्णमिंदियाणं सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाण
तथा सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न होती है। वही घ्राणेन्द्रिय स्पर्श
और जिह्वा इन्द्रियोंकी अविनाभावी अथवा त्रीन्द्रिय जाति नामकर्मोदयकी अविनाभावी होनेसे तृतीय इन्द्रिय कहलाती है। उस इन्द्रियसे युक्त जीव भी त्रीन्द्रिय होता है। इसी कारणसे 'क्षायोपशमिक लब्धिके द्वारा जीव त्रीन्द्रिय होता है ' ऐसा सूत्रमें कहा गया है।
स्पर्शेन्द्रियावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके सत्त्वोपशम व देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे; चक्षु, घ्राण और जिह्वा इन्द्रियावरणोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे व उन्हींके सत्त्वोपशमसे अथवा अनुदयोपशमसे एवं देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे; तथा श्रोत्रेन्द्रियावरणके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे व उन्हींके सत्त्वोपशमसे अथवा अनुदयोपशमसे एवं सर्वघाती स्पर्धकों के उदयसे चक्षु इन्द्रिय उत्पन्न होती है। स्पर्श, जिह्वा और घ्राण इन्द्रियोंकी अविनाभावी होनेसे चक्षु इन्द्रिय चतुर्थ इन्द्रिय कहलाती है । उस चक्षु इन्द्रियसे युक्त जीव चतुरिन्द्रिय होता है । अथवा, चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्मोदयकी अविनाभावी होनेसे चक्षुको चतुरिन्द्रिय कहना चाहिये । स्पर्शेन्द्रियादि चार इंन्द्रियोंसे युक्त होनेके कारण जीव चतुरिन्द्रिय कहलाता है। इसी कारण 'क्षायोपशमिक लब्धिके द्वारा जीव चतुरिन्द्रिय होता है ' ऐसा कहा गया है।
___ स्पर्शेन्द्रियावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके सत्त्वोपशम व देशघाती स्पर्धकों के उदयसे; चार इन्द्रियोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षय और उन्हींके सत्त्वोपशमसे तथा
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, १५. मुदरण जेण सोदिदियमुप्पज्जदि तेण तं खओवसमियं । सेसचउरिदियांविणाभावादो पंचिंदियजादिणामकम्मोदयात्रिणाभावादो वा तं पंचिंदियं । तेण पंचिंदिएण पंचहि इंदिएहि वा जुत्तो जीवो पंचिंदिओ णाम ।
फास-जिब्भा-घाण-चक्खु-सोदिदियावरणाणि पयडिसमुक्कित्तणाए णोवइट्टाणि, कधं तेसिमिह णिद्देसो ? ण, फासिंदियावरणादीणं मदिआवरणे अंतब्भावादो । ण च पंचिंदियखओवसमं तत्तो समुप्पण्णणाणं वा मुच्चा अण्णं मदिणाणमत्थि जेणिंदियावरणेहिंतो मदिणाणावरणं पुधभूदं होज्ज । ण च एदेहिंतो पुधभूदं णोइंदियमत्थि जेण णोइंदियणाणस्स मदिणाणत्तं होज्ज । णोइंदियावरणख ओवसमजणिदं णोइंदियमिदि तदो पुधभूदं चेव ? जदि एवं तो ण' तदो समुप्पण्णणाणं मदिणाणं, मदिणाणावरणखओवसमेणाणुप्पण्णत्तादो । तदो मदिणाणाभावेण मदिणाणावरणस्स वि अभावो होज्ज । तम्हा
देशघाती स्पर्धकों के उदयसे चूंकि श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न होती है इसीसे उसे क्षायोपशमिक कहा है। शेष चारों इन्द्रियोंकी अविनाभावी होनेसे अथवा पंचेन्द्रिय जाति नामकर्मोदयकी अविनाभावी होनेसे श्रोत्रेन्द्रिय पंचम इन्द्रिय है । उस पंचम इन्द्रियसे अथवा पांचों इन्द्रियोंसे युक्त जीव पंचेन्द्रिय होता है।
शंका-स्पर्श, जिह्वा, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियावरणोंका प्रकृतिसमुत्कीतन अधिकारमें तो उपदेश नहीं दिया गया, फिर यहां उनका कैसे निर्देश किया जाता है?
समाधान-नहीं, स्पर्शेन्द्रियादिक आवरणोंका मतिआवरणमें ही अन्तर्भाव होनेसे वहां उनके पृथक् उपदेशकी आवश्यकता नहीं समझी गई । पंचेन्द्रियोंके क्षयोपशमको वा उससे उत्पन्न हुए ज्ञानको छोड़कर अन्य कोई मतिज्ञान है ही नहीं जिससे इन्द्रियावरणोंसे मतिज्ञानावरण पृथग्भूत होवे । और न इन पांचों इद्रियोंसे पृथग्भूत नोइन्द्रिय है जिससे नोइन्द्रियज्ञानको मतिज्ञान कहा जा सके।
शंका-नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली नोइन्द्रिय उक्त पांच इन्द्रियोंसे पृथग्भूत ही है ?
समाधान--यदि ऐसा है तो उससे उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान नहीं होगा, क्योंकि वह मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे नहीं उत्पन्न हुआ । इस प्रकार मतिशानके अभावसे मतिज्ञानावरणका भी अभाव हो जायगा। इसलिये छहों इन्द्रियोंका
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१ प्रतिषु ' तेण' इति पाठः ।
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२, १, १५.] सामित्ताणुगमे इंदियमगणां
[६७ छण्णमिदियाणं खओवसमो तत्तो समुप्पण्णणाणं वा मदिणाणं, तस्सावरणं मदिणाणावरणमिदि इच्छिदव्यमण्णहा मदिआवरणस्साभावप्पसंगा।
एइंदियादीणमोदइओ भावो वत्तव्यो, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण एईयादिभावोवलंभा। जदि एवं ण इच्छिज्जदि तो सजोगि-अजोगिजिणाण पंचिंदियत्तं ण लब्भदे, खीणावरणे पंचण्हमिंदियाणं खओवसमाभावा । ण च तेसिं पंचिंदियत्ताभावो, पंचिदिएसु समुग्धादपदेण असंखेज्जेसु भागेसु सव्वलोगे वा त्ति सुत्तविरोहादो ?
एत्थ परिहारो बुच्चदे- एइंदियादीणं भावो ओदईओ होदि चेव, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण तेसिमुप्पत्तीदंसणादो। एदम्हादो चेव सजोगि-अजोगिजिणाणं पचिंदियत्तं जुज्जदि त्ति जीवट्ठाणे पि' उबवण्णं । किंतु खुदाबंधे सजोगि-अजोगिजिणाणं सुद्धणएणाणिदियाणं पंचिंदियत्तं जदि इच्छिज्जदि तो ववहारणएण वत्तव्यं । तं जहापंचसु जाईसु जाणि पडिबद्धाणि पंच इंदियाणि ताणि खओवसमियाणि त्ति काऊण उवयारेण पंच वि जादीओ खओवसमियाओ त्ति कट्ट सजोगि-अजोगिजिणाणं खओव.
क्षयोपशम अथवा उस क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ ज्ञान मतिज्ञान है और उसीका आवरण मतिज्ञानावरण होता है, ऐसा मानना चाहिये । अन्यथा मतिज्ञानावरणके अभावका प्रसंग आ जायगा।
शंका-एकेन्द्रियादिको औदयिक भाव कहना चाहिये, क्योंकि एकेन्द्रियजाति आदिक नामकर्मके उदयसे एकेन्द्रियादिक भाव पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जायगा तो सयोगी और अयोगी जिनोंके पंचेन्द्रियभाव नहीं पाया जायगा, क्योंकि, उनके आवरणके क्षीण हो जानेपर पांचों इन्द्रियोंके क्षयोपशमका भी अभाव हो गया है। और सयोगि-अयोगी जिनोंके पंचेन्द्रियत्वका अभाव होता नहीं है, क्योंकि, वैसा माननेपर "पंचेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा समुद्घात पदके द्वारा लोकके असंख्यात बहुभागोंमें अथवा सर्व लोकमें जीवों का अस्तित्व है" इस सूत्रसे विरोध आ जायगा ?
समाधान-यहां उक्त शंकाका परिहार कहते हैं। एकेन्द्रियादि जीवोंका भाव औदयिक तो होता ही है, क्योंकि, एकेन्द्रियजाति आदि नामकर्मों के उदयसे ही उनकी उत्पत्ति पायी जाती है। और इसीसे सयोगी व अयोगी जिनोंका पंचेन्द्रियत्व योग्य होता है, ऐसा जीवस्थान खंडमें भी स्वीकार किया गया है । किन्तु, इस क्षुद्रकबंध खंडमें शुद्ध नयसे अनिन्द्रिय कहे जानेवाले सयोगी और अयोगी जिनके यदि पंचेन्द्रियत्व कहना है, तो वह केवल व्यवहार नयसे ही कहा जा सकता है। वह इस प्रकार है-पांच जातियों में जो क्रमशः पांच इन्द्रियां सम्बद्ध हैं वे क्षायोपशमिक हैं ऐसा मानकर और उपचारसे पांचों जातियोंको भी क्षायोपशमिक स्वीकार करके
१ प्रतिषु ' जीवट्ठाणं पि ' इति पाठः ।
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६८ ]
छक्खडागमे खुदाबंधी
[ २, १, १६.
समियं पंचिदियत्तं जुज्जदे । अधवा खीणावरणे गड्डे वि पंचिंदियखओवसमे खओवसमजणिदाणं पंचं बज्झिदियाणमुवयारेण' लद्धखओवसमसण्णाणमत्थित्तदंसणादो सजोगिअजोगिजिणाणं पंचिदियत्तं साहेयमं ।
अणिदिओ णाम कथं भवदि ? ॥ १६ ॥
एत्थ पुव्वं व य-णिक्खेवे अस्सिदूण चालणा कायव्त्रा । खइयाए लद्धीए ॥ १७ ॥
एत्थ चोदगो भणदि - इंदियमए सरीरे विणट्ठे इंदियाणं पि णियमेण विणासो, अण्णा सरीरिंदियाणं पुत्रभाव पसंगादो | इंदिएस विणट्ठेसु णाणास्स विणासो, कारण विणा कज्जुप्पत्तीविरोहादो । णाणाभावे जीवविणासो, णाणाभावेण णिच्चेयणत्तबुत्तस्स जीवत्तविरोहादो । जीवाभावे ण खड्या लद्धी वि, परिणामिणा विणा परिणामाणमत्थित्तविरोहादोति । णेदं जुज्जदे | कुदो ? जीवो णाम णाणसहावा, अण्णहा
सयोगी और अयोगी जिनोंके क्षयोपशमिक पंचेन्द्रियत्व सिद्ध हो जाता है । अथवा, आवरण के क्षीण होने से पंचेन्द्रियों के क्षयोपशमके नष्ट हो जानेपर भी क्षयोपशम से उत्पन्न और उपचारसे क्षायोपशमिक संज्ञाको प्राप्त पांचों बाह्येन्द्रियोंका अस्तित्व पाये जाने योगी और अयोगी जिनोंके पंचेन्द्रियत्व सिद्ध कर लेना चाहिये ।
जीव अनिन्द्रिय किस प्रकार होता है १ ।। १६ ।
यहां पूर्वानुसार नयों और निक्षेपका आश्रय लेकर चालना करना चाहिये । क्षायिक लब्धिसे जीव अनिन्द्रिय होता है ।। १७ ॥
शंका- यहां शंकाकार कहता है- इन्द्रियमय शरीर के विनष्ट हो जानेपर इन्द्रियोंका भी नियमसे विनाश होता है, अन्यथा शरीर और इन्द्रियों के पृथग्भावका प्रसंग आता है । इस प्रकार इन्द्रियोंके विनष्ट हो जानेपर ज्ञानका भी विनाश हो जायगा, क्योंकि, कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । ज्ञानके अभावमें जीवका भी विनाश हो जायगा, क्योंकि, ज्ञानरहित होनेसे निश्चेतन पदार्थ के अवत्व मानने में विरोध आता है । जीवका अभाव हो जानेपर क्षायिक लब्धि भी नहीं हो सकती, क्योंकि, परिणामी के विना परिणामों का अस्तित्व माननेमें विरोध आता है । ( इस प्रकार इन्द्रियरहित जीवके क्षायिक लब्धिकी प्राप्ति सिद्ध नहीं होती ) ?
समाधान - यह शंका उपयुक्त नहीं है, क्योंकि, जीव ज्ञानस्वभावी है, नहीं तो
१ प्रतिषु ' - मुवयारे ' इति पाठः ।
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२, १, १७. ]
सामित्तागमे इंदियमग्गणा
[ ६९
जीवाभावपसंगादो | होदु चे ण, पमाणाभावे पमेयस्स वि अभावप्यसंगा । ण चेवं, ताणुवलंभादो | तम्हा णाणस्स जीवो उवायाणकारणमिदि घेत्तव्वं । तं च उवादेयं जावदव्य भावि, अण्णहा दव्वणियमाभावादो । तदो इंदियविणासे ण णाणस्स विणासो | णाणसहकारिकारणइंदियाणमभावे कथं णाणस्स अत्थित्तमिदि चे ण णाणसहाव पोग्गलदव्याणुप्पण्ण उप्पाद-व्यय-धुअतु वलक्खियजीवदव्वस्स विणासाभावा । ण च एक्कं कज्जं एक्कादो चैव कारणादो सव्वत्थ उप्पज्जदि, खइर-सिंसव-धव-धम्मणगोमय- सूरयर- सुज्जकंतेहिंतो समुष्पज्जमाणेक्कग्गिकज्जुवलंभा । ण च छदुमत्थावत्थाए णाणकारणत्तेण पडिण्णिदियाणि खीणावरणे भिण्णजादीए णाणुप्पत्तिम्हि सहकारिकारणं होंति त्ति नियमो, अइपसंगादो, अण्णहा मोक्खा भावप्यसंगा । ण च मोक्खाभावो, बंधकारणपडिवक्खतिरयणाणमुवलंभा । ण च कारणं सकज्जं सव्वत्थ ण करेदिति नियमो अत्थि, तहाणुवलंभा । तम्हा अणिदिसु करणक्कमव्यवहाणादीदं णाणमत्थि ति घेत्तव्वं । ण च तष्णिक्कारणं अप्पट्टसष्णिहाणेण तदुप्पत्तीदो । सव्वकम्माणं खएणु
जीवके अभावका प्रसंग आ जायगा । यदि कहा जाय कि हो जाने दो शानस्वभावी जीवका अभाव, तो भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रमाणके अभाव में प्रमेयके भी अभावका प्रसंग आ जायगा । और प्रमेयका अभाव है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। इससे यही ग्रहण करना चाहिये कि ज्ञानका जीव उपादान कारण है । और वह ज्ञान उपादेय है जो कि यावत् द्रव्यमात्र में रहता है, अन्यथा द्रव्यके नियमका अभाव हो जायगा । इसलिये इन्द्रियों का विनाश हो जानेपर ज्ञानका विनाश नहीं होता ।
शंका - ज्ञान के सहकारी कारणभूत इन्द्रियोंके अभाव में ज्ञानका अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ज्ञानस्वभाव और पुद्गलद्रव्य से अनुत्पन्न, तथा उत्पाद व्यय एवं धुवत्वसे उपलक्षित जीवद्रव्यका विनाश न होनेसे इन्द्रियोंके अभाव में भी ज्ञानका अस्तित्व हो सकता है। एक कार्य सर्वत्र एक ही कारण से उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि, खदिर, शीशम धौ, धम्मन, गोबर, सूर्यकिरण व सूर्यकान्त मणि, इन भिन्न भिन्न कारणोंसे एक अग्नि रूप कार्य उत्पन्न होता पाया जाता है । तथा छद्मस्थावस्थामें ज्ञान के कारण रूपसे ग्रहण की गई इन्द्रियां क्षीणावरण जीवके भिन्न जातीय ज्ञानकी उत्पत्ति में सहकारी कारण हो, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आजायगा, या अन्यथा मोक्षके अभावका ही प्रसंग आजायगा । और मोक्षका अभाव है नहीं, क्योंकि, बन्धकारणोंके प्रतिपक्षी रत्नत्रयकी प्राप्ति है। और कारण सर्वत्र अपना कार्य नहीं करेगा, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। इस कारण अनिन्द्रिय जीवोंमें करण, क्रम और व्यवधान से अतीत ज्ञान होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यह ज्ञान निष्कारण भी नहीं है, क्योंकि, आत्मा और पदार्थके सन्नि धान अर्थात् सामीप्यसे वह उत्पन्न होता है । इस प्रकार समस्त कर्मोके क्षयसे उत्पन्न
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७०) . छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२, १, १८. प्पण्णत्तादो खइयाए लद्धीए अणिदियत्तं होदि ।
कायाणुवादेण पुढविकाइओ णाम कधं भवदि ? ॥ १८ ॥
पुढविकायादो किण्णिग्गदो भूदपुचो त्ति पुढविकाइओ वुच्चदि, किं पुढविकाइयाणमहिमुहो णेगमणयावलंबणेण पुढविकाइओ बुच्चदि, किं पुढविकाइयणामकम्मोदएणेत्ति बुद्धीए काऊण कधं होदि त्ति वुत्तं ।
पुढविकाइयणामाए उदएण ॥ १९ ॥
णामपयडीसु पुढवि-आउ-तेउ-बाउ-वणप्फदिसण्णिदाओ पयडीओ ण णिहिट्ठाओ, तेण पुढविकाइयणामाए उदएण पुढविकाइओ त्ति णेदं घडदे ? ण, एइंदियजादिणामाए एदासिमंतभावादो । ण च कारणेण विणा कज्जाणमुप्पत्ती अस्थि । दीसंति च पुढविआउ-तेउ-वाउ-वणप्फदि-तसकाइयादिसु अणेगाणि कज्जाणि । तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अत्थि ति णिच्छओ काययो । जदि एवं तो भमर-महुवरसलह-पयंग-गोम्हिदगोव-संख-मकुण-णिबब-जबु-जबीर कयंवादिसण्णिदेहि वि णाम
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होने के कारण क्षायिक लब्धिके द्वारा ही जीव अनिन्द्रिय होता है ।
कायमार्गणानुसार जीव पृथिवीकायिक कैसे होते है ? ॥ १८ ॥
क्या पृथिवीकायसे निकला हुआ जीव भूतपूर्व नयसे पृथिवीकायिक कहलाता है ? या पृथिवीकायिकोंके अभिमुख हुआ जीव नैगम नयके अवलम्बनसे पृथिवीकायिक कहा जाता है ? या पृथिवीकायिक नामकर्मके उदयसे पृथिवीकायिक कहा जाता है ? ऐसी मनमें शंका करके पूछा गया है कि कैसे होता है।
पृथिवीकायिक नामकर्मके उदयसे जीव पृथिवीकायिक होता है ॥ १९ ॥
शंका-नामकर्मकी प्रकृतियोंमें पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, और वनस्पति नामकी प्रकृतियां निर्दिष्ट नहीं की गई। इसलिये 'पृथिवीकायिक नामप्रकृतिके उदयसे जीव पृथिवीकायिक होता है' यह बात घटित नहीं होती? . समाधान नहीं, क्योंकि एकेन्द्रिय जाति नामकर्मकी प्रकृतिमें उक्त सब प्रकृतियोंका अन्तर्भाव हो जाता है। कारणके विना तो कार्योंकी उत्पत्ति होती नहीं है। और पृथिवी, अप् , तेज, वायु, वनस्पति और प्रसकायिक आदि जीवों में उनकी उक्त पर्यायों रूप अनेक कार्य देखे जाते हैं। इसलिये जितने कार्य हैं उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिये।
शंका-यदि जितने कार्य हो उतने ही कारणरूप कर्म आवश्यक हो तो भ्रमर, मधुकर, शलभ, पतंग,गोम्ही, इन्द्रगोप, शंख, मत्कुण, निव, आम्र, जम्बु, जम्बीर और कदम्ब
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२, १, २४. ]
सामित्ताणुगमे कायमग्गणा
[ ७१
कमेहि होदव्यमिदि ? ण एस दोसो, इच्छिज्जमाणादो | पुढविकाइयाणं एक्कवीसाए चवीसाए पंचवीसाए छत्रीसाए सत्तवीसाए ति पंच उदयद्वाणाणि । २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । एदेसि ठाणाणं पयडीओ उच्चारिय घेत्तव्बाओ । एवमेदासु बहुसु पयडीसु उदयमागच्छमाणासु कथं पुढचिकाइयणामाए उदएण पुढविकाइओत्ति जुज्जदे ? ण, इदरपयडीणमुदयस्स साहारणत्तुवलंभादो । ण च पुढविकाइयणामकम्मोदओ तहा साहारणो, अण्णत्थेदस्साणुवलंभा ।
आउकाईओ णाम कथं भवदि ? ॥ २० ॥ आउकाइयणामाए उदएण ॥ २१ ॥
काइओ णाम कथं भवदि ? ॥ २२ ॥ ते काइयणामाए उदएण ॥ २३ ॥ वाकाओ णाम कधं भवदि ? ॥ २४ ॥
आदिक नामों वाले भी नामकर्म होना चाहिये ?
समाधान --- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यह बात तो इष्ट ही है ।
शंका- पृथिवीकायिक जीवोंके इक्कीस, चौवीस, पच्चीस, छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतियोंवाले पांच उदयस्थान होते हैं । २१ । २४ । २५ | २६ | २७ । इन पांच उदयस्थानोंकी प्रकृतियोंका उच्चारण करके ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार इन बहुत प्रकृतियोंके (एक साथ ) उदय आनेपर यह कैसे उपयुक्त हो सकता है कि पृथिवीकायिक नामप्रकृति के उदयसे जीव पृथिवीकायिक होता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि दूसरी प्रकृतियोंका उदय तो अन्य पर्यायोंके साथ भी पाया जाता है और इसलिये वह साधारण है । किन्तु पृथिवीकायिक नामकर्मका उदय उस प्रकार साधारण नहीं है, क्योंकि, अन्य पर्यायों में वह नहीं पाया जाता ।
जीव अपकायिक कैसे होता है ? ॥ २० ॥
अपकायिक नाम प्रकृतिके उदयसे जीव अपकायिक होता है ॥ २१ ॥
जीव अनिकायक कैसे होता है ? ॥ २२ ॥
अग्निकायिक नामप्रकृतिके उदयसे जीव अग्निकायिक होता है || २३ || जीव वायुकायिक कैसे होता है ! ॥ २४ ॥
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७२ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, २५. वाउकाइयणामाए उदएण ॥२५॥ वणफइकाइओ णाम कधं भवदि ? ॥ २६ ॥ वणप्फइकाइयणामाए उदएण ॥ २७ ॥
एदेसिं सुत्ताणमत्थो सुगमो । णवरि आउकाइयादीणं एक्कवीस-चउवीस-पंचवीस-छब्बीसमिदि चत्तारि उदयट्ठाणाणि । सत्तावीसाए द्वाणं णत्थि, आदावुज्जोवाणमुदयाभावा । णवरि आउ-वणप्फदिकाइयाणं सत्तावीसाए सह पंच उदयहाणाणि, आदावेण विणा तत्थ उज्जोवस्स कत्थ वि उदयदंसणादो ।
तसकाइओ णाम कधं भवदि ? ॥ २८ ॥ सुगममेदं । तसकाइयणामाए उदएण ॥ २९॥
एदं पि सुत्तं सुगमं । णवरि वीसाए एक्कवीसाए पणुवीसाए छव्वीसाए सत्तावीसाए अट्ठावीसाए एगुणतीसाए तीसाए एक्कत्तीसाए णवण्णमट्टण्णमुदयट्ठाणमिदि
वायुकायिक नामप्रकृतिके उदयसे जीव वायुकायिक होता है ॥ २५॥ जीव वनस्पतिकायिक कैसे होता है ? ॥ २६ ॥ वनस्पतिकायिक नामप्रकृतिके उदयसे जीव वनस्पतिकायिक होता है ॥ २७ ॥
इन सूत्रोंका अर्थ सुगम है । विशेषता केवल इतनी है कि अप्कायिक आदि जीवोंके इक्कीस, चौवीस, पञ्चीस और छन्वीस प्रकृतियोंवाले चार उदयस्थान हैं। उनके सत्ताईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान नहीं है, क्योंकि उनके आताप और उद्योत इन दो प्रकृतियोंके उदयका अभाव होता है। किन्तु अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंके सत्ताईस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानको मिलाकर पांच उदयस्थान होते हैं, क्योंकि, उनके आतापके विना उद्योतका कहीं कहीं उदय देखा जाता है ।
जीव त्रसकायिक कैसे होता है ? ॥ २८ ॥ यह सूत्र सुगम है। त्रसकायिक नामप्रकृतिके उदयसे जीव त्रसकायिक होता है ॥ २९॥
यह सूत्र भी सुगम है। विशेषता यह है कि त्रसकायिक जीवोंके वीस, इक्कीस, पच्चीस, छव्वीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस, नौ और आठ
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२, १,.३१.]
सामित्ताणुगमे कायमग्गणा एक्कारस उदयट्ठाणाणि होति । एदाणि जाणिदूण वत्तव्याणि ।
अकाइओ णाम कधं भवति ? ॥३०॥
छक्काइयणामाणं विणासो पत्थि, मिच्छत्तादिआसवाणं विणासाणुवलंभादो । ण चाणादित्तणेण णिच्चं मिच्छत्तं विणस्सदि, णिच्चस्स विणासविरोहादो। ण मिच्छसादिआसवो सादी, संवरेण णिम्मूलदो ओसरिदासवस्स पुणरुप्पत्तिविरोहादो । एदं सव्वं मणेण अवहारिय अकाइओ णाम कधं होदि त्ति वुत्तं ।
खड्याए लद्धीए ॥ ३१ ॥
ण च अणादित्तादो णिचो आसयो, कूडत्थाणादिं मुच्चा पवाहाणादिम्हि णिच्चत्ताणुवलंभादो । उवलंभे वा ण बीजादीणं विणासो, पवाहसरूवेण तेसिमणादित्तदसणादो। तदो णाणादित्तं साहणं, अणेयंतियादो। ण चासवो कूडत्थाणादिसहावो,
प्रकृतियोंवाले ग्यारह उदयस्थान होते हैं। इनको जानकर कहना चाहिये । (देखो ऊपर पृ. ५२)
जीव अकायिक कैसे होता है ? ॥ ३० ॥
षट्कायिक नामप्रकृतियोंका विनाश तो होता नहीं है, क्योंकि, मिथ्यात्वादिक आस्रवोंका विनाश पाया नहीं जाता । अनादित्वकी अपेक्षा नित्य मिथ्यात्व विनष्ट भी नहीं होता, क्योंकि, नित्यका विनाशके साथ विरोध है। मिथ्यात्वादिक आस्नव सादि भी नहीं है, क्योंकि, संवरके द्वारा निर्मूलतः आस्रवके दूर हो जाने पर उसकी पुनः उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । यह सब मनमें धारण करके कहा गया है कि 'जीव अकायिक कैसे होता है।
क्षायिक लब्धिसे जीव अकायिक होता है ॥ ३१ ॥
अनादि होनेसे आस्रव नित्य नहीं हो जाता, क्योंकि कूटस्थ अनादिको छोड़कर प्रवाह अनादिमें नित्यत्व नहीं पाया जाता । यदि पाया जाय तो बीजादिकका विनाश नहीं होना चाहिये, क्योंकि, प्रवाह रूपसे तो उनमें अनादित्व देखा जाता है । इसलिये अनादित्व आस्रवके नित्यत्व सिद्ध करनेमें साधन नहीं हो सकता, क्योंकि, वह अनैकान्तिक है अर्थात् पक्ष और विपक्षमें समानरूपसे पाया जाता है। और आस्रव कूटस्थ अनादि स्वभाववाला है नहीं, क्योंकि, प्रवाह-अनादि रूपसे आये हुए
१ प्रतिषु ण माणादित्तिणेण णिच्चमिच्छत्तं ' इति पाठः ।
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७४ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२,.१, ३२. मिच्छत्तासंजम-कसायासवाणं पवाहाणादिसरूवेण समागदाणं वट्टमाणकाले वि कत्थ वि जीवे विणासदसणादो।
जोगाणुवादेण मणजोगी वचिजोगी कायजोगी णाम कधं भवदि ? ॥३२॥
किमोदइओ किं खओवसमिओ किं पारिणामिओ किं खइओ किमुवसमिओ ति ? ण ताव खइओ, संसारिजीवसु सबकम्माणं उदएण वट्टमाणेसु जोगाभावप्पसंगादो, सिद्धेसु सबकम्मोदयविरहिदेसु जोगस्स अस्थित्तप्पसंगादो च । ण पारिणामिओ, खइयम्मि वुत्तासेसदोसप्पसंगादो। णोवसमिओ, ओवसमियभावेण मुक्कमिच्छाइट्ठिगुणम्मि जोगाभावप्पसंगादो । ण घादिकम्मोदयसमुत्भूदो, केवलिम्हि खीणघादिकम्मोदए जोगाभावप्पसंगादो। णाघादिकम्मोदयसमुन्भूदो, अजोगिम्हि वि जोगस्य सत्तपसंगादो। ण घादिकम्माणं खओवसमजणिदो, केवलिम्हि जोगाभावप्पसंगा । णाघादिकम्मक्खओवसमजणिदो, तत्थ सव्व-देसघादिफद्दयाभावादो खओवसमाभावा । एद सव्वं
मिथ्यात्व, असंयम और कषाय रूप आनवोंका वर्तमान कालमें भी किसी किसी जीवमें विनाश देखा जाता है।
योगमार्गणानुसार जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी कैसे होता है ? ॥ ३२॥
शंका-योग क्या औदयिक भाव है, कि क्षायोपशमिक, कि परिणामिक, कि क्षायिक, कि औपशमिक ? योग क्षायिक तो हो नहीं सकता, क्योंकि वैसा माननेसे तो सर्व कर्मोंके उदय सहित संसारी जीवोंके वर्तमान रहते हुए भी योगके अभावका प्रसंग आजायगा, तथा सर्व कर्मोदयसे रहित सिद्धोंके योगके अस्तित्वका प्रसंग आजायगा। योग पारिणामिक भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा मानने पर भी क्षायिक मानने से उत्पन्न होनेवाले समस्त दोषोंका प्रसंग आजायगा। योग औपशमिक भी नहीं है, क्योंकि, औपशमिक भावसे रहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें योगके अभाव का प्रसंग आजायगा । योग घातिकर्मोंके उदयसे उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि, सयोगिकेवलीमें घातिकौका उदय क्षीण होनेके साथ ही योगके अभावका प्रसंग आजायगा अघातिकर्मीके उदयसे उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि, वैसा माननेसे अयोगिकेवलीमें भी योगकी सत्ताका प्रसंग आजायगा। योग घातिकर्मों के क्षयोपशमसे उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि, इससे भी सयोगिकेवलीमें योगके अभावका प्रसंग आजायगा। योग अघातिकौके क्षयोपशमसे उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि, अघातिकर्मों में सर्वघाती और देशघाती दोनों प्रकारके स्पर्धकोंका अभाव होनेसे क्षयोपशमका भी अभाव है। यह सब मनमें
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२, १, ३३.] सामित्ताणुगमे जोगमग्गणा बुद्धिम्हि काऊण मण-वचि-काय जोगी कधं होदि त्ति वुत्तं ।
खओवसमियाए लद्धीए ॥ ३३॥
जोगो णाम जीवपदेसाणं परिप्फंदो संकोच-विकोचलक्खयो। सो च कमाणं उदयजणिदो, कम्मोदयविरहिदसिद्धेसु तदणुवलंभा । अजोगिकेवलिम्हि जोगाभावा जोगो ओदइओ ण होदि त्ति वोत्तुं ण जुत्तं, तत्थ सरीरणामकम्मोदयाभावा । ण च सरीरणामकम्मोदएण जायमाणो जोगो तेण विणा होदि, अइप्पसंगादो । एवमोदइयस्स जोगस्स कधं खओवसमियत्तं उच्चदे ? ण, सरीरणामकम्मोदएण सरीरपाओग्गपोग्गलेसु बहुसु संचयं गच्छमाणेसु विरियंतराइयस्स सबघादिफद्दयाणमुदयाभावेण तेसिं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदरग समुन्भवादो लद्धखओवसमववएसं विरियं वड्ढदि, तं विरियं पप्प जेण जीवपदेसाणं संकोच-विकोचो वड्ढदि तेण जोगो खओवसमिओ ति वुत्तो। विरियंतराइयखओवसमजणिदवलवड्वि-हाणीहिंतो जदि जीवपदेसपरिष्कंदस्स ववि-हाणीओ
विचार कर पूछा गया है कि जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी कैसे होता है।
क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव मनोयोगी, वचनयोगी आर काययोगी होता है ॥ ३३ ॥
शंका--जीवप्रदेशोंके संकोच और विकोच अर्थात् विस्तार रूप परिस्पंदको योग कहते हैं । यह परिस्पंद कर्मों के उदयसे उत्पन्न होता है, क्योंकि, कर्मोदयसे रहित सिद्धोके वह नहीं पाया जाता। अयोगिकेवलीमें योगके अभावसे यह कहना उचित नहीं है कि योग औदयिक नहीं होता, क्योंकि, अयोगिकेवलाके यदि योग नहीं होता तो शरीर नामकर्मका उदय भी तो नहीं होता। शरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाला योग उस कर्मोदयके विना नहीं हो सकता, क्योंकि, वैसा माननेसे अतिप्रसंग दोष उत्पन्न होगा। इस प्रकार जब योग औदयिक होता है, तो उसे क्षायोपशमिक क्यों कहते हैं ?
समाधान-ऐसा नहीं, क्योंकि जब शरीर नामकर्मके उदयसे शरीर बननेके योग्य बहुतसे पुद्गलोंका संचय होता है और वीर्यान्तराय कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावसे व उन्हीं स्पर्धकोंके सत्त्वोपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न होने के कारण क्षायोपशमिक कहलानेवाला वीर्य (बल) बढ़ता है, तब उस वीर्यको पाकर चूंकि जीवप्रदेशोंका संकोच-विकोच वड़ता है, इसीलिये योग क्षायोपशमिक कहा गया है। - शंका-यदि वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए बलकी वृद्धि और हानिसे
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छक्खडागमे खुदाबंधी
[ २, १, ३३. होंति तो खीणंतराइयम्मि सिद्धे जोगबहुतं पसज्जदे ? ण, खओवसमियबलादो खइयस्स बलस्स पुधत्तदंसणादो | ण चं खओवसमियबलवड्डि-हाणीहिंतो वड्डि-हाणीणं गच्छमाणो जीवपदेस परिष्कंदो खइयबलादो वड्डि-हाणीणं गच्छदि, अइप्पसंगादो । जदि जोगो वीरियं तराइय खओवसमजणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जदे ? ण, उवयारेण खओवस मियं भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तत्था भावविरोहादो ।
सोच जोगो त्तिविहो मणजोगो वचिजोगो कायजोगो ति । मणवग्गणादो णिष्फण्णदव्वमणमवलंबिय' जो जीवस्स संकोच - त्रिकोचो सो मणजोगो । भासावग्गणापोग्गलखंधे अवलंबिय जो जीवपदेसाणं संकोच - विकोचो सो वचिजोगो णाम । जो उहि सरीराणि अवलंबिय जीवपदेसाणं संकोच -विकोचो सो कायजोगो णाम । दो
जीवप्रदेशों के परिस्पन्दकी वृद्धि और हानि होती है, तब तो जिसके अन्तराय कर्म क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीव में योगकी बहुलताका प्रसंग आता है ?
समाधान — नहीं आता, क्योंकि क्षायोपशमिक बलसे क्षायिक बल भिन्न देखा जाता है । क्षायोपशमिक बलकी वृद्धि-हानिसे वृद्धि हानिको प्राप्त होनेवाला जीवप्रदेशोंका परिस्पन्द क्षायिक वलसे वृद्धि-हानिको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आजायगा ।
शंका- यदि योग वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, तो सयोगिकेवलमें योग अभावका प्रसंग आता है ?
समाधान - नंदीं आता, क्योंकि योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचारसे माना गया है । असल में तो योग औदयिक भाव ही है, और औदयिक योगका सयोगिकेवली में अभाव मानने में विरोध आता है ।
वह योग तीन प्रकारका है - मनोयोग, वचनयोग, और काययोग | मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्यमनके अवलम्बनसे जो जीवका संकोच -विकोच होता है वह मनोयोग है । भाषावर्गणासम्बन्धी पुद्गलस्कंधोंके अवलम्बनसे जो जीवप्रदेशोंका संकोच - विकोच होता है वह वचनयोग है । जो चतुर्विध शरीरोंके अवलम्बसे जीवप्रदेशोंका संकोच विकोच होता है वह काययोग है ।
१ प्रतिषु - दव्वमणवलंबिय' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' चन्त्रिहो ' इति पाठः ।
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२, १, ३३.]
सामित्ताणुगमे जोगमग्णणा वा तिणि वा जोगा जुगवं किण्ण होति ? ण, तेसिं णिसिद्धाकमवुत्तीदो । तेसिमक्कमेण वुत्ती वुवलंभदे चे? ण, इंदियविसयमइक्कंतजीवपदेसपरिप्फंदस्स इंदिएहि उवलंभविरोहादो। ण जीवे चलंते जीवपदेसाणं संकोच-विकोचणियमो, सिझंतपढमसमए एत्तो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसाणं संकोच-विकोचाणुवलंभा ।।
कधं मणजोगो खओवसमियो ? वुच्चदे। वीरियंतराइयस्स सव्वघादिफयाणं संतोवसमेण देसघादिफयाणमुदएण णोइंदियावरणस्स सव्यधादिफयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण मणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स जेण मणजोगो समुप्पज्जदि तेणेसो' खओवसमिओ। वीरियंतराइयस्स सव्वधादिफयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण जिभिदियावरणस्स सयघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण देसघादिफयाणमुदएण भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सरणाम
शंका-दो या तीन योग एक साथ क्यों नहीं होते ?
समाधान नहीं होते, क्योंकि, उनकी एक साथ वृत्तिका निषेध किया गया है।
शंका- अनेक योगोंकी एक साथ वृत्ति पायी तो जाती है ?
समाधान नहीं पायी जाती, क्योंकि इन्द्रियों के विषयसे परे जो जीवप्रदेशोंका परिस्पन्द होता है उसका इन्द्रियों द्वारा ज्ञान मान लेने में विरोध आता है। जीवोंके चलते समय जीवप्रदेशोंके संकोच-विकोचका नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होनेके प्रथम समयमें जब जीव यहांसे, अर्थात् मध्यलोकसे, लोकके अग्रभागको जाता है तब उसके जीवप्रदेशोंमें संकोच-विकोच नहीं पाया जाता।
शंका-मनोयोग क्षायोपशमिक कैसे है ?
समाधान बतलाते हैं । चूंकि वीर्यान्तरायकर्मके सर्वघाति स्पर्धकोंके सत्त्वोपशमसे व देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे; नोइन्द्रियावरण कर्मके सर्वघाति स्पर्धकोंके उदयक्षयसे व उन्हीं स्पर्धकोंके सत्त्योपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे मनपर्यापित पूरी करलेनेवाले जीवके मनोयोग उत्पन्न होता है, इसलिये उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं।
उसी प्रकार, वीर्यान्तरायकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके सत्योपशमसे व देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे; जिह्वेन्द्रियावरण कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे व उन्हींके सत्वोपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे भाषापर्याप्ति पूर्ण करलेनेवाले स्वर
१ कप्रतौ ' तेण सो' इति पाठः।
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७८]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, १, ३४.
कम्मोदइल्लस्स वचिजोगस्सुवलंभा खओवसमिओ वचिजोगो । वीरियंतराइयस्स सव्वघादिफदयाणं संतोवसमेण देसघादिफदयाणमुदएण कायजोगुवलंभादो खओवसमिओ कायजोगो ।
अजोगी णाम कथं भवदि ? ॥ ३४ ॥
एत्थ णय-णिक्खेवेहि अजोगित्तस्स पुव्यं व चालणा कायच्या | खइयाए लडीए || ३५ ॥
जोगकारणसरीरादिकम्माणं णिम्मूलखएणुप्पण्णत्तादो खइया लद्धी अजोगस्स । वेद dergarte इत्थवेदो पुरिसवेदो णवुंसयवेदो णाम कधं भवदि ? ।। ३६ ।।
किमोदइएण भावेण किमुवसमिएग किं खइएण किं पारिणामिएण भावेणेत्ति बुद्धीए काऊण इत्थवेदादओ कधं होदिति वृत्तं । एवंविहसंसयविणासणङ्कमुत्तरमुत्तं भणदि
नामकर्मोदय सहित जीवके वचनयोग पाया जाता है, इसीसे वचनयोग भी क्षायोपशमिक है ।
वीर्यान्तरायकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके सत्त्वोपशम से व देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे काययोग पाया जाता है, इसीसे काययोग भी क्षायोपशमिक है ।
जीव अयोगी कैसे होता है ? || ३४ ॥
यहां भी नयों और निक्षेपोंके द्वारा अयोगित्वकी पूर्ववत् चालना करना चाहिये । क्षायिक लब्धि जीव अयोगी होता है || ३५ ॥
योग के कारणभूत शरीरादिक कर्मोंके निर्मूल क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण अयोगी लब्धि क्षायिक है ।
वेदमार्गणानुसार जीव स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी कैसे होता है ? || ३६॥
क्या औदयिक भावसे, कि औपशमिक भावसे, कि क्षायिक भावसे, कि पारिणामिक भाव से जीव स्त्रीवेदी आदि होता है ? ऐसा मनमें विचार कर 'स्त्रीवेदी आदि कैसे होता है ' यह प्रश्न किया गया है । इस प्रकारके संशयका विनाश करनेके लिये आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं -
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[ ७९
२, १, ३७.]
सामित्ताणुगमे वेदमग्गणा (चरित्तमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण इत्थि-पुरिस-णqसयवेदा ॥३७ ॥
चरित्तमोहणीयस्स उदएण होति त्ति सामण्णेण वुत्ते सव्वस्स चरित्तमोहणीयस्स उदएण तिण्हं वेदाणमुप्पत्ती पसजदे । ण च एवं, विरुद्धाणं तिण्हमेक्कदो उप्पत्तिविरोहादो । तदो णेदं सुत्तं घडदि त्ति ? ण, 'सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठंत' इति न्यायात् जइवि सामण्णेण वुत्तं तो वि विसेसोवलद्धी होदि त्ति, सामण्णादो चरित्तमोहणीयादो तिण्हं विरुद्धाणमुप्पत्तिविरोहादो । तदो इत्थिवेदोदएण इत्थिवेदो, पुरिसवेदोदएण पुरिसवेदो, णqसयक्मेदएण णqसयवेदो होदि त्ति सिद्धं ।
इत्थिवेददव्बकम्मजणिदपरिणामो किमित्थिवेदो वुच्चदि णामकम्मोदयजणिदथण-जहण-जोणिविसिट्टसरीरं वा । ण ताव सरीरमेथित्थिवेदो, ' चारित्तमोहोदएण वेदाणमुप्पत्तिं परूवेमो' त्ति एदेण सुत्तेण सह विरोहादो, सरीरीणमवगदवेदत्ताभावादो वा ।
• चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे जीव स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी होता है ।। ३७ ॥
शंका-'चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे स्त्रीवेदी आदिक होते हैं' ऐसा सामान्यसे कह देनेपर समस्त चारित्रमोहनीयके उदयसे तीनों वेदोंकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, परस्पर विरोधी तीनों वेदोंकी एक ही कारणसे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । इसलिये यह सूत्र घटित नहीं होता?
___ समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, 'सामान्यतः एक रूपसे निर्दिष्ट किये गये भावोंकी आन्तरिक व्यवस्था विशेष विशेष रूपसे होती है। इस न्यायके अनुसार यद्यपि सामान्यसे वैसा कह दिया गया है, तथापि पृथक् पृथक् वेदोंकी पृथक् पृथक व्यवस्था पायी जाती है, क्योंकि, सामान्य चारित्रमोहनीयसे तीनों विरूद्ध वेदोंकी उत्पत्ति मानने में तो विरोध आता ही है। अतः स्त्रीवेदके उदयसे स्त्रीवेद उत्पन्न होता है, पुरुषवेदके उदयसे पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयसे नपुंसकवेद उत्पन्न होता है, ऐसा सिद्ध हुआ।
शंका-क्या स्त्रीवेद-द्रव्यकर्मसे उत्पन्न परिणामको स्त्रीवेद कहते हैं, या नामकर्मके उदयसे उत्पन्न स्तन, जघन, योनि आदिसे विशिष्ट शरीरको स्त्रीवेद कहते हैं ? शरीरको तो यहां स्त्रीवेद मान नहीं सकते, क्योंकि, वैसा माननेपर 'चारित्रमोहके उदयसे वेदोंकी उप्पत्तिका प्ररूपण करते हैं ' इस सूत्रसे विरोध आता है और शरीर सहित जीवोंके अपगतवेदत्वके अभावका भी प्रसंग आता है । प्रथम पक्ष भी माना नहीं
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ३८. ण पढमपक्खो, एक्कम्हि कल-कारणभावविरोहादो ? एत्थ परिहारो वुच्चदे । ण विदियपक्खो, अणभुवगमादो । ण च पढमपक्खम्मि वुत्तदोसो संभवदि, परिणामादो परिणामिणो कथंचिभेदेण एयत्ताभावादो । कुदो ? चारित्तमोहणीयस्स उदओ कारण, कर्ज पुण तदुदयविसिट्ठो इत्थिवेदसण्णिदो जीवो। तेण पजाएण तस्सुप्पजमाणत्तादो ण कारण-कजभावो एत्थ विरुज्झदे । एवं सेसवेदाणं पि वत्तव्यं । सेसा वि भावा एत्थ संभवंति, तेहि भावहि वेदाणं णिदेसो किण्ण कदो ? ण, वेदणिबंधणपरिणामस्स खओक्समियादिपरिणामाभावा वेदविसिट्ठजीवदव्वडियसेसभावाणं पि तिवेयंसाहारणाणं तद्धतुत्तविरोहादो।
अवगदवेदो णाम कधं भवदि? ॥ ३८ ॥ एत्थ णय-णिक्खेव-भावे अस्सिदण पुव्वं व चालणा कायव्वा ।
जा सकता, क्योंकि, एक ही वस्तुमें कार्य और कारण भाव स्थापित करनेमें विरोध उत्पन्न होता है?
समाधान-इस शंकाका परिहार कहते हैं । द्वितीय पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि वैसा माना ही नहीं गया है । किन्तु प्रथम पक्षमें जो दोष बतलाया गया है वह घटित नहीं होता, क्योंकि, परिणामसे पां
1. क्योकि.परिणामसे परिणामी कथंचित भिन्न होता है जिससे उनमें एकत्त्व नहीं पाया जाता । जैसे-चारित्रमोहनीयका उदय तो कारण है, और उसका कार्य है उस कर्मोदयसे विशिष्ट स्त्रीवेदी कहलानेवाला जीव । चूंकि विवक्षित कर्मोदयसे उस पर्यायसे विशिष्ट वह जीव उत्पन्न हुआ है, अतएव यहां कारण-कार्य भाव विरोधको प्राप्त नहीं होता । इसी प्रकार शेष वेदोंके विषयमें भी कहना चाहिये।
शंका-शेष क्षायोपशमिक आदि भाव भी तो यहां संभव हैं, फिर उन भावोंसे घेदोंका निर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान नहीं किया, क्योंकि, वेदमूलक परिणाममें क्षायोपशमिकादि परिणामोंका अभाव है तथा वेदविशिष्ट जीव द्रव्यमें स्थित शेष भावोंके तीनों वेदों में साधारण होनेसे उन्हें विवक्षित वेदका हेतु मानने में विरोध आता है।
जीव अपगतवेदी कैसे होता है ? ॥ ३८॥ यहां नय, निक्षेप और भावोंका आश्रय कर पूर्वके समान चालना करना चाहिये।
१ कप्रतौ 'तिवेद' इति पाठः । २ प्रतिषु — तद्धेवुत्तविरोहादो' मप्रतौ । तद्देववृत्तिविरोहादो ' इति पाठः ।
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२, १, ३९.] सामित्ताणुगमे वेदमग्गणा
[८१ उवसमियाए खइयाए लद्धीए ॥ ३९ ॥
अप्पिदवेदोदएण उवसमसेडिं चढिय मोहणीयस्स अंतरं करिय जहाजोग्गट्ठाणम्मि अप्पिदवेदस्स उदय-उदीरणा-ओकट्टकट्टण-परपयडिसंकम-ट्ठिदि-अणुभागखंडएहि विणा जीवम्मि पोग्गलखंधाणमच्छणमुवसमो । तत्थ जा जीवस्स वेदाभावसरूवा लद्धी तीए अवगदवेदो जेण होदि तेण उपसमियाए लद्धीए अवगदवेदो होदि त्ति वुत्तं । अप्पिदवेदोदएण खवगसेडिं चढिय अंतरकरणं करिय जहाजोगट्ठाणे अप्पिदवेदस्स पोग्गलखंधाणं द्विदि-अणुभागेहि सह जीवपदेसेहितो णिस्सेसोसरणं खओ णाम । तत्थुप्पण्णजीवपरिणामो खइओ, तस्स लद्धी खइया लद्धी, तीए खइयाए लद्धीए वा अवगदवेदो होदि ।
वेदाभाव-लद्धीणं एक्ककालम्मि चेव उप्पज्जमाणीणं कधमाहाराहेयभावो, कज-कारणभावो वा ? ण, समकालेणुप्पज्जमाणच्छायंकुराणं कज्ज-कारणभावदंसणादो, घडुप्पत्तीए कुमूलाभावदसणादो च । होदु णाम तिवेददव्यकम्मक्खएण भाववेदाभावो,
औपशमिक व क्षायिक लब्धिसे जीव अपगतवेदी होता है ॥ ३९ ॥
विवक्षित वेदके उदय सहित उपशमश्रेणीको चढ़कर, मोहनीय कर्मका अन्तर करके, यथायोग्य स्थानमें विवक्षित वेदके उदय, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण, परप्रकृतिसंक्रम, स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकके विना जीवमें जो पुद्गलस्कंधोंका अवस्थान होता है उसे उपशम कहते हैं। उस समय जो जीवकी वेदके अभाव रूप लब्धि है उसीसे जीव अपगतवेदी होता है और इसीसे यह कहा गया है कि उपशमलब्धिसे जीव अपगतवेदी होता है। .
अथवा-विवक्षित वेदके उदयसे क्षपकश्रेणीको चढ़कर, अन्तरकरण करके, यथायोग्य स्थानमें विवक्षित वेदसम्बन्धी पुदलस्कंधोंके स्थिति और अनुभाग सहित जीवप्रदेशोंसे निःशेषतः दूर हो जानेको क्षय कहते हैं। उस अवस्थामें जो जीवका परिणाम होता है वह क्षायिक भाव है। उसी भावकी लब्धिको क्षायिक लब्धि कहते हैं। उस क्षायिक लब्धिसे अपगतवेदी होता है।
शंका-वेदका अभाव और उस अभाव सम्बन्धी लब्धि ये दोनों जब एक ही कालमें उत्पन्न होते हैं, तब उनमें आधार-आधेयभाव या कार्यकारणभाव कैसे बन सकता है ?
समाधान-बन सकता है, क्योंकि, समान कालमें उत्पन्न होनेवाले छाया और अंकुरमें कार्य-कारणभाव देखा जाता है, तथा घटकी उत्पत्तिके कालमें ही कुशूलका अभाव देखा जाता है।
शंका-तीनों वेदोंके द्रव्यकर्मोंके क्षयसे भाववेदका अभाव भले ही हो,
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८२]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ४०. कारणाभावादो कज्जाभावस्स' णाइयत्तादो। किंतु उवसमसेडिम्हि संतेसु दबकम्मक्खंधेसु भाववेदाभावो ण घडदे, संते कारणे कज्जाभावविरोहादो? ण, ओसहाणं दिसत्तीणं सामजीवे पवुत्ताणं आमेण पडिहयसत्तीणं सकज्जकरणाणुवलंभादो ।
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई णाम कधं भवदि ? ॥ ४०॥
कोधो दुविहो दव्वकोधो भावकोधो चेदि । दव्यकोधो णाम भावकोधुप्पत्तिणिमित्तदव्वं । तं दुविहं कम्मदव्यं णोकम्मदवं चेदि । जं तं कम्मदव्वं तं तिविहं बंधुदय-संतभेएण । जं तं कोहणिमित्तणोकम्मदव्वं णेगमणयाहिप्पाएण लद्धकोहववएसं तं दुविहं सचित्तमचित्तं चेदि । एदे कोधकसाया जस्स अस्थि सो कोधकसाई । एत्थ अप्पिदकोधकसाई कधं भवदि केण पयारेण होदि त्ति पुच्छा कदा । एवं सेसकसायाणं
क्योंकि, कारणके अभावसे कार्यका अभाव मानना न्यायसंगत है । किन्तु उपशमश्रेणीमें त्रिवेद सम्बन्धी पुद्गलद्रव्यस्कंधोंके रहते हुए भाववेदका अभाव घटित नहीं होता, क्योंकि, कारणके सद्भावमें कार्यका अभाव मानने में विरोध आता है ?
समाधान-विरोध नहीं आता, क्योंकि, जिनकी शक्ति देखी जा चुकी है ऐसी औषधियां जब किसी आमरोग सहित अर्थात् अजीर्णके रोगी जीवको दी जाती हैं, तब उस अजीर्ण रोगसे उन औषधियोंकी वह शक्ति प्रतिहत हो जाती है और वे अपने कार्य करनेमें असमर्थ पायी जाती हैं।
कषायमार्गणानुसार जीव क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी कैसे होता है ? ॥ ४०॥
क्रोध दो प्रकारका है- द्रव्यक्रोध और भावक्रोध । भावक्रोधकी उत्पत्तिके निमित्तभूत द्रव्यको द्रव्यक्रोध कहते हैं। वह द्रव्यक्रोध दो प्रकारका है- कर्मद्रव्य और नोकर्मद्रव्य । कर्मद्रव्य बंध, उदय और सत्त्वके भेदसे तीन प्रकारका है । क्रोधके निमित्तभूत जिस नोकर्मद्रव्यने नैगम नयके अभिप्रायसे क्रोध संज्ञा प्राप्त की है वह दो प्रकारका है- सचित्त और अचित्त । ये सब क्रोधकषाय जिस जीवके होते हैं वह क्रोधकषायी है। प्रस्तुत सूत्रमें यह बात पूछी गयी है कि विवक्षित क्रोधकषायी कैसे अर्थात् किस प्रकारसे होता है । इसी प्रकार शेष कषायोंका भी कथन करना चाहिये । अविवक्षित
१ प्रतिषु ' कज्जाभावस्स वि ' इति पाठः । मप्रतौ तु 'वि ' इति पाठः नास्ति । २ प्रतिषु 'सकज्जकारणाणुवलंभादो' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'कोसाणिमित्त-' इति पाठः ।
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१, १, ४३.]
सामित्ताणुगने कसायमग्गेणा पि वत्तव्वं । अणप्पिदकसाए णिवारिय अप्पिदकसायजाणावणमुत्तरसुत्तमागदं
चरित्तमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण ॥ ४१ ॥
सामण्णेण णिदेसे कदे वि एत्थ विसेसोवलद्धी होदि, 'सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते' इति न्यायात् । तेण कोधकसायस्स उदएण कोधकसाई, माणकसायस्स उदएण माणकसाई, मायाकसायस्स उदएण मायकसाई, लोभकसायस्स उदएण लोभकसाइ त्ति सिद्धं ।
अकसाई णाम कधं भवदि ? ॥ ४२ ॥
पुव्वुत्तकसायाणं कस्स अभावेण अकसाई होदि त्ति पुच्छा कदा होदि । अप्पिदअकसाइगहणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
उवसमियाए खड्याए लद्धीए ॥ ४३ ॥
चरित्तमोहणीयस्स उवसमेण खएण च जा उप्पण्णलद्धी तीए अकसायत्तं होदि, ण सेसकम्माणं खएणुवसमेण वा, तत्तो जीवस्स उवसमिय-खइयलद्धीणमणुप्पत्तीदो।
कषायोंको छोड़ विवक्षित कषायों का ज्ञान करानेके लिये अगला सूत्र आया है
चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे जीव क्रोध आदि कषायी होता है ॥४१॥
सामान्यसे निर्देश किये जानेपर भी यहां विशेष व्यवस्था समझमें आजाती है क्योंकि 'सामान्य निर्देश विशेषों में भी घटित होते हैं' ऐसा न्याय है । अतः क्रोधकषायके उदयसे क्रोधकषायी, मानकषायके उदयसे मानकषायी, मायाकषायके उदयसे मायाकषायी और लोभकषायके उदयसे लोभकषायी होता है, यह बात सिद्ध हो जाती है।
जीव अकषायी कैसे होता है ? ॥ ४२ ॥
'पूर्वोक्त कषायोंमेंसे किस कषायके अभावसे जीव अकषायी होता है' यह बात यहां पूछी गयी है। विवक्षित अकषायीके ग्रहण करानेके लिये अगला सूत्र कहते हैं
औपशमिक व क्षायिक लब्धिसे जीव अकषायी होता है ॥ ४३ ॥
चारित्रमोहनीयके उपशमसे और क्षयसे जो लब्धि उत्पन्न होती है उसीसे अकषायत्व उत्पन्न होता है । शेष कौके क्षय व उपशमसे अकषायत्व उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि उससे जीवके (तत्प्रायोग्य) औपशमिक या क्षायिक लब्धियां उत्पन्न नहीं होती।
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प्रतिषु 'सेसकसायाणं ' इति पाठः।
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८४] .. छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ४४. णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणी आभिणिबोहियणाणी सुदणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी णाम कधं भवदि ? ॥४४॥ .
तत्थ ताव मदिअण्णाणस्स उच्चदे- मदिअण्णाणकारणं दुविहं दव्वकारणं भावकारणं चेदि । तत्थ दबकारणं मदिअण्णाणणिमित्तदव्यं । तं दुविहं कम्म-णोकम्मभेएण । कम्मं तिविहं बंधुदय-संतमिदि, ओग्गहावरणादिभेएण अणेयविहं वा । णोकम्मदव्वं तिविहं सचित्त-अचित्त-मिस्समिदि । एदेसिं दव्याणं जा मदिअण्णाणुप्पायणसत्ती तं जाव कारणं । एदेहितो उप्पण्णमदिअण्णाणी सो कधं भवदि केण पयारेण होदि त्ति वुत्तं होदि । एवं सेसणाणाणं पि वत्तव्यं ।
___एत्थ चोदओ भणदि- अण्णाणमिदि वुत्ते किं णाणस्स अभावो घेप्पदि आहो ण घेप्पदि त्ति ? णाइल्लो पक्खो मदिणाणाभावे मदिपुलं सुदमिदि कट्ट सुदणाणस्स वि अभावप्पसंगादो । ण चेदं पि, ताणमभावे सबणाणाणमभावप्पसंगा । णाणाभावे ण
ज्ञानमार्गणानुसार जीव मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, आमिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी किस प्रकार होता है ? ॥४४॥
इनमेसे प्रथम मतिअज्ञानका कथन करते हैं- मत्यज्ञानका कारण दो प्रकारका है -द्रव्यकारण और भावकारण । उनमेंसे द्रव्यकारण मतिअज्ञानका निमित्तभूत द्रव्य है.जो कर्म और नोकर्मके भेदसे दो प्रकारका है। कर्मद्रव्यकारण तीन प्रकारका हैबन्धकर्मद्रव्य, उदयकर्मद्रब्य और सत्त्वकर्मद्रव्य । अथवा, यह कर्मद्रव्य अवग्रहावरण आदि भेदसे अनेक प्रकारका है। नोकर्मद्रव्य तीन प्रकारका है- सचित्त नोकर्मद्रव्य, अचित्त नोकर्मद्रव्य और मिश्र नोकर्मद्रव्य । इन द्रव्योंकी जो मतिअज्ञानको उत्पन्न करनेवाली शक्ति है वही मतिअज्ञानकी कारणभूत है। इन सब कारणोंसे जो मतिअज्ञानी होता है वह कैसे अर्थात् किस प्रकारसे होता है, यह अर्थ कहा गया है। इसी प्रकार शेष ज्ञानोंके विषयमें भी कहना चाहिये।
शंका-यहां शंकाकार कहता है कि अज्ञान कहने पर क्या ज्ञानका अभाव ग्रहण किया है या नहीं किया? प्रथम पक्ष तो बन नहीं सकता, क्योंकि मतिज्ञानका अभाव माननेपर चूंकि ‘मतिपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है' इसलिये श्रुतज्ञानके भी अभावका प्रसंग आजायगा। और ऐसा भी माना जा सकता नहीं है, क्योंकि, मति और श्रुत दोनों शानों के अभाव में सभी ज्ञानोंके अभावका प्रसंग आजाता है। ज्ञानके अभावमें
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२, १, ४४.] सामित्ताणुगमे णाणमग्गणा
। ८५ दसणं पि, दोण्णमण्णोण्णाविणाभावादो। णाण-दसणाणमभावे ण जीवो वि, तस्स तल्लक्खणत्तादो त्ति । ण विदियपक्खो वि, पडिसेहस्स फलाभावप्पसंगादो त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे- ण पढमपक्खवुत्तदोससं भवो, पसज्जपडिसेहेण एत्थ पओजणाभावा । ण विदियपक्खुत्तदोसो वि, अप्पेहितो' वदिरित्तासेसदव्येसु सविहिवहसंठिएसु पडिसेहस्स फलभावुवलंभादो । किमढे पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे, विहि-पडिसेहभावेण दोण्हं णाणाणं विसेसाभावा ? ण परदो वदिरित्तभावसामण्णमवेक्खिय एत्थ पडिसेहो कदो जेण सम्माइट्ठिणाणस्स वि पडिसेहो होज्ज, किंतु अप्पणो अवगयत्थे जम्हि जीवे सद्दहणं ण वुप्पज्जदि अवगयत्थविवरीयसद्धप्पायणमिच्छत्तुदयबलेण तत्थ जं
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दर्शन भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ज्ञान और दर्शन इन दोनोंका परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध है । तथा ज्ञान और दर्शनके अभावमें जीव भी नहीं रहता, क्योंकि, जीवका तो ज्ञान और दर्शन ही लक्षण है। दूसरा पक्ष भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि, यदि अज्ञान कहनेपर ज्ञानका अभाव न माना जाय तो फिर प्रतिषेधके फलाभावका प्रसंग आजाता है ?
समाधान-इस शंकाका परिहार कहते हैं- प्रथम पक्षमें कहे गये दोषकी प्रस्तुतमें संभावना नहीं है, क्योंकि यहांपर प्रसज्यप्रतिषेध अर्थात् अभावमात्रसे प्रयोजन नहीं है। दूसरे पक्षमें कहा गया दोष भी नहीं आता, क्योंकि, यहां जो अज्ञान शब्दसे शानका प्रतिषेध किया गया है उसकी आत्माको छोड़ अन्य समीपवर्ती प्रदेशमें स्थित समस्त द्रव्योंमें स्व पर विवेकके अभाव रूप सफलता पायी जाती है। अर्थात् स्व-पर विवेकसे रहित जो पदार्थ ज्ञान होता है उसे ही यहां अज्ञान कहा है। .
शंका-तो यहां सम्यग्दृष्टिके ज्ञान का भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय, क्योंकि, विधि और प्रतिषेध भावसे मिथ्यादृष्टिज्ञान और सम्यग्दृष्टिज्ञानमें कोई विशेषता नहीं है ?
समाधान-- यहां अन्य पदार्थों में परत्वबुद्धिके अतिरिक्त भावसामान्यकी अपेक्षा प्रतिषेध नहीं किया गया जिससे सम्यग्दृष्टिज्ञानका भी प्रतिषेध होजाय। किन्तु शात वस्तुमें विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करानेवाले मिथ्यात्वोदयके बलसे जहांपर जीवमें अपने जाने हुए
१ प्रतिषु ' अण्णेहिंतो' इति पाठः । २ प्रतिषु ' -विवरीयसदुप्पायण- ' इति पाठः ।
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८५]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधी
[२, १, ४५. गाणं तमण्णाणमिदि भण्णइ, णाणफलाभावादो । घड पडत्थंभादिसु मिच्छाइट्ठीणं जहावगमं सद्दहणमुवलम्भदे चे? ण, तत्थ वि तस्स अणज्झवसायदंसणादो । ण चेदमसिद्धं 'इदमेवं चेवेत्ति' णिच्छयाभावा । अधवा जहा दिसामूढो वण्ण-गंध रस-फासजहावगमं सद्दहतो वि अण्णाणी बुच्चदे जहावगमदिससदहणाभावादो, एवं थंभादिपयत्थे जहावगमं सहहंतो वि अण्णाणी वुच्चदे जिणवयणेण सदहणाभावादो।
खओवसमियाए लद्धीए ॥४५॥
कधं मदिअण्णाणिस्स खओवसमिया लद्धी ? मदिअण्णाणावरणस्स देशघादिफहयाणमुदएण मदिअण्णाणित्तुवलंभादो। जदि देसघादिफदयाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स ओदइयत्तं पसज्जदे ? ण, सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावा । कधं पुण खओव
पदार्थमें श्रद्धान नहीं उत्पन्न होता, वहां जो ज्ञान होता है वह अज्ञान कहलाता है, क्योंकि, उसमें ज्ञानका फल नहीं पाया जाता।
शंका-घट, पट, स्तंभ आदि पदार्थों में मिथ्यादृष्टियोंके भी यथार्थ ज्ञान और श्रद्धान पाया तो जाता है ?
समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि, उनके उस शानमें भी अनध्यवसाय अर्थात् अनिश्चय देखा जाता है। यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, 'यह ऐसा ही है' ऐसे निश्चयका वहां अभाव होता है।
___ अथवा, यथार्थ दिशाके सम्बन्ध विमूढ जीव वर्ण, गंध, रस और स्पर्श, इन इन्द्रिय-विषयोंके ज्ञानानुसार श्रद्धान करता हुआ भी अज्ञानी कहलाता है, क्योंकि, उसके यथार्थ ज्ञानकी दिशामें श्रद्धानका अभाव है। इसी प्रकार स्तंभादि पदार्थों में यथाशान श्रद्धा रखता हुआ भी जीव जिन भगवान्के वचनानुसार श्रद्धानके अभावसे अशानी ही कहलाता है।
क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव मतिअज्ञानी आदि होता है ॥ ४५ ॥ शंका-मतिअज्ञानी जीवके क्षायोपशमिक लब्धि कैसे मानी जा सकती है ?
समाधान-क्योंकि, उस जीवके मत्यज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे मत्यज्ञानित्व पाया जाता है।
शंका-यदि देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे अशानित्व होता है तो अक्षानित्वको मौदयिक भाव माननेका प्रसंग आता है ?
समाधान-नहीं आता, क्योंकि वहां सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका अभाव है ? शंका-तो फिर अशानित्वमें क्षायोपशमिकत्व क्या है ?
प्रतिषु घडपडत्थंआदिसु ' इति पाठः ।
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२, १,४५. ]
सामित्ताणुगमे णाणमग्गणा
[ ८७
समियतं ? आवरणे संते वि आवरणिज्जस्स णाणस्स एगदेसो जम्हि उदए उबलब्भदे तस्स भावस्स खओवसमववएसादो खओवसमियत्तमण्णाणस्स ण विरुज्झदे | अधवा णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एगदेसक्खओ, तस्स खओवसमसण्णा । तत्थ णाणमण्णाणं वा उप्पज्जदि ति खओवसमिया लद्धी बुच्चदे |
एवं सुदअण्णाण विभंगणाण- आभिणिबोहियणाण-सुद-ओहि मणपज्जवणाणाणं पि खओवसमिओ भावो वत्तव्वो । णवरि अष्पष्पणो आवरणाणं देसघादिफद्दयाणमुदण खओवसमिया लद्धी होदि त्ति वत्तव्यं । सत्तण्हं णाणाणं सत्त चेव आवरणाणि किण्ण होदिति चे १ण, पंचणाणवदिरित्तणाणाणुवलंभा । मदिअण्णाण - सुदअण्णाण विभंगणाणाणमभावो वि णत्थि, जहाकमेण आभिणिबोहिय-सुद-ओधिणाणेसु तेसिमंतभावादो ।
पुव्वमिंदिय-जोगमग्गणासु खओवस मियभावपरूवणाए सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खण तेसिं चैव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुद एणेत्ति परूविदं । संपहि दोन्हं पडिसेहं काण देसघादिफद्दयाणमुदपणेव खओवसमियभावो होदि त्ति परूवेंतस्स सुववयण
1
समाधान-आवरणके होते हुए भी आवरणीय ज्ञानका एक देश जहांपर उदयमें पाया जाता है उसी भावको क्षायोपशमिक नाम दिया गया है। इससे अज्ञानको क्षायोपशमिक भाव माननेंमे कोई विरोध नहीं आता । अथवा, ज्ञानके विनाशका नाम क्षय है । उस क्षयका उपशम हुआ एक देश क्षय । इस प्रकार ज्ञानके एकदेशीय क्षयकी क्षयोपशम संज्ञा मानी जा सकती है। ऐसा क्षयोपशम होनेपर जो ज्ञान या अज्ञान उत्पन्न होता है उसीको क्षायोपशमिक लब्धि कहते हैं ।
इसी प्रकार श्रुताज्ञान, विभंगज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानको भी क्षायोपशमिक भाव कहना चाहिये । विशेषता केवल यह है कि इन सब ज्ञानोंमें अपने अपने आवरणोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे क्षायोपशमिक लब्धि होती है, ऐसा कहना चाहिये ।
शंका- इन सातों शानोंके सात ही आवरण क्यों नही होते ?
समाधान - नहीं होते, क्योंकि, पांच ज्ञानोंके अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञान पाये नहीं जाते । किन्तु इससे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञानका अभाव नहीं हो जाता, क्योंकि, उनका यथाक्रमसे आभिनिबोधिकशान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानमें अन्तर्भाव होता है।
शंका- पहले इन्द्रियमार्गणा और योगमार्गणा में सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षय से, उन्हीं स्पर्धकोंके सत्त्वोपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे क्षायोपशमिक भावकी प्ररूपणा की गयी है । किन्तु यहांपर सर्वघाती स्पर्ध कोंके उदयक्षय और उनके सत्त्वोपशम इन दोनों का प्रतिषेध करके केवल देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे क्षायोपशमिक भाव होता
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८८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ४६. विरोहो किण्ण जायदे? ण, जदि सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण संजुत्तदेसघादिफयाणमुदएणेव खओवसमियो भावो इच्छिज्जदि तो फासिदिय-कायजोगो-मदि-सुदणाणाणं खओवसमिओ भावो ण पावदे, पासिंदियावरण-वीरियंतराइय-मदि-सुदणाणावरणाणं सम्वघादिफद्दयाणं सव्यकालमुदयाभावा । ण च सुववयणविरोहो वि, इंदिय-जोगमग्गणासु अण्णेसिमाइरियाणं वक्खाणक्कमजाणावणटुं तत्थ तधापरूवणादो । जं जदो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कज्जमियरं च कारणं । ण च देसघादिफद्दयाणमुदओ व्ध सव्वधादिफद्दयाणमुदयक्खओ णियमेण अप्पप्पणो णाणजणओ, खीणकसायचरिमसमए ओहिमणपज्जवणाणावरणसव्वधादिफहयाणं खएण समुप्पज्जमाणओहि-मणपज्जवणाणाणमणुवलंभादो।
केवलणाणी णाम कधं भवदि ? ॥ ४६॥ किमोदइएणोवसमिएण खओवसमिएण पारिणामिएणेत्ति' ? ण पारिणामिएण
है ऐसा प्ररूपण करनेवालेके स्ववचनविरोध दोष क्यों नहीं होता?
समाधान नहीं होता, क्योंकि यदि सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे संयुक्त देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे ही क्षायोपशमिक भाव मानना इष्ट हो तो स्पर्शेन्द्रिय, काययोग और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान, इनके क्षायोपशमिक भाव प्राप्त नहीं होगा, चूंकि, स्पर्शेन्द्रियावरण, वीर्यान्तराय और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके आवरणोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका सब कालमें अभाव है। अर्थात् उक्त आवरणोंके सर्वघाती स्पर्धकोंका उदय कभी होता ही नहीं है । इसमें कोई स्ववचन विरोध भी नहीं है क्योंकि इन्द्रियमार्गणा और योगमार्गणामें अन्य आचार्योंके व्याख्यानक्रमका ज्ञान लिये वहां वैसा प्ररूपण किया गया है । जो जिससे नियमतः उत्पन्न होता है वह उसका कार्य होता है और वह दूसरा उसको उत्पन्न करने वाला कारण होता है। किन्तु देशघाती स्पर्धकोंके उदयके समान सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय नियमसे अपने अपने ज्ञानके उत्पादक नहीं होते, क्योंकि, क्षीणकषायके अन्तिम समयमें अवधि और मनःपर्यय शानावरणोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके क्षयसे अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होते हुए नहीं पाये जाते।
जीव केवलज्ञानी कैसे होता है ? ॥ ४६॥
क्या औदयिक भावसे, कि औपशमिक भावसे, कि क्षायोपशमिक भावसे, कि पारिणामिक भावसे जीव केवलज्ञानी होता है ? पारिणामिक भावसे तो होता नहीं,
. १ प्रतिषु ' पारिणामिणो त्ति ' इति पाठः ।
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२, १, ४६. ] सामित्ताणुगमे णाणमग्गणा
[८९ भावेण होदि, सव्वजीवाणं केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो। णोदइएण, केवलणाणपडिबंधिकम्मोदयस्स तदुप्पायणविरोहादो । णोवसमियं, णाणावरणस्स मोहणीयस्सेवुवसमाभावा । ण खओवसमियं, असहायस्स करण-क्कम-व्यवहाणादीदस्स खओवसमियत्तविरोहादो । सव्वं पि णाणं केवलणाणमेव आवरणविगमवसेण तत्तो विणिग्गयणाणकणाणमुवलंभादो । ण च एसो णाणकणो केवलणाणादो अण्णो, जीवे पंचण्हं णाणाणमभावादो । तेसिमभावो कुदोवगम्मदे ? केवलणाणेण तिकालगोयरासेसदव्व-पज्जयविसएणाक्कमेण इंदियालोआदिसहेज्जाणवेक्खेण सुहुम-दूर-समिवादिविग्घसंघुम्मुक्केणक्कंतासेसजीवपदेसेसु सक्कम-ससहेज्ज-सपडिवक्ख-परिमिय-अविसदणाणाणमत्थित्तविरोहादो । किं च ण केवलणाणेण अवगयत्थे सेसणाणाणं पवुत्ती, विसदाविसदाणमेक्कत्थेक्ककालम्मि पवुत्तीविरोहादो, अवगदावगमे फलाभावादो च । णाणवगदे वि पवुत्ती तदणवगदत्थाभावादो। तदो
क्योंकि, यदि ऐसा होता तो सभी जीवोंके केवलज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग आजाता। औदयिक भावसे भी केवलज्ञान नहीं होता, क्योंकि, केवलज्ञानके प्रतिबंधक कर्मोदयसे उसकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। केवलज्ञान औपशमिक भी नहीं है, क्योंकि, मोहनीयके समान ज्ञानावरणका तो उपशम ही नहीं होता।
केवलज्ञान क्षायोपशामिक भी नहीं है, क्योंकि असहाय और करण, क्रम एवं व्यवधानसे रहित ज्ञानको क्षायोपशमिक मानने में विरोध आता है। यहां शंका होती है कि समस्त ज्ञान केवलज्ञान ही हैं, क्योंकि, आवरणके दूर हो जानेसे उसीसे निकलने वाले ज्ञानकण पाये जाते हैं। यह ज्ञानकण केवलज्ञानसे भिन्न नहीं हैं, क्योंकि, जीवमें पांच ज्ञानोंका अभाव पाया जाता है। यदि कहा जाय कि जीवमें पांच शानोंका अभाव है, यह कहांसे जाना जाता है ? तो इसका समाधान है कि केवलज्ञान होता है त्रिकालगोचर, समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायोंको विषय करनेवाला, अक्रममावी, इन्द्रियालोकादि साधनोंसे निरपेक्ष, और सूक्ष्म, दूर, समीप (?) आदि विघ्न समूहसे मुक्त । ऐसे केवलज्ञानसे जीवके जो समस्त प्रदेश व्याप्त हैं उनमें क्रसभात्री, साधनसापेक्ष, सप्रतिपक्ष, परिमित और अविशद मति आदि शालोंका अस्तित्त्व माननेमें विरोध आता है ? और केवलज्ञानसे पदार्थों के जान लेनेपर शेषज्ञानोंकी प्रवृत्ति भी नहीं होती, क्योंकि, विशद और अविशद ज्ञानोंकी एकत्र एक कालमें प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है और जाने हुए पदार्थको पुनः जानने में कोई फल भी नहीं है। मति आदि शानोंकी प्रवृत्ति केवलज्ञानसे न जाने हुए पदार्थों में होती है, ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि, केवलज्ञानसे न जाना
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९०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ४७. जीवे ण पंच णाणाणि, केवलणाणमेक्कं चेव । ण चावरणाणि णाणमुप्पाइयंति विणासयाणं तदुप्पायणविरोहादो। तदो केवलणाणं खओवसामियं भावं लहदि त्ति ण, एदस्स सस. हेजस्स केवलत्तविरोहादो। ण च छारेणोद्धग्गिविणिग्गयबफाए अग्गिववएसो आग्गिबुद्धी वा अग्गिववहारो वा अत्थि, अणुवलंभादो । तदो दाणि णाणाणि केवलणाणं । तेण कारणेण केवलणाणं ण खओवसमियामिदि । ण खइयं पि, खओ णाम अभावो तस्स कारणत्तविरोहादो । एदं सव्वं बुद्धीए काऊण केवलणाणी कधं होदि ति भणिदं ।
खइयाए लद्धीए ॥४७॥
ण च केवलणाणावरणक्खओ तुच्छो त्ति ण कज्जयरो, केवलणाणावरणबंध-संतोदयाभावस्स अणंतवीरिय-वेरग्ग-सम्मत्त-दसणादिगुणेहि जुत्तजीवदव्यस्स तुच्छत्तविरोहादो। भावस्स अभावत्तं ण विरुज्झदे, भावाभावाणमष्णोणं विस्ससेणेव सव्यप्पणा आलिंगिऊण
गया हो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है। इसलिये जीवमें पांच शान नहीं होते, एकमात्र केवलज्ञान ही होता है ?
आवरणोंको ज्ञानका उत्पादक मान नहीं सकते, क्योंकि, जो विनाशक हैं उन्हें उत्पादक मानने में विरोध आता है। इसलिये 'केवलज्ञान क्षायोपशामक भाव ही प्राप्त होता है' ऐसा भी नहीं मान सकते, क्योंकि, क्षायोपशमिक भाव साधनसापेक्ष होनेसे उसके केवलत्व मानने में विरोध आता है। क्षार ( भस्म ) से ढकी हुई अग्निसे निकले हुए बाप्पको अग्नि नाम नहीं दिया जा सकता, न उसमें अन्निकी बुद्धि उत्पन्न होती, और न अग्निका व्यवहार ही, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अतएव ये सब मति आदि ज्ञान केवलज्ञान नहीं हो सकते । इस कारणसे केवलज्ञान क्षायोपशामिक भी नहीं है।
केवलज्ञान क्षायिक भी नहीं है, क्योंकि, क्षय तो अभावको कहते हैं, और अभावको कारण मानने में विरोध आता है।
इन सब विकल्पोंको मनमें करके ' जीव केवलज्ञानी कैसे होता है ' यह प्रश्न किया गया है।
क्षायिक लब्धिसे जीव केवलज्ञानी होता है ॥ ४७ ॥
केवलशानावरणका क्षय तुच्छ अर्थात् अभावरूप मात्र है इसलिये वह कोई कार्यकरनेमें समर्थ नहीं हो सकता, ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, केवलज्ञानावरणके बन्ध, सत्त्व और उदयके अभाव सहित तथा अनन्तवीर्य, वैराग्य, सम्यक्त्व व दर्शन आदि गुणोंसे युक्त जीव द्रव्यको तुच्छ मानने में विरोध आता है। किसी भावको अभावरूप मानना विरोधी बात नहीं है, क्योंकि भाव और अभाव स्वभावसे ही एक दूसरेको
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२, १, ४८.] सामित्ताणुगमे संजममग्गणा
[९१ द्विदाणमुवलंभादो । ण च उवलंभमाणे विरोहो अत्थि, अणुवलद्धिविसयस्स तस्स उवलद्धीए अस्थित्तविरोहादो ।
संजमाणुवादेण संजदो सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदो णाम कधं भवदि ? ॥४८॥
णामसंजमो ठवणसंजमो दबसंजमो भावसंजमो चेदि चउव्विहो संजमो । णाम ढवणसंजमा गदा । दव्वसंजमो दुविहो आगम-णोआगमभेएण । आगमो गदो । णोआगमो तिविहो जाणुगसरीरणोआगमदव्यसंजम-भवियणोआगमदव्यसंजम-तव्वदिरित्तणोआगमदव्यसंजमभेएण । जाणुग-भवियाणि' गदाणि । तव्वदिरित्तदव्यसंजमो संजमसाहणपिच्छाहार-कवली-पोत्थयादीणि । भावसंजमो दुविहो आगम-णोआगमभेएण। आगमो गदो । णोआगमो तिविहो खइओ खओवसमिओ उपसमिओ चेदि । एदेसु संजमपयारेसु केण पयारेण संजमो होदि त्ति पुच्छा कदा । एवं सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदाणं पि णिक्खेवो कायव्यो ।
सर्वात्म रूपसे आलिंगन करके स्थित पाये जाते हैं । जो बात पाई जाती है उसमें विरोध नहीं रहता, क्योंकि, विरोधका विषय अनुपलब्धि है और इसलिये जहां जिस बातकी उपलब्धि होती है उसमें फिर विरोधका अस्तित्व माननेमें ही विरोध आता है।
संयममार्गणानुसार जीव संयत तथा सामायिक छेदोपस्थापनशुद्धि संयत कैसे होता है ? ॥४८॥
नामसंयम, स्थापनासंयम, द्रव्यसंयम और भावसंयम, इस प्रकार संयम चार प्रकारका है । नाम और स्थापना संयम तो गये । द्रव्यसंयम आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। आगमद्रव्यसंयम भी गया। नोआगमद्रव्यसंयमके तीन भेद हैं-नायकशरीर नोआगमदव्यसंयम, भव्य नोआगमद्रव्यसंयम और तदव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंयम। ज्ञायकदारीर और भव्य श्री गये। तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य संयम संयमके साधनभूत पिच्छिका, आहार, कमण्डलु (?) पुस्तक आदिको कहते हैं।
__ भावसंयम आगम और नोभागमके भेदसे दो प्रकारका है। आगमभावसंयम गया । नोआगमभावसंयम तीन प्रकारका है- क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशामिक ।
इन संयमोंके प्रकारों से किस प्रकारसे संयम होता है यह प्रश्न किया गया है। इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसंयतोंका भी निक्षेप करना चाहिये।
२ प्रतिघु ' -भविय ' इति पाठः।
१ प्रतिषु · विरोहा' इति पाठः। ३ कप्रती 'केवलीपोत्थयादीणि ' इति पाठः।
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९२) छक्खंडागमे खुदाबंधो
. [२,१, ४९. उवसमियाए खइयाए खओवसमियाए लद्धीए ॥४९॥
संजमस्स ताव उच्चदे- चरित्तावरणस्स सव्योवसमेण उवसंतकसायम्मि संजमो होदि त्ति उवसमियाए लद्धीए संजमस्सुप्पत्ती उत्ता। कधं तस्स खइया लद्धी ? चरित्तावरणस्स खएण संजमुप्पत्तीदो । कथं खओवसभिया लद्धी ? चदुसंजलण-णवणोकसायाणं देसघादिफद्दयाणमुदएण संजमुप्पत्तीदो। कधमेदेसिं उदयस्स खओवसमक्वएसो ? सबधादिफद्दयाणि अणंतगुणहीणाणि होदूग देसघादिकद्दयत्तणेण परिणमिय उदयमागच्छंति, तेसिमगंतगुणहीणतं खओ णाम । देसघादिफद्दयसरूवेणवट्ठाणमुवसमो। तेहि खओवसमेहि संजुत्तोदओ खओवसमो णाम । तदो समुप्पण्णो संजमो वि तेण खओर
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशामिक लब्धिसे जीव संयत व सामायिकछेदोपस्थान-शुद्धिसंयत होता है ।। ४९ ॥
पहले संयमका वर्णन करते हैं -- चारित्रावरण कर्मके सर्वोपशमसे जिस जीवकी कषायें उपशान्त हो गई हैं उसके संयम होता है। इस प्रकार औपशमिक लब्धिसे संयमकी उत्पत्ति कही।
शंका - संयतके क्षायिक लब्धि कैसे होती है ?
समाधान-चूंकि चारित्रावरण कर्मके क्षयसे भी संयमकी उत्पत्ति होती है, इससे क्षायिक लब्धि द्वारा जीव संयत होता है।
शंका--संयतके क्षायोपशमिक लब्धि किस प्रकार होती है ?
समाधान-चारों संज्वलन कषायों और नौ नोकषायोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे संयमकी उत्पत्ति होती है, इस प्रकार संयतके क्षायोपशमिक लब्धि पायी जाती है।
शंका-नोकषायोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदयको क्षयोपशम नाम क्यों दिया गया?
समाधान-सर्वघाती स्पर्धक अनन्तगुणे हीन होकर और देशघाती स्पर्धोंमें परिणत होकर उदयमें आते हैं। उन सर्वघाती स्पर्धकोंका अनन्तगुणहीनत्व ही क्षय कहलाता है और उनका देशघाती स्पर्धकोंके रूपसे अवस्थान होना उपशम है। उन्हों क्षय और उपशमसे संयुक्त उदय क्षयोपशम कहलाता है। उसी क्षयोपशमसे उत्पन्न
१ प्रतिषु 'खओबसमोहि संजुत्तादओ' इति पाठः।
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२, १, ४९. ]
सामित्ताणुगमे संजममग्गणा
समिओ | एवं सामाइयच्छेदोवङ्कावणसुद्धिसंजदाणं पि चत्तव्वं ।
होदु णाम देसिं खओवसमलद्धी, गोत्रसमिया खइया च, अणियट्टीगुणट्ठाणादो उवरि देसिमभावा । ण च हेट्ठिमखवगुवसामगदोगुणट्ठाणेसु चरित्तमोहणीयस्स खत्रणा उवसामणा वा अत्थि जेणेदेसिं खइया उवसमिया वा लद्धी होज ? ण, खवगुवसामग अणि
गुणणे विलोभसंजलणवदिरित्तासेस चरित्त मोहणीयस्स खवणुवसामणदंसणेण तत्थ खइय उवसमियलद्वीणं संभवलंभा । अथवा खवगुत्रसामगअपुव्वकरण पढम समय पहूडि उवरि सव्वत्थ खइय-उवसमियसंजमलद्धीओ अस्थि चेत्र । कुदो ? पारद्ध पढमसमय पहुडि थोवथ|वखवणुत्र सामणकज्जणिष्पत्तिदंसणादो । पडिसमयं कज्जणिष्पत्ती विणा चरिमसमए चेव णिष्पज्ज माणकज्जाणुवलंभादो च । कथमेक्कस्स चरित्तस्स तिष्णि भावा ? ण, एक्स्स विचित्तपयंगस्स बहुवण्णदंसणादो |
संयम भी इसी कारण क्षायोपशमिक होता है । इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापन शुद्धिसंयतों के विषय में भी कहना चाहिये ।
[ ९३
शंका-सामायिक और छेदोपस्थापन शुद्धिसंयतोंके क्षयोपशम लब्धि भले ही हो, किन्तु उनके औपशमिक और क्षायिक लब्धि नहीं हो सकती, क्योंकि अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से ऊपर इन संयतोंका अभाव पाया जाता है । और नीचेके अर्थात् अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दो क्षपक व उपशामक गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयकी क्षपणा व उपशामना होती नहीं है, जिससे उक्त संयतोंके क्षायिक व औपशमिक लब्धि संभव हो सके ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि क्षपक व उपशामक सम्बन्धी अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में भी लोभ संज्वलनको छोड़कर अशेष चारित्रमोहनीयका क्षपण व उपशमनके पाये जानेसे वहां क्षायिक व औपशमिक लब्धियोंकी संभावना पाई जाती है । अथवा, क्षपक और उपशामक सम्बन्धी अपूर्वकरणके प्रथम समय से लगाकर ऊपर सर्वत्र क्षायिक और औपशमिक संयमलब्धियां हैं ही, क्योंकि, उक्त गुणस्थानके प्रारंभ होने के प्रथम समयसे लगाकर थोड़े थोड़े क्षपण और उपशामन रूप कार्यकी निष्पत्ति देखी जाती है । यदि प्रत्येक समय कार्यकी निष्पत्ति न हो तो अन्तिम समय में भी कार्य पूरा होता नहीं
पाया जा सकता ।
शंका- एक ही चारित्र के औपशमिकादि तीन भाव कैसे होते हैं ?
समाधान - जिस प्रकार एक ही चित्र पतंग अर्थात् बहुवर्ण पक्षीके बहुत से वर्ण देखे जाते हैं, उसी प्रकार एक ही चारित्र नाना भावोंसे युक्त हो सकता है ।
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९४
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ५०. परिहारसुद्धिसंजदो संजदासंजदो णाम कधं भवदि? ॥५०॥ एत्थ वि णय-णिक्खेवे अस्सिदूण पुव्वं व चालणा कायव्या । खओवसमियाए लद्धीए ॥५१॥
चदुसंजलण-णवणोकसायाण सव्वधादिफद्दयाणमणंतगुणहाणीए खयं गंतूण देसघादित्तणेणुवसंतफद्दयाणमुदएण परिहारसुद्धिसंजमुप्पत्तीदो खओवसामियाए लद्वीए परिहारसुद्धिसंजमो । चदुसंजलण-णवणोकसायाणं खओवसमसण्णिददेसघादिफयाणमुदएण संजमासंजमुप्पत्तीदो खओवसमलद्धीए संजमासंजमो । तेरसण्हं पयडीणं देसधादिफद्दयाणमुदओ संजमलंभणिमित्तो कधं संजमासंजमणिमित्तं पडिबज्जदे ? ण, पच्चक्खाणावरणसव्वघादिफद्दयाणमुदएण पडिहयचदुसंजलणादिदेसघादिफदयागभुदयस्स संजमासंजमं मोत्तूण संजमुप्पायणे असमत्थत्तादो।।
सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदो जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदो णाम कधं भवदि ? ॥ ५२॥
जीव परिहारशुद्धिसंयत और संयतासंयत कैसे होता है ? ॥ ५० ॥ यहां भी नय और निक्षेपोंका आश्रय लेकर पूर्ववत् चालना करना चाहिये । क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव परिहारशुद्धिसंयत व संयतासंयत होता है ॥५१॥
चार संज्वलन और नव नोकषायोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके अनन्तगुणी हानि द्वारा क्षयको प्राप्त होकर देशघाती रूपसे उपशान्त हुए स्पर्धकोंके उदयसे परिहारशुद्धिसंयमकी उत्पत्ति होती है, इसीलिये क्षायोपशमिक लब्धिसे परिहारशुद्धिसंयम होता है। चार संज्वलन और नव नोकषायोंके क्षयोपशम संज्ञावाले देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे संयमासंयमकी उत्पत्ति होती है, इसीलिये क्षयोपशम लब्धिसे संयमासंयम होता है।
शंका-चार संज्वलन और नव नोकषाय, इन तेरह प्रकृतियोंके देशघाती स्पर्धकोंका उदय तो संयमकी प्राप्तिमें निमित्त होता है, वह संयमासंयमका निमत्त कैसे स्वीकार किया गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रत्याख्यानावरणके सर्वघाती स्पर्धोके उदयसे जिन चार संज्वलनादिकके देशघाती स्पर्धकोंका उदय प्रतिहत हो गया है उस उदयके संयमासंयमको छोड़ संयम उत्पन्न करनेका सामर्थ्य नहीं होता।
जीव सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत कैसे होता है ॥५२॥
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[ ९५
२, १, ५५. ]
सामित्ताणुगमे संजममग्गणा सुगममेदं । उवसमियाए खड्याए लद्धीए ॥ ५३॥
उवसामग-क्खवगसुहुमसांपराइयगुणट्ठाणेसु सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमस्सुवलंभादो उपसमियाए खइयाए लद्धीए सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमो । उवसंत-खीणकसायादिसु जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमुवलंभादो उवसमियाए खड्याए लद्धीए जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो।
असंजदो णाम कधं भवदि ? ॥ ५४ ॥ सुगममेदं। संजमघादीणं कम्माणमुदाण ॥ ५५ ॥
अपञ्चक्खाणावरणस्स उदओ चेव असंजमस्स हेदू, संजमासंजमपडिसेहमुहेण सव्वसंजमघादित्तादो । तदो संजमघादीणं कम्माणमुदएणेत्ति कधं घडदे ? ण, इदरेसिं पि चरित्तावरणीयाणं कम्माणमुदएण विणा अपच्चक्खाणावरणस्स देससंजमघायणे सामस्थि
यह सूत्र सुगम है।
औपशमिक और क्षायिक लब्धिसे जीव सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत होता है ॥ ५३॥
उपशामक और क्षपक दोनों प्रकारके सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानों में सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंयमकी प्राप्ति होती है, इसीलिये औपशमिक व क्षायिक लब्धिसे सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयम होता है।
__ उपशान्तकपाय, क्षीणकषाय आदि गुणस्थानोंमें यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमकी प्राप्ति होनेसे औपशामिक व क्षाायक लब्धिसे यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम होता है।
जीव असंयत कैसे होता है ? ॥५४॥ यह सूत्र सुगम है। संयमके घाती कर्मोके उदयसे जीव असंयत होता है ॥ ५५ ॥
शंका-एक अप्रत्याख्यानावरणका उदय ही असंयमका हेतु माना गया है, क्योंकि, वही संयमासंयमके प्रतिषेधसे प्रारम्भ कर समस्त संयमका घाती होता है। तब फिर संयमघाती कौके उदयसे असंयत होता' ऐसा कहना कैसे घटित होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, दूसरे भी चारित्रावरण कोंके उदयके विना केवल अप्रत्याख्यानावरणके देशसंयमको घात करनेका सामर्थ्य नहीं होता।
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९६ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, १, ५६.
याभावादो | संजमो णाम जीवसहावो, तदो ण सो अण्णेहि विणासिज्जदि तव्त्रिणा से जीवदवस व विणासप्पसंगादो ? ण, उवजोगस्सेव संजमस्स जीवस्स लक्खणत्ताभावादो । किं लक्खणं ? जस्साभावे दव्वस्साभावो होदि तं तस्स लक्खणं, जहा पोग्गल - दव्वस्स रूव-रस-गंध-फासा, जीवस्स उवजोग । तम्हा ण संजमाभावेण जीवदव्वस्साभावो इदि ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदंसणी णाम कथं भवदि ? ॥ ५६ ॥
एत्थ पुत्रं वणिक्खेवो कायव्वो । ण दंसणमत्थि विसयाभावादो | ण बज्झत्थसामण्णगहणं दंसणं, केवलदंसणस्स अभावप्पसंगादो । कुदो ? केवलणाणेण तिकालगोयतराणंतत्थ-वेंजणपज्जयसरूयेसु सव्वदव्वेसु अवगएसु केवलदंसणस्स विसयाभावा ।
शंका- संयम तो जीवका स्वभाव ही है, इसीलिये वह अन्यके द्वारा विनष्ट नहीं किया सकता, क्योंकि, उसका विनाश होनेपर तो जीव द्रव्यके भी विनाशका प्रसंग आजायगा ?
समाधान -- नहीं आयगा, क्योंकि, जिस प्रकार उपयोग जीवका लक्षण माना गया है, उस प्रकार संयम जीवका लक्षण नहीं होता ।
शंका- लक्षण किसे कहते हैं ?
समाधान — जिसके अभाव में द्रव्यका भी अभाव हो जाता है वही उस द्रव्यका लक्षण है । जैसे- पुद्गल द्रव्यका लक्षण रूप, रस, गंध और स्पर्शः व जीवका उपयोग | अतएव संयम के अभाव में जीव द्रव्यका अभाव नहीं होता ।
दर्शनमार्गणानुसार जीव चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी व अवधिदर्शनी कैसे होता है ? ।। ५६ ।।
यहां पूर्वानुसार निक्षेप करना चाहिये ।
शंका- दर्शन है ही नहीं, क्योंकि, उसका कोई विषय नहीं है । बाह्य पदार्थोंके सामान्यको ग्रहण करना दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा माननेपर केवलदर्शन के अभावका प्रसंग आजायगा । इसका कारण यह है कि जब केवलज्ञानके द्वारा त्रिकाल - गोचर अनन्त अर्थ और व्यंजन पर्याय सरूप समस्त द्रव्योंको जान लिया जाता है, तब केवलदर्शन के लिये कोई विषय ही नहीं रहता । ऐसा तो हो नहीं सकता कि केवल -
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२, १, ५६.]
सामित्ताणुगमे दंसणमग्गणा ण च गहिदमेव गेण्हदि केवलदसणं, गहिदग्गहणे फलाभावा । ण चासेसविसेसमेत्तग्गाही केवलणाणं जेण सयलत्थसामण्णं केवलदंसणस्स विसओ होज्ज, संसारावत्थाए आवरगवसेण कमेण पयट्टमाणणाण-दंसणाणं' दवावगमाभावप्पसंगादो। कुदो ? ण गाणं दव्वपरिच्छेदयं, सामण्णवदिरित्तविसेसेसु तस्स वावारादो । ण दंसणं पि दव्वपरिच्छेदयं, तस्स विसेसवदिरित्तसामण्णम्मि वावारादो। ण केवलं संसारावत्थाए चेव दव्वग्गहणाभावो, किंतु ण केवलिम्हि वि दब्बग्गहणमत्थि, सामण्ण-विसेसेसु एयंत-दुरंतपंथसंठिएसु वावदाणं केवलदसण-णाणाणं दव्वम्मि वावारविरोहादो। ण च एयंते सामण्ण-विसेसा अस्थि जेण ते तेसिं विसओ होज्ज । असंतस्स पमेयत्ते इच्छिज्जमाणे गद्दहसिंगं पि पमेयत्तमल्लिएज्ज, अभावं पडि विसेसाभावादो। पमेयाभावे ण पमाणं पि, तस्स तम्णिबंधणत्तादो । तम्हा ण सणमस्थि त्ति सिद्धं ?
शानके द्वारा ग्रहण किये पदार्थको ही केवलदर्शन ग्रहण करता है, क्योंकि, जो वस्तु ग्रहण की जा चुकी है उसे ही पुनः ग्रहण करनेका कोई फल नहीं। यह भी नहीं हो सकता कि समस्त विशेषमात्रका ग्रहण करनेवाला ही केवलज्ञान हो जिससे समस्त पदार्थों का सामान्य धर्म केवलदर्शनका विषय हो जाय, क्योंकि ऐसा माननेपर तो संसारावस्थामें जब आवरणके वशसे ज्ञान और दर्शनकी प्रवृत्ति क्रमशः होती है तब द्रव्यके ज्ञान होनेके अभावका ही प्रसंग आजायगा। इसका कारण यह है- ज्ञान द्रव्यका परिच्छेदक अर्थात् ज्ञान करानेवाला नहीं रहा, क्योंकि उसका व्यापार सामान्य रहित विशेषों में ही परिमित हो गया और न दर्शन ही द्रव्यका परिच्छेदक रहा, क्योंकि, उसका व्यापार विशेष रहित सामान्यमें सीमित हो गया । इस प्रकार न केवल संसारावस्थामें ही द्रव्यके ग्रहणका अभाव होगा, किन्तु केवलीमें भी द्रव्यका ग्रहण नहीं हो सकेगा, क्योंकि एकान्तरूपी दुरन्त पथमें स्थित सामान्य व विशेषमें प्रवृत्त हुए केवलदर्शन और केवलज्ञानका द्रव्यमात्रमें व्यापार मानने में विरोध आता है । एकान्ततः पृथक् सामान्य व विशेष तो होते नहीं है जिससे कि वे क्रमशः केवलदर्शन और केवलशानके विषय हो सकें। और यदि जो है ही नहीं उसको भी प्रमेयरूपसे मानना अभीष्ट हो तो गधेका सींग भी प्रेमय कोटिमें आजायगा, क्योंकि, अभावकी अपेक्षा दोनों में कोई विशेषता रही नहीं । प्रमेयके न रहने पर प्रमाण भी नहीं रहता, क्योंकि, प्रमाण तो प्रमेयमूलक ही होता है । इसलिये दर्शनकी कोई अलग सत्ता है ही नहीं यह सिद्ध हुआ ?
१ प्रतिषु ' -दसणाए ' इति पाठः।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ५६. एत्थ परिहारो उच्चदे- अत्थि दसणं, सुत्तम्मि अट्ठकम्मणिदेसादो। ण चासते आवरणिज्जे आवारयमत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो । ण चोवयारेण सणावरणणिद्देसो, मुहियस्साभावे उवयाराणुववत्तीदो। ण चावरणिज्ज णत्थि, चक्खुदंसणी अचक्खुदसणी ओहिदंसणी खओवसमियाए, केवलदंसणी खड्याए लद्धीए त्ति तदत्थित्तपदुप्पायणजिणवयणदंसणादो ।
ओ मे सस्सदो अप्पा णाण-दंसणलक्खणो । सेसा में बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १६ ॥ असरीरा जीवघणा उवजुत्ता दंसणे य णाणे य ।
सायारमणायारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ १७ ॥ . इच्चादिउवसंहारसुत्तदंसणादो च । आगमपमाणेण होदु णाम दंसणस्स अत्थितं ण जुत्तीए चे ? ण, जुत्तीहि आगमस्स बाहाभावादो । आगमेण वि जच्चा जुत्ती ण
समाधान-अब यहां उक्त शंकाका परिहार कहते हैं - दर्शन है, क्योंकि, सूत्रमें आठ काँका निर्देश किया गया है । आवरणीयके अभावमें आवारक हो नहीं सकता, क्योंकि, अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता। यह भी नहीं कह सकते कि दर्शनावरणका निर्देश केवल उपचारसे किया गया है, क्योंकि, मुख्य वस्तुके अभावमें उपचारकी उपपत्ति नहीं बनती। आवरणीय है ही नहीं सो बात भी नहीं है, क्योंकि, 'चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी क्षायोपशमिक लद्धिसे तथा केवलदर्शनी क्षायिक लद्धिसे होते हैं' ऐसे आवरणीयके अस्तित्वका प्रतिपादन करनेवाले जिन भगवान् के वचन देखे जाते हैं। तथा
ज्ञान और दर्शनरूप लक्षणवाला मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है। शेष समस्त संयोगरूप लक्षणवाले पदार्थ मुझसे बाह्य हैं ॥ १६ ॥
अशरीर अर्थात् काय रहित, शुद्ध जीवप्रदेशोंसे घनीभूत, दर्शन और शानमें मनाकार व साकार रूपसे उपयोग रखनेवाले, यह सिद्ध जीवोंका लक्षण है ॥ १७॥
इस प्रकारके अनेक उपसंहारसूत्र देखनेसे भी यही सिद्ध होता है कि दर्शन है।
शंका-आगम प्रमाणसे भले ही दर्शनका अस्तित्व हो, किन्तु युक्तिसे तो पर्शनका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता?
समाधान होता है, क्योंकि, युक्तियोंसे आगमकी बाधा नहीं होती। शंका-आगमसे भी तो जात्य अर्थात् उत्तम युक्तिकी बाधा नहीं होना चाहिये!
१ प्रतिषु चोवयारे 'इति पाम।
२ करतौ 'जे' इति पाठः।
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२, १, ५६.]
सामित्ताणुगमे दंसणमग्गणा वाहिज्जदि ति चे? सच्चं ण बाहिज्जदि जच्चा जुत्ती, किंतु इमा बाहिज्जदि जच्चत्तामावादो। तं जहा- ण णाणेण विसेसो चेत्र घेप्पदि सामण्ण-विसेसप्पयत्तणेण पत्तजच्चंतरदव्वुवलंभादो । ण च णयदुवविसयमगेण्हंतस्स णाणस्स सायारत्तमत्थि, विरोहादो (तहा समंतभद्दसामिणा वि उत्तं
विधिर्विषक्तप्रतिषेधरूपः प्रमाणमत्रान्यतरत्प्रधानं ।
गुणो परो मुख्यनियामहेतुर्नयःस' दृष्टांतसमर्थनस्ते ॥ इति ॥ १८ ॥) ण च एवं संते दसणस्स अभावो, बज्झत्थे मोत्तूण तस्स अंतरंगत्थे वावारादो। ण च केवलणाणमेव सत्तिदुवसंजुत्तत्तादो बहिरंतरंगत्थपरिच्छेदयं, णाणस्स पज्जयस्स पज्जायाभावादो। भावे वा अणवत्था ढुक्कदे, अवठ्ठाणकारणाभावादो । तम्हा अंतरंगोवजोगादो बहिरंगुवजोगेण पुधभूदेण होदयमण्णहा सव्वण्हुत्ताणुववत्तीदो । अंतरंग
समाधान-सचमुच ही आगमसे उत्तम युक्तिकी बाधा नहीं होती, किन्तु प्रस्तुत युक्तिकी बाधा अवश्य होती है, क्योंकि, वह उत्तम युक्ति नहीं है । वह इस प्रकार है- ज्ञान द्वारा केवल विशेषका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, सामान्य विशेषात्मक होनेसे ही द्रव्यका जात्यन्तर स्वरूप पाया जाता है। और सामान्य तथा विशेष दोनों नयों के विषयभूत पदार्थका ग्रहण न करनेसे ज्ञानका साकारत्व भी नहीं बन सकता, क्योंकि, वैसा मानने में विरोध आता है। तथा समन्तभद्र स्वामीने भी कहा है
(हे श्रेयांस जिन!) आपके मतमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन स्व-चतुण्यकी अपेक्षा किये जानेवाले विधानका स्वरूप परचतुष्टयकी अपेक्षासे होनेवाले प्रतिषेधसे सम्बद्ध पाया जाता है। विधि और प्रतिषेध, इन दोनोंमेंसे जो एक प्रधान होता है वही प्रमाण है, और दूसरा गौण है। इनमें जो प्रधानताका नियामक है वही नय है जो रशान्तका अर्थात् धर्मविशेषका समर्थन करता है ॥ १८ ॥
इस प्रकार आगम और युक्तिसे दर्शनका अस्तित्व सिद्ध होने पर उसका अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि, दर्शनका व्यापार बाह्य पदार्थो को छोड़ अन्तरंग वस्तुमें होता है। यहां यह नहीं कह सकते कि केवलज्ञान ही दो शक्तियोंसे संयुक्त होनेके कारण बहिरंग और अन्तरंग दोनों वस्तओंका परिच्छेदक है, क्योंकि, ज्ञान स्वयं पक पर्याय है, और पर्यायमें दूसरी पर्याय होती नहीं है । यदि पर्यायमें भी और पर्याय मानी जाय तो अवस्थानका कोई कारण न होनेसे अनवस्था दोष उत्पन्न होता है। इसलिये अन्तरंग उपयोगसे बहिरंग उपयोगको पृथग्भूत ही होना चाहिये, अन्यथा सर्वज्ञत्वकी उपपत्ति नहीं बनती। अतएव आत्माको अन्तरंग उपयोग और बहिरंग उपयोग ऐसी
१ प्रतिषु विषित्तः' इति पाठः । ३हत्स्वयंभूस्तोत्र ५२.
२ प्रतिषु । -नयस्य ' इति पाठः । ४ प्रतिषु बहिरंगत्थपरिच्छेदयं ' इति पाठः ।
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१०.] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ५६. बहिरंगुवजोगसण्णिददुसत्तीजुत्तो अप्पा इच्छिदव्यो ।
( जं सामण्णग्गहणं भावाणं णेव कडे आयारं ।
अविसेसिदूग अत्थे दंसणमिदि भण्णदे समए ॥ १९ ॥ ण च एदेण सुत्तेणेदं वक्खाणं विरुज्झदे, अप्पत्थम्मि पउत्तसामण्णसद्दग्गहणादो । ण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्धं णियमेण विणा विसईकयत्तिकालगोयराणंतत्थ-वेंजणपज्जवचियवझंतरंगाणं तत्थ सामण्णत्ताविरोहादो। होदु णाम सामण्णेण सणस्स सिद्धी केवलदंसणस्स सिद्धी च, ण सेसदसणाणं;
चक्रवण जं पयासदि दिरसदि तं चक्खुदंसणं वेति । दिट्ठस्स य ज सरणं णायव्वं तं अचक्षु त्ती ॥ २० ॥ परमाणुआदियाइं अंतिमखंधं ति मुत्तिदव्याई ।
तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सदि ताणि पच्चक्खं ॥ २१ ॥ इदि बज्झत्थविसयदसणपरूवणादो ? ण, एदाणं गाहाणं परमत्थत्थाणुवगमादो ।
दो शक्तियोंसे युक्त मानना अभीष्ट सिद्ध होता है । ऐसा मानने पर
वस्तुओंका आकार न करके व पदार्थों में विशेषता न करके जो वस्तु-सामान्यका ग्रहण किया जाता है उसे ही शास्त्र में दर्शन कहा है ॥ १९ ॥
इस सूत्रसे प्रस्तुत व्याख्यान विरूद्ध भी नहीं पड़ता, क्योंकि, उक्त सूत्रमें 'सामान्य' शब्द का प्रयोग आत्म-पदार्थके लिये ही किया गया है। ( इसीके विशेष प्रतिपादन के लिये देखो षट्खंडागम, जीवट्ठाण, सत्प्ररूपणा, भाग १, पृष्ट १४७३ जीवका सामान्यत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, नियमके विना ज्ञानके विषयभूत किये गये त्रिकालगोचर अनन्त अर्थ और व्यंजन पर्यायसे संचित बहिरंग और अन्तरंग पदार्थों का जीवमें सामान्यत्व मानने में कोई विरोध नहीं आता।
__ शंका-इस प्रकार सामान्यसे दर्शनकी सिद्धि और केवलदर्शनकी भी सिद्धि भले हो जाय, किन्तु उससे शेष दर्शनोंकी सिद्धि नहीं होती, क्योंकि
जो चक्षुइन्द्रियोंको प्रकाशित होता है या दिखता है उसे चक्षुदर्शन समझा जाता है, और जो अन्य इन्द्रियोंसे देखे हुए पदार्थका ज्ञान होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिये ॥२०॥
परमाणुसे लेकर अन्तिम स्कंध तक जितने मूर्तिक द्रव्य हैं उन्हें जो प्रत्यक्ष देखता है वह अवधिदर्शन है ॥२१॥
इन सूत्रवचनों में दर्शनकी प्ररूपणा बाह्याविषयक रूपसे की गई है ? समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि, तुमने इन गाथाओंका परमार्थ नहीं समझा।
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२, १, ५६. ]
सामित्तागमे दंसणमग्गणा
[ १०१
को सो परमत्थत्थो ? बुच्चदे- जं यत् चक्खूणं चक्षुषां पयासदि प्रकाशते दिस्सदि चक्षुषा दृश्यते वा तं तत् चक्खुदंसणं चक्षुर्द्दर्शनमिति वेंति ब्रुवते । चक्खिदियणाणादो जो पुव्यमेव सुवसत्तीए सामण्णाए अणुहओ चक्खुणाणुष्पत्तिणिमित्तो तं चक्खुदंसणमिदि उत्त होदि । कधमंतरंगाए चक्खिदियविसय पडिबद्धाए सत्तीए चक्खिदियस्स पत्ती ? ण, अंतरंगे बहिरंगत्थोवयारेण बालजणबोहणङ्कं चक्खूणं जं दिस्सदि तं चक्खु - दंसणमिदि परूवणादो । गाहाए गलभंजणमकाऊण उज्जुवत्थो किण्ण घेप्पदि । ण, तत्थ पुत्तासेस दोसपसंगादो ।
दिवस शेषेन्द्रियैः प्रतिपन्नस्यार्थस्य जं यस्मात् सरणं अवगमनं णायव्वं ज्ञातव्यं तं तत् अचक्खु ति अचक्षुर्दर्शनमिति । सेसिंदियणाणुप्पत्तीदो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए अप्पणी विसयम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचक्खुणाणुपत्तिणिमित्तो तमचवखुदंसणमिदि उत्तं होदि ।
शंका- वह परमार्थ कौनसा है ?
समाधान - कहते हैं । 'जो चक्षुओंको प्रकाशित होता है अर्थात् दिखता है, अथवा आंख द्वारा देखा जाता है वह चक्षुदर्शन है' इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिये कि चक्षुइन्द्रियज्ञान से जो पूर्व ही सामान्य स्वशक्तिका अनुभव होता है, जो कि चक्षुज्ञानकी उत्पत्ति में निमित्तरूप है, वह चक्षुदर्शन है ।
शंका-उस चक्षुइन्द्रियके विषयसे प्रतिबद्ध अंतरंग शक्ति में चक्षुइन्द्रियकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान – नहीं, यथार्थमें तो चक्षुइन्द्रियकी अन्तरंगमें ही प्रवृत्ति होती है, किन्तु बालक जनोंको ज्ञान करानेके लिये अंतरंगमें बहिरंग पदार्थोंके उपचारसे चक्षुओंको जो दिखता है वही चक्षुदर्शन है, ऐसा प्ररूपण किया गया है ।
शंका- गाथाका गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते ?
समाधान -- नहीं करते, क्योंकि वैसा करनेमें तो पूर्वोक्त समस्त दोषोंका प्रसंग आता है ।
गाथाके उत्तरार्धका अर्थ इस प्रकार है ' जो देखा गया है, अर्थात् जो पदार्थ शेष इन्द्रियोंके द्वारा जाना गया है, उससे जो सरण अर्थात् ज्ञान होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिये' । चक्षुइन्द्रियको छोड़ शेष इन्द्रियज्ञानोंकी उत्पत्तिसे पूर्व ही अपने विषयमें प्रतिबद्ध स्वशक्तिका अचक्षुज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्तभूत जो सामान्यसे संवेद या अनुभव होता है वह अचक्षुदर्शन है, ऐसा कहा गया है ।
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१०२) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ५७. - परमाणुादियाई परमाण्वादिकानि अंतिमखधं ति आ पश्चिमस्कंधादिति मुसिदध्वाइं मूर्तिद्रव्याणि जं यस्मात् पस्सदि पश्यति जानीते ताणि तानि पञ्चक्खं साक्षात् तं तत् ओहिदसणं अवधिदर्शनमिति द्रष्टव्यम् । परमाणुमादि कादण जाव पच्छिमखंधो त्ति द्विदपोग्गलदवाणमवगमादो पञ्चक्खादो जो पुवमेव सुवसत्तीविसयउवजोगो ओहिगाणुप्पत्तिणिमित्तो तं ओहिदसणमिदि घेत्तव्वं, अण्णहा णाण-दंसणाणं भेदाभावादो। कचं केवलणाणण केवलदंसणं समाणं ? ण, णेयप्पमाणकेवलणाणभेएण भिण्णप्पविसयउवजोगस्स वि तत्तियमेतत्ताविरोहादो ।
खओवसमियाए लद्धीए ॥५७॥
चक्खुदंसणावरणस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण समुप्पण्णत्तादो (चक्खुदंसणं खओवसमियं)। कधमुदयगददेसघादिफद्दयाण खओवसमियत्तं ? उच्चदे- उदयम्मि पदणकाले सम्बघादिफहयाणं जमणंतगुणहीणतं सो तेसिं खओ णाम; देसघादिफद्दयाणं सरूवेण
द्वितीय गाथाका अर्थ इस प्रकार है-'परमाणुसे लगाकर अन्तिम स्कंधपर्यन्त जितने मूर्तिक द्रव्य हैं उन्हें जिसके द्वारा साक्षात् देखता है या जानता है वह अवधिदर्शन है, ऐसा जानना चाहिये' । परमाणुसे लेकर अन्तिम स्कंधपर्यंत जो पुद्गलद्रव्य स्थित हैं उनके प्रत्यक्ष ज्ञानसे पूर्व ही जो अवधिज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्तभूत स्वशक्तिविषयक उपयोग होता है वही अवधिदर्शन है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा ज्ञान और दर्शनमें कोई भेद नहीं रहता।
शंका-केवलशानसे केवलदर्शन समान किस प्रकार होता है?
समाधान-क्यों न हो, क्योंकि, जानने योग्य पदार्थके प्रमाणानुसार केवलजानके भेदसे भिन्न आत्मविषयक उपयोग को भी तत्प्रमाण मानने में कोई विरोध नहीं आता।
क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी होता है ॥५७॥
चक्षुदर्शनावरणके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण चक्षुदर्शन भायोपशमिक होता है।
शंका-उदयमें आये हुए देशघाती स्पर्धकोंके क्षायोपशमिक भाव कैसे हुआ?
समाधान-बताते हैं। उदयमें आकर गिरनेके समयमें सर्वघाती स्पर्धकोंका को भनन्तगुण हीन हो जाना है वही उनका भय है, और देशघाती स्पर्धकोंके स्वरूपसे
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२, १, ५९.]
सामित्ताणुगमे दंसणमागणा जमवट्ठाणं सो उवसमो; तदुभयगुणसमण्णिदचक्खुदंसणावरणीयकम्मक्खंधविवागजणिदजीवपरिणामो लद्धि ति घेत्तव्यो । अचक्खुदंसणावरणीयस्स देसघादिफयाणमुदएण अचक्खुदंसणं होदि त्ति कटु खओवसमियाए लद्धीए अचक्खुदंसणमिदि उत्तं । ओधिदसणावरणीयस्स देसघादिफद्दयाणमुदयजणिदलद्धीदो ओधिदंसणी होदि ति खओव. समियाए लद्धीए ओधिदसणी णिहिट्ठो ।
केवलदसणी णाम कधं भवदि ? ॥ ५८ ॥ सुगममेदं ।
खइयाए लद्धीए ॥ ५९॥
दसणावरणीयस्स णिम्मूलविणासो खओ णाम । तत्तो जादजीवपरिणामो खड्या लद्धी । तत्तो केवलदंसणी होदि । एत्थुवउज्जती गाहा
( एवं सुत्तपसिद्ध भणंति जे केवलं ण चत्थि ति । मिच्छादिट्ठी अण्णो को तत्तो एत्थ जियलोए ॥ २२ ॥)
जो उनका अवस्थान है वही उपशम है। इन्हीं क्षय और उपशम रूप दो गुणोंसे युक घनदर्शनावरणीय कर्मके स्कंधोके उदयसे जो जीवपरिणाम उत्पन्न होता है वही क्षायोपशमिक लब्धि है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
अचक्षुदर्शनावरणीयके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे अचक्षुदर्शन होता है, ऐसा मानकर 'क्षायोपशमिक लब्धिसे अचक्षुदर्शन होता है' ऐसा कहा गया है। अवधिदर्शनावरणीयके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न हुई लब्धि द्वारा अवधिदर्शनी होता है, इसीसे क्षायोपशमिक लब्धिसे अवधिदर्शनीके होनेका निर्देश किया गया है।
जीव केवलदर्शनी कैसे होता है ? ॥५८॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायिक लन्धिसे जीव केवलदर्शनी होता है ॥ ५९॥
दर्शनावरणीय कर्मका निर्मूल विनाश क्षय है। उस क्षयसे उत्पन्न जीवपरिणामको क्षायिक लब्धि कहते हैं । उसी क्षायिक लब्धिसे केवलदर्शनी होता है। यहां यह उपयोगी गाथा है
इस प्रकार सूत्र द्वारा प्रसिद्ध होते हुए भी जो कहते हैं कि केवलदर्शन नहीं है उनसे बड़ा इस जीवलोकमें कौन मिथ्यात्वी होगा? ॥ २२॥ . ... .
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१०४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ६०. - लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिओ णीललेस्सिओ काउलेस्सिओ तेउलेस्सिओ पम्मलेस्सिओ सुक्कलेस्सिओ णाम कधं भवदि? ॥६॥
एत्थ पुव्वं व णिक्खेवे अस्सिद्ग चालणा परूवेदव्या । एत्थ णोआगमभावलेस्साए अहियारो।
ओदइएण भावेण ॥ ६१॥
कसायाणुभागफहयाणमुदयमागदाणं जहण्णफद्दयप्पहुडि जाय उक्कस्सफद्दया त्ति ठइदाणं छम्भागविहत्ताणं पढमभागो मंदतमो, तदुदएण जादकसाओ सुक्कलेस्सा णाम । विदियभागो मंदतरो, तदुदएण जादकसाओ पम्मलेस्सा णाम । तदियभागो मंदो, तदुदएण जादकसाओ तेउलेस्सा णाम । चउत्थभागो तिव्वो, तदुदएण जादकसाओ काउलेस्सा णाम । पंचमभागो तिव्ययरो, तस्सुदएण जादकसाओ णीललेस्सा णाम । छट्ठो तिव्वतमो, तस्सुदएण जादकसाओ किण्णलेस्सा णाम । जेणेदाओ छप्पि लेस्साओ कसायाणमुदएण होति तेण ओदइयाओ । जदि कसाओदएण' लेस्साओ उच्चंति तो
"लेश्यामार्गणानुसार जीव कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पालेश्या और शुक्ललेश्या वाला कैसे होता है ? ॥ ६ ॥
- यहां पूर्वानुसार निक्षेपोंका आश्रय लेकर चालना करना चाहिये । प्रस्तुतमें नोआगम भावलेश्याका अधिकार है।
औदयिक भावसे जीव कृष्ण आदि लेश्यावाला होता है ॥ ६१ ।। - उदयमें आये हुए कषायानुभागके स्पर्धकोंके जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यंत स्थापित करके उनको छह भागोंमें विभक्त करनेपर प्रथम भाग मंदतम कषायानुभागका होता है और उसीके उदयसे जो कषाय उत्पन्न होती है उसीका नाम शुक्ललेश्या है। दूसरा भाग मन्दतर कषायानुभागका है, और उसीके उदयसे उत्पन्न हुई कषायका नाम पद्मलेश्या है। तृतीय भाग मन्द कषायानुभागका है, और उसके
पसे उत्पन्न कषाय तेजोलेश्या है। चतर्थ भाग तीव्र कषायानुभागका है, और उसके उदयसे उत्पन्न कषाय कापोतलेश्या होती है। पांचवां भाग तीव्रतर कषायानुभागका है, और उसके उदयसे उत्पन्न कषायको नीललेश्या कहते हैं । छठवां भाग तीव्रतम कषाया. नुभागका है, और उससे उत्पन्न कषायका नाम कृष्णलेश्या है। चूंकि ये छहों ही लेश्यायें कषायोंके उदयसे होती हैं, इसीलिये वे औदयिक हैं। ४शंका-यदि कषायोंके उदयसे लेश्याओंका उत्पन्न होना कहा जाता है तो
१ प्रतिषु ' कसाओदइएण ' इति पाठः ।
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२, १, ६२.] सामित्ताणुगमे लेस्सामग्गणा
[१०५ खीणकसायाणं लेस्साभावो पसज्जदे ? सच्चमेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्ती इच्छिज्जदि । किंतु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधाणमित्तत्तादो । तेण कसाए फिट्टे वि जोगो अस्थि त्ति खीणकसायाणं लेस्सत्तं ण विरुज्झदे । जदि बंधकारणाणं लेस्सत्तं उच्चदि तो पमादस्स वि लेस्सत्तं किण्ण इच्छि. अदि ? ण, तस्स कसाएसु अंतब्भावादो । असंजमस्स किण्ण इच्छिज्जदि १ ण, तस्स वि लेस्सायम्मे अंतभावादो । मिच्छत्तस्स किण्ण इच्छिज्जदि ? होदु तस्स लेस्साववएसो, विरोहाभावादो । किंतु कसायाणं चेव एत्थ पहाणत्तं हिंसादिलेस्सायम्मकारणादो, सेसेसु तदभावादो।
अलेस्सिओ णाम कधं भवदि ? ॥ ६२॥ एत्थ वि णिक्खेवमस्सिदूण परूवणा कादवा ।
बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणकषाय जीवोंके लेझ्याके अभावका प्रसंग आता है ?
समाधान-सचमुच ही क्षीणकषाय जीवोंमें लेश्याके अभावका प्रसंग आता यदि केवल कषायोदयसे ही लेश्याकी उत्पत्ति मानी जाती। किन्तु शरीरनाम
के उदयसे उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि, वह भी कर्मके बन्धमें निमित्त होता है । इस कारण कपायके नष्ट हो जानेपर भी चूंकि योग रहता है इसीलिये क्षीणकषाय जीवोंके लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका-यदि बन्धके कारणोंको ही लेश्याभाव कहा जाता है तो प्रमादको भी लेश्याभाव क्यों न मान लिया जाय ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रमादका तो कषायोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है ? शंका-असंयमको भी लेश्याभाव क्यों नहीं मानते ? । समाधान नहीं, क्योंकि असंयमका भी तो लेश्याकर्ममें अन्तर्भाव हो जाता है। शंका-मिथ्यात्वको लेश्याभाव क्यों नहीं मानते ?
समाधान-मिथ्यात्वको लेश्या कह सकते हैं, क्योंकि, उसमें कोई विरोध नहीं आता । किन्तु यहां कषायोंका ही प्राधान्य है, क्योंकि कषाय ही लेश्याकर्मके कारण हैं और अन्य बन्धकारणोंमें उसका अभाव है।
जीव अलेश्यिक कैसे होता है ? ॥ १२ ॥ यहां भी निक्षेपके आश्रयसे प्ररूपणा करना चाहिये ।
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१०६ ]
॥ ६४ ॥
छक्खंडागमे खुदागंधो
खइयाए ली || ६३ ॥
लेस्साए कारणकम्माणं खएणुप्पण्णजीवपरिणामो खइया लद्धी, तीए अलेस्सिओ होदित्ति उत्त होदि । ण सरीरणामकम्मसंतस्स अस्थित्तं पडुच्च खइयत्तं विरुज्झदे, तस्स तंततावाद ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिओ अभवसिद्धिओ णाम कथं भवदि ?
सुगममेदं ।
पारिणामिण भावेण ॥ ६५ ॥
[ २, १, ६३.
एदं पि सुगमं ।
णेव भवसिद्धिओ व अभवसिद्धिओ णाम कथं भवदि ? ॥ ६६ ॥ एदं पि सुगमं ।
खइयाए लडीए ॥ ६७ ॥
सुगममेदं ।
क्षायिक लब्धिसे जीव अलेश्यिक होता है ॥ ६३ ॥
लेश्या कारणभूत कर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुए जीव-परिणामको क्षायिक लब्धि कहते हैं; उसी क्षायिक लब्धिसे जीव अलेश्यिक होता है यह सूनका तात्पर्य है | शरीरनामकर्मकी सत्ताका होना क्षायिकत्वके विरुद्ध नहीं है, क्योंकि क्षायिक भाव शरीरनामकर्मके अधीन नहीं है ।
भव्यमार्गणानुसार जीव भव्यसिद्धिक व अभव्यसिद्धिक कैसे होता है ? || ६४॥ यह सूत्र सुगम है ।
पारिणामिक भावसे जीव भव्यसिद्धिक व अभव्यसिद्धिक होता है ।। ६५ ।। यह सूत्र भी सुगम है ।
जीव न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक कैसे होता है ? ॥ ६६ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
क्षायिक लब्धिसे जीव न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक होता है ।। ६७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
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२, १, ७०. ]
सामित्ताणुगमे सम्मत्तमग्गणा
सम्मत्ताणुवादेण सम्माट्ठी णाम कधं भवदि ? ॥ ६८ ॥
किमोदइएण किमुवसमिएण किं खइएण किं खओवसमिएण किं पारिणामिएणेत्ति बुद्धीए काऊदं कथं होदिति वृत्तं ।
उवसमिया खड्याए खओवसमियाए लद्धीए ॥ ६९ ॥
दंसणमोहणीयस्स उवसमेण उवसमसम्मत्तं, होदि, खरण खइयं होदि, खओवसमेण वेदगसम्मतं । एदेसिं तिहिं सम्मत्ताण जमेयत्तं तं सम्भाइड्डी णाम । तिस्से इमे तिणि भावा जेण अस्थि तेण सम्माइट्टी उवसमियाए खइयाए खओवसमियाए लडीए होदिति उत्तं । कधमेयस्स तिष्णि भावा ? ण, पुत्रसामण्णस्स एक्क्स्स अक्क्रमेणाणेयचणाणं जहा विरोहो णत्थि तहा एयस्स बहुपरिणामेहि विरोहाभावादो |
खइयसम्म इट्टी नाम कथं भवदि ? ॥ ७० ॥
सुगममेदं ।
सम्यक्त्वमार्गणानुसार जीव सम्यग्दृष्टि कैसे होता है ? ।। ६८ ।।
क्या औदयिक भावसे सम्यग्दृष्टि होता है, कि औपशमिक भावसे, कि क्षायिक भावसे, कि क्षायोपशमिक भावसे, कि पारिणामिक भावसे, ऐसा मनमें विचार कर पूछा गया है कि कैसे होता है ।
aratमक, क्षायिक और क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव सम्यग्दृष्टि होता है ।। ६९ ।।
[ १०७
दर्शनमोहनीयके उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है, क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है, और क्षयोपशमसे वेदक सम्यक्त्व होता है । इन तीनों सम्यक्त्वोंका जो एकत्व है उसीका नाम सम्यग्दृष्टि है। चूंकि उस सम्यग्दृष्टिके ये तीन भाव होते है, इसीलिये सम्यग्दृष्टि औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक लब्धि से होता है, ऐसा कहा गया है ।
शंका - एक ही सम्यग्दृष्टिके तीन भाव कैसे होते हैं ?
समाधान जैसे स्पष्ट है सामान्य जिसका ऐसी एक ही वस्तुमें एक साथ अनेक वर्ण होते हुए भी कोई विरोध नहीं आता, उसी प्रकार एक ही सम्यग्दर्शनके अनेक परिणाम होने में कोई विरोध नहीं है ।
जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि कैसे होता है १ ।। ७० ॥
यह सूत्र सुगम है ।
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१०८] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, १, ७१. खड्याए लद्धीए ॥ ७१ ॥
दसणमोहणीयस्स णिस्सेसविणासो खओ णाम । तम्हि उप्पण्णजीवपरिणामो लद्धी णाम । तीए लद्धीए खझ्यसम्मादिट्ठी होदि ।
वेदगसम्मादिट्ठी णाम कधं भवदि ? ॥ ७२ ॥ सुगममेदं । खओवसमियाए लद्धीए ॥ ७३ ॥
तं जहा- सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमणंतगुणहाणीए उदयमागदाणमइदहरदेसघादितणेण उवसंताणं जेण खओरसमसण्णा अस्थि तेण तत्थुप्पण्णजीवपरिणामो खओवसमलद्धीसण्णिदो । तीए खओवसमलद्धीए वेदगसम्मत्तं होदि ।
उवसमसम्माइट्ठी णाम कधं भवदि ? ॥ ७४ ॥ सुगमं । उवसमियाए लद्धीए ॥ ७५॥
क्षायिक लब्धिसे जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि होता है ॥ ७१ ॥
दर्शनमोहनीय कर्मके निश्शेष विनाशको क्षय कहते हैं, और उस क्षयसे जो जीवपरिणाम उत्पन्न होता है वह क्षायिक लब्धि कहलाती है। उसी क्षायिक लब्धिसे जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि होता है।
जीव वेदकसम्यग्दृष्टि कैसे होता है ? ॥ ७२ ॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायोपशामिक लब्धिसे जीव वेदकसम्यग्दृष्टि होता है । ७३ ॥
वह इस प्रकार है- अनन्तगुणी हानिके द्वारा उदयमें आये हुए तथा अत्यन्त अल्प देशघातित्त्वके रूपसे उपशान्त हुए सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोका चूंकि क्षयोपशम नाम दिया गया है, इसीलिये उस क्षयोपशमसे उत्पन्न जीवपरिणामको क्षयोपशम लब्धि कहते हैं । उसी क्षयोपशम लब्धिसे वेदक सम्यक्त्व होता है।
जीव उपशमसम्यग्दृष्टि कैसे होता है ? ॥७४ ॥ यह सूत्र सुगम है। औपशमिक लब्धिसे जीव उपशमसम्यग्दृष्टि होता है ॥ ७५ ॥
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२, १, ७७. ] सामित्ताणुगमे सम्मत्तमागणा
कुदो १ दंसणमोहणीयस्स उवसमेणेदस्सुप्पत्तिदंसणादो । सासणसम्माइट्ठी णाम कधं भवदि ? ॥ ७६ ॥
एत्थ पुव्वं व णिक्खेवे काऊण णोआगमदो भावसासणसम्माइट्ठी घेत्तव्यो । सो कधं होदि केण पयारेण होदि त्ति पुच्छा।।
पारिणामिएण भावेण ॥ ७७ ॥
एसो सासणपरिणामो खईओ ण होदि, दंसणमोहक्खएणाणुप्पत्तीदो । ण खओवसमिओ वि, देसघादिफद्दयाणमुदएण अणुप्पत्तीए । उवसमिओ वि ण होदि, दसणमोहुवसमेणाणुप्पत्तीदो। ओदइओ वि ण होदि, दंसणमोहस्सुदएणाणुप्पत्तीदो । पारिसेसादो पारिणामिएण भावेण सासणो होदि । अणंताणुबंधीणमुदएण सासणगुणस्सुवलंभादो ओदइओ भावो किण्ण उच्चदे ? ण, दसणमोहणीयस्स उदय-उवसम-खयखओवसमेहि विणा उप्पज्जदि ति सासणगुणस्स कारणं चरित्तमोहणीयं तस्स दंसण
क्योंकि, दर्शनमोहनीय कर्मके उपशमसे उपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति देखी जाती है।
जीव सासादनसम्यग्दृष्टि कैसे होता है ? ॥७६ ॥
यहां पूर्वानुसार निक्षेपोंको करके नोआगम भावसासादनसम्यग्दृष्टिका ग्रहण करना चाहिये । वह सासादनसम्यग्दृष्टि कैसे होता है अर्थात् किस प्रकार होता है ऐसा सूत्र में प्रश्न किया गया है।।
पारिणामिक भावसे जीव सासादनसम्यग्दृष्टि होता है ॥ ७७॥
यह सासादन परिणाम क्षायिक नहीं होता, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके क्षयसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती। सासादन परिणाम क्षायोपशमिक भी नहीं है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती। सासादन परिणाम औपशामिक भी नहीं है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उपशमसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती। सासादन परिणाम औदयिक भी नहीं है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उदयसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती। अतएव पारिशेष न्यायसे पारिणामिक भावसे ही सासादन परिणाम होता है।
शंका-अनन्तानुबन्धी कषायोंके उदयसे सासादन गुणस्थान पाया जाता है, अतएव उसे औदयिक भाव क्यों नहीं कहते ?
समाधान नहीं कहते, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशमके विना उत्पन्न होनेसे सासादन गुणस्थानका कारण चरित्र मोहनीय कर्म ही हो
१ प्रतिषु चरित्तमोहणीयस्स ' इति पाठः।
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११०] छक्खंडागमै खुदाबंधो
[२, १, ७८. मोहणीयत्तविरोहादो । अणंताणुबंधीचदुक्कं तदुभयमोहणं चे ? होदु णाम, किंतु णेदमेत्थ विवक्खियं । अणंताणुबंधीचदुक्कं चरित्तमोहणीयं चेवत्ति विवक्खाए सासणगुणो पारिणामिओ त्ति भणिदो।
सम्मामिच्छादिट्ठी णाम कधं भवदि ? ॥ ७८ ॥
सुगमं । खओवसमियाए लद्धीए ॥ ७९ ॥
सम्मामिच्छत्तस्स सव्वधादिफद्दयाणमुदएण सम्मामिच्छादिट्ठी जदो होदि तेण तस्स खओवसमिओ भावो त्ति ण जुज्जदे ? होदु णाम सम्मत्तं पडुच्च सम्मामिच्छत्तफयाणं सव्वघादित्तं, किंतु असुद्धणए विवक्खिए ण सम्मामिच्छत्तफद्दयार्ण सव्वघादित्तमत्थि, तेसिमुदए संते वि मिच्छत्तसंवलिदसम्मत्तकणस्सुवलंभादो । ताणि सव्वधादिफहयाणि उच्चंति जेसिमुदएण सव्यं घादिज्जदि । ण च एत्थ सम्मत्तस्स णिम्मूल
सकता है और चरित्रमोहनीयके दर्शनमोहनीय मानने में विरोध आता है।
शंका-अनन्तानुवन्धीचतुष्क तो दर्शन और चारित्र दोनोंमें मोह उत्पन्न करनेवाला है ?
समाधान-भले ही अनन्तानुवन्धीचतुष्क उभयमोहनीय हो, किन्तु यहां वैसी विवक्षा नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क चारित्रमोहनीय ही है, इसी विवक्षासे सासादन गुणस्थानको पारिणामिक कहा है।
जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि कैसे होता है ? ॥ ७८ ।। यह सूत्र सुगम है। क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है ॥ ७९ ॥
शंका-चूंकि सभ्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय प्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है, इसलिये उसके क्षायोपशमिक भाव उपयुक्त नहीं है ?
समाधान-सम्यक्त्वकी अपेक्षा भले ही सभ्यग्मिथ्यात्व स्पर्धकोंमें सर्वधातीपना हो, किन्तु अशुद्धनयकी विवक्षासे सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके स्पर्धकोंमें सर्वघातीपना नहीं होता, क्योंकि, उनका उदय रहने पर भी मिथ्यात्वमिश्रित सम्यक्त्वका कण पाया जाता है। सर्वघाती स्पर्धक तो उन्हें कहते हैं जिनका उदय होनेसे समस्त (प्रतिपक्षी गुणका) घात हो जाय । किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्पत्तिमें तो हम
१ प्रतिषु ' होदिज्जदि ' इति पाठः ।
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२, १, ८४.] सामित्ताणुगमे सण्णिमग्गणा
[ १११ विणासं पेच्छामो, सब्भूदासब्भूदत्थेसु तुल्लस्सद्दहणदंसणादो। तदो जुज्जदे सम्मामिच्छत्तस्स खओवसमिओ भावो त्ति ।
.मिच्छादिट्टी णाम कधं भवदि ? ॥ ८०॥
सुगमं ।
मिच्छत्तकम्मरस उदएण ॥ ८१ ॥ एवं पि सुगमं ।। सण्णियाणुवादेण सण्णी णाम कधं भवदि ? ॥ ८२ ॥ सुगमं । खओवसमियाए लद्धीए ॥ ८३॥
णोइंदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणं जादिवसेण अणंतगुणहाणीए हाइदूण देसपादित्तं पाविय उवसंताणमुदएण सण्णित्तदंसणादो ।
असण्णी णाम कधं भवदि ? ॥ ८४॥
सम्यक्त्वका निर्मूल विनाश नहीं देखते, क्योंकि, यहां सद्भूत और असद्भूत पदार्थों में समान श्रद्धान होता देखा जाता है । इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वको क्षायोपशमिक भाव मानना उपयुक्त है।
जीव मिथ्यादृष्टि कैसे होता है ? ॥ ८०॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि होता है ? ॥ ८१ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। संज्ञीमार्गणानुसार जीव संज्ञी कैसे होता है ? ॥ ८२ ॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव संज्ञी होता है ॥ ८३ ॥
क्योंकि, नोइन्द्रियावरण कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके अपनी जातिविशेषके प्रभावसे अनन्तगुणी हानिरूप घातके द्वारा देशघातित्त्वको प्राप्त होकर उपशान्त हुए पुनः उन्हींके उदय होनेसे संशित्व उत्पन्न होता देखा जाता है।
जीव असंज्ञी कैसे होता है ? ॥ ८४ ॥
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११२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ८५. सुगमं ।
ओदइएण भावेण ॥ ८५॥
णोइंदियावरणस्स सव्वधादिफहयाणमुदएण असण्णित्तस्स दंसणादो । ण च गोइंदियावरणमसिद्धं कज्जण्णय-वदिरेगेहि कारणस्स अस्थित्तसिद्धीदो । (णेव सण्णी णेव असण्णी णाम कधं भवदि ? ॥ ८६ ॥ सुगममेदं। खइयाए लद्धीए ॥ ८७ ॥
णाणावरणस्स णिम्मूलक्खएणुप्पण्णपरिणामो इंदियणिरवेक्खलक्खणो खइया लद्धी णाम । तीए खइयाए लद्धीए णेव-सणी णेव-असण्णित्तं होदि।।
आहाराणुवादेण आहारो णाम कधं भवदि ? ॥ ८८ ॥ सुगममेदं । ओदइएण भावेण ॥ ८९ ॥
यह सूत्र सुगम है। औदयिक भावसे जीव असंज्ञी होता है ।। ८५ ॥
क्योंकि, नोहन्द्रियावरणकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयले असंही भाव देखा जाता है । नोइन्द्रियावरण कर्म असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, कार्यके अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा कारणके अस्तित्वकी सिद्धि हो जाती है।
जीव न संज्ञी न असंज्ञी कैसे होता है ? ॥ ८६ ॥ यह सूत्र सुगम है।
क्षायिक लब्धिसे जीव न संज्ञी न असंज्ञी होता है ॥ ८७ ॥
ज्ञानावरण कर्मके निर्मूल क्षयसे जो इन्द्रियनिरपेक्ष लक्षणवाला जीवपरिणाम उत्पन्न होता है उसीको क्षायिक लब्धि कहते हैं । उसी क्षायिक लब्धिसे जीव न संशी 'न असंही होता है।
आहारमार्गणानुसार जीव आहारक कैसे होता है ? ॥८८॥ यह सूत्र सुगम है। औदयिक भावसे जीव आहारक होता है ।। ८९ ॥
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१, १, ९१.] सामित्ताणुगमे सण्णिमग्गणा
[११३ ओरालिय-बेउव्विय-आहारसरीराणमुदएण चाहारो होदि । तेजा-कम्मइयाणमुदएण आहारो किण्ण वुच्चदे ? ण, विग्गहगदीए वि आहारित्तप्पसंगादो। ण च एवं, विग्गहगदीए अणाहारित्तदसणादो ।
अणाहारो णाम कधं भवदि ? ॥९॥ सुगममेदं ।
ओदइएण भावेण पुण खड्याए लद्धीए ॥ ९१ ॥
अजोगिभयवंतस्स सिद्धाणं च अणाहारत्तं खइयं घादिकम्माणं सव्वकम्माणं च खएण । विग्गहगदीए पुण ओदइएण भावेण, तत्थ सव्यकम्माणमुदयदंसणादो।
एवमेगजीवेण सामित्तं णाम अणियोगद्दारं समत्तं ।
औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीरनामकर्म प्रकृतियोंके उदयसे जीव भाहारक होता है।
शंका-तैजस और कार्मण शरीरोंके उदयसे जीव आहारक क्यों नहीं होता?
समाधान नहीं होता, क्योंकि वैसा माननेपर विग्रहगतिमें भी जीवके आहारक होनेका प्रसंग आजायगा । और वैसा है नहीं, क्योंकि, विग्रहगतिमें जीवके अनाहारकभाव पाया जाता है।
जीव अनाहारक कैसे होता है ? ॥९॥ यह सूत्र सुगम है। औदयिक भावसे तथा क्षायिक लब्धिसे जीव अनाहारक होता है ॥ ९१ ॥
अयोगिकेवली भगवान् और सिद्धोंके क्षायिक अनाहारत्व होता है, क्योंकि, उनके क्रमशः घातिया कर्मोंका व समस्त कर्मोका क्षय होता है। किन्तु विग्रहगतिमें औदयिक भावसे अनाहारत्व होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें सभी कर्मोंका उदय पाया जाता है।
इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्त्व नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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एगजीवेण कालानुगमो
एगजीवेण कालानुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइया केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १ ॥
एत्थ मूलोहो कि परुविदो ! ण, चउग्गहपरूवणेण तदवगमादो । णिरयइस सगइणिसेडो ।
जहणेण दसवस्ससहस्साणि ॥ २ ॥
तिरिक्खस्स वा मणुस्सस्स वा दसवस्ससहस्साउट्ठिदीएसु णेरइएस उप्पज्जिदृण गिप्फिडिदस्स दसवस्ससहरसमेत हिदिदंसणादो |
उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि ॥ ३ ॥
तिरिक्खस्स वा मणुस्सस्स वा सत्तमाए पुढवीए तेत्तीस सागरोवमाउट्ठिर्दि बंधिऊण तत्थुपजिय सगदिमणुपालिय णिफिडिदस्स तेत्तीस सागरोवममेत्तणिरय भावुवलंभादो ।
एक जीवकी अपेक्षा कालानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १ ॥
शंका- यहां मूलौघ अर्थात् गतिसामान्यकी अपेक्षा प्ररूपणा क्यों नहीं की ? समाधान - नहीं की, क्योंकि, चारों गतियोंके प्ररूपणसे उसका ज्ञान हो ही
जाता है।
सूत्र में नरकगतिका निर्देश शेष गतियोंके निषेध करनेके लिये किया गया है। जीव कमसे कम दश हजार वर्ष तक नरकगतिमें रहता है || २ ||
क्योंकि, किसी तिर्येच या मनुष्यके दश हजार वर्षकी आयुस्थितिवाले नारकियों में उत्पन्न होकर वहांसे निकल आनेपर नरकमें दस हजार वर्षमात्रकी स्थिति पायी जाती है ।
जीव अधिक से अधिक तेतीस सागरोपम काल तक नरकमें रहता है ॥ ३ ॥
किसी तिर्यच या मनुष्यके सातवीं पृथिवीमें तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिको बांधकर व वहां उत्पन्न होकर अपनी स्थिति पूरी करके निकल आनेपर तेतीस सागरोपममात्र नरकभाव पाया जाता है ।
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२, २, ६. ]
एगजीवेण कालानुगमे रइयकाल परूवणं
[ ११५
पढमा पुढवीए रइया केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ४ ॥ 'केवचिरं' सो समय खण-लब- मुहुत्त-दिवस- पक्ख-मास-उड्डु अयण-संवच्छर-जुगपुव्व - पल्ल - सागरोवमादीणि अवेक्खदे । सेसं सुगमं ।
जहणेण दसवास सहस्साणि ॥ ५ ॥ सुगममेदं णिरओघम्मि परुविदत्तादो ।
उक्कस्सेण सागरोवमं ॥ ६ ॥
पढमाए पुढवीए सागरोवमाउडिदिं वंधिदूण पढमाए पुढवीए उप्पज्जिय सगट्ठिदिमणुपालय णिपिडिदतिरिक्ख- मणुस्सेसु तदुवलंभादो । एदं पढमाए पुढत्रीए वृत्तजहण्णुक्कस्साउअं सीमंत- णिरय रोरुअ- मंत- उमंत-संभंत असं मंत-विभूत-तत्त-तसिदवक्कंत-अवक्कंत-विक्कंतसण्णिदतेरसण्हर्मिदयाणं ससेडीबद्ध-पइण्णयाणं किमेवं चेव होदि आहो ण होदि ति ? एदेसि सव्वेसिं एदं चैव जहण्णुक्कस्साउअं ण होदि, किंतु
प्रथम पृथिवीमें नारकी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ४ ॥
'कितने काल तक' यह शब्द समय, क्षण, लब, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, संवत्सर, युग, पूर्व, पल्य व सागर आदि कालमानोंकी अपेक्षा रखता है । प्रथम पृथिवीमें नारकी जीव कमसे कम दश हजार वर्ष तक रहते हैं ॥ ५ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, इसकी प्ररूपणा ओघ नारकियोंकी प्ररूपणामें की
जा चुकी है।
अयन,
प्रथम पृथिवी में नारकी जीव अधिक से अधिक एक सागरोपम तक रहते है ॥ ६ ॥
क्योंकि, प्रथम पृथिवीकी एक सागरोपम आयुस्थितिको बांधकर प्रथम पृथिवीमें उत्पन्न होकर व अपनी स्थितिको पूरी करके वहांसे निकलनेवाले तिर्यंच व मनुष्यों के एक सागरोपमकी नरकस्थिति पायी जाती है ।
शंका- यह जो प्रथम पृथिवीकी जघन्य और उत्कृष्ट आयु बतलायी गई है सो क्या सीमन्त, नरक, रौरव, भ्रान्त, उद्भ्रान्त, संभ्रान्त, असंभ्रान्त, विभ्रान्त, तप्त, त्रसित, वकान्त, अवक्रान्त और विक्रान्त नामक तेरहों इन्द्रकों तथा उनसे सम्बद्ध श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक सब विलोंकी यही आयुस्थिति होती है, या नहीं होती ?
समाधान - प्रथम पृथिवीके उक्त समस्त बिलोंकी जघन्य और उत्कृष्ट आयु
१ प्रतिषु ' - सम्मंत असभंत - ' इति पाठः ।
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११६]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
सन्वेसिं पुध पुध जहण्णुक्कस्साउअं होदि । तं जहा
सीमंत ससेडीबद्ध - पइण्णयम्मि जहण्णमाउअं दसवस्ससहस्साणि, उक्करसं उदिवस सहस्साणि १००००/९००००। । बिदियपत्थडे णउदिवस्ससहस्त्राणि सम - याहियाणि जहण्णमाउंअं, उक्कस्तं पुण णवुदिवस्स सदसहस्साणि । ९०००००० । तदियपत्थडे जहण्णमाउअं णउदिवस्ससदसहस्साणि समयाहियाणि । ९०००००० | उक्कस्समसंखेज्जाओ पुव्त्रकोडीओ | चउत्थपत्थडे जहण्णमसंखेज्जाओ पुन्त्रकोडीओ समयाहियाओ, उक्कस्सं सागरोवमस्स दसमभागो । इमं मुहं होदि अप्पत्तादो, सागरोवमं भूमी होदि बहुदरत्तादो । भूमिदो कयसरिसच्छेदादो मुहमवणिय दृविदे सुद्धसेसमेत्तियं होदि | | | पुणो उस्सेधो दस होदि, दससु अवदिवडिहाणिदंसणादो । तत्थ दससु पढमस्स वड्डी णत्थि त्ति एगरुवमवणिय सुद्धसेसणओट्टिदे लद्धं वड्डि हाणिपमाणं होदि 18 | एत्थ उवउती करणगाहा
इतनी ही नहीं होती, किन्तु सब बिलोंकी पृथक् पृथक् जघन्य और उत्कृष्ट आयु होती है । वह इस प्रकार है
[ २, २, ६.
अपने श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों सहित सीमन्त नामक प्रथम इन्द्रकमें अन्य आयु दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु नब्बे हजार वर्षकी होती है | १०००० | ९०००० । दूसरे पाथड़े में जघन्य आयु एक समय अधिक नब्बे हजार वर्ष और उत्कृष्ट नब्बे लाख वर्षकी होती है । ९००००००। तीसरे पाथड़े में जघन्य आयु एक समय अधिक नब्बे लाख वर्ष ९०००००० और उत्कृष्ट आयु असंख्यात पूर्वकोटियोंकी होती है । चतुर्थ पाथड़े में जघन्य आयु एक समय अधिक असंख्यात पूर्वकोटि और उत्कृष्ट आयु एक सागरोपमके दशम भाग होती है । यही सागरोपमका दशमांस ' मुख' कहलाता है, क्योंकि, वह अल्प है, तथा पूरा एक सागरोपम 'भूमि' कहलाता है, क्योंकि, वह मुखकी अपेक्षा बड़ा है। भूमिको मुखके समान भागों में खंडित करके उसमेंसे मुखको घटादेनेपर शेष मान होता है-उत्सेध दश है, क्योंकि, चतुर्थ आदि तेरहवें पाथड़े पर्यन्त दश पाथड़ों का आयुप्रमाण निकालना है और इन्हीं दश स्थानोंमें अवस्थित हानि-वृद्धि पायी जाती है । इन दश स्थानोंमें चतुर्थ पाथड़े संबंधी प्रथम स्थान में तो वृद्धि है नहीं । इसलिये एकको दशमेंसे घटाकर शेष नौका नौ वटे दशमें भाग देनेसे जो लब्ध आता है वह वृद्धि-हानिका प्रमाण होता है । ( १० - १ = ९, १० = ९ = ) | यहां निम्न करण गाथा उपयोगी है
=
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२, २, ७.) एगजीवेण कालाणुगमे गैरइयकालपरूवर्ण [११७
मुह-भूमीण विसेसो उच्छयभजिदो दु जो हवे वड्डी ।
बड्डी इच्छागुणिदा मुहसहिया होइ वड्डिफलं ॥ १ ॥ .. पुणो एवमाणिदवढेि दससु ठाणेसु ठविय एगादिएगुत्तरसलागाहि गुणिय मुहपक्खेवे कदे इच्छिद-इच्छिदपत्थडाणमाउअं होदि । तस्स पमाणमेदं ।। २ ।। स ।१।। एसो अत्यो सुत्ते अवुत्तो कधं णव्वदे ? किमिदि ण वुत्तो, वुत्तो चेव देसामासियभावेण । एदं सुत्तं देसामासियमिदि कुदो णव्वदे ? गुरूवदेसादो ।
विदियाए जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया केवचिरं कालादो होति ? ॥ ७॥
मुख और भूमिका जो विशेष अर्थात् अन्तर हो उसे उत्सेधसे भाजित करदेनेपर जो वृद्धिका प्रमाण आता है, उस वृद्धिको अभीष्टसे गुणा करके मुखमें जोड़नेपर वृद्धिका फल प्राप्त हो जाता है ॥ १॥
पुनः इस प्रकार लाये हुए वृद्धिके प्रमाणको दश स्थानोंमें स्थापित कर एकादि उत्तरोत्तर बढ़ती हुई शलाकाओंसे गुणितकर लब्धको मुखमें मिला देनेसे प्रत्येक अभीष्ट पाथड़ेका आयुप्रमाण निकल आता है । इस प्रकार निकाला हुआ चतुर्थ आदि पाथड़ोंका आयुप्रमाण निम्न प्रकार है -
| आयुप्र. ३ ३ ३
१ । शंका-ऐसा अर्थ सूत्रमें तो कहा नहीं गया, फिर वह कहांसे जाना जाता है ? समाधान--कैसे नहीं कहा गया ? देशामर्शक भावसे कहा तो गया है। शंका-प्रस्तुत सूत्र देशामर्शक है यह कैसे जान लिया ? समाधान-गुरुजीके उपदेशसे हमने जाना कि प्रस्तुत सूत्र देशामर्शक है ।
दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नरकोंमें नारकी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ७॥
१ प्रतिषु — आधचतुर्पु कोष्ठेषु |
।।२।।' इति पाठः ।
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११८] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, २, ८. सुगममेदं ।
जहण्णेण एक्क तिण्णि सत्त दस सत्तारस बावीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ८॥
बिदियाए पुढवीए समयाहियमेक्कं सागरोवमं । तदियाए पुढवीए तिण्णि सागरोवमाणि समयाहियाणि । चउत्थीए पुढवीए सत्त सागरोवमाणि समयाहियाणि । पंचमीए पुढवीए दस सागरोवमाणि समयाहियाणि । छट्ठीए पुढवीए सत्तारस सागरोवमाणि समयाहियाणि। सत्तमीए पुढवीए बावीस सागरोवमाणि समयाहियाणि । सादिरेयमिदि वुत्ते एक्को चेव समओ अहिओ त्ति कधं णव्वदे ? ' उवरिल्लुक्कस्सद्विदी समयाहिया हेट्ठिमपुढवीणं जहण्णा' त्ति' वयणादो णव्वदे।
___ उक्कस्सेण तिणि सत्त दस सत्तारस बावीस तेत्तीसं सागरो. वमाणि ॥९॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम दूसरी पृथिवीमें कुछ अधिक एक सागरोपम, तीसरी में कुछ आधिक तीन, चौमें कुछ अधिक सात, पांचवीमें कुछ अधिक दश, छठवींमें कुछ अधिक सत्तरह और सातवीं में कुछ अधिक बाईस सागरोपम तक नारकी जीव रहते हैं ।। ८ ।।
दूसरी पृथिवीमें एक समय अधिक एक सागरोपम, तीसरी पृथिवीमें एक समय अधिक तीन सागरोपम, चौथी पृथिवीमें एक समय अधिक सात सागरोपम, पांचवीं पृथिवीमें एक समय अधिक दश सागरोगम, छठी पृथिवीमें एक समय अधिक सत्तरह सागरोपम और सातवीं पृथिवीमें एक समय अधिक वाईस सागरोपम आयुका प्रमाण है।
शंका-सूत्र में जो 'सातिरेक' अर्थात् 'कुछ अधिक' शब्द आया है उससे एक मात्र समय ही अधिक होता है यह कैसे जान लिया ?
समाधान-क्योंकि 'उत्तरोत्तर ऊपरकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय अधिक होकर नीचे नीचेकी पृथिवियोंकी जघन्य स्थिति होती है' इस आगमवचनसे ही जाना जाता है कि उपर्युक्त पृथिवियोंकी जघन्यायुमें सातिरेकका प्रमाण एक मात्र समय अधिक है।
द्वितीयादि पृथिवियोंमें नारकी जीव अधिकसे अधिक क्रमशः तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम काल तक रहते हैं ॥९॥
१ मारकाणां च द्वितीयादिषु । त. सू. ४, ३५. उवरिमउक्कस्साऊ समय दो देहिमे जहणं च ॥ ति. प. २,२१४.
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२, २, ९.] एगजीवेण कालाणुगमे णेरइयकालपरूवणं [११९
एत्थ जहासंखणाओ अल्लिएदव्यो । एदाणि दो वि सुत्ताणि देसामासियाणि, पादेकं पुढवीणं जहण्णुक्कस्सद्विदीपरूवणामुहेण सव्वपत्थडाणमाउढिदिसूचणादो । एदेहि दोहि वि सुत्तहि सूचिदत्थस्स परूषणं कस्सामो। तं जहा - तणओ' थणओ वणओ मणओ घादो संघादो जिब्भो जिब्भओ लोलो लोलुयो थणलोलुवो चेदि एदे विदियपुढवीए इंदया । एदेसिमाउहिदीए आणिज्जमाणाए पढमपुढविउक्कस्साउअं मुहं काऊण विदियाए पुढवीए उक्कस्साउअं तिण्णिसागरोवमपमाणं भूमि काऊण एक्कारस इंदए उस्सेहं काऊण पुबिल्लकरणगाहाए बिदियपुढवीएक्कारसपत्थडाणं पादेक्कमाउपमाणमाणेदव्वं । तेसिं पमाणमेदं |, २.
३ । तदियाए पुढर्वाए तत्तो तसिदो तवणो तावणो णिदाहो पञ्जलिदो उज्जलिदो सुपजलिदो संपज्ज
__यहां पर सूत्रके अर्थ करनेमें 'यथासंख्य' न्यायका आश्रय लेना चाहिये अर्थात् तीन, सात आदि सागरोपमोंको क्रमशः दूसरी, तीसरी आदि पृथिवियोंके आयुप्रमाण रूपसे योजित करना चाहिये। पूर्वोक्त दोनों सूत्र देशामर्शक हैं, क्योंकि, वे प्रत्येक पृथिवीकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकी प्ररूपणा द्वारा अपने अपने समस्त पाथड़ोंकी आयुस्थितिकी सूचना करते हैं । अब हम यहां इन दोनों सूत्रोंके द्वारा सूचित अर्थका प्ररूपण करते हैं। वह इस प्रकार है -
तनक, स्तनक, वनक, मनक, घात, संघात, जिव्ह, जिव्हक, लोल, लोलुप और स्तनलोलुप ये क्रमशः द्वितीय पृथिवीके ग्यारह इन्द्रकों के नाम हैं । इनकी आयुस्थिति लानेके लिये प्रथम पृथिवीकी उत्कृष्ट स्थितिको मुख करके तथा दूसरी पृथिवीकी तीन सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयुको भूमि करके और ग्यारह इन्द्रकोंको उत्सेध करके पूर्वोक्त करणगाथानुसार द्वितीय पृथिवीके ग्यारह पाथड़ोंमेंसे प्रत्येकका आयुप्रमाण ले आना चाहिये।
उदाहरण-द्वि. पृ. संबंधी मुख = १ सा., भूमि = ३ सा., उत्सेध = ११ . अतएव प्रत्येक प्रस्तरके लिये वृद्धिका प्रमाण हुआ- (३-१) ११=३ । इसको इच्छा अर्थात् प्रस्तरकी क्रमसंख्यासे गुणा करनेपर व भूमिमें मिलानेपर ग्यारहों प्रस्तरोंका आयुप्रमाण इस प्रकार आता है। प्रस्तर । २ । २ । ३ । ४ । ५। ६ । ७ । ८९।१०। १ ।
तीसरी पृथिवीमें तप्त, त्रसित, तपन, तापन, निदाघ प्रज्वलित, उज्वलित,
१ प्रतिषु ' थदओ' इति पाठः ।
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१२०] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, २, ९. लिदो त्ति एदे णव इंदया । एदेसिमाउअं पुध्वं व जाणिदूर्ण आणेदव्यं । तेसिं संदिट्ठी एसा HTTERTA७|| चउत्थीए पुढवीए आरो तारो मारो वंतो तमो खादो खदखदो चेदि सत्त इंदया । एदेसिमाउअपमाण' पुव्वं व आणेदव्यं । तस्स संदिट्ठी एसा हासाग १०। पंचमीए पुढवीए तमो भमो झसो अंधो तिमिसो चेदि पंच इंदया। एदेसिमाउअपमाणस्स संदिट्ठी एसा | |१७ । छट्ठीए पुढवीए हिमो वड्डलो लल्लंको चेदि तिण्णि इंदया । तेसिमाउअपमाणस्स संदिट्ठी एसा |||२२|| सत्तमाए पुढवीए अवहिट्ठाणमिदि एक्को चेव इंदओ । तत्थ जहण्णु
सुप्रज्वलित और संप्रज्वलित नामक नव इन्द्रक हैं । इनकी आयु भी पूर्वोक्त विधिसे जानकर ले आना चाहिये । उनकी संदृष्टि इस प्रकार है
आ. प्र. सा. ३१ ३६।४३/४६/५६ । ५६।६६।६६। ७
चौथी पृथिवीमें आर, तार, मार, वान्त, तम, खात और खातखात नामक सात इन्द्रक हैं। इनका आयुप्रमाण भी पूर्वानुसार ले आना चाहिये । उसकी संदृष्टि इस प्रकार है
| प्रस्तर । १ | २ | ३ | ४ । ५ । ६ । ७ ।
| आ. प्र. सा. |७१७१८३८५।९ । ९४ | १०|
पांचवीं पृथिवीमें तम, भ्रम, झष, अन्ध, और तिमिस्र नामक पांच इन्द्रक हैं। उनके आयुप्रमाणकी संदृष्टि इस प्रकार है
| प्रस्तर । १ | २ | ३ | ४ | ५ |
छठी पृथिवीमें हिम, वर्दल और ललंक नामक तीन इन्द्रक हैं। उनके आयु. प्रमाणकी संदृष्टि यह है
प्रस्तर । १ । २
| आ. प्र. सा. । १८३ | २०३ । २२ । सातवीं पृथिवीमें अवधिस्थान नामक एक ही इन्द्रक हैं । वहां जघन्य आयु
१ कप्रतौ । एदेसिमाउआणं पमाणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' अल्लंको' इति पाठः।
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२, २, १२. ]
एगजीवेण कालानुगमे तिरिखकालपरूवणं
क्कस्साउअं च समयाहियं बावीस तेत्तीस सागरोवमाणि २२ । २३ ।
तिरिक्खगदी तिरिक्खो केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १० ॥ सुगममेदं ।
जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ११ ॥
मणुस्सेर्हितो आगंतूण तिरिक्खअपज्जत्ते सुप्पज्जिय तत्थ जहण्णाउट्ठिदि मच्छिय गिफिडिदूण गदस्स खुद्दा भवग्गहणमेत्तजहण्णकालुवलं मादो ।
उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियङ्कं ॥ १२ ॥
अप्पिदगदीहिंतो आगंतूण तिरिक्खेसुप्पज्जिय आवलियाए असंखेज्जदिभागतपोग्गल परियट्टे तिरिक्खेसु परियट्टिदूण अण्णगदिं गदस्स सुत्तुत्तकालुवलंभादो । असंखेज्जपोग्गलपरियट्टेत्ति वुत्ते आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव होंति ।
[ १२१
एक समय अधिक बाईस सागरोपम तथा उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम है । २२ । ३३ । तिर्यंचगतिमें तिर्यच जीव कितने काल तक रहता है १ ।। १० ।
यह सूत्र सुगम I
तियंचगतिमें तिर्यच जीव कमसे कम एक क्षुद्रभवग्रहण काल तक रहता है ॥ ११ ॥
क्योंकि, मनुष्यगतिसे आकर तिर्यच अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर वहां जघन्य आयुस्थितिमात्र काल रहकर वहांसे निकलनेवाले जीवके क्षुद्रभवग्रहणमात्र जघन्य काल पाया जाता है ।
तिर्यंचगतिमें जीव अधिक से अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक रहता है ॥ १२ ॥
क्योंकि, अविवक्षित गतियोंसे आकर तिर्यचों में उत्पन्न होकर और आवलीके असंख्यातवें भागमात्र वार पुगलपरिवर्तन काल तक तिर्यचोंमें परिभ्रमण करके अन्य - गतिमें जानेवाले जीवके सूत्रोक्त असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल पाया जाता है । असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन कहने का तात्पर्य आवलीके असंख्यातवें भागमात्र वारसे है ।
१ छत्तीस तिणि सया छावद्विसहस्सवारमरणाणि । अंतोमुहुत्तमज्झे पत्तो सि णिगोयवासम्म || वियलिदिए असीदी सट्ठी चालीसमेत्र जाणेह | पंचिंदिय चउवीसं खुद्दभवतोमुहुत्तस्स || भावप्राभृत २८-२९.
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१२२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२,२,१३. वड्डिया ण होति त्ति कधं णव्वदे? ण, आइरियपरंपरागदुवदेसादो ।
पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी केवचिरं कालादो होति ? ॥ १३ ॥
(सुगममेदं।) जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहत्तं ॥ १४ ॥
पंचिंदियतिरिक्खाणं खुद्दाभवग्गहणं, तत्थ अपज्जत्ताणं संभवादो । सेसेसु अंतोगुहुत्तं, तत्थ अपज्जत्ताणमभावादो । ण च पज्जत्तेसु जहण्णाउढिदिपमाणं खुद्दाभवग्गहणं होदि, अंतोमुहुत्तुवदेसस्स एदस्स अणत्थयत्तप्पसंगादो।
उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि ॥१५॥
शंका-- असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंका तात्पर्य आवलीके असंख्यातवें भागमात्र वारसे ही है, अधिक नहीं, यह कैसे जाना जाता है ? ।
समाधान-आचार्य परम्परागत उपदेशसे ।
जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त व पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १३ ॥
( यह सूत्र सुगम है।)
कमसे कम क्षुद्रग्रहणकाल व अन्तर्मुहूर्तकाल तक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त व पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती होते हैं ॥ १४ ॥
क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यचौका कमसे कम काल क्षुद्रभवग्रहणमात्र है, कारण कि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में अपर्याप्त जीवोंका होना भी संभव है । शेष तिर्यंचोंका काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि, उनमें अपर्याप्त नहीं होते। पर्याप्तक जीवोंमें जघन्यायुस्थितिका प्रमाण क्षुद्रभवग्रहणकाल मात्र नहीं होता, अर्थात् उससे अधिक होता है, क्योंकि, यदि पर्याप्तकोका जघन्य आयुप्रमाण भी क्षुद्रभवग्रहणकाल मात्र होता तो प्रस्तुत सूत्र में अन्तर्मुहूर्त कालके उपदेशके निरर्थक होनेका प्रसंग आजाता।
अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपमप्रमाण काल तक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त व पंचेन्द्रिय तियंच योनिमती रहते
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२, २, १७.] एगजीवेण कालाणुगमे तिरिक्खकालपरूवणं . [१२३
अणिदिएहितो' आगंतूण पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु उप्पज्जिय जहाकमेण पंचाणउदि-सत्तेत्तालीस-पण्णारसपुचकोडीओ परिभमिय दाणेण दाणाणुमोदणेण वा तिपलिदोवमाउद्विदिएसु तिरिक्खेसु उप्पज्जिय सगआउद्विदिमच्छिय देवेसु उप्पण्णस्स एत्तियमेत्तकालस्सुवलंभादो । कधं तिरिक्खेसु दाणस्स संभवो? ण, तिरिक्खसंजदासंजदाणं सचित्तभंजणे गहिदपच्चक्खाणं सल्लइपल्लवादि देंततिरिक्खाणं तदविरोधादो । इस्थि-पुरिस-णqसयदेसु अट्टहपुनकोडीओ अच्छदि त्ति कधं णव्यदे ? आइरियपरंपरागय उवदेसादो।
पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ॥ १६॥ सुगममेदं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १७॥
क्योंकि, पंचेन्द्रियों को छोड़ एकेन्द्रिय आदि अन्य जातीय जीवोमंसे आकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त व पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंमें उत्पन्न होकर क्रमशः पंचानवे, सैंतालीस व पन्द्रह पूर्वकोटिप्रमाण काल तक परिभ्रमण करके दान देनेसे अथवा दानका अनुमोदन करनेसे तीन पल्योपमकी आयुस्थितिवाले भोगभूमिक तिर्यंचों में उत्पन्न होकर अपनी आयुस्थितिमात्र वहां रहकर देवों में उत्पन्न होनेवाले जीवके सूत्रोक्त काल घटित होता पाया जाता है।
शंका-तिर्यंचों में दान देना कैसे संभव हो सकता है ? ।
समाधान-नहीं, क्योकि, जो तियेच संयतासंयत जीव सचित्तभंजनके प्रत्याख्यान अर्थात् ब्रतको ग्रहणकर लेते हैं उनके लिये शल्लकीके पत्तों आदिका दान करनेवाले तिर्योंके दान देना मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता।
शंका-स्त्री, पुरुष व नपुंसक वेदी पंचेन्द्रिय तिर्यचौमें आठ आठ पूर्वकोटिप्रमाण काल तक ही जीव रहता है यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- आचार्यपरम्परागत उपदेशसे । जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥१६॥ यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त रहते हैं ॥ १७॥
१ प्रतिषु · अणिदिएहितो' इति पाठः ।
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१२४ छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, १८. अणप्पिदेहितो आगंतूण पंचिंदिय (-तिरिक्ख-) अपजत्तएसु उप्पन्जिय सव्वजहण्णकालेण भुंजमाणाउअं कदलीघादेण घादिय खुद्दाभवग्गहणमच्छिय णिप्पिडिदस्स एतदुवलंभादो । पंचिंदियतिरिक्खपजत्तएसु कदलीघादेण घादिदर्भुजमाणाउएसु खुद्दाभवग्गहणकालो किमिदि णोवलब्भदे ? ण, तत्थ अइसुघादं पत्तस्स वि भुंजमाणाउअस्स अंतोमुहुत्तस्स हेवदो पदणाभावा । देव-णेरइएसु खुद्दाभवग्गहणमेत्ता अंतोमुहुत्तमेत्ता वा आउद्विदी किण्ण लब्भदे ? ण, तत्थ दसहं वस्ससहस्साणं हेढदो आउअस्स बंधाभावा, तत्थतणमुंजमाणाउअस्स कदलीघादाभावादो च ।
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १८ ॥
कुदो ? अणप्पिदेहितो आगंतूण पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जत्तएसु उप्पज्जिय सव्वुक्कस्सियं भवहिदिमच्छिय णिप्पिडिदस्स वि अंतोमुहुत्तादो अहियकालस्साणुवलंभा।
क्योंकि, किन्हीं भी अविवक्षित पर्यायोंसे आकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में उत्पन्न होकर व सर्वजघन्य कालसे भुज्यमान आयुको कदलीघातसे नष्ट करके क्षुद्रभवग्रहणकालमात्र जीकर निकल जानेवाले जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है।।
शंका-कदलीघातसे भुज्यमान आयुको नष्ट करनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल क्यों नहीं पाया जाता?
समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि, पर्याप्तकोंमें अत्यन्त शीघ्र आयुका घात करनेवाले जीवके भी भुज्यमान आयुका अन्तर्मुहूर्तकालसे कममें नष्ट होना संभव नहीं है।
शंका-देव और नारकी जीवोंमें क्षुद्रभवग्रहणमात्र अथवा अन्तर्मुहूर्तमात्र आयुस्थिति क्यों नहीं पायी जाती ?
समाधान नहीं पायी जाती, क्योंकि, देव और नारकियों सम्बन्धी आयुका बंध दश हजार वर्षसे कम नहीं होता, और उनकी भुज्यमान आयुका कदलीघात भी नहीं होता।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त रहते है ॥ १८॥
क्योंकि, किन्हीं भी अविवक्षित पर्यायोंसे आकर पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों में उत्पन्न होकर और वहां सर्वोत्कृष्ट भवस्थितिमात्र काल तक रहकर निकलनेवाले जीवके भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल नहीं पाया जाता।
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[ १२५
२, २, २१.] एगजीवेण कालाणुगमे मणुस्सकालपरूवर्ण
(मणुसगदीए) मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी केवचिरं कालादो होति ? ॥ १९॥
एगजीवस्स कालाणुगमे कीरमाणे 'मणुसो केवचिरं कालादो होदि' ति एगजीवविसयपुच्छाए होदव्यमिदि? ण, एक्कम्हि वि जीवे एयाणेयसंखोवलक्खिए असुद्धदव्यट्ठियविवक्खाए अणेयत्तस्स अविरोहादो । सव्वत्थ पुच्छापुबो चेव अत्थणिद्देसो किमहं कीरदे ? ण, वयणपवुत्तीए परदृत्तपदुप्पायणफलत्तादो।
जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुत्तं ॥ २० ॥
सामण्णमणुस्साणं जहण्णाउट्ठिदिपमाणं खुद्दाभवग्गहणं होदि, तत्थ अपज्जत्ताणं संभवादो। पजत्त-मणुसिणीसु जहण्णाउट्ठिदिपमाणमंतोमुहुत्तं, तत्थ तत्तो हेडिमआउट्ठिदिवियप्पाणमणुवलंभादो । सेसं सुगमं ।
उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणभहियाणि ॥२१॥
(मनुष्यगतिमें ) जीव मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यिनी कितने काल तक रहते हैं ? ॥१९॥
शंका-जब एक जीवकी अपेक्षा कालानुगम किया जा रहा है तब 'जीव मनुष्य कितने काल तक रहता है' इस प्रकार एक जीव विषयक ही प्रश्न होना चाहिये, (न कि बहुवचनात्मक जैसा कि सूत्र में पाया जाता है) ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एक व अनेक संख्यासे उपलक्षित जीवमें अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा अनेकत्वके कथनसे कोई विरोध नहीं उत्पन्न होता।।
शंका-सर्वत्र प्रश्नपूर्वक ही अर्थका निर्देश क्यों किया जा रहा है ?
समाधान-'यह वचनप्रवृत्ति परोपकारार्थ है' ऐसी श्रद्धा उत्पन्न करने रूप फलकी अभिलाषासे ही यहां प्रश्नपूर्वक अर्थका निर्देश किया जा रहा है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र या अन्तर्मुहूर्तमात्र काल तक जीव मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यनी रहते हैं ॥२०॥
___सामान्य मनुष्योंकी जघन्य आयुस्थितिका प्रमाण क्षुद्रभवग्रहणमात्र होता है, क्योंकि,सामान्य मनुष्योंमें अपर्याप्त जीवोंका होना संभव है। किन्तु पर्याप्तक मनुष्य और मनुष्यिनियों में जघन्य आयुस्थितिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, उनमें ( अपर्याप्तकोंके अभावसे) आयुस्थितिके विकल्प अन्तर्मुहूर्तसे कमके नहीं पाये जाते । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम काल तक जीव मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त व मनुष्यिनी रहते हैं ॥२१॥
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१२६]
खंड गमे खुद्दा
[ २, २, २२.
कुदो ! अणप्पिदेहिंतो आगंतूण अप्पिदमणुसेसुववज्जिय सत्तेतालीस-तेवीससतपुचकोडीओ जहाकमेण परिभमिय दाणेण दाणाणुमोदेण वा चिपलिदोवमा उट्ठदिमणुसे सुप्पण्णस्स तदुवलंभादो ।
मणुस्सअपज्जता केवचिरं कालादो होंति ? ॥ २२ ॥
aar बहुवणणिसो जुज्जदे ? ण, पुव्युत्तकमेण एक्कहि बहुत्तणिद्दे सस्स अविरोधादो | अधवा ण एत्थ एक्केण चैव जीवेण अहियारो, किंतु पादेक्कं सव्जीवेहि अहियारोति काऊ बहुवयणणिसो उववज्जदे |
जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ २३ ॥
कुदो ? अणप्पिदेहिंतो आगंतून तत्थुष्पज्जिय घादखुदा भवरगहणमच्छिय निफिडिदूग अणप्पिएसु उप्पण्णस्स तदुवलंभादो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २४ ॥
क्योंकि, किन्हीं भी अविवक्षित पर्यायसे आकर विवक्षित मनुष्यों में उत्पन्न होकर क्रमशः सैंतालीस, तेईस व सात पूर्वकोटि काल परिभ्रमण करके दान देकर अथवा दान का अनुमोदन करके तीन पल्योपम् आयुस्थितिवाले (भोगभूमिज ) मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है ।
जीव अपर्याप्तक मनुष्य कितने काल तक रहते हैं ? ॥ २२ ॥ शंका – सूत्र में बहुवचनात्मक निर्देश कैसे उपयुक्त ठहरता है ?
समाधान - क्योंकि, जैसा पहले कह चुके हैं उसी क्रमसे चूंकि जीव एक भी है, अनेक भी है, अतएव अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे बहुवचनके निर्देश से कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता । अथवा, यहां केवल एक ही जीवकी अपेक्षाका अधिकार नहीं है, किन्तु प्रत्येक रूपसे सभी जीवोंकी अपेक्षा अधिकार है, ऐसा समझकर बहुवचननिर्देश उपयुक्त सिद्ध हो जाता है ।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक जीव अपर्याप्त मनुष्य रहते हैं ।। २३ ॥
क्योंकि, किन्हीं भी अन्य पर्यायोंसे आकर अपर्याप्तक मनुष्यों में उत्पन्न होकर कदलीघात से भुज्यमान आयुके घात द्वारा क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक रहकर व वहांसे निकलकर किसी भी अन्य पर्याय में उत्पन्न होनेवाले जीवके सूत्रोक्त कालकी प्राप्ति होती है ।
अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव अपर्याप्त मनुष्य रहते हैं ||२४|
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२, २, २७.! एगजीवेण कालाणुगमे देवकालपरूवणं
[१२७ कुदो ? अइबहुवारमेदेसु अइदीहाउओ होद्ण उप्पण्णस्स वि दोघडियामेत्तभवद्विदीए अभावादो।
देवगदीए देवा केवचिरं कालादो होति ? ॥ २५ ॥ सुगममेदं' जहण्णेण दसवाससहस्साणि ॥ २६ ॥
तिरिक्ख मणुस्सेहिंतो जहण्णाउट्ठिदिदेवेसुप्पन्जिय णिग्गयस्स एत्तियमेत्तकालु वलंभादो।
उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि ॥ २७॥
सबसिद्धिदेवेसु आउअं बंधिय कमेण तत्थुप्पज्जिय तेत्तीससागरोवमाणि तस्थच्छिद्ग णिग्गयस्स तदुवलंभादो । सत्तभवग्गहणाणि दीहाउढिदिएसु देवेसु उप्पाइदे कालो बहुओ लब्भदि ति वुत्ते ण, देव-णेरइयाणं भोगभूमितिरिक्ख-मणुस्साणं
__ क्योंकि, अनेक बहुवार अपर्याप्त मनुष्यों में अतिदीर्घायु होकर भी उत्पन्न हुए जीवके दो घड़ी मात्र भवस्थितिका होना असंभव है।
देवगतिमें जीव देव कितने काल तक रहते हैं ? ॥२५॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम दश हजार वर्ष तक जीव देव रहते हैं ॥२६॥
क्योंकि, तिर्यंचों या मनुष्योंमेंसे निकलकर व जघन्य आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर वहांसे निकले हुए जीवके सूत्रोक्त मात्र काल ही देवपर्यायमें पाया जाता है ।
अधिकसे अधिक तेतीस सागरोपम काल तक जीव देव रहते हैं ॥२७॥
क्योंकि, सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंमें आयुको बांधकर क्रमशः वहां उत्पन्न होकर व तेतीस सागरोपम काल मात्र वहां रहकर निकले हुए जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
शंका-दीर्घायुस्थितिवाले देवोंमें सात आठ भवोंका ग्रहण करनेसे और भी अधिक काल देवगतिमें पाया जा सकता है ?
समाधान नहीं पाया जा सकता, क्योंकि देव, नारकी, भोगभूमिज तिर्यंच
१ प्रतिषु सुगममेयं ' इति पाठः ।
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१२८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, २८. च मुदाणं पुणो तत्थेवाणंतरमुप्पत्तीए अभावादो । कुदो ? अच्चंताभावादो।
(भवणवासियवाणवेंतर-जोदिसियदेवा केवचिरं कालादो होति ? ॥ २८ ॥
सुगममेदं ।
जहण्णेण दसवाससहस्साणि, (दसवाससहस्साणि,) पलिदोवमस्स अट्ठमभागो ॥ २९॥
भवणवासिय-वाण-तराणं दसवाससहस्साणि जहण्णाउद्विदी, जोदिसियाणं पलिदोवमस्स अट्ठमो भागो । वियच्चासो किण्ण होदि ? ण, समेसु उद्देसाणुदेसीसु जहासंखं मोत्तूण अण्णस्सासंभवादो। सेसं सुगमं ।
उक्कस्सेण सागरोवमं सादिरेयं, पलिदोवमं सादिरेयं, पलिदोवमं सादिरेयं ॥३०॥
और भोगभूमिज मनुष्य, इनके मरनेपर पुनः उसी पर्यायमें अनन्तर उत्पत्ति नहीं पायी जाती, चूंकि इसका अत्यन्त अभाव है।
जीव भवनवासी, वानव्यन्तर व ज्योतिषी देव कितने काल तक रहते हैं १॥२८॥ यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम दश हजार वर्ष तक, दश हजार वर्ष तक तथा पल्योपमके अष्टम भाग काल तक जीव क्रमशः भवनवासी, वानव्यन्तर व ज्योतिषी देव रहते हैं ॥२९॥
भवनवासी और वानव्यन्तर देवोंकी जघन्य आयुस्थिति दश हजार वर्ष है, तथा ज्योतिषी देवोंमें जघन्य आयुस्थिति पल्योपमके अष्टम भागप्रमाण है।
शंका-जघन्य आयुस्थिति इसके विपर्यासरूपसे अर्थात् भवनवासी और वानव्यन्तर देवोंमें पल्योपमके अष्टम भाग और ज्योतिषी देवोंमें दश हजार वर्षकी क्यों नहीं हो सकती?
समाधान नहीं हो सकती, क्योंकि उद्दिष्ट और अनुद्दिष्ट पदोंके समान होनेपर यथासंख्य न्यायको छोड़कर अन्य प्रकार विधान होना असंभव है।
शेष सूत्रार्थ सुगम है।
अधिकसे अधिक क्रमशः सातिरेक एक सागरोपम, सातिरेक एक पल्योपम व सातिरके एक पल्योपम काल तक जीव भवनवासी, वानव्यन्तर व ज्योतिषी देव रहते हैं ॥३०॥
.
सकता
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२, २, ३२. ]
एगजीवेण कालागमे देवकालपरूवणं
[ १२९
भवणवासिए सागरोत्रममसागरोवमहियं । वाणवेंतर- जोदिसिएसु पलिदेवमं अपलिदोवमहियं उक्कस्सट्ठिदिपमाणं होदि । ण च बंधसुत्तेण सह विरोहो, उवरिमआउ मोट्टणाघाण घादिय उप्पण्णेसु एदेसिमा उवाणमुवलंभादो । एत्थ सव्वत्थ किंचूणपमाणं जाणिदूण वत्तव्यं । एदेसु तिसु वि देवलोएसु जहण्णाउअप्पहुडि जावुक्कस्साउवं त्ति समउत्तरखड्डीए आउवं वडदि, पत्थडाणमभावा । सेसं सुगमं ।
सोहम्मीसाण हुड जाव सदर - सहस्सारकप्पवासियदेवा केव चिरं कालादो होंति ? ॥ ३१ ॥
सुगममेदं ।
जहणेण पलिदोवमं वे सत्त दस चोइस सोलस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३२ ॥
सोधम्मसासु दिवड लिदोवमं जहण्णाउअं, सणक्कुमार- माहिंदेसु अड्डाइज्ज
भवनवासी देवोंमें उत्कृष्ट आयुस्थितिका प्रमाण अर्ध सागरोपम अधिक एक सागरोपम होता है, तथा वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें अर्ध पल्योपम अधिक एक पल्योपम होता है । इस प्रकार उत्कृष्ट आयुके प्रमाणके कथनका आयुबन्धसम्बन्धी सूत्र में कहे गये प्रमाणसे विरोध नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि, ऊपरकी आयुको उद्वर्तनाघातसे घात करके उत्पन्न हुए भवनवासी आदि देवोंमें आयुओंका प्रमाण इसी प्रकार पाया जाता है । इन सब आयुओंमें जो किंचित् हीन प्रमाण होता है उसका कथन जानकर करना चाहिये । (देखो जीवट्ठाण, कालानुगम, सूत्र ९६ टीका, भाग ४ पृ. ३८२ )
इन तीनों देवलोकोंमें जघन्यायुसे लेकर उत्कृष्ट आयु पर्यन्त उत्तरोत्तर एक एक समय अधिक क्रमसे आयु बढ़ती है, क्योंकि यहां प्रस्तरोंका अभाव है । शेषं सुन्नार्थ सुगम है ।
जीव सौधर्म-ईशानसे लगाकर शतार - सहस्रार पर्यन्त कल्पवासी देव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ३१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
कमसे कम सातिरेक एक पल्योपम, दो सागरोपम, सात सागरोपम, दश सागरोपम, चौदह सागरोपम व सोलह सागरोपम काल तक जीव सौधर्म - ईशानसे लेकर शतार- सहस्रार तक के कल्पवासी देव होते हैं ॥ ३२ ॥
सौधर्म और ईशान स्वगमें डेढ़ पल्योपम जघन्य आयु है । सनत्कुमार और
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१३०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, ३३. सागरोवमाणि, बम्ह-बम्होत्तरेसु साद्धसत्तसागरोबमाणि, लांतव-काविढेसु साद्धदससागरोवमाणि । सुक्क-महासुक्केसु साद्धचोदससागरोवमाणि सदर-सहस्सारकप्पेसु साद्धसोलससागरोवमाणि जहण्णाउवं ।
उक्कस्सेण वे सत्त दस चोदस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३३॥
सोहम्मीसाणेसु अड्डाइजसागरोवमाणि देसूणाणि, सणक्कुमार-माहिदेसु साद्धसत्तसागरोवमाणि देसूणाणि, बम्ह-बम्होत्तरेसु साद्धदससागरोवमाणि देसूणाणि, लांतव-कापिढेसु साद्धचोदससागरोवमाणि देसूणाणि, सुक्क-महासुक्केसु साद्धसालससागरोवमाणि देसूणाणि, सदर-सहस्सारेसु साद्धअट्ठारससागरोवमाणि देसूणाणि । एत्थ देसूणपमाणं जाणिदूण वत्तव्यं । एदाणि दो वि सुत्ताणि देसामासयाणि । तेणेदेहि सूइदत्थस्स परूवणं कस्सामो। तं जहा- उदू विमलो चंदो वग्गू वीरो अरुणो णंदणो णलिणो कांचों रुहिरो चंचो मरुदिद्धिसो वेलुरिओ रुजगो रुचिरो अंको फलिहो तवणीओ मेहो अभं हरिदो पउमं
--.........................................
माहेन्द्र स्वर्गों में अढ़ाई सागरोपम, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गों में साढ़े सात सागरोपम, लांतव और कापिष्ठ स्वर्गों में साढ़े दश सागरोपम, शुक और महाशुक्रमें साढ़े चौदह सागरोपम, तथा शतार और सहस्रार स्वर्गों में साढ़े सोलह सागरोपम जघन्य आयु है।
आधिकसे अधिक सातिरेक दो, सात, दश, चौदह, सोलह व अठारह सागरोपम काल तक जीव सौधर्म-ईशान आदि कल्पोंमें रहते हैं ॥ ३३ ॥
सौधर्म-ईशान कल्पोंमें कुछ कम अढ़ाई सागरोपम, सनत्कुमार-माहेन्द्र में कुछ कम साढ़े सात सागरोपम, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरमें कुछ कम साढ़े दश सागरोपम, लांतव-कापिष्टमें कछ कम साढे चौदह सागरोपम, शुक्र-महाशुक्रमें कछ कम साढे सोलह सागरोपम, तथा शतार-सहस्रार कल्पोंमें कुछ कम साढ़े अठारह सागरोपम उत्कृष्ट आयुप्रमाण होता है। यहां देशोन अर्थात् कुछ कमका प्रमाण जानकर कहना चाहिये।
___ उपर्युक्त दोनों सूत्र देशामर्शक हैं, इसलिये इनके द्वारा सूचित अर्थका प्ररूपण करते हैं। वह इस प्रकार है
__ ऋतु, विमल, चन्द्र, वल्गु, वीर, अरुण, नन्दन, नलिन, कांचन, रुधिर, चंच, मरुत् (मारुतज्ञ), ऋद्धीश (द्वीश), वैडूर्य, रुचक, रुचिर, अङ्क, स्फटिक, तपनीय, मेघ (मेध), अभ्र, हरित, पद्म, लोहिताक, वरिष्ठ, नन्दावर्त, प्रभंकर, पिष्टाक, गज, मित्र
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१ प्रतिषु बोहम्मीसाणे ' इति पाठः । २-आप्रयोः । कीचणो' इति पाठः।
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२, २, ३३. ]
एगजीवेण कालानुगमे देवकालपरूवणं
[ १३१
लोहिको रिट्ठो दावतो पहंकरो पिट्ठओ गजो मित्तो पभा चेदि सोधम्मीसाणे एक्कतीस पत्थडा होति' । एत्थ उदुम्हि पढमपत्थडे जहण्णमाउअं दिवद्धपलिदोवमं उक्कस्समद्धसागरोत्रमं । एतो तीसण्हं इंदयाणं वड्डी बुच्चदे । तत्थ अद्धसागरोवमं मुहं होदि, भूमी अड्डाइज्जसागरोमाणि । भूमीदो मुहमवणिय उच्छएण भागे हिदे सागरोवमस्स पण सभागो बड्डी होदि | | एदमिच्छिद पत्थड संखाए गुणिय मुहे पक्खित्ते विमलादी तीस पत्थामाउआणि होंति । तेसिमेसा संदिड्डी
०
२९/३१ १ १ ७ ३७ १३ ४ १ | ३० ३० १०६ ३० १० ३ ० ३
१००६१ २११३६७ २३ ७१७३ १० 20,30 १० ६ १०३०२० २
܀
३ ३ ४ ५
सोमीसा एक्कतीसं पत्थडाणि त्ति कधं णव्वदे ?
१७
इगिनीस सत्त चत्तारि दोणि एक्केक्क छक्क एक्काए । उदुआदिवमाणिंदा तिरधियसट्टी मुणेयव्वा ॥ २॥
--
और प्रभा, इन नामोंके इकतीस प्रस्तर सौधर्म ईशान कल्पमें हैं । इनमें से ऋतु नामक प्रथम प्रस्तर में जघन्य आयु डेढ़ पल्योपम व उत्कृष्ट आयु अर्ध सागरोपमप्रमाण है । अव यहां द्वितीयादि तीस इन्द्रकों में वृद्धिका प्रमाण कहते हैं- यहां अर्ध सागरोपम तो मुख है और अढ़ाई सागरोपम भूमि है। अतएव भूमिमेंसे मुखको घटा देने व उच्छ्रय अर्थात् उत्सेध ( ३० ) से भाग देनेपर ( २३-३ ) ÷ ३०=३ = एक सागरोपमका पन्द्रहवां भाग वृद्धिका प्रमाण आता है । इस को अभीष्ट प्रस्तरकी संख्या से गुणित करके मुखमें मिला देने से विमलादिक तीस प्रस्तरोंकी आयुका प्रमाण होता है । उनकी दृष्टि इस प्रकार है । (मूलमें देखिये )
शंका- सौधर्म-ईशान कल्पमें इकतीस प्रस्तर हैं, यह कैसे जाना ?
समाधान - सौधर्म-ईशान कल्पों में इकतीस विमान प्रस्तर हैं, सानत्कुमार-माहेंद्र कल्पोंमें सात, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में चार, लांतव कपिष्टमें दो, शुक्र महाशुक्र में एक, शतारसहस्रारमें एक, आनत प्राणत और आरण- अच्युत कल्पोंमें छह, तथा नौ ग्रैवेयकों में एक एक, अनुदिशों में एक और अनुत्तर विमानोंमें एक, इस प्रकार ऋतु आदिक इन्द्रक विमान तिरेसठ जानना चाहिये ॥ २ ॥
१ त. रा. वा. ४, १९, ८.
२ इगितीस सत चचारि दोणि एक्केक्क छक्क चदुकप्पे । तित्तिय एक्केक्किदयणामा उद्धआदि तेवट्ठी ॥ त्रि. सा. ४६२.
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१३२ छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२, २, ३३. इदि आरिसवयणादो।
अंजणो वणमालो णागो गरुडो लंगलो बलहद्दो चक्कमिदि एदे सणक्कुमारमाहिदेसु सत्त पत्थडा। एदेसिमाउअप्पमाणे आणिज्जमाणे मुहमड्डाइज्जसागरोवमाणि, भूमी सासत्तसागरोवमाणि, सत्त उस्सेहो होदि । तेसिं संदिट्ठी- -
। अरिहो देवसमिदो बम्हो बम्हुत्तरो त्ति चत्तारि बम्ह-बम्हुत्तरकप्पेसु पत्थडा । एदेसिमाउआणं संदिट्ठी एसा- । बम्हणिलओ लंतओ त्ति लांतय-काविद्वेसु दोष्णि पत्थडा । तेसिमाउआणमेसा संदिट्ठी-गा। महासुको त्ति एक्को चेव पत्थडो सुक्क-महासुक्ककप्पेसु । तम्हि आउअस्स एसा संदिट्ठी ।।
१४१
६
.
इस आर्ष वचनसे जाना जाता है कि सौधर्म ईशान कल्पमें इकतीस प्रस्तर हैं।
अंजन, वनमाल, नाग, गरुड़, लांगल, बलभद्र और चक्र, ये सात प्रस्तर सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पोंमें हैं। उनमें आयुका प्रमाण लानेके लिये मुख अढ़ाई सागरोपम, भूमि साढ़े सात सागरोपम और उत्सेध सात है । ( अतएव यहां वृद्धिका प्रमाण हुआ (७१-२३)७=", इस प्रकार प्रथम प्रस्तरका आयुप्रमाण हुआ +==३३ । इसी प्रकार वृद्धिमें इष्ट प्रस्तरकी संख्याका गुणा करके मुखमें जोड़नेसे वनमालमें आयुका प्रमाण ३१३, नागमे ४२, गरुड़में ५४, लांगल में ६१, बलभद्र में ६११ और चक्रमे ७१आता है।
अरिष्ट, देवसमित, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर, ये चार विमान-प्रस्तर ब्रह्म-ब्रम्होत्तर कल्पोंमें हैं। इनकी आयुका प्रमाण मुख ७१, भूमि १०३ और उत्सेघ ४ लेकर पूर्वोक्त विधिके अनुसार अरिपमें ७३+४८, देवसमितमें ३४२+७१ =९, ब्रह्ममें ३४३+७३=९३ और ब्रह्मोत्तरमें x४+७१ = १०३ आता है।
ब्रह्मनिलय और लांतव, ये लांतव-कापिष्ट कल्पोंके दो विमान-प्रस्तर हैं, जिनमें पूर्वोक्त विधि अनुसार आयुका प्रमाण इस प्रकार है-(१४३-१०३):२२ हा. वृ.। २४१+१०१=१२३, २४२+१०५=१४३ अर्थात् ब्रह्मनिलयमें १२३ और लांतवमें १४१ सागरोपम है।
शुक्र-महाशुक्र कल्पों में महाशुक्र नामका एक ही प्रस्तर है। वहां आयुके प्रमाणकी संदृष्टि है १६१ सा.।
१ प्रतिषु णंगलो' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'एदेसुमाउआणं' इति पाठः ।
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२, २, ३५.] एगजीवेण कालाणुगमे देवकालपरूवर्ण [१३३ सहस्सारो त्ति एक्को चेव पत्थडो सदर-सहस्सारकप्पेसु । तस्स आउअस्स संदिट्ठी ।
आणदप्पहुडि जाव अवराइदविमाणवासियदेवा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ३४ ॥
सुगममेदं ।
जहण्णेण अट्ठारस वीसं वावीसं' तेवीसं चउवीसं पणुवीस छब्बीसं सत्तावीसं अट्ठावीसं एगुणत्तीसं तीसं एकत्तीसं बत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३५॥
आणद-पाणदकप्पे साद्ध अट्ठारससागरोवमाणि। आरण-अच्चुदकप्पे समयाहियवसिं सागरोवमाणि | उवरि जहाकमेण णवगेवज्जेसु बावीसं तेवीसं चउवीसं पणुवीसं छब्बीसं सत्तावीसं अट्ठावीसं एगुणत्तीसं तीसं सागरोवमाणि समयाहियाणि । णवाणुदिसेसु एक्कत्तीससागरोवमाणि समयाहियाणि । चदुसु अणुत्तरेसु बत्तीसं सागरोवमाणि
शतार-सहस्रार कल्पोंमें सहस्रार नामका एक ही प्रस्तर है। उसमें आयुप्रमाण है १८२ सा.।
जीव आनत कल्पसे लेकर अपराजित तकके विमानवासी देव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ३४ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम सातिरेक अठारह, बीस, बाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस व बत्तीस सागरोपम काल तक जीव क्रमशः आनत आदि अपराजित विमानवासी देव रहते हैं ॥ ३५ ॥
आनत-प्राणत कल्पमें जघन्य आयु प्रमाण साढ़े अठारह सागरोपम व आरणअच्युत कल्पमें एक समय अधिक बीस सागरोपम है। इससे ऊपर नव ग्रैवेयकोंमें क्रमशः सुदर्शनमें बाईस, अमोघमे तेईस, सुप्रबुद्ध में चौबीस, यशोधरमें पच्चीस, सुभद्रमें छब्बीस, विशालमें सत्ताईस, सुमनसमें अट्ठाईस, सौमनसमें उनतीस और प्रीतिंकर में तीस सागरोपमप्रमाण जघन्य आयुस्थिति है। प्रैधेयकोंसे ऊपर अर्चिए, अर्चिमाली आदि नव अनुदिशा में एक समय अधिक इकतीस सागरोपमप्रमाण जघन्य आयुस्थिति है। अनादिशोसे ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, इन चार अनुत्तर विमानों में
१ प्रतिषु ' हिवीसं ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, ३६. समयाहियाणि । सेसं सुगम ।
उक्कस्सेण वीसं बावीसं तेवीसं चउवीसं पणुवीसं छब्बीसं सत्तावीसं अट्ठावीसं एगुणतीसं तीसं एक्कत्तीसं बत्तीसं तेत्तीसं मागरोवमाणि ॥ ३६॥
एदाणि उक्कस्साउआणि जहण्णाउअविहाणेण जोजेयव्याणि । एदेहि जहण्मुक्कस्ससुत्तेहि देसामासिएहि सूइदत्थस्स परूवणा कीरदे । तं जहा- आणदो पाणदो पु'फओ त्ति आणद-पाणदकप्पेसु तिण्णि पत्थडा। तेसिमाउअस्स पुव्युत्तकमेण आणिदसंदिट्टी एसा- |सादकरो आरणो अच्चुदो त्ति आरण-अच्चुदकप्पेसु तिणि पत्थडा । एदेसिमाउआणं संदिट्ठी-13 । एत्तो उवरि सुदंसणो अमोघो सुप्पयुद्धो जमो
एक समय अधिक बत्तीस सागरोपमप्रमाण जघन्य आयु है। शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
____ अधिकसे अधिक बीस, बाईस, तेईस, चौबीस, पञ्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस, बत्तीस और तेतीस सागरोपम काल तक जीव आनत-प्राणत आदि विमानवासी देव रहते हैं ॥ ३६ ॥
इन उत्कृष्ट आयुओंको जघन्य आयुके विवरणानुसार योजित कर लेना चाहिये। अर्थात् आनत-प्राणतमें उत्कृष्ट आयु बीस सागरोपम, व आरण-अच्युतमें वाईस सागरोपम है । नौ ग्रेवयकोंमें क्रमशः २३, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ सागरोपम है। नौ अनुदिशोंमें बत्तीस सागरोपम है और चार अनुत्तर विमानों में तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट आयु है ।
जघन्य और उत्कृष्ट आयुस्थितिका निर्देश करनेवाले उपर्युक्त दोनों सूत्र देशामर्शक है, अतएव उनके द्वारा सूचित किये गये अर्थकी यहां प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है
आनत-प्राणत कल्पोंमें तीन प्रस्तर हैं - आनत, प्राणत और पुष्पक। इनमें पूर्वोक्त क्रमसे निकाला गया आयुप्रमाण इस प्रकार है- आनतमें १९, प्राणतमें १९१ और पुष्पकमें २० सागरोपम ।
आरण-अच्युत कल्पोंमें तीन प्रस्तर हैं-- सातकर, आरण और अच्युत । इनकी आयुका प्रमाण निकालने पर सातंकरमें २०३, आरणमें २१३ और अच्युतमें २२ सागरोपम आता है।
अच्युत कल्पसे ऊपर नौ ग्रैवेयकोंके नौ प्रस्तर हैं जिनके नाम हैं-सुदर्शन,
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२, २, ३९.] एगजीयण कालाणुगमे एइंदियकालपरूवणं
[१३५ हरो सुभद्दो सुविसालो सुमणसो सोमणसो पीदिकरो त्ति एदे णव पत्थडा णवगेवज्जेसु । एदेसिमाउवाणं वडि-हाणीओ णत्थि, पादेक्कमेक्कक्कपत्थडस्स पाहणियादो । तेसिमाउआणं संदिट्ठी एसा- २३२४.२५२६/२७ २८ २९ ३० ३१।। णवाणुद्दिसेसु आइच्चो णाम एक्को चेव पत्थडो। तम्हि' आउअं एत्तियं होदि |३२|| पंचाणुत्तरेसु सबढ़सिद्धि सण्णिदो एक्को चेव पत्थडो । विजय-वैजयंत-जयंत-अवराजिदाणं जहण्णाउअं समयाहियबत्तीससागरोवममेत्तमुक्कस्सं तेत्तीससागरोवमाणि । जहष्णुक्कस्सभेदाभावादो सव्वट्ठसिद्धिविमाणस्स पुध परूवणा कीरदे
सव्वट्टसिद्धियविमाणवासियदेवा केवचिरंकालादो होति ? ॥३७॥ गयत्थमेदं । जहण्णुक्कस्मेण तेत्तीस सागरोवमाणि ॥ ३८ ॥ एदं पि सुगमं । इंदियाणुवादेण एइंदिया केवचिरं कालादो होति ? ॥ ३९ ॥
अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस्, सौमनस् और प्रीतिंकर । इनमें आयुओंकी हानि-वृद्धि नहीं है, क्योंकि प्रत्येकमें एक एक प्रस्तरकी प्रधानता है। इनकी आयुओंकी संदृष्टि यह है । (मूलमें देखिये )
नौ अनुदिशोंमें आदित्य नामका एक ही प्रस्तर है जिसमें आयुका प्रमाण ३२ सागरोपम है।
पांच अनुत्तरों में सर्वार्थसिद्धि नामका एक ही प्रस्तर है। इनमें विजय, वैजयन्त जयन्त और अपराजित, इन चार विमानों की जघन्य आयु एक समय अधिक बत्तीस सागरोपमप्रमाण तथा उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपमप्रमाण है।
सर्वार्थसिद्धि विमानमें जघन्य और उत्कृष्ट आयुका भेद नहीं है, इसलिये उसकी पृथक् प्ररूपणा की जाती है।
जीव सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ३७॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
कमसे कम और अधिकसे अधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण काल तक जीव सर्वार्थसिद्धिं विमानवासी देव रहते हैं ॥ ३८ ॥
यह सूत्र भी सुगम है। इन्द्रियमार्गणानुसार जीव एकेन्द्रिय कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ३९ ॥
१ प्रतिषु ' तम्हा' इति पाठः ।
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१३६ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, ४० सुगममेदं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ४०॥
कुदो ? अणप्पिदिदिएहितो एइंदिएसुप्पजिय घादखुद्दाभवग्गहणमेत्तकालमच्छिय अण्णिदियं गदस्स तदुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥४१॥
कुदो ? अणप्पिदिदिएहितो एइदिएसुप्पञ्जिय आवलियाए असंखञ्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टे कुंभारचक्कं व परियट्टिय अण्णिदियं गयस्स तदुवलंभादो ।
बादरेइंदिया केवचिरं कालादो होति ? ॥ ४२ ॥ सुगममेदं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥४३॥ एदं पि सुगमं ।
उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ ॥ ४४ ॥
यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीव एकेन्द्रिय रहते हैं ॥ ४० ॥
क्योंकि, अन्य अविवक्षित इन्द्रियोंवाले जीवों से आकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर, कदलीघातसे घातित क्षुदभवग्रहणमात्र काल रहकर अन्य द्वीन्द्रियादि जीवों में गये हुए जीवके सूत्रोक्त कालप्रमाण पाया जाता है।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक जीव एकेन्द्रिय रहते हैं ॥४१॥
क्योंकि, अविवक्षित इन्द्रियोंवाले जीवोंमेंसे आकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर आवलीके असंख्यात भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन कुम्भारके चक्रके समान परिभ्रमण करके द्वीन्द्रियादिक अन्य जीवोंमें गये हुए जीवके सूत्रोक्त काल घटित होता है ।
जीव बादर एकेन्द्रिय कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ४२ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक जीव बादर एकेन्द्रिय रहते हैं ॥ ४३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सार्पणीप्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भाग काल तक जीव बादर एकेन्द्रिय रहते हैं ॥४४॥
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२, २, ४७. ] एगजीवेण कालाणुगमे एइंदियकालपरूवणं
[१३७ अणप्पिदिदिएहितो बादरेइंदिएसुप्पन्जिय अंगुलस्स असंखञ्जदिभागमसंखेजासंखेज-ओसप्पिणी-उवसप्पिणीमेत्तकालं कुलालचक्कं व तत्थेव परिभमिय णिग्गयस्स एदस्स संभवुवलंभा।
बादरएइंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ४५ ॥ सुगममेदं । जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ४६॥ पज्जत्तएतु अंतोमुहुत्तं मोत्तूण अण्णस्स जहण्णाउअस्स अणुवलंभादो । उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि ॥४७॥
अणप्पिदिदिएहितो बादरेइंदियपज्जत्तएसुप्पज्जिय संखेज्जाणि वाससहस्साणि तत्थेव परिभमिय णिग्गयस्स तदुवलंभादो । बहुवं कालं तत्थ किण्ण हिंडदे ? ण, केवलणाणादो विणिग्गयजिणवयणस्सेदस्स सयलपमाणेहिंतो अहियस्स विसंवादाभावा ।
अविवक्षित इन्द्रियोवाले जीवों से आकर बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी मात्र काल तक कुम्हारके चकेके समान उसी पर्यायमें परिभ्रमण करके निकलनेवाले जीवके सूत्रोक्त कालका होना संभव पाया जाता है।
जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ४५ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहुर्त काल तक जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त रहते हैं ॥ ४६ ॥
क्योंकि, पर्याप्तक जीवों में अन्तर्मुहूर्त के सिवाय अन्य जघन्य आयु पायी ही नहीं जाती।
अधिकसे अधिक संख्यात हजार वर्षों तक जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त रहते हैं ॥४७॥
बयोंकि, विवक्षितको छोड़ अन्य इन्द्रियोंवाले जीवोंमेंसे आकर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर संख्यात हजार वर्षों तक उसी पर्यायमें परिभ्रमण करके निकले हुए जीवके सूत्रोक्त कालप्रमाण पाया जाता है।
शंका-संख्यात हजार वर्षांसे अधिक काल तक जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें प्यों नहीं भ्रमण करता?
समाधान--नहीं करता, क्योंकि केवलज्ञानसे निकले हुए व समस्त प्रमाणों से अधिक प्रमाणभूत इस जिनवचन के संबंध विसंवाद नहीं हो सकता।
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१३८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, ४८. बादरेइंदियअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ४८ ॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ४९ ॥ एवं पि सुगमं । उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ५० ॥
अणेयसहस्सवारं तत्थेव पुणो गुणो उप्पण्णस्स वि अंतोमुहुर्त मोत्तूण उवार आउठिदीणमणुवलंभादो ।
सुहुमेइंदिया केवचिर कालादो होति ? ॥ ५१ ॥ सुगमं । जहण्णेण खुदाभवग्गहणं ॥५२॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ ५३॥
जीव बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ४८ ।। यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण काल तक जीव बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त रहते हैं ॥ ४९ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहुर्त काल तक जीव एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्त रहते हैं ॥ ५० ॥
क्योंकि, अनेक हजारों वार उसी पर्यायमें पुनः पुनः उत्पन्न हुए जीवके भी अन्तर्मुहूर्तको छोड़ और ऊपर की आयुस्थितियां पायी ही नहीं जाती।
जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय कितने काल तक रहते हैं ? ।। ५१ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय रहते हैं ॥ ५२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय रहते हैं ॥ ५३॥
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२, २, ५६.] एगजीवण कालाणुगमे एईदियकालपरूवणं [ १३९
अणिदिएहितो आगंतूण सुहुमेइंदिएसुप्पज्जिय असंखेज्जलागमेत्तकालमद्दहिदजलं व तत्थेव परिभमिय णिग्गयम्मि तदुवलंभादो । बादरहिदीदो किमटुं सुहुमद्विदी ण अब्भहिया जादा'? ण, बादरेइंदिएसु आउवबंधमाणवारेहितो सुहुमेइंदिएसु आउवबंधमाणवाराणमसंखेज्जगुणत्तादो । तं कधं णव्यदे ? एदम्हादो जिणवयणादो ।
सुहुमेइंदिया पज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ५४ ॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ५५॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥५६॥
अन्य इन्द्रियोंवाले जीवोंमेसे आकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होकर असंख्यात लोकप्रमाण काल तक तपाये हुए जलके समान उसी पर्यायमें परिभ्रमण करके निकले हुए जीवमें सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
शंका-बादर जीवों की स्थितिसे सूक्ष्म जीवोंकी स्थिति अधिक क्यों नहीं हुई?
समाधान --- नहीं हुई, क्योंकि बादर एकेन्द्रिय जीवों में जितनी वार आयुबन्ध होता है उनसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके असंख्यातगुणी अधिक बार आयुके बंध होते हैं।
शंका-यह कैसे जाना कि सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके बादर एकेन्द्रियों की अपेक्षा असंख्यातगुणी वार अधिक आयुबंध होते हैं ?
समाधान--- इसी जिनवचनसे ही तो यह बात जानी जाती है। जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ५४ ॥ यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक रहते है ? ॥ ५५॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक रहते हैं ॥ ५६ ॥
१ प्रतिधु ' अवहिया जादो' इति पाठ
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१४०) छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, २, ५७. अणेयसहस्सवारं तत्थुप्पण्णे वि अंतोमुहुत्तादो अहियभवहिदीए अणुवलंभा । सुहमेइंदियअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ५७ ॥ सुगम । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ५८ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ५९॥
सुहुमेइंदियपज्जत्ताणमपज्जत्ताणं च उक्कस्सभवविदिपमाणमंतोमुहुत्तमेव, सुहुमाणं पुण भवहिदी असंखेज्जा लोगा, कधमेदं ण विरुज्झदे ? ण, पज्जतापज्जत्तएसु असंखेज्जालोगमेत्तवारगदिमागदिं च करेंतस्स तदविरोधादो ।
बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति? ॥ ६०॥
क्योंकि, अनेक सहस्रवार उसी उसी पर्यायमें उत्पन्न होने पर भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंकी भवस्थिति नहीं पायी जाती।
जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ५७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त रहते हैं ॥ ५८ ॥
यह मूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त रहते हैं ॥ ५९॥
शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थितिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त ही है, जब कि सूक्ष्म जीवोंकी भवस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, यह बात परस्पर विरुद्ध क्यों न मानी जाय ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सूक्ष्म जीव असंख्यात लोकमात्र वार पर्याप्तक और अपर्याप्तकोंमें आवागमन करते हैं, इसलिये उनके अविच्छिन्न पर्याप्त व पर्याप्त कालके अन्तर्मुहूर्तमात्र होते हुए भी सूक्ष्म पर्यायसम्बन्धी कालके असंख्यात लोकप्रमाण होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तथा द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त व चतुरिन्द्रिय पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ६ ॥
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२, २, ६४.] एमजीवेण कालाणुगमे वियलिदियकालपरूवणं
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुत्तं ॥ ६१ ॥
एत्थ जहाकमेण बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियाणं सगंतब्भूदअपज्जत्तसंभवादो खुदाभवग्गहणमेदेसिं चेव पज्जत्ताणमंतोमुहुतं, तत्थ अपज्जत्ताणमभावाद।।
उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि ॥ ६२॥
अणप्पिदिदिएहितो आगंतूण बारसवास-एगुणवण्णरादिंदिय-छम्मासाउएसु बीईदिय-तीइंदिय-चउरिदिएसुप्पज्जिय बहुवारं तत्थेव परियट्टिय णिग्गयस्त वुत्तकालसंभवादो।
बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? ॥६३॥
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ६४ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल व अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव विकलत्रय ३ विकलत्रय पर्याप्त होते हैं ॥ ६१ ॥
. यहां क्रमानुसार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में उनके अपर्याप्तीका भी अन्तर्भाव है, अतएव उन्हीं अपर्याप्तोंकी अपेक्षा उनका कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल होता है । उन्हीं द्वीन्द्रियादिक जीवोंके पर्याप्तोंका काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, उनमें अपर्याप्तोंका अभाव है। ___अधिकसे अधिक संख्यात हजार वर्षों तक जीव विकलत्रय व विकलत्रय पर्याप्त होते हैं ॥ ६२ ॥
अविवक्षित इन्द्रियवाले जीवों से आकर बारह वर्ष, उमंचास रात्रिदिन तथा छह मासकी आयुवाले द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न होकर बहुत वार उन्हीं पर्यायोंमें परिभ्रमण करके निकलनेवाले जीवके सूत्रोक्त कालका होना संभव है।
जीव द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त व चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ६३ ॥
यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्र भवग्रहण काल तक जीव विकलत्रय अपर्याप्त रहते हैं ॥६॥
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१४२ छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२,२, ६५. उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥६५॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ६६॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुत्तं ॥ ६७ ॥ एदं पि सुगमं ।
उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुबकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं ॥ ६८ ॥
पंचिंदियाणं पुनकोडिपुत्तेणब्भहियसागरोवमसहस्साणि । एत्थ सागरोवमसहस्समिदि एगवयणेण होदव्यं, बहूणं सहस्साणमभावादो ? ण, सागरावेमेसु बहुत्त
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीय विकलत्रय अपर्याप्त रहते हैं ॥६५॥
ये दोनों सूत्र सुगम हैं। जीव पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ६६ ॥ यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल व अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त रहते हैं ॥ ६७ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमसहस्र व सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक जीव क्रमशः पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त रहते हैं ।। ६८।।
पंचेन्द्रिय जीवोंका काल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपमप्रमाण होता है।
शंका-इस सूत्रमें 'सागरोपमसहस्त्रं' ऐसा एक वचनात्मक निर्देश होना चाहिये था न कि बहुवचनात्मक, क्योंकि सामान्य पंचेन्द्रिय जीवोंके भवस्थितिकालमें भनेक सहस्र सागरोपम नहीं होते?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सहस्रमें नहीं किन्तु सागरोपमों में
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२, २, ७२.] एगजीवेण कालाणुगमे पुढविकायादिकालपरूवणं [१४३ दंसणादो । ण सहस्ससदस्स पुव्वणिवादो' होदि ति आसंकणिज्ज, लक्खाणुसारेण लक्खणस्स पुवुत्तिदंसणादो। पज्जत्ताण पुण सागरोवमसदपुधत्तं । कधमेदं णव्वदे ? जहासंखणायादो ।
पंचिंदियअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ६९ ॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ७० ॥ उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ७१ ॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया केवचिरं कालादो होति ? ॥ ७२ ॥
एदं पि सुगमं ।
तो बहुत्त्व पाया जाता है । ऐसी भी आशंका नहीं करना चाहिये कि यदि बहुवचनका संबंध सहस्रसे न होकर सागरोपमोसे था तो सहस्त्र शब्दको सागरोपमके पश्चात् न रखकर उससे पूर्व विशेषणरूपसे रखना था, क्योंकि लक्ष्यके अनुसार लक्षणकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका काल सागरोपमशतपृथक्त्व ही है। शंका-पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंका सागरोपमशतपृथक्त्व काल कैसे जाना? समाधान-सूत्रमें यथासंख्य न्यायसे उपर्युक्त प्रमाण जाना जाता है । जीव पंचेन्द्रिय अपर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ६९ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीव पंचेन्द्रिय अपर्याप्त रहते हैं ॥७॥ अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव पंचेन्द्रिय अपर्याप्त रहते हैं ।।७१।। ये दोनों सूत्र सुगम हैं।
कायमार्गणानुसार जीव पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक व वायुकायिक कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ७२ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
१ प्रतिषु 'पुवाणिवादो' इति पाठः।
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१४४]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, २, ७३. जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ७३ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ ७४ ॥
अणप्पिदकायादो आगंतूण अप्पिदकायम्मि समुप्पन्जिय असंखेज्जलागमेत्तकालं तत्थ परियट्टिय णिग्गयम्मि तदुवलंभादो ।
बादरपुढवि-बादरआउ-बादरतेउ-बादरवाउ-वादरवणप्फदिपत्तेय-- सरीरा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ७५॥
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ७६ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण कम्मट्टिदी ॥ ७७ ॥
कमसे कम क्षुद्र भवग्रहण काल तक जीव पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक व वायुकायिक रहते हैं ।। ७३ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक असंख्यातलोकप्रमाण काल तक जीव पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक व वायुकायिक रहते हैं ।। ७४ ।।
क्योंकि, अविवक्षित कायसे आकर व विवक्षित कायमें उत्पन्न होकर असंख्यातलोकमात्र काल तक उसी पर्यायमें परिभ्रमण करके निकलनेवाले जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
जीव वादर पृथिवीकायिक, बादर अपकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक व बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ७५ ॥
यह सूत्र सुगम है। ___ कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीव बादर पृथिवीकायादिक उपर्युक्त पर्यायोंमें रहते हैं । ७६ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक कर्मस्थितिप्रमाण काल तक जीव बादर पृथिवीकायादिक उपर्युक्त पर्यायोंमें रहते हैं ॥ ७७ ॥
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२, २, ७८.] एगजीवेण कालाणुगमै पुढविकायादिकालपरूवणं
[१४५ कम्महिदि त्ति वुत्ते सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता घेत्तव्या, कम्मविसेसद्विदि मोत्तूण कम्मस्साउट्ठिदिगहणादो। के वि आइरिया सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे बादरपुढविकायादीणं कायद्विदी होदि त्ति भणंति । तेसि कम्मद्विदिववएसो कज्जे कारणोवयारादो । एदं वक्खाणमत्थि त्ति कधं णव्यदे ? कम्मट्ठिदिमावालियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदेवादरहिदी होदि त्ति परियम्मवयणण्णहाणुववत्तीदो। तत्थ सामण्णेण बादरद्विदी होदि त्ति जदि वि उत्तं तो वि पुढविकायादीणं बादराणं पत्तेयकायद्विदी घेत्तव्या, असंखेज्जासंखेज्जाओ ओस्सप्पिणी-उस्सप्पिणीओ त्ति मुत्तम्मि बादरहिदिपरूवणादो।
बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउका. इय-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ७८ ॥
सुगमं ।
सूत्र में जो कर्मस्थिति शब्द है उससे सत्तर सागरोपम कोडाकोडि मात्र कालका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि विशेष कर्मोकी स्थितिको छोड़कर कर्मसामान्यकी आयुस्थितिका ही यहां ग्रहण किया गया है। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि सत्तर सागरोएम कोडाकोड़िको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर बादर पृथिवीकायादिक जीवोंकी कायस्थितिका प्रमाण आता है। किन्तु उनकी यह कर्मस्थिति संशा कार्यमें कारणके उपचारसे ही सिद्ध होती है ।
शंका-ऐसा व्याख्यान है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान --- ' कर्मस्थितिको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादरस्थिति होती है' ऐसे परिकर्मके वचनकी अन्यथा उपपत्ति बन नहीं सकती, इसीसे उपर्युक्त व्याख्यान जाना जाता है।
वहांपर यद्यपि सामान्यसे ' बादरस्थिति होती है' ऐसा कहा है, तो भी पृथिवीकायादिक वादर प्रत्येकशरीर जीवोंकी स्थिति ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, सूत्रमें बादरस्थितिका प्ररूपण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी प्रमाण किया गया है।
__ जीव वादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक व बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ७८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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१४६] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, ७९. जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ७९ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि ॥ ८ ॥
अणप्पिदकायादो आगंतूण बादरपुढवि-बादरआउ-बादरतेउ बादरवाउ-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तएसु जहाकमेण बावीसवस्ससहस्स-सत्तवस्ससहस्स-तिण्णिदिवसतिण्णिवस्ससहस्स-दसवस्ससहस्साउएसु उप्पज्जिय संखेज्जवस्ससहस्साणि तत्थच्छिय णिग्गदस्स तदुवलंभादो ।
बादरपुढवि-बादरआउ-वादरतेउ-बादरवाउ-बादरवणफदिपत्तेय-- सरीरअपज्जता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ८१ ।।
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ८२॥
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव बादर पृथिवीकायिक आदि पर्याप्त रहते हैं ।। ७९ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक संख्यात हजार वर्षों तक जीव बादर पृथिवीकायिकादि पर्याप्त रहते हैं ।। ८० ॥
____ अविवक्षित कायसे आकर बादर पृथिवीकायिक, यादर अप्कायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वनस्पति कायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तकोंमें यथाक्रमसे बाईस हनार वर्ष, सात हजार वर्ष, तीन दिवस, तीन हजार वर्ष व दश हजार वर्षकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न होकर व संख्यात हजार वर्षों तक उसी पर्यायमें रहकर निकलनेवाले जीवके सूत्रोक्त प्रमाण काल पाया जाता है।
जीव बादर पृथिवीकायिक, बादर अपकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥८१॥
यह सूत्र सुगम है। ___ कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीव बादर पृथिवीकायिक आदि अपर्याप्त रहते हैं ॥ ८२ ॥
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२, २, ८४.] एगजीवेण कालाणुगमे पुढविकायादिकालपरूवणं
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ८३॥ एदाणि वि सुगमाणि ।
सुहुमपुढविकाझ्या सुहुमआउकाइया सुहुमतेउकाइया सुहुमवाउकाइया सुहुमवणप्फदिकाइया सुहुमणिगोदजीवा पजत्ता अपजत्ता सुहुमेइंदियपज्जत-अपज्जत्ताणं भंगो ॥ ८४ ॥
जहा सुहमेइंदियाणं जहण्णेण खुद्दाभवग्गहण उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा तधा एदेसि सुहुमपुढविआदीणं छण्हं जहष्णुक्कस्सकाला' होति । जहा सुहुमेइंदियपज्जत्ताणं जहण्णकालो उक्कस्सकालो वि अंतोमुहुत्तं होदि तहा सुहुमपुढविकायादीणं छहं पज्जत्ताणं जहण्णुक्कस्सकाला होति । जहा सुहुमेइंदियअपज्जत्ताणं जहण्णकालो खुद्दाभवग्गहणमुक्कस्सो अंतोमुहुत्तं तहा एदेसि छण्हमपज्जताणं जहण्णुक्कस्सकाला होति त्ति भणिदं होदि । सुहुमणिगोदग्गहणमणत्थयं, सुहुमवणप्फदिकाइयग्गहणेणेव सिद्धीदो ।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव बादर पृथिवीकायिक आदि अपर्याप्त रहते हैं ॥ ८३ ॥
ये सूत्र भी सुगम है।
सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म अपकायिक, सूक्ष्म तेजकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदजीव तथा इन्हीं पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके कालका निरूपण क्रमसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त व सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है ॥ ८४ ॥
जिस प्रकार सुक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंका जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात लोकप्रमाण काल है उसी प्रकार इन सूक्ष्म पृथिवीकायिकादिक छहोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल होता है। जिस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका जघन्य काल और उस्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त होता है उसी प्रकार सूक्ष्म पृथिवीकायिकादिक छह पर्याप्तोका जघन्य और उत्कृष्ठ काल होता है । जिस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीबोका अधन्य काल क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है उसी प्रकार इन छह भपर्याप्तोका जघन्य और उत्कृष्ठ काल होता है । यह सूत्रका अभिप्राय है।
शंका-सूत्रमें सूक्ष्म निगोदजीवोंका ग्रहण करना अनर्थक है, क्योंकि, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवोंके ग्रहणसे ही उनका ग्रहण सिद्ध है । तथा सूक्ष्म वनस्पतिकायिक
१ अप्रतौ 'छ०हं पञ्जत्ताणं जहण्णु क्फरस काला' इति पाठः ।
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१४८) छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२, २, ८५. गच सुहुमवणप्फदिकाइयवदिरित्ता सुहुमणिगोदा अस्थि, तहाणुवलंभादो ? णेदं जुज्जदे, जत्थ सुत्तं णस्थि तत्थ आइरियवयणाणं वक्खाणाणं च पमाणत्तं होदि । जत्थ पुण जिणत्रयणविणिग्गयं सुत्तमत्थि ण तत्थ एदेसि पमाणत्तं । सुहुमवणप्फदिकाइए भणिदण सुहमणिगोदजीवा सुत्तम्मि परूविदा, तदो एदेसिं पुध परूवणण्णहाणुववत्तीदो सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदाणं विसेसो अस्थि त्ति णव्वदे।
वणप्फदिकाइया एइंदियाणं भंगो ॥ ८५॥
जहा एइंदियाणं जहण्णकालो खुदाभवग्गहणमुक्कस्सो अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियÉ तहा वणप्फदिकाइयाणं जहप्णकालो उक्कस्सकालो च होदि त्ति उत्तं होइ ।
णिगोदजीवा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ८६ ॥ सुगम । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ८७ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अबाइज्जपोग्गलपरियढें ॥ ८८ ॥
जीवोसे भिन्न सूक्ष्म निगोद जीव है भी नहीं, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता ?
समाधान-- यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, जहां सूत्र नहीं है वहां आचार्यवचनोंको और व्याख्यानोको प्रमाणता होती है । किन्तु जहां जिन भगवानके मुखसे निर्गत सूत्र है वहां इनको प्रमाणता नहीं होती। चूंकि सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंको कहकर सूत्रमें सूक्ष्म निगोदजीवोंका निरूपण किया गया है, अतः इनके पृथक् प्ररूपणकी अन्यथानुपपत्तिसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदजीवोंके भेद है, यह जाना जाता है।
वनस्पतिकायिक जीवोंके कालका कथन एकेन्द्रिय जीवोंके समान है ॥ ८५ ॥
जिस प्रकार एकेन्द्रियोंका जघन्य काल शुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है उसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवोंका जघन्य काल और उत्कृष्ट काल होता है, यह सूत्रका अर्थ है।
जीव निगोदजीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ८६ ॥ यह सूत्र सुगम है। जीव जघन्यसे क्षुद्र भवग्रहण काल तक निगोदजीव रहते हैं ॥ ८७ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
जीव अधिकसे अधिक अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक निगोदजीव रहते हैं ? ॥ ८८॥
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२, २, ९१.] एगजीवेण कालाणुगमे तसकाइयकालपरूषणं [१४९
अणिगोदजीवस्म णिगोदेसु उप्पण्णस्स उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्रेहिंतो उवरि परिभवणाभावादो' ।
बादरणिगोदजीवा बादरपुढविकाइयाणं भंगो ॥ ८९ ॥
जहा बादरपुढविकाइयाणं जहण्णकालो खुद्दाभवग्गहणमुक्कस्सो कम्मट्ठिदी तहा एदसिं जहण्णुक्कसकाला होति । जहा बादरपुढविकाइयपज्जत्ताणं कालो तहा बादरणिगोदपज्जताणं होदि । णवरि बादरपुढविकाइयपज्जत्ताणं उकस्साउट्ठिदी संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि, बादरणिगोदपज्जत्ताणं पुण उस्कस्सकालो अंतोमुहुत्तं । जहा बादरपुढविकाइयअपज्जत्ताणं जहण्णकालो खुद्दाम प्रगहणमुक्कस्सकालो अंतोप्मुहुत्तं तहा बादरणिगोद अपज्ज ताणं जहणुक्कस्सकालो त्ति भणिदं होदि ।
तसकाइया तसकाइयपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥१०॥ सुगम । जहण्णेण खुद्दाभवगहणं अंतोमुहुत्तं ॥ ९१ ॥
क्योंकि, निगोदजीवों में उत्पन्न हुए निगोदसे भिन्न जीवका उत्कर्षसे अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तनोंसे ऊपर परिभ्रमण है ही नहीं।
बादर निगोदजीवोंका काल बादर पृथिवीकायिकोंके समान है ॥ ८९ ।।
जिस प्रकार बादर पृथिवीकायिकोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट कर्मस्थिति प्रमाण है, उसी प्रकार बादर निगोदजीवों का जघन्य और उत्कृष्ट हाल होता है । जिस प्रकार बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंका काल है उसी प्रकार बादर निगोद पर्याप्तोंका काल होता है। विशेष केवल इतना है कि बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंकी उत्कृष्ट आयुस्थिति संख्यात हजार वर्ष है, परन्तु वादर निगोद पर्याप्तोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त ही है। जिस प्रकार बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंका जघन्य काल क्षुद्रम ग्रहण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है उसी प्रकार बादर निगोद अपर्याप्तकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल होता है। .
जीव त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥९०॥ यह सूत्र सुगम है।
जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव क्रमसे प्रकायिक और सकायिक पर्याप्त रहते हैं ।। ९१ ॥
१ कप्रसौ परिभमणामायादो' इति पाठः।
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१५०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, ९२. सुगममेदं पि ।
उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेण भहियाणि बे सागरोवमसहस्साणि ॥ ९२ ॥
तसकाइयाणं पुनकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि बे सागरोवमसहस्साणि, तेसिं पज्जताणं वे सागरोवमसहस्सं चेव । कुदो ? जहासंखणायादो ।
तसकाइयअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ९३ ॥
सुगमं ।
जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ९४ ॥ सुगमं । उक्कस्सेण अंतोमुहृत्तं ॥ ९५ ॥ एदं पि सुगमं ।
यह मूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो सागरोपमसहस्र और केवल दो सागरोपमसहस्र काल तक जीव क्रमशः त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त रहते हैं ॥ ९२ ॥
सकायिकोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्यसे अधिक दो सागरोपमसहस्र और प्रसकायिक पर्याप्तोंका केवल दो सागरोपमसहस्त्र ही है, क्योंकि, यहां यथासंख्यन्याय लगता है।
जीव त्रसकायिक अपर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ९३ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्र भवग्रहण काल तक जीव त्रसकायिक अपर्याप्त रहते हैं ॥१४॥ यह सूत्र सुगम है। अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव त्रसकायिक अपर्याप्त रहते
यह सूत्र भी सुगम है।
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२, २, ९७.] एगजीवेण कालाणुगमे मण-वचिजोगिकालपरूवणं
जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ९६॥
'जोगिणो' इदि वयणादो बहुवयणणिदेसो किण्ण कदो ? ण, पंचण्हं पि एयत्ताविणाभावेण एयवयणुववत्तीदो। सेसं सुगमं ।
जहण्णण एयसमओ ॥ ९७ ॥
मणजोगस्स ताव एगसमयपरूवणा कीरदे। तं जहा- एगो कायजोगेण अच्छिदो कायजोगद्धाए खएण मगजोगे आगदो, तेणेगसमयमच्छिय बिदियसमये मरिय कायजोगी जादो । लद्धो मणजोगस्स एगसमओ । अधवा कायजोगद्धाखएण मणजोगे आगदे विदियसमए वाघादिदस्स पुणरवि कायजोगो चेत्र आगदो। लद्धो बिदियपयारेण एगसमओ। एवं सेसाणं चदुहं मणजोगाणं पंचण्हं वचिजोगाणं च एगसमयपरूवणा दोहि पयारेहि णादण कायव्वा ।
___योगमार्गणानुसार जीव पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ९६॥
शंका-'जोगिणो' इस प्रकारके वचनसे यहां यहुवचनका निर्देश क्यों नहीं किया?
समाधान- - नहीं किया, क्योंकि पांचोंके ही एकत्यके साथ अधिनाभाव होनेसे यहां एकवचन उचित है।
शेष सूत्रार्थ सुगम है।
कमसे कम एक समय तक जीव पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी रहते हैं ॥९७ ॥
प्रथमतः मनोयोगके एक समयकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-- एक जीव काययोगसे स्थित था, वह काययोगकालके क्षयसे मनोयोगमें आया, उसके साथ एक समय रहकर व द्वितीय समयमें मरकर काययोगी हो गया। इस प्रकार मनोयोगका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। अथवा काययोगकालके क्षयसे मनोयोगके प्राप्त होनेपर द्वितीय समयमें व्याघातको प्राप्त हुए उसको फिर भी काययोग ही प्राप्त हुआ। इस तरह द्वितीय प्रकारसे एक समय प्राप्त होता है। इसी प्रकार शेष चार मनोयोगों और पांच वचनयोगोंके भी एक समयकी प्ररूपणा दोनों प्रकारोंसे मानकर करना चाहिये।
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१५२ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधों
[२, २. ९८. उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ९८ ॥
अणप्पिदजोगादो अप्पिदजोगं गंतूण उक्कस्सेण तत्थ अंतोमुहुत्तावट्ठाणं पडि विरोहाभावादो।
कायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ९९ ॥
किमहमेत्थ एगवयणणिद्देसो कदो ? ण एस दोसो, एगनी मोत्तूण बहूहि जीवेहि एत्थ पओजणाभावादो ।
जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १०० ॥
अणप्पिदजोगादो कायजोगं गदस्स जहण्णकालस्स वि अंतोमुहु तपमाणं मोत्तूण एगसमयादिपमाणाणुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्रं ॥ १०१ ॥
अणप्पिदजोगादो कायजोगं गंतूण तत्थ सुट्ट दीहद्धमच्छिय कालं करिय एइंदियसु उप्पप्णस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि परियट्टिदस्स कायजोगुकिस्सकालुवलंभादो ।
___ अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी रहते हैं ॥ ९८॥
___ क्योंकि, अविवक्षित योगसे विवक्षित योगको प्राप्त होकर उत्कर्षस वहां अन्तमुहूर्त तक अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है।
जीव काययोगी कितने काल तक रहता है ? ॥ ९९ ॥ शंका-यहां एकवचनका निर्देश किस लिये किया ?
समाधान--- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक जीवको छोड़कर बहुत जीवास यहां प्रयोजन नहीं है।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक जीव काययोगी रहता है ॥ १० ॥
क्योंकि, अविवक्षित योगसे काययोगको प्राप्त हुए जीवके जघन्य कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्तको छोड़कर एक समयादिरूप नहीं पाया जाता।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक जीव काययोगी रहता है ॥ १०१॥
। क्योंकि, अविवक्षित योगसे काययोगको प्राप्त होकर और वहां अतिशय दीर्घ काल तक रहकर कालको करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुए जीवके आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन भ्रमण करते हुए काययोगका उत्कृष्ट काल पाया जाता है।
१ प्रतिषु — होंति ' इति पाठः ।
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२, २, १०६.] एगजीवेण कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं (१५३
ओरालियकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०२ ॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमओ ॥ १०३॥
मणजोगेण वचिजोगेण वा अच्छिय तेसिमद्धाखएण ओरालियकायजोगंगद-. विदियसमए कालं कादूण जोगंतरं गदस्स एगसमयदसणादो।
उक्कस्सेण बावीसं वाससहस्साणि देसूणाणि ॥ १०४ ॥
बावीसवाससहस्साउअपुढवीकाइएसु उप्पज्जिय सव्वजहण्णेण कालेण ओरालियमिस्सद्धं गमिय पज्जत्तिंगदपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तणवावीसवाससहस्साणि ताव ओरालियकायजोगुवलंभादो। .
ओरालियमिस्सकायजोगी वेउब्वियकायजोगी आहारकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०५॥
जहण्णेण एगसमओ ॥ १०६ ॥
जीव औदारिककाययोगी कितने काल तक रहता है ? ॥ १०२ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव औदारिककाययोगी रहता है ॥ १०३ ॥
क्योंकि, मनोयोग अथवा वचनयोगके साथ रहकर उनके कालक्षयसे औदारिककाययोगको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें मरकर योगान्तरको प्राप्त हुए जीवके एक समय देखा जाता है।
____ अधिकसे अधिक बाईस हजार वर्षों तक जीव औदारिककाययोगी रहता है ॥ १०४॥
क्योंकि, बाईस हजार वर्षकी आयुवाले पृथिवीकायिकोंमें उत्पन्न होकर सर्व जघन्य कालसे औदारिकमिश्रकालको विताकर पर्याप्तिको प्राप्त होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष तक औदारिककाययोग पाया जाता है।
जीव औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और आहारककाययोगी कितने काल तक रहता है ? ॥ १०५॥
कमसे कम एक समय तक जीव औदारिकमिश्रकाययोगी आदि रहता है॥१०६॥
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१५४ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, २, १०७. ओरालियकायजोगाविणाभाविदंडादो कवाडंगदसजोगिजिणम्हि ओरालियमिस्सस्स एगसमओ लम्भदे, तत्थ ओरालियमिस्सेण विणा अण्णजोगाभावादो । मण-वचिजोगेहितो वेउव्यियजोगंगदविदियसमए मदस्स एगसमओ वेउब्धियकायजोगस्स उवलम्भदे, मुदपढमसमए कम्मइय-ओरालिय-वेउब्बियमिस्सकायजोगे मोत्तूण वेउब्धियकायजोगाणुवलंभादो । मण-वचिजोगेहितो आहारकायंजोगंगदबिदियसमए मुदस्स मूलसरीरं पविट्ठस्स वा आहारकायजोगस्स एगसमओ लब्भदे, मुदाणं मूलसरीरपविट्ठाणं च पढमसमए आहारकायजोगाणुवलंभादो।
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १०७ ॥
मणजोगादो वचिजोगादो या वेउब्धिय-आहारकायजोगं गंतूण सबुक्कसं अंतोमुहत्तमच्छिय अण्णजोगं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो, अणप्पिदजोगादो ओरालियमिस्सजोगं गंतूण सबुक्कस्सकालमच्छिय अण्णजोगं गदस ओरालियमिस्सस्स अंतोमुहुत्तमेत्तुक्कस्सकालुवलंभादो । सुहुमेइंदियअपज्जत्तएसु वादरेइंदियअपज्जत्तएसु च
औदारिककाययोगके अविनाभावी दण्डसमुद्घातसे कपाटसमुहातको प्राप्त हुए सयोगी जिनमें औदारिकमिश्रका एक समय पाया जाता है, क्योंकि, उस अवस्थामें औदारिकमिश्रके विना अन्य योग पाया नहीं जाता । मनोयोग या वचनयोगसे वैक्रियिककाययोगको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त हुए जीवके वैक्रियिककाययोगका एक समय पाया जाता है, क्योंकि, मर जाने के प्रथम समय में कार्मणकाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगको छोड़कर वैक्रियिककाययोग पाया नहीं जाता । मनोयोग अथवा वचनयोगसे आहारककाययोगको प्राप्त होने के द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त हुए या मूल शरीरमें प्रविष्ट हुए जीवके आहारककाययोगका एक समय पाया जाता है, क्योंकि, मृत्युको प्राप्त या मूल शरीर में प्रविष्ट हुए जीवोंके प्रथम समयमें आहारककाययोग पाया नहीं जाता।
___ अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव औदारिकमिश्रकाययोगी आदि रहता है ॥ १०७ ॥
__क्योंकि, मनोयोग अथवा वचनयोगसे वैक्रियिक या आहारककाययोगको प्राप्त होकर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर अन्य योगको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तमात्र काल पाया जाता है, तथा अविवक्षित योगसे औदारिकमिश्रयोगको प्राप्त होकर व सर्वोत्कृष्ट काल तक रहकर अन्य योगको प्राप्त हुए जीवके औदारिकमिश्रका अन्तमुहूर्तमात्र उत्कृष्ट काल पाया जाता है।
शंका-सूक्ष्म एकन्द्रिय अपर्याप्तोंमें और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंमें सात
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२, २, १११.] एगजीरेण कालाणुगमे काय जोगिकालपरूवणं [१५५ सत्तट्ठभवग्गहणाणि णिरंतरमुप्पण्णस्स बहुओ कालो किण्ण लब्भदे ? ण, ताओ सव्याओ ट्टिदीओ एक्कदो कदे वि अंतोमुहुत्तमेत्तकालुबलं भादो।।
वेउब्बियमिस्सकायजोगी आहारमिस्सकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०८ ॥
सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १०९ ॥ एगसमओ किण्ण लब्भदे ? ण, एत्थ मरण-जोगपरावत्तीणमसंभवादो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ११०॥
सुगमं ।
कम्मइयकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १११ ॥
आठ भघग्रहण तक निरन्तर उत्पन्न हुए जीवके बहुत काल क्यों नहीं पाया जाता?
समाधान--नहीं पाया जाता, क्योंकि, उन सब स्थितियों को इकट्ठा करने पर भी अन्तर्मुहूर्तमात्र काल पाया जाता है।
जीव वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी कितने काल तक रहता है ? ।। १०८॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी रहता है ॥ १०९ ॥
शंका -- यहां एक समयमा जघन्य काल क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि, यहां मरण और योगपरावृतिका होना असम्भव है।
अधिकसे आधिक अन्तर्मुहत काल तक जीव क्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी रहता है ।। ११० ॥
यह सूत्र सुगम है। । जीव कार्मणकाययोगी कितने काल तक रहता है ? ॥ १११ ॥
.
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_ छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२, २, ११२.
सुगमं ।
जहण्णेण एगसमओ ॥ ११२ ॥ एगविग्गहं कादूण उप्पण्णस्स तदुवलंभादो । उक्कस्सेण तिण्णि समया ॥ ११३ ॥ तिहं समयाणमुवरि विग्गहाणुवलंभादो । वेदाणुवादेण इत्थिवेदा केवचिरं कालादो होति ?॥ ११४ ॥ सुगमं ।
जहण्णेण एगसमओ ॥ ११५॥ उवसमसेडीदो ओदरिय सवेदो होदूण बिदियसमए मुदस्स पुरिसवेदेण परिणयम्स एगसमओवलंभादो ।
उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं ॥ ११६ ॥ अणप्पिदवेदादो इस्थि वेदं गंतूण पलिदोवमसदपुधत्तं तत्येव परिभामिय पच्छा
यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव कार्मणकाययोगी रहता है ॥ ११२ ॥
क्योंकि, एक विग्रह ( मोड़ा) करके उत्पन्न हुए जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
अधिकसे अधिक तीन समय तक जीव कार्मणकाययोगी रहता है ॥ ११३ ॥ क्योंकि, तीन समयोंके ऊपर विग्रह पाये नहीं जाते। वेदमार्गणानुसार जीव स्त्रीवेदी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ११४ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव स्त्रीवेदी रहता है ॥ ११५ ॥
क्योंकि, उपशमश्रेणीसे उतरकर सवेद होते हुए द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त होकर पुरुषवेदसे परिणत हुए जीवके एक समय पाया जाता है।
अधिकसे अधिक पल्योपमशतपृथक्त्व काल तक जीव स्त्रीवेदी रहता
जीव अविवक्षित वेद से स्त्रीषदको प्राप्त होकर और पल्योपमशतपृथक्त्व काल
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२, २, ११९. ] एगजीवेण कालागइत्थवेदादिकाल
[ १५७
अवे' गो । सदपुधत्तमिदि किं । तिसदप्पहुडि जाव णवसदाणि त्ति एदे सव्वविपा सदधतमिदि वुच्चति ।
पुरिसवेदा केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ११७ ॥
सुगमं ।
जहणेण अंतमुत्तं ॥ ११८ ॥
पुरिसवेदोदएण उवसम सेडिं चढिय अवगदवेदो होदूण पुणो उवसमसेडीदे। ओदरमाणो सवेदो होतॄण वेदस्स आदि करिय सव्वजहणमंतोमुहुत्तममच्छिय पुणेो उवसमसेटिं चढिय अवगदवेदभावं गदम्मि पुरिसवेदम्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालस्सुवलंभादो । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुत्तं ॥ ११९ ॥
वेदम्म अतकालभसंखेज्जलोगमेत्तं वा अच्छिय पुरिसवेदं गंतॄण तमछंडिय सागरोवमसदपुधत्तं तत्थेव परिममिय अण्णवेदं गदस्स तदुवलं भादो | | 800 1
तक उसमें ही परिभ्रमण करके पश्चात् अन्य वेदको प्राप्त हुआ ।
शंका- शतपृथक्त्व किसे कहते हैं ?
समाधान - तीन सौसे लेकर नौ सौ तक ये सब विकल्प ' शतपृथक्त्व कहे जाते हैं ।
जीव पुरुषवेदी कितने काल तक रहते हैं ? ।। ११७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव पुरुषवेदी रहते हैं ।। ११८ ॥
पुरुपवेद के उदयसे उपशमश्रेणी चढ़कर, अपगतवेदी होकर, पुनः उपशमश्रेणी से उतरता हुआ सवेद होकर, वेदका आदि करके, सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर, और फिर उपशमश्रेणी चढ़कर अपगतवेदत्वको प्राप्त हुए जीवके पुरुषवेदका अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है ।
अधिक से अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक जीव पुरुषवेदी रहते हैं ।। १५९ ॥ .
नपुंसक वेद में अनन्त काल अथवा असंख्यात लोकमात्र काल तक रहकर पुरुषवेदको प्राप्त होकर और फिर उसे न छोड़कर सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक उसमें ही परिभ्रमण करके अन्य वेदको प्राप्त हुए जीवके वह सूत्रोक्त काल पाया जाता
१ अ. आप्रत्योः अप्णावेदं इति पाठः ।
,
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१५८ 1
छक्खंडागमै खुदाबंधौ । [२, २, १२०. एदमेत्थ सदपुत्तमिदि गहिदं ।
णqसयवेदा केवचिरं कालादो होति ? ॥ १२० ॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमओ ॥ १२१ ॥
णqसयवेदोदएण उवसमसेडिं चडिय ओदरिय सवेदो हादूग बिदियसमए कालं करिय पुरिसवेदं गदस्स एगसमयदसणादो । पुरिसवेदस्स एगसमओ किण्ण लद्धो ? ण, अवगदवेदो होदूण सवेदजादविदियसमए कालं करिय देवेसुप्पण्णो वि पुरिसवेदं मोत्तण अण्णवेदस्सुदयाभावेण एगसमयाणुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ १२२ ॥
अणप्पिदवेदा णqसयवेदयं गंतूण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेनपोग्गलपरियट्टे परियट्टिदृण अण्णवेदं गदस्स तदुवलद्धीदो ।
है। २.०० सागरोपम यहां शतपृथक्त्वसे ग्रहण किये गये हैं।
जीव नपुंसकवेदी कितने काल तक रहते हैं ? ।। १२० ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव नपुंसकवेदी रहते हैं ॥ १२१
क्योंकि, नपुंसकवेदके उदयसे उपशमश्रृंगी चढ़कर, फिर उतरकर, सवेद होकर और द्वितीय समयमें मरकर पुरुषवेदको प्राप्त हुए जीवके नपुंसकवेदका कमसे कम एक समय काल देखा जाता है। .. शंका -पुरुषवेदका जघन्य काल एक समय क्यों नहीं पाया जाता?
__ समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि, अपगतवेद होकर और सवेद होने के द्वितीय समयमें मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेपर भी पुरुषवेदको छोड़कर अन्य वेदके उदयका अभाव होनेसे एक समय काल नहीं पाया जाता।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक जीव नपुंसकवेदी रहते हैं ॥ १२२ ।।।।
क्योंकि, अविवक्षित चेदसे नपुंसक वेदको प्राप्त होकर और आवलीके असंख्यात भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण करके अन्य वेदको प्राप्त हुए जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
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२, २, १२६.] एगजीवेण कालाणुगमे अवगदवेदकालपरूवणं
अवगदवेदा केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १२३॥ सुगमं । उवसमं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ ॥ १२४ ॥
उवसमसेडिं चडिय अवगदवेदो होदूण एगसमयमाच्छय विदियसमए कालं कादण वेदभावं गदस्स तदुवलंभादो।
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १२५ ॥
इत्थिवेदोदएण गर्बुसयवेदोदएण वा उबसमसेडि चडिय अवगदवेदो होदृण सव्युक्कस्समंतोमुहुत्तमाच्छिय वेदभावं गदस्स तदुवलंभादो ।
खवगं पडुच्च नहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १२६ ॥
खवगसेडिं चढिय अवगदवेदो होद्ण सव्वजहण्णेण कालेण परिणवुदस्स तदुवलंभादो।
जीव अपगतवेदी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १२३ ।। यह सूत्र सुगम है।
उपशमककी अपेक्षा कमसे कम एक समय तक जीव अपगतवेदी रहते हैं ॥ १२४ ॥
क्योंकि, उपशमश्रेणी चढ़कर, अपगतवेदी होकर और एक समय रहकर द्वितीय समयमें मरकर सवेदपनेको प्राप्त हुए जीवके एक समय काल पाया जाता है ।
अधिकसे आधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव अपगतवेदी रहते हैं ।। १२५ ।।
क्योंकि, स्त्रीवेदके उदयसे या नपुंसकवेदके उदयसे उपशमश्रेणी चढ़कर, अपगतवेदी होकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर वेदपने को प्राप्त हुए जीवके उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है।
क्षपककी अपेक्षा कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव अपगतवेदी रहते हैं ॥ १२६ ॥
_ क्योंकि, क्षपक श्रेणी चढ़कर और अपगतवेदी होकर सर्वजघन्य कालसे मुक्तिको प्राप्त हुए जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है ।
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१५०]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, २, १२७. उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणं ॥ १२७ ॥
देवस्स णेरइयस्स वा खइयसम्माइहिस्स पुचकोडाउएसु मणुसेसुवधज्जिय अहवस्साणि गमिय संजमं पडिवज्जिय सयजहण्णकालेण खवगसेडिं चडिय अवगदवेदो होदूण केवलणाणं समुप्पाइय देसूणपुरकोडिं विहरिय अबंधगभावं गदस्स तदुवलंभादो ।
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १२८ ॥
सुगमं । जहण्णेण एयसमओ ॥ १२९ ॥
अणप्पिदकसायादो कोधकसायं गंतूण एगसमयमच्छिय कालं करिय णिरयगई मोत्तूणण्णगईमुप्पण्णस्स एगसमओवलंभादो। कोधस्स वाघादेण एगसमओ णन्थि, वाघादिदे नि कोधस्सेव समुप्पत्तीदो। एवं सेसतिण्हं कसायाणं पि एगसमयपरूवणा कायव्वा । णवरि एदेसिं तिण्हं कसायाणं वाघादेण वि एगसमयपरूवणा कायव्वा ।
अधिकसे अधिक कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्ष तक जीव अपगतवेदी रहते हैं ॥ १२७॥
क्योंकि, देव अथवा नारक क्षायिकसम्यग्दृष्टिके पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, आठ वर्ष विताकर, संयमको प्राप्त कर, सर्वजघन्य कालसे क्षपक श्रेणी चढ़कर, अपगतवेदी होकर, केवलज्ञानको उत्पन्न कर, और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक विहार करके अबंधक अवस्थाको प्राप्त होनेपर वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
कषायमार्गणानुसार जीव क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकपायी और लोभकपायी कब तक रहता है ? ॥ १२८ ॥
यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव क्रोधकषायी आदि रहता है ॥ १२९ ।।
क्योंकि, अविवक्षित कषायसे क्रोधकषायको प्राप्त होकर, एक समय रहकर और फिर मरकर नरकगतिको छोड़ अन्य गतियोंमें उत्पन्न हुए जीवके एक समय पाया जाता है । क्रोधके व्याघातसे एक समय नहीं पाया जाता, क्योंकि व्याघातको प्राप्त होनेपर भी पुनः क्रोधकी ही उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार शेष तीन कषायोंके भी एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि इन तीन कषायोंके व्याघातसे भी एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिये । मरणकी अपेक्षा एक समय
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२, २, १३२.] एगजीवेण कालाणुगमे कसाइ-अकसाइकालपरूत्रणं मरणेण एगसमए भण्णमाणे माणस्स मणुसगई, मायाए तिरिक्खगई, लोभस्स देवगई मोत्तूण सेसासु तिसु गईसु उप्पाएअयो। कुदो ? णिरय-मणुस-तिरिक्ख-देवगईसु उप्पण्णाणं पढमसमए जहाकमेण कोध-माण-माया-लोभाणं चेवुदयदसणादो ।
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १३०॥
अणप्पिदकसायादो अप्पिदकसायं गंतूणुक्कस्सकालं तत्थ द्विदस्स वि अंतोमुहूत्तादो अधियकालाणुवलंभादो' ।
अकसाई अवगदवेदभंगो ॥ १३१ ॥
जहा अवगदवेदाण उवसमसेडिं खवगसेडिं च पडुच्च जहण्णेण एगसमयअंतोमुहुत्तपरूवणा, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त-देसूणपुरकोडि परूवणा च कदा तधा अकसायाणं पि जहण्णुक्कस्सेहि कालपरूवणा कादव्या त्ति भणिदं होदि ।
___णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३२॥
कहनेपर मानकी मनुष्यगति, मायाकी तिर्यंचगति और लोभकी देवगतिको छोड़कर शेष तीन गतियों में जीवको उत्पन्न कराना चाहिये । कारण यह कि नरक, मनुष्य, तिथंच और देव गतियोंमें उत्पन्न हुए जीवों के प्रथम समयमें यथाक्रमसे क्रोध, मान, माया और लोभका उदय देखा जाता है।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव क्रोधकषायी आदि रहता है ।।१३०॥
क्योंकि, अविवक्षित कषायसे विवक्षित कषायको प्राप्त होकर उत्कृष्ट काल तक वहीं स्थित हुए भी जीवके अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल नहीं पाया जाता।
अकषायी जीवोंका काल अपगतवेदियोंके समान है ।। १३१ ॥
जिस प्रकार अपगतवेदियोंके उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय व अन्तर्मुहूर्त कालकी प्ररूपणा, तथा उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त व कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण कालकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार अकषायी जीवोंकी भी जघन्य और उत्कर्षसे कालप्ररूपणा करना चाहिये । यह उक्त सूत्रका अर्थ है ।।
ज्ञानमार्गणाणुसार जीव मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी कितने काल तक रहता है ? ॥ १३२ ।।
१ अ-काप्रयोः । अघियकालोवलंभादो', आप्रतौ अधियकालावलंभादो ' इति पाठः ।
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१५२ छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, १३३. सुगमं । अणादिओ अपज्जवसिदो ॥ १३३॥ अभवियं पडुच्च एसो णिदेसो, अभव्वसमाणभव्यं वा । अणादिओ सपज्जवसिदो ॥ १३४ ॥ एसो भवियजीवं पडुच्च णिदेसो क हो । सादिओ सपज्जवसिदो ॥ १३५॥ एसो णिदेसो णाणादो अण्णाणंगदभवियजीवं पडुच्च कदो ।
जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिदेसो-जहाणेणं अंतोमुहुत्तं ॥ १३६ ॥
सम्माइद्विस्स मिच्छत्तं गंतूण मदि-सुदअण्णाणाणि पडिबज्जिय सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय सम्मत्तं गंतृण पडिवण्णमदि-सुदणाणस्स जहण्णकालुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं ॥ १३७ ॥
यह सूत्र सुगम है। मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका काल अनादि-अनन्त है ॥ १३३ ॥ यह निर्देश अभव्य अथवा अभव्य समान भव्य जीयकी अपेक्षासे किया गया है। उक्त दोनों अज्ञानियोंका काल अनादि-सान्त है ॥ १३४ ॥ यह निर्देश भव्य जीवकी अपेक्षासे किया गया है। उक्त दोनों अज्ञानियोंका काल सादि-सान्त है ॥ १३५ ।। यह निर्देश ज्ञानसे अज्ञानको प्राप्त हुए भव्य जीवकी अपेक्षासे किया गया है।
जो वह सादि-सान्त है उसका निर्देश इस प्रकार है-सम्यग्ज्ञानसे मिथ्याज्ञानको प्राप्त हुआ भव्य जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी रहता है ॥ १३६ ॥
क्योंकि, सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त होकर मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानको प्राप्त कर एवं सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर सम्यक्त्वको प्राप्त होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको प्राप्त करनेपर जघन्य काल पाया जाता है।
उपर्युक्त जीव अधिकसे आधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी रहता है ।। १३७ ।।
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२, २, १४०.] एगजीवेण कालाणुगमे अण्णाणित्तियकालपरूवर्ण (१५३
अणादियमिच्छाइट्टिस्स तिण्णि वि करणाणि अद्धपोग्गलपरियट्टस्स बाहिं काऊण पोग्गलपरियट्टादिसमए उवसमसम्मत्तं घेत्तूण आभिणिबोहिय-सुदणाणाणि पडिवज्जिय सबजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय छ आवलियाओ अत्थि त्ति सासणं गंतूण मदि-सुदअण्णाणमादि करिय मिच्छत्तं गंतूण पोग्गलपरियदृस्स अद्धं देसूणं परिभमिय पुणो अपच्छिमे भवे मदि-सुदणाणाणि उप्पाइय अंतोमुहुत्तेण अबंधगत्तं गदस्स देसूणपोग्गलपरियङ्कस्स अद्भवलंभादो ।
विभंगणाणी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३८ ॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमओ ॥ १३९ ॥
देवस्स परइयस्स वा उवसमसम्माइडिस्स उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावेससाए सासणं गंतूण विभंगणाणेण सह एगसमयमच्छिय बिदियसमए मदस्स' तदुवलंभादो ।
उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ १४०॥
क्योंकि, अनादिमिथ्यादृष्टि जीवके अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालके बाहिर तीनों ही करणोंको करके पदलपरिवर्तनके प्रथम समयमें उपशमसम्यक्त्वको ग्रहणकर आभिनिबोधिक व श्रुत ज्ञानको प्राप्त करके और सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर उपशमसम्यक्त्वमें छह आवलियां शेष रहनेपर सासादनसम्यक्त्वको प्राप्त होकर मति और श्रुत अज्ञानका आदि करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक भ्रमण करके पुनः अन्तिम भवमें मति एवं श्रुत ज्ञानको उत्पन्न कर अन्तर्मुहूर्त कालसे अबन्धक अवस्थाको प्राप्त होनेपर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल पाया जाता है।
जीव विभंगज्ञानी कितने काल तक रहता है ? ॥ १३८ । यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव विभंगज्ञानी रहता है ।। १३९ ॥
क्योंकि, देव अथवा नारकी उपशमसम्यग्दृष्टिके उपशमसम्यक्त्वकालमें एक समय शेष रहनेपर सासादनसम्यक्त्वको प्राप्त होकर और विभंगज्ञानके साथ एक समय रहकर द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त होनेपर वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरोपम काल तक जीव विभंगज्ञानी रहता है ॥ १४० ॥
१ प्रतिधु 'गदस्स ' इति पाठः।
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१६४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, १४१. तिरिक्खस्स मणुसस्स वा तेत्तीसाउट्ठिदिएसु सत्तमपुढविणेरईएसु उप्पज्जिय छपज्जत्तीओ समाणिय विभंगणाणी होदूण अंतोमुहुत्तेणूगतेत्तीसाउद्विदिमच्छिय णिग्गदस्स तदुवलंभादो। ___ आभिणियोहिय-सुद-ओहिणाणी केवचिरौं कालादो होदि ? ॥ १४१॥
सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४२ ।।
देवस्स गेरईयरस वा मदि-सुदविभंगअण्णाणेहि अच्छिदस्स सम्मतं घेत्तणुप्पाइदमदिसुदोहिणाणस्स जहण्णमंनोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गयस्स तदंसणादो ।
उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १४३ ॥
देवस्स णेरइयस्स वा पडिवण्णउवसमसम्मत्तेण सह समुप्पण्णमदि सुद-ओहिणाणस्स वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय अविणट्ठतिणाणेहि अंतोमुहुत्तमच्छिय एदेणंतोमुहुत्तेणूणपुव्यकोडाउअमणुस्सेसुववज्जिय पुणो वीसंसागरोवमिएसु देवेसुवधजिजय पुणो पुव्य
क्योंकि, तिथंच अथवा मनुष्यके तेतीस सागरोपमप्रमाण आयुवाले सप्तम पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न होकर, छह पर्याप्तियोंको पूर्ण कर विभंगज्ञानी होकर अन्त. मुहूर्त कम तेतीस सागरोपमप्रमाण आयुस्थिति तक रहकर वहां से निकलनेपर वह ' सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
जीव आभिनियोधिक, श्रुत और अवधि ज्ञानी कितने काल तक रहता है ? ॥१४१। यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी एवं अवधिज्ञानी रहता है ।। १४२ ॥
क्योंकि मति, श्रुत और विभंग अज्ञानके साथ स्थित देव अथवा नारकीके सम्यक्त्वको ग्रहणकर और मति, श्रुत एवं अवधि ज्ञानको उत्पन्न करके उनमें जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर उक्त काल देखा जाता है।
अधिकसे अधिक साधिक छयासठ सागरोपम काल तक जीव आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी एवं अवधिज्ञानी रहता है ॥ १४३ ॥
देव अथवा नारकीके प्राप्त हुए उपशमसम्यक्त्वके साथ मति, श्रुत और अवधि बानको उत्पन्न करके, वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर अविनष्ट तीनों शानोंके साथ अन्तर्मुहर्त काल तक रहकर, इस अन्तर्मुहूर्तसे हीन पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, पुनः बीस सागरोपमप्रमाण आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर, पुनः पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें
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२, २, १४४.
एगजीवेण कालानुगमे सम्मणाणिकालपरूवणं
[ १६५
कोडा मणुस्से सुववज्जिय बावीसं सागरोवमट्ठिदीएस देवेसुववज्जिदूण पुणो पुव्त्रकोडाउस मणुस्सेसुववज्जिय खड्यं पट्टत्रिय चउवीसंसागरोवमाउडिदिएसु देवे सुववज्जिदूण पुणो पुव्वकोडाउस मणुस्सेसुववजिय थोवावसेसे जीविए केवलणाणी होतॄण अबंधगतं गदस्स चदुहि पुव्यकोडीहि सादिरेयछावट्टिसागरोवमाणमुवलंभादो । वेदगसम्मत्तेण छावट्टिसागरोमाणि भमाविय खइयं पट्ठविय तेतीससागरोव माउडिदिएस देवेसुप्पाइय अबंधओ किष्ण कओ ? ण, सम्मत्तेण सह जदि संसारे सुड्डु बहुअं कालं परिभवइ तो चदुहि पुचकोडीहि सादिरेयछावट्टिसागरोवमाणि चैव परिभमदित्ति वक्खाणंतर दंसणट्टमुवदेसणादो। तो मुहुत्ताहियछावट्टिसागरोवमाणि किष्ण वृत्ताणि ? ण, केवलवेदगसम्म तेण छावसिागरोमाणि संपुष्णाणि परिभमिय खइयभावं गदस्स तदुवलंभादो । मणपज्जवणाणी केवलणाणी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १४४ ॥ सुमं ।
उत्पन्न होकर, पुनः बाईस सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर, पुनः पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, क्षायिकसम्यक्त्वका प्रारंभ करके, चौवीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर, पुनः पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर, जीवितके थोड़ा शेष रहनेपर केवलज्ञानी होकर अबन्धक अवस्थाको प्राप्त होनेपर चार पूर्वकोटियों से अधिक छयासठ सागरोपम पाये जाते हैं ।
शंका - वेदकसम्यक्त्वके साथ छयासठ सागरोपमप्रमाण घुमाकर और फिर क्षायिकसम्यक्त्वको प्रारंभ कर तेतीस सागरोपमप्रमाण आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न कराकर अबन्धक क्यों नहीं किया ?
समाधान - नहीं, क्योंकि 'सम्यक्त्वके साथ यदि जीव संसार में खूब बहुत काल तक भ्रमण करे तो चार पूर्वकोटियों से साधिक छयासठ सागरोपमप्रमाण ही भ्रमण करता है' ऐसा अन्य व्याख्यान दिखलानेके लिये वैसा उपदेश दिया है।
शंका-अन्र्तमुर्हत से अधिक छ्यासठ सागरोपम क्यों नहीं कहे ?
समाधान- नहीं कहे, क्योंकि, केवल वेदकसम्यक्त्वके साथ सम्पूर्ण छयासठ सागरोपम भ्रमणकर क्षायिकभावको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तसे अधिक छ्यासठ सागरोपम पाये जाते हैं ।
जीव मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी कितने काल तक रहते हैं ? ।। १४४ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
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छक्खंडागम खुदाबंधी
[ २, २, १४५. जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४५॥
दोसु संजदेसु परिणामपञ्चएणुप्पाइदकेवल-मणपज्जवणाणेसु सबजहणं कालं तेहि सह अच्छिय असंजममबंधयभावं गदेसु एदस्सुवलंभादो ।
उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा ॥ १४६॥
कुदो ? गम्भादिअहवस्सेहि संजमं पडिवज्जिय आभिणिवोहिय-सुदणाणाणि उप्पाइय अंतोमुहुत्तेण मणपज्जवणाणमुप्पाइय पुवकोडिं विहरिय देवेमुप्पण्णस्स देसूण पुव्यकोडिकालोवलंभादो । एवं केवलणाणिस्स वि उक्कस्सकालो वत्तव्यो । णवरि देवेहिंतो णेरइएहिंतो वा आगंतूण पुवकोडाउएसु खइयसम्मत्तेण सह उप्पज्जिय गम्भादिअट्ठवम्सेहि संजमं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तमच्छिय केवलणाणमुप्पाइय देसूणपुबकोडिं विहरिय अबंधगत्तं गदस्स वत्तव्यं ।
संजमाणुवादेण संजदा परिहारसुद्धिसंजदा संजदासजदा केवचिरं कालादो होति ? ॥ १४७ ॥
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक जीव मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी रहते हैं
क्योंकि, दो संयत जवि के परिणामोंके निमित्तसे केवल शान व मनःपर्ययज्ञानको उत्पन्न करके और सर्वजघन्य काल तक उनके साथ रहकर असंयम एवं अबन्धक भावको प्राप्त होनेपर यह काल पाया जाता है ।
अधिकसे अधिक कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक जीव मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी रहते हैं ।। १४६ ॥
क्योंकि, गर्भसे आदि लेकर आठ वर्षोंसे संयमको प्राप्त कर, अन्तर्मुहूर्तसे मनःपर्ययज्ञानको उत्पन्न कर और पूर्वकोटि वर्ष तक विहार करके देवों में उत्पन्न हुए जीवके कुछ कम पूर्वकोटि काल पाया जाता है इसी प्रकार केवलज्ञानीका भी उत्कृष्ट काल कहना चाहिये । विशेष यह है कि देवों या नारकियोंमेंसे आकर, पूर्वकोटि आयुवाले मनुप्योंमें क्षायिकसम्यक्त्वके साथ उत्पन्न होकर, गर्भसे आदि लेकर आठ वर्षांसे संयमको प्राप्त कर, अन्तर्मुहूर्त रहकर, केवलशान उत्पन्न कर और कुछ कम पूर्वकोटि तक विहार करके अबन्धक अवस्थाको प्राप्त हुए जीवके कुछ कम पूर्वकोटि काल पाया जाता है, ऐसा कहना चाहिये।
- जीव संयममार्गणानुसार संयत, परिहारशुद्धिसंयत और संयतासंयत कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १४७ ॥
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२, २, १४९.] एमजीवेण कालाणुगमे संजदादिकालपरूवणं (१६७
सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४८ ॥
कुदो ? संजमं परिहारसुद्धिसंजमं संजमासंजमं च गंतूण जहण्णकालमच्छिय अण्णगुणं गदेसु तदुयलंभादो ।
उपकस्सेण पुब्बकोडी देसूणा ॥ १४९॥
कुदो ? मणुस्सस्स गम्भादिअट्ठवस्सेहि संजमं पडियज्जिय देसूणपुबकोडिं संजममणुपालिय कालं काऊण देवेसुप्पण्णस्स देसूणपुवकोडिमेत्तसंजमकालुवलंभादो । एवं परिहारसुद्धिसंजदस्स वि उकासकालो वत्तव्यो । णवीर सव्वसुही होदूण तीसं वस्साणि गमिय तदो वासपुधत्तेण तित्थयरपादमूले पच्चक्खाणणामधेयपुव्वं पढिदण पुणो पच्छा परिहारसुद्धिसंजमं पडिवज्जिय देसूणपुरकोडिकालमच्छिदूण देवेसुप्पण्णस्स वत्तव्वं । एवमट्टतीसवस्सेहि ऊणियां पुव्यकोडी परिहारसुद्धिसंजमस्स कालो वुत्तो। के वि आइरिया सोलसवस्सेहि के वि बावीसवस्सेहि ऊणिया पुनकोडि ति भणंति । एवं संजदासजस्स वि उक्कस्सकालो वत्तव्यो । णवीर अंतोमुहुत्तपुधत्तेण ऊणिया
यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव संयत आदि रहते हैं ॥ १४८ ॥
क्योंकि संयम, परिहारशुद्धिसंयम और संयमासंयमको प्राप्त होकर व जघन्य काल तक रहकर अन्य गुणस्थानको प्राप्त होनेपर वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
अधिकसे अधिक कुछ कम पूर्वकोटि काल तक जीव संयत आदि रहते हैं ॥ १४९ ॥
क्योंकि, गर्भसे लेकर आठ वर्षांसे संयमको प्राप्त कर और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक संयमका पालन कर व मरकर देवोंमें उत्पन्न हुए मनुष्यके कुछ कम पूर्वकोटिमात्र संयमकाल पाया जाता है । इसी प्रकार परिहारशुद्धिसंयतका भी उत्कृष्ट काल कहना चाहिये । विशेष इतना कि सर्वसुखी होकर तीस वर्षोंको विताकर, पश्चात् वर्षपृथक्त्वसे तीर्थकरके पादमूल में प्रत्याख्यान नामक पूर्वको पढ़कर पुनः तत्पश्चात् परिहारशुद्धिसंयमको प्राप्त कर और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक रहकर देवों में उत्पन्न हुए जीवके उपर्युक्त कालप्रमाण कहना चाहिये । इस प्रकार अड़तीस वर्षों से कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण परिहारशुद्धिसंयमका काल कहा गया है। कोई आचार्य सोलह वर्षोंसे और कोई बाईस वर्षों से कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण कहते हैं। इसी प्रकार संयतासयतका भी उत्कृष्ट काल कहना चाहिये । विशेष यह कि अन्तर्मुहूर्तपृथक्त्वसे कम पूर्यकोटि वर्ष
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१६८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २, १५०. पुच्चकोडी संजमासंजमस्स कालो त्ति वत्तव्वं ।
सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा केवचिरं कालादो होति ? ॥१५॥
सुगमं । जहण्णेण एगसमओ ॥ १५१ ॥
उबसमसेडीदो ओयरमाणस्स सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमादो सामाइय-च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमं पडिवज्जिय तत्थ एगसमयमच्छिय बिदियसमए मुदस्स एगसमओवलंभादो।
उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा ॥ १५२ ॥
पुब्धकोडाउअमणुस्सस्स गम्भादिअहवस्सेहि सामाइय-च्छेदोवढाणियसुद्धिसंजमं पडिवज्जिय अहवस्सूणपुव्वकोडिं विहरिय देवेसुप्पण्णस्स तदुवलंभादो ।
सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदा केवचिरं कालादो होति ? ॥१५३॥
संयमासंयमका काल होता है, ऐसा कहना चाहिये।
जीव सामायिक छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत कितने काल तक रहते हैं ? ॥१५॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव सामायिक छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत रहते
उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले जीवके सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयमसे सामायिकछेदोपस्थापनशुद्धिसंयमको प्राप्त कर और उसमें एक समय तक रहकर द्वितीय समयमें मरनेपर एक समय पाया जाता है।
अधिकसे अधिक कुछ कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण काल तक जीव सामायिकछेदोपस्थापनशुद्धिसंयत रहते हैं ॥ १५२ ॥
पूर्वकोटि वर्षप्रमाण आयुवाले मनुष्यके गर्भादि आठ वर्षांसे सामायिकछेदोपस्थानिकशुद्धिसंयमको प्राप्त कर और आठ वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष तक विहार करके देवों में उत्पन्न होनेपर वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है ।
जीव मूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत कितने काल तक रहते हैं ? ॥१५३ ।।
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२, २, १५८.] एगजीवण कालाणुगमे सुहुमसापराइयादिकालपरूवणं [१६९
सुगमं । उवसमं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ ॥ १५४ ॥
कुदो ? चडतो वा अणियट्टी उवसमओ उवसंतकसाओ वा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदो जादो, तत्थ एगसमयमाच्छय विदियसमए मुदस्स तदुवलंभादो।
उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ १५५ ॥ सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणम्मि अंतोमुहुत्तादो अहियकालमबहाणाभावा । खवगं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ १५६ ॥ कुदो ? सुहुमसांपराइयखवगस्स मरणाभावादो। उक्कस्सेण अंतोमुत्तं ॥ १५७ ॥ सुगमं । जहाखादविहारसुद्धिसंजदा केवचिरं कालादो होति ?॥१५८॥
यह सूत्र सुगम है।
उपशमकी अपेक्षा कमसे कम एक समय तक जीव सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत रहते हैं ।। १५४ ॥
क्योंकि, चढ़ता हुआ अनिवृत्ति करण उपशमक अथवा उपशान्तकषाय जीव सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत हुआ, वहां एक समय रहकर द्वितीय समयमें मरणको प्राप्त हुए उसके सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
___अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत रहते -
क्योंकि, सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थानमें अन्तर्मुहर्तसे अधिक काल तक अवस्थान ही नहीं होता।
क्षपककी अपेक्षा कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव मूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत रहते हैं ॥ १५६ ।।
क्योंकि, सूक्ष्म साम्परायिकशुद्धिसंयत क्षपकके मरणका अभाव है। अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत रहते
यह सूत्र सुगम है। जीव यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १५८ ।
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१७०
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो . [२, २, १५९. सुगमं । उवसमं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ ॥ १५९ ॥
कुदो ? सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदस्स उवसंतकसायत्तं पडिवज्जिय एगसमयमच्छिय विदियसमए मुदस्स एगसमओवलंभादो ।
उस्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ १६०॥ कुदो ? उवसंतकसायस्स अंतोमुहुत्तादो अहियकालाभावा । खवगं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १६१ ॥
कुदो ? खवगसेडिं चडिय खीणकसायट्ठाणे जहाक्खादसंजमं पडिवज्जिय सजोगी होदूण अंतोमुहुत्तेण अबंधगत्तं गदस्स तदुवलंभादो ।
उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा ॥ १६२ ॥ कुदो ? गम्भादिअट्ठवस्साणि गमिय संजमं घेत्तूण सबलहुएण कालेण मोहणीय
यह सूत्र सुगम है।
उपशमकी अपेक्षा कमसे कम एक समय तक जीव यथाख्यातविहारशुद्धि संयत रहते हैं ॥१५९ ॥
क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतके उपशान्तकषायत्वको प्राप्त होकर और एक समय रहकर द्वितीय समयमें मरण करनेपर एक समय काल पाया जाता है।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहुर्त काल तक जीव यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत रहते हैं ॥ १६०॥
क्योंकि, उपशान्तकषायका अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल है ही नहीं।
क्षपककी अपेक्षा कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत रहते हैं ॥ १६१ ॥
क्योंकि, क्षपकश्रेणीपर चढ़कर क्षीणकषाय गुणस्थानमें यथाख्यातसंयमको प्राप्त कर और फिर सयोगी होकर अन्तर्मुहूर्तसे अबन्धक अवस्थाको प्राप्त हुए जीवके वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
अधिकसे अधिक कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक जीव यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत रहते हैं ॥ १६२॥
क्योंकि, गर्भादि आठ वर्षोंको विताकर संयमको प्राप्त कर, सर्पलघु कालसे
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२, २, १६७. ]
एगजीवेण कालाग असजद कालपरूवर्ण
[ १७१
खविय जहाक्खादसंजदो होदूण देणपुच्त्रकोर्डि विहरिय अबंधगतं गदस्स तदुवलंभादो । असंजदा केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १६३ ॥
सुमं ।
अणादिओ अपज्जवसिदो ॥ १६४ ॥ अभवियं पच्च एसो णिदेसो । अणादिओ सपज्जवसिदो ॥ १६५ ॥ भवियं पडुच्च एसो णिद्देसो | सादिओ सपज्जवसिदो ॥ १६६ ॥ सादि-सांतमसंजमं पडुच्च एसो णिद्देसो ।
जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिदेसो- जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १६७ ॥
कुदो ! संजदस्त परिणामपच्चएण असंजमं गंतूण तत्थ सव्वजहणमंतो मुहुत्तमच्छिय संजमं गदस्स जहण्णकालुवलंभादो |
मोहनीयका क्षय कर, यथाख्यातसंयत होकर और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक विहार कर अबन्धक अवस्थाको प्राप्त हुए जीवके वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है ।
जीव असंयत कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १६३ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
असंयत जीवोंका काल अनादि-अनन्त है ॥ १६४ ॥
।
यह निर्देश अभव्य जीव की अपेक्षासे किया गया है। असंयतका काल अनादि- सान्त है ॥ १६५ ॥
यह निर्देश भव्य जीवकी अपेक्षासे किया गया है। असंयतका काल सादि- सान्त है ॥ १६६ ॥
यह निर्देश सादि- सान्त असंयमकी अपेक्षा किया गया है ।
जो वह सादि- सान्त असंयम है उसका इस द्दकार निर्देश है— कमसे कम अन्तमुहूर्त काल तक जीव असंयत रहते हैं ।। १६७ ।।
क्योंकि, संयत जीवके परिणामोंके निमित्तसे असंयमको प्राप्त होकर और वहां सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः संयमको प्राप्त करनेपर उक्त जघन्य काल पाया जाता है ।
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१७२]
छक्खंडागमे खुदाबंधी -- २, २, १६८. उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरिय, देसूणं ॥ १६८ ॥
कुदो ? अद्धपोग्गलपरियट्टस्स आदिसमए संजमं घेत्तूण उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए असंजमं गंतूण उबड्डयोग्गल परियट्ट परियट्टिदूग पुगो तिण्णि करणाणि कादूण संजमं पडिवण्णस्स तदुवलंभादो ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी केवचिरं कालादो होति ? ॥१६९॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १७० ॥
कुदो ? अचक्खुदंसणेण द्विदस्स चक्खुदंसणं गंतूण जहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो अचवखुदंसणं गदस्स तदुवलं भादो। चउरिदियअपज्जत्तएसु उप्पाइय खुद्दाभवग्गहणं जहण्णकालो त्ति किष्ण परूविदं ? ण, चक्खुदंसणीअपजत्तएसु खुद्दाभवग्गणमेतजहण्णकालाणुवलंभादो।
उक्कस्सेण बे सागरोवमसहस्साणि ॥ १७१ ॥
अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक जीव असंयत रहते हैं ॥ १६८॥
क्योंकि, अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें संयमको ग्रहण कर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां शेष रहनेपर असंयमको प्राप्त होकर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन भ्रमण कर पुनः तीन करणोंको करके संयमको प्राप्त हुए जीवके वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
दर्शनमार्गणानुसार जीव चक्षुदर्शनी कितने काल तक रहते हैं । १६९ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव चक्षुदर्शनी रहते हैं ॥ १७० ।।
क्योंकि, अचक्षुदर्शन सहित स्थित जीवके चक्षुदर्शनी होकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः अचक्षुदर्शनी होनेपर अचक्षुदर्शनका अन्तर्मुहूर्त काल प्राप्त हो जाता है।
शंका-किसी जीवको चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें अर्थात् लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराकर चक्षुदर्शनका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणमात्र क्यों नहीं प्ररूपण किया ?
समाधान- नहीं किया, क्योंकि, चक्षुदर्शनी अपर्याप्तकोंमें शुद्रभवग्रहणमात्र जधन्य काल नहीं पाया जाता । (देखो जीवट्ठाण, कालानुगम, सूत्र २७८ टीका)।
अधिकसे अधिक दो हजार सागरोपम काल तक जीव चक्षुदर्शनी रहता है ॥१७१॥
१ अनि ' पन्मत्तएसु' इति पाठः।
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२, २, १७५.! एगजीवेण कालाणुगमे चखुदंसणिआदिकालपरूवर्ण (१७३
एइंदिओ बेइंदिओ तेइंदिओ चउरिंदियादिसु उप्पज्जिय बेसागरोवमसहस्साणि परिभमिय अचवखुदंसणीसु उप्पण्णस्सुवलंभादो । चक्खुदंसणक्खओवसमस्स एसो कालो णिदिट्टो । उवजोगं पुण पडुच्च जपणुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तो चेव ।
अचक्खुदंसणी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १७२ ॥ सुगमं । अणादिओ अपज्जवसिदो ॥ १७३ ॥
अभवियमभवियसमाणभवियं वा पडुच्च एसो गिद्देसो । कुदो ? अचखुदसणक्खओवसमरहिदछदुमत्थाणमणुवलंभादो ।
अणादिओ सपज्जवसिदो ॥ १७४ ॥
णिच्छएण सिज्ममा भवियजीवं पडुच्च एसो णिद्देसो । अचक्खुदसणस्स सादित्तं णस्थि, केवलदंसणादो अचक्खुदंसणमागच्छंतापमभावादो ।
ओधिदंसणी ओधिणाणीभंगो ॥ १७५॥
क्योंकि, किसी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय व त्रीन्द्रिय जीवके चतुरिन्द्रियादि जीवों में उत्पन्न होकर दो हजार सागरोप: काल तक परिभ्रमण करके अच क्षुदर्शनी जीवों में उत्पन्न होनेपर चक्षदर्शनका दो हजार सागरोपम काल प्राप्त हो जाता है । यह काल चक्षुदर्शनके क्षयोपशमका कहा गया है। उपयोगकी अपेक्षा तो चक्षुदर्शनका जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्तमात्र ही है।
जीव अचक्षुदर्शनी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १७२ ।। यह सूत्र सुगम है। जीव अनादि अनन्त भी अचक्षुदर्शनी होता है ॥ १७३ ॥
अभव्य या अभव्यके समान भव्य की अपेक्षासे यह निर्देश किया गया है, क्योंकि अचक्षुदर्शनके क्षयोपशमसे रहित छद्मस्थ जीव पाये नहीं जाते।
जीव अनादि सान्त भी अचक्षुदर्शनी होता है ।। १७४ ॥
यह निर्देश निश्चयसे सिद्ध होनेवाले भव्य जीवकी अपेक्षा किया गया है। अचक्षुदर्शन सादि नहीं होता, क्योंकि केवलदर्शनसे पुनः अत्रक्षुदर्शनमें आनेवाले जीवोंका अभाव है।
अवधिदर्शनीकी कालप्ररूपणा अवधिज्ञानीके समान है ॥ १७५ ॥
१ प्रतिषु · अच खुदसणस्सागंताण-', मरतौ अचखुदंसणस्सागरछताण- ' इति पाठः ।
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१७४ ]
छडागमे खुदाबंधो
[ २, २, १७६.
कुदो ! ओहिणाणिस्सेव जहणेण अंतोमुहुत्तस्स, उक्कस्सेण सादिरेयछावद्विसागमाणमुवलंभादो ।
केवलसणी केवलणाणीभंगो ॥ १७६ ॥
कुदो ? केवलणाणीणं (व) जहण्णुक्कस्सपदेहि अंतोमुहुत्त - देमूण पुत्र कोडीणं केवलदंसणीणमुवलं भादो ।
लेस्सावादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय- काउलेस्सिया केव चिरं कालादो होंति ? ।। १७७ ॥
सुगमं ।
जहणेण अंतोमुत्तं ॥ १७८ ॥
दो ! अप्पिदले सादो अविरुद्धादो अप्पिदलेस्समागंतूण सव्त्रजहणमंतो मुहुतमच्छिय अविरुद्ध लेस्संतरं गयस्स तदुवलंभादो | उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १७९ ॥
क्योंकि, अवधिज्ञानी के समान अवधिदर्शनका भी कमसे कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक सातिरेक छ्यासठ सागरोपम काल पाया जाता है ।
केवलदर्शनीकी कालप्ररूपणा केवलज्ञानीके समान है ॥ १७६ ॥
क्योंकि, केवलज्ञानियोंके समान केवलदर्शनी जीवोंका भी जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि पाया जाता है ।
लेश्यामार्गणानुसार जीव कृष्णलेश्या, नीललेश्या व कापोतले यावाले कितने काल तक रहते हैं ? ॥। १७७ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव कृष्णलेश्या, नीललेश्या व कापोतलेश्यावाले रहते हैं ।। १७८ ॥
क्योंकि, अविवक्षित अविरुद्ध लेक्ष्यासे विवक्षित लेश्यामें आकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्त काल रहकर अन्य अविरुद्ध लेश्यामें जानेवाले जीवके उक्त लेश्याओंका अन्तर्मुहर्त काल प्राप्त होता है ।
अधिक से अधिक सातिरेक तेतीस, सत्तरह व सात सागरोपम काल तक जीव कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले रहते हैं ॥ १७९ ॥
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२, २, १८२. ] एगजीवेण कालानुगमे किण्हलेस्सियादिकालपरूवणं
[ १७५
कुदो ? तिरिक्खे मस्सेसु वा किण्हणील- काउलेस्साहि सव्बुकस्समंतोमुहुतमच्छिय पुणो तेत्तीस - सत्तारस-सत्तसागरोवमा उडिदिरइएस उपजिय किण्हणील- काउलेस्साहि सह अष्पष्पणो आउट्ठदिमच्छिय तत्तो गिफ्फिडिदूण अंतोमुहुत्तकालं ताहि चेव लेस्साहि गमेदूण अविरुद्धले संतरं गदस्स दोहि अंतोमुहुतेहि समहियतेत्तीस - सचारससत्तसागरोवममेततिलेस्साका लुवलंभादो ।
ते उलेस्सिय- पम्म लेस्सिय सुक्कलेस्सिया केवचिरं कालादो होंति ?
॥ १८० ॥
सुमं ।
जण अंतमुत्तं ॥ १८१ ॥
कुदो ? अणप्पिदलेस्सादो अविरुद्धादो अप्पिदलेस्सं गंतॄण तत्थ जहणमंतोमुहुत्तमच्छिय अविरुद्ध लेस्संतरं गयस्स जहण्णकालदंसणादो । उक्कस्सेण बे-अट्ठारस-तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १८२ ॥
क्योंकि, तिचों या मनुष्यों में कृष्ण, नील व कापोतलेश्या सहित सबसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल रहकर फिर तेतीस, सत्तरह व सात सागरोपम आयुस्थितिवाले नारकियों में उत्पन्न होकर कृष्ण, नील व कापोत लेश्याओंके साथ अपनी अपनी आयुस्थितिप्रमाण रहकर वहांसे निकल अन्तर्मुहूर्त काल उन्हीं लेश्याओं सहित व्यतीत करके अन्य अविरुद्ध लेश्यामें गये हुए जीवके उक्त तीन लेश्याओंका दो अन्तर्मुहूर्त सहित क्रमशः तेतीस, सत्तरह व सात सागरोपममात्र काल पाया जाता है ।
जीव तेजलेश्या, पद्मलेश्या व शुक्ललेश्यावाले कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १८० ॥
यह सूत्र सुगम
है I
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव तेज, पद्म व शुक्ल लेश्यावाले रहते हैं ॥ १८१ ॥
क्योंकि, अविवक्षित अविरुद्ध लेश्यासे विवक्षित लेश्या में जाकर वहां कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर अन्य अविरुद्ध लेश्या में जानेवाले जीवके उक्त लेश्याओंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य काल देखा जाता है ।
अधिक से अधिक सातिरेक दो, अठारह व तेतीस सागरोपम काल तक जीव क्रमशः तेज, पद्म व शुक्ल लेश्यावाले रहते हैं ॥ १८२ ॥
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१७३ छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, २. १८३. कुदो ! तेउ पम्म-सुक्कलेस्साहि सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमेत्तमच्छिय पुणो जहाकमेण अड्डाइज्ज साद्धट्ठारस-तेत्तीससागरोवमाउद्विदिएसु देवेसुप्पज्जिय अवविदलेस्साहि सगसगाउहिदिमणुपालिय तत्तो चविय अंतोमुहुत्तकालं ताहि चेव लेस्साहि अच्छिय अविरुद्धलेस्संतरं गयस्स सगसगुक्कस्सकालाणमुवलंभादो ।
भवियाणुवादेण भावसिद्धिया केवचिरं कालादो होंति ? ॥१८३॥
सुगमं ।
अणादिओ सपज्जवसिदो ॥ १८४ ॥
कुदो ? अणाइसरूवणागयस्स भवियभावस्स अजोगिचरिमसमए विणासुवलंभादो । अभवियसमाणो वि भवियजीवो अत्थि त्ति अणादिओ अपज्जयसिदो भवियभावो किण्ण परूविदो ? ण, तत्थ अविणाससत्तीए अभावादो। सत्तीए चेव एत्थ अहियारो, वत्तीए
क्योंकि, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओं सहित सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तमात्र रहकर पुनः यथाक्रमसे अढ़ाई, साहे अठारह व तेतीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न होकर अवस्थित लेश्याओं सहित अपनी अपनी आयुस्थितिको पूरी करके वहांस निकल कर अन्तर्मुहूर्त काल तक उन्हीं लेश्याओं सहित रहकर अन्य अविरुद्ध लेश्यामें गये हुए जीवके उक्त लेश्याओंका अपना अपना उत्कृष्ट काल प्राप्त हो जाता है।
भव्यमार्गणानुसार जीव भव्यसिद्धिक कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १८३ ॥ यह सूत्र सुगम है। जीव अनादि सान्त भव्यसिद्धिक होता है ।। १८४ ॥
क्योंकि, अनादि स्वरूपसे आये हुए भन्यभावका अयोगिकेवलीके अन्तिम समयमें विनाश पाया जाता है।
शंका- अभव्यके समान भी तो भव्य जीव होता है, तब फिर भव्यभावको अमादि और अनन्त क्यों नहीं प्ररूपण किया ?
समाधान नहीं किया, क्योंकि भव्यत्वमें अविनाश शक्ति का अभाव है। अर्थात् यद्यपि अनादिसे अनन्त काल तक रहनेवाले भव्य जीव हैं तो सही, पर उम में शक्ति रूपसे तो संसारविनाशकी संभावना है, अविनाशत्वकी नहीं।
शंका-यहां भव्यत्वशक्तिका अधिकार है, उसकी व्यक्तिका नहीं, यह कैसे
१ प्रतिषु 'भविय' इति पाठः ।
२ प्रतिषु · अहियाराबवत्तीए ' इति पाठः ।
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२, २, १८६. ]
एगजीवेण कालागुगमे भवियाभवियकालपरूवणं
स्थिति कधं दें ? अणादि - सपज्जवसिदसुत्तण्णहाणुववत्सीदो ।
सादिओ सपज्जवसिदो ॥ १८५ ॥
अभविओ भवियभावं ण गच्छदि, भवियाभविय भावाणमच्चंता भावपडिग्गहियाणमेाहिरणत्तविरोहादो । ण सिद्धो भविओ होदि, णट्ठासेसासवाणं पुणरुत्पत्तिविरोहादो । म्हा भवियभावो ण सादि ति ? ण एस दोसो, पज्जयट्ठियणयावलंबणादो अप्पडिवण्णे सम्मत्ते अणादि-अणतो भवियभावो अंतादीदसंसारादो; पडिवण्णे सम्मत्ते अण्णो भवियभावो उपज्जइ', पोग्गल परियदृस्स अद्धमेत्तसंसारावद्वाणादो । एवं समऊण- दुसमऊणादिउवड्डपोग्गल परियट्टसंसाराणं जीवाणं पुध पुध भवियभावो वत्तन्धो । तदो सिद्धं भवियाणं सादि-सांतत्तमिदि ।
अभवियसिद्धिया केवचिरं कालादो होंति ? ॥। १८६ ॥
[ १७७
जाना जाता है ?
समाधान- - भव्यत्वको अनादि सपर्यवसित कहनेवाले सूत्रकी अन्यथा उपपत्ति बन नहीं सकती, इसीसे जाना जाता है कि यहां भव्यत्त्व शक्तिले अभिप्राय है । जीव सादि सान्त भव्यसिद्धिक भी होता है ।। १८५ ।।
शंका - अभव्य भव्यत्वको प्राप्त हो नहीं सकता, क्योंकि भव्य और अभव्य भाव एक दूसरे के अत्यन्ताभावको धारण करनेवाले होनेसे एक ही जीवमें क्रमसे भी उनका अस्तित्त्व मानने में विरोध आता है । सिद्ध भी भव्य होता नहीं है, क्योंकि जिन जीवोंके समस्त कर्मास्रव नष्ट होगये हैं उनके पुनः उन कर्मास्स्रवोंकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है | अतः भव्यत्व सादि नहीं हो सकता ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि पर्यायार्थिक नयके अवलम्बन से जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तब तक जीवका भव्यत्व अनादि-अनन्त रूप है, क्योंकि, तब तक उसका संसार अन्तरहित है । किन्तु सम्यक्त्वके ग्रहण कर लेनेपर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि, सम्यक्त्व उत्पन्न होजानेपर फिर केवल अर्धपुलपरिवर्तनमात्र काल तक संसार में स्थिति रहती है । इसी प्रकार एक समय कम उपार्धपुलपरिवर्तन संसारवाले, दो समय कम उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन संसारवाले आदि जीवों के पृथक् पृथक् भव्यभावका कथन करना चाहिये। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि भव्य जीव सादि- सान्त होते हैं ।
afa अभव्यसिद्धिक कितने काल तक रहते हैं ? ।। १८६ ॥
१ प्रतिषु ' उप्पज्जिय ' इति पाठः ।
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१७८! छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, २, १८७. सुगमं । अणादिओ अपज्जवसिदो ॥ १८७॥
अभवियभावो णाम वियंजणपज्जाओ, तेणेदस्स विणासेम होदव्यमण्णहा दव्यत्सप्पसंगादो त्ति ? होदु वियंजणपज्जाओ, ण च वियंजणपञ्जायस्स सव्वस्स विणासेण होदव्वमिदि णियमो अत्थि, एयंतवादप्पसंगादो । ण च ण विणस्सदि त्ति दव्वं होदि, उप्पाय-ट्ठिदि-भंगसंगयस्स दव्यभावभुवगमादो ।
सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १८८॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १८९ ॥
कुदो ? मिच्छादिद्विरस बहुसो सम्मत्तपज्जाएण परिणमियस्स सम्मत्तं गंतूण जहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गयस्स तदुवलंभादो।
उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १९० ॥ यह सूत्र सुगम है। जीव अनादि-अनन्त काल तक अभव्यसिद्धिक रहते हैं ॥ १८७ ॥
शंका- अभव्यभाव जीवकी एक व्यंजनपर्यायका नाम है, इसलिये उसका विनाश अवश्य होना चाहिये, नहीं तो अभव्यत्वके द्रव्य होने का प्रसंग आजायगा?
समाधान--अभव्यत्व जीवकी व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजनपर्यायका अवश्य नाश होना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेसे एकान्तवादका प्रसंग आजायगा । ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होना चाहिये, क्योंकि जिसमें उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय पाये जाते हैं उसे द्रव्य रूपसे स्वीकार किया गया है।
सम्यक्त्वमार्गणानुसार जीव सम्यग्दृष्टि कितने काल तक रहते हैं ? ॥१८८॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव सम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥ १८९ ॥
क्योंकि, जिसने अनेक वार सम्यक्त्त्व पर्याय प्राप्त कर ली है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वको जाकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर मिथ्यात्वको जानेपर सम्यग्दर्शनका अन्तर्मुहूर्त काल प्राप्त हो जाता है।
अधिकसे अधिक सातिरेक छयासठ सागरोपम काल तक जीव सम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥ १९० ॥
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२, २, १९३.] एगजीवेग कालाणुगमे खइयसम्माइटिकालपरूवणं
कुदो ? तिण्णि करणाणि कादूण पढमसम्मतं घेत्तूग अंतोमुहुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय तत्थ तीहि पुचकोडीहि समहियवादालीससागरोवमाणि गमिय खइयं पट्ठविय चउवीससागरोवमाउढिदिएसु देवेसुप्पज्जिय पुणो पुवकोडि आउद्विदि. मणुस्सेसुप्पज्जिय अवसाणे अबंधगत्तं गयस्स तदुवलंभादो।।
खइयसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होति ? ॥ १९१ ॥ सुगमं । जहाणेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९२॥
कुदो ? वेदगसम्मादिहिस्स दसणमोहणीय खविय खइयसम्मत्तं पडिवज्जिय जहण्णकालेण अबंधगत्तं गयस्स तदुवलंभादो ।
उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १९३ ॥ कुदो ? चउवीससंतकम्मियसम्माइट्ठिदेवस्स णेरइयस्स वा पुनकोडाउअमणुस्सेसु
क्योंकि, किसी जीवने तीनों करण करके प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण किया और
काल रहकर वेदकसम्यक्त्व धारणकर लिया। वहां तीन कोटि अधिक ब्यालीस सागरोपम काल व्यतीत करके क्षायिकसम्यक्त्व स्थापित किया और चौबीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। इसके पश्चात् पूर्व कोटि आयुस्थितिवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर आयुके अन्त समयमें अबन्धकभाव प्राप्त कर लिया। ऐसे जीवके सम्यग्दर्शनका सातिरेक (चार पूर्वकोटि अधिक) छयासठ सागरोपमप्रमाण काल प्राप्त हो जाता है।
जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १९१ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव क्षायिक पम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥ १९२ ॥
क्योंकि, वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके दर्शनमोहनीयका क्षपण करके क्षायिकसम्यपत्वको उत्पन्न कर जघन्य कालसे अयन्धकभावको प्राप्त होनेपर अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है।
अधिकसे अधिक सातिरेक तेतीस सागरोपमप्रमाण काल तक जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि रहते हैं । १९३ ॥
क्योंकि, जब चौबीस कर्मीकी सत्तावाला सम्यग्दृष्टि देव या नारकी पूर्वकोटि
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१८० छक्खंडागमे खुद्दाबंधी
[२, २, १९४. प्पण्णस्स गम्भादिअहवस्साणमंतोमुहुत्तब्भहियाणं उवरि खइयं पट्टविय देसूणपुवकोडिमच्छिय तेत्तीसाउद्विदिदेवेसुप्पज्जिय पुणो पुयकोडिआउहिदिमणुस्सेसुप्पज्जिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अबंधभावं गयस्स दोअंतोमुहुत्ताहियअहवस्सूणदोपुनकोडीहि साहियतेत्तीससागरोवमाणमुवलंभादो।
वेदगसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होति ॥ १९४ ॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १९५ ॥
मिच्छाइद्विस्स दिट्ठमग्गस्स सम्मत्तं घेत्तूण जहणमंतोमुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गयस्स तदुवलंभादो।
उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि ॥ १९६ ॥
बुदो ? उत्रसमसम्मत्तादो वेदगसम्मत्तं पडिज्जिय सेस जमाणाउएणूणवीससागरोवमाउढिदिएसु देवेसुववज्जिय तदो मणुस्सेसुववज्जिय पुणो मणुस्माउएणूणवावीस
आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर, गर्भस आठ वर्ष व अन्तर्मुहूर्त अधिक हो जानेपर क्षायिकसम्यक्त्वको स्थापित करता है और कुछ कम पूर्वकोटि तक रहकर तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर पुनः पूर्वकोटि आयुस्थितियाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूते मात्र संसारकाल के अवशेष रहनपर अबन्धकभावको प्राप्त हो जाता है, तब उसके क्षायिकसम्यक्त्वका काल दो अन्तर्मुहर्त से अधिक आठ वर्ष कम दो पूर्वकोटि सहित तेतीस सागरोपमप्रमाण पाया जाता है।
जीव वेदकसम्यग्दृष्टि कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १९४ ।। यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव वेदकसम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥ १९५ ॥
क्योंकि, सन्मार्ग प्राप्त करलेनेवाले मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व ग्रहण करके कमसे कम अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः मिथ्यात्वमें चले जानेपर वेदकसम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्त काल प्राप्त हो जाता है।
अधिकसे अधिक छयासठ सागरोपम काल तक जीव वेदकसम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥१९६॥
क्योंकि, एक जीव उपशमसम्यक्त्वसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर शेष भुज्यमान आयुसे कम बीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। फिर वहांसे मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुनः मनुष्यायुसे कम बावीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवों में
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२, २, १०.८.] एगजीवेण कालाणुगमे उवसमसम्मादिट्टिकालपरूवणं १८१ सागरोवमाउढिदिएसु देवेसुप्पज्जिय पुणो मणुस्सगदि गंतूण मुंजमाणमणुस्साउएण दसणमोहक्खवणपेरंत जिस्समाणमणुसाउएण च ऊणचउवीससागरोवमाउट्ठिदिएसु देवेसुप्पज्जिय मणुस्सगदिमागंतूग तत्थ वेदगसम्मत्तकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो अत्थि त्ति दसणमोहक्खवणं पट्टविय कदकरणिज्जो होद्ण कदकरणिज्जचरिमसमए द्विदस्स छावद्धिसागरोवममेत्तकालुवलंभादो।।
उवसमसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो हॉति ? ॥ १९७॥
सुगमं । जहण्णण अंतोमुत्तं ॥ १९८ ॥
कुदो ? मिच्छादिहिस्स पढमसम्मत्तं पडिबज्जिय छावलियावसेसे सासणं गदस्स तदुवलंभादो । एवं सम्मामिच्छाइट्ठिस्स वि जहणकालो वत्तव्यो । णवरि मिच्छत्तादो वेदगसम्मत्तादो वा सम्मामिच्छत्तं गंतूग जहण्णकालमच्छिय गुणंतर गदो त्ति वत्तव्यं ।
उत्पन्न हुआ। वहांसे पुनः मनुष्यगतिमें जाकर भुज्यमान मनुष्यायुसे तथा दर्शन
हके क्षपण पर्यन्त आगे भोगी जानेवाली मनुष्यायुसे कम चौबीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहांसे पुनः मनुष्यगतिमें आकर वहां वेदकसम्यक्त्वकालके अन्तर्मुहूर्तमात्र रहने पर दर्शनमोहके क्षपणको स्थापितकर कृतकरणीय हो गया। ऐसे कृतकरणीयके अन्तिम समयमें स्थित जीवके घेदकसम्यक्त्वका छयासठ सागरोपममात्र काल पाया जाता है।
जीव उपशमसम्यग्दृष्टि व सम्यग्मिथ्यादृष्टि कितने काल तक रहते हैं ? ॥१९७॥ यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव उपशमसम्यग्दृष्टि व सम्यग्मिथ्यादृष्टि रहते हैं । १९८ ।।
क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त कर प्रथमोपशमसम्यक्त्वक कालमें छह आवली शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानमें जानेपर उपशमसम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है । इसी प्रकार सम्याग्मिथ्यादृष्टिका भी जघन्य काल कहना चाहिये । केवल विशेषता यह है कि मिथ्यात्वसे या वेदकसम्यक्त्वसे सम्यग्मिथ्यात्वमें जाकर व जघन्य काल वहां रहकर अन्य गुणस्थानमें जानेपर सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तमुहूर्तमात्र जघन्य काल पाया जाता है, ऐसा कहना चाहिये।
१ अ-काप्रत्योः · मस्सस्स गदि.' इति पाठः ।
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१८२) छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, २, १९९. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९९ ॥ सुगममेदं । सासणसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होति ? ॥ २० ॥ सुगमं । जहण्णेण एयसमओ ॥ २०१ ॥
उवसमसम्मसद्धाए एगसमयावसेसे सासणं गदस्स सासणगुणस्स एगसमयकालोवलंभादो । जेत्तिया . उवसमसम्मत्तद्धा एगसमयमादि कादण जावुक्कस्सेण छावलियाओ त्ति अबसेसा अस्थि तत्तिया चेव सासणगुणद्धावियप्पा होति । उवसमसम्मत्तकालं संपुण्णमच्छिदो सासणगुणं ण पडिवज्जदित्ति कधं णव्यदे? एदम्हादो चेव सुत्तादो, आइरियपरंपरागदुवदेसादो च । )
उक्कस्सेण छावलियाओ ॥ २०२ ॥ सुगमं ।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव उपशमसम्यग्दृष्टि व सम्यग्मिध्यादृष्टि रहते हैं ॥ १९९ ॥
यह सूत्र सुगम है। जीव सासादनसम्यग्दृष्टि कितने काल तक रहते हैं ? ॥ २० ॥ यह मूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव सासादनसम्यग्दृष्टि रहते हैं ।। २०१॥
क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय शेष रहनेपर सासादान गुणस्थानमें जानेवाले जीवके सासादन गुणस्थानका एक समय काल पाया जाता है। एक समयसे प्रारम्भ कर अधिकसे अधिक छह आवलियों तक जितना उपशमसम्यक्त्वका काल शेष रहता है, उतने ही सासादनगुणस्थानकालके विकल्प होते हैं।
शंका-जो जीव उपशमसम्यक्वक संपूर्ण काल तक उपशमसम्यक्त्वमें रहा है वह सासादन गुणस्थानमें नहीं जाता, यह कैसे जाना?
समाधान-प्रस्तुत सूत्रसे ही तथा आचार्यपरम्परागत उपदेशसे भी पूर्वोक्त बात जानी जाती है।
अधिकसे अधिक छह आवली काल तक जीव सासादनसम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥२०२॥ यह सूत्र सुगम है।
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[ १८३
२, २, २०६.] एगजीवेण कालाणुगमे सण्णिकाल परूवणं
मिच्छादिट्ठी मदिअण्णाणीभंगो ॥ २०३ ॥
जहा मदिअण्णाणिस्स अणादिअपज्जवसिद-अणादिसपज्जवसिद- सादिसपज्जवसिदवियप्पा वुत्ता तधा एदस्स वि वत्तव्या। सादि-सपञ्जवसिदअण्णाणस्स कालो जहण्णेण अंतोमुहुतं, उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्टे जधा वुत्तं तधा मिच्छत्तस्स वि वत्तव्वं ।
सण्णियाणुवादेण सण्णी केवचिरं कालादो होंति ? ॥२०४॥
सुगमं ।
जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥२०५॥
कुदो ? असण्णीहितो सण्णिअपज्जत्तएप्पज्जिय खुद्दाभवग्गहणमच्छिय असणित्तं गदस्स तदुवलंभादो।
उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥२०६॥
असण्णीहिंतो सण्णीमुप्पज्जिय सागरोवमसदपुधत्तं तत्थेव परिभमिय णिग्गयस्स तदुवलंभादो।
मिथ्यादृष्टि जीवोंकी कालप्ररूपणा मतिअज्ञानी जीवोंके समान है ॥ २०३॥
जिस प्रकार मतिअज्ञानी जीवके अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त, ये तीन विकल्प बतलाये गये हैं, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीवके भी कहना चाहिये । जिस प्रकार सादि-सान्त अज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र बतलाया गया है, उसी प्रकार मिथ्यात्वका भी कहना च
संज्ञीमार्गणानुसार जीव कितने काल तक संज्ञी रहते हैं ? ॥ २०४॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक जीव संज्ञी रहते हैं ॥ २०५॥
क्योंकि, असंही जीवों से निकलकर संक्षी अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल रहकर पुनः असंझीभावको प्राप्त हुए जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
अधिकसे अधिक सागरोपमशतपृथक्त्वमात्र काल तक जीव संज्ञी रहते हैं ॥ २०६॥
___ क्योंकि, असंही जीवों से निकलकर संशियों में उत्पन्न हो वहींपर सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक परिभ्रमण करके निकलनेवाले जीवके संशित्वका सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण उत्कृष्ट काल पाया जाता है ।
www
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१८४ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
असण्णी केवचिरं कालादो होंति ? ।। २०७ ॥
सुगमं ।
जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ २०८ ॥
एदं पि सुगमं ।
उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियङ्कं ॥ २०९ ॥
एदं पि सुगमं ।
आहारावादेण आहारा केवचिरं कालादो होति ? ॥ २१० ॥
सुमं ।
जहणेण खुद्दा भवग्गहणं तिसमयूणं ॥ २१९ ॥
तिणि विग्गहे काऊण सुहुमेईदिए सुप्पज्जिय चउत्थसमए आहारी होतॄण भुंजमाणाअं कदलीघादेण घादिय अवसाणे विग्गहं करिय णिग्गयस्स तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमेत्ताहारकालुवलं भादो ।
जीव कितने काल तक असंज्ञी रहते हैं ? ॥ २०७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
[२, २, २०७.
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक जीव असंज्ञी रहते हैं ? ।। २०८॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक जीव असंज्ञी रहते हैं ॥ २०९ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
आहारमार्गणानुसार जीव आहारक कितने काल तक रहते हैं ? ।। २१० । यह सूत्र सुगम है ।
कमसे कम तीन समय से हीन क्षुद्रभवग्रहण मात्र काल तक जीव आहारक रहते हैं ॥ २११ ॥
क्योंकि, तीन मोड़े लेकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न हो चौथे समय में आहारक होकर भुज्यमान आयुको कदलीघात से छिन्न करके अन्त में विग्रह करके निकलनेवाले जीवके तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र आहारकाल पाया जाता है ।
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२, २, २१६.] एगजीवेण कालाणुगमे आहारि-अणाहारिकालपरूवणं [१८५
उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणी-उस्साप्पिणीओ ॥ २१२॥
कुदो ? विग्गहं काऊण आहारी होदण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमसंखेज्जासंखेज्जाओसप्पिणि-उस्सप्पिणिकालमेत्तं परिभमिय कयविग्गहस्स तदुवलंभादो। ५. अणाहारा केवचिरं कालादो होति ? ॥२१३॥ सुगमं । जहण्णेणेगसमओ ॥२१४॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण तिणि समया ॥ २१५ ॥ समुग्धादगयसजोगिम्हि तिण्णिविग्गहकयजीवे वा तदुवलंभादो । अंतोमुहुत्तं ॥२१६॥ अजोगिम्हि अणाहारिस्स अंतोमुहुत्तकालुवलंभादो । बंधगाणमेसो कालो वुत्तो,
अधिकसे अधिक अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल तक जीव आहारक रहते हैं ।। २१२ ॥
क्योंकि, विग्रह करके आहारक हो, अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल मात्र परिभ्रमण कर विग्रह करनेवाले जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
जीव अनाहारक कितने काल तक रहते हैं ? ॥ २१३ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव अनाहारक रहते हैं ॥ २१४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। अधिकसे अधिक तीन समय तक जीव अनाहारक रहते हैं ॥ २१५ ॥
क्योंकि, समुद्घात करनेवाले सयोगिकवली व तीन विग्रह करनेवाले जीवके अनाहारत्वका तीन समयप्रमाण काल पाया जाता है।
अधिकसे आधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक भी जीव अनाहारक रहते हैं ॥ २१६ ॥ क्योंकि, अयोगिकेवलोके अनाहारकका अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। शंका-यह कालप्ररूपणा बन्धक जीवोंकी अपेक्षा की गई है, किन्तु अयोगी
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१८६ ]
डागमे खुदाबंध
[ २, २, २१६.
अजोगी भयवतो बंधओ, तत्थ आसवाभावादो | ण च अण्णत्थ अनाहारिस्स अंतोमुहुत्तमेतो कालो लब्भदि । तदो णेदं घडदि त्ति ? ण एस दोसो, अघाइचउक्ककम्मपोग्गलक्खधाणं लोग तजीव पदे साणं च अण्णोष्णवधमवेक्खिय अजोगीणं पि बंधगतन्भुवगमादो | ण च ' मणुस्सा अबंधा वि अस्थि' त्ति एदेण सुत्तेण सह विरोहो, जोग - कसायादीहिंतो जायमाणपञ्चग्गबंधाभावं पडुच्च तत्थ तधोवदेसादो ।
एगजीवेण कालो त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
भगवान् तो बन्धक नहीं होते, क्योंकि उनके कर्मोंके आस्रवका अभाव है । अन्यत्र कहीं अनाहारी जीवका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल पाया नहीं जाता। अतएव यह अनाहारीका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल घटित नहीं होता ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि चार अघातिक कर्मोंके पुलस्कंधोंका और लोकप्रमाण जीवप्रदेशोंका परस्पर बन्धन देखते हुए अयोगी जिनोंके भी बन्धकभाव स्वीकार किया गया है। ऐसा माननेपर ' मनुष्य अबन्धक भी होते हैं ' इस सूत्र से विरोध भी नहीं आता, क्योंकि उक्त सूत्रमें योग और कषाय आदिसे उत्पन्न होनेवाले नवीन वन्धके अभावकी अपेक्षासे अयोगियोंके अबन्धक होनेका उपदेश किया गया है।
एक जीवकी अपेक्षा काल नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
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एगजीवेण अंतराणुगमो एगजीवेण अंतराणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइयाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१॥
मूलोघविसयपुच्छा किण्ण कया ? ण, मृलोघपडिबद्धकालपरूवणाभावादो । किमिदि तस्स कालो ण वुत्तो? ण, तस्साणुत्तसिद्धीदो । केवचिरमिदि वुत्ते एग-बे-तिण्णि जाव अणंतमिदि अंतरपुच्छा कदा होदि । सेसं सुगमं ।
जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥२॥
कुदो ? णेरइयस्स णिरयादो णिग्गयस्स तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा गम्भावकतियपज्जत्तएसु उप्पज्जिय सव्वजहण्णाउअकालभंतरे गिरयाउअं बंधिय कालं करिय
___ एक जीवकी अपेक्षा अन्तरानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १ ॥
शंका-यहां मूलोघविषयक अर्थात् गुणस्थानों की अपेक्षा कालसम्बन्धी प्रश्न क्यों नहीं किया गया?
समाधान -- नहीं किया गया, क्योंकि मूलोघसम्बन्धी कालप्ररूपणा भी तो नहीं की गयी।
शंका-मूलोघसम्बन्धी काल क्यों नहीं बतलाया गया ?
समाधान नहीं बतलाया गया, क्योंकि विना बतलाये भी उसके ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है।
'कितने काल तक' ऐसा कहनेपर क्या एक समय अन्तर होता है, क्या दो समय, क्या तीन समय, इस प्रकार अनन्त समयों तककी अन्तरसम्बन्धी पृच्छा की गयी है । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक नरकगतिसे नारकी जीवोंका अन्तर होता
क्योंकि, नरकसे निकलकर गर्भोपक्रान्तिक तियेच जीवों में अथवा मनुष्योंमें उत्पन्न हो सबसे कम आयुके भीतर नरकायुको बांध, मरण कर पुनः नरकोंमें उत्पन्न
१ अ-आप्रत्योः नहण्णाउआकाल-' इति पाठः ।
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१८८] छवखंडागमे खुद्दाबंधी
[२, ३, ३. पुणो णिरएसुववण्णस्स जहण्णेणतोमुहुत्तं तरुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥३॥
णेरइयस्स णिरयादो णिग्गंतूण अणप्पिदगदीसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टे परियट्टिदूण पच्छा णिरएसुववण्णस्स वुतिरुवलंभादो ।
एवं सत्तसु पुढवीसु णेरड्या ॥ ४ ॥
णेरइया इदि वुत्ते णेरइयाणं ति घेत्तव्यं । सत्तसु पुढवीसु णेरइयाणं तिरिक्खमणुस्सगभोवक्कतियपज्जत्तएसुप्पज्जिय सधजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय अप्पिदणिरएसुप्पण्णस्स अंतरकालो सरिसो ति युत्तं होदि ।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खाणमंतरं केवचिरं कालादोहोदि ? ॥५॥ सुगमं ।
हुए नारकी जीवके नरकगतिसे अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर पाया जाता है।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुदलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक नरकगतिसे नारकी जीवोंका अन्तर होता है ॥ ३ ॥
क्योंकि, नारकी जीवके नरकसे निकल कर अविवक्षित गतियों में आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण करके पश्चात् पुनः नरकोंमें उत्पन्न होनेपर सूत्रोक्त अन्तरका प्रमाण पाया जाता है।
इस प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी जीवोंका नरकगतिसे अन्तर होता है ॥४॥
सूत्रमें जो ‘णरइया' अर्थात् 'नारकी' ऐसा प्रथमान्त पद है उससे 'रइयाणं' अर्थात् 'नारकी जीवोंका' ऐसा सम्बन्धसूचक अर्थ ग्रहण करना चाहिये । सातों ही पृथिवियों में नारकी जीवोंके गर्भोपक्रान्तिक पर्याप्त तिर्यंचों व मनुष्यों में उत्पन्न होकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्त काल रहकर विवक्षित नरकोंमें उत्पन्न हुए जीवका अन्तरकाल सदृश ही होता है, ऐसा प्रस्तुत सूत्रके द्वारा कहा गया है।
तिर्यंचगतिसे तिर्यंच जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५ ॥ यह सूत्र सुगम है।
१ प्रतिषु 'होति ' इति पाठः ।
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२, ३, ९. ]
एगजीवेण अंतरानुगमे तिरिक्ख- मणुस्साणमंतरं
जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ६ ॥
तिरिक्खेहिंतो मणुस्सेसुप्पज्जिय घादखुदाभवग्गहण मे तकालमच्छिय पुणो तिरिक्खे सुप्पण्णस्स तदुवलंभादो |
उक्कस्सेण सागरोवमसदपुत्तं ॥ ७ ॥
तिरिक्खस्स तिरिक्खेर्हितो णिग्गयस्स सेसगदीसु सागरोवमसदपुधत्तादो उवरि अडाणाभावादो ।
पंचिदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता मणुसगदीए मणुस्सा माणुस - पज्जत्ता मणुसिणी मणुसअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ८ ॥ सुमं ।
जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ९ ॥
[ १८९
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक तिर्यंच जीवोंका तिर्यंचगतिसे अन्तर होता है ॥ ६ ॥
क्योंकि, तिर्यच जीवोंमेंसे निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हो कदलीघातयुक्त क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक रहकर पुनः तिर्यचों में उत्पन्न हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है ।
अधिक से अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक तिर्यंच जीवोंका तिर्यंचगतिसे अन्तर पाया जाता है ॥ ७ ॥
क्योंकि, तिर्यच जीवके तिर्यचोंमेंसे निकलकर शेष गतियों में सागरोपमशतपृथक्त्व काल से ऊपर ठहरनेका अभाव हैं ।
तिर्यंचगति से पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त, एवं मनुष्यगतिसे मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी तथा मनुष्य अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक उक्त तिर्यंचोंका तिर्यंचगतिसे तथा मनुष्यों का मनुष्यगतिसे अन्तर होता है ॥। ९ ॥
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१९०] छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२, ३, १.. ___ कुदो ? अप्पिदगदीदो णिग्गंतूण अणप्पिदगदीसुप्पज्जिय खुद्दाभवग्गहणमच्छिय पुणो अप्पिदगदिमागयस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तंतरुवलंभादो।
उकस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ॥१०॥
कुदो ? अप्पिदगदीदो णिग्गंतूण एइंदिय-विगलिंदियादिअणप्पिदगदीसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टे भमिय अप्पिदगदिमागदस्स तदुवलंभादो ।
देवगदीए देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ११ ॥ सुगम । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १२ ॥
कुदो ? देवगदीदो आगंतूण तिरिक्ख-मणुस्सगभोवक्कंतियपज्जत्तएसुप्पन्जिय पज्जत्तीओ समाणिय देवाउअंबंधिय देवेसुप्पण्णस्स अंतोमुहुर्ततरुवलंभादो ।
उकस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ॥ १३॥
क्योंकि, विवक्षित गतिसे निकलकर अविवक्षित गतियों में उत्पन्न हो । यहां क्षुद्रभयग्रहणमात्र काल रहकर पुनः विवक्षित गतिमें आये हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणमात्र अन्तर पाया जाता है।
___ अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक पूर्वोक्त तियंचोंका तियंचगतिसे और मनुष्योंका मनुष्यगतिसे अन्तर होता है ॥ १० ॥
क्योंकि, विवक्षित गतिसे निकलकर एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय आदि अविवक्षित गतियों में आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तन भ्रमण कर विवक्षित गतिमें आये हुए जीवके सूत्रोक्त प्रमाण अन्तर पाया जाता है।
देवगतिसे देवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ११ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक देवोंका देवगतिसे अन्तर होता है ।। १२ ।।
क्योंकि, देवगतिसे आकर गर्भोपक्रान्तिक पर्याप्त तिर्यचों व मनुष्योंमें उत्पन्न होकर पर्याप्तियां पूर्ण कर देवायु बांध, पुनः देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके देवगतिसे अन्तमुहूर्तमात्र अन्तर पाया जाता है।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक देवगतिसे देवोंका अन्तर होता है ॥ १३ ॥
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२, ३, १६.1 एगजीवेण अंतराणुगमे भवणवासियादिदेवाणमंतरं [१९१
कुदो ? देवगदीदो ओयरिय सेसतिसु गदीसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टे उक्कस्सेण परियट्टिदूण पुणो देवगदीए आगमणे विरोहाभावादो ।
भवणवासिय-वाण-तर-जोदिसिय-सोधम्मीसाणकप्पवासियदेवा देवगदिभंगो ॥१४॥ ___जधा देवगदीए जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण असंखेज्जपोग्गलपरियट्टमेतं अंतरं वुत्तं तधा एदेसि पि जहण्णुक्कस्संतराणि । देवा इदि वुत्ते देवाणमिदि घेत्तव्यं, 'आई-मज्झंतवण्णसरलोओ' त्ति एदेण लक्खणेण लुत्त-ण-सद्दादो।
सणक्कुमार-माहिंदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१५॥ सुगमं । जहण्णेण मुहत्तपुधत्तं ॥ १६ ॥
क्योंकि, देवगतिसे उतरकर शेष तीन गतियोंमें अधिकसे अधिक आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः देवगतिमें आगमन करने में कोई विरोध नहीं आता।
भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी व सौधर्म-ईशान कल्पवासी देवोंका अन्तर देवगतिके समान ही है ॥ १४ ॥
जिस प्रकार देवगतिसे कमसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र और अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अन्तरकाल कहा गया है, उसी प्रकार इन भवनवासी आदि देवोंका जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिये । 'देवा' ऐसा प्रथमान्त पद कहनेसे 'देवोंका' ऐसे षष्ठयन्त पदका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि “ आदि, मध्य व अन्त व्यंजन और स्वरका प्राकृतमें विकल्पसे लोप हो जाता है" इस नियमसे यहां षष्ठी विभक्तिके सूचक ‘णं' शब्दका लोप हो गया है।
____ सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देवोंका देवगतिसे अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥१५॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम मुहूर्तपृथक्त्व काल तक सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देवोंका देवगतिसे अन्तर होता है ॥ १६ ॥
१ अप्रतौ होति' इति पाउः।
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१९२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ३, १७. __ कुदो ? सणक्कुमार-माहिंददेवाणं तिरिक्ख-मणुस्साउअं बंधमाणाणमाउअस्स जहण्णट्ठिदीए मुहुत्तपुधत्तपमाणत्तादो । तिरिक्ख-मणुस्साउअं जहण्णेण मुहुत्तपुधत्तमेत्तं बंधिय तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उप्पज्जिय परिणामपच्चएण पुणो सणक्कुमार-माहिंदेमु आउअं बंधिय सणक्कुमार-माहिदेसुप्पण्णाणं जहण्णमंतरं होदि त्ति वुत्तं होदि ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ १७ ॥ सुगमं ।
बम्हबम्हुत्तर-लांतवकाविट्ठकप्पवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१८॥
सुगमं ।
जहण्णेण दिवसपुधत्तं ॥ १९ ॥ कुदो ? एदेहि बज्झमाणआउअस्स दिवसपुधत्तादो हेट्ठा विदिबंधाभावादो ।
क्योंकि, तिर्यंच या मनुष्य आयुको बांधनेवाले सनत्कुमार और माहेन्द्र देवाके तिर्यंच व मनुष्य भवसम्बन्धी जघन्य स्थितिका प्रमाण मुहूर्तपृथक्त्व पाया जाता है। इसी मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण जघन्य तिर्यंच व मनुष्य आयको बांध कर तिर्यंचोंमें व मनुष्योंमें उत्पन्न होकर परिणामोंके निमित्तसे पुनः सनत्कुमार-माहेन्द्र देवोंकी आयु बांधकर सनत्कुमार-माहेन्द्र देवों में उत्पन्न हुए जीवोंका मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण जघन्य अन्तर होता है ऐसा सूत्र द्वारा बतलाया गया है ।
ण अनन्त काल तक सनत्कुमार और माहेन्द्र देवोंका देवगतिसे अन्तर होता है ॥ १७ ॥
यह सूत्र सुगम है।
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर व लान्तव-कापिष्ठ कल्पवासी देवोंका देवगतिसे अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम दिवसपृथक्त्वमात्र ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर और लान्तव-कापिष्ठ कल्पवासी देवोंका अपनी देवगतिसे अन्तर होता है ॥ १९ ॥
क्योंकि, उक्त देवों द्वारा जो आगामी भवकी आयु बांधी जाती है उसका स्थितिबन्ध दिवसपृथक्त्वसे कम होता ही नहीं हैं।
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२, ३, २२.] एगजीवेण अंतराणुगमे सदार-सहस्सारदेवाणमंतरं अणुक्य-महब्बएहि विणा तिरिक्ख-मणुस्सा गम्भादो अणिक्खता चेव कधं देवेसुप्पज्जति? ण, परिणामपच्चएण तिरिक्ख-मणुस्सपज्जत्ताणं दिवसपुधत्तजीवियाणं तत्थुप्पत्तीए विरोहाभावादो।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ २०॥ सुगमं ।
सुक्कमहासुक्क-सदारसहस्सारकप्पवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥२१॥)
सुगम । जहण्णेण पक्खपुधत्तं ॥ २२ ॥ कुदो ? एदेहि बज्झमाणआउअस्स पक्खपुधत्तादो हेट्ठा जहण्णहिदिबंधाभावादो।
शंका-दिवसपृथक्त्वकी आयुमें तो तिर्यंच व मनुष्य गर्भसे भी नहीं निकल पाते और इसलिये उनमें अणुव्रत व महाव्रत भी नहीं हो सकते। ऐसी अवस्थामें बे दिषसपृथक्त्वमात्रकी आयुके पश्चात् पुनः देवोंमें कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि परिणामोंके निमित्तसे दिवसपृथक्त्व. मात्र जीवित रहनेवाले तिर्यंच व मनुष्य पर्याप्तक जीवोंके देवोंमें उत्पन्न होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक अलब्रह्मोत्तर व लान्तव-कापिष्ठ देवोंका देवगतिसे अन्तर होता है ॥ २० ॥
यह सूत्र सुगम है।
शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार कल्पवासी देवोंका देवगतिसे अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥२१॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम पक्षपृथक्त्व काल तक शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार कल्पवासी देवांका देवगतिसे अन्तर होता है ॥ २२ ॥
क्योंकि, उक्त देवों द्वारा बांधी जानेवाली आयुका जघन्य स्थितिबन्ध पक्षपृथक्रवसे कम नहीं होता।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ३, २३. उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ २३ ॥ मुगमं ।
आणदपाणद-आरणअच्चुदकप्पवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ २४ ॥
सुगमं ।
जहण्णण मासपुधत्तं ॥२५॥
कुदो ? एदेहि बज्झमाणमणुस्साउअस्स मासपुधत्तादो हेट्ठा जहण्णहिदिबंधाभावादो । एदे मणुस्सोववाइणो मणुस्सा वि गम्भादिअवस्सेसु गदेसु अणुव्यय-महव्वयाणं गाहिणो । ण च अणुव्वय-महव्यएहि विणा एदेसुप्पत्ती अस्थि, तहोवदेसाभावादो। तदो ण मासपुधत्तं तरं जुज्जदे, किंतु वासपुधत्तंतरेण होदव्वमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक उक्त देवोंका देवगतिसे अन्तर होता है ॥ २३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पवासी देवोंका देवगतिसे अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ २४ ॥
यह सूत्र सुगम है। कमसे कम मासपृथक्त्व तक उक्त देवोंका देवगतिसे अन्तर होता है ॥ २५ ॥
क्योंकि, आनत, प्राणत, आरण व अच्युत कल्पवासी देवों द्वारा बांधी जानेयाली मनुष्यायुका स्थितिबन्ध कमसे कम मासपृथक्त्वसे नीचे होता ही नहीं है।
शंका-जब आनत आदि चार कल्पवासी देव मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तब मनुष्य होकर भी वे गर्भसे लेकर आठ वर्ष व्यतीत हो जानेपर अणुव्रत व महाव्रतोंको ग्रहण करते हैं । अणुव्रतोंको व महाव्रतोंको ग्रहण न करनेवाले मनुष्योंकी आनत आदि देवोंमें उत्पत्ति ही नहीं होती, क्योंकि वैसा उपदेश नहीं पाया जाता। अतएव आनत आदि चार देवोंका मासपृथक्त्व अन्तर कहना युक्त नहीं है, उनका अन्तर वर्षपृथक्त्व होना चाहिये?
समाधान-उक्त शंकाका परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है- अणुव्रत व
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२, ३, २७.] एगजीवेण अंतराणुगमे गेवजविमाणवासिंदेवाणमंतर [१९५ जहा- ण च अणुव्वद-महव्वदेहि संजुत्ता चेव तिरिक्ख-मणुस्सा आणद-पाणददेवेसुप्पाजंति त्ति णियमो अत्थि, तिरिक्खअसंजदसम्माइट्ठीणं छरज्जुपोसणसुत्तेण सह विरोहादो । ण च आणद-पाणदअसंजदसम्माइट्ठिणो मणुस्साउअस्स जहण्णट्ठिदिं बंधमाणा वासपुधत्तादो हेट्ठा बंधंति, महाबंधे जहण्णहिदिबंधद्धाछेदे सम्मादिट्ठीणमाउअस्स वासपुधत्तमेत्तद्विदिपरूवणादो। तदो आणद-पाणदमिच्छाइहिस्स मणुस्साउअं मासपुधत्तमेतं बंधिय पुणो मणुस्सेसुप्पज्जिय मासपुधत्तं जीविदूण पुणो सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु अंतोमुहुत्ताउएसुववज्जिय पज्जत्तयदो होदूण संजमासंजमं पडिवज्जिय आणदादिसु आउअं बंधिय उप्पण्णस्स जहण्णमंतरं होदि त्ति वत्तव्यं ।
उक्कस्समणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियढें ॥ २६ ॥ सुगमं ।
णवगेवज्जविमाणवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥२७॥
सुगमं ।
महाव्रतोंसे संयुक्त ही तिर्यंच व मनुष्य आनत-प्राणत देवोंमें उत्पन्न हो ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर तो तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका जो छह राजु स्पर्शन बतलाने वाला सूत्र है उससे विरोध उत्पन्न हो जायगा। (देखो पखंडागम, जीवटाण, स्पर्शनानुगम, सूत्र २८ व टीका, पुस्तक ४, पृ० २०७ आदि)। और आनत-प्राणत कल्पवासी असंयतसम्यग्दृष्टि देव जब मनुष्यायुकी जघन्य स्थिति बांधते हैं तब वे वर्षपृथक्त्वसे कमकी आयुस्थिति नहीं बांधते, क्योंकि महावन्धमें जघन्य स्थितिबन्धके कालविभागमें सम्यग्दृष्टि जोवोंकी आयुस्थितिका प्रमाण वर्षपृथक्त्वमात्र प्ररूपित किया गया है । अतः आनत-प्राणत कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देवके मासपृथक्वमात्र मनुष्यायु बांधकर फिर मनुष्यों में उत्पन्न हो मासपृथक्त्व जीवित रहकर पुनः अन्तर्महर्तमात्र आय वाले संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच समूर्छन पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न होकर पर्याप्तक हो संयमासंयम (अणुव्रत) ग्रहण करके आनतादि कल्पोंकी आयु बांधकर वहां उत्पन्न हुए जीवके सूत्रोक्त मासपृथक्त्वप्रमाण जघन्य अन्तरकाल होता है, ऐसा कहना चाहिये ।
___अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पवासी देवोंका अन्तर होता है ।। २६ ॥
यह सूत्र सुगम है। नौ अवेयक विमानवासी देवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ २७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
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छक्खंडागमै खुद्दाबंधौ
[२, ३, २८. जहण्णेण वासपुधत्तं ॥ २८ ॥ कुदो ? वासपुधत्तादो हेट्ठा आउअस्स जहण्णद्विदिवंधाभावादो । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ २९॥ मिच्छादिट्ठीणमणंतसंसाराणमेत्थ संभवादो ।
अणुदिस जाव अवराइदविमाणवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ३०॥
सुगमं ।
जहण्णेण वासपुधत्तं ॥ ३१ ॥ कुदो ? सम्मादिट्ठीणं वासपुधत्तादो हेट्ठा आउअस्स जहण्णहिदिबंधामावादो । उक्कस्सेण बे सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥३२॥
कमसे कम वर्षपृथक्त्व काल तक नौ ग्रैवेयक विमानवासी देवोंका अन्तर होता है ।। २८ ॥
क्योंकि, नौ ग्रैवेयक विमानवासी देव वर्षपृथक्त्वसे नाचेकी जघन्य आयुस्थिति बांधते ही नहीं है।
___ अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक नौ अवेयक विमानवासी देवोंका अन्तर होता है ॥ २९ ॥
क्योंकि, जिन्हें अभी अनन्त काल तक संसारमें परिभ्रमण करना शेष है, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवोंका भी नौ ग्रैवेयकोंमें उत्पन्न होना संभव है।
अनुदिश आदि अपराजित पर्यन्त विमानवासी देवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ३०॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम वर्षपृथक्त्व काल तक अनुदिश आदि अपराजित पर्यन्त विमानबासी देवोंका अन्तर होता है ॥ ३१ ॥
क्योंकि, सम्यग्दृष्टि जीवोंके आयुका जघन्य स्थितिबंध भी वर्षपृथक्त्वसे नीचे नहीं होता।
अधिकसे अधिक सातिरेक दो सागरोपमप्रमाण काल तक अनुदिशादि अपराजित पर्यन्त विमानवासी देवोंका अन्तर होता है ॥ ३२॥
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२, ३, ३४.] एमजीवेण अंतराणुगमे सवठ्ठसिद्धिदेवाणमंतर
कुदो ? अणुदिसादिदेवस्स पुव्यकोडाउअमणुस्सेसुप्पज्जिय पुव्वकोडिं जीविद्ग सोहम्मीसाणं गंतूण तत्थ अड्डाइज्जसागरोवमाणि गमिय पुणो पुबकोडाउअमणुस्सेसुप्पज्जिय संजमं घेत्तूण अप्पप्पणो विमाणम्मि उप्पण्णस्स सादिरेयवेसागरोवममेतं. तरुवलंभादो।
__ सबट्टसिद्धिविमाणवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥३३॥
सुगमं । णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ ३४ ॥
कुदो ? सव्वदृसिद्धीदो मणुसगइमोइण्णस्स मोक्खं मोत्तणण्णत्थ गमणामावादो। 'णस्थि अंतरं णिरंतरं' इदि पुणरुत्तदोसप्पसंगादो दोण्णमेक्कदरस्स संगहो काययो । ण एस दोसो, दो गए अवलंबिय हिददोण्हं पि सिस्साणमणुग्गह8 परूवयंतस्स पुणरुत्त
। क्योंकि, अनुदिशादि देवके पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर एक पूर्वकोटि तक जी कर सौधर्म-ईशान स्वर्गको जाकर वहां अढ़ाई सागरोपम काल व्यतीत कर पुनः पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर संयमको ग्रहण कर अपने अपने विमान में उत्पन्न होने पर उनका अन्तरकाल सातिरेक दो सागरोपमप्रमाण प्राप्त हो जाता है।
सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥३३॥ यह सूत्र सुगम है।
सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंका अपनी गतिसे अन्तर होता ही नहीं, वह गति निरन्तर है ॥ ३४ ॥
क्योंकि, सर्वार्थसिद्धिसे मनुष्यगतिमें उतरनेवाले जीवका मोक्षके सिवाय अन्यत्र गमन होता ही नहीं है।
शंका-'सर्वार्थसिद्धि विमानवासियोंका कोई अन्तरकाल नहीं होता, वह गति निरन्तर है' ऐसा कहने में पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है, अतएव दो उक्तियोंमेंसे किसी एकका ही संग्रह करना चाहिये । अर्थात् या तो 'अन्तरकाल नहीं होता' इतना कहना चाहिये, या 'निरन्तर है' इतना ही कहना चाहिये?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो मयोंका अवलम्बन करनेवाले दोनों प्रकारके शिष्यों के अनुग्रहके लिये उक्त प्रकारसे प्ररूपण करनेवाले सूत्रकारके पुनरुकि दोष उत्पन्न नहीं होता । ' अन्तर नहीं है यह
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१९८] छक्खंडागमे खुदाबंधौ
[२, ३, ३५. दोसाभावादो। णत्थि अंतरमिदि वयणं पज्जवडियणयद्विदसिस्साणमणुग्गहकारयं, विहिदो वदिरित्तपडिसेहे चेव वावदत्तादो । गिरंतरमिदि वयणं दबट्ठियसिस्साणुगाहयं, पडिसेहबदिरित्तविहीए पदुप्पायणादो । सेसं सुगमं ।
इंदियाणुवादेण एइंदियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?॥३५॥
एगवारपुच्छादो चेव सयलत्थपरूवणासंभवादो किमट्ठ पुणो पुणो पुच्छा कीरदे ? ण इमाणि पुच्छासुत्ताणि, किंतु आइरियाणमासंकियवयणाणि उत्तरसुत्तुप्पत्तिणिमित्ताणि, तदो ण दोसो त्ति ।
जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ३६ ।। सुगमं ।
उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि पुब्बकोडिपुत्तेणब्भहियाणि ॥३७॥
वचन पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंका अनुग्रहकारी है, क्योंकि यह वचन विधिसे रहित प्रतिषेध व्यापार करता है । 'निरन्तर है' यह वचन द्रव्यार्थिक शिष्योंका अनुग्राहक है, क्योंकि वह प्रतिषेधसे रहित विधिका प्रतिपादक है ।
शेष सूत्रार्थ सुगम है।
इन्द्रियमार्गणानुसार एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ३५ ॥
शंका-केवल एक वार प्रश्न करके समस्त अर्थका प्ररूपण किया जा सकता था, फिर वार वार यह प्रश्न क्यों किया जाता है ?
समाधान-ये पृच्छासूत्र नहीं हैं, किन्तु आचार्योंके आशंकात्मक वचन हैं जिनका कि निमित्त अगले सूत्रकी उत्पत्ति करना है। इसलिये यह वार वार प्रश्न करना कोई दोष नहीं है। ___कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर होता है ॥ ३६ ॥
यह सूत्र सुगम है।
अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपमप्रमाण काल तक एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर होता है ॥ ३७॥
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२, ३, ४०.] एगजीवेण अंतराणुगमे बादरएइंदियाणमंतर
___ कुदो ? एइंदिएहितो णिग्गयस्स तसकाइएसु चेव भमंतस्स पुयकोडिपुधत्तमहियबेसागरोवमसहस्समेत्ततसद्विदीदो उवरि तत्थ अवट्ठाणाभावादो ।
बादरएइंदिय-पज्जत्त-अपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ३८ ॥
सुगममेदमासंकासुतं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ३९ ॥ सुगमं । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ ४०॥
कुदो ? बारेइंदिएहितो णिग्गंतूण सुहुमेइंदिएसु असंखेज्जलोगमेत्तकालादो उपरि अवट्ठाणाभावादो । होदु णाम एदमंतरं बादरेइंदियाणं, ण तेसिं पज्जत्ताणमपजत्ताणं च, सुहुमेइंदिएसु अणप्पिदबादरेइंदिएसु च परियस॒तस्स पुचिल्लंतरादो अइमहल्लंतरु
क्योंकि, एकेन्द्रिय जीवों में से निकल कर केवल त्रसकायिक जीवोंमें ही भ्रमण करनेवाले जीवके पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपममात्र स्थितिसे ऊपर त्रसकायिकोंमें रहनेका अभाव है।
___ बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त व बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका अपनी गतिसे अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ३८ ॥
यह आशंकासूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक उक्त एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर होता है ॥ ३९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक उक्त एकेन्द्रय जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४० ॥
___ क्योंकि, बादर एकेन्द्रिय जीवों से निकलकर सूक्ष्म एकेन्द्रियों में असंख्यात लोकप्रमाण कालसे ऊपर रहना संभव नहीं है ।
शंका-यह असंख्यात लोकप्रमाण कालका अन्तर बादर एकेन्द्रिय (सामान्य) जीवोंका भले ही हो पर यह अन्तरप्रमाण पृथक् पृथक् बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों व अपर्याप्तकोंका नहीं हो सकता, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें तथा अविवक्षित (पर्याप्त या अपर्याप्त) वादर एकेन्द्रियों में जब जीव परिभ्रमण करता है, तब पूर्वोक्त अन्तरसे
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२०. छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ३, ४१. वलंभादो । होदु णाम पुघिल्लंतरादो इमस्स अंतरस्स अइमहल्लतं, तो वि एदेसिमंतरकालो पुबिल्लंतरकालोव्व असंखेज्जलोगमेत्तो चेव, णाणतो । कुदो ! अणंततरुवदेसाभावादो।
सुहुमेइंदिय-पज्जत-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥४१॥
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ४२ ॥ एदं पि सुगमं ।
उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ ॥४३॥
कुदो ? सुहुमेइंदिएहितो णिग्गयस्स बादरेइंदिएसु चेत्र भमंतस्स बादरेइंदिय
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आधिक बड़ा अन्तरकाल प्राप्त हो सकता है ?
समाधान-पूर्वोक्त अन्तरसे यह पर्याप्तक व अपर्याप्तकोंका अलग अलग प्राप्त अन्तर अधिक बड़ा भले ही हो जावे, पर तो भी इन पर्याप्त व अपर्याप्त एकेन्द्रिय बादर जीवोंका अन्तर पूर्वोक्त अन्तरकालके समान असंख्यात लोकप्रमाण ही रहेगा, अनन्त नहीं हो सकता, क्योंकि, बादर एकेन्द्रिय जीवोंके अनन्त कालप्रमाण अन्तरका उपदेश ही नहीं है।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ४१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्र भवग्रहण काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय व उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४२ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अबसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय व उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४३ ॥
क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियोंसे निकलकर बादर एफेन्द्रियों में ही भ्रमण करनेवाले
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२, ३, ४६.] एगजीवेण अंतराणुगमे वियलिंदिय-सयालिंदियाणमंतर [२०१ द्विदीदो उपरि अबढाणाभावादो । तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं पि एदम्हादो अंतरादो अहियमंतरं होदि, अणप्पिदमुहुमेइंदिएसु वि संचारोवलंभादो । किंतु तो वि अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेतं चैव अंतरं होदि, अण्णोवएसाभावादो ।
बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदिय-पंचिंदियाणं तस्सेव पज्जत्त-अपज्जताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?॥ ४४ ॥
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ४५ ॥ सुगम । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियटुं ॥ ४६॥ कुदो ? अप्पिदइंदिएहितो' णिग्गयस्म अणप्पिदएइंदियादिसु आवलियाए असंखे
जीवके बादर एकेन्द्रियकी स्थितिसे (जो कि उपर्युक्त प्रमाण है) ऊपर वहां रहनेका अभाव है। उक्त जीवोंके पर्याप्त व अपर्याप्तका ( अलग अलग) अन्तर यद्यपि पूर्वोक्त प्रमाणसे अधिक होता है, क्योंकि, उन जीवोंका अविवक्षित सूक्ष्म एकेन्द्रियों में भी संचार पाया जाता है । किन्तु फिर भी अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग ही होता है, क्योंकि इस प्रमाणसे अधिक प्रमाणका अन्य कोई उपदेश पाया नहीं जाता।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ४४ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक उक्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक उक्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४६॥
क्योंकि, विवक्षित इन्द्रियोंवाले जीवों से निकल कर अविवक्षित एकेन्द्रिय
१ प्रतिषु अप्पिदेइंदिएहिंतों' इति पाठः ।
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२०२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ३, ४७. ज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि परियट्टणे विरोहाभावादो ।
कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइयबादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?॥४७॥
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥४८॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ ४९॥
कुदो ? अप्पिदकायं मोत्तूण अणप्पिदेसु वणप्फदिकायादिसु आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि परियट्टिएं संभवोवलंभादो ।
वणप्फदिकाइयणिगोदजीवबादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥५०॥
आदि जीवों में आवलीके असंख्यातवें भाग पुद्गलपरिवर्तन भ्रमण करने में कोई विरोध नहीं आता।
कायमार्गणानुसार पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, चादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ॥४७॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक पृथिवीकायिक आदि उक्त जीवोंका अन्तर होता है ॥४८॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक उक्त पृथिवीकायिक आदि जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४९॥
__ क्योंकि, विवक्षित कायको छोड़कर अविवक्षित वनस्पतिकाय आदि जीवोंमें आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन भ्रमण करना संभव है।
वनस्पतिकायिक निगोद बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५०॥
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२, ३, ५४.]
एगजीवेण अंतराणुगमे बादरवणप्फदिकाइयाणमंतर
[२०३
सुगम ।
जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥५१॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥५२॥
कुदो ? अप्पिदवणफदिकायादो णिग्गयस्स अणप्पिदपुढवीकायादिसु चव हिंडंतस्स असंखेज्जलोगं मोत्तूण अण्णस्स अंतरस्स असंभवादो । सेसं सुगम।।
बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ५३॥
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥५४॥ एदं पि सुगमं ।
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्र भवग्रहणमात्र काल तक उक्त वनस्पतिकायिक निगोद जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५१ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक उक्त वनस्पतिकायिक निगोद जीवोंका अन्तर होता है ।। ५२ ॥
क्योंकि, विवक्षित वनस्पतिकायसे निकलकर अविवक्षित पृथिवीकायादिकों में ही भ्रमण करनेवाले जीवके असंख्यात लोकप्रमाण कालको छोड़कर अन्य प्रमाण अन्तर होना असंभव है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५४ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
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२०४] छक्खंडागमै खुद्दांबंधी
[२, ३. ५५. ___ उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियढें ॥५५॥
कुदो ? अप्पिदवणप्फदिकाइएहिंतो णिग्गयस्स अणप्पिदणिगोदजीवादिसु भमंतस्स अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टेहिंतो अहियअंतराणुवलंभादो ।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ५६ ॥
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ५७ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियढें ॥ ५८ ॥
कुदो ? अप्पिदतसकाइएहितो णिग्गंतूण अणप्पिदवणप्फदिकाइयादिसु आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणमंतरसण्णियाणमुवलंभादो ।
अधिकसे अधिक अढाई पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण वादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५५ ॥
___ क्योंकि, विवक्षित वनस्पतिकायिक जीवों में से निकलकर अविवक्षित निगोद आदि जीवों में भ्रमण करनेवाले जीवके अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तोसे अधिक अन्तरकाल नहीं पाया जा सकता।
सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५६ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्र भवग्रहण काल तक उक्त त्रसकायादि जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५७ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक सकायादि उक्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५८ ॥
क्योंकि, विवक्षित त्रसकायिक जीवोंमेंसे निकलकर अविवक्षित वनस्पतिकायादि जीवें में आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तीका अन्तरकाल पाया जाता है।
१ अ-आप्रत्योः । -मंतरसण्णिधाण.' इति पाठः ।
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२, ३, ६१.] एगजीवण अंतराणुगमे मण-वचिजोगीणमंतर । २०५
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ५९॥
सुगमे । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ६॥
कुदो ? मणजोगादो कायजोगं वचिजोगं वा गंतूण सव्वजहण्णमंतोमुहुतमच्छिय पुणो मणजोगमागदस्स जहण्णेणंतोमुहुत्तरुवलंभादो । सेसचत्तारिमणजोगीणं पंचवचिजोगीणं च एवं चेव अंतरं परूवेयव्वं, भेदाभावादो। एत्थ एगसमओ किण्ण लब्भदे ? ण, वाघादिदे मुदे वा मण-वचिजोगाणमणंतरसमए अणुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अगंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरिय ॥ ६१ ॥
योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी औरपांच वचनयोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५९ ॥
यह मूत्र सुगम है।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंका अन्तर होता हैं ॥ ६ ॥
क्योंकि, मनयोगसे काययोग अथवा वचनयोगमें जाकर सबसे कम अन्तमुहूर्तमात्र रहकर पुनः मन योगमें आनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर पाया जाता है।
शेष चार मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंका भी इसी प्रकार अन्तर प्ररूपित करना चाहिये, क्योंकि इस अपेक्षासे उन सबमें कोई अन्तर नहीं है।
शंका-इन पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंका एक योगसे दूसरे में जाकर पुनः उसी योगमें लौटनेपर एक समयप्रमाण अन्तर क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान- नहीं पाया जाता, क्योंकि जब एक मनयोग या वचनयोगका विधात हो जाता है, या विवक्षित योगवाले जीवका मरण हो जाता है, तब केवल एक समय के अन्तरसे पुनः अनन्तर समयमें उसी मनयोग या वचनयोगकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
___ अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक पांच मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंका अन्तर होता है । ६१ ॥
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२०६१
छक्खडागमे खुदाबंधों
[ २, ३, ६२.
कुदो ? मणजोगादो वचिजोगं गंतूण तत्थ सव्बुक्कस्समद्धमच्छिय पुणो कायजोगं गंतूर्ण तत्थ वि सव्वचिरं कालं गमिय एइंदिएसुप्पज्जिय आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टणाणि परियट्टिय पुणो मणजोगं गदस्स तदुचलंभादो । सेसचत्तारिमणजोगीणं पंचत्रचिजोगीणं च एवं चेत्र अंतरं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । कायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ६२ ॥
सुमं ।
जहणेण एगसमओ ॥ ६३ ॥
कुदो ? कायजोगादो मणजोगं बचिजोगं वा गंतॄण एगसमय मच्छिय विदियसमए मुदे वाघादिदे वा कायजोगं गदस्स एगसमय अंतरुचलं भादो ।
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ६४ ॥
कुदो ? कायजोगादो मणजोगं वचिजोगं च परिवाडीए गंतृण दोसु वि सन्बुकस्सकालमच्छिय पुणो कायजोगमागदस्स अंतोमुहुत्तमेतं तरुत्रलंभादो ।
क्योंकि, मनयोगसे वचनयोग में जाकर वहां अधिक काल तक रहकर पुनः काययोग में जाकर और वहां भी सबसे अधिक काल व्यतीत करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः मनयोगमें आये हुए जीवके उक्त प्रमाण अन्तरकाल पाया जाता है ।
शेष चार मनयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंका भी इसी प्रकार अन्तर प्ररूपित करना चाहिये, क्योंकि, इस अपेक्षासे उनमें कोई विशेषता नहीं है। काययोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। ६२ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
कमसे कम एक समय तक काययोगी जीवोंका अन्तर होता है ॥ ६३ ॥
क्योंकि, काययोगसे मनयोग में या वचनयोगमें जाकर एक समय रहकर दूसरे समय में मरण करने या योगके व्याघातित होनेपर पुनः काययोगको प्राप्त हुए जीवके एक समयका जघन्य अन्तर पाया जाता है ।
काययोगी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है ॥ ६४ ॥
क्योंकि, काययोगसे मनयोग और वचनयोगमें क्रमशः जाकर और उन दोनों ही योगों में उनके सर्वोत्कृष्ट काल तक रहकर पुनः काययोगमें आये हुए जीव के अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काययोगका अन्तर प्राप्त होता है ।
१ अप्रतौ ' मोत्तूण ' इति पाठः ।
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२, ३, ६७.] एगजीवेण अंतराणुगमे ओरालिय-मिस्सकायजोगीणमंतरं [२०७
ओरालियकायजोगी-ओरालियमिस्सकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥६५॥
सुगमं । जहण्णेण एगसमओ ॥६६॥
कुदो ? ओरालियकायजोगादो मणजोगं वचिजोगं वा गंतूण एगसमयमच्छिय विदियसमए वाघादवसेण ओरालियकायजोगं गदस्स एगसमयअंतरुवलंभादो। ओरालियमिस्सकायजोगिस्स अपज्जत्तभावेण मण-बचिजोगविरहियस्स कधमंतरस्स एगसमओ ? ण, ओरालियमिस्सकायजोगादो एगविग्गहं करिय कम्मइयजोगम्मि एगसमयमच्छिय विदियसमए ओरालियमिस्सं गदस्स एगसमयअंतरुवलंभादो ।
उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ६७॥
औदारिककाययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ६५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
औदारिककाययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय होता है ॥६६॥
क्योंकि, औदारिककाययोगसे मनयोग या वचनयोगमें जाकर एक समय रहकर दूसरे समयमें योगका व्याघात होनेसे औदारिककाययोगमें आये हुए जीवके औदारिककाययोगका एक समय अन्तर प्राप्त होता है।
शंका-औदारिकमिश्रकाययोगी तो अपर्याप्त अवस्थामें होता है जब कि जीवके मनयोग और वचनयोग होता ही नहीं है, अतएव औदारिकमिश्रकाययोगका एक समय अन्तर किस प्रकार हो सकता है ?
समाधान नहीं; हो सकता है, क्योंकि औदारिकमिश्रकाययोगसे एक विग्रह करके कार्मिक योगमें एक समय रहकर दूसरे समयमें औदारिकमिश्रयोगमें आये हुए जीवके औदारिकमिश्रकाययोगका एक समय अन्तर प्राप्त हो जाता है।
औदारिककाययोगी व औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर सातिरेक तेतीस सागरोपमप्रमाण होता है ॥ ६७॥
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२०८] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ३, ६८. ____कुदो ? ओरालियकायजोगादो चत्तारिमण-चत्तारिवचिजोगेसु परिणमिय कालं करिय तेत्तीसाउट्ठिदिएसु देवेसुववज्जिय सगढिदिमच्छिय दो विग्गहे कादूग मणुस्सेसुप्पज्जिय ओरालियमिस्सकायजोगेण दीहकालमच्छिय पुणो ओरालियकायजोगं गदस्त णवहि अंतोमुहुत्तेहि वेहि समएहि सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्ततरुवलंभादो । एवमोरालियमिस्सकायजोगस्स वि अंतरं वत्तव्यं । णवरि अंतोमुहुत्तूणपुव्यकोडीए सादिरेयाणि तेतीससागरोवमाणि अंतरं होदि, णेरइएहिंतो पुचकोडाउअमणुस्सेप्पज्जिय ओरालियमिस्सकायजोगस्स आदि करिय सव्वलहुं पज्जत्तीओ समाणिय ओरालियकायजोगेणतरिय पुचकोडिं देसूणं गमिय तेत्तीसाउट्ठिदिदेवेसुप्पज्जिय पुणो विग्गहे कादूण ओरालियमिस्सकायजोगं गदस्स तदुवलंभादो।
वेउन्वियकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ६८ ॥ सुगमं ।
क्योंकि, औदारिककाययोगसे चार मनयोगों व चार वचनयोगोंमें परिणमित हो मरण कर तेतीस सागरोपमप्रमाण आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर, वहां अपनी स्थितिप्रमाण रहकर, पुनः दो विग्रह करके मनुष्योंमें उत्पन्न हो औदारिकमिश्रकाययोग सहित दीर्घ काल रहकर, पुनः औदारिककाययोगमें आये हुए जीवके नौ अन्तमुहूर्तों घ दो समयोंसे अधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण औदारिककाययोगका अन्तर प्राप्त हो जाता है।
इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगका भी अन्तर कहना चाहिये । केवल विशेषता यह है कि औदारिकमिश्रकाययोगका अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण होता है, क्योंकि, नारकी जीवोंमें से निकलकर, पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हो, औदारिकमिश्रकाययोगका प्रारंभ कर, कमसे कम कालमें पयोप्तियाको पूर्ण करके, औदारिककाययोगके द्वारा आदारिकमिश्रकाय योगका अन्तर कर, कुछ कम पूर्वकोटि काल व्यतीत करके तेतीस सागरोपमकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हो, पुनः विग्रह करके औदारिकमिश्रकाययोगमें जानेवाले जीवके सूत्रोक्त कालप्रमाण अन्तर पाया जाता है।
वैक्रियिककाययोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ६८ ॥ यह सूत्र सुगम है।
१ प्रतिषु 'जेहि ' इति पाठः ।
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२, ३, ७२.] एगजीवेण अंतराणुगमे वेउब्धियमिस्सकायजोगीणमंतरं [२०९
जहण्णेण एगसमओ ॥ ६९ ॥
वेउब्धियकायजोगादो मणजोगं वचिजोग वा गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय विदियसमए वाघादवसेण वेउब्धियकायजोगं गदस्स तदुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ ७० ॥ अंतरस्स पाहणियादो एगवयणं णव॒सयत्तं च जुज्जदे । सेसं सुगमं । वेउब्वियमिस्सकायजोणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि?॥७१॥ सुगमं । जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि ॥ ७२ ॥
कुदो ? तिरिक्खेहितो मणुस्सेहिंतो वा देवेसु णेरइएसु वा उप्पज्जिय दीहकालेण छप्पज्जत्तीओ समाणिय वेउनियकायजोगेण अंतरिय देमणदसवाससहस्साणि अच्छिय तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उप्पज्जिय सव्वजहण्णेण कालेण पुणो आगंतूण वेउव्वियमिस्सं
वैक्रियिककाययोगियोंका जघन्य अन्तर एक समय है ॥ ६९ ॥
क्योंकि, वैक्रियिककाययोगसे मनयोग या वचनयोगमें जाकर वहां एक समय तक रहकर दसरे समयमें उस योगका व्याघात होजानेके कारण वैक्रियिकक जानेवाले जीवके एक समयप्रमाण वैक्रियिककाययोगका अन्तर पाया जाता है ।
वैक्रियिककाययोगियोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है ॥ ७० ॥
सूत्र में जो अनन्तकाल व असंख्यातपुद्गलपरिवर्त इन दोनों शब्दोंमें एकवचन और नपंसकलिंगका उपयोग किया गया है वह अन्तरकी प्रधानता ब है और इसलिये उपयुक्त ही है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ७१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका जघन्य अन्तर कुछ अधिक दश हजार वर्ष होता है ॥ ७२ ॥
____ क्योंकि, तिर्यंचोंसे अथवा मनुष्योंसे देवों या नारकियों में उत्पन्न होकर दीर्घ काल द्वारा छह पर्याप्तियां पूरी कर वैक्रियिककाययोगके द्वारा वैक्रियिकमिश्रकाययोगका अन्तर करके, कुछ कम दश हजार वर्ष तक वहीं रहकर, तिर्यंचों अथवा मनुष्योंमें उत्पन्न हो, सबसे कम कालमें पुनः देव या नारक गतिमै आकर वैक्रियिकमिश्रयोगको प्राप्त
१ अ-आप्रयो; ' उप्पजतिओ'; कापतो 'ओप्पज्जतीओ ' इति पाठः ।
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२१०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ३, ७३. गदस्स सादिरेयदसवस्ससहस्समेत्ततरुवलंभादो। कधमेदेसि सादिरेयत्तं ? ण, वेउब्धियमिस्सद्धादो तिरिक्ख-मणुस्सपज्जत्ताणं गब्भजाणं जहण्णाउवस्स बहुत्तुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियटुं ॥७३॥
कुदो ? वेउब्वियमिस्सकायजोगादो वेउब्धियकायजोगं गंतूणंतरिय असंखेज्जपोग्गलपरियट्टणाणि परियट्टिय वेउब्बियमिस्सं गदस्स तदुवलंभादो ।
आहारकायजोगि---आहारमिस्सकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ७४॥
सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ७५॥ कुदो ? आहारकायजोगादो अण्णजोगं गंतूण सब्बलहुमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो
हुए जीवके सातिरेक दश हजार वर्षप्रमाण वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर पाया जाता है।
शंका-इन दश हजार वर्षोंके सातिरेकता कैसे है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, वैक्रियिकमिश्रयोगके कालकी अपेक्षा तिर्यंच व मनुष्य पर्याप्त गर्भज जीवोंकी जघन्य आयु बहुत पायी जाती है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है ॥ ७३ ॥
क्योंकि, वैक्रियिकमिश्रकाययोगसे वैक्रियिककाययोगमें जाकर, वैक्रियिकमिश्रकाययोगका अन्तर प्रारंभ कर, असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें जानेवाले जीवके सूत्रोक्त प्रमाण अन्तर पाया जाता है।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। ७४ ॥
यह सूत्र सुगम है।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त होता है । ७५ ॥
क्योंकि, आहारककाययोगसे अन्य योगको जाकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्त रहकर
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२, ३, ७६.) एगजीवेण अंतराणुगमे आहारकायजोगीणमंतर [२११ आहारकायजोगं गदस्स अंतोमुहुत्ततरुवलंभादो । एगसमओ किण्ण लम्भदे ! ण, आहारकायजोगस्स वाघादाभावादो । एवमाहारमिस्सकायजोगस्स वि वत्तव्वं । णवरि आहारसरीरमुट्ठाविय सव्वजहण्णेण कालेण पुणो वि उट्ठावेतस्स पढमसमए अंतरपरिसमत्ती कायव्या।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूणं ॥ ७६ ॥
कुदो ? अणादियमिच्छादिहिस्स अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए उवसमसम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तण अंतोमुहुत्तमच्छिय (१) अप्पमत्तो होदण (२) आहारसरीरं बंधिय (३) पडिभग्गो होदण (४) आहारसरीरमुट्टाविय अंतोमुहुत्तमच्छिय () आहारकायजोगी होदूण आदि करिय एगसमयमच्छिय कालं काऊण अंतरिय उवड्पोग्गलपरियाई भमिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अद्धमंतरं करिय (६) अंतोमुहुत्तमच्छिय (७) अबंधभावं
पुनः आहारककाययोगको प्राप्त हुए जीवके आहारककाययोगका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है।
शंका- आहारकाययोगका एक समयमात्र अन्तर क्यों नहीं प्राप्त हो सकता?
समाधान नहीं हो सकता, क्योंकि, आहारकाययोगका व्याघात नहीं हो सकता।
इसी प्रकार आहारमिश्रकाययोगका अन्तर भी कहना चाहिये । केवल विशेषता यह है कि आहारशरीरको उत्पन्न करके सबसे कम कालमें पुनः आहारशरीरको उठानेके प्रथम समयमें अन्तरकी समाप्ति करदेना चाहिये।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण होता है ॥ ७६ ॥
__ क्योंकि, एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण संसार शेष रहनेके आदि समयमें उपशमसम्यक्त्व और संयम इन दोनोंको एक साथ ग्रहण किया
और अन्तर्मुहूर्त रहकर (१) अप्रमत्त होकर (२) आहारशरीरका बंध करके (३) प्रतिभन्न अर्थात् अप्रमत्तसे च्युत हो प्रमत्त होकर (४) आहारशरीरको उत्पन्न करके अन्तर्मुहूर्त रहा (५) और आहारकाययोगी होकर उसका प्रारंभ करके व एक समय रहकर मर गया । इस प्रकार आहारकाययोगका अन्तर प्रारंभ हुआ। पश्चात् वही जीव उपार्धपुदलपरिवर्तन भ्रमण करके संसारके अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहनेपर अन्तरकाल समाप्त कर अर्थात् पुनः आहारशरीर उत्पन्न कर (६) अन्तर्मुहूर्त रहकर (७) अबंधकभावको प्राप्त
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२१२ छक्खंडागमै खुदाबंधो
[२, ३, ७७. गयस्स जहाकमेण अद्वहि सत्तहि अंत्तोमुहुत्तेहि ऊणअद्धपोग्गलपरियट्टमेत्ततरुवलंभादो ।
कम्मइयकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ७७॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं ॥ ७८ ॥
तिण्णि विग्गहे काऊण खुद्दाभवग्गहणम्मि उप्पज्जिय पुणो विग्गहं काऊण णिग्गयस्स तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमेत्ततरुवलंभादो ।
उकस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्साप्पिणीओ॥ ७९ ॥
कुदो ? कम्मइयकायजोगादो ओरालियमिस्सं वेउब्धियमिस्सं वा गंतूण असंखेजासंखेज्जओसप्पिणी-उस्सप्पिणीपमाणमंगुलस्स' असंखेजदिभागमेत्तकालमाच्छिय विग्गहं
होगया। ऐसे जीवके यथाक्रम आठ या सात अर्थात् आहारककाययोगका आठ और आहार कमिश्रकाययोगका सात अन्तर्मुहर्तसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तमात्र अन्तरकाल पाया जाता है।
कार्मिककाययोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ७७ ॥ यह सूत्र सुगम है। कार्मिककाययोगियोंका जघन्य अन्तर तीन समय कम क्षुद्र भवग्रहणमात्र होता
क्योंकि, तीन विग्रह करके क्षुद्रभवग्रहणवाले जीवों में उत्पन्न हो पुनः विग्रह करके निकलनेवाले जीवके तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र कार्मिककाययोगका जघन्य अन्तर प्राप्त होता है।
कार्मिककाययोगियोंका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल तक होता है ।। ७९ ॥
क्योंकि, कार्मिककाययोगसे औदारिकमिश्र अथवा वैक्रियिकमिश्र काययोगमें जाकर असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीप्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र काल तक रहकर पुनः विग्रहगतिको प्राप्त हुए जीवके कार्मिककाययोगका सूत्रोक्त अन्तर
....................
१ अप्रती । ओस पिणी-उस्सविणीओ पमाणअंगुलस्स'; आप्रती । ओसपिणि-उस्सारिणीपमाणअंगु. लस्स ' इति पाठः ।
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२, ३, ८४.1 एगजीवेण अंतराणुगमे इत्थि-पुरिसवेदाणमंतरं [ २१३ गदस्स तदुवलंभादो।
वेदाणुवादेण इत्थिवेदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥८॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ८१॥
सुगमं ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ ८२॥
कुदो ? इस्थिवेदादो णिग्गयस्स पुरिस-णqसयवेदेसु चेव भमंतस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणमंतरसरूवेणुवलंभादो।
पुरिसवेदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ८३॥ सुगमं । जहण्णण एगसमओ ॥ ८४ ॥ कुदो ? पुरिसवेदेणुवसमसेडिं चढिय अवगदवेदो होदूण एगसमयमंतरिय
काल पाया जाता है।
बेदमार्गणानुसार स्त्रीवेदी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ८० ॥ यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण काल होता है ॥ ८१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
स्त्रीवेदी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है ।। ८२ ॥
क्योंकि, स्त्रीवेदसे निकल कर पुरुषवेद या नपुंसकवेदमें ही भ्रमण करनेवाले जीवके आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तनरूप स्त्रीवेदका अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है।
पुरुषवेदियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ८३ ॥ यह सूत्र सुगम है। पुरुषवेदियोंका जघन्य अन्तर एक समय होता है ॥ ८४ ॥ क्योंकि, पुरुषवेद सहित उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो एक समय तक
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२१४
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ३, ८५. बिदियसमए कालं काऊण पुरिसवेदेसुप्पण्णस्स एगसमयमेत्तरुवलंभादो ।
उकस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ ८५॥ सुगमं । णवंसयवेदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ८६ ॥
सुगमं ।
· जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ८७ ॥
खुद्दाभवग्गहणं किण्ण लब्महे ? )ण,) अपजत्तएसु खुद्दाभवग्गहणमेत्ताउद्विदिएसु णqसयवेदं मोतूण इत्थि-पुरिसवेदाणमणुवलंभादो, पज्जत्तएसु वि अंतोमुहुत्तं मोत्तूण खुद्दाभवग्गहणस्स अणुवलंभादो ।
उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥ ८८ ॥ कुदो ? णqसयवेदादो णिग्गयस्स इस्थि-पुरिसवेदेसु चेत्र हिंडंतस्स सागरोवम
पुरुषवेदका अन्तर करके दूसरे समयमें मरण कर पुरुषवेदी जीवों में उत्पन्न होनेवाले जीवके पुरुषवेदका एक समयमात्र अन्तर पाया जाता है।
पुरुषवेदियोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है॥ ८५ ॥
यह सूत्र सुगम है। नपुंसकवेदियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ८६ ॥ यह सूत्र सुगम है। नपुंसकवेदियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है । ८७ ॥
शंका-नपुंसकवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण क्यों नहीं प्राप्त हो सकता ?
समाधान नहीं हो सकता, क्योंकि क्षुद्रभवग्रहणमात्र आयुवाले अपर्याप्तक जीवोंमें नपुंसकवेदको छोड़ स्त्री व पुरुषवेद नहीं पाया जाता, और पर्याप्तकोंमें अन्तमुहूर्त के सिवाय क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल नहीं पाया जाता।
नपुंसकवेदियोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व होता है ॥ ८८ ॥ क्योंकि, नपुंसकवेदसे निकलकर स्त्री और पुरुष वेदोंमें ही भ्रमण करनेवाले
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२, ३, ९१. ]
सदधत्तादो उवरि तत्थावद्वाणाभावादो ।
एगजीवेण अंतराणुगमे अवगदवेदाणमंतरं
अवगदवेदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ८९ ॥
सुगमं ।
उवसमं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९० ॥
कुदो १ उवसमसेडीदो ओयरिय सव्वजहणमंतोमुहुत्तं सवेदी होणंतरिय पुणो उवसमसेडिं चडि अवेदत्तं गयस्स तदुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियङ्कं देणं ॥ ९१ ॥
कुदो ? अणादियामिच्छाइट्ठिस्स तिणि वि करणाणि काऊण अद्धपोग्गलपरियडूस्सादिसमए सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तूण अंतोमुहुत्तमच्छिय उवसमसेडिं चडिय अवगदवेदो होण हेट्ठा ओयरिय सवेदो होदूण अंतरिय उबड्डपोग्गलपरियङ्कं भमिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे उवसमसेडिं चढिय अवगदवेदो होदूण अंतरं समानिय पुणेो
जीवके सागरोपमशतपृथक्त्वसे ऊपर वहां रहना संभव नहीं है ।
[ २१५
अगदी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। ८९ ।। यह सूत्र सुगम है ।
उपशमकी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है ॥ ९० ॥
क्योंकि, उपशमश्रेणीसे उतरकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र संवेदी होकर अपगतवेदित्वका अन्तर कर पुनः उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदभावको प्राप्त होनेवाले जीवके अपगतवेदित्वका अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर पाया जाता है ।
उपशमकी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपीरवर्तनप्रमाण होता है ॥ ९१ ॥
क्योंकि, किसी अनादिमिथ्यादृष्टि जीवने तीनों करण करके अर्धपुलपरिवर्तके आदि समय में सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण किया और अन्तर्मुहूर्त रहकर उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी होगया। वहांसे फिर नीचे उतरकर सवेदी हो अपगतवेदका अन्तर प्रारंभ किया और उपार्धपुद्गल परिवर्तप्रमाण भ्रमण कर पुनः संसारके अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहनेपर उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो अन्तरको समाप्त किया । पश्चात् फिर नीचे उतरकर क्षपकश्रेणीको चढ़कर अबन्धकभाव
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२१६] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ३, ९२. तत्तो ओयरिय खवगसेडि चडिय अबंधभावं गयस्स तदुवलंभादो ।
खवगं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ ९२ ॥ ... कुदो ? खवगाणमवगदवेदाणं पुणो वेदपरिणामाणुप्पत्तीदो ।
कसायाणुवादेण कोधकसाई-माणकसाई-मायकसाई-लोभकसाई णमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ९३ ॥
सुगमं । जहण्णेण एगसमओ ॥ ९४ ॥
कुदो ? कोधेण अच्छिय माणादिगदबिदियसमए वाघादेण, कालं कादूण णेरइएसु उप्पादेण वा, आगदकोधोदयस्स एगसमयअंतरुवलंभादो । एवं चेव सेसकसायाणमेगसमयअंतरपरूवणा कायव्वा । णवरि वाघादे अंतरस्स एगसमओ णस्थि, वाघादे कोधस्सेव उदयदंसणादो। किंतु मरणेण एगसमओ वत्तबो, मणुस्स-तिरिक्ख-देवेसुप्पण्णपढमसमए माण-माया-लोहाणं णियमेणुदयदंसणादो ।
प्राप्त किया । ऐसे जीवके अपगतवेदित्वका कुछ क्रम अर्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है।
क्षपककी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ ९२ ॥
क्योंकि, क्षपकश्रेणी चढ़नेवालोंके एक वार अपगतवेदी होजानेपर पुनः वेदपरिणामकी उत्पत्ति नहीं होती।
कषायमार्गणानुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ९३ ॥
यह सूत्र सुगम है। क्रोधादि चार कषायी जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय होता है ॥ ९४ ॥
क्योंकि, क्रोधकषायमें रहकर मानादिकषायमें जानके दूसरे ही समयमें व्याघातसे अथवा मरणकर नारकी जीवोंमें उत्पत्ति होजानेसे क्रोधोदय सहित जीवके क्रोधकषायका एक समयमात्र अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार शेष कषायोंके भी अन्तरकी प्ररूपणा करना चाहिये। केवल विशेषता यह है कि मानादि कषायोंके व्याघातके द्वारा एक समयप्रमाण अन्तरकाल नहीं होता, क्योंकि व्याघात होनेपर क्रोधका ही उदय देखा जाता है। किन्तु मरणके द्वारा मानादिकषायोंका एक समयप्रमाण अन्तर कहना चाहिये, क्योंकि मनुष्य, तिर्यंच व देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके प्रथम समयमें क्रमशः मान, माया व लोभका नियमसे उदय देखा जाता है।
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२, ३, ९८. ]
एगजीवेण अंतराणुगमे मदि- सुदअण्णाणीणमंतरं
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९५ ॥
अप्पिदकसायादो अणपिदकसायं गंतणुक्कस्समं तो मुहुत्तमच्छिय अप्पिदकसायमागदस्त तदुवलंभादो ।
अकसाई अवगदवेदाण भंगो ॥ ९६ ॥
[ २१७
कुदो ? ( उवसमं पडुच्च ) जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरिय; खवगं पडुच णत्थि अंतरमिच्चेदेहि तत्तो भेदाभावादो ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ९७ ॥
सुगमं ।
जहणेण अंतोमुत्तं ॥ ९८ ॥
कुदो ? मदि-सुदअण्णाणेहिंतो सम्मतं घेतूण सण्णाणेसु जहण्णकालमंतरिय पुणे
क्रोधादि चार कषायी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तमात्र है ॥ ९५ ॥
क्योंकि, विवक्षित कषायसे अविवक्षित कषायमें जाकर अधिक से अधिक अन्तमुहूर्तप्रमाण रहकर विवक्षित कषायमें आये हुए जीवके उस कषायका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त होता है ।
अकषायी जीवोंका अन्तर अपगतवेदी जीवोंके समान होता है ॥ ९६ ॥
क्योंकि, ( उपशमकी अपेक्षा ) जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुलपरिवर्त अकषायी जीवोंके भी होता है । क्षपककी अपेक्षा अन्तर नहीं होता, निरन्तर है । इस प्रकार अकषायी और अपगतवेदी जीवोंकी अन्तर- प्ररूपणामें कोई भेद नहीं है ।
ज्ञानमार्गणानुसार मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ९७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
मतिअज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है ॥ ९८ ॥
क्योंकि, मतिअज्ञान व श्रुतअज्ञान से सम्यक्त्व ग्रहणकर मतिज्ञान व श्रुत ज्ञानमें आकर कमसे कम कालका अन्तर देकर पुनः मतिअज्ञान व श्रुतअज्ञान भावमें गये
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२१८ ]
मदि-सुदअण्णाणी गदस्स तदुधलंभादो ।
छडागमे खुदाबंधो
उक्कस्सेण बेछावट्टिसागरोवमाणि ॥ ९९ ॥
कुदो ? मदि- सुदअण्णाणिस्स सम्मत्तं घेतूण छावट्टिसागरोवमाणि देणाणि सणासु अंतरिय पुणो सम्मामिच्छत्तं गंतूण मिस्सणाणेहि अंतरिय पुणो सम्मत्तं घेण छावसागरोमाणि भ्रूणाणि भमिय मिच्छत्तं गदस्स तदुवलंभादो | कुदो देसूणतं ? उवसमसम्मत्तकालादो बेछावडिअ अंतरमिच्छत्तकालस्स बहुत्तुवलंभादो । सम्मामिच्छाइट्टीणाणं मदि-सुदअण्णाणमिदि कट्टु केइमाइरिया सम्मामिच्छत्तेण णांतरावेंति । त घडदे, सम्मामिच्छत्तभावायत्तणाणस्स सम्मामिच्छत्तं व पत्तजच्चतरस्स मदि-सुदअण्णाणत्तविरोहादो |
विभंगणाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०० ॥
हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल पाया जाता है ।
मतिअज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर दो छयासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम काल होता है ॥ ९९ ॥
[ २, ३.९९.
क्योंकि, किसी मतिश्रुतअज्ञानी जीवके सम्यक्त्व ग्रहण करके, कुछ कम छयासठ सागरोपम कालप्रमाण सम्यग्ज्ञानोंका अन्तर देकर, पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको. जाकर मिश्रक्षानोंका अन्तर देकर पुनः सम्यक्त्व ग्रहण करके कुछ कम छ्यासठ सागरोपमप्रमाण परिभ्रमण कर मिथ्यात्वको जानेसे दो छयासठ सागरोपमप्रमाण मतिश्रुत अज्ञानोंका अन्तरकाल पाया जाता है ।
शंका- दो छयासठ सागरोपमोंमें जो कुछ कम काल बतलाया है वह क्यों ? समाधान - क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वकालसे दो छयासठ सागरोपमोंके भीतर मिथ्यात्वका काल अधिक पाया जाता है । ( देखो पु. ५, पृ. ६, अन्तरानुगम सूत्र ४ की टीका ) ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टिज्ञानको मति श्रुत अज्ञान रूप मानकर कितने ही आचार्य उपर्युक्त अन्तर- प्ररूपणा में सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर नहीं दिलाते । पर यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वभावके अधीन हुआ ज्ञान सम्यग्मिथ्यात्वके समान एक अन्य जातिका बन जाता है अतः उस ज्ञानको मति श्रुत अज्ञान रूप माननेमें विरोध आता है ।
विभंगज्ञानियोंका अन्तर कितने काल होता है ? ॥ १०० ॥
१ का सम्मामिच्छत्तं पत्त- '; मप्रतौ ' सम्मामिच्छतं च पत्त- ' इति पाठः ।
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२, ३, १०५.] एगजीवेण अंतराणुगमे मदि-सुदादिचदुणाणीणमंतर २१९
सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १०१॥
कुदो ? देवस्स हेरइयस्स वा विभंगणाणिस्स दिट्ठमग्गस्स सम्मत्तं घेत्तूण ओहिणाणेण सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय विभंगणाणं मिच्छत्तं च जुगवं पडिवण्णस्स जहणंतरुवलंभादो।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ १०२ ॥
कुदो ? विभंगणाणादो मदिअण्णाणं गंतूणतरिय आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टे परियट्टिदूण विभंगण्णाणं गदस्स तदुवलंभादो ।
___ आभिणिवोहिय-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ।। १०३ ॥
सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १.४ ॥
यह सूत्र सुगम है। विभंगज्ञानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १०१ ॥
क्योंकि, एक विभंगवानी देव या नारकी जीवके सन्मार्ग पाकर सम्यक्त्व ग्रहण कर अवधिज्ञान सहित कमसे कम अन्तर्मुहूर्त रहकर विभंगज्ञान और मिथ्यात्वको एक साथ प्राप्त होनेपर विभंगज्ञानका अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्य अन्तर प्राप्त होता है ।
विभंगज्ञानियोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल
क्योंकि, विभंगहानसे मतिअज्ञानको जाकर अन्तर प्रारंभ कर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर विभंगज्ञानको प्राप्त होनेवाले जीवके विभंगज्ञानका सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? ॥ १०३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
आभिनिवोधिक आदि उक्त चार ज्ञानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है ॥१०४॥
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२२० ]
छक्डागमे खुदाबंध
[२, ३, १०५.
कुदो ? मद- सुद-ओहिणाणेसु ट्ठिददेवस्स णेरइयस्स वा मिच्छत्तं गंतूण मदिसुद-विभंग अण्णाणेहि अंतरिय पुणो मदि- सुद-ओहिणाणमागदस्स जहण्णेणतो मुहुत्तं तरुवलंभादो | एवं मणपज्जवणाणस्स वि । णवरि मणपज्जवणाणी संजदो तण्णाणं विणासिय अंतमुत्तमच्छिय तस्सेव णाणस्स पुणो आणदव्वो ।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियहं देणं ॥ १०५ ॥
कुदो ? अणादियमिच्छाइट्ठिस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स पढमसमए उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय तत्थेव देव - णेरइएस विरोधाभावादो मदि-सुद-ओहिणाणाणि उप्पाइय छावलियाओ उचसमसम्मसद्धा अस्थि त्ति सासणं गंतृणंतरिय पुणो मिच्छत्तेग अद्धपोग्गल - परियङ्कं भमिय अंतेोमुहुत्तात्रसे से संसारे सम्मत्तं पडिवज्जिय मदि-सुदणाणाणमंतरं समा
क्योंकि, मति, श्रुत और अवधि ज्ञानोंमें स्थित किसी देव या नारकी जीवके मिथ्यात्वको जाकर मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान व विभंगज्ञानके द्वारा अन्तर करके पुनः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान व अवधिज्ञानमें आनेपर उक्त ज्ञानोंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर प्राप्त होता है ।
इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानीका भी जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है । केवल विशेषता यह है कि मन:पर्ययज्ञानी संयत जीव मनःपर्ययज्ञानको नष्ट करके अन्तर्मुहूर्तकाल तक उस ज्ञानके बिना रहकर फिर उसी ज्ञान में लाया जाना चाहिये ।
आभिनिबोधिक आदि चार ज्ञानोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण होता है ।। १०५ ।।
क्योंकि, किसी अनादि मिध्यादृष्टि जीवने अपने अर्धपुद्गल परिवर्तप्रमाण ( संसार शेष रहने के ) प्रथम समय में उपशमसम्यक्त्व ग्रहण किया और उसी अवस्थामें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान व अवधिज्ञान उत्पन्न किये; क्योंकि देव और नारकी जीवों में उक्त अवस्था में इनके उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं आता। फिर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवली शेष रहनेपर वह जीव सासादनगुणस्थान में गया और इस प्रकार मतिज्ञान आदि तीनों शानोंका अन्तर प्रारंभ हो गया । फिर उसी जीवने मिथ्यात्व सहित अर्धपुलपरिवर्तप्रमाण भ्रमण कर संसार के अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहनेपर सम्यक्त्वको ग्रहण कर लिया और इस प्रकार मति श्रुत ज्ञानोंका अन्तर समाप्त किया ।
१ बेइंदियाणं भंते किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! णाणी वि अण्णाणि वि । जे गाणी ते नियमा दुनाणी । तं अहा- आभिणिबोहियनाणी सुयणाणी । जे अण्णाणी ते वि नियमा दुअन्नाणी । तं जहा - मइअन्नाणी सुयअण्णाणी य । भगवती, ८, २. बेइंदियस्स दो णाणा कहं लम्भंति ? भण्णइ, सासायणं पड़च्च तस्साप जयस दो णाणा लन्गंति । प्रज्ञापना टीका | सासणभावे गाणं । कर्मग्रंथ ४, ४९.
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२, ३, १०८.] एगजीवेण अंतराणुगमे संजदादीणमंतर
[ २२१ णिय पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण ओहिणाणमुप्पाइय तत्थेव तदंतरं पि समाणिय अंतोमुहुत्तेण केवलणाणमुप्पाइय अबंधभावं गदस्स उवड्डपोग्गलपरियटुंतरुवलंभादो ।
एवं मणपज्जवणाणस्स वि । णवरि उवसमसम्मत्तेण सह मणपज्जवणाणस्स विरोहादो पढमसम्मत्तद्धं वोलाविय मुहुत्तपुधत्ते गदे मणपज्जवणाणमादीए अंतरस्स अवसाणे च उपाएदव्वं ।
केवलणाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०६ ॥ सुगमं । णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ १०७ ॥ कुदो ? केवलणाणे समुप्पण्णे पुणो तस्स विणासाभावादो ।
संजमाणुवादेण संजद-सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धिसंजद-संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०८॥
सुगमं ।
पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत करके उसने अवधिज्ञान उत्पन्न कर लिया और उसी समय अवधिज्ञानका अन्तर समाप्त किया। फिर उसने अन्तर्मुहूर्तकालसे केवलज्ञान उत्पन्न कर अवन्धकभाव प्राप्त कर लिया । ऐसे जीवके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिः शानका उपार्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है।
इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानका भी उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। केवल विशेषता यह है कि उपशमसम्यक्त्वसे मनःपर्ययज्ञानका विरोध होनेके कारण प्रथमोपशमसम्यक्त्वका काल समाप्त कर मुहूर्तपृथक्त्व व्यतीत होजानेपर आदि में व अन्तरके अन्तमें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न कराना चाहिये।
केवलज्ञानियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १०६ ॥ यह सूत्र सुगम है। केवलज्ञानियोंके ज्ञानका कभी अन्तर ही नहीं होता, वह ज्ञान निरन्तर होता
क्योंकि, केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर फिर उसका विनाश नहीं होता।
संयममार्गणानुसार संयत, सामायिक व छेदोपस्थापन शुद्धिसंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥१०८॥
यह सूत्र सुगम है।
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२२२ j छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ३, १०९. जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १०९ ॥
कुदो ? अप्पिदसंजमद्विदिजीवमसंजमं णेदूण पुणो अप्पिदसंजमस्स जहण्णकालेण णीदे जहण्णमंतर होदि । णवीर सामाइयच्छेदोवट्ठावणसंजदो उवसमसेडि चडिय सुहुमसंजम-जहाक्खादसंजमेसु अंतरिय पुणो हेट्ठा ओयरियस्स सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमेसु पदिदस्स जहण्णमंतर होदि । परिहारसुद्धिसंजमादो सामाइय- छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमं णेदूण जहण्णेण अंतोमुहुत्तेण पुणो परिहारसुद्धिसंजममागदस्स जहण्णमंतरं होदि ।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियटुं देसूणं ॥ ११०॥ ___ कुदो ? अणादियमिच्छाइट्ठिस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स आदिसमए पढमसम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तूण अंतोमुहुसमच्छिय मिच्छत्तं गंतूणतरिय उबड्डपोग्गलपरियटुं भमिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे संजमं पडिबज्जिय अंतरं समाणिय अंतोमुहुत्तमच्छिय अबंधगत्तं गदस्स उबड्डपोग्गलपरियट्टमेत्तंतरुवलंभादो । एवं सामाइय छेदोवट्ठा
संयत आदि उक्त संयमी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है ।।१०९।।
क्योंकि, विवक्षित संयममें स्थित जीवको असंयममें लेजाकर कमसे कम कालमें पुनः विवक्षित संयममें लानेपर उस संयमका उक्त जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। केवल विशेषता यह है कि सामायिक व छेदोपस्थापन शुद्धिसंयत जीवके उपशमश्रेणीको चढ़कर सूक्ष्मसाम्पराय व यथाख्यात संयमोंके द्वारा अन्तर देकर पुनःश्रेणीसे नीचे उतरनेपर सामायिक व छेदोपस्थान शुद्धिसंयमोंमें आनेपर उन दोनों संयमोंका जघन्य अन्तर होता है । तथा • परिहारशुद्धिसंयमसे सामायिक व छेदीपस्थापन शुद्धिसंयममें जाकर अन्तर्मुहूर्त कालसे पुनः परिहारशुद्धिसंयममें आये हुए जीवके परिहारशुद्धिसंयमका जघन्य अन्तर होता है।
संयत आदि उक्त संयमी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण होता है ॥ ११०॥
क्योंकि, किसी अनादिमिथ्यादृष्टि जीवके अर्धपुद्गलपरिवर्तमात्र संसार शेष रहनेके आदि समयमें प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयम दोनों को एक साथ ग्रहण कर भन्तर्मुहुर्त रहकर मिथ्यात्वको जाकर अन्तर प्रारंभ करके उपार्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाण अमण कर पुनः अन्तर्मुहूर्तमात्र संसार शेष रहनेपर संयम ग्रहण कर व अन्तरकाल समाप्त कर अन्तर्मुहूर्त तक रह अबन्धकभावको प्राप्त होनेपर उक्त संयमोंका उपाधपुलपरिवर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है।
इसी प्रकार सामायिक व छेदोपस्थापन शुद्धिसंयतोंका अन्तर कहना चाहिये,
१ अप्रतौ ' जीवसंजर्भ ' इति पाठः ।
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२, ३, १११. ] एगजीवेण अंतराणुगमे सुहुम- जहाक्खाद सुद्धिसंजदाण मंतरं
[ २२३
वणसुद्धिसंजदाणं, भेदाभावादो | एवं परिहारसुद्धिसंजदस्स वि । णवरि अणादियमिच्छादिट्ठी अद्धपोग्गलपरियट्टस्स आदिसमए उपसमसम्मत्तं संजमं च जुगवं घेतण वासपुधत्तमच्छिय पच्छा परिहारसुद्धिसंजमं गंतॄण मिच्छतं पुणो गमिय अंतरावेदव्त्रो, संजमग्गहणपढमसमयादो वासपुधत्तेण विणा परिहार सुद्धिसंजमग्गहणाभावादो | अवसाणे वि परिहारसुद्धिसंजमं गण्हाविय' पच्छा सामाइयच्छेदोवडावण- सुहुम- जहाक्खादसंजमाणं दूण अबंधगो कायव्वो । एवं संजदासंजदस्स वि । णवरि अवसाणे तिष्णि विकरणाणि काऊ णुवसमसम्मत्तं संजमा संजमं च गहिदपढमसमए अंतरं समाणिय अंतो मुहुत्तमच्छिय संजमं घेत्तूण अबंधगत्तं गदो त्ति वत्तव्यं ।
सुहुमसां पराइयसुद्धिसंजद - जहाक्खाद विहार सुद्धिसंजदाणमंतरं haचिरं कालादो होदि ? ॥ १११ ॥
सुगमं ।
क्योंकि, उनके पूर्वोक्त संयतों के अन्तरसे कोई भेद नहीं होता !
इसी प्रकार परिहारशुद्धिसंयतका भी अन्तर होता है । केवल विशेषता यह है कि अनादिमिथ्यादृष्टि जीवके अर्धपुलपरिवर्तके आदि समय में उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण कर वर्षपृथक्त्व रहकर पश्चात् परिहारशुद्धिसंयमको प्राप्त कर पुनः मिथ्यात्व में जाकर अन्तर उत्पन्न कराना चाहिये, क्योंकि संयम ग्रहण करने के पश्चात् वर्षपृथक्त्वके विना परिहारशुद्धिसंयम ग्रहण नहीं किया जा सकता । अन्तरके समाप्तिकालमें भी परिहारशुद्धिसंयमको ग्रहण कराकर पश्चात् सामायिक व छेदोपस्थान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात संयमों में लेजाकर अबन्धकभाव उत्पन्न कराना चाहिये ।
इसी प्रकार संयतासंयत जीवका भी अन्तर उत्पन्न करना चाहिये । केवल विशेषता यह है कि अन्तमें तीनों करण करके उपशमसम्यक्त्व व संयमासंयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें ही अन्तरकाल समाप्त कर अन्तर्मुहूर्त रहकर संयम ग्रहण कर अबन्धकभावको प्राप्त हुआ, ऐसा कहना चाहिये ।
सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतों और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतका अन्तर कितने काल होता है ? ॥ १११ ॥
यह सूत्र सुगम है।
१ अ - आप्रत्योः ' गेहविय ' इति पाठः ।
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२२४ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ३, ११२. उवसमं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ११२ ॥
कुदो ? चडमाणस्स सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदस्स उपसंतकसाओ होदूण जहाक्खादेणंतरिय पुणो सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदे पदिदस्स तदुवलंभादो । जहाक्खादसंजमादो हेट्ठा पदिय जहण्णमंतोमुहुत्तमाच्छय पुणो कमेणुवरि चढिय उवसंतकसाओ होदूण जहाक्खादसंजमं गदस्स जहणतरुवलंभादो।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूणं ॥ ११३ ॥ कुदो ? अणादियमिच्छाइद्विस्स तिणि वि करणाणि कादण अद्धपोग्गलपरियट्टस्स आदिसमए पढमसम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तण अंतोमुहुत्तेण सव्वजहण्ण उवसमसेडिं चडिय सुहुमसांपराइओ होदूग तत्थ जहणतोमुहुत्तमच्छिय उपसंतकसाओ होण सुहुमुसांपराइयसुद्धिसंजदो पुणो होदूण तस्स पढमसमए जहाक्खादसुद्धिसंजमंतरस्सादि करिय पुणो अंतोमुहुत्तेण अणियट्टिगुणट्ठाणे णिवदिय सामाइय-छेदोवट्ठावणं पदिदपढमसमए सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमंतरस्स आदि करिय कमेण हेट्ठा ओयरिय
उपशमकी अपेक्षा सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात शुद्धिसंयतोंका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है ।। ११२ ।।
__क्योंकि, श्रेणी चढ़ते हुए सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतके उपशांतकषाय होकर यथाख्यातसंयमके द्वारा सूक्ष्मसास्परायसंयमका अन्तर कर पुनः गिरकर सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयममें आनेपर अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तरकाल पाया जाता है। यथाख्यातसंयमसे नीचे गिरकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र रहकर पुनः क्रमसे ऊपर चढ़कर उपशान्तकषाय होकर यथाख्यातसंयम ग्रहण करनेवाले जीवके यथाख्यातसंयमका अन्तमुहूर्तमात्र जघन्य अन्तर पाया जाता है।
सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात शुद्धिसंयतोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ ११३ ॥
क्योंकि, कोई अनादिमिथ्यादृष्टि जीव तीनों ही करण करके अर्धपुद्गलपरिवर्तक आदि समय में प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण कर सबसे कम अन्तमुहूर्त कालसे उपशमश्रेणीको चढ़कर सूक्ष्मसाम्परायिक हुआ, और वहां कमसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र रहकर उपशान्तकषाय होगया। पश्चात् पुनः सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत होकर उसके प्रथम समयमें ही यथाख्यातशुद्धिसंयमका अन्तर प्रारंभ किया। पुनः अन्तर्मुहूर्त कालसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें गिरकर सामायिक व छेदोपस्थापन शुद्धिसंयमोंमें गिरनेके प्रथम समयमें सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयमका अन्तर प्रारंभ किया । फिर क्रमसे नीचे उतरकर उपार्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाण भ्रमण कर अन्तमें
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२, ३, ११६. ]
एगजीवेण अंतराणुगमे असंजदाणमंतरं
[ २२५
उबड्डपोग्गलपरियङ्कं भमिय अवसाणे सम्मत्तं संजमं च घेत्तूणुवस सेडिं चडिय मुहुमसांपराइओ उवसंतकसाओ च होतॄण सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदो पुणो होदूण कमेण अंतराणि समणिय हेट्ठा ओरिय पुणो खवगसेडिं चडिय अबंधगतं गदस्स उवड्डपोग्गलपरियतरस्सुवलंभादो । खवगसेडीए दोण्हमंतराणं परिसमती किण्ण कदा ? ण, उत्रसामगेहि एत्थ अहियारादो ।
खवगं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ ११४ ॥ कुदो ? खवगाणं पुणो आगमणाभावादो ।
असंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ११५ ॥
सुगमं ।
जण अंतमुतं ॥ ११६ ॥
सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण कर उपशमश्रेणीपर चढ़ा तथा सूक्ष्मसाम्परायिक और उपशान्तकषाय होकर पुनः सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत होकर क्रमसे दोनों अन्तरकालोंको समाप्त कर नीचे उतरकर पुनः क्षपकश्रेणीपर चढ़ा और अबन्धकभावको प्राप्त होगया । ऐसे जीवके सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात शुद्धिसंयमका उपार्धपुद्गल परिवर्तप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है ।
शंका • क्षपकश्रेणी में जघन्य और उत्कृष्ट इन दोनों अन्तरोंकी परिसमाप्ति क्यों नहीं की ?
समाधान क्षपकोंका नहीं ।
क्षपककी अपेक्षा सूक्ष्मसाम्परायिक और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतों का अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ ११४ ॥
- नहीं की, क्योंकि यहां तो केवल उपशामकोंका अधिकार है,
क्योंकि, क्षपक जीवों का क्षीणकषाय गुणस्थान से लौटकर पुनः सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आने का अभाव है ।
असंयतका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। ११५ ।। यह सूत्र सुगम है ।
असंयतोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र है ।। ११६ ॥
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२२६ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ३, ११७.
कुदो ? असंजदस्स संजमं घेत्तण जहणमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणे असंजमं गदस्स तदुवलंभादो
उक्कस्सेण पुव्वकोडी देणं ॥ ११७ ॥
कुदो ? सणिपंचिदियसम्मुच्छिमपज्जत्तयस्स छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदस्स विस्समिय विसुद्ध होतॄण संजमा संजमं घेत्तृणंतरिय देसूणपुव्वकोडिं जीविय कालं काऊण देवेसुप्पण्णपढमसमए समाणिदंतरस्स अंतो मुहुत्तूण पुच्च कोडिमेत्तं तरुत्रलं भादो । दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
॥ ११८ ॥
जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ११९ ॥
कुदो ? जो जीवो चवखुदंसणी एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदियलद्धिअपज्जत्तएस खुदाभवग्गहण मेत्ताउडिदिएसु अण्णदरेसु अचक्खुदंसणी होणुप्पाज्जय खुद्दाभवग्ग हणमंतरिय पुणो चउरिंदियादिसु चक्खुदंसणी होणुप्पण्णो तस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तं तरुचलं भादो ।
क्योंकि, असंयत जीवके संयम ग्रहण कर कमसे कम अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर पुनः असंयम में जानेपर अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर प्राप्त होता है ।
असंयतोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि होता है ।। ११७ ॥
क्योंकि, किसी संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूर्छिम पर्याप्त जीवने छद्दों पर्याप्तियों से पूर्ण होकर विश्राम ले विशुद्ध हो संयमासंयम ग्रहणकर असंयमका अन्तर प्रारंभ किया और कुछ कम पूर्वकोटि काल जीकर मरणकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में अन्तर समाप्त किया अर्थात् असंयमभाव ग्रहण किया। ऐसे जीवके असंयमका अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटिमात्र अन्तरकाल पाया जाता है । (देखो पु. ४, कालानुगम सूत्र १८ ) ।
दर्शन मार्गणानुसार चक्षुदर्शनी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ११८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
चक्षुदर्शनी जीवोंका जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहणमात्र होता है ।। ११९ ॥
क्योंकि, जो चक्षुदर्शनी जीव क्षुद्रभवग्रहणमात्र आयुस्थितिवाले किसी भी एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय व त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों में अचक्षुदर्शनी होकर उत्पन्न होता है और क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल चक्षुदर्शनका अन्तर कर पुनः चतुरिन्द्रियादिक जीवोंमें चक्षुदर्शनी होकर उत्पन्न होता है उस जीवके चक्षुदर्शनका क्षुद्रभवग्रहणमात्र अन्तरकाल पाया जाता है ।
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२, ३, १२३.] एगजीवेण अंतराणुगमे दंसणचदुक्कस्संतर
[२२७ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ १२० ॥
कुदो ? चक्खुदंसणीहिंतो णिप्पिडिय अचक्खुदंसणीसु समुप्पज्जिय अंतरिदूण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियढे गमिय पुणो चक्खुदंसणीसुप्पण्णस्स तदुवलंभादो।
अचवखुदंसणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १२१ ॥ सुगमं । णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ १२२ ॥ केवलदसणिस्स पुणो' अचक्खुदंसणुप्पत्तीए अभावादो ।
ओधिदसणी ओधिणाणिभंगो ॥ १२३ ॥ जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्टमिच्चेदेहि दोण्हं भेदाभावादो।
चक्षुदर्शनी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल होता है ॥ १२० ॥
__ क्योंकि, चक्षुदर्शनी जीवों से निकलकर अचक्षुदर्शनी जीवोंमें उत्पन्न हो अन्तर प्रारम्भ कर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तीको विताकर पुनः चक्षुदर्शनी जीवों में उत्पन्न हुए जीवके चक्षुदर्शनका सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है।
अचक्षुदर्शनी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १२१ ॥ यह सूत्र सुगम है। अचक्षुदर्शनी जीवोंका अन्तर नहीं होता, वे निरन्तर होते हैं ॥ १२२ ।।
क्योंकि, अचक्षुदर्शनका अन्तर केवलदर्शन उत्पन्न होनेपर ही हो सकता है। पर एक वार जो जीव केवलदर्शनी हो गया उसके पुनः अचक्षुदर्शनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती।
अवधिदर्शनी जीवोंके अन्तरकी प्ररूपणा अवधिज्ञानी जीवोंके समान है ॥१२३॥
क्योंकि, अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंके जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तमात्र और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाणमें कोई भेद नहीं है।
१ प्रतिषु केवलदसणिस्त णो' इति पाठः ।
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२२८] छक्खंडागो खुदाबंधी
[२, ३, १२४. केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ १२४ ॥ ___ अंतराभावं पडि दोण्हं भेदाभावादो ।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-गीललेस्सिय-काउलेस्सियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १२५॥
सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १२६॥
कुदो ? किण्हलेस्सियस्त णीललेस्सं, णीललेस्सियस्स काउलेस्सं, काउलेस्सियस्स तेउलेस्सं गंतूण अप्पणो लेस्साए जहण्णकालेणागदस्स अंतोमुहुर्सतरुवलंभादो ।
उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १२७ ॥
कुदो ? पुव्यकोडाउओ मणुस्सो गब्भादिअहवस्साणमभंतरे छअंतोमुहत्तमस्थि त्ति किण्हलेस्साए परिणमिय आदि करिय पुणो णील-काउ-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सासु
केवलदर्शनी जीवोंके अन्तरकी प्ररूपणा केवलज्ञानी जीवोंके समान है ।।१२४॥
क्योंकि, इन दोनोंमें अन्तरका अभाव होता है, और इसकी अपेक्षा दोनोंमें कोई भेद नहीं है।
लेश्यामार्गणानुसार कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १२५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होता है ॥ १२६ ॥
क्योंकि, कृष्णलेश्यावाले जीवके नीललेश्याम, नीललेश्यावाले जीवके कापोतलेश्याम व कापोतलेश्यावाले जीवके तेजोलेश्यामें जाकर अपनी पूर्व लेश्याम जघन्य कालके द्वारा पुनः वापिस आनेसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है।'
कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण होता है ॥ १२७ ॥
क्योंकि, एक पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य गर्भसे आदि लेकर आठ वर्षके भीतर छह अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर कृष्णलेश्या रूप परिणामको प्राप्त हुआ। इस प्रकार कृष्णलेश्याका प्रारंभ कर पुनः नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओंमें परिपाटी
......................................
१ कृष्ण-णील-कपोतलेश्यानामेकशः अंतरं जघन्येनान्तर्महतः, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि साधिकानि । त.रा.४, २२, १०.
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२, ३, १२९.] एगजीवेण अंतराणुगमे छल्लेस्सियाणमंतर (२२९ परिवाडीए अंतरिय संजमं घेत्तूण तिसु सुहलेस्सासु देसूणपुरकोडिमच्छिय पुणो तेत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएसु दवे सुप्पज्जिय तत्तो आगंतूण मणुस्सेसुप्पज्जिय सुक्क-पम्मतेउ-काउ-णीललेस्साओ कमेण परिणामिय किण्णलेस्साए परिणामयस्स दसअंतोमुत्तूणअट्ठवस्सेहि उणियाए पुब्बकोडियाए सादिरेयाणं तेत्तीसंसागरोवमाणं अंतरत्तेणुवलंभादो । एवं चेव णील काउलेस्साणं पि वत्तव्यं । णवरि अट्ठ-छअंतोमुहुत्तूणहवस्सेहि ऊणि याए पुव्यकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीससागरोवमाणि त्ति वत्तव्यं ।
तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिय-सुक्कलेस्सियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १२८ ॥
सुगमं ।
जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १२९ ॥
क्रमसे जाकर अन्तर करता हुआ, संयम ग्रहण कर तीन शुभ लेश्याओंमें कुछ कम पूर्वकोटि कालप्रमाण रहा और फिर तेतीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । फिर वहांसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर शुक्ल, पद्म, तेज, कापोत और नीललेश्या रूप क्रमसे परिणमित हुआ और अन्तमें कृष्णलेश्यामें आगया । ऐसे जीवके दश अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्षसे हीन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण कृष्णलेश्याका अन्तरकाल प्राप्त होता है। इसी प्रकार नीललेल्या और कापोतलेश्याके उत्कृष्ट अन्तरकालका प्ररूपण करना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि नीललेश्याका अन्तर कहते समय आठ और कापोत लेश्याका अन्तर कहते समय छह अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्षसे हीन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण अन्तरकाल बतलाना चाहिये।
तेजलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्यावाले जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १२८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है ॥ १२९ ॥
१ अ-आप्रत्योः · अंतोमुहुत्तेऊण ' इति पाठः ।
२ तेजःपद्मशुक्ललेश्यानामेकशः अंतरं जघन्येनांतर्मुहूर्तः, उत्कर्षेणानंतः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । त.रा. ४, २२, १०. ते उतियाणं एवं णवरि य उक्करसविरहकालो दु। पोग्गलवरिवद्वा हु असंखेज्जा होति णियमेण ॥ गो. जी. ५५३.
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२३०)
छक्खंडागमै खुदाबंधी [२, ३, १३०. कुदो ? तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साहितो अविरुद्धमण्णलेस्सं गंतूण जहण्णकालेण पडिणियत्तिय अप्पप्पणो लेस्साणमागदस्स जहणतरुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ १३० ॥
कुदो ? अप्पिदलेस्सादो अविरुद्धाणप्पिदलेस्साणं गंतूण अंतरियावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टेसु किण्ण-गील काउलेस्साहि अदिक्कतेसु अप्पिदलेस्समागदस्स सुत्तुक्कस्संतरुवलंभादो ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिय-अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३१ ॥
सुगमं । णथि अंतरं णिरंतरं ॥ १३२ ॥ कुदो ? भवियाणम भवियाणं च अण्णोण्णसरूवेण परिणामाभावादो।
.
दा।
क्योंकि, तेज, पन व शुक्ल लेश्यासे अपनी अविरोधी अन्य लेश्यामें जाकर व जघन्य कालसे लौटकर पुनः अपनी अपनी पूर्व लेश्याम आनेवाले जीवके अन्तर्मुहर्तमात्र जघन्य अन्तरकाल पाया जाता है।
तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल होता है ॥ १३० ॥
क्योंकि, विवक्षित लेश्यासे अविरुद्ध अविवक्षित लेश्याओंको प्राप्त हो अन्तरको प्राप्त हुआ । पुनः आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तनोंके कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंके साथ वीतनेपर विवक्षित लेश्याको प्राप्त हुए जीवके उक्त लेश्याओंका सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है।
भव्यमार्गणानुसार भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १३१ ॥
यह सूत्र सुगम है। भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर नहीं होता, वे निरन्तर हैं ॥१३२।।
क्योकि, भव्य और भभव्य जीवोंका अन्योन्यस्वरूपसे परिणमनका अभाव है, अर्थात् भव्य कभी अभव्य नहीं हो सकता और अभव्य कभी भव्य नहीं हो सकता।
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२, ३, १३५ ] एग जीवेण अंतराणुगमे सम्माइट्ठिआदीणमंतरं [ २३१
सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्टि वेदगसम्माइट्ठि-उवसमसम्माइट्ठिः सम्मामिच्छाइट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१३३॥
सुगमं । जहण्णेणंतोमुहुत्तं ॥ १३४ ॥
कुदो ? सम्माइटिस्स मिच्छत्तं गंतूण जहण्णेण कालेण पुणो सम्मत्तमागदस्स जहण्णंतरुवलंभादो । एवं वेदगसम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं, विसेसाभावादो । एवं उसमसम्माइट्ठिस्स वि । णवरि उवसमसेडीदो ओदिण्णस्स आदि करिय वेदगसम्मतेण जहण्णद्धमंतरिय पुणो उवसमसेडिं समारुहणटुं दंसणमोहणीयमुवसमिय उवसमसम्मत्तं गयस्स जहण्णमंतरं वत्तव्यं ।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूणं ॥ १३५॥
कुदो ? अणादियमिच्छादिहिस्स अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए सम्मत्तं घेत्तण अंतोमुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूणुवड्डपोग्गलपरियट्टमंतरिय अवसाणे सम्मत्तं संजमं च
सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्दृष्टि वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १३३ ॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्तमात्र है ॥ १३४ ॥
क्योंकि, सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वको प्राप्त होकर जघन्य कालसे पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त होनेपर उक्त जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका भी जघन्य अन्तर कहना चाहिये, क्योंकि, उसमें विशेषताका अभाव है। इसी प्रकार ही उपशमसम्यग्दृष्टिका भी जघन्य अन्तर कहना चाहिये । परन्तु विशेषता यह है कि उपशमश्रेणीसे उतरे हुए जीवको आदि करके वेदकसम्यक्त्वसे जघन्य काल तक अन्तर करके पुनः उपशमश्रेणीपर चढ़ने के लिये दर्शनमोहनीयको उपशान्त करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके वह जघन्य अन्तर कहना चाहिये।
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥१३५॥
___क्योंकि, अनादिमिथ्यादृष्टिके अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें सम्यक्त्वको ग्रहण कर और उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर उपाध अर्थात् कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अन्तरको प्राप्त हो अन्तमें सम्यक्त्व एवं संयमको
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२३२] छक्खंडागमे खुदावंधो
[२, ३, १३६. जुगवं घेत्तूणंतरं समाणिय अंतोमुहुत्तेण अंबंधगत्तं गदस्स उघडपोग्गलपरियटुंतरुवलंभादो । एवं वेदगसम्माइट्ठिस्स वि वत्तव्यं । णवीर अणादियमिच्छादिट्ठी उवसमसम्मत्तं घेत्तूण अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो वेदगसम्मत्तं घेत्तूण तत्थ वि अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मिच्छत्तेण अंतरिदो त्ति वत्तव्यं । अवसाणे वि उवसमसम्मत्तादो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए अंतरं समाणदेव्यं । एवमुवसमसम्माइद्विस्स वि वत्तव्यं, सामण्णसम्माइट्ठीहिंतो भेदाभावादो । एवं सम्मामिच्छाइट्ठिस्स वि । णवरि उवसमसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छत्तं णेदण मिच्छत्तं गमिय अंतरावेदव्यो । अवसाणे वि उवसमसम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तंगदपढमसमए अंतरं समाणिय अंतोमुहुत्तमच्छिय अबंधभावं णेयव्यो ।
खइयसम्माइट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३६ ॥ सुगमं । णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ १३७ ॥ खइयसम्माइट्ठीणं सम्मत्तंतरगमणाभावादो । सासणसम्माइट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३८॥
एक साथ ग्रहण कर अन्तर को समाप्त करते हुए अन्तर्मुहूर्तसे अबन्धकत्वको प्राप्त होने पर कुछ कम अर्धपगलपरिवर्तनमात्र अन्तर प्राप्त होता है। इसी प्रकार वेदक सम्यग्दृष्टिका भी उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिये । विशेष इतना है कि अनादिमिथ्यादृष्टि उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर और उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहणकर और वहां भी अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः मिथ्यात्वसे अन्तरित होता है, इस प्रकार कहना चाहिये । अन्तमे भी उपशमसम्यक्त्वसे वदकसम्यक्त्वको प्राप्त होने के प्रथम समयमें अन्तरको समाप्त करना चाहिये । इसी प्रकार उपशमसम्यदृष्टिका भी उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिये, क्योंकि, सामान्य सम्यग्दृष्टियोंस उसके कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टिका भी उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उपशमसम्यग्दृष्टिको सम्याग्मथ्यात्वमें लेजाकर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त कराकर अन्तर कराना चाहिये। अन्त में भी उपशमसम्यक्त्वसे सम्याग्मिथ्यात्वको प्राप्त होने के प्रथम समयमें अन्तरको समाप्त कर और अन्तर्मुहूर्त रहकर अबन्धकताको प्राप्त कराना चाहिये।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १३६ ॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर नहीं होता, वे निरन्तर हैं ॥ १३७ ॥ क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि अन्य सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं होते। सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १३८ ॥
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२, ३, १३९. ]
सुगमं ।
जहणेण पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागो ।। १३९ ॥
एगजीवेण अंतरानुगमे सासणसम्माइट्टीणमंतरं
कुदो ? पढमसम्मत्तं घेतूण अंतोमुहुत्तमच्छिय सासणगुणं गंतूणादिं करिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिय सव्वजहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुव्वेलणकालेण सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं पढमसम्मत्तपाओग्गसागरोवमपुधत्तमेत्तट्ठिदिसंतक्रम्मं ठविय तिणविकरणाणि काऊण पुणो पढमसम्मत्तं घेत्तूण छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तए सासणं गदस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं तरुवलंभादो । उवसमसेडीदो ओयरिय सासणं गंतूण अंतोमुहुत्तेण पुणो वि उवसमसेडिं चडिय ओदरिदूण सासणं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्त मंतरं उबलब्भदे, एदमेत्थ किरण परूविदं ? ण च उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्टिणो सासणं (ण) गच्छंति त्ति नियमो अस्थि, 'आसाणं पि गच्छेज' इदि कसायपाहुडे चुण्णिसुत्तदंसणादो । एत्थ परिहारो उच्चदे - उत्रसमसेडीदो ओदिण्णउवसमसम्माइट्ठी दोवारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि ति । तहि भवे सासणं
[ २३३.
यह सूत्र सुगम है ।
सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अन्तर जघन्यसे पल्योपमक असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ १३९ ॥
क्योंकि, प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहणकर और अन्तर्मुहूर्त रहकर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो आदि करके, पुनः मिथ्यात्वमें जाकर अन्तरको प्राप्त हो सर्वजघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उद्वेलनकालसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके प्रथम सम्यक्त्वके योग्य सागरोपमपृथक्त्वमात्र स्थितिसत्वको स्थापित कर तीनों ही करणको करके पुनः प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहणकर उपशमसम्यक्त्वकालमें छह आवलियों के शेष रहनेपर सासादनको प्राप्त हुए जीवके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जघन्य अन्तर प्राप्त होता है ।
शंका-उपशमश्रेणी से उतरकर सासादनको प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्तसे फिर भी उपशमश्रेणीपर चढ़कर व उतरकर सासादनको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर प्राप्त होता है, उसका यहां निरूपण क्यों नहीं किया ? उपशमश्रेणीसे उतरे हुए उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनको नहीं प्राप्त होते ऐसा कोई नियम भी नहीं है, क्योंकि, 'सासादनको भी प्राप्त होता है' इस प्रकार कषायप्राभृतमें चूर्णिसूत्र देखा जाता है ।
समाधान—यहां उक्त शंकाका परिहार कहते हैं - उपशमश्रेणीसे उतरा हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि एक ही जीव दो बार सासादनगुणस्थानको प्राप्त नहीं होता । उसी
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२३५ छवखंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ३, १४०. पडिवज्जिय उवसमसेडिमारुहिय तत्तो ओदिण्णो वि ण सासणं पडिवज्जदि त्ति अहिप्पाओ एदस्स सुत्तस्स । तेणंतोमुहुत्तमेत्तं जहण्णंतरं णोवलब्भदे ।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं ॥ १४०॥ ...... कुदो ? अणादियमिच्छाइट्ठिस्स अद्धपोग्गलपरियादिसमए गहिदसम्मत्तस्स सासणं गंतूण उवड्डपोग्गलपरियट्ट भमिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे पढमसम्मत्तं घेत्तण एगसमयं सासणो होदूण अंतरं समाणिय पुणो मिच्छत्तं सम्मत्तं च कमेण गंतूण अबंधभावं गदस्स उबड्डपोग्गलपरियटुंतरुवलंभादो।
मिच्छाइट्टी मदिअण्णाणिभंगो ॥ १४१ ॥
जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण बेछावढिमागरोवमाणि देसूणाणि, इच्चेदेहि जहण्णुक्कस्संतरेहि दोण्हमभेदादो । १सण्णियाणुवादेण सण्णीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१४२॥
सुगमं ।
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भवमें सासादनको प्राप्त कर उपशमश्रेणीपर आरूढ़ हो उससे उतरा हुआ भी जीव सासादनको प्राप्त नहीं होता, यह इस सूत्रका अभिप्राय है। इस कारण अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्य अन्तर प्राप्त नहीं होता।
सासादनसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥१४०॥ . क्योंकि, अनादिमिथ्यादृष्टिके अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें सम्यक्त्वको प्रहणकर सासादनको प्राप्त हो कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण भ्रमणकर संसारके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर प्रथमसम्यक्त्वको ग्रहणकर एक समय सासादन रहकर अन्तरको समाप्त कर पुनः क्रमसे मिथ्यात्व और सम्यक्त्वको प्राप्त हो अबन्धकभावको प्राप्त होनेपर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अन्तर प्राप्त होता है । ...मिथ्यादृष्टिका अन्तर मति-अज्ञानीके समान है ॥ १४१ ॥
क्योंकि, जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम दो छयासठ सागरोपम इन जघन्य व उत्कृष्ट अन्तरोंसे दोनोंके कोई भेद नहीं है। - संज्ञिमार्गणाके अनुसार संज्ञी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥१४२॥
। यह सूत्र सुगम है।
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२, ३, १४७. ]
जीवेण अंतराग असण्णीणमंतरं
जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १४३ ॥
एदं पि सुगमं ।
कस्से अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियहूं ॥ १४४ ॥
सणीहिंतो असणणं गंतॄण असण्णडिदिमच्छिय सण्णीसुप्पण्णस्स आवलियाए असंखेज्जदि भाग मे तपोग्गलपरियडुंतरुवलंभादो ।
असण्णीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १४५ ॥
सुगमं ।
जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १४६ ॥
एदं पि सुगमं ।
उक्करसेण सागरोवमसदपुधतं ॥ १४७ ॥
असण्णीहिंतो सण्णीणं गंतॄण सष्णिट्टिदि भमिय' असण्णी सुप्पण्णस्स सागरोवमसदपुधत्तमेतं तरुत्रलंभादो ।
संज्ञी जीवोंका अन्तर जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १४३ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
संज्ञी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्येय पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है। ॥ १४४ ॥
[ २१५
क्योंकि, संक्षियोंसे असशियों में जाकर और वहां असंशीकी स्थितिप्रमाण रहकर संक्षियों में उत्पन्न हुए जीवके आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुलपरिवर्तनप्रमाण अन्तर प्राप्त होता है ।
असंज्ञी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। १४५ ।।
यह सूत्र सुगम है।
असंज्ञी जीवोंका अन्तर जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १४६ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
असंज्ञी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण है ॥ १४७ ॥
क्योंकि, असंक्षियोंसे संज्ञियोंमें जाकर और वहां संज्ञीकी स्थितिप्रमाण भ्रमण कर असंक्षियोंमें उत्पन्न हुए जीवके सागरोपमशतपृथक्त्वमात्र अन्तर प्राप्त होता है ।
अ- कामत्योः 'भवि' इति पाठः ।
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२३६) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ३, १४८. आहाराणुवादण आहाराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१४८ ॥
सुगमं । जहण्णण एगसमयं ॥ १४९॥ एगविगहं काऊण गहिदसरीरम्मि तदुवलंभादो । उक्कस्सेण तिण्णिसमयं ॥ १५० ॥ तिष्णि विग्गहे काऊण गहिदसरीरम्मि तिसमयंतरुवलंभादो । अणाहारा कम्मइयकायजोगिभंगो ॥ १५१ ॥
जहण्णेण तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसपिएणी-उस्सप्पिणीओ, इच्चेदेहि जहण्णुक्कस्संतरेहि दोण्हमभेदा ।
। एवमेगजीवेण अंतरं समत्तं ।
आहारमार्गणानुसार आहारक जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १४८॥
यह सूत्र सुगम है। आहारक जीवोंका अन्तर जघन्यसे एक समयमात्र होता है ॥ १४९ ॥
क्योंकि, एक विग्रह करके शरीरके ग्रहण करलेनेपर उक्त एक समयमात्र अन्तर प्राप्त होता है।
आहारक जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर तीन समयप्रमाण है ॥ १५० ॥
क्योंकि, तीन विग्रह करके शरीरके ग्रहण करलेनेपर तीन समय अन्तर प्राप्त होता है।
अनाहारक जीवोंका अन्तर कार्मणकाययोगियोंके समान है ॥ १५१ ॥
क्योंकि, जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी, इन जघन्य व उत्कृष्ट भन्तरोंसे दोनों के कोई भेद नहीं है।
इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तर समाप्त हुआ।
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णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो
णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रहया नियमा अस्थि ॥ १ ॥
विचयो विचारणा । केसिं अस्थि स्थिति भंगाणं । कुदोवगम्मदे ? 'णेरइया णियमा अत्थि ' ति सुत्तणिद्देसादो । ण बंधगाहियारे एदस्संत मावो, सव्वद्धं पियमेण पुणो अणियमेण च मग्गणाणं मग्गणविसेसाणं च अस्थित्तपरूवणाए एदिस्से सामण्णस्थित्तपरूवणम्मि अंत भावविरोहादो ।
एवं सत्तसु पुढवी
रइया ॥ २ ॥
कुदो ! यिमा अत्थित्तणेण भेदाभावादो । सामण्णपरूवणादो चैत्र विसेस परूवए सिद्धा किमहं पुणो परूवणा कीरदे ? ण, सत्तण्हं पुढवीणं नियमेणत्थित्ताभावे वि सामण्णेण णियमा अत्थित्तस्स विरोहाभावादो ।
नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविवयानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकी जीव नियमसे हैं ॥ १ ॥
विचय' शब्दका अर्थ यहां अस्ति नास्ति भंगोंका विचार करना है ।
शंका—यह कहांसे जाना जाता है ?
समाधान- यह ' नारकी जीव नियमसे हैं ' इस सूत्र के निर्देशसे जाना जाता है ।
इसका बन्धकाधिकार में अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि, यहां जो सर्व काल नियमसे व अनियमसे मार्गगा एवं मार्गणाविशेषोंकी अस्तित्वप्ररूपणा है उसका सामान्य अस्तित्वप्ररूपणा अन्तर्भाव होनेका विरोध है ।
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव नियमसे हैं ॥ २ ॥
क्योंकि, सातों पृथिवियों में नारकियोंके नियमित अस्तित्व से कोई भेद नहीं हैं । शंका- सामान्यप्ररूपणा से ही विशेषप्ररूपणा सिद्ध होनेपर पुनः प्ररूपणा किसलिये की जाती है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि सात पृथिवियोंके नियमसे अस्तित्व के अभाव में भी सामान्यरूपसे नियमतः अस्तित्व के होने में कोई विरोध नहीं है । अर्थात् यदि कदाचित् किसी पृथिवीविशेष में सदैव नियमसे नारकी जीवोंका अस्तित्व न भी होता तो भी सामान्य से अन्य पृथिवियोंकी अपेक्षा अस्त्विका विधान हो सकता था ।
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२३८]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
। २, ४, ३. तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसणीओ णियमा अस्थि ॥३॥
___ कुदो ? तीदाणागद-वट्टमाणकालेसु एदासिं मग्गणाणं मग्गणविसेसाणं च गंगापवाहस्सेव वोच्छेदाभावादो।
मणुसअपज्जत्ता सिया अस्थि सिया पत्थि ॥४॥
मणुसअपज्जत्ताणं कयावि अत्थित्तं होदि कयावि ण होदि। कुदो ? सहावदो । को सहावो णाम ? अभंतरभावो।।
देवगदीए देवा णियमा अस्थि ॥५॥ कुदो ? तिसु वि कालेसु देवाणं विरहामावादो। एवं भवणवासियप्पहुडि जाव सबट्टसिद्धिविमाणवासियदेवेसु
तिर्यंचगतिमें तिथंच, पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय तियं च पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त, तथा मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी नियमसे हैं ॥ ३ ॥
क्योंकि अतीत, अनागत व वर्तमान कालों में इन मार्गणाओं व मार्गणाविशेषोंका गंगाप्रवाहके समान व्युच्छेद नहीं होता।
मनुष्य अपर्याप्त कदाचित् है भी, और कदाचित् नहीं भी हैं ॥ ४ ॥
क्योंकि, मनुष्य अपर्याप्तोंका कदाचित् अस्तित्व होता है और कदाचित् नहीं होता, क्योंकि ऐसा स्वभाव ही है ।
शंका-स्वभाव किसे कहते हैं ?
समाधान-आभ्यन्तरभावको स्वभाव कहते हैं। अर्थात् वस्तु या वस्तुस्थितिकी उस व्यवस्थाको उसका स्वभाव कहते हैं जो उसका भीतरी गुण है और बाह्य परिस्थितिपर अवलम्बित नहीं है।
देवगतिमें देव नियमसे हैं ॥५॥ क्योंकि, तीनों ही कालोंमें देवोंके विरहका अभाव है। इसी प्रकार भवनवासियों से लेकर सर्वार्थसिद्धिविमानवासियों तक देव नियम से
१ प्रतिषु पन्जत्ताणं' इति पाठः।
२ प्रतिषु — अच्चंताभावो ' इति पाठ ।।
..
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२, ४, ९. ]
गाणाजी िमंगविचयाणुगमे इंदिय-काय मग्गणा
दो ? सव्वकाले अस्थित्तणेण तेहिमेदेसिं भेदाभावादो ।
इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता णियमा अस्थि ॥ ७ ॥
कुदो ! एदेसिं पवास तिसु वि कालेतु बोच्छेदाभावादो । asiदियतेइंदिय च उरिंदिय-पंचिंदिय पज्जत्ता अपज्जत्ता नियमा अस्थि ॥ ८ ॥
सुगमं ।
कायावादेण पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणफदिकाइया णिगोदजीवा बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीरा पज्जत्ता अपज्जत्ता तसकाइया तसकाइयपज्जत्ता अपज्जत्ता णियमा अस्थि ॥ ९ ॥
एदासि मग्गणाणं मग्गणविसेसाणं च पवाहस्स वोच्छेदाभावादो ।
नहीं है
1
क्योंकि, सर्व कालोंमें अस्तित्वकी अपेक्षा इनका सामान्य देवोंसे कोई भेद
[ २३९
हैं ॥ ७ ॥
इन्द्रियमार्गणा के अनुसार एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त जीव नियमसे
क्योंकि, इनके प्रवाहका तीनों ही कालोंमें व्युच्छेद नहीं होता ।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्त नियमसे हैं ॥ ८ ॥
काय मार्गणानुसार पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, चनस्पतिकायिक निगोदजीव बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त, तथा बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर पर्याप्त अपर्याप्त, एवं जसकायिक, जसकायिक पर्याप्त अपर्याप्त जीव नियमसे हैं ।। ९ ।।
क्योंकि, इन मार्गणाओं व मार्गणाविशेषोंके प्रवाहका व्युच्छेद नहीं होता।
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२४०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ४, १०. जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी कायजोगी ओरालियकायजोगी ओरालियमिस्सकायजोगी वेउब्वियकायजोगी कम्मइयकायजोगी णियमा अस्थि ॥ १० ॥
सुगमं ।
वेउव्वियमिस्सकायजोगी आहारकायजोगी आहारमिस्सकायजोगी सिया अत्थि सिया णत्थि ॥ ११ ॥ __कुदो ? सांतरसहावादो । ण च सहावो परपज्जणुजोगारुहो, अइप्पसंगादो ।
वेदाणुवादेण इत्थिवेदा पुरिसवेदा णबुंसयवेदा अवगदवेदा णियमा अत्थि ॥ १२ ॥
गंगापवाहस्सेव विच्छेदाभावादो।
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई अकसाई णियमा अत्थि ॥ १३॥
योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और कार्मणकाययोगी नियमसे हैं ॥ १०॥
यह सूत्र सुगम है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी कदाचित् हैं भी, कदाचित् नहीं भी हैं ॥ ११ ॥
क्योंकि, इनका सान्तर स्वभाव है । और स्वभाव दूसरों के प्रश्नके योग्य नहीं होता, क्योंकि, ऐसा होनेसे अतिप्रसंग दोष आता है।
वेदमार्गणानुसार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अपगतवेदी जीव नियमसे हैं ॥ १२॥
क्योंकि, गंगाप्रवाहके समान इनका विच्छेद नहीं होता।
कषायमार्गणानुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी जीव नियमसे हैं ॥ १३ ॥
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णाणाजीवेहि भंगविचयाणगमे संजममग्गणा
[ २४१ सुगमं ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणी आभिणिबोहिय-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणी केवलणाणी णियमा अस्थि ॥१४॥
णाणिणो इदि बहुवयणणिदेसो किण्ण कओ ? ण, इकारांतपुरिस-णqसयलिंगसद्देहितो उप्पण्णपढमाबहुवयणस्स विहासाए लोवुवलंभादो । जहा- पचए अग्गी जलंति, मत्ता हत्थी एंति त्ति । सेसं सुगमं ।
संजमाणुवादेण सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासजदा असंजदा णियमा अत्थि ॥ १५॥
सुगमं ।
यह सूत्र सुगम है।
ज्ञानमार्गणानुसार मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी नियमसे हैं ॥ १४ ॥
शंका-सूत्रमें ‘णाणिणो ' ऐसा बहुवचननिर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि इकारान्त पुल्लिंग और नपुंसकलिंग शब्दोंसे उत्पन्न प्रथमाबहुवचनका विकल्पसे लोप पाया जाता है । जैसे- पव्वए अग्गी जलंति (पर्वतपर अग्नि जलती हैं) , मत्ता हत्थी एंति (मत्त हाथी आते हैं)। यहां 'अग्गी' और 'हत्थी' पदोंमें प्रथमाबहुवचनका लोप होगया है। शेष सूत्र सुगम है।
संयममार्गणानुसार सामायिक छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, संयतासंयत और असंयत जीव नियमसे हैं ।। १५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
१ अप्रतौ — विहासालोगोवलंभादो'; आ-काप्रत्योः । विहासालोगोवुवलंभादो'; मप्रतौ — विहासाए लोधुलंभादो' इति पाठः।
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२४२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ४, १६. सुहुमसांपराइयसंजदा सिया अस्थि सिया पत्थि ॥१६॥ एदं पि सुगमं ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी अचखुदंसणी ओहिदंसणी केवलदसणी णियमा अत्थि ॥ १७॥
एदं पि सुगमं ।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिया गीललेस्सिया काउलेस्सिया तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्कलेस्सिया णियमा अस्थि ॥ १८ ॥
सुगमं ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिया अभवसिद्धिया णियमा अस्थि ॥१९॥
सिद्धिपुरवंकदा भविया णाम, तबिवरीया अभविया णाम । सिद्धा पुण ण भविया ण च अभविया, तबिवरीयसरूवत्तादो। तहा ते वि णियमा अस्थि ति किण्ण
सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत कदाचित् हैं भी और कदाचित् नहीं भी हैं ॥ १६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
दर्शनमार्गणानुसार चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी नियमसे हैं ॥१७॥ . यह सूत्र भी सुगम है।
लेश्यामार्गणानुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले नियमसे हैं ॥ १८ ॥
यह सूत्र सुगम है। भव्यमार्गणानुसार भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक नियमसे हैं ॥१९॥
सिद्धिपुरस्कृत अर्थात् मुक्तिगामी जीवोंको भव्य और इनसे विपरीत जीवोंको अभव्य कहते हैं । सिद्ध जीव न तो भव्य ही हैं और न अभव्य भी हैं, क्योंकि, उनका स्वरूप भव्य और अभव्य दोनोंसे विपरीत है।
शंका-भव्य व अभव्योंके समान 'सिद्ध भी नियमसे हैं ' इस प्रकार क्यों
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२, ४, २३.] णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमे आहारमग्गणा [२०३ वुत्तं १ ण, बंधयाहियारे सिद्धाणमबंधयाणं संभवामावादो। सेसं सुगमं ।
___सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी वेदगसम्माइट्ठी (खइयसम्माइट्ठी) मिच्छाइट्टी णियमा अत्थि ॥ २० ॥
सुगमं ।
उवसमसम्माइट्टी ( सासण- ) सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी सिया अत्थि, सिया णत्थि ॥ २१ ॥
कुदो ? एदेसि तिहं मग्गणावयणाणं सांतरसरूवत्तदसणादो । सणियाणुवादेण सण्णी असण्णी णियमा अस्थि ॥ २२ ॥ सुगमं । आहाराणुवादेण आहारा अणाहारा णियमा अस्थि ॥ २३ ॥ एवं पि सुगमं ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो ।
नहीं कहा?
समाधान नहीं, क्योंकि बंधकाधिकारमें अबंधक सिद्धोंकी संभावनाका अभाव है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
सम्यक्त्वमार्गणानुसार सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नियमसे हैं ॥ २० ॥
यह सूत्र सुगम है।
उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्याग्मथ्यादृष्टि कदाचित् हैं भी और कदाचित् नहीं भी ॥ २१ ॥
क्योंकि, इन तीन मार्गणाप्रभेदोंका सान्तर स्वरूप देखा जाता है । संज्ञिमार्गणानुसार संज्ञी और असंज्ञी जीव नियमसे हैं ॥ २२ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारमार्गणानुसार आहारक और अनाहारक जीव नियमसे हैं ॥ २३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। । इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ।
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देव्वपमाणानुगमो
दव्वपमाणाणुगमेण गढ़ियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइया दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १ ॥
दाओ मग्गणाओ सव्वकालमत्थि एदाओ च सव्वकालं णत्थि त्ति णाणाजीवभंगविचयाणुगमेण जाणाविय संपहि तासु मग्गणासु द्विदजीवाणं पमाणपरूवणटुं दव्वाणिओगद्दारमा गदं । णिरयगदिवयणेण सेसगदीणं पडिसेहो कओ । रइया ि वयण णिरयगसंबद्धणेरइयवदिरित्तदव्वादीणं पडिसेहो कओ । दव्यपमाणेण वियणेण खेत्तपमाणादीणं पडिसेहो कओ । केवडिया इदि आसंका आइरियस्स ।
असंखेज्जा ॥ २ ॥
संखेज्जाणताणं पडिसेहट्टमसंखेज्जवयणं । एदं पि तिविहं असंखेज्जं । तत्थ एहि असंखेज्जे रइयरासी ठिदो त्ति जाणावणट्टमुत्तरमुत्तं भणदिअसंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि- उस्सप्पिणीहि अवहिरंति काले ॥ ३ ॥
द्रव्यप्रमाणानुगम से गतिमार्गणानुसार नरकगतिकी अपेक्षा नारकी जीव द्रव्यमाणसे कितने हैं ? ॥ १ ॥
" ये मार्गणायै सर्वकाल हैं और ये मार्गणायें सर्वकाल नहीं है ' इस प्रकार नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगमसे जतलाकर अब उन मार्गणाओं में स्थित जीवोंके प्रमाणके निरूपणार्थ द्रव्यानुयोगद्वार प्राप्त होता है । नरकगतिके वचन से शेष गतियोंका प्रतिषेध किया है । 'नारकी' इस वचनसे नरकगतिसे सम्बद्ध नारकियोंके अतिरिक्त अन्य द्रव्यादिकों का प्रतिषेध किया है। 'द्रव्यप्रमाणसे' इस प्रकारके वचनसे क्षेत्रप्रमाणादिकोंका प्रतिषेध किया है । ' कितने हैं' इस प्रकार यह आचार्यकी आशंका है ।
नारकी जीव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ २ ॥
संख्यात व अनन्तके प्रतिषेधके लिये ' असंख्यात ' वचन है । यह असंख्यात भी तीन प्रकार है । उनमें से इस असंख्यातमें नारकराशि स्थित है, इस बातके ज्ञापनार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं -
कालकी अपेक्षा नारकी जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणबोंसे अपहृत होते हैं । ३ ॥
१ अ-काप्रत्योः ' ओसप्पिणि उस्सप्पिणी ' इति पाठः ।
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२, ५, ५.] दव्वपमाणाणुगमे गैरइयाणं पमाणं
(२१५ असंखेज्जासंखेज्जाहि त्ति वयणेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो, असंखेज्जासंखेज्जस्सेव उवलद्धी जादो, 'असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि समयभावसलागभूदाहि णेरइया अवहिरंति' त्ति वयणादो । तं पि असंखेज्जासंखेज्जयं जहण्णमुक्कस्सं तव्वदिरित्तमिदि तिविहं । तत्थ एदम्हि असंखेज्जासंखेज्जे णेरड्या अवट्टिदा त्ति जाणावणटुं खेत्तपरूवणमागदं
खेत्तेण असंखेज्जाओ सेडीओ ॥४॥
'असंखेज्जाओ सेडीओ ति सुत्तेण जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जपडिसेहो कदो, तत्थ असंखेज्जाणं सेडीणमभावादो। उक्कस्स-मज्झिमअसंखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो ण होदि, तत्थ असंखेज्जाणं सेडीणं संभवादो । एदेसु दोसु असंखेज्जासंखेज्जेसु णेरइया कम्हि अवडिदा त्ति जाणावणद्वमुत्तरसुत्तमागदं
पदरस्स असंखेज्जदिभागो ॥५॥
एदेण सुत्तेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो, पदरस्सासंखेज्जदिभागस्स उक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जत्तविरोहादो। तं पि मज्झिममसंखेज्जासंखेज्जयमणेय
'असंख्यातासंख्यात' इस वचनसे परीतासंख्यात और युक्तासंख्यातका प्रतिषेध किया जिससे केवल असंख्यातासंख्यातकी ही प्राप्ति हुई, क्योंकि, 'समयभावशलाकाभूत असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियोंसे नारकी जीव अपहृत होते हैं ' ऐसा वचन है । वह असंख्यातासंख्यात भी जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है । उनमेंसे इस असंख्यातासंख्यातमें नारकी जीव अवस्थित है इसके ज्ञापनार्थ क्षेत्रप्ररूपणा प्राप्त होती है।
क्षेत्रकी अपेक्षा नारकी जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं ॥४॥
'असंख्यात जगभेणियां' इस प्रकारके सूत्रसे जघन्य असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, जन्घय असंख्यातासंख्यातमें असंख्यात जगश्रेणियोंका अभाव है। परन्तु इससे उत्कृष्ट और मध्यम असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध नहीं होता, क्योंकि, उनमें असंख्यात जगश्रेणियां संभव हैं । अतः इन दो असंख्यातासंख्यातोर्मेसे नारकी जीव कौनसे असंख्यातासंख्यातमें अवस्थित हैं, इसके ज्ञापनार्थ उत्तर सूत्र प्राप्त
होता है
उक्त नारकी जीव जगप्रतरके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण
इस सूत्रसे उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, जगप्रतरके असंख्यातवें भागका उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातत्वसे विरोध है । वह मध्यम असं
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२४६] छक्खंडागमै खुद्दाबंधो
[२, ५, ६. पयारमिदि तण्णिण्णयट्टमुसरसुत्तं भणदि____ तासि सेडीणं विक्खंभसूची अंगुलवग्गमूलं बिदियवग्गमूलगुणिदेण ॥६॥
सूचिअंगुलपढमवग्गमूले सूचिअंगुलस्स विदियवग्गमूलेण गुणिदे तासिं सेडीणं विक्खंभसूची होदि । गुणिदेणेत्ति णेदं तदियाए एगवयणं, किंतु सत्तमीए एगवयणेण पढमाए एगवयणेण वा होदव्वमण्णहा सुत्तट्ठसंबंधाभावादो। एत्थ सामण्णणेरइयाणं वुत्तविक्खंभसूची चेव णेरइयमिच्छाइट्ठीणं जीवट्ठाणे परूविदा, कधं तेणेदं ण विरुज्झदे ? ण विरुज्झदे, आलावभेदाभावादो । अत्थदो पुण भेदो अस्थि चेव, सामण्ण-विसेसविक्खंभसूचीणं समाणत्तविरोहादो। मिच्छाइटिविक्खंभसूची संपुण्णघणंगुलबिदियवग्गमूलमेत्ता किण्ण घेप्पदे ? ण, सामण्णणेरइयाणं परूविदघणंगुलबिदियवग्गमूलविक्खंभसूचिणा एदेण खुद्दाबंधसुत्तेण सह विरोहादो। ण तं पि सुत्तमिदि पच्चवट्ठादुं जुत्तं, खुद्दाबंधुवख्यातासंख्यात भी अनेक प्रकार है, अतः उसके निर्णयार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं
__ उन जगश्रेणियोंकी विष्कम्भसूची सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित उसीके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है ॥ ६ ॥
__ सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित करनेपर उन जगभ्रेणियोंकी विष्कम्भसूची होती है। यहां सूत्रमें 'गुणिदेण' यह पद तृतीयाका एकवचन नहीं है, किन्तु सप्तमीका एक वचन या प्रथमाका एक वचन होना चाहिये; अन्यथा सूत्रके अर्थका सम्बन्ध नहीं बैठता ।
शंका-यहां जो सामान्य नारकियोंकी विष्कम्भसूची कही गई है वही जीवस्थानमें नारकी मिथ्यादृष्टियोंकी कही गई है, उसके साथ यह विरोधको कैसे न प्राप्त होगा?
समाधान-जीवस्थानसे इस कथनका कोई विरोध न होगा, क्योंकि यहां आलापभेदका अभाव है। परमार्थसे तो भेद है ही, क्योंकि, सामान्य व विशेष विष्कम्भसूचियोंमें समानताका विरोष है।
शंका-मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कम्भसूर्चा सम्पूर्ण धनांगुलके द्वितीय वर्गमूलप्रमाण क्यों नहीं ग्रहण करते?
समाधान-नहीं, क्योंकि वैसा माननेपर उसका सामान्य नारकियोंकी धनां. गुलके द्वितीय वर्गमूलमात्र विष्कम्भसूचीको प्ररूपित करनेवाले इस क्षुद्रबन्धसूत्रके साथ बिरोध होगा। वह भी तो सूत्र है इस प्रकार विरोध उत्पन्न करना भी उचित नहीं है,
१ प्रतिषु पदमाए बयण ' इति पाठः।
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२, ५, ८.] दव्यपमाणाणुगमे गेरइयाणं पमाणं
[२४७ संघारस्स तस्स एदम्हादो पहाणत्ताभावादो । तम्हा एत्थतणविक्खंभसूची संपुण्णघणंगुलविदियवग्गमूलमत्ता, मिच्छाइट्ठिविक्खंभसूची पुण किंचूणघणंगुलविदियवग्गमूलमत्ता ति घेत्तव्यं । एत्थ विक्खंभसूची-अवहारकालदव्वाणं खंडिद-भाजिद-विरलिद-अवहिद-पमाणकारण-णिरुत्ति-वियप्पेहि परूवणा कायव्वा ।
एवं पढमाए पुढवीए णेरइया ॥ ७॥
सामण्णणेरइयाणं पमाणं कधं पढमाए पुढवीए णेरइयाणं होदि? ण, दोण्हमालावाणं भेदाभावादो । अत्थदो पुण अस्थि भेदो, अण्णहा छण्णं पुढवीणं णेरइयाणमभावप्पसंगादो । तम्हा पुव्विल्लविक्खंभसूची एगरूवस्स असंखेज्जदिभागेणूणा पढमपुढविणेरइयाणं विक्खंभसूची होदि । सेसं जाणिदूण वत्तव्यं ।
बिदियाए जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ८॥
एदमासंकासुत्तं संखेज्जासंखेज्जाणंतसंखाणमवेक्खदे । एत्थ तिसु वि संखासु
क्योंकि, क्षुद्रबन्धके उपसंहारभूत उस सूत्रके इस सूत्रकी अपेक्षा प्रधानताका अभाव है। इसलिये यहांकी विष्कम्भसूची सम्पूर्ण घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलमात्र और मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कम्भसूची कुछ कम घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलमात्र है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहांपर विष्कम्भसूची व अवहारकाल द्रव्योंका खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्प, इनके द्वारा प्ररूपण करना चाहिये। (देखिये जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम, सूत्र १७ की टीका )।
सामान्य नारकियोंके समान ही प्रथम पृथिवीके नारकियोंका द्रव्यप्रमाण है ॥७॥
शंका-सामान्य नारकियोंका प्रमाण प्रथम पृथिवीके नारकियोंका कैसे हो सकता?
समाधान-नहीं, क्योंकि, दोनों आलापोंमें कोई भेद नहीं है । परन्तु परमार्थसे भेद है ही, अन्यथा छह पृथिवियोंके नारकियोंके अभावका प्रसंग होगा । इस • कारण पूर्व विष्कम्भसूची एक रूपके असंख्यातवें भागसे हीन होकर प्रथम पृथिवीके नारकियोंकी विष्कम्भसूची होती है । शेष जानकर कहना चाहिये।
द्वितीय पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीके नारकी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं १ ॥ ८॥
यह आशंकासूत्र संख्यात, असंख्यात और अनन्त संख्याकी अपेक्षा रखता है।
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२१८] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ५, ९. एदीए संखाए विदियादिछप्पुढविणेरइया अवट्ठिदा त्ति जाणावणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि । अधवा, बिदियादिछप्पुढविणेरइया णाणता, ओघणेरइयाणमणंतसंखाभावादो । तदो दोण्णं संखाणं मज्झे एदीए संखाए छप्पुढविणेरइया अवट्टिदा त्ति जाणावणद्वमुत्तरसुत्तमागदं
असंखेज्जा ॥९॥
असंखेज्जवयणेण संखेज्जस्स पडिसेहो कदो। असंखेज्जं पि परित्त-जुत्त-असंखेज्जासंखेज्जभेएण तिविहं । एत्थ एदम्हि असंखेज्जे छप्पुढविदव्यमवाद्विदमिदि. जाणावणहूँ कालपमाणपरूवणसुत्तमागदं
असंखेजासंखेनाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥१०॥
एदेण असंखेज्जासंखेज्जवयणेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । एदं पि असंखेज्जासंखेज्जं जहण्णुक्कस्स-तन्वदिरित्तभेएण तिविहं । एत्थ एदम्हि संखाविसेसे छप्पुढविदव्वं होदि त्ति जाणावणमुत्तरं खेत्तपमाणपरूवणसुत्तमागदं
इन तीनों ही संख्याओंमेंसे इस संख्यामें द्वितीयादि छह पृथिवियोंके नारकी अवस्थित हैं, इसके शापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं। अथवा, द्वितीयादि छह पृथिवियोंके नारकी अनन्त नहीं है, क्योंकि, सामान्य नारकियोंके अनन्त संख्याका अभाव है। इसलिये दो संख्याओंके मध्यमें इस संख्यामें छह पृथिवियोंके नारकी अवस्थित हैं, इसके ज्ञापनार्थ उत्तर सूत्र प्राप्त होता है
द्वितीयादि छह पृथिवियोंके नारकी द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ ९॥
'असंख्यात' इस वचनसे संख्यातका प्रतिषेध किया गया है । असंख्यात भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यातके भेदसे तीन प्रकार है। उनमेंसे इस असंख्यातराशिमें छह पृथिवियोंके द्रव्यका अवस्थान है, इसके ज्ञापनार्थ कालप्रमाणकी प्ररूपणा करनेवाला सूत्र प्राप्त होता है
द्वितीय पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीके नारकी कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियोंसे अपहृत होते हैं ॥ १० ॥
इस ' असंख्यातासंख्यात' वचनसे परीतासंख्यात और युक्तासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । यह असंख्यातासंख्यात भी जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है। उनमेंसे इस संख्याविशेषमें छह पृथिवियोंका द्रव्य है, इसके शापनार्थ अगला क्षेत्रप्रमाणप्ररूपणासूत्र प्राप्त होता है
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२, ५, १३.] दबपमाणाणुगमे णेरड्याणं पमाणं [२४९
खेत्तेण सेडीए असंखेज्जदिभागो ॥ ११ ॥
एदेण जगसेडीदो उवरिमवियप्पाणं पडिसेहो कदो । अवसेसदोसंखाणं मज्झे एदीए संखाए द्विदमिदि जाणावणमुत्तरसुत्तं भणदि
तिस्से सेडीए आयामो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ ॥१२॥
एदेण सूचिअंगुलादिहेट्ठिमवियप्पाणं पडिसेहो कदो, सूचिअंगुलादिहेट्ठिमसंखाए असंखेज्जजोयणत्ताभावादो । तं पि तव्वदिरित्तअसंखेज्जासंखेज्जमसंखेज्जजोयणकोडिमेत्तं होदूण अणेयवियप्पं । तण्णिण्णयकरणमुत्तरसुत्तं भणदि
पढमादियाणं सेडिवगमूलाणं संखेज्जाणमण्णोण्णब्भासो॥१३॥
सेडिपढमवग्गमूलमादि कादूण जाव बारसम-दसम-अट्ठम-छट्ठ-तदिय-विदियवग्गमूलो त्ति पुध पुध गुणगारगुणिज्जमाणं कमेणावद्विदछण्हं वग्गपत्तीणमण्णोण्णब्भासे कदे
क्षेत्रकी अपेक्षा द्वितीय पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीके नारकी जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ ११ ॥
__इस सूत्रके द्वारा जगश्रेणीसे उपरिम विकल्पोंका प्रतिषेध किया गया है । अवशेष दो संख्याओंके मध्यमें इस संख्यामें उक्त द्रव्य स्थित है, इसके ज्ञापनार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं
जगश्रेणीके असंख्यातवें भागकी उस श्रेणीका आयाम असंख्यात योजनकोटि है ॥ १२॥
इस सूत्रके द्वारा सूच्यंगुलादि अधस्तन विकल्पोंका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, सूच्यंगुलादिरूप अधस्तन संख्यामें असंख्यात योजनत्वका अभाव है। वह तद्व्यतिरिक्त असंख्यातासंख्यात असंख्यात योजनकोटिप्रमाण होकर अनेक विकल्परूप है । उसका निर्णय करने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
उपयुक्त असंख्यात कोटि योजनोंका प्रमाण प्रथमादिक संख्यात जगश्रेणीवर्गमूलोंके परस्पर गुणनफल रूप है ॥ १३ ॥
जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलको आदि करके उसके बारहवें, दशवें, आठवें, छठे, तीसरे और दूसरे वर्गमूल तक पृथक् पृथक् गुणकार व गुण्य क्रमसे अवस्थित छह वर्ग
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२५० छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ५, १४. जहाकमेण विदिय-तदिय-चउत्थ-पंचम छट्ठ-सत्तमपुढविदयपमाणं होदि । कधमेत्तियाणं चेव सेडिवग्गमूलाणमण्णोण्णब्भासादो एदिस्से एदिस्से पुढवीए दव्वं होदि त्ति णव्वदे ? ण, आइरियपरंपरागदअविरुद्धोवदेसेण तदवगमादो । उत्तं च
* बारस दस अट्ठेव य मूला छ त्तिग दुगं च गिरएसु ।
एक्कारस णव सत्त य पण य चउक्कं च देवेसु ॥ १॥ तिरिक्खगदीए तिरिक्खा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १४ ॥ एदमासंकासुत्तं संखेज्जासंखेज्जाणंताणि अवेक्खदे । अणंता ॥ १५॥
एदेण संखेज्ज-असंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । तं च अणतं परित्त-जुत्त-अणंतागंतभेएण तिवियप्पं । तत्थ एदम्हि अणते तिरिक्खा विदा ति जाणावणमुवरिल्लसुत्तमागदं
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राशियों का परस्पर गुणा करनेपर यथाक्रमसे द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और सप्तम पृथिवीके द्रव्यका प्रमाण होता है।
शंका- इतने ही जगश्रेणीवर्गमूलोंके परस्पर गुणनसे इस इस पृथिवीका द्रव्य होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, आचार्यपरम्परागत अविरुद्ध उपदेशसे उसका शान प्राप्त है। कहा भी है
नरकोंमें द्वितीयादि पृथिवियोंका द्रव्यप्रमाण लानेके लिये जगश्रेणीका बारहवां, दशवां, आठवां, छठा, तीसरा और दूसरा वर्गमूल अवहारकाल है । तथा देवों में सानत्कुमारादि पांच कल्पयुगलोंका द्रव्यप्रमाण लानेके लिये जगश्रेणीका ग्यारहवां, नौवां, सातवां, पांचवां और चौथा वर्गमूल अवहारकाल है ॥ १॥
तिर्यंचगतिमें तिथंच जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १४ ॥ यह आशंकासूत्र संख्यात, असंख्यात और अनन्तकी अपेक्षा रखता है। तिर्यंचगतिमें तिर्यंच जीव द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ १५॥
इस सूत्रसे संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है। वह अनन्त भी परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्तके भेदसे तीन प्रकार है। उनमेंसे इस अनन्तमें तिर्यंच जीव स्थित हैं इसके ज्ञापनार्थ उपरिम सूत्र प्राप्त होता है
१ प्रतिषु ' -भेएणेतिवियप्पं ' इति पाठः ।
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२, ५, १७. ]
व्यमाणागमे तिरिक्खाणं पमाणं
[२५१
अणताणताहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण
॥ १६ ॥
किमट्टमणंताणंताहि ओसप्पिणि- उस्सप्पिणीहि तिरिक्खा ण अवहिरिज्जंति ? अतीदकालग्गहणादो | अवहरिदे संते को दोसो ? ण, भव्वजीवाणं सव्वेसिं' वोच्छेदसंगादो | एदेण परित्त- जुत्ताणंताणं पडिसेहो कदो । अनंताणंत पि जहण्णुक्कस्सतव्वदिरित्तएण तिविहं होदि । तत्थ एदम्हि अणंताणंते तिरिक्खा ट्ठिदा त्ति जाणावणट्टमुवरिहिसुत्तमागदं-
खेत्तेण अनंताणंता लोगा ॥ २७ ॥
एदेण जहण्णअणंताणंतस्स पडिसेहो कदो । कुदो ? तत्थ अणंताणंत लोगाणमभावादो । एदं पि कथं गव्वदे ? लोगेण जहण्णे अणंताणंते भागे हिदे लम्मि अनंता
तिर्यंच जीव कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियों से अपहृत नहीं होते हैं ॥ १६ ॥
शंका- तिर्येच जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियोंसे क्यों नहीं अपहृत होते ?
समाधान - क्योंकि, यहां केवल अतीत कालका ग्रहण किया गया है । (देखो जीवस्थान द्रव्य प्रमाणानुगम, पृ. २९ ) ।
शंका- - अनन्तानन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियोंसे इनके अपहृत होनेपर कौनसा दोष उत्पन्न होता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि ऐसा होनेपर सब भव्य जीवोंके व्युच्छेदका प्रसंग
आता है ।
इस सूत्र के द्वारा परीतानन्त और युक्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है । अनन्तानन्त भी जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्तके भेद से तीन प्रकार है । उनमें से इस अनन्तानन्तमें तिर्यच जीव स्थित हैं, इसके ज्ञापनार्थ उपरिम सूत्र प्राप्त होता है
तिर्यंच जीव क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ।। १७ ।
इस सूत्र के द्वारा जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, जघन्य अनन्तानन्तमें अनन्तानन्त लोकोका अभाव है ।
शंका
- यह भी कैसे जाना जाता है ?
समाधान- क्योंकि, लोकका जघन्य अनन्तानन्तमें भाग देने पर लब्ध राशिमें
१ प्रतिषु ' संखेसि' इति पाठः ।
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२५२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ५, १८. गंतसंखाभावादो । उक्कस्साणंताणंतस्स वि पडिसेहो कदो, अणंताणताणि सव्वपज्जयपढमवग्गमूलाणि त्ति अभणिदूण अणंताणता लोगा ति णिदेसादो।।
पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १८ ।।
एदमासंकासुत्तं संखेज्जासंखेज्ज-अणंताणि अवेक्खदे। असंखेज्जा ॥ १९ ॥
एदेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो, असंखेन्जम्मि तदुभयसंभवाविरोहादो । तं पि असंखेज परित्त-जुत्त-असंखेज्जासंखेज्जभेएण तिविहं । तत्थ इमम्मि असंखेज्जे एदेसिमवट्ठाणमिदि जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि -
___ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ २० ॥
एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो, तत्थ असंखेज्जासंखेज्जाणं
..........................................
अनन्तानन्त संख्याका अभाव है।
उत्कृष्ट अनन्तानन्तका भी प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, 'अनन्तानन्त सर्व पर्यायोंके प्रथम वर्गमूल' ऐसा न कहकर 'अनन्तानन्त लोक' ऐसा निर्देश किया है।
पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तियंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तियं च योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १८ ॥
यह आशंकासूत्र संख्यात, असंख्यात और अनन्तकी अपेक्षा करता है। उपर्युक्त तिथंच द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ १९ ॥
इसके द्वारा संख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, असंख्यातमें संख्यात व अनन्त इन दोनोंकी संभावनाका विरोध है। वह असंख्यात भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यातके भेदसे तीन प्रकार है । उनमें से इस असंख्यातमें उक्त जीवोंका अवस्थान है, इसके झापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उक्त चारों तिथंच जीव कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियोंसे अपहृत होते हैं ॥ २० ॥
इस सूत्रके द्वारा परीतासंख्यात और युक्तासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है,
१ प्रतिषु ' उवेकखदे' इति पाठः ।
२ अ-आप्रत्योः ' असंखेजसखेरजाणं ' इति पामः।
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२, ५, २१.] दव्वपमाणाणुगमे पंचिंदियतिरिक्खादीणं पमाणं ( २५३ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । एदेण चेव जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जस्स वि पडिसेहो कदो । कुदो ? तत्थ वि असंखेज्जासंखेज्जाणं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । अवसेसेसु दोसु असंखेज्जासंखेज्जेसु कम्मि असंखेज्जासंखेज्जे इमं होदि त्ति जाणावणढमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणि-पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तएहि पदरमवहिरदि देवअवहारकालादो असंखेज्जगुणहीणेण कालेण संखेज्जगुणहीणेण कालेण संखेज्जगुणेण कालेण असंखेज्जगुणहीणेण कालेण ॥२१॥
बेछप्पणंगुलसदवग्गपमाणदेवअवहारकालमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदे पंचिंदियतिरिक्खाणं अवहारकालो होदि । तम्हि चेव देवअवहारकाले तपाओग्गसंखेज्जरूवेहि भागे हिदे पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागो आगच्छदि । सो पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । देवावहारकाले संखेज्जरूवेहि गुणिदे पंचिंदियतिरिक्खजोगिणीणमवहारकालो होदि। देवअवहारकाले आवलियाए असंखेन्जदिभाएण भागे
क्योंकि, उन दोनों में असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। इसीसे ही जघन्य असंख्यातासंख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, जघन्य असंख्यातासंख्यातमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। अवशेष दो असंख्यातासंख्यातों से किस असंख्यातासंख्यातमें उक्त तिर्यंच जीव हैं, इसके ज्ञापनार्थ उत्तर सूत्र कहते है -
क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती और पंचेन्द्रिय तियंच अपर्याप्त जीवोंके द्वारा क्रमशः देवअवहारकालसे असंख्यातगुणे हीन कालसे, संख्यातगुणे हीन कालसे, संख्यातगुणे कालसे और असंख्यातगुणे हीन कालसे जगप्रतर अपहृत होता है ।। २१ ॥
दो सौ छप्पन सूच्यंगुलके वर्गप्रमाण देवअवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करनेपर पंचेन्द्रिय तिर्यचोंका अवहारकाल होता है। उसी देवअवहारकालको तत्प्रायोग्य संख्यात रूपोंसे भाजित करनेपर प्रतरांगुलका संख्यातवां भाग आता है । वह पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । देववहारकालको संख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती जीवोंका अवहारकाल होता है। देववहारकालमें आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर प्रतरां
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२५४ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ५. २२. हिदे पदरंगुलस्स असंखेन्जदिभागो आगच्छदि । सो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । एदे अवहारकाले जहाकमेण सलागभूदे ह्रविय पंचिंदियतिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खपजत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तपमाणेण जगपदरे अवहिरिज्जमाणे सलागाओ जगपदरं च जुगवं समप्पंति । तत्थ एगवारमवहिरिदपमाणं जहाकमेण पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता' च होंति त्ति वुत्तं होदि । एदेण एदेसि जगपदरस्स असंखेज्जदिभागत्तपरूवएण सुत्तण उक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो। ण च तव्यदिरित्तस्स असंखेज्जासंखेज्जस्स सव्वस्स गहणं, तत्थतणसव्ववियप्पाणं पडिसेहं काऊण तत्थेक्कवियप्पस्सेव णिण्णयसरूवेण परूविदत्तादो ।
मणुसगदीए मणुस्सा मणुसअपज्जत्ता दवपमाणेण केवडिया ? ॥२२॥
एदमासंकासुत्तं संखेज्जासंखेज्ज-अणंतावेक्खं । सेसं सुगमं । असंखेज्जा ॥२३॥
गुलका असंख्यातवां भाग आता है । वह पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवोंका अवहार काल होता है । इन अवहारकालोंको यथाक्रमसे शलाकाभूत स्थापित कर पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोके प्रमाणसे जगप्रतरके अपहृत करनेपर शलाकायें और जगप्रतर एक साथ समाप्त होते हैं। उनमें एक वार अपहृत प्रमाण यथाक्रमसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीव होते हैं, यह उक्त कथनका अभिप्राय है । इन जीवोंके जगप्रतरके असंख्यातवें भागत्वका प्ररूपण करनेवाले इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । और तद्व्यतिरिक्त असंख्यातासंख्यातका भी सबका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, उसके सब विकल्पोंका प्रतिषेध करके उनमेंसे एक विकल्पका ही निर्णयस्वरूपसे निरूपण किया गया है।
मनुष्यगतिमें मनुष्य और मनुष्य अपर्याप्त द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ।। २२ ॥
यह आशंकासूत्र संख्यात, असंख्यात व अनन्तकी अपेक्षा रखता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। ___ मनुष्य और मनुष्य अपर्याप्त द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ २३ ॥
. १ प्रतिषु ' -तिरिक्खा अपज्जता ' इति पाठः ।
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२, ५, २५.] दव्यपमाणाणुगमे मणुस-मणुसअपज्जत्ताणं पमाणं [२५५
एदेण वयणेण संखेज्जाणताणं पडिसहो कदो, पडिवक्खणिराकरणेण सवक्ख'पदुप्पायणादो । तं पि असंखेज्ज तिवियप्पमिदि कट्ट इदमिदि णिण्णओ णत्थि । इदं चैव होदि ति णिण्णयउप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि___ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ २४ ॥
एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो, पडिवक्खणिसेहं काऊण असंखेज्जासंखेज्जवयणस्स सवक्खपदुप्पायणादो। तं पि जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तभेएण तिविहमिदि कट्ट ण तत्थ णिच्छओ अस्थि । तत्थ णिच्छउप्पायणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण सेडीए असंखेज्जदिभागो ॥२५॥ एदेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो, सेडीए असंखेज्जदिभागस्स
इस वचनसे संख्यात व असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, प्रतिपक्षका निराकरण करनेसे अपने पक्षका प्रतिपादन होता है । वह असंख्यात भी तीन प्रकार है, ऐसा करके उनमें से 'यह असंख्यात है' इस प्रकार निर्णय नहीं हैं, अतः 'यही असंख्यात है' इसका निर्णय उत्पन्न करने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
मनुष्य और मनुष्य अपर्याप्तक कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणियोंसे अपहृत होते हैं ॥ २४ ॥
इस सूत्रके द्वारा परीतासंख्यात और युक्तासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, प्रतिपक्षका निषेध करके असंख्यातासंख्यात वचनको स्वपक्ष निरूपण करना है । वह असंख्यातासंख्यात भी जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है, ऐसा करके उनमें विशेष निश्चय नहीं है। अतः उक्त तीन भेदोंमेंसे विशेषके निश्चयोत्पादनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा मनुष्य व मनुष्य अपर्याप्त जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ २५ ॥
इसके द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि,
१ प्रतिषु · सव्वक्ख ' इति पाठः। २ अप्रतौ वि' इति पाठः ।
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२५६ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ३, २६.
रूवृणपरित्ताणं तत्तविरोहादो' । सेसेसु दोसु एक्कस्स अवणयणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि -- तिस्से सेडीए आयामो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ ॥ २६ ॥
एदेण जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो । कुदो ? तत्थ असंखेज्जाणं जोयकोडीणमभावादो । असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ वि अणेयवियपाओ त्ति काऊण पिच्छयाभावादो तत्थ सुड्डु णिच्छबु पायणमुत्तरमुत्तं भणदि
मणुस - मणुस अपज्जत्तएहि रूवं रूवापक्खित्तएहि सेडी अवहिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥ २७ ॥
-
सूचिअंगुल पढमवग्गमूलं तस्सेव तदियवग्गमूलेण गुणिय सलागभूदं ठचिय रूवाहियमणुस्सरासिपमाणेण सेडि अवहिरिज्जदि । किमहं रूत्रस्त पक्खेवो कीरदे ? कदजुम्माए सेडीए तेजोजमणुसरा सिम्हि अवहिरिज्जमाणे अवहारसलागमे तरूवाण
जगश्रेणी के एक कम परीतानन्तपनेका विरोध है । अब शेष दो असंख्याता संख्यातों में से एकका निषेध करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
उस जगश्रेणीके असंख्यातवें भागकी श्रेणी अर्थात् पंक्तिका आयाम असंख्यात योजनकोटि है || २६ ॥
इसके द्वारा जघन्य असंख्याता संख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, उसमें असंख्यात योजनकोटियोंका अभाव है । असंख्यात योजनकोटियों के भी अनेक विकल्परूप होने से निश्चयका अभाव है, अतः उनमें भले प्रकार निश्चयोत्पादनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं—
सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको उसके ही तृतीय वर्गमूलसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उसे शलाकारूपसे स्थापित कर रूपाधिक मनुष्यों और रूपाधिक मनुष्य अपर्याप्तों द्वारा जगश्रेणी अपहृत होती है ।। २७ ॥
सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको उसके तृतीय वर्गमूलसे गुणित करके लब्ध राशिको शलाकारूप स्थापित कर रूपाधिक मनुष्यप्रमाणसे जगश्रेणी अपहृत होती है । शंका- - रूपका प्रक्षेप किसलिये किया जाता है ?
समाधान - चूंकि जगश्रेणी कृतयुग्म राशिरूप है । अतएव उसमेंसे तेजोबराशिरूप मनुष्यराशिके अपहृत करनेपर अवहारशलाकामात्र शेष रहे रूपोंको घटाने के
१ प्रतिषु परिचाणतत्थविरोहादो' इति पाठ: ।
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२, ५, २९.] दव्यपमाणाणुगमे मगुस्सपज्जत्त-मणुसिणीणं पमाणं [२५७ मुव्वरंताणमवणयणटुं । तं चेव सलागरासिं ठविय रूवाहियमणुस्सपज्जत्तभहियमणुसअपज्जत्तरासिणा अवहिरदि । किम रूवाहियमणुस्संपज्जत्तरासी पक्खिप्पदे ? मणुसअपजत्तरासिपमाणेण' जगसेडीए अवहिरिजमाणाए सलागरासिमत्तरूवाहियमणुसपजत्तरासिस्स उव्यरंतस्स अवणयणहूं।
मणुस्सपज्जत्ता मणुसिणीओ दब्वपमाणेण केवडिया ? ॥२८॥ सुगमं ।
कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेट्टदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेढदो ॥ २९ ॥
एवं सामण्णेण जदि वि सुत्ते वुत्तं तो वि आइरियपरंपरागदेण गुरूवदेसेण अविरुद्धेण पंचमवग्गस्स घणमेत्तो मणुसपज्जत्तरासी होदि त्ति घेत्तव्यो । तस्स पमाणमेदं७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ । एत्थ गाहा
लिये उसमें रूपका प्रक्षेप किया जाता है। (इन राशियोंके लिये देखो पुस्तक ३, पृ. २४९)।
उपर्युक्त शलाकाराशिको ही स्थापित कर रूपाधिक मनुष्य पर्याप्त राशिसे अधिक मनुष्य अपर्याप्त राशिसे जगश्रेणी अपहृत होती है ।
शंका-रूपाधिक मनुष्य पर्याप्त राशिका प्रक्षेप किस लिये किया जाता है ?
समाधान-मनुष्य अपर्याप्त राशिप्रमाणसे जगश्रेणीके अपहृत करनेपर शलाकाराशिमात्र शेष रूपाधिक मनुष्यराशिको घटानेके लिये उक्त राशिका प्रक्षेप किया जाता है।
मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियां द्रव्यप्रमाणसे कितनी हैं ? ॥२८॥ यह सूत्र सुगम है।
कोडाकोडाकोड़ीके ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ीके नीचे छह वर्गोंके ऊपर व सात वर्गोंके नीचे अर्थात् छठे और सातवें वर्गके बीचकी संख्याप्रमाण मनुष्यपर्याप्त व मनुष्यनियां हैं ॥ २९ ॥
__ यद्यपि इस प्रकार सूत्र में सामान्यरूपसे ही कहा है, तथापि आचार्यपरम्परागत अविरुद्ध गुरूपदेशसे पंचम वर्गके घनप्रमाण मनुष्य पर्याप्त राशि है, इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये। उसका प्रमाण यह है-७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ । यहां गाथा
१ अ-आप्रत्योः । रासिमाणेण ' इति पाठः।
२ प्रतिषु 'पुणमेलो' इति पाठः।
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२५८ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
• तललीन मधुग विमलं धूमसिलागाविचारभयमेरू । तटहरिखझसा होंति हु माणुसपज्जत्तसंखका ॥ २ ॥
एसो उपदेसो कोडाकोडाकोडा कोडिए हेट्ठदो त्ति सुत्तेण कथं ण विरुज्झदे ? ण, एगको डाकोडाकोडा कोडिमादिं काढूण जाव रूवूणदसकोडाकोडाकोडा कोडि त्ति एवं सव्वं पि कोडाकोडाकोडा कोडि त्ति गहणादो । ण च एदस्स द्वाणस्सुक्कस्सं वोलेदूण मणुसपज्जत्तरासी ट्टिदा, अट्ठण्हं को डाकोडाकोडाकोडीणं हेट्ठदो तस्स अवद्वाणदंसणादो ।
तकारादि अक्षरोंसे सूचित क्रमशः छह, तीन, तीन, शून्य, पांच, नौ, तीन चार, पांच, तीन, नौ, पांच, सात, तीन, तीन, चार, छह, दो, चार, एक, पांच, दो, छह, एक, आठ, दो, दो, नौ, और सात, ये मनुष्य पर्याप्त राशिकी संख्या के अंक हैं ||२|| विशेषार्थ - किस अक्षरसे किस अंकका बोध होता है, इसके परिज्ञानार्थ गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) में आई हुई इसी गाथाकी ( १५८ ) सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका हिन्दी टीका में निम्न गाथा उद्घृत की है
कटपयपुरस्थवर्णैर्नवनवपंचाटकल्पितैः क्रमशः ।
स्वरजनशून्यं संख्या मात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यम् ॥
अर्थात् क ख इत्यादि नौ अक्षरोंसे क्रमशः एक-दो आदि नौ संख्या तक ग्रहण करना चाहिये । जैसे - क ख ग घ ङ च इत्यादि । इसी प्रकार ट-ठ इत्यादिसे भी एक
[ २, ५,२९.
१ २ ३ ४ ५ ६
दो क्रमसे नौ तक, प से म तक पांच अक्षरोंसे पांच तक, और य से ह तक आठ अक्षरोंसे क्रमशः एक-दो आदि आठ तक अंकोंका ग्रहण करना चाहिये । स्वर, अ और न शून्य के सूचक हैं | मात्रा और उपरिम अक्षरको छोड़ना चाहिये, अर्थात् उससे किसी अंकका बोध नहीं होता ।
शंका- यह उपदेश 'कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ीसे नीचे ' इस सूत्र से कैसे विरोधको न प्राप्त होगा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, एक कोड़ाकोड़ाकोड़ा कोड़ीको आदि करके एक कम दश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी तक इस सबको भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ीरूपसे ग्रहण किया गया है । और इस स्थानके उत्कर्षका उलंघन कर मनुष्य पर्याप्त राशि स्थित नहीं है: क्योंकि, उसका अवस्थान आठ कोड़ाकोड़ाकोड़ा कोड़ीके नीचे देखा जाता है ।
१ प्रतिषु ' तललीण- ' इति पाठः ।
३ गो जी. १५८.
२ प्रतिषु ' खजसा ' इति पाठः ।
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२, ५, ३१.1 दव्यपमाणाणुगमे देवाणं पमाणे
[२५९ एदस्स तिण्णि चदुब्भागा मणुसिणीओ, एगो चदुन्भागो पुरिस-णqसयरासी होदि। सहीणबुद्धीए पुण जोइज्जमाणे एदेण सुत्तेण सह वक्खाणाइरिएहि परूविदमणुसपज्जस. रासिपमाणं णियमेण विरुज्झदे, कोडाकोडाकोडाकोडीए हेढदो त्ति सुत्तम्मि एगवयणणिदेसादो । ण च ट्ठाणसण्णा संखेज्जे वट्टदे जेण णवण्हं कोडाकोडाकोडाकोडीणं. कोडाकोडाकोडाकोडित्तं होज्ज, विरोहादो। किं च ण बक्खाणाइरियपरूविदं मणुस्सपजत्तरासिपमाणं होदि, मणुसखेत्तम्मि तस्स वत्तीए' अभावादो, एदम्हादो सत्तगुणसव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवाणं पि जोयणलक्खम्मि अवट्ठाणाभावादो च । सेसं सुगमं ।
देवगदीए देवा दब्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ३० ॥ . एदमासंकासुत्तं संखेज्जासंखेज्जाणंतालंबणं । असंखेज्जा ॥ ३१ ॥ एदेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो,
पर्याप्त मनुष्य राशिके चार भागोंमेंसे तीन भागप्रमाण मनुष्यनियां हैं और एक चतुर्थांश पुरुष व नपुंसक राशि है। किन्तु स्वाधीन बुद्धिसे देखने पर अर्थात् स्वतंत्रतासे विचार करनेपर इस सूत्रके साथ व्याख्यानाचार्यों द्वारा निरूपित मनुष्य पर्याप्त राशिका प्रमाण नियमसे विरोधको प्राप्त होता है, क्योंकि, 'कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ीके नीचे' इस प्रकार सूत्र में एक वचनका निर्देश किया गया है। और स्थानसंज्ञा संख्यातमें है नहीं, जिससे नौ कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ियोंको (एकत्वरूपसे) कोडाकोड़ाकोड़ाकोड़ीपना हो सके, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध है । इसके अतिरिक्त व्याख्यानाचार्यों द्वारा प्ररूपित मनुष्य पर्याप्त राशिका प्रमाण बनता भी नहीं है, क्योंकि, इस प्रकार मनुष्यक्षेत्रमें उक्त मनुष्यराशिकी स्थिति नहीं हो सकती, तथा इससे (मनुष्यनीराशिसे) सातगुणे सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवोंका भी एक लाख योजनमें अवस्थान नहीं बन सकता। (विशेष जानने के लिये देखो पुस्तक ३, पृ. २५८ का विशेषार्थ)। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
देवगतिमें देव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ३० ॥ यह आशंकासूत्र संख्यात, असंख्यात व अनन्तका अवलम्बन करनेवाला है। देवगतिमें देव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ ३१ ।।। इस सूत्रके द्वारा संख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि
१ प्रतिषु । एदो' इति पाठः ।
२ प्रतिषु तवीए' इति पारः
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२६.] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ५, ३२. निरस्यति परस्यार्थं स्वार्थ कथयति श्रुतिः ।
तमो विधुन्वती भास्यं यथा भासयति प्रभा ॥ ३ ॥ इदि वयणादो । तं पि असंखेज्जं परित्त-जुत्त-असंखेज्जासंखेज्जभेएण तिविहं । तत्थ एदम्हि असंखेज्जे देवाणमवट्ठाणमिदि जाणावणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥३२॥
एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । पदरावलियाए असंखेज्जासंखेज्जाणमोसप्पिणि-उस्सप्पिणीण सम्भावादो' जहण्णअसंखेज्जासंखेजस्स वि पडिसेहो कदो । इदरेसु दोसु एक्कस्स ग्गहणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण पदरस्स बेछप्पण्णंगुलसदवग्गपडिभाएण ॥ ३३ ॥
बेछप्पण्णंगुलसदवग्गो पंचसट्ठिसहस्स-पंचसद-छत्तीसपदरंगुलाणि । जगपदरस्स एदेण पडिभाएण देवरासी होदि । एदेण वयणेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहं
जिस प्रकार प्रभा अंधकारको नष्ट करती हुई प्रकाशनीय पदार्थका प्रकाशन करती है, उसी प्रकार श्रुति परके अभीष्टका निराकरण करती है और अपने अभीष्ट अर्थको कहती है ॥ ३॥
इस प्रकारका वचन है । वह असंख्यात भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यातके भेदसे तीन प्रकार है। अतः उनसे इस असंख्यातमें देवोंका अवस्थान है ऐसा जतलानेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
देव कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणियोंसे अपहृत होते हैं ॥ ३२ ॥
इस सूत्र द्वारा परीतासंख्यात और युक्तासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है। प्रतरावलीमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका सद्भाव होनेसे जघन्य असंख्यातासंख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है। अब अन्य दो असंख्यातासंख्यातोंमें से एकके ग्रहण करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा देवोंका प्रमाण जगप्रतरके दो सौ छप्पन अंगुलोंके वर्गरूप प्रतिभागसे प्राप्त होता है ॥ ३३
दो सौ छप्पन अंगुलोंका वर्ग पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस प्रतरांगुलप्रमाण होता है। इस जगप्रतरके प्रतिभागसे देवराशि होती है। अर्थात् दो सौ छप्पन सूच्यंगुलोंके वर्गका जगप्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना देवराशिका प्रमाण है । इस वचनसे उत्कृष्ट
१ प्रतिषु ' उस्सप्पिणीणमभावादो' इति पाठः ।
..................
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२, ५, ३७.) दवपमाणाणुगमे भवणवासियदेवाणं पमाणं
२६१ काऊण विसिट्ठस्स अजहण्णाणुक्कस्सस्स परूवणा कदा । ( भवणवासियदेवा दब्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ३४ ॥) सुगमं । असंखेज्जा ॥ ३५॥
पडिवक्खपडिसेहं काऊण सपक्खपदुप्पायणादो एदेण सुत्तेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो । तं पि असंखेज परित्त जुत्त-असंखेज्जासंखेज्जभेएण तिविहं होदि । तत्थ वि अणप्पिदस्स पडिसेहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरति कालेण ॥ ३६॥
एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । जहण्णअसंखेज्जासंखेनं पि पडिसिद्धं, तत्थ असंखेज्जासंखेज्जओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । संपहि अवसेसेसु दोसु अणप्पिदपडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण असंखेज्जाओ सेडीओ ॥ ३७॥
असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध करके शेष रहे अजघन्यानुत्कृष्टकी प्ररूपणा की है।
भवनवासी देव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ३४ ॥ यह सूत्र सुगम है। भवनवासी देव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ ३५ ॥
प्रतिपक्षका निषेधकर स्वपक्षका प्रतिपादन करनेसे इस सूत्रके द्वारा संख्यात और अनन्तका प्रतिषेध किया गया है। वह असंख्यात भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यातके भेदसे तीन प्रकार है। उनमेंसे भी अविवक्षित असंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
कालकी अपेक्षा भवनवासी देव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे अपहृत होते हैं ॥ ३६॥
___ इसके द्वारा परीतासंख्यात और युक्तासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । इसके साथ जघन्य असंख्यातासंख्यातका भी प्रतिषेध कर दिया है, क्योंकि, उसमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है । अब अवशेष दो असंख्यातासंख्यातोंमेसे अविवक्षितके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा भवनवासी देव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं ॥ ३७॥
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२६२ । छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२, ५, ३८. एदेण सुत्तेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो, लोगाणमणिदेसादो' । असंखेज्जाओ सेडीओ वि अणेयभेयभिण्णाओ, तण्णिण्णयउप्पायणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
पदरस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ३८ ॥
एदेण जगपदरस्स दुभाग-तिभागादीणं पडिसेहो कदो । जगपदरस्त असंखेज्जदिभागो वि अणेय भेयभिण्णाओ त्ति तत्थ णिच्छयजणणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
तासिं सेडीणं विक्खंभसूची अंगुलं अंगुलवग्गमूलगुणिदेण ॥ ३९॥
सूचिअंगुलं तस्सेब पढमवग्गमूलेण गुणिदं सेडीण विखंभसूची होदि । सेसं सुगमं ।
वाण-तरदेवा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ४० ॥ सुगम । असंखेज्जा ॥४१॥
इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, यहां लोकोका निर्देश नहीं है। असंख्यात जगश्रेणियां भी अनेक भेदोंसे भिन्न हैं, अतः उनके निर्णयोत्पादनार्थ उत्तर मूत्र कहते हैं
उपर्युक्त असंख्यात जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण ग्रहण करना चाहिये ॥ ३८॥
इससे जगप्रतरके द्वितीय तृतीय भागादिकोका प्रतिषेध किया गया है। जग. प्रतरका असंख्यातवां भाग भी अनेक भेदोंसे भिन्न है, अतः उनमें निश्चयजननार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उन असंख्यात जगश्रेणियोंकी विष्कम्भसूची सूच्यंगुलको मूच्यंगुलके ही वर्गमूलसे गुणित करनेपर जो लब्ध हो उतनी है ॥ ३९ ॥
सूच्यंगुलको उसके ही प्रथम वर्गमूलसे गुणित करनेपर उन असंख्यात जगश्रेणियोंकी विष्कम्भसूची होती है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
वानव्यन्तर देव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ४०॥ यह सूत्र सुगम है। वानव्यन्तर देव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ ४१ ॥
१ प्रतिषु 'दोगामणिदेसादो' इति पाठः ।
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२, ५, ४४. ]
दवमाणागमे जोदिसियदेवाणं प्रमाणं
[ २६३
एदेण संखेज्जाणंताणं' पडिसेहो कदो । असंखेज्जं पि परित्त जुत्त-असंखेज्जासंखेजण तिविहं । तत्थ अणप्पिदपडिहद्वमुत्तरसुत्तं भणदिअसंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति काले ॥ ४२ ॥
एदेण परित्त जुत्तासंखे जाणं जहण्णअसंखेज्जासंखेजस्स य पडिसेहो कदो, तत्थ असंखेज्जासंखेज्जाणमोसपिणि उस्सप्पिणीणमभावादो । इदरेसु दोसु अणप्पिदपडिसेहडमुत्तरमुत्तं भणदि
खेत्ते पदरस्स संखेज्जजोयणसदवग्गपडिभाएण ॥ ४३ ॥ तप्पा ओग्गसंखेज्जजो यणसदं वग्गिय तेण जगपदरे ओवट्टिदे वाणवैतरदेवाणं पमाणं होदि । सेसं सुगमं ।
जोदिसिया देवा देवग दिभंगो ॥ ४४ ॥
इसके द्वारा संख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया गया है । असंख्यात भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासं ख्यातके भेद से तीन प्रकार है । उनमें अविवक्षित असंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
-
कालकी अपेक्षा वानव्यन्तर देव असंख्याता संख्यात अवसर्पिणी- उत्सर्पिणियों से अपहृत होते हैं ।। ४२ ॥
इस सूत्र द्वारा परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और जघन्य असंख्याता संख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, उनमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी - उत्सर्पिणियोंका अभाव है । अब इतर दो असंख्याता संख्यातों में अविवक्षितके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा वानव्यन्तर देवोंका प्रमाण जगप्रतरके संख्यात सौ योजनोंके वर्गरूप प्रतिभाग से प्राप्त होता है ।। ४३ ।।
तत्प्रायोग्य संख्यात सौ योजनोंका वर्ग करके उससे जगप्रतरके अपवर्तित करनेपर वानव्यन्तर देवोंका प्रमाण होता है । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
ज्योतिषी देवोंका प्रमाण देवगतिके समान है ॥ ४४ ॥
१ प्रतिषु ' असंखेज्जाणताणं ' इति पाठः ।
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२६४ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ५, ४५.
कुदो ? पदरस्स बेछप्पण्णं गुलसदवग्गपडिभागत्तणेण तदो विसेसाभावादो | णवरि अत्थदो विसेस अस्थि, सो जाणिय वत्तव्वो । (सोहम्मीसाण कप्पवासियदेवा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ४५ ॥
सुमं । ( असंखेज्जा ॥ ४६ ॥
एदेण संखेज्जस्स पडिसेहो कदो । अनंतस्स पुण पडिसेहो देवोघपरूवणादो चेत्र सिद्धो । असंखेज्जं पि पुत्तक्रमेण तिविहं । तत्येकस्सेव गहणमुत्तरमुत्तं भणदिअसंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि- उस्सप्पिणीहि अवहिरंति काले ॥ ४७ ॥
एदेण परित- जुत्तासं खेज्जाणं जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जस्स य पडिसेहो कदो, तत्थ असंखेज्जासं खेज्जाणमोसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । अवसेसेसु दोसु एक्कस्सेव गहणमुत्तरमुत्तं भणदि
-
क्योंकि, जगप्रतरके दो सौ छप्पन अंगुलोंके वर्गरूप प्रतिभागपने की अपेक्षा सामान्य देवराशिसे ज्योतिषी देवराशिमें कोई विशेषता नहीं है । परन्तु अर्थसे विशेषता है, उसे जानकर कहना चाहिये । ( देखिये जीवस्थान द्रव्यप्रमाणानुगम, पृ. २६८ का विशेषार्थ )
सौधर्म व ईशान कल्पवासी देव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ।। ४५ ।। यह सूत्र सुगम है ।
सौधर्म व ईशान कल्पवासी देव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ।। ४६ ।।
इस सूत्र द्वारा संख्यातका प्रतिषेध किया गया है । अनन्तका प्रतिषेध देवोंकी ओघप्ररूपणा से ही सिद्ध है । असंख्यात भी पूर्वोक्त क्रमसे तीन प्रकार है। उनमेंसे एकके ही ग्रहण करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
सौधर्म ईशान कल्पवासी देव कालकी अपेक्षा असंख्याता संख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणियों से अपहृत होते हैं ॥ ४७ ॥
इस सूत्र के द्वारा परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और जघन्य असंख्याता संख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, उनमें असंख्याता संख्यात अवसर्पिणी- उत्सर्पिणियोंका अभाव है । अवशेष दो असंख्यातासंख्यातों में एकके ही ग्रहण करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं-
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२, ५, ५१.] दबपमाणाणुगमे सणवकुमारादिदेवाणं पमाणं (२६५
खेत्तेण असंखेज्जाओ सेडीओ ॥४८॥
एदेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेजस्स पडिसेहो कदो, लोगादिणिदेसाणमभावादो । असंखेजाओ सेडीओ अणेयवियप्पाओ । तासिं णिण्णयद्वमुत्तरसुत्तं भणदि
पदरस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ४९ ॥
एदेण जगपदरस्स दुभाग-तिभागादिपडिसेहो कदो। पदरस्स असंखेज्जदिभागो . वि अणेयवियप्पो त्ति जादसंदेहविणासणटुं उत्तरसुत्तं भणदि
तासिं सेडीणं विक्खंभसूची अंगुलस्स वग्गमूलं बिदियं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥ ५० ॥
सूचिअंगुलविदियवग्गमूलं तस्सेव तदियवग्गमूलगुणिदं सेडीण विक्खंभस्स सूची होदि । घणंगुलतदियवग्गमूलमेत्तसेडीओ सोधम्मीसाणकप्पेसु देवा होति त्ति वुत्तं होदि ।
सणक्कुमार जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवा सत्तमपुढवीभंगो॥५१॥
उपर्युक्त देव क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं ॥ ४८ ॥
इसके द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, यहां लोकादिकोंके निर्देशका अभाव है । असंख्यात जगश्रेणियां अनेक विकल्परूप है । उनके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं--
ये असंख्यात जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ ४९ ॥ __इस सूत्र द्वारा जगप्रतरके द्वितीय-तृतीय भागादिकोका प्रतिषेध किया गया है। जगप्रतरका असंख्यातवां भाग भी अनेक विकल्परूप है, इस कारण उत्पन्न हुए सन्देहक विनाशनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं--
उन असंख्यात जगश्रेणियोंकी विष्कम्भस्सूची सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलसे गुणित सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलप्रमाण है ॥ ५० ॥
सूच्यंगुलका द्वितीय वर्गमूल उसीके तृतीय वर्गमूलसे गुणित होकर असंख्यात जगश्रेणियोंके विष्कम्भकी सूची होता है। घनांगुलके तृतीय वर्गमूलमात्र जगश्रेणीप्रमाण सौधर्म-ईशान कल्पोंमें देव हैं, यह उक्त कथन का फलितार्थ है।
सनत्कुमारसे लेकर शतार-सहस्रार कल्प तकके कल्पवासी देवोंका प्रमाण सप्तम पृथिवीके समान है ॥ ५१ ॥
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२६६ ]
छक्खंडागमे खुद्दाधो
[ २, ५, ५२.
दो ! सेडीए असंखेज्जभागत्तणेण एदेसिं तत्तो भेदाभावादो । विसेसदो पुण दो अस्थि, सेडीए एक्कारस-णवम-सत्तम- पंचम- चउत्थवग्गमूलाणं जहाक्रमेण सेडी भागहाराणमेत्युवलंभादो । एदे भागहारा एत्थ होंति त्ति कथं णव्वदे ? आइरिय परंपरागदअविरुद्धवदेसादो ।
आणद जाव अवराइदविमाणवासियदेवा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ५२ ॥
सुमं ।
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो || ५३ ॥
एदेण संखेज्जस्स पडिसेहो कदो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो वि अणेयपयारो, तणिण्णयद्वमुत्तरसुत्तं भणदि
एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्ते ॥ ५४ ॥
देहि तदेवेहि पलिदोवमे अवहिरिज्जमाणे अंतोमुहुत्तेण पलिदोवममवहिरदि ।
क्योंकि, इनके जगश्रेणके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा सप्तम पृथिवीके नारकियों से कोई भेद नहीं है । परन्तु विशेषकी अपेक्षा भेद है, क्योंकि, यहां यथाक्रम से ग्यारहवां, नौवां, सातवां, पांचवां और चौथा, इन जगश्रेणी के वर्गमूलकी श्रेणीभागहाररूप से उपलब्धि है ।
शंका- ये भागहार यहां हैं, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - यह आचार्यपरम्परागत अविरुद्ध उपदेशसे जाना जाता है ।
आन से लेकर अपराजित विमान तकके विमानवासी देव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ५२ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त देव द्रव्यप्रमाणसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं ॥ ५३ ॥
इस सूत्र द्वारा संख्यातका प्रतिषेध किया है । पल्योपमका असंख्यातवां भाग भी अनेक प्रकार है, उसके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
इन देवोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत होता है ॥ ५४ ॥
इन पूर्वोक्त देवों द्वारा पल्योपमके अपहृत करनेपर अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत
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.२, ५, ५७.1 दव्यपमाणाणुगमे एइंदियाणं पमाणं
। २६७ एत्थ अंतोमुहुत्तपमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागो । संखेज्जावलियासु संखेज्जाणं जीवाणमुवक्कमे संते कधं पलिदोवमस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागो भागहारो होदि ? ण एत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागो संखज्जावलियाओ वा अंतोमुहुत्तं, किंतु असंखज्जावलियाओ एत्थ अंतोमुहुत्तमिदि घेत्तव्याओ। कधमसंखेज्जावलियाणमंतोमुद्दत्तत्तं ? ण, कज्जे कारणोवयारेण तासिं तदविरोहादो।
सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा दव्वपमाणेण केवडिया? ॥५५॥ सुगमं । असंखेज्जा ॥५६॥ एदं पि सुगमं ।
इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ५७ ॥
होता है। यहां अन्तर्मुहूर्त का प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है ।
शंका--संख्यात आवलियोंमें संख्यात जीवोंका उपक्रम होनेपर आवलीका असंख्यातवां भाग पल्योपमका भागहार कैसे हो सकता है ?
समाधान-यहां आवलीका असंख्यातवां भाग अथवा संख्यात अवलियां अन्तर्मुहूर्त नहीं है, किन्तु यहां असंख्यात आवलियां अन्तर्मुहूर्त हैं,ऐसा ग्रहण करना चाहिये। ( देखो जीवस्थान द्रव्यप्रमाणानुगम, पृ. २८५)।
शंका - असंख्यात आवलियोंके अन्तर्मुहूर्तपना कैसे बन सकता ?
समाधान-कार्यमें कारणका उपचार करनेसे असंख्यात आवलियोंके अन्तर्मुहर्तपनेका कोई विरोध नहीं है ।
सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ५५ ॥ यह सूत्र सुगम है। सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ।। ५६ । यह सूत्र भी सुगम है।
इन्द्रियमार्गणाके अनुसार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने
.
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छक्खंडागमे खुदाबंधी
एदमासंकासुत्तं संखेज्जासंखेज्जाणंतालंबणं । सेसं सुगमं ।
अनंता ॥ ५८ ॥
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । तं पि अनंतं परित्त जुत्ताणंताणंतएण तिविहं । तत्थेक्कस्सेव गहणट्ठमुत्तरमुत्तं भणदि -
अणंताणंताहि ओसप्पिणि- उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण
२६८ ]
॥ ५९ ॥
एदेण जहण्णअणंताणं तस्स पडिसेहो को, अदीदकालादो अनंतगुणस्स जहण्णअनंताणं तत्तविरोहादो । अजहण्णअणुक्कस्स - उक्कस्स अणंताणंताणं दोन्हं पि ग्रहणपसंगे तत्थेक्कस्सेव गहणमुत्तरमुत्तं भणदि
[ २, ५, ५८..
खेत्ते अनंताणंता लोगा ॥ ६० ॥
एदेण उक्कस्सअणंताणंतस्स पडिसेहो कदो, अनंताणंत सच्चपज्जय पढमवग्गमूलस्स
यह आशंकासूत्र संख्यात, असंख्यात और अनन्तका आलम्बन करनेवाला है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
उपर्युक्त प्रत्येक एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं ? ॥ ५८ ॥
इस सूत्र द्वारा संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । वह अनन्त भी परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्तके भेदसे तीन प्रकार है । उनमें से एक ही ग्रहणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उपर्युक्त जीव कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी- उत्सर्पिणियों से अपहृत नहीं होते हैं ॥ ५९ ॥
इस सूत्र द्वारा जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, अतीतकालसे अनन्तगुणे कालको जघन्य अनन्तानन्तत्वका विरोध है । अजघन्यानुत्कृष्ट और उत्कृष्ट अनन्तानन्त इन दोनोंके भी ग्रहणका प्रसंग होनेपर उनमें से एकके ही ग्रहणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा उक्त नौ प्रकारके एकेन्द्रिय जीव अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ ६० ॥
इस सूत्र के द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, अनन्तानन्त सर्व पर्यायोंके प्रथम वर्गमूलस्वरूप उत्कृष्ट अनन्तानन्तको अनन्तानन्त
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२, ५, ६३.] दवपमाणाणुगमे बीइंदियादीणं पमाणं
[२६९ उक्कस्सअणंताणंतस्स अणंताणंतलोगत्तविरोहादो । सेसं जीवट्ठाणभंगो।
बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदिया तस्सेव पज्जत्ता अपनत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ६१ ॥
सुगमं । असंखज्जा ॥ ६२॥
एदेण संखेज्जाणंतपडिसेहो कदो । तं पि असंखेज्ज परित्त-जुत्त-असंखेज्जासंखेज्जभेएण तिविहं । तत्थ दोण्हमवणयणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ६३॥
एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जस्स य पडिसेहो कदो, एदेसु तिसु असंखेज्जासंखेज्जओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमत्यित्तविरोहादो। अजहण्णुकस्सुक्कस्सअसंखेजाणं दोण्हं पि गहणप्पसंगे तत्थेक्कस्स अवणयणमुत्तरसुत्तं भणदि
लोकत्वका विरोध है । शेष प्ररूपणा जीवस्थानके समान है.।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और उन्हींके पर्याप्त व अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ६१ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त द्वीन्द्रियादिक जीव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ।। ६२ ।।
इसके द्वारा संख्यात और अनन्तका प्रतिषेध किया गया है । वह असंख्यात भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यातके भेदसे तीन प्रकार है। उनमेसे दोका निराकरण करने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
उपर्युक्त द्वीन्द्रियादिक जीव कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणियोंसे अपहत होते हैं ॥ ६३ ॥
इस सूत्र द्वारा परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और जघन्य असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, इन तीनोंमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणियोंके अस्तित्वका विरोध है। अजघन्यानुत्कृष्ट और उत्कृष्ट दोनों ही असंख्यातासंख्यातोंके ग्रहणका प्रसंग होनेपर उनमेंसे एकके निषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
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२७० ] छक्खंडागमे खुद्दा बंधी
[ २, ५, ६४. खेत्तेण बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदिय-पंचिंदिय तस्सेव पज्जत्तअपज्जत्तेहि पदरं अवहिरदि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स संखज्जदिभागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स असंखेन्जदिभागवग्गपडिभाएण ॥ ६४ ॥
एदेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो, रूवूणजहण्णपरित्ताणंतस्स पदरस्स असंखेज्जदिभागत्तविरोहादो । सूचिअंगुले आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे लद्धं वग्गिदे बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियाणमवहारकालो होदि । तम्हि चेत्र विसेसाहिए कद एदेसिमपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिमागे वग्गिदे एदेसिं पज्जत्ताणमवहारकालो होदि । सेसं जीवट्ठाणम्मि वुत्तविहाणं णाऊण वत्तव्यं ।
कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइयबादरपुढविकाइय-वादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयबादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइय
.......................................
क्षेत्रकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय तथा उन्हींके पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीवों द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे, सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे और सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है । ६४ ॥
इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, एक कम जघन्य परीतानन्तको जगप्रतरके असंख्यातवें भागपनेका विरोध है । सूच्यंगुलमें आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसका वर्ग करनेपर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल होता है । इसीको विशेष अधिक करनेपर इन्हींके अपर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । सूच्यंगुलके . संख्यातवें भागका वर्ग करनेपर इन्हींके पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । शेष जीवस्थानमें कहे हुए विधानको जानकर कहना चाहिये । (देखो पुस्तक ३, पृ. ३१३ आदि)।
कायमार्गणाके अनुसार पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, चादर पृथिवीकायिक, बादर जल कायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और इन्हींके अपर्याप्त, तथा सूक्ष्म पृथिवीकायिक,
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पाणामेकाइयादीणं पमाणं
२, ५, ६८. ]
[ २७१
सुहुम आउकाइय-सुहुमते उकाइय- सुहुमवाउकाइय तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? ।। ६५ ॥
सुमं ।
असंखेज्जा लोगा ॥ ६६ ॥
एदेण संखेज्जाणंताणं परित्त - जुत्तासंखेज्जाणं जहण्णुक्कस्स असंखेज्जासंखेज्जाणं डिसेहो कदो । सेसं सुगमं ।
बादरपुढविकाइय-वादर आउकाइय- बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ६७ ॥
सुगमं ।
असंखेज्जा ॥ ६८ ॥
एदेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो । तं पि असंखेज्जं तिविहं । तत्थेक्कस् सेव गहणमुत्तरमुत्तं भणदि
सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म तेजकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और इन्हीं चार सूक्ष्मों के पर्याप्त व अपर्याप्त, ये प्रत्येक जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ।। ६५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त जीवों में प्रत्येक जीवराशि असंख्यात लोकप्रमाण है ॥ ६६ ॥
इस सूत्र के द्वारा संख्यात, अनन्त, परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात, जघन्य असंख्याता संख्यात और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ६७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उक्त जीव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं || ६८ ॥
इस सूत्र के द्वारा संख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया गया है । वह असंख्यात भी तीन प्रकार है । उनमें एकके ही ग्रहणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
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२७२) छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ५, ६९. असंखेज्जासंखेजाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ६९ ॥
एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जस्स य पडिसेहो कदो, तेसु असंखेज्जासंखेज्जोसप्पिणी-उस्सप्पिणीणमभावादो। उक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जपडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरवणप्फदिकाइयंपत्तेयसरीरपज्जत्तएहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण ॥ ७॥
एत्थ सूचिअंगुलस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो होदि । सेसं सुगमं ।
बादरतेउपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ७१ ॥ सुगमं ।
उक्त जीव कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणियोंसे अपहृत होते हैं ॥ ६९॥.
इस सूत्रके द्वारा परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और जघन्य असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, उनमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है । उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं -
क्षेत्रकी अपेक्षा बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवों द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥ ७० ॥
यहां पल्योपमका असंख्यातवां भाग सूच्यंगुलका भागहार है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
बादर तेजकायिक पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ।। ७१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
१ प्रतिषु · संखेज्जोस प्पिणीणमभावादो' इति पाठः।
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२, ५, ७५.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादीणं पमाणं
[ २७३ असंखेज्जा ॥ ७२॥
एदेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो । असंखेज पि तिविहं परित्त-जुत्तअसंखेज्जासंखेज्जभेएण । तत्थ परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं जहण्णुक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जाणं च पडिसेहमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जावलियवग्गो आवलियघणस्स अंतो ॥ ७३ ॥
असंखेज्जावलियवग्गो त्ति वुत्ते पदरावलियप्पहडिउवरिमवग्गाणं गहणं पत्ते तष्णिवारणट्ठमावलियघणस्स अंतो इदि वुत्तं । सेसं सुगमं ।
बादरवाउपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ७४ ॥ सुगमं । असंखेज्जा ॥ ७५॥ संखेज्जाणताणं पडिसेहो एदेण कदो । तिविहेसु असंखेज्जेसु एदम्हि असंखेज्जे
.......................................
बादर तेजकायिक पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ।। ७२ ॥
इस सूत्रके द्वारा संख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया गया है । असंख्यात भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यातके भेदसे तीन प्रकार है। उनमें परीतासंख्यात, युक्तासख्यात, जघन्य असंख्यातासंख्यात और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उक्त असंख्यातका प्रमाण असंख्यात आवलियोंके वर्गरूप है जो आवलीके घनके भीतर आता है ।। ७३ ॥
'उक्त असंख्यातका प्रमाण असंख्यात आवलियोंके वर्गरूप है ' ऐसा कहनेपर प्रतरावली आदि उपरिम वर्गीके ग्रहणके प्राप्त होनेपर उनके निवारणार्थ 'आवलीके घनके भीतर है' ऐसा कहा गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ७४ ॥ यह सूत्र सुगम है। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ ७५ ॥ इस सूत्रके द्वारा संख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया है। तीन प्रकारके असं
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२७४ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ५. ७६. बादरवाउपज्जत्तरासी द्विदो त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ७६॥
एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं जहण्णअसंखेज्जासंग्वेज्जस्स य पडिसेहो कदो, तेसु असंखेज्जासंखेज्जाणमोसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । अजहण्णुक्कस्स-उक्कस्सअसंखेज्जासंखेजाण गहणप्पसंगे उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
खेतेण असंखेज्जाणि पदराणि ॥ ७७ ॥
एदेण अजहण्णुक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स सिद्धी कदा । असंखेज्जाणि जगपदराणि अणेयविहाणि त्ति तण्णिण्णयद्वमुत्तरसुत्तं भणदि
लोगस्स संखेज्जदिभागो ॥ ७८ ॥
घणलोगे तप्पाओग्गसंखेज्जलवे हिदे बादरवाउकाइयपज्जत्तरासी होदि । सेसं सुगमं ।
ख्यातों से इस असंख्यातमें बादर वायुकायिक पर्याप्त राशि स्थित है इसके शापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणियोंसे अपहृत होते हैं । ७६ ।।
__ इस सूत्रके द्वारा परीतासंख्यात, युकासंख्यात और जघन्य असंख्यातासंख्यातका . प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, उनमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। अजघन्यानुत्कृष्ट और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातोंके ग्रहण का प्रसंग होनेपर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात जगप्रतरप्रमाण हैं ॥ ७७॥
इस सूत्रके द्वारा अजघन्यानुत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातकी सिद्धि की गई है। असंख्यात जगप्रतर अनेक प्रकार हैं, इस कारण उनके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उन असंख्यात जगप्रतरोंका प्रमाण लोकका असंख्यातवां भाग है ॥ ७८ ॥
घनलोकमें तत्प्रायोग्य संख्यात रूपोंका भाग देनेपर बादर वायुकायिक पर्याप्त राशि होती है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
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२, ५, ८१.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादीणं पमाणं
[२७५ वणप्फदिकाइय-णिगोदजीवा बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ७९ ॥
सुगमं । अणंता ॥ ८० ॥
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । अणतं पि तिविहं । तत्थ एदम्हि अणंते एदेसिमवट्ठाणमिदि जाणावणमुत्तरसुत्तं भणदि
__ अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ ८१ ॥
एदेण परित्त-जुत्ताणताणं जहण्णअणंताणतस्स य पडिसेहो कदो । एदेसि अणंताणताणमोसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । अजहण्णुक्कस्सअणंताणतस्स गहणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
वनस्पतिकायिक जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकायिक बादर जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकायिक बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक बादर अपर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म पर्याप्त जीव, बनस्पतिकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर जीव, निगोद सूक्ष्म जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म पर्याप्त जीव और निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, ये प्रत्येक द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ।। ७९ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त प्रत्येक जीवराशि द्रव्यप्रमाणसे अनन्त है ॥ ८० ॥
इस सूत्रके द्वारा संख्यात व असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । अनन्त भी तीन प्रकार है । उनमें से इस अनन्तमें इनका अवस्थान है, इसके शापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उपर्युक्त प्रत्येक जीवराशि कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे अपहत नहीं होती है ।। ८१ ॥
इस सूत्रके द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त, और जघन्य अनन्तानन्तका निषेध किया है, क्योंकि, इनके अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है । अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्तके ग्रहणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
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२७६ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ५, ८२. खेत्तेण अणंताणंता लोगा ॥ ८२ ॥ एदेण उक्कस्सअणंताणतस्स पडिसेहो कदो । सेसं सुगमं ।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्त-अपज्जत्ता पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तअपज्जत्ताणं भंगो ॥. ८३ ॥
तसकाइयाणं पंचिंदियभंगो, तसकाइयपज्जत्ताणं पंचिंदियपज्जत्ताणं भंगो, तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्ताणं भंगो । कुदो ? समाणाणं जहासंखाए संबंधादो । आवलियाए असंखेज्जदिभागेण संखेज्जदिरूवेहि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण च पुध पुध ओवट्टिदपदरंगुलेहि जगपदरम्मि भागे हिदे पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त-पंचिंदियअपज्जत्ताणं रासीओ होति त्ति वुत्तं होदि । सेसं जहा जीवट्ठाणे वुत्तं तहा बत्तव्यं ।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगी तिण्णिवचिजोगी दवपमाणेण केवडिया ? ॥ ८४॥
सुगमं ।
उपर्युक्त प्रत्येक जीवराशि क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण है ॥ ८२ ॥
. इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
त्रसकायिक, त्रसकायिक पर्याप्त और त्रसकायिक अपर्याप्त जीवोंका प्रमाण क्रमशः पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है ॥८३॥
प्रसकायिकों का प्रमाण पंचेन्द्रियोंके समान, त्रसकायिक पर्याप्तोंका प्रमाण पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान, और त्रसकायिक अपर्याप्तोंका प्रमाण पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है,क्योंकि समान पदोंका सम्बन्ध संख्याके अनुसार होता है। आवलीके असंख्यातवें भागसे, संख्यात रूपोंसे और आवलीके असंख्यातवें भागसे पृथक् पृथक् अपवर्तित प्रतरांगुलोंका जगप्रतरमें भाग देनेपर क्रमशः पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंकी राशियां होती हैं, यह उक्त कथनका अभिप्राय है। शेष जैसे जीवस्थानमें कहा है वैसे यहां भी कहना चाहिये।
योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी और सत्य, असत्य व उभय ये तीन वचनयोगी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ८४ ॥
बह सूत्र सुगम है।
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[ २७
२, ५, ८८.] दयपमाणाणुगमै मण-वचिजोगीण पमाणं
देवाणं संखेज्जदिभागो॥ ८५॥
देवाणमवहारकाले बेछप्पण्णंगुलसदवग्गे तप्पाओग्गसंखेज्जरूवेहि गुणिदे एदेसिमवहारकाला होति । एदेहि जगपदरम्हि भागे हिदे पुव्युत्तहरासीओ होति । सेसं सुगमं ।
वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगी दवपमाणेण केवडिया ? ॥८६॥
सुगमं । असंखेज्जा ॥ ८७ ॥
एदेण संखेज्जाणताणं पडि से हो कदो । कुदो ? उभयसत्तिसंजुत्तत्तादो। असंखेज्ज पि तिविहं । तत्थेदम्हि एदेसिमबट्ठाणमिदि जाणावणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ८८॥
एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं' जहण असंखेज्जासंखेजस्स य पडिसेहो कदो,
पांच मनोयोगी और तीन वचनयोगी द्रव्यप्रमाणसे देवोंके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।। ८५ ॥
__ दो सौ छप्पन सूच्यंगुलोंके वर्गरूप देवोंके अवहारकालको तत्प्रायोग्य संख्यात रूपोंसे गुणित करने पर इनके अवहारकाल होते हैं । इनसे जगप्रतरके भाजित करनेपर पूर्वोक्त आठ राशियां होती है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
वचनयोगी और असत्यमृपा अर्थात् अनुभय वचनयोगी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ८६ ॥
यह सूत्र सुगम है। वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ।। ८७ ॥
इस सूत्रके द्वारा संख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, वह सूत्र संख्यात व अनन्तके प्रतिषेध तथा असंख्यातके विधानरूप उभय शक्तिसे संयुक्त है। असंख्यात भी तीन प्रकार है। उनमेंसे इस असंख्यातमें इनका अवस्थान है, इसके शापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे अपहृत होते हैं ॥ ८८॥
इस सूत्रके द्वारा परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और जघन्य असंख्यातासंख्यातका
१ प्रतिष । साणं संखेन्जाणं' इति पाठः ।
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२७८) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ५, ८९. एदेसु असंखेज्जासंखेज्जाणं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । सेसदोअसंखेजासंखेजेसु एक्कस्सावहारणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
खेतेण वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण ॥ ८९ ॥
एदेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो, तस्स पदरस्त असंखज्जदिमागत्तविरोहादो । संखेज्जरूवाहे ओवट्टिदपदरंगुलेण जगपदरे भागे हिदे दो वि रासीओ आगच्छंति । सेसं सुगमं ।
कायजोगि-ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-कम्मइयकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ९० ॥
सुगमं । अणंता ॥ ९१ ॥
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । अणंतं पि तिविहं । तत्थ एदम्हि अणंते एदाओ रासीओ द्विदाओ त्ति जाणावणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि
प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, इनमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिगी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। शेष दो असंख्यातासंख्यातोंमें से एकके अवधारणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा वचनयोगी और असत्यमृपावचनयोगियों द्वारा मूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥ ८९ ॥
इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, उसको जगप्रतरके असंख्यातवें भागपनेका विरोध है । संख्यात रूपोंसे अपवर्तित प्रतरांगुलका जगप्रतरमें भाग देनेपर दोनों ही राशियां आती हैं। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ९० ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ ९१ ॥
इस सूत्रके द्वारा संख्यात व असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है। अनन्त भी तीन प्रकार है। उनमेंसे इस अनन्तमें ये जीवराशियां स्थित हैं, इसके ज्ञापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
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२, ५, ९५.] दव्वपमाणाणुगमे कायजोगीण पमाणं
[ २७९ अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ ९२ ॥
एदेण परित्त-जुत्ताणताणं' जहरणअणंताणंतस्स य पडिसेहो कदो, तेसु अणंताणंताणमोसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । संपहि दोसु अणताणतेसु एक्कस्स पडिसेहहमुत्तरसुतं भणदि
खेत्तेण अणंताणंता लोगा ॥ ९३ ॥ एदेण उक्कस्साणताणंतस्स पडिसेहो कदो, लोगवयणण्णहाणुववत्तीदो । सेसं सुगमं । वेउब्बियकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ९४ ॥ सुगमं । देवाणं संखेज्जदिभागूणो ॥ ९५ ॥
देवेसु पंचमण-पंचवचि-वेउब्धियमिस्सकायजोगिरासीओ देवाणं संखज्जदिभागमेत्ताओ देवरासीदो अवणिदे अवसेसं वेउन्वियकायजोगिपमाणं होदि ।
उपर्युक्त जीव कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे अपहृत नहीं होते हैं ॥ ९२ ॥
इस सूत्रके द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त और जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, उनमें अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। अब दो अनन्तानन्तोंमेंसे एकके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उपर्युक्त जीव क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ ९३ ॥
इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, अन्यथा लोकनिर्देशकी उपपत्ति नहीं बनती। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
वैक्रियिककाययोगी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ।। ९४ ॥ यह सूत्र सुगम है। चैक्रियिककाययोगी देवोंके संख्यातवें भागसे कम है ॥ ९५ ॥
देवोंमें पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, इन देवोंके संख्यातवें भागमात्र राशियोंको देवराशिमेसे घटा देनेपर अवशेष वैक्रियिककाययोगियोंका प्रमाण होता है।
१ प्रतिषु 'परित-जुत्ताणं ' इति पाठ ।।
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२८० ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ५, ९६. वेउव्वियमिस्सकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ९६ ॥ सुगमं । देवाणं संखेज्जदिभागो ॥ ९७ ॥
देवरासिं संखेजवाससहस्सुवक्कमणकालसंचिदसंखेज्जखंडे कदे एगखंडं वेउब्धियमिस्सरासिपमाणं होदि।
आहारकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ९८ ॥ सुगमं । चदुवण्णं ॥ ९९ ॥ एवं पि सुगमं । आहारमिस्सकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १० ॥ सुगमं । संखेज्जा ॥ १०१ ॥
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ९६ ॥ यह सूत्र सुगम है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी द्रव्यप्रमाणसे देवोंके संख्यातवें भागमात्र हैं ॥ ९७ ।।
संख्यात वर्षसहस्रमें होनेवाले उपक्रमणकालोंमें संचित देवराशिके संख्यात खण्ड करनेपर उनमेंसे एक खण्ड वैक्रियिकमिश्रकाययोगी राशिका प्रमाण होता है । (देखो जीवस्थान द्रव्यप्रमाणानुगम, पृ. ४०० का विशेषार्थ)।
आहारकाययोगी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ९८ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारककाययोगी द्रव्यप्रमाणसे चौवन हैं ॥ ९९ ।। यह सूत्र भी सुगम है। आहारकमिश्रकाययोगी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १० ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारकमिश्रकाययोगी द्रव्यप्रमाणसे संख्यात हैं ॥ १.१॥
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२, ५, १०४.] दव्यामाणाणुगमे इस्थिवेदादीणं पमाणं
[ २८१ संखेज्जा त्ति वयणेण असंखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो । संखेज्जं जदि वि अणेयपयारं तो वि चदुवण्णभंतरे चेव ते होंति, णो बहिद्धा, आहारमिस्सकालम्मि तिजोगावरुद्धपज्जत्ताहारसरीरकालादो संखेज्जगुणहीणम्मि संचिदाणं जीवाणं चदुवण्णसंखाविरोहादो । आइरियपरंपरागदउवदेसेण पुण सत्तावीस जीवा होति ।
वेदाणुवादेण इत्थिवेदा दवपमाणेण केवडिया ? ॥ १०२ ॥ सुगमं । देवीहि सादिरेयं ॥ १०३ ॥
देवरासिं तेत्तीसखंडाणि काऊणेगखंडमणिदे देवीणं पमाणं होदि । पुणो तत्थ तिरिक्ख-मणुस्साण इथिवेदरासिं पक्खित्ते सव्विस्थिवेदरासी होदि त्ति देवीहि सादिरेयमिदि वुत्तं ।
पुरिसवेदा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १०४ ॥ सुगमं ।
‘संख्यात हैं' इस वचनसे असंख्यात और अनन्तका प्रतिषेध किया है । यद्यपि संख्यात भी अनेक प्रकार है तथापि वे चौवनके भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं, क्योंकि तीन योगोंसे अवरुद्ध पर्याप्त आहारक शरीरकालसे संख्यातगुणे हीन आहारमिश्रकालमें संचित जीवोंके चौवन संख्याका विरोध है। किन्तु आचार्य परम्परागत उपदेशसे सत्ताईस जीव होते हैं । (देखो जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम, सूत्र १२० की टीका)।
वेदमार्गणाके अनुसार स्त्रीवेदी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १०२॥ यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा देवियोंसे कुछ अधिक हैं ॥ १०३ ॥
देवराशिके तेतीस खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डके कम कर देनेपर देवियों का प्रमाण होता है । पुनः उसमें तिर्यंच व मनुष्य सम्बन्धी स्त्रीवेदराशिको जोड़ देनेपर सर्व स्त्रीवेदराशि होती है, इसीलिये 'स्त्रीवेदी देवियोंसे कुछ अधिक हैं' ऐसा कहा है।
पुरुषवेदी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १०४ ॥ यह सूत्र सुगम है।
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२८२]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ५, १०५. देवेहि सादिरेयं ॥ १०५॥
देवरासिं तेत्तीसखंडाणि कादण तत्थेगखंड देवाणं पुरिसवेदपमाणं । पुणो तत्थ तिरिक्ख-मणुस्सपुरिसवेदरासिम्हि पक्खित्ते सव्वपुरिसवेदपमाणं होदि ति देवेहि सादिरेयपमाणं होदि त्ति वुत्तं ।
णqसयदा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १०६ ॥ सुगमं । अणंता ॥ १०७ ॥
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो। तिविहे अणते दोण्हमणंताणं पडिसेहट्ट. मुत्तरसुत्तं भणदि--
अणंताणताहि ओसंप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ १०८ ॥
एदेण परित्त-जुत्ताणताणं जहणणअणंताणतस्स य पडिसेहो कदो, एदेसु अणंताण
पुरुषवेदी द्रव्यप्रमागकी अपेक्षा देवोंसे कुछ अधिक है ॥ १०५ ॥
देवराशिके तेतीस खण्ड करके उनसे एक खण्ड देवों में पुरुषवेदियों का प्रमाण है । पुनः उसमें तिर्यंच व मनुष्य सम्बन्धी पुरुषवेदराशिको जोड़ देनेपर सर्व पुरुषयेदियोंका प्रमाण होता है, इसी कारण 'पुरुषवेदियोंका प्रमाण देवोंसे कुछ अधिक है' ऐसा कहा है।
नपुंसकवेदी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १०६ ॥ यह सूत्र सुगम है। नपुंसकवेदी द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ १०७ ॥
इस सूत्र के द्वारा संख्यात व असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । अब तीन प्रकारके अनन्तमेसे दो अनन्तोंके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
नपुंसकवेदी कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे अपहृत नहीं होते हैं ॥ १०८॥
इस सूत्रके द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त और जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया
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२, ५, १११. 1 दव्यपमाणाणुगमे अवगदवेदाणं पमाणं
। २८३ ताणमोसप्पिणि-उस्सपिणीणमभावादो । दोसु अणंताणतेसु एक्कस्सावहारणद्वमुत्तरसुतं भणदि
खेत्तेण अणंताणंता लोगा ॥ १०९ ॥ एदेण उक्कस्साणताणंतस्स पडिसेहो कदो । कुदो ? लोगणिदेसणहाणुववत्तीदो। अवगदवेदा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ११० ॥ सुगम । अणंता ॥ १११ ॥
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । तिबिहे अणते कम्हि अवगदवेदाणं पमाणं होदि ? अणंताणते । कुदो ? अदीदकालस्स उक्कस्सजुत्ताणतं जहण्णमणताणतं च उल्लंधिय अजहण्णाणुक्कस्सागंताणतम्मि अवट्ठिदस्स असंखेज्जदिभागभूदअवगदवेदरासी अणंताणतो होदि ति अविरुद्धाइरियउवदेमादो । सेसं सुगमं ।
गया है, क्योंकि, इनमें अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियों का अभाव है। शेष दो अनन्तानन्तोंमेंसे एकके अवधारणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
नपुंसकवेदी क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ १०९॥
इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, अन्यथा लोकनिर्देशकी उपपत्ति नहीं बनती।
अपगतवेदी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ११० ॥ यह मूत्र सुगम है। अपगतवेदी द्रव्य प्रमाणसे अनन्त है ।। १११ ।। इस सूपके द्वारा संख्यात व असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है। शंका - तीन प्रकारके अनन्तमेसे कौनसे अनन्तमें अपगतवेदियोका प्रमाण है ?
समाधान-अपगतवेदियोंका प्रमाण अनन्तानन्त संख्या है, क्योंकि, उत्कृष्ट युक्तानन्त और जघन्य अनन्तानन्तको लांघकर अजघन्यानुत्कृष्ट अनन्तानन्तमें अवस्थित अतीत कालके असंख्यातवें भागभूत अपगतवेदराशी अनन्तानन्त है, ऐसा अविरुद्ध अर्थात् एक मतसे आचार्योंका उपदेश है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
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२८४] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ५, ११२. कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ११२॥
सुगमं । अणंता॥ ११३ ॥
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । तिविहे अगते एककस्साबहारण?मुत्तरसुत्तं भणदि--
अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ ११४॥
एदेण परित्त-जुत्ताणताणं जहण्ण अगताणंतस्स य पडिसेहो कदो, एदेसु अणंताणतोसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो। दोसु अणंताणतेसु एक्कस्सावहारणमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण अणंताणंता लोगा ॥ ११५॥
एदेण बुक्कस्सअणंताणंतस्स पडिसेहो कदो, लोगणिदेसणहाणुववत्तीदो । सेसं सुगमं ।
कषायमार्गणाके अनुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकपायी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ।। ११२ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त चारों कषायवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ ११३ ॥
इस सूत्र द्वारा संख्यात व असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है ! अब तीन प्रकारके अनन्तमेसे एकके अवधारणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उपर्युक्त चारों कषायवाले जीव कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियोंसे अपहन नहीं होते हैं ॥ ११४ ॥ - इस सूत्र द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त, और जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, इनमें अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। अब दो अनन्तानन्तोंमेंसे एकके अवधारणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं -
उक्त चारों कषायवाले जीव क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ ११५ ॥
इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, अन्यथा लोकनिर्देशकी उपपत्ति नहीं बनती। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
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२, ५, ११८.] दवपमाणाणुगमे मदि-सुदअण्णाणीणं पमाणं [२८५
अकसाई दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ११६ ॥ सुगमं । अणंता ॥ ११७॥
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । णवविधेसु अणतेसु कम्हि अकसाइरासी होदि ? अजहण्णाणुक्कस्सअणंताणते । कुदो ? जम्हि जम्हि अणंताणतयं मग्गिज्जदि तम्हि तम्हि अजहण्णाणुक्कस्समणंताणतयं घेत्तव्यं इदि परियम्मवयणादो। जदि अणंता. गंतयस्स गहणं तो 'अणताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि णावहिरंति कालेणेत्ति' किण्ण बुच्चदे ? ण, अदीदकालादो असंखेज्जगुणहीणाणभणवहरणविरोहादो । अणंताणंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ति किण्ण वुच्चदे ? ण, ओसप्पिणि-उस्सप्पिणिपमाणेण कीरमाणे अणंताणंताओ ओसप्पिणि-उस्पप्पिणीओ होति त्ति जुत्तिमिद्धत्तादो ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी णqसयभंगो॥११८॥ अकपायी जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ११६ ॥ यह सूत्र सुगम है। अकषायी जीव द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ ११७ ॥ इस सूत्रके द्वारा संख्यात व असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है। शंका- नौ प्रकारके अनन्तोंमें किस अनन्तमें अकषायी जीवराशि है ?
समाधान-अजघन्यानुत्कृष्ट अनन्तानन्तमें अकषायी जीवराशि है, क्योंकि, 'जहां जहां अनन्तानन्तकी खोज करना हो वहां वहां अजघन्यानुत्कृष्ट अनन्तानन्तको ग्रहण करना चाहिये' ऐसा परिकर्मका वचन है।
शंका -- यदि अनन्तानन्तका ग्रहण करना है तो 'कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे नहीं अपहृत होते हैं ' ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अतीत कालसे असंख्यातगुणे हीन अकषायी जीवोंके अपहृत न होनेका विरोध है।
शंका--तो फिर अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीप्रमाण है, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उनके अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीप्रमाणसे करनेपर अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियां होती है, यह युक्तिसे ही सिद्ध है। .
ज्ञानमार्गणाके अनुसार मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानियोंका प्रमाण नपुंसकवेदियोंके समान है ॥ ११८ ॥
१ प्रतिषु ' अणंतयं ' इति पाठः ।
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२८६) छक्खंडागमै खुद्दाबंधो
[२, ५, ११९. जया णqसयवेदस्स पमाणपरूवणा कदा तधा कादव्या, विसेसाभावादो । विभंगणाणी दब्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ११९ ॥ सुगमं । देवेहि सादिरेयं ॥ १२० ॥
बेछप्पण्णंगुलसदवग्गेण सादिरेगेण जगपदरम्मि भागे हिदे देवविभंगणाणियमाणं होदि । पुणो एत्थ तिगदिविभंगणाणिपमाणे पक्खित्ते सव्यविभंगणाणिपमाणं होदि त्ति देवेहि सादिरेयमिदि पमाणपरूवणं कदं । सेमं सुगमं ।
आभिणिबोहिय-सुद-ओधिणाणी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥१२१॥
सुगमं । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १२२ ॥ एदेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो, परित्त-जुत्तासंखेज्जाणमुक्कस्सअसंखेज्जा
जिस प्रकार नपुंसकवेदियोंकी प्रमाणप्ररूपणा की है उसी प्रकार मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानियों के प्रमाणकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है।
विभंगज्ञानी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ११९ ॥ यह सूत्र सुगम है। विभंगज्ञानी द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा देवोंसे कुछ अधिक हैं ॥ १२० ।।
साधिक दौसौ छप्पन अंगुलोंके वर्गका जगप्रतरमें भाग देनेपर देव विभंगशानियोंका प्रमाण होता है । पुनः इसमें तीन गतियों के विभंगज्ञानियों का प्रमाण जोड़नेपर समस्त विभंगज्ञानियोंका प्रमाण होता है, इसी कारण 'विभंगश कुछ अधिक है ' इस प्रकार उनकी प्रमाणप्ररूपणा की गयी है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी द्रव्यप्रमाणमे कितने हैं ? ॥ १२१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उक्त तीन ज्ञानवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ १२२ ॥
इस सूत्रसे संख्यात च अनन्तका प्रतिषेध किया गया है, साथ ही परीतासं
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२, ५, १२७.] दवपमाणाणुगमे केवलणाणीणं पमाणं
[२८७ संखेज्जस्स वि । जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जपडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण ॥ १२३ ॥
एत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागो अंतोमुहुत्तमिदि घेत्तव्यो । कुदो ? .. आइरियपरंपरागदुवदेसादो ।
मणपज्जवणाणी दवपमाणेण केवडिया ? ॥ १२४ ॥ सुगमं । संखेज्जा ॥ १२५॥ एदेण असंखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो । सेसं सुगमं । केवलणाणी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १२६ ॥ सुगमं । अणंता ॥ १२७ ॥ एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । सेसं सुगमं ।
ख्यात, युक्तासंख्यात और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है। जघन्य असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं --
उक्त तीन ज्ञानवाले जीवों द्वारा अन्तर्मुहूर्तसे पल्योपम अपहृत होता है ॥१२३॥
यहां आवलीका असंख्यातवां भाग अन्तर्मुहूर्त है, इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि ऐसा आचार्यपरम्परागत उपदेश है।
मनःपर्ययज्ञानी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १२४ ॥ यह सूत्र सुगम है। मनःपर्ययज्ञानी द्रव्यप्रमाणसे संख्यात हैं ॥ १२५ ॥
इस सूत्रके द्वारा असंख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
केवलज्ञानी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १२६ ॥ यह सूत्र सुगम है। केवलज्ञानी द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ १२७ ॥
इस सूत्र द्वारा संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
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२८८ ]
छक्खंडागमे खुद्दा
[ २, ५, १२८.
संजमाणुवादेण संजदा सामाइयच्छेदोवद्वावणसुद्धिसंजदा दव्व
पमाणेण केवडिया ? ॥ १२८ ॥
सुगमं ।
कोडितं ॥ १२९ ॥
एदं पि सुगमं ।
परिहारसुद्धिसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १३० ॥
सुगमं ।
सहसपुत्तं ॥ १३१ ॥
एदस्स परूवणाए जीवडाणभंगो ।
सुहुमसां पराइयसुद्धिसंजदा दव्यपमाणेण केवडिया ? ॥ १३२ ॥ सुगमं । सदपुत्तं ॥ १३३ ॥
संयममार्गणाके अनुसार संयत और सामायिक छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १२८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
संयत और सामायिक-छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत द्रव्यप्रमाणसे कोटिपृथक्त्वप्रमाण हैं ॥ १२९ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
परिहारशुद्धिसंयत द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १३० ॥
यह सूत्र सुगम है ।
परिहारशुद्धिसंयत द्रव्यप्रमाणसे सहस्रपृथक्त्व प्रमाण हैं ।। १३१ ।।
इसकी प्ररूपणा जीवस्थानके समान है । ( देखो जीवस्थान द्रव्यप्रमाणानुगम, सूत्र १५० की टीका ) ।
सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १३२ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत द्रव्यप्रमाणसे शतपृथक्त्वप्रमाण हैं ।। १३३ ॥
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२, ५, १३८. दयपमाणाणुगमे संजदासजदाणं पमाणं .
[ २८९ एदं पि सुगमं । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया? ॥१३४॥ सुगमं । सदसहस्सपुधत्तं ॥ १३५॥ एदस्स परूवणाए जीवट्ठाणभंगो । संजदासजदा दवपमाणेण केवडिया ? ॥ १३६ ॥ सुगमं । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो॥ १३७ ॥
एदेण संखेज्जाणंताणमुक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स य पडिसेहो कदो, एदेसि पडिवक्खसंखाणिदेसादो । जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जाओ हेडिमसंखेज्जाणं पडिसेहमुत्तरसुत्तं भणदि
एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण ॥ १३८ ॥ एत्थ अंतोमुहुत्तमिदि वुत्ते' असंखेज्जावलियाओ त्ति घेत्तव्वं । कुदो ? यह सूत्र भी सुगम है। यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १३४ ॥ यह सूत्र सुगम है। यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत द्रव्यप्रमाणसे शतसहस्रपृथक्त्वप्रमाण हैं ॥ १३५ ।।
इसकी प्ररूपणा जीवस्थानके समान है। (देखो जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम, पृ. ९७,४५०)।
संयतासंयत द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १३६ ॥ यह सूत्र सुगम है। संयतासंयत द्रव्यप्रमाणसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ १३७ ॥
इस सूत्रके द्वारा संख्यात, अनन्त और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, यहां इनके प्रतिपक्षभूत संख्याका निर्देश है । जघन्य असंख्यातासंख्यातसे नीचेके असंख्यातोंके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
संयतासंयतों द्वारा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहत होता है ॥ १३८ । यहां 'अन्तर्मुहूर्त' ऐसा कहनेपर 'असंख्यात आवलियां' ऐसा ग्रहण करना
१ प्रतिषु ' वुत्तं ' इति पाठः ।
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२९० ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ५, १३९. वइपुल्लवाइयस्स अंतोमुहुत्तस्स गहणादो । एदेण पलिदोवमे भागे हिदे संजदासंजददव्वमागच्छदि । सेसं सुगमं । .. असंजदा मदिअण्णाणिभंगो ॥ १३९ ॥
पज्जवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे जदि वि असंजदाणं तेहिंतो भेदो अस्थि तो वि असंजदा मदिअण्णाणिभंगो त्ति बुच्चदे, दबट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे भेदाभावादो ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदसणी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥१४॥ सुगमं । असंखज्जा ॥ १४१॥
एदेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो, तेसिं विरुज्झणिद्देसा । असंखेज्जं पि तिविहं । तत्थ अणहिययअसंखेज्जपडिसेहमुत्तरसुत्तमागदं
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसाप्पणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ १४२ ॥
चाहिये, क्योंकि, वैपुल्यवाची अन्तर्मुहर्तका यहां ग्रहण है । इस असंख्यात आवलीरूप अन्तर्मुहूर्तका पल्योपममें भाग देनेपर संयतासंयत द्रव्य आता है। (देखो जीवस्थानद्रव्यप्रमाणानुगम, पृ. ६९, ८७-८८ तथा स्पर्शनानुगम, पृ. १५७)। शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
असंयतोंका प्रमाण मतिअज्ञानियों के समान है ॥ १३९ ।।
पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर यद्यपि असंयतोंके मतिअज्ञानियोंसे भेद है, तथापि 'असंयतोंका प्रमाण मतिअज्ञानियोंके समान है' ऐसा कहा है, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर दोनों में कोई भेद नहीं है।
दर्शनमार्गणाके अनुसार चक्षुदर्शनी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १४ ॥ यह सूत्र सुगम है। चक्षुदर्शनी द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ १४१ ॥
इस सूत्रके द्वारा संख्यात और अनन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, यहां उनके विरुद्ध संख्याका निर्देश है। असंख्यात भी तीन प्रकार है। उनमेंसे अनधिकृत असंख्यातोंके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र प्राप्त होता है
चक्षुदर्शनी कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे अपहृत होते हैं । १४२ ।।
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२, ५, १४५.] दवपमाणाणुगमे ओहिंदसणीण पमाण
[२९१ एदेण परित्त-जुनासंग्वेज्जाणं जहण्णासंखेज्जासंखेजस्स य पडिसेहो कदो, एत्थ असंखेज्जासंखेज्जोसप्पिणि-उस्सप्पिणीगमभावादो । इच्छिदअसंखेज्जासंखेज्जस्स जाणावणमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण चक्खुदंसणीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण ॥ १४३ ॥
सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागं वग्गिय एदेण जगपदरम्म भागे हिदे चक्खु. दंसणिरासी होदि । एत्थ चरिंदियादिअपज्जत्तरासी चक्खुदंसणक्खओवसमलक्खिओ जदि घेप्पदि तो जगपदरस्स पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो होदि । णवरि सो एत्थ ण गहिदो, पज्जत्तरासिम्हि वा चक्खुईसणुवजोगाभावादो, दव्यचक्खुदंसणाभावादो वा । एदेण उक्कस्सामंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो को।
अचक्खुदंसणी असंजदभंगो ॥ १४४ ॥ कुदो ? दयट्टियणयावलंबणे भेदाभावादो । सेसं सुगमं । ओहिदंसणी ओहिणाणिभंगो ॥ १४५ ॥
इस सूत्रके द्वारा परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और जयन्य असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, इनमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोका अभाव है । इच्छित असंख्यातासंख्यातके ज्ञापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा चक्षुदर्शनियों द्वारा सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ।। १४३ ॥
सूच्यंगुल के संख्यातवें भागका वर्ग करके उसका जगप्रतरमें आग देनेपर चक्षुदर्शनीराशि होती है । यहां यदि चक्षुदर्शनावरण के क्षयोपशमले उपलक्षित चतुरिन्द्रियादि अपर्याप्त र शिका ग्रहण किया जाय तो प्रतरांगुल का असंख्यातवां भाग जगप्रतरका भागहार होता है । परन्तु उसे यहां नहीं ग्रहण किया, क्योंकि,
तराशिमें पर्याप्त राशिके समान चक्षुदर्शनोपयोगका अभाव है, अथवा द्रव्यचक्षदर्शनका अभाव है। (देखो जीवस्थान द्रव्यप्रमाणानुगम, सूत्र १५७ की टीका)। इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है।
अचक्षुदर्शनियोंका प्रमाण असंयतोंके समान है ।। १४४ ।।
क्योंकि, द्रव्यार्थिक नय का अवलम्बन करने पर दोनोंमें कोई भेद नहीं है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
अवधिदर्शनियोंका प्रमाण अवधिज्ञानियों के समान है ॥ १४५ ।।
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२९२]
छखंडागमे खुदाबंधो
[२, ५, १४६. सुगमं । केवलदसणी केवलणाणिभंगो ।। १४६ ॥ एदं पि सुगमं ।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिया असंजदभंगों ॥ १४७ ॥
कुदो ? दयट्टियणयावलंबणादो । पज्जवट्टियणर पुण अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो, सो जाणिय वत्तव्यो।
तेउलेस्सिया दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १४८ ॥
सुगम ।
जोदिसियदेवेहि सादिरेयं ॥ १४९ ॥ बेछप्पण्णंगुलसदबग्गेण सादिरेगेण जगपदरम्मि भागे हिदे जोदिसियदेवा तेउ
यह सूत्र सुगम है। केवलदर्शनियोंका प्रमाण केवलज्ञानियों के समान है ॥ १४६ ।। यह सूत्र भी सुगम है।
लेश्यामार्गणाके अनुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंका प्रमाण असंयतोंके समान है ॥ १४७ ।।
क्योंकि, यहां द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन किया गया है । परन्तु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर विशेषता है, उसे जानकर कहना चाहिये ।
तेजोलेश्यावाले द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १४८ ।। यह सूत्र सुगम है। तेजोलेश्यावाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा ज्योतिषी देवोंसे कुछ अधिक हैं ॥१४९।। साधिक दो सौ छप्पन अंगुलोंके वर्गका जगप्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध हो
१ कृष्ण-नील कापोतलेश्या एकशी द्रव्यप्रमाणेनानन्तानन्ताः, अनन्तानन्ताभिम् सपिण्यवसर्पिणीमि प. हियन्ते कालेन, क्षेत्रेणानन्तानन्तलोकाः । त. रा. ४, २२, १०.
२ तेजोलेश्या द्रव्यत्रमाणेन ज्योतिदेवाः साधिकाः । त. स. ४.२२, १०.
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२, ५, १५३.] दयपमाणाणुगमे सुक्कलेस्सियाणं पमाणं । २९३ लेस्सिया होति । पुणो तत्थ भवणवासिय-वाणवेतर-तिरिक्ख-मणुस्सतेउलेस्सियरासिम्हि पक्खित्ते सव्या तेउलेस्सियरासी होदि । तेण जोदिसियदेवेहि सादिरेयमिदि वुत्तं । सेस सुगमं ।
पम्मलेस्सिया दब्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १५०॥ . सुगमं । मणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणं संखेज्जदिभागों ॥ १५१ ॥
संखेज्जपदरंगुलेहि तप्पाओग्गेहि जगपदरम्मि भागे हिदे पम्मलेस्सियरामी होदि । सेसं सुगमं ।
सुक्कलेस्सिया दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १५२ ॥ सुगमं । पलिदोवमस्स असंखेजदिभागों ॥ १५३ ॥
उतने तेजोलेश्यावाले ज्योतिषी देव हैं। पुनः उसमें भवनवासी, वानव्यन्तर, तिर्यच और मनुष्य तेजोलेश्यावालोंकी राशिको जोड़नेपर सर्व तेजोलेश्यावालोंकी राशि होती है। इसी कारण 'तेजोलेश्यावालोंका प्रमाण ज्योतिषी देवोंसे कुछ अधिक है ऐसा कहा है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
पद्मलेश्यावाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १५० ।। यह सूत्र सुगम है। संजी पंचेन्द्रिय तियच योनिमतियोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ १५१ ॥
तत्प्रायोग्य संख्यात प्रतरांगुलोका जगप्रतरमें भाग देनेपर पद्मलेश्यावालोंका प्रमाण होता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
शुक्ललेश्यावाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ॥ १५२ ॥ यह सूत्र सुगम है।
शुक्ललेश्यावाले जीव द्रव्यप्रमाणसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ १५३॥
, पदमलेश्या द्रव्यप्रमाणेण संक्षिपंचेन्द्रियतिर्यग्योनीनां संख्यभागाः । त. रा. ४, २२, १०. २ शुललेश्या पल्योपमस्यासंखेयभागाः । त. रा. ४, २२, १०.
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२९४ ]
छडागमे खुदाबंधो
[ २, ५, १५४.
एदेण संखेज्जाणंताणं पडिसेहो कदो । कुदो ? एदेसिं विरुद्धसंखाणिद्देसादो । अणिच्छिद असंखेज्जपडिसेहमुत्तरमुत्तं भणदि -
एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्ते ॥ १५४ ॥
एत्थ अवहार कालो असंखेज्जावलियमेत्तो । एदेण परिदोवमे भागे हिदे सुक्कलेसरासी होदि । सेसं सुगमं ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिया दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १५५ ॥
सुगमं ।
अणंता ॥ १५६ ॥
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो, सव्वस्स वयणस्स सपबिक्खुक्खणणेण अपणो अत्थस्स पदुपायणादो । अणिच्छिदाणतेसु भवियरासिस्स पडिसेहमुत्तरसुतं भणदि -
--
अनंताणंताहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण
।। १५७ ॥
इस सूत्र के द्वारा संख्यात और अनन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, यहां इनके विरुद्ध संख्याका निर्देश है । अनिच्छित असंख्यात के प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
शुक्लेश्यावाले जीवों द्वारा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत होता है || १५४ ॥ यहां अवहारकाल असंख्यात आवलीमात्र है । इसका पल्येोपममें भाग देने पर शुक्लेश्यावाले जीवोंका प्रमाण होता है । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
भव्य मार्गणा के अनुसार भव्यसिद्धिक द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ।। १५५ ॥ है ।
यह सूत्र सुगम
भव्य सिद्धिक जीव द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ।। १५६ ।।
इस सूत्र के द्वारा संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, सभी बचन अपने प्रतिपक्षका निराकरण कर स्वकीय अभीष्ट अर्थके प्रतिपादक होते हैं । अनिच्छित अनन्तोंमें भव्यराशिके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
मव्यसिद्धिक कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी- उत्सर्पिणियोंसे अपहृत नहीं होते ।। १५७ ॥
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२, ५, १६०.] दव्यपमाणाणुगमे अभवसिद्धियाणं पमाणं
(२९५ एदेण परित्त-जुत्ताणताणं जहण्णअणंताणतस्स य पडिसेहो कदो, एदेसु अणंताणंतोसप्पिणि-उस्मप्पिणीणमभावादो । अणवहरणं पि अदीदकालग्गहणादो । सेसं सुगमं । अणिच्छिदाणताणतपडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण अणंताणंता लोगा॥ १५८ ॥
एदेण उक्कस्सअणताणंतस्स पडिसेहो कदो, अर्णताणताणि सव्वपज्जयपढमवग्गमूलाणि त्ति अभणिय अणंताणंतलोगवयणादो । सेसं सुगम ।
अभवसिद्धिया दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १५९ ॥ सुगमं। अणंता ॥ १६०॥ जहण्णजुत्ताणंतमिदि घेत्तव्यं । कुदो ? आइरियपरंपरागयउवदेसादो । कथं एदस्स
...........................................
इस सूत्रके द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त और जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, इनमे अनन्तानन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणियोंका अभाव है। अपहृत न होनेका कारण भी यह है कि यहां अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे केवल अतीत कालका ग्रहण किया गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । अनिच्छित अनन्तानन्तके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
भव्यसिद्धिक जीव क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ १५८ ॥
इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, 'सर्व पर्यायोंके प्रथम वर्गमूलप्रमाण अनन्तानन्त' ऐसा न कहकर अनन्तानन्त लोकोंका कथन किया गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
अभव्यसिद्धिक द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १५९ ॥ यह सूत्र सुगम है। अभव्य सिद्धिक द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ १६० ॥
यहां अनन्तसे 'युक्तानन्त' ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इस प्रकार आचार्यपरम्परागत उपदेश है ।
शंका-व्ययके न होनेसे व्युच्छित्तिको प्राप्त न होनेवाली अभव्यराशिके
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२९६ ) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ५, १६१. अव्वए' संते अयोच्छिज्जमाणस्स अणंतववएमो? ण, अणंतस्स केवलणाणस्स चेव विसए अवहिदाणं संखाणमुवयारेण अणंतत्तविरोहाभावादो ।
सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्मादिट्ठी उवसमसम्मादिट्टी सासणसम्माइट्टी सम्मामिच्छाइट्ठी दवपमाणेण केवडिया ? ॥ १६१॥
सुगमं । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १६२ ॥
एदेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो, उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स वि । अणिच्छिदअसंखेज्जपडिसेहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहत्तेण ॥ १६३ ॥ एत्थ सम्मादिट्ठी-वेदगसम्मादिट्ठीणमवहारकालो आवलियाए असंखज्जदिभागो
'अनन्त' यह संक्षा कैसे सम्भव है ?
__ समाधान-नहीं, क्योंकि, अनन्तरूप केवलज्ञानके ही विषयमें अवस्थित संख्याओंके उपचारसे अनन्तपना मानने में कोई विरोध नहीं आता।
सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सभ्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १६१ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ १६२॥
इस सूत्रके द्वारा संख्यात और अनन्तका तथा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है । अनिच्छित असंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उक्त जीवों द्वारा अन्तर्मुहूर्तसे पल्योपम अपहृत होता है ॥ १६३ ॥ यहां सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल आवलीके असंख्यातवें
१ प्रतिषु — ववए ' इति पाठ : ।
२ अप्रतौ वाच्छिण्णस्स माणस्स', आप्रती । वोछिब्जमाणस्स', काप्रतौ । वोछिज्जस्स माणस्स' मप्रतौ ' वोच्छिज्जमाण्णस्स माणस्स ' इति पाठ ।
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२, ५, १६७. ]
दव्यमाणागमे सण्ण असण्णीणं प्रमाणं
[ २९७
त्ति घेत्तव्त्रो। कुदो ? सुत्ताविरुद्धगुरूवदेसादो । खइयसम्माइडीणं पुण संखज्जावलियाओ, अवसे साणमसंखेज्जावलियाओ त्ति घेत्तव्यं । सेसं सुगमं ।
मिच्छारट्टी असंजदभंगो ॥ १६४ ॥
कुदो ? दव्चट्ठियणयावलंबणे दोहं रासीणं भेदाणुवलंभादो | सणियाणुवादेण सण्णी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १६५ ॥ सुमं ।
देवेहि सादिरेयं ॥ १६६ ॥ .
कुदो ? देवा सच्चे सणणो, तत्थ णेरइय- मणुस्सरासिमसंखेज्जसेडिमेतं पुणो जगपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ततिरिक्खसण्णिरासिं च पक्खित्ते सयलसण्णीणं पमाणुपत्तदो । सेसं सुगमं ।
असण्णी असंजदभंगो ॥ १६७ ॥
एदं पि सुगमं ।
भागमात्र ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, ऐसा सूत्रसे अविरुद्ध गुरूपदेश है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल संख्यात आवली तथा शेष उपशमसम्यग्दृष्टि आदि तीनका अवहारकाल असंख्यात आवलीप्रमाण ग्रहण करना चाहिये । शेष सूत्रार्थ सुगम हैं ।
मिथ्यादृष्टियों का द्रव्यप्रमाण असंयत जीवोंके समान है ॥ १६४ ॥
क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर मिथ्यादृष्टि और असंयत इन दोनों राशियों में कोई भेद नहीं है ।
संज्ञिमार्गणानुसार संज्ञी जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १६५ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
संज्ञी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा देवोंसे कुछ अधिक हैं ।। १६६ ।।
क्योंकि, देव सब संज्ञी हैं; उनमें असंख्यात श्रेणिमात्र नारक और मनुष्य राशिको तथा जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण तिर्यच संज्ञिराशिको मिलानेपर समस्त संशियोंका प्रमाण उत्पन्न होता है । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
असंज्ञी जीवोंका प्रमाण असंयतों के समान है ॥ १६७॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
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२९८ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ५, १६८. आहाराणुवादेण आहारा अणाहारा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥१६८॥
सुगमं ।
अणंता ॥ १६९॥
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । तिविहेसु अणंतेसु अणिच्छिदाणंतपडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ १७०॥
एदेण परित्त-जुत्ताणताणं जहण्णअणताणतस्स य पडिसेहो कदो, एदेसु अणंताणतोसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । उक्कस्सअणंताणंतस्स पडिसेहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण अणंताणंता लोगा ॥ १७१ ॥ एवं पि सुगमं ।
___ एवं दव्यपमाणाणुगमो त्ति समत्तमणिओगहारं ।
आहारमार्गणाके अनुसार आहारक और अनाहारक जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १६८ ॥
यह सूत्र सुगम है। आहारक और अनाहारक जीव द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ १६९ ॥
इस सूत्रके द्वारा संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । तीन प्रकारके अनन्तोंमें अनिच्छित अनन्तोंके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
___ आहारक और अनाहारक जीव कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणीउत्सर्पिणियोंसे अपहृत नहीं होते हैं ॥ १७०॥
इस सूत्रके द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त और जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, इनमें अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। उत्कृष्ट अनन्तानन्तके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
आहारक और अनाहारक जीव क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ।।१७१॥ यह सूत्र भी सुगम है।
इस प्रकार द्रव्यप्रमाणानुगम अनियोगद्वार समाप्त हुआ।
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खेत्ताणुगमो
खेत्तागमेण गदियाणुवादेण निरयगदीए णेरड्या सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १ ॥
तत्थ सत्थाणं दुविहं सत्थाणसत्थाणं विहारवदिसत्थाणमिदि । वेयण-कसायवेउन्विय-मारणंतिय भेएण समुग्धादो चउन्विहो । एत्थ रइएस आहारसमुग्धादो णत्थि, महिद्विषत्तार्णमिसीणमभावादो । केवलिसमुग्धादो चि णत्थि, तत्थ सम्मत्तं मोत्तूण वयगंधस्स वि अभावादो | तेजइयसमुग्धादों वि तत्थ णत्थि, विणा महव्वएहि तदभावादो । उववादो एगविहो । तत्थ वेदणावसेण ससरीरादो बाहिमेगपदेसमादिं काढूण जावुकस्सेण ससरीरतिगुण विपुंजणं वेयणसमुग्धादो णाम । कसायतिव्वदाए ससरीरादो जीवपदेसाणं तिगुणविपुंजणं कसायसमुग्धादो णाम । विविहिद्धिस्स माहप्पेण संखेज्जासंखेज जोयणाणि सरीरेण ओहिय अट्ठाणं वेउब्वियसमुग्धादो णाम । अष्पष्पणो अच्छिदपदमादो
क्षेत्रानुगमसे गतिमार्गणा के अनुसार नरकगतिमें नारकी जीव स्वस्थान, समुद्रघात और उपपाद से कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ १ ॥
इनमें स्वस्थान पद स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थानके भेदसे दो प्रकार है | वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणंतिक के भेद से समुद्घात चार प्रकार है । यहां नारकियोंमें आहारकसमुद्घात नहीं है, क्योंकि, महर्धिप्राप्त ऋषियोंका वहां अभाव है । केवलिसमुद्घात भी नहीं है, क्योंकि, वहां सम्यक्त्वको छोड़ व्रतका गन्ध भी नहीं है । तैजससमुद्घात भी वहां नहीं है, क्योंकि, विना महाव्रतोंके तैजससमुद्घात नहीं होता । उपपाद एक प्रकार है । इनमें वेदनाके वशसे अपने शरीर से बाहर एक प्रदेशको आदि करके उत्कर्षतः अपने शरीर से तिगुणे आत्मप्रदेशोंके फैलने का नाम वेदनासमुद्घात है । कषायकी तीव्रतासे जीवप्रदेशोंका अपने शरीर से तिगुणे प्रमाण फैलने को कषायसमुद्घात कहते हैं । विविध ऋद्धियोंके माहात्म्य से संख्यात व असंख्यात योजनोंको शरीर से व्याप्त करके जीवप्रदेशों के अवस्थानको वैक्रियिकसमुद्घात कहते हैं । आयामकी
१ प्रतिषु ' महिद्दित्ताण' इति पाठः ।
२ आ-काप्रत्योः ' तेजइयसमुग्वादे ' इति पाठः ।
३ अप्रतौ ' तिगुणाविपुंजणं ', आ-काप्रत्योः ' तिगुणविपुंजण ' इति पाठ: ।
४ अ-काप्रत्योः · विविहिद्दिस्स ' इति पाठः ।
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३०० छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२, ६, १. जाव उप्पजमाणखेत्तं ति आयामेण एगपदेसमादि कादूण जावुक्कस्सेण सरीरतिगुणबाहल्येण कंडेक्कखंभट्ठियत्तोरण-हल-गोमुत्तायारेण अंतोमुहुत्तावट्ठाणं मारणंतियसमुग्धादो णाम । उववादो दुविहो- उजुगदिपुव्यओ विग्गहगदिपुचओ चेदि । तत्थ एक्केक्कओ दुविहो- मारणंतियसमुग्धादपुयओ तबिवरीदओ चेदि । तेजासरीरं दुविहं पसत्थमप्पसत्थं चेदि । अणुकंपादो दक्खिणंसविणिग्गयं डमर-मारीदिपसमक्खमं दोसयरहिदं सेदवणं णव-बारहजोयणरुंदायामं पसत्थं णाम, तबिवरीदमियरं । आहारसमुग्धादो णाम हत्थपमाणेण सव्यंगसुंदरेण समचउरससंठाणेण हंसधवलेण रस-रुधिरमांस-मेदहि-मज-सुक्कसत्तधाउववजिएण विसाम्गि-सत्यादिसयलबाहामुक्केण वज्ज-सिलाथंभ-जलपचयगमणदच्छेण सीसादो उग्गएण देहेण तित्थयरपादमूलगमणं । दंड-कवाडपदर-लोगपूरणाणि केवलिसमुग्घादो णाम | अप्पप्पणो उप्पण्णगामाईणं सीमाए अंतो परिभमणं सत्थाणसत्थाणं णाम । तत्तो बाहिरपदेसे हिंडणं विहारवदिसत्थाणं णाम । तत्थ 'णेरइया अप्पणो पदेहि केवडिखेत्ते होति' त्ति आसंकासुत्तं । एवमासंकिय उत्तर
अपेक्षा अपने अपने अधिष्ठित प्रदेशसे लेकर उत्पन्न होने के क्षेत्र तक, तथा बाहल्यसे एक प्रदेशको आदि करके उत्कर्षतः शरीरस तिगुण प्रमाण जीवप्रदेशोक काण्ड, एक खर स्थित तोरण, हल व गोमूत्रके आकारसे अन्तर्मुहूर्त तक रहनेको मारणान्तिकसमुद्घात कहते हैं । (देखो पुस्तक १, पृ. २९९)। उपपाद दो प्रकार है- ऋजुगतिपूर्वक और विग्रहगतिपूर्वक । इनमें प्रत्येक मारणांतिकसमुद्घातपूर्वक और तद्विपरीतके भेदसे दो प्रकार है। तैजसशरीर प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकार है। उनमें अनुकम्पासे प्रेरित होकर दाहिने कंधेसे निकले हुए, राष्ट्रविष्ठव और मारी आदि रोगविशेषके शान्त करनेमें समर्थ, दोष रहित, श्वेतवर्ण, तथा नौ योजन विस्तृत एवं बारह योजन दीर्घ शरीरको प्रशस्त, और इससे विपरीतको अप्रशस्त तैजसशरीर कहते हैं। हस्तप्रमाण, सर्वाङ्गसुन्दर, समचतुरस्त्रसंस्थानसे युक्त, हंसके समान धवल; रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र, इन सात धातुओंसे रहित; विष, अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधाओंसे मुक्त वज्र, शिला, स्तम्भ, जल व पर्वतमेंसे गमन करनेमें दक्ष; तथा मस्तकसे उत्पन्न हुए शरीरसे तीर्थकरके पादमूलमें जानेका नाम आहारकसमुद्घात है। दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप जीवप्रदेशोंकी अवस्थाको केवलिसमुद्घात कहते अपने अपने उत्पन्न होने के ग्रामादिकोंकी सीमाके भीतर परिभ्रमण करनेको स्वस्थानस्वस्थान और इससे बाह्य प्रदेशमें घूमनेको विहारवत्स्वस्थान कहते हैं। उनमें नारकी जीव अपने पदोंसे कितने क्षत्रमें रहते हैं' यह आशंकासूत्र है। इस प्रकार शंका करके
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१ प्रति 'दमर-मारीदिपसमक्खमा दृ दोसयरहिदं ', मप्रती 'दमरमारीदिदोसक्खमा दोसयरहिदं' इति पाटः।
२ प्रतिषु ' णवारह ' इति पाठः। ३ प्रतिपु सथल- ति पाठ: । ४ प्रति 'पञ्चय- ' इति पाठः ।
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खेत्ताणुगमे गैरइयखेत्तपरूवर्ण
[ ३०१
सुत्तं भणदि
लोगस्स असंखेजदिभागे ॥२॥
एत्थ लोगो पंचविहो- उड्डलोगो अधोलोगो तिरियलोगो मणुसलोगो सामण्णलोगो चेदि । एदेसिं पंचण्हं पि लोगाणं लोगग्गहणेण गहणं कादब्वं । कुदो ? देसामासियत्तादो । णेरइया सव्यपदेहि चदुण्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागे होति, माणुसलोगादो असंखजगुणे । तं जहा- सत्थाणसत्थाणरासी मूलरासिस्स संखेजा भागा, विहारवदिसत्थाणवेयण-कसाय-उब्वियसमुग्घादरासीओ मूलरासिस्स संखेज्जदि भागो । एदमत्थपदं सव्वत्थ वत्तव्यं । पुणो सत्थाणसत्थाणादिणेरइयरासीओ ठविय अंगुलस्स संखेञ्जदिभागमेत्तओगाहणाहि गुणिय तेरासियकमेण पंचहि लोगेहि ओवट्टिदे चदुण्णं लोगाणमसंले. जदिभागो, माणुसलोगादो असंखेज्जगुणमागच्छदि । णवरि चेयण-कसाय-बेउब्धियसमुग्यादेसु ओगाहणा गवगुणा कायव्या। मारणंतियखेत्ते आणिजमाणे विदियपुढविदव्वादो आणेदव्वं, तत्थ रज्जुमेत्तायामुवलंभादो । पढमपुढविमारणंतियखेत्तं घेत्तण
ओवट्टणा किण्ण कीरदे, असंखेज्जगुणदव्यदसणादो, आवलियाए असंखेज्जदिभागउत्तर सूत्र कहते हैं
नारकी जीव उक्त तीन पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥२॥
यहां लोक पांच प्रकारका है- ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक, मनुष्यलोक और सामान्यलोक । यहां लोकके ग्रहणसे इन पाचों ही लोकोंका ग्रहण करना चाहिये क्योंकि, यह सूत्र देशामर्शक है । नारकी जीव सर्व पदोंसे चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थानराशि मूलराशिके संख्यात बहुभाग तथा विहारवत्स्वस्थानराशि, वेदनासमुद्घातराशि, कषायसमुद्घातराशि एवं वैक्रियिकसमुद्घातराशि, ये राशियां मूलराशिके संख्यातवें भागप्रमाण होती हैं । यह अर्थपद सर्वत्र कहना चाहिये । पुनः स्वस्थान
आदि नारकराशियोंको स्थापित कर अंगुलके संख्यातवें भागमात्र अवगाहनाओसे गुणित कर त्रैराशिकमसे पांच लोकोसे (पृथक् पृथक् ) अपवर्तित करनेपर चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र लब्ध होता है। विशेषता यह है कि वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातमें अवगाहना नौगुणी करना चाहिये । ( जीवस्थानकी क्षेत्रप्ररूपणामें चैक्रियिकसमुद्घातके लिये अवगाहना नौगुणी नहीं किन्तु संख्यातगुणी अलगसे कही गई है। देखो पु. ४, पृ. ६३)। मारणांतिक क्षेत्रके निकालते समय उसे द्वितीय पृथिवीके द्रव्यसे निकालना चाहिये, क्योंकि, वहां राजुमात्र आयामकी उपलब्धि है।
शंका-प्रथम पृथिवीके मारणांतिकक्षेत्रको ग्रहण कर अपवर्तना क्यों नहीं की आती, क्योंकि, वहां असंख्यातगुणा द्रव्य देखा जाता है, तथा आवलीके असंख्यातवें
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३०२ छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ६, २. मेत्तुवक्कमणकालुवलंभादो च ? ण, तत्थ संखेज्जजोयणमेत्तमारणंतियखेत्तायामदसणादो। पढमपुढवीए वि विग्गहगईए कधं मारणंतियजीवाणमसंखेज्जजोयणायाम मारणंतियखेत्तमुवलब्भदे ? ण, असंखेजसेडिपढमवग्गमूलमेत्तायाममारणंतियखेत्तजीवाणं बहुआणमणुवलंभादो । तेण विदियपुढविदव्ये पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुवकमणकालेण भागे हिदे एगसमएण मरंतजीवाण पमाणं होदि । पुगो एदेसिमसंखेज्जदिभागो मारणंतिएण विणा कालं करेदि, बहुआणं सुहपाणीणमभावादो असंखेज्जा भागा मारणंतियं करेंति । मारणंतियं करेंताणमसंखेज्जदिभागो उजुगदीए मारणंतियं करेदि, अप्पणो द्विदपदेसादो कंडुज्जुवखेत्तम्हि उप्पज्जमाणाणं बहुआणमणुवलंभादो । विग्गहगदीए मारणंतियं करेंताणमसंखेज्जदिभागो मारणतिएण विणा विग्गहगदीए उप्पजमाणरासी होदि, तेण मरंतजीवाणं असंखेज्जे भागे मारणंतियकालभंतरउपक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेण गुणिदे मारणंतियकालम्हि संचिदरासिपमाणं होदि । पुणो तम्भुहवित्थारण णवरज्जुगुणेण गुणिदे मारणंतियखेत्तं होदि ।
भागमात्र उपक्रमणकालकी भी उपलब्धि है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहां संख्यात योजनमात्र मारणान्तिक क्षेत्रका आयाम देखा जाता है।
शंका-तो फिर प्रथम पृथिवीमें भी विग्रहगतिमें मारणान्तिक जीवोंका असंख्यात योजन आयामवाला मारणान्तिक क्षेत्र कैसे उपलब्ध होता है ? (देखो पु.४, पृ. ६३-६४)
समाधान-नहीं, क्योंकि, असंख्यात श्रेणियों के प्रथम वर्गमूलमात्र आयामवाले मारणान्तिक क्षेत्र में बहुत जीवोंकी अनुपलब्धि है।
__इसलिये द्वितीय पृथिवीके द्रव्यमें पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालका भाग देनेपर एक समयसे मारणान्तिक जीवोंका प्रमाण होता है । पुनः इनके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव मारणान्तिकसमुद्घातके विना ही कालको करते हैं, तथा वहां बहुत पुण्यवान् प्राणियोंका अभाव होनेसे असंख्यात बहुभागप्रमाण जीव मारणान्तिकसमुद्घातको करते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात करनेवालोंके असंख्यातवें भागमात्र ऋजुगतिसे मारणान्तिकसमुद्घात करते हैं, क्योंकि, अपने स्थित प्रदेशसे बाणके समान ऋजु क्षेत्र में उत्पन्न होनेवाले बहुत जीव नहीं पाये जाते । विग्रहगतिसे मारणान्तिक समुद्घातको करनेवालोंके असंख्यातवें भागप्रमाण मारणान्तिकके विना विग्रहगतिसे उत्पन्न होनेवाली राशि है, इस कारण मरनेवाले जीवोंके अंसख्यात बहुभागको आवलीके असंख्यातवें भागमात्र मारणान्तिककालके भीतर उपक्रमणकालसे गुणित करनेपर मारणान्तिककालमें संचित राशिका प्रमाण होता है। पुनः उसे नौराजुगुणित मुखविस्तारसे गुणा करनेपर मारणान्तिक क्षेत्र होता है। यहां भी पांच लोकोका अपवर्तन
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२, ६, ३. ] खेत्ताणुगमे णेरइयखेत्तपरूवणं
[३०३ एत्थ वि पंचलोगोवट्टणं पुव्वं व कायव्यं ।
__उववादखेसे आणिज्जमाणे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण विदियपुढविदव्वे भागे हिदे तिरिक्खेहितो विदियपुढवीए उप्पज्जमाणरासी होदि । एदस्स असंखेज्जदिभागो चेव उजुगदीए उप्पज्जदि, कंडुज्जुएण मग्गेण सगउप्पत्तिट्ठाणमागच्छमाणजीवाणं बहुयाणमणुवलंभादो । तेणेदस्स असंखेज्जा भागा विग्गहगदीए उप्पज्जमाणतिरिक्खरासी होदि । पुणो एदं दव्वं तिरिक्खोगाहणमुहवित्थारेण तप्पाओग्गअसंखेज्जजोयणगुणेण गुणिदे उववादखेत्तं होदि । ओवट्टणा पुव्वं व कायव्वा । सेसं जाणिय वत्तव्यं ।
एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया ॥३॥
कुदो ? सत्थाण-समुग्धाद-उववादेहि लोगस्स असंखेज्जदिभागत्तं पडि विसेसाभावादो । एसो दव्यट्ठियणयं पडुच्च णिद्देसो । पज्जवट्ठियणयं पडुच्च परूविज्जमाणे सत्तण्हं पुढवीणं दव्यविसेसो ओगाहणविसेसो मारणंतिय-उववादखेत्ताणमायामविसेसो च अत्थि । णवरि सो जाणिय वत्तव्यो।
पूर्वके समान करना चाहिये।
उपपादक्षेत्रके निकालनेमें पल्यापमक असंख्यातवें भागसे द्वितीय पृथिवीके द्रव्यको भाजित करनेपर तिर्यंचोंसे द्वितीय पृथिवीमें उत्पन्न होनेवाली राशि होती है। इसका असंख्यातवां भाग ही ऋजुगतिसे उत्पन्न होता है, क्योंकि, बाणके समान ऋजु मार्गसे अपने उत्पत्तिस्थानको आनेवाले जीव बहुत नहीं पाये जाते । इसीलिये इसके असंख्यात बहुभागप्रमाण विग्रहगातसे उत्पन्न होनेवाली तिर्यचराशि है। पुनः इस द्रव्यको तत्प्रायोग्य असंख्यात योजनसे गुणित तिर्यचौकी अवगाहनारूप मुखविस्तारसे गुणित करनेपर उपपादक्षेत्र होता है । अपवर्तन पूर्वके समान करना चाहिये। शेष नानकर कहना चाहिये।
___ इसी प्रकार सात पृथिवियोंमें नारकी जीव उपर्युक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ३ ॥
क्योंकि, स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागत्वके प्रति कोई विशेषता नहीं है। यह निर्देश द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे है । पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा प्ररूपण करनेपर सात पृथिवियोंके द्रव्य की विशेषता, अवगाहनाकी विशेषता और मारणान्तिक एवं उपपाद क्षेत्रोंके आयामकी विशेषता भी है । इसलिये उसे जानकर कहना चाहिये ।
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३०४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधी
[२, ६, ४. तिरिक्खगदीए तिरिक्खा सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥४॥
सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतिय उववादपदाणि तिरिक्खेसु अत्थि, अवसेसाणि णत्थि । एदेहि पदेहि तिरिक्खा केवडिखेत्ते होति त्ति आसंकिय परिहारं भणदि
सव्वलोए ॥ ५॥
कुदो ? आणंतियादो । ण च ण सम्मांति त्ति आसंकणिज्ज, लोगागासम्मि अणंतोगाहणसत्तिसंभवादो। विहारवदिसत्थाणखेत्तं तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं । कुदो ? तसपज्जत्ताणं तिरिक्खाणं संखेज्जदिभागम्मि विहारुवलंभादो। तदो एदं पुध परूवेदव्वं ? ण, सत्थाणम्मि एदस्संतम्भूदत्तणेण पुध परूवणाभावादो । वेउब्बियस मुग्पादखेत्तं चदुण्हं
तियंचगतिमें तिथंच स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसंमुद्घात,मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद, ये पद तिर्यंचोंमें होते हैं, शेष नहीं होते। 'इन पदोंसे तियच कितने क्षेत्रमें रहते हैं ' इस प्रकार आशंका करके उसका परिहार कहते हैं
तिथंच जीव उक्त पदोंकी अपेक्षा सर्व लोकमें रहते हैं ? ॥ ५॥
क्योंकि, वे अनन्त हैं । अनन्त होनेसे वे लोकमें नहीं समाते हैं, ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि, लोकाकाशमें अनन्त अवगाहनशक्ति सम विहारवत्स्वस्थानक्षेत्र तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, त्रस पर्याप्त तियचोंका तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें विहार पाया जाता है।
शंका-स्वस्थानस्वस्थानसे विहारवत्स्वस्थानक्षेत्रमें विशेषता होनेके कारण इसकी पृथक् प्ररूपणा करना चाहिये ? । ....समाधान नहीं, क्योंकि, स्वस्थानमें इसका अन्तर्भाव होनेसे पृथक् प्ररूपणा नहीं की गई।
वैक्रियिकसमुद्घातका क्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मनुष्यक्षेत्रसे
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२, ६, ७.] खेत्ताणुगमे तिरिक्खखेत्तपरूवणं
[ ३०५ लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणं । कुदो ? तिरिक्खेसु विउव्वमाणरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तघणंगुलेहि गुणिदसेडीमेत्तो त्ति गुरूवदेसादो । तम्हा एदस्स पुधपरूवणा कादया ? ण, एदस्स समुग्घादे अंतभावादो । सेसं सुगमं ।
पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोगिणी पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ६॥
एदमासंकासुत्तं सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ७ ॥
एदं देसामासियं सुत्तं, देसपदुप्पायणमुहेण सूचिदाणेयत्थादो । एत्थ ताव पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपञ्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणं वुच्चदे। तं जहा- एदे
असंख्यातगुणा है, क्योंकि, तियचोंमें विक्रिया करनेवाली राशि पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र घनांगुलोंसे गुणित जगश्रेणीप्रमाण है, ऐसा गुरुका उपदेश है।
शंका- चूंकि तिर्यंचोंके वैक्रियिकसमुद्घातक्षेत्रमें विशेषता है इस कारण इसकी पृथक् प्ररूपणा करना चाहिये?
समाधान नहीं, क्योंकि, इसका समुद्घातमें अन्तर्भाव हो जाता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती और पंचेन्द्रिय तियंच अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ॥ ६ ॥
यह आशंकासूत्र सुगम है।
उपर्युक्त चार प्रकारके तिथंच उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ७ ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि, एक देश कथनकी मुख्यतासे अनेक अर्थोंको सूचित करता है। यहां पहले पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंका क्षेत्र कहा जाता है । वह इस प्रकार है- ये तीनों ही स्वस्थानस्वस्थान,
१ प्रतिषु — सूचिदाणेयादो' इति पाठः ।
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३०६] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ६, ७. तिणि वि सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायसमुग्यादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? एदेसि संखेज्जघणंगुलोगाहणत्तादो। पंचिंदियतिरिक्खेसु अपज्जत्तरासी होदि बहुओ, तक्खेत्तेण किण्ण ओवट्टणा कीरदे ? ण, तत्थ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागोगाहणम्मि बहुवखेत्ताणुवलंभादो । विहारपाओग्गरासिस्स संखेज्जा भागा सत्थाणसत्थाणरासीए एत्थ संखेज्जदिभागमेत्ता सेसरासीओ त्ति घेत्तव्यं ।
वेउव्वियसमुग्धादखेत्तं चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं । कुदो ? तिरिक्खेसु विउवमाणरासिस्स असंखेज्जघणंगुलेहि गुणिदसेडिमेत्तपमाणुवलंभादो। एदे तिणि वि मारणंतियसमुग्घादगदा तिण्हं लोणाणमसंखेज्जदिमागे अच्छंति । कुदो ? एदेसिं तिण्हं पंचिंदियतिरिक्खाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तभागहारुवलंभादो । तं जहा- एदाओ तिण्णि वि रासीओ पहाणीभूदसंखेजवस्साउअतिरिक्खोवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे एगसमएण मरंतजीवाणं पमाणं होदि । एदेसिमसंखेज्जदिभागो चेव मारणंतिएण विणा णिप्फिड
विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त होकर तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, ये संख्यात धनांगुलप्रमाण अवगाहनावाले हैं ।
शंका-पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें अपर्याप्त राशि बहुत है, इसलिये उनके क्षेत्रसे क्यों नहीं अपवर्तन करते?
समाधान-नहीं, क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंमें अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहना होनेसे बहुत क्षेत्रकी प्राप्ति नहीं होती। विहारप्रायोग्यराशिके संख्यात बहुभागप्रमाण एवं स्वस्थानस्वस्थान राशिके संख्यातवें भागमात्र यहां शेष राशियां हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
वैक्रियिकसमुद्घातक्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, तिर्यंचोंमें विक्रिया करनेवाली राशिका प्रमाण असंख्यात घनांगुलोंसे गुणित जगश्रेणीमात्र पाया जाता है। ये तीनों ही तिर्यच मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त होकर तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं, क्योंकि, इन तीनों पंचेन्द्रिय तिर्यचौके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र भागहार उपलब्ध है । वह इस प्रकार है- इन तीनों ही राशियों में प्रधानभूत संख्यातवर्षायुष्क तिर्यचोंके उपक्रमणकालरूप आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर एक समयमें मरनेवाले जीवोंका प्रमाण होता है । इनके असंख्यातवें भाग ही मारणान्तिकसमुद्घातके विना मरण करने
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२, ६, ७.] खेत्ताणुगमे तिरिक्खखेत्तपरूवणं
३०७ माणरासि त्ति कटु एदस्स असंखेज्जे भागे मारणंतियउवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे गुणगारुवक्कमणकालादो भागहारुवक्कमणकालो संखेजगुणो त्ति उवरिमगुणगारेण हेट्ठिमभागहारमावलियाए असंखेज्जदिभागमोवट्टिय सेसेण भागे हिदे सग-सगरासीणं संखेज्जदिभागो आगच्छदि । पुणो असंखेज्जजोयणाण मुक्कमारणंतियजीव इच्छिय अण्णेगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्यो । पुणो एदं गसिं रज्जुगुणिदसंग्वेज्जपदरंगुलेहि गुणिदे मारणतियखेत्तं होदि । एदेण तिसु लोगेसु भागे हिदेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि ति तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे अच्छंति त्ति वुत्तं । णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे ।
तिण्हं रासीणमुववादखेत्तं पि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणं । एदस्स खेत्तस्स पमाणे आणिज्जमाणे मारणंतियभंगो । णवरि एगसमयसंचिदो एसो रासि त्ति कट्ट आवलियअसंखेज्जदिभागो गुणगारो अवणेदव्यो । पढमदंड
वाली राशि है, ऐसा जानकर इसके असंख्यात बहुभागको मारणान्तिक उपक्रमणकालरूप आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर चूंकि गुणकारभूत उपक्रमणकालसे भागहारभूत उपक्रमणकाल संख्यातगुणा है, इसलिये उपरिम गुणकारसे आवलीके असंख्यातवें भागरूप अधस्तन भागहारका अपवर्तन करके शेषका भाग देनेपर अपनी अपनी राशियोंका संख्यातवां भाग आता है । पुनः असंख्यात योजनों तक मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले जीवोंकी इच्छाराशि स्थापित कर अन्य पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र भागहारको स्थापित करना चाहिये। पुनः इस राशिको राजुसे गुणित असंख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणित करनेपर मारणान्तिक क्षेत्रका प्रमाण होता है। इसका तीन लोकोंमें भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग लब्ध होता है । इसीलिये 'तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ' ऐसा कहा है। उक्त जीव मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त होकर मनुष्यलोक और तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। ( देखो पुस्तक ४, . पृ. ७१-७२)।
__उक्त तीन राशियोंका उपपादक्षेत्र भी तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा है। इस क्षेत्रके प्रमाणके निकालनेकी रीति मारणान्तिकक्षेत्रके समान है। विशेष इतना है कि यह राशि एक समय संचित है, ऐसा जानकर आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार अलग करना चाहिये। प्रथम
१ प्रतिषु — रज्जुगुणिदअसंखेज्जपदरंगुलेहि ' इति पाठः ।
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३०८) छक्खंडागमे खुद्दाबंधी
[२, ६, ८. मुवसंहरिय बिदियदंडट्ठिदजीवे इच्छिय अवरो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्यो।
पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? उस्सेधघणंगुले पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदे एगखंडमेत्तोगाहणादो। मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? दो-तिष्णिपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत भागहाराणं जहाकमेण मारणंतिय-उववादवेत्तेसु उवलंभादो । सेसं सुगमं ।
मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी सत्थाणेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ८॥
एत्थ सत्थाणणिदेपेण सत्थाणमत्थाण-विहारवदिमत्थाणाणं गहणं, सत्थाणतणेण दोण्हं भेदाभावादो । सेसं सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिमागे ॥९॥
दण्डका उपसंहार कर द्वितीय दण्डमें स्थित जीवोंकी इच्छा कर अन्य पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहार स्थापित करना चाहिये ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव स्वस्थान, बेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त होकर चार लोकों के असंख्यातवें भाग में तथा अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, उत्सेध घनांगुलको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर एक खण्डमात्र पंचन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंकी अवगाहना लब्ध होती है। मारणान्तिक और उपपादको प्राप्त पंचेन्द्रिय तियेच तीन लोकांके असंख्यातवे भाग में तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुण क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, पल्योपमके दो व तीन असंख्यातवें भागमात्र भागहार यथाक्रमसे मारणान्तिक और उपपाद क्षेत्रों में उपलब्ध हैं। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
__ मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी स्वस्थान व उपपाद पदमे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ८ ॥
इस सूत्रमें 'स्वस्थान के निर्देशसे स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान दोनोंका ग्रहण किया गया है, क्योंकि, स्वस्थानपनेसे दोनोंमें कोई भेद नहीं है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
उक्त तीन प्रकारके मनुष्य स्वस्थान व उपपाद पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥९॥
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२, ६, ९.]
खेत्ताणुगमे मणुस्सखेत्तपरूवणं एत्थ लोगणिदेसो देसामासियो, तेण पंचण्डं लोगाणं गहणं होदि । एदेण मूचिदत्थस्स परूवणं कस्सामो । तं जहा-- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणद्विदतिविहा मणुसा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे अच्छंति । कुदो ? मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुमणीणं संखेज्जजीवाणं खेत्तरगहणादो। सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तमणुसअपज्जत्ताणं सत्थाणखेत्तम्स गहणं किण्ण कीरदे ? ण, तस्स अंगुलस्स संखेज्जदिभागे संखेज्जंगुलेसु वा णिचियक्कमेण अवट्ठाणादो । उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? पहाणीकदमणुसअपज्जत्तउववादखेत्तादो । णवरि मणुसपज्जत्त-मणुसणीणमुववादखेत्तं चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं । मणुसाणमुववादखेत्ताणयणविहाणं कुच्चदे । तं जहा- मणुस अपज्जत्तरासिमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालेण दोहि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेहि य ओवट्टिय पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागोवट्टिदपदरंगुलेण गुणिदसेडीसत्तमभागेण गुणिदे उववादखेत्तं होदि । एत्थ पंचलोगोषणं जाणिय कायछ । सेसं सुगमं ।
__ सूत्र में लोकका निर्देश देशामर्शक है, इसलिये उससे पांचों लोकों का ग्रहण होता है। इस सूत्रसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान
और विहारवत्स्वस्थानमें स्थित तीन प्रकारके मनुष्य चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं, क्योंकि यहां मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी, इन संख्यात जीवोंके क्षेत्रका ग्रहण है।
शंका-जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र मनुष्य अपर्याप्तोंके स्वस्थानक्षेत्रका ग्रहण क्यों नहीं किया जाता? ।
समाधान-नहीं, क्योंकि, मनुष्य अपर्याप्तराशिका अंगुलके संख्यातवें भागमें अथवा संख्यात अंगुलोंमें संचितक्रमसे अवस्थान है।
उपपादको प्राप्त उक्त तीन प्रकारके मनुष्य तीन लोकों के असंख्यातचे भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां मनुष्य अपर्याप्तोंके उपपादक्षेत्रकी प्रधानता है। विशेषता यह है कि मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंका उपपादक्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग तथा अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा है । मनुष्योंके उपपादक्षेत्रके निकालनेके विधानको कहते हैं । वह इस प्रकार हैमनुष्य अपर्याप्त राशिको आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालसे तथा पल्योपमके दो असंख्यात भागोंसे अपवर्तित करके पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित प्रतरांगुलसे गुणित जगश्रेणीके सातवें भागसे गुणित करनेपर उपपादक्षेत्र होता है । यहां पांच लोकोंका अपवर्तन जानकर करना चाहिये । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
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३१० छक्खंडागमे खुदाबंधी
[ २, ६, १०. समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ॥१०॥
एत्थ समुग्धादणिद्देसो दवट्ठियणयमवलंबिय ह्रिदो, संगहिदवेदण-कसाय-बेउव्विय-मारणंतिय-तेजाहार-दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणत्तादो । सेमं सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ११ ॥
जेण एवं देसामासियं सुत्तं तेणेदेण सूइदत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहावेदण-कसाय-वेउब्धिय-तेजहारसमुग्घादगदा तिविहा मणुसा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । णवरि मणुसिणीसु तेजाहारं णत्थि । मारणंतियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, पर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छंति। कुदो ? पहाणीकदमणुसअपज्जत्तखेतादो। णवरि मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं मारणंतियवेत्तं चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणं । एवं दंड-कवाडखेत्ताणं पि बत्तव्वं । णवरि कवाडखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो । संपहि पदर-लोगपूरण
उक्त तीन प्रकारके मनुष्य समुद्घातसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १० ॥
यहां समुद्घातका निर्देश द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करके स्थित है, क्योंकि, यह पद वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तैजस, आहार, दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण, इन सब समुद्घातोंका संग्रह करनेवाला है । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
उक्त तीन प्रकारके मनुष्य समुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ११ ॥
चूंकि यह देशामर्शक सूत्र है अतः इसके द्वारा सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-वेदना, कषाय, वैक्रियिक, तैजस और आहारक समुद्घातको प्राप्त तीन प्रकारके मनुष्य चार लोकोके असंख्यातवें भागमे तथा मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। विशेष इतना है कि मनुष्यनियोंमें तैजस और आहारक समुद्घात नहीं होते । मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त तीन प्रकारके मनुष्य तीन लोकोंके असंख्यातवे भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, यहां मनुष्य अपर्याप्तोंका क्षेत्र प्रधान है । विशेष इतना है कि मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंका मारणान्तिक क्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग तथा मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार दण्ड और कपाट क्षेत्रोंका भी प्रमाण कहना चाहिये। परन्तु इतना विशेष है कि कपाटक्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है । अब प्रतर और
१ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठ ।
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२, ६, १४.]
खेत्ताणुगमे मणुस्सखेत्तपरूवणं समुग्धादे पडुच्च खेत्तपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जेसु वा भाएसु सव्वलोगे वा ॥ १२ ॥
पदरसमुग्घादे लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु अट्ठाणं होदि, वादवलएसु जीवपदेसाणमभावादो। लोगपूरणसमुग्घादे सबलोगे अवट्ठाणं होदि, जीवपदेसविरहिदलोगागासपदेसाभावादो । अधवा सचमेदमेकं चेव सुत्तमेक्कस्स समुग्घादगदस्स तिसु अवट्ठाणेसु खेत्तभेदपदुप्पायणादो।
मणुसअपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १३॥
सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १४ ॥
एदं देसामासियसुतं, तेणेदेण सूचिदत्थपरूवणं कस्सामो तं जहा-सत्थाण. वेदण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे
लोकपूरण समुद्धातों की अपेक्षा कर क्षेत्रनिरूपणके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
समुद्घातकी अपेक्षा उक्त तीन प्रकारके मनुष्य लोकके असंख्यात बहुभागोंमें अथवा सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १२ ॥
प्रतरसमुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागोंमें अवस्थान होता है, क्योंकि, वातवलयोंमें जीवप्रदेशोंका अभाव रहता है। लोकपूरणसमुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोकमें अवस्थान होता है, क्योंकि, इस अवस्थामें जीवप्रदेशोंसे रहित लोकाकाशके प्रदेशोंका अभाव है। अथवा यह सब एक ही सूत्र है, अर्थात् उपर्युक्त दोनों सूत्र भिन्न नहीं है, किन्तु एक ही सूत्ररूप हैं, क्योंकि, एक केवलि समुद्घातगत जीवकी तीन अवस्थाओं में क्षेत्रभेदका कथन करते हैं ।
मनुष्य अपर्याप्त स्वस्थान, समुद्घात और उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मनुष्य अपर्याप्त उपर्युक्त तीन पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ १४ ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस पृकार है- स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त मनुष्य अपर्याप्त चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें संचित
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३१२] छखंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ६, १४. णिचियक्कमेण । विण्णासकमेण' पुण असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणाओ। मारणंतियसमुग्घादगदा. तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । मारणंतियखेत्ताणयणविहाणं वुच्चदे - सूचिअंगुलपढम-तदियवग्गमूले गुणेदूण जगसेडिम्हि भागे हिदे दव्वं होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जभागमेत उवक्कमणकालेण भागे हिदे एगसमयसंचिदमरंतरासी होदि । एदस्स असंखेज्जदिभागो मारणंतिएण विणा णिप्फिडमाणरासी होदि । पुणो मारणंतियरासिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण मारणंतियउवक्कमणकालेण गुणिदे मारणंतियकालभंतरे संचिदरासी होदि । पुणो अवरेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे रज्जुआयामेण पलिदोवमअसंखेज्जदिभागेणोवट्टिदपदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण विक्खंभेण मुक्कमारंणतियरासी होदि । पुणो एदस्स ओगाहणगुणगारे ठविदे मारणंतियखेत्तं होदि । एत्थ ओवट्टणं जाणिय कायव्वं ।
क्रमसे रहते हैं। परन्तु विन्यासक्रमसे मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणी असंख्यात योजन कोटियां मनुष्य अपर्याप्तोंका क्षेत्र है । मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त हुए मनुष्य अपर्याप्त तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोक एवं तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । मारणान्तिक क्षेत्रके निकालने का विधान कहते हैं- सूच्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गमूलोंका परस्परमें गुणा कर जगश्रेणीमें भाग देनेपर मनुष्य अपर्याप्तोंका द्रव्यप्रमाण प्राप्त होता है। उसमें आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालका भाग देनेपर एक समय संचित मरनेवाले मनुष्य अपर्याप्तोंकी राशि होती है। इसके असंख्यातवें भागप्रमाण मारणान्तिकसमदघातके विना मरण करनेवाली राशि है। पुनः मारणान्तिक राशिको आवलीके असंख्यातवें भागरूप मारणान्तिक उपक्रमणकालसे गुणित करनेपर मारणान्तिक कालके भीतर संचित राशिका प्रमाण होता है । पुनः अन्य पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर जो लब्ध हो उतना, राजुप्रमाण आयामसे तथा पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण विष्कम्भसे मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले मनुष्य अपर्याप्तों का प्रमाण होता है । पुनः इसके अवगाहनागुणकारके स्थापित करनेपर, अर्थात् इस राशिको अवगाहनासे गुणित करनेपर, मनुष्य अपर्याप्तकोंका मारणान्तिक क्षेत्र होता है। यहां अपवर्तन जानकर करना चाहिये।
१ प्रतिषु · विणासकमेण ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'संचिदमारणंतियरासी' इति पाठः ।
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२, ६, १५.] खेत्ताणुगमे देवखेत्तपरूवणं
[३१३ उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एत्थ उववादखेत्तं मारणंतियखेत्तं व ठवेदव्यं । णवीर एसो रासी एगसमयसंचिदो त्ति आवलियाए असंखेज्जदिमागगुणगारो ण दादयो । पढमदंडमुवसंहरिय बिदियदंडेण सेडीए संखेज्जदिभागायामेण' मुक्कमारणंतियजीवे इच्छिय अण्णेगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्यो । एत्थ ओवट्टणा पुव्वं व कायव्यं ।
देवगदीए देवा सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ?
एत्थ तेजाहार-केवलिसमुग्धादा णत्थि, देवेसु तेसिमत्थित्तविरोहादो। किं सबलोगे कि लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु किं वा संखेज्जदिभागे किमसंखेज्जदिभागे किमणंतिमभागे किं वा संखेज्जासंखेज्जाणंतलोगेसु ति पुच्छिदे उत्तरमुत्तं भणदि । अधवा आसंकिदसुत्तमेदं । वासदेण विणा कधमासंकावगम्मदे १ तेण विणा वि तदहावगदीदो।
उपपादको प्राप्त मनुष्य अपर्याप्त तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोक एवं तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । यहां उपपादक्षेत्रको मारणान्तिक क्षेत्रके समान स्थापित करना चाहिये। विशेष इतना है कि यह राशि एक समयसंचित है, अतएव आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार नहीं देना चाहिये। प्रथम दण्डका उपसंहार कर द्वितीय दडसे गश्रेणीके संख्यातवें भागप्रमाण आयामसे मुक्तमारणान्तिक जीवोंकी इच्छाराशि स्थापित कर एक अन्य पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहार स्थापित करना चाहिये । यहां अपवर्तन पूर्वके समान करना चाहिये।
देवगतिमें देव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥१५॥
यहां तैजससमुद्धात, आहारकसमुद्धात और केवलिसमुद्घात नहीं है,क्योंकि, देवों में इनके अस्तित्वका विरोध है। 'क्या सर्व लोकमें, क्या लोकके असंख्यात बहुभागोम, क्या लोकके संख्यातव भागमें, क्या लोकके असंख्यातवे भागमें, क्या लोकके
त भागमें. अथवा क्या संख्यात. असंख्यात व अनन्त लोकोंमें रहते हैं। ऐसा पूछनेपर उत्तर सूत्र कहते हैं । अथवा यह आशंकासूत्र है।
शंका-वा शब्दके विना कैसे आशंकाका परिज्ञान होता है ? समाधान- क्योंकि, वा शब्दके विना भी उस अर्थका परिक्षान हो जाता है।
१ अप्रतौ · असंखेज्जदिभागायामेण ' इति पाठः।
२ अ-आप्रयोः 'वेसद्देण ' इति पाठः।
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छक्खंड | गमे खुदाबंधो
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १६ ॥
सत्थाण
देसामासियसुत्तमिदं, तेणेदेण सूचिदत्यस्स परूवणं कीरदे । तं जहासत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेयण-कसाय वेउच्चियसमुग्वादगदा देवा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? पहाणीकदजोइसियक्खेत्तादो । विहारवदिसत्थाण- वेयण- कसाय- वेउच्चियरासीओ सग-सगरासीणं सव्वत्थ संखेज्जदिभागमेत्ताओ, सत्थाणसत्याणरासी सगरासिस्स सव्वत्थ संखेज्जाभागमेत्ता त्ति क णव्वदे ? ण, गुरूवदेसादो, एदेसु पदेस दिदेवा तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे अच्छंति त्ति वक्खाणादो वा णच्वदे | मारणंतिय समुग्वादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे पर- तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छति । एदस्स खेत्तस्स वणविहाणं बुच्चदे । तं जहा- एत्थ वाणवेतरखेत्तं पहाणं, तत्थतणसंखेज्ज
३१४ ]
[ २, ६, १६.
देव उपर्युक्त पदों से लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ।। १६ ।।
यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कपायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त देव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में, और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां ज्योतिषी देवोंका क्षेत्र प्रधान है । विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कपायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त राशियां सर्वत्र अपनी अपनी राशियों के संख्यातवें भागमात्र और स्वस्थानस्वस्थानराशि सर्वत्र अपनी राशिके संख्यात बहुभागप्रमाण होती है ।
-
शंका- 'विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कपायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त राशियां अपनी अपनी राशियोंके संख्यातवें भागमात्र है, तथा स्वस्थानस्वस्थानराशि सर्वत्र अपनी राशिके संख्यात बहुभागप्रमाण है' यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- -नहीं, क्योंकि, उपर्युक्त राशियोंका प्रमाण गुरुके उपदेश से जाना जाता है । अथवा 'इन पदोंमें स्थित देव तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं' इस व्याख्यान से जाना जाता है ।
मारणान्तिकसमुद्वातको प्राप्त देव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । इस क्षेत्रके स्थापनाविधानको कहते हैं । वह इस प्रकार है- यहां वानव्यन्तरोंका क्षेत्र प्रधान है, क्योंकि, वहां पर
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२, ६, १६.] खेत्तायुगमै देवखेत्तारूवणं
[ ३१५ बासाउएसु तत्थ ट्ठियअसंखेज्जवासाउएहितो असंखेज्जगुणेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालुवलंभादो । तेण वेंतररासिं ठविय मारणंतियउवक्कमणकालेणोवट्टिदसगुवक्कमणकालसंखेज्जरूवेहि भागे हिदे मुक्कमारणंतियजीवा होंति । तेसिमसंखेज्जदिभागो ईसिफ्भारादि उवरिमपुढवीसु उप्पज्जदि त्ति पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो दादयो । तिरिक्खेसु रज्जुमे गंतूणुप्पज्जमाणजीवाणमागमणटुं च पुणो पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेगम्भस्थसंखेज्जरज्जूहि गुणिदे मारगतियखेतं होदि ।
___ उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, पर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छति । एदस्स सेत्तस्स विण्णासो मारणंतियभंगो। णवरि तिरिक्खरासिं तिरिक्खाणमुवक्कमणकालेग आवलियाए असंखेज्जदिभागेगोवट्टिय पुणो देवेसुप्पज्जमाणरासिमिच्छिय तपाओग्गअसंखेज्जरवेहि ओवट्टिय रज्जुमेत्तं गंतूगुप्पज्जमाणजीवाणं पमाणागमण8 पलिदोत्रमस्प असंखेज्जदिभागो भागहारो दादयो । पुणो विदियदंडेण रन्जुसंखेजदिभागमेतायदजीवाणं पउरं संभवाभावादो पुणो अण्णेगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो
स्थित असंख्यातवर्षायुष्कों की अपेक्षा असंख्यातमुणे महांक संख्यातवर्षाप्कोम आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालकी उपलब्धि है । इसलिये व्यन्तरराशिको स्थापित कर मारणान्तिक उपक्रमणकालसे अपवर्तित अपने उपक्रमणकालरूप संख्यात रूपोंका भाग देनेपर मक्तमारणान्तिक जीवोंका प्रमाण होता है। उनका असंख्यातवां भाग ईपत्ताग्भारादि उपरिम पृथिवियों में उत्पन्न होता है, इसलिये पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहार देना चाहिये । तिर्यचोंमें राजमात्र जाकर उत्पन्न होनेवाले जीवोंके आगमनार्थ पुनः प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे गुणित संख्यात राजुओंसे गुणित करनेपर मारणा न्तिक क्षेत्र होता है।
उपपादको प्राप्त देव तीन लोकोंके असंख्यात भागमें तथा मनुष्यलोक व विरलोकसे असंख्यातगणे क्षेत्र में रहते हैं। इस क्षेत्रका विन्यास मारणान्तिक अत्रके समान है। विशेष इतना है कि तिर्यंचराशिको तिर्यंचों के उपक्रमणकाल रूप आवलीके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित कर पुनः देवों में उत्पन्न होनेवाली राशिकी इच्छा कर तत्प्रायोग्य असंख्यात रूपोंसे अपवर्तित कर राजुप्रमाण जाकर उत्पन्न होनेवाले जीवोंके प्रमाणको लानेके लिये पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहार देना चाहिये । पुनः द्वितीय दण्डसे राजुके संख्यातवें भागमात्र आयामको प्राप्त जीवोंकी प्रचुर संभावना न होनेसे पुनः एक और अन्य पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहार देना चाहिये । पुनः
१ कप्रती · ईसयपभारादि ' इति पाठः ।
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३१६ ]
डागमे खुदा
[ २, ६, १७.
भांगहारो दादव | पुणे संखेज्जपदरंगुलगुणिदजगसेडि संखेज्जभागेण गुणिदे उववादखेतं होदि । एत्थ पंचलोगोवदृणं जाणिय कायव्यं ।
भवणवासिय पहुडि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा देवरादिभंगो ॥ १७ ॥
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एसो दव्वणि षडुच्च णिदेसो, पज्जवद्वियणए अवलंबिज्जमाणे अत्थि विसेसो । तं जहा- सत्थाणसत्याण-विहारख दिसत्थाण वेदण-कसाय - वेउच्चियसमुग्धादगदा भवणवासियदेवा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एत्थ खेतविण्णासो जाणिय कायच्यो । उववादगदाणं पि एवं चैव वत्तव्यं । तिरिक्खमसाणं विग्ग काढूण भवणवासियदेवेस सेडीए संखेज्जदिभागायामेण विदियदंडे विवादाणमुववादखेत्तं तिरियलोगादो असंखेज्जगुणं किण्ण लब्भदे ? दमसंभवादो । एविग्ग काऊ तत्थुष्पण्णाणमुववादखेत्तायामो ण तात्र असंखेज्जजोयणमेत्तो 'सोलस दुखरो भागो पंकबहुलो य तह चुलासीदि । आवबहुलो असीदि' चि सुतेग सह विरोहादो ।
संख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणित जगश्रेणिके संख्यातवें भागसे गुणित करनेपर उपपादक्षेत्र होता है । यहां पांच लोकोंका अपवर्तन जानकर करना चाहिये ।
भवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों का क्षेत्र देवगतिके समान है ।। १७ ।।
यह निर्देश द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा है, पर्यायार्थिक नयका अवलंवन करनेपर विशेषता है । वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, बेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घाद और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त भवनवासी देव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहां क्षेत्रविन्यास जानकर करना चाहिये । उपपादको प्राप्त भवनवासी देवोंके भी क्षेत्रका इसी प्रकार कथन करना चाहिये |
शंका - दो विग्रह करके भवनवासी देवों में जगश्रेणी के संख्यातवें भागप्रमाण आयाम से द्वितीय दण्ड में प्राप्त तिर्येच मनुष्योंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोकले असंख्यातगुणा क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान - ऐसा नहीं पाया जाता, क्योंकि असंभव है। एक विग्रह करके भवनवासियों में उत्पन्न होनेवाले तिर्यच मनुष्योंके उपपादक्षेत्रका आयाम असंख्यात योजनमात्र नहीं है, क्योंकि, ' खरभाग सोलह सहस्र योजन, पंकबहुलभाग चौरासी सहस्र योजन, और अध्यहुलभाग अस्सी सहस्र योजन मोटा है' इस सूत्र के साथ विरोध होगा ।
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२, ६, १७.] खेत्ताणुगमे देवखेत्तपरूवर्ण
[ ३१७ लोगंते ठाइदण हेट्ठा गंतूग एगविग्गहं करिय तिरिच्छेण रज्जूर संखेज्जदिभागं गंतूगुप्पण्णाणं विदियदंडायामो सेडीए संखेज्जदिभागमेत्तो लब्भदि त्ति णेदं पि घडदे, तेसिं सुटु थोवत्तादो । तं कुदो वगम्मदे ? तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो त्ति वक्खाणाइरियवयणादो । ण दोण्णि विग्गहे काऊणुप्पण्णाणं विदिय-तदियदडाणं संजोगो सेडीए संखेज्जदिभागायामो सेडिं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदएगखंडा. यामो वा लब्भदि त्ति वोत्तुं जुत्तं, कंडुज्जुबवट्ठाए सव्वदिसाहितो आगंतूण एगविग्गहं काऊण उप्पज्जमाणजीहितो दो विग्गहे कादूग उप्पज्जमाणजीवाणमसंखेज्जदिभागत्तादो। तदो भवणवासियाणमुत्रवादखेत्तं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो त्ति सिद्धं । मारणंतियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे णर-तिरियलोगादो' असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? सत्यागादो अद्वरज्जुमेत्तं तिरिच्छेण गंतूग एगविग्गहं करिय संखज्जरज्जूओ उर्दू गंतूण सगउप्पत्तिहाणं पत्ताणं तदुवलंभादो । वाणवेतर-जोदिसियाणं देवगदिभंगो
लोकान्तमें स्थित होकर नीचे जाकर एक विग्रह करके तिर्यग्रूपसे राजुके संख्यातवें भाग जाकर उत्पन्न होनेवालोंके द्वितीय दण्डका आयाम जगश्रेणीके संख्यातवें भागमात्र प्राप्त है, यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, वे बहुत थोड़े हैं।
शंका-यह कहांसे जाना जाता है ?
समाधान-' उपपादगत भवनवासियोंका क्षेत्र तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग है ' इस प्रकार व्याख्यानाचार्योंके वचनसे जाना जाता है। दो विग्रह करके उत्पन्न हुए जीवोंके द्वितीय व तृतीय दण्डके संयोगमें जगश्रेणीके संख्यातवें भागप्रमाण आयाम, अथवा जगश्रेणीको पल्योपमके असंख्यातवें भागले खण्डित करनेपर एक खण्डप्रमाण आयाम प्राप्त है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, बाणके समान ऋजु अवस्थामें सर्व दिशाओंसे आकर एक विग्रह करके उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी अपेक्षा दो विग्रह करके उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातवें भागमात्र हैं। इसलिये भवनवासियोंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, यह बात सिद्ध हुई।
मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त देव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, स्वस्थानसे अर्ध राजुमात्र तिरछे जाकर एक विग्रह करके संख्यात राजु ऊपर जाकर अपने उत्पत्तिस्थानको प्राप्त हुए उक्त देवोंके उपर्युक्त क्षेत्र पाया जाता है।
वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके क्षेत्रका प्ररूपण देवगतिके समान है, जो
१ प्रतिषु ' भागे णत्तिरियलोगादो ' इति पाठः ।
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३१८]
छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२, ६, १७. ण विरुज्झदे, सत्थाणादिसु तिरियलोगस्त संखेज्जदिभागुवलंभादो । णवरि जोदिसिएसु उवक्कमणकालो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, संखज्जवासाउआणमभावादो ।
सोहम्मीसाणा' सत्थाण-विहारवदिसत्याग-वेयण-कसाय बेउब्धियसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे अच्छति। एत्थ सग-सगखेत्तविण्णासो काययो । अप्पणो ओहिक्खेतमेत्तं देवा विउव्यंति त्ति जं वयणं तण्ण घडदे, लोगस्स असंखेज्जदिभागमेत्तवेउब्धियखेत्तप्पहुडिप्पसंगादो। मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेजगुगे अच्छति । एत्थ ताव उववादखेत्तविण्णासो कीरदे । तं जहा- सगविक भसूचिगुणिदसेडिं ठत्रिय पलिदोवमरस असंखेज्जदिभागेण सोहम्मीसाणुवामगकालेग ओवट्टिदे उप्पजमाणजीवा होति । पहापत्थडे उप्पजमाणजीवाणमागमणट्टमवरेगो पलिदोवमस्य असंग्वेजदिभागो भागहारो टवेदव्यो । पुणो एदस्य पदरंगुलगुणिदसेडीए संखेजदिमागे गुणगारेण ठविदे उववादखेत्तं होदि । एवं चेत्र मारणंतियखेत्तपरिकचा कायया ।
..............
विरुद्ध नहीं है; क्योंकि, स्वस्थानादिक पदों में तिर्यग्लोकका संख्यातयां भाग पाया जाता है। विशेष इतना है कि ज्योतिषी देवों में उपक्रमणकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, उनमें संख्यात वर्षकी आयुवालोंका अभाव है।
स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनास नुदात, कपायसमुद्घात और वैऋियिकसमुद्घातको प्राप्त सौधर्म-ईशान कल्पवासी देव चार लोकोंक असंख्यातवें भाग तथा मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहां अपना अपना क्षेत्रविन्यास करना चाहिये। 'देव अपने अवधिक्षेत्रप्रमाण विक्रिया करते हैं' इस प्रकार जो यह वचन है वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसामानने में लोकके असंख्यात भागमात्र वैक्रियिकक्षेत्रादिका प्रसंग आता है । (देखो पुस्तक ४, पृ. ७९-८०)।
मारणान्तिक व उपपादको प्राप्त उक्त देव तीन लोकों के असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । यहां उपपादक्षेत्रका विन्यास करते हैं। वह इस प्रकार है-अपनी विष्कम्भसूचीसे गुणित जगश्रेणीको स्थापित कर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सौधर्म-ईशान कल्पवासी देवोंके उपक्रमणकालसे अपवर्तित करनेपर उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण होता है। प्रभा प्रस्तारमें उत्पन्न होनेवाले जीवोका प्रमाण जानने के लिय एक अन्य पल्यापमका असंख्यातयां भाग भागहार स्थापित करना चाहिये । पुनः इसके प्रतरांगलसे गणित जगश्रेणीके संख्यातवें भागको गुणकार रूपसे स्थापित करनेपर उपपादक्षेत्रका प्रमाण होता है। इसी प्रकार ही मारणान्तिकक्षेत्रकी परीक्षा करना चाहिये।
१ प्रतिषु ' सोहम्मीसाण ' इति पाठः।
२ प्रतिषु · संखेन्जदि-' इति पाठः ।
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२, ६, १७.] खेत्ताणुगमे देवखेत्तपरूवणं
[ ३१९ सणक्कुमारप्पहुडिउवरिमदेवा सव्यपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, अड्डाइजादो असंखेजगुणे अच्छंति । णवरि सबढदेवा सत्थाणसत्थाण-वेयण-कसाय-बेउवियपदपरिणदा माणुसखेत्तस्स संखेजदिमागे अच्छति । कथं ? सबढे वेयण-कसायसमुग्वादाण तेहिंतो समुप्पज्जमाणथोवविपुंजणं पहुच्च तधोवदेसादो, कारणे कज्जोवयारादो वा । एत्थ देवाणमोगाहणाणयणे उवउजंतीओ गाहाओ
पणुवीस असुराणं सेसकुमाराण दस धणू होति । उतर-जोदिसियाणं दस सत्त धणू मुणेयव्वा ॥ १ ॥ सोहम्मीसाणेसु य देवा खलु होंति सत्तरयणीया । छच्चेव य रयणीयो सणवकुमारे य माहिंदे ॥ २ ॥
सानत्कुमारादि उपरिम देव सर्व पदोंसे चार लोकोंके असंख्यातवे भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। विशेष इतना है कि सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव स्वस्थान स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमु
द्घात, इन पदोस परिणत होकर मानुषक्षेत्रके संख्यातवे भागमें रहते है, क्योकि, सर्वार्थसिद्धि विमानमें वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त देवोंके उनसे उत्पन्न होनेवाले स्तोक विसर्पणकी अपेक्षा कर उस प्रकारका उपदेश किया गया है, अथवा कारणमें कार्यका उपचार करनेसे वैसा उपदेश किया गया है । यहां देवोंकी अवगाहनाके लाने में ये उपयुक्त गाथायें है
असुरकुमारोंके शरीरकी उंचाई पच्चीस धनुष और शेष कुमारदेवोंकी दश धनुष होती है । व्यन्तर देवोंकी उंचाई दश धनुप और ज्योतिषी देवोंकी सात धनुषप्रमाण जानना चाहिये ॥ १ ॥
सौधर्म व ईशान कल्पमें स्थित देव सात रत्नि ऊंचे, और सनत्कुमार व माहेन्द्र कल्पमें छह रत्नि ऊंचे होते हैं ॥ २ ॥
१ असुराण पंचवीसं सससुराणं हवंति दस दंडा । एस सहाउच्छेहो विक्किरियंगेमु बहुभेया ॥ ति. प. ३, १७६. अढाण वि पक्कं किण्णरपहुदीण वेंतरसुराणं । उच्छहो णादवो दसकोदंड पमाणेण ॥ ति. प. ६, ९८. णवरि य जोइसियाणं उच्छेहो सत्तदंडपरिमाणं । ति. प. ७, ६१८.
२ शरीरं सौधर्मशानयोर्देवानां सप्तारत्निप्रमाणम्, सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः षडरत्निप्रमाणम् , ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तर-लान्तवकापिष्टेसु पंचारत्निप्रमाणम्, शुक्रमहाशुक्र-शतारसहस्रारेषु चतुररनिप्रमाणम्, आनतप्राणतयोर चतुर्थारनिप्रमाणम्, आरणाच्युत योस्यरस्निप्रमाणम्, अधोग्रेवयकेषु अर्द्ध तृतीयारस्निप्रमाणम्, मध्य ग्रत्यकेष्वरत्निद्वयप्रमाणम्, उवरिमवेयकेषु अनुदिशविमानेषु च अध्यर्धारत्निप्रमाणम्, अनुत्तरेष्वरस्निप्रमाणम् । स. सि. ४, २१.
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३२.] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ६, १८. बम्हे य लांतवे वि य कप्पे खलु होति पंच रयणीयो । चत्तारि य रयणीयो सुक्क-सहस्सारकप्पेसु ॥ ३ ॥ आणद-पाणदकप्पे आहुट्टाओ हवंति रयणीयो।। तिण्णेव य रयणीओ तहारणे अच्चुदे चेय ॥ ४ ॥ हेट्ठिमगेवज्जेसु अ अड्ढाइब्जाओ होंति रयणीओ । मज्झिमगेवजेसु अ रयणीओ होंति दो चेय ॥ ५ ॥ उवरिमगेवज्जेसु अ दिवड्ढरयणीओ होदि उस्सेहो ।
अणुत्तरत्रिमाणवासीया रयणी मुणेयव्या ॥ ६ ॥ सेसं सुगमं ।
इंदियाणुवादेण एइंदिया सुहुमेइंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १८ ॥
एत्थ एईदिएसु विहारवदिसत्थाणं णस्थि, थावराणं विहारभावविरोहादो ।
ब्रह्म व लान्तव कल्पमें पांच, तथा शुक्र व सहस्रार कल्पों में चार रलिप्रमाण उत्सेध है ॥३॥
आनत-प्राणत कल्पमें साढ़े तीन रत्नि, और आरण व अच्युत कल्पमें एक रलिप्रमाण शरीरकी उंचाई जानना चाहिये ॥ ४ ॥
अधस्तन अवेयकोंमें अढ़ाई रत्नि, और मध्यम अवेयकोंमें दो रत्निप्रमाण शरीरकी उंचाई है ।। ५॥
उपरिम प्रैवेयकोंमें डेढ़ रत्नि, तथा अनुत्तर विमानवासी देवोंके शरीरकी उंचाई एक रत्निप्रमाण जानना चाहिये ॥६॥
शेष सूत्रार्थ सुगम है।
इन्द्रियमार्गणानुसार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त, मूक्ष्म एफेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १८ ॥
यहां एकेन्द्रियों में विहारवत्स्वस्थान नहीं होता, क्योंकि, स्थायरोंके विहारका
१ अप्रतौ चेया', आ-काप्रत्योः । चेण ' इति पाठः ।
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२, ६, १९. ]
खेत्तागमे एइंदियखेत्तपरूवणं
[ ३२१
जाहार- केवलिसमुग्धादा णत्थि । हुमेईदिएसु वेउव्वियसमुग्धादो वि णत्थि । सेसं सुगमं ।
सव्वलोगे ॥ १९ ॥
एसो लोयसद्दो सेस लोगाणं सूचओ, देसामासियत्तादो । तेणेदेण सूचिदत्थस्स पवणं कस्समो । सत्याण- वेयण कसाय मारणंतिय उववादपरिणदा एइंदिया तेसिं पज्जत्ता अपज्जत्ता य सच्चलोगे, आणंतियादो । वेउब्वियसमुग्धादगदा एइंदिया चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । माणुसखेत्तं ण विण्णायदे | तं जहा • वेउच्त्रियमुट्ठाता सव्वहुमईदिए णत्थि, साभावियादो । बादरेइंदियपज्जत्तएस चेत्र अस्थि । ते वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता । तत्थेक्कजीवोगाहणा उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो | तस्स को पडिभागो ? पलिदोत्रमस्स असंखेज्जदिभागो । जदि उब्वियरासीदो गुल भागहारो संखेज्जगुणो होज्ज तो वेउन्चियखेत्तं माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो,
विरोध है । तैजससमुद्घात, आहारकसमुद्घात और केवलिसमुद्घात एकेन्द्रियों में नहीं है । सुक्ष्म एकेन्द्रियोंमें वैक्रियिकसमुद्घात भी नहीं है । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
उपर्युक्त एकेन्द्रिय जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक में रहते हैं ।। १९ ।।
यह लोक शब्द शेष लोकोंका सूचक है, क्योंकि, देशामर्शक है । इस कारण इसके द्वारा सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं - स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कपायसमुदघात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद, इन पदोंसे परिणत एकेन्द्रिय व उनके पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीव सर्व लोक में रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं । वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त एकेन्द्रिय जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में रहते हैं । मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं, यह जाना नहीं जाता। वह इस प्रकार है- वैक्रियिकसमुद्घातको करनेवाले जीव सर्व सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें नहीं है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । उक्त समुद्घातको करनेवाले एकेन्द्रिय जीव बादर एकेन्द्रियोंमें ही होते हैं । वे भी पत्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं । उनमें एक जीवकी अवगाहना उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
शंका
- उसका प्रतिभाग क्या है ?
समाधान - पल्योपमका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है ।
यदि वैकिकिराशिसे घनांगुलका भागहार संख्यातगुणा है, तो वैक्रियिकक्षेत्र मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भागप्रमाण होगा, अथवा यदि वह भागहार वैक्रियिकराशिसे
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३२२] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ६, २०. अह असंखेज्जगुणो' तो असंखेज्जदिभागो, अह सरिसो माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो, अह भागहारादो वेउवियरासी संखेज्जगुणो होदूण वेउव्वियखेत्तं माणुसखेत्तपमाणं होज्ज तो दो वि सरिसाणि, अह असंखज्जगुणो' होज्ज तो माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणं वेउब्धियखेत्तं । ण च एत्थ एवं चेव होदि त्ति णिच्छओ अत्थि । तेण माणुसखेत्तं ण विण्णायदे ।
(बादरेइंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते? ॥२०॥ सुगममेदं । लोगस्स संखेज्जदिभागे ॥ २१ ॥
एदं देसामासियसुतं, तेणेदेण सूइदत्थस्स परूवणं कस्सामो । तं जहा- तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छंति त्ति वत्तव्वं । किं कारणं ? जेण मंदरमूलादो उवरि जाव सदर-सहस्सारकप्पो त्ति पंचरज्जुउस्सेहेण
असंख्यातगुणा है तो वैक्रियिकक्षेत्र मानुपक्षेत्रके असंख्यातवें भागप्रमाण होगा, अथवा यदि वह भागहार वैक्रियिकराशिके सदृश है तो वैक्रियिकक्षेत्र मानुषक्षेत्रका संख्यातवां भाग होगा । अथवा यदि वह भागहारसे वैक्रियिकराशि संख्यातगुणी होकर वैक्रियिकक्षेत्र मानुषक्षेत्रप्रमाण है तो दोनों ही सदृश होंगे, अथवा यदि अंसंख्यातगुणा है तो वैक्रियिकक्षेत्र मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा होगा। परन्तु यहांपर उक्त भागहार इतना ही है, ऐसा निश्चय नहीं है, अतः मानुषक्षेत्रके विषयमें ज्ञान नहीं है।
बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त स्वस्थानसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ २० ॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त बादर एकेन्द्रिय जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २१ ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- उपर्युक्त बादर एकेन्द्रिय जीव तीन लोकोंके संख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा कहना चाहिये ।
शंका-उक्त क्षेत्रप्रमाणका कारण क्या है ? समाधान-क्योंकि, मन्दर पर्वतके मूल भागसे ऊपर शतार-सहस्रार कल्प
१ अप्रतौ — संखेज्जगुणो ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' भागहारो' इति पाठः।
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२, ६, २३.
खेत्तागमे एइंदियखेत्तपरूवणं
[ ३२३
समचउरस्सा लोगणाली वादेण आउण्णा । तम्मि एगूणर्वचासरज्जुपदराणं जदि एगं जगपदरं लब्भदि तो पंचरज्जुमेतपदराणं किं लभामो त्ति फलगुणिदमिच्छं पमाणेणोवट्टिदे वे पंचभागूणएगूणसत्तरिरूवेहि घणलोगे भागे हिदे एगभागो आगच्छदि । पुणो मि लोग पेरं तदिवादक्खेत्तं संखेज्जजोयणबाहल्लजगपदरं अट्ठपुढविखेत्तं बादरजीवाहारं संखेज्जजोयणबाहल्लजगपदरमेत्तं अट्ठपुढवीणं हेडा ट्ठिदसंखेज्जजोयणबाहल्लजगपदरवादखेत्तं च आणेदुण पक्खित्ते लोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं अनंताणंतबादरेइंदियबादरेइंदियपज्जत्त- बादरेइंदियअपज्जत्तजीवावूरिदं खेत्तं जादं । तेणेदे तिणि वि बादरेइंदिया सत्थाणेण तिन्हं लोगाणं वा संखेज्जदिभागे अच्छंति सि वृत्तं ।
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समुग्धादेण उववादेण केवडिखेते ? ॥ २२ ॥
सुगममेदं । सव्वलो ॥ २३ ॥
तक पांच राजु ऊंची, समचतुष्कोण लोकनाली वायुसे परिपूर्ण है । उसमें उनंचास प्रतरराजुओंका यदि एक जगप्रतर प्राप्त होता है, तो पांच प्रतरराजुओंका कितना जगप्रतर प्राप्त होगा, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे अपवर्तित करनेपर दो बटे पांच भाग कम उनहत्तर रूपोंसे घनलोक के भाजित करनेपर लब्ध एक भागप्रमाण प्राप्त होता है । पुनः उसमें संख्यात योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण लोकपर्यन्त स्थित वातक्षेत्रको, संख्यात योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण ऐसे बादर जीवोंके आधारभूत आठ पृथिवी क्षेत्रको, और आठ पृथिवियोंके नीचे स्थित संख्यात योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण वातक्षेत्रको लाकर मिला देनेपर लोकके संख्यातवें भागमात्र अनन्तानन्त बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त व बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंसे परिपूर्ण क्षेत्र होता है । इस कारण 'ये तीनों ही वादर एकेन्द्रिय स्वस्थान से तीन लोकोंके संख्यातवें भाग में एवं मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं ' ऐसा कहा है ।
उक्त बादर एकेन्द्रिय जीव समुद्घात और उपपादमे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ २२ ॥
यह सूत्र सुगम 1
उक्त बादर एकेन्द्रिय जीव समुद्घात और उपपाद पदोंसे सर्व लोक में रहते हैं ॥ २३ ॥
१ अप्रतौ मंचजगपदराणं ' इति पाठः ।
"
२ प्रतिपु ' - पज्जता जीवारिदं ' इति पाठः ।
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३२४ ]
डागमे खुदाबंध
[ २, ६, २४.
एदे तिणि विबादरेइंदिया मारणंतिय उववादपदेहि चैव सव्वलोए होंति । वेयण-कसायसमुग्घादेहि तिन्ह लोगाणं संखेज्जदिभागे, पर- तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । वेउब्वियपदेण बादरेइंदिय अपज्जत्तवदिरित्तबादरेइंदिया चदुण्हें लोगाणमसंखेज्जदिभागे होंति । तदो समुग्धादेण सव्वलोगे इदि वयणं ण घडदे । ण एस दोसो, देसामा सयत्तादो |
.
इंदिय इंदिय चउरिंदिय तस्सेव पज्जत अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेते ? ॥ २४ ॥
सुगममेदं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ २५ ॥
एदेण सामासियसुत्तेण सूदत्थो बुच्चदे । तं जहा- सत्याणसत्याण-विहारवदिसत्थाण- वेयण-कसाय- समुग्वादगदा एदे बीइंदियादि छप्पि वग्गा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति, पज्जत्तखेत्तस्स
शंका – ये तीनों ही बादर एकेन्द्रिय जीव मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे ही सर्व लोक में हैं। वेदनासमुद्घात व कपायसमुद्घान से तीन लोकोंके संख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । वैक्रियिकपद से बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंको छोड़ शेष दो बादर एकेन्द्रिय चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में रहते हैं । इस कारण 'समुद्घातसे सर्व लोकमें रहते हैं ' यह कथन घटित नहीं होता ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह सूत्र देशामर्शक है ।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और इन तीनोंके पर्याप्त व अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ।। २४ ॥
यह सूत्र सुगम है |
उक्त द्वीन्द्रियादिक जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ २५ ॥
इस देशामर्शक सूत्र से सूचित अर्थ कहा जाता है। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, , विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, और कषायसमुद्घातको प्राप्त ये हीन्द्रिया दिक छहों वर्ग तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में, और बढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां पर्यातक्षेत्रकी प्रधानता है ।
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२, ६, २५. ]
खेत्तागमे वियलिदियखेत्तपरूवणं
[ ३२५ पाणियादो । एदेसिं चेव तिणि अपज्जत्ता चदुदं लोगाणमसंखेज्जदिमागे अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदुस्सेहघणंगुलमे तोगाहणत्तादो । मारतिय उववादगदा णव वि वग्गा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे पर- तिरियलोगर्हितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एत्थ ताव मारणंतियखेत्तविण्णासो बुच्चदे - बीइंदिय-तीइंदियचउरिंदिया तेसिं पज्जत्त-अपज्जतदव्वं ठविय' आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेण सगसगुवक्कमणकालेण सगसगदव्वम्मि भागे हिदे सगसगरासिम्हि मरतजीवपमाणमागच्छदि । तस्स असंखेज्जदिभागो मारणंतिएण विणा मरदि ति एदस्स असंखेज्जे भागे घेत्तृण मारणंतिय-उवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे सगसगमारणंतियद होदि । रज्जुमेत्तायामेण मुक्कमारणंतियदव्वमिच्छिय अण्णगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्वौ | पुणेो अष्पष्पणो विक्खंभवग्गगुणिदरज्जुए गुणिदे इंदियादीणं णवणं मारणंतियखेत्तं होदि । एत्थ ओवट्टणं जाणिय कायव्यं ।
उववाद खेत्तविण्णासो बुच्चदे । तं जहामणकाले भागे हिदे एगसमएण मरंतजीवाणं
पुव्युत्तदव्त्राणि ठविय सगसगुबक्कपमाणं होदि । एदस्स असंखेज्जभागो
इन्हीं के तीन अपर्याप्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, वे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित उत्सेधघनांगुलप्रमाण अवगाहनासे युक्त होते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात व उपपादको प्राप्त नौ ही जीवराशियां तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहां मारणान्तिकक्षेत्रका विन्यास कहा जाता है - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्त व अपर्याप्त द्रव्यको स्थापित कर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अपने अपने उपक्रमणकालसे अपने अपने द्रव्यके भाजित करनेपर अपनी अपनी राशिमेंसे मरनेवाले जीवोंका प्रमाण आता है । उसके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव मारणान्तिकसमुद्घात के विना मरण करते हैं, इसलिये इसके असंख्यात बहुभागोंको ग्रहणकर मारणान्तिक उपक्रमणकालरूप आवली असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर अपना अपना मारणान्तिक द्रव्य होता है । एक राजुमात्र आयामसे मुक्तमारणान्तिक द्रव्यकी इच्छा कर एक अन्य पल्योपमका असंख्यातव भाग भागद्दार स्थापित करना चाहिये । पुनः अपने अपने विष्कम्भके वर्ग से गुणित राजुसे उसे गुणित करनेपर द्वीन्द्रियादिक नौ जीवराशियोंका मारणान्तिक क्षेत्र होता है । यहां अपवर्तन जानकर करना चाहिये ।
उपपादक्षेत्रका विन्यास कहते हैं । वह इस प्रकार है- पूर्वोक द्रव्योंको स्थापित कर अपने अपने उपक्रमणकालसे भाजित करनेपर एक समय में मरनेवाले जीवका प्रमाण होता है । इसके असंख्यातवें भागमात्र ही उक्त जीवराशि ऋजुगति
१ प्रgि र इति पाठः ।
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३२६) छक्खंडागमे खुद्दाबंधों
[.२, ६, २६. चेव उजुगदीए उप्पज्जदि, असंखेज्जा भागा पुण विग्गहगदीए त्ति कट्ट एदस्स असंखेज्जे भागे घेत्तूण पुणो तेसिं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेते भागहारे ठविदे पढमदंडेण अद्धरज्जुमेत्तं रज्जूए संखेज्जदिभागं वा विसप्पिय द्विदजीवपमाणं होदि । पुणो तम्हि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे उप्पण्णपढमसमए पढमदंडमुवसंहरिय बिदियदंडेण सेढीए संखेज्जदिभागं तप्पाओग्गमसंखेज्जदिभागं वा विसप्पिय विदजीवपमाणं होदि । पुणो तमप्पप्पणो विक्खंभवग्गेण गुणिदसगायामेण गुणिदे उववादखेत्तं होदि । विगलिंदिएसु उब्धियपदं णत्थि, साभावियादो ।
पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? ॥ २६ ॥
एत्थ सत्थाणणिद्देसो दोण्हं सत्थाणाणं गाहओ; दव्यट्ठियणयावलंबणादो । सेसं सुगम ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ २७॥
एदं देसामासियसुत्तं, तेणेदेण सूइदत्थो वुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणपज्जाएण परिणदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे,
उत्पन्न होती है, और असंख्यात बहुभागप्रमाण विग्रहगतिसे, ऐसा जानकर इसके असंख्यात बहुभागोंको ग्रहणकर पुनः उनके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र भागहारको स्थापित करने पर प्रथम दण्डसे अर्ध राजुमात्र अथवा राजुके संख्यातवें भाग. प्रमाण फैलकर स्थित जीवोंका प्रमाण होता है। पुनः उसमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपेर उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें प्रथम दण्डका उपसंहार कर द्वितीय
श्रेणीके सख्यातवें भाग अथवा तत्प्रायोग्य असंख्यातवे भागप्रमाण फैलकर स्थित जीवोंका प्रमाण होता है । पुनः उसे अपने अपने विष्कम्भके वर्गसे गुणित अपने अपने आयामसे गुणित करनेपर उपपादक्षेत्रका प्रमाण होता है । विकलेन्द्रियों में वैक्रियिक पद नहीं है, क्योंकि, ऐसा उनका स्वभाव है।
पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव स्वस्थानसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥२६॥
यहां सूत्र में स्वस्थानपदका निर्देश दोनों स्वस्थानोंका ग्राहक है, क्योंकि, यहां द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त जी स्वस्थानसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २७॥
यह देशामर्शक सूत्र है, इस कारण इसके द्वारा सूचित अर्थको कहते हैंस्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थानरूप पर्यायसे पारणत पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और
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२, ६, २९. ]
खेत्तागमे पंचिदियखेत्तपरूवणं
[ ३२७
अड्डाइज्जादो' असंखेज्जगुणे अच्छंति, पहाणीकयपज्जन्तरासिस्स संखेज्जभागत्तादो संखेज्जदिभागत्तादो च । उववादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर- तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एदस्स खेत्तस्साणयणं पुत्रं व वत्तन्वं । समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ॥ २८ ॥
मं
लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे ६ ॥ २९ ॥
एदस्स अत्थो बुच्चदे -- वेयण-कसाय-वेउच्चियसमुग्धादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति, पहाणीकदपज्जत्तरासिम्स संखेज्जदिभागत्तादो । तेजाहारसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, ' माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । दंडगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे,
अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, स्वस्थानस्वस्थानपद्गत उक्त जीव प्रधानभूत पर्याप्त राशिके संख्यात बहुभाग और विहारवत्स्वस्थानगत वे ही जीव उक्त राशिके संख्यातवें भागप्रमाण 1
उपपादको प्राप्त पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इस क्षेत्रके निकालने का विधान पूर्वके समान कहना चाहिये |
पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव समुद्घातकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ।। २८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव समुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग में, अथवा असंख्यात बहुभाग में, अथवा सर्व लोकमें रहते हैं ।। २९ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमैं, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, वे प्रधानभूत पर्याप्तराशि संख्या माग हैं । तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्धतको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भाग में रहते हैं । दण्डसमुद्धातको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और मानुषक्षेत्र से असंख्यात
१ प्रतिषु ' - भागो' इति पाठः ।
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३२८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ६, ३.. माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे । कवाडगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । मारणंतियसमुग्धादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितों असंखेज्जगुणे । एदेसि खेत्तविण्णासो कायव्यो । लोयस्स असंखेजदिभागो ति णिद्देसेण सूइदत्था एदे। अधवा लोगस्स असंखेज्ज. भागा, वादवलयं मोनूण पदरसमुग्धादे सेसासेसलोगमेत्तागासपदेसे विसप्पिय विदजीवपदेसुवलंभादो । सबलोगे वा, लोगपूरणे सबलोगागासं विसप्पिय हिदजीवपदेसाणमुवलंभादो। ___पंचिंदियअपज्जत्ता सस्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ३०॥
एत्थ विहारखदिसत्थाणं वेउब्धियसमुग्घादो च णत्थि । सेसं सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३१ ॥ एवं देसामासियसुत्तं, तेणेदेण सूइदत्थो वुच्चदे । तं जहा-सत्थाण वेयण
गुणे क्षेत्र में रहते हैं। कपाटसमुद्घातको प्राप्त वे ही जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । इनका क्षेत्रविन्यास जानकर करना चाहिये । 'लोकके असंख्यातवें भागमें रहते है' इस निर्देशसे सूचित अर्थ ये है। अथवा उक्त जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण है, क्योंकि, प्रतरसमुद्घातमें वातवलयको छोड़कर शेष समस्त लोकमात्र आकाशप्रदेशमें फैलकर स्थित जीवप्रदेश पाये जाते हैं। अथवा सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, लोकपूरणसमुद्घातमें सर्व लोकाकाशमें फैलकर स्थित जीवप्रदेश पाये जाते हैं ।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ३०॥
पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंमें विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात नहीं है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥३१॥
यह देशामर्शक सूत्र है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थको कहते हैं । वह
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२, ६, ३३.]
खेत्ताणुगमे पुढविकाइयादिखेत्तपरूवणं [३२९ कसायसमुग्घादगदा पंचिंदियअपज्जत्ता चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तोगाहणत्तादो । सव्वत्थ अपज्जत्तोगाहणटुं भागहारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे । एत्थ खेत्तविण्णासो जाणिय कायव्यो ।
कायाणुवादेण पुढविकाइय आउकाइय तेउकाइय वाउकाइय सुहुमपुढविकाइय सुहुमआउकाइय सुहुमतेउकाइय सुहुमवाउकाइय तस्सेव पज्जता अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेते ? ॥ ३२॥
सुगममेदं । सव्वलोगे ॥ ३३ ॥ सस्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा एदे पुढविकाइयादिसोलस वि वग्गा
इस प्रकार है- स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त पंचेन्द्रिय अपर्याप्त चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, वे उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनावाले हैं । सर्वत्र अपर्याप्तोंकी अवगाहनाके लिये भागहार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। मारणान्तिक और उपपादको प्राप्त पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहां क्षेत्रविन्यास जानकर करना चाहिये।
कायमार्गणाके अनुसार पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥३२॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त पृथिवीकायिकादि जीव उक्त पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ३३ ॥
स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादको प्राप्त ये पृथिवीकायिकादि सोलह जीवराशियां सर्व लोकमें रहती हैं, क्योंकि,
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३३०] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ६, ३४. सव्वलोगे । कुदो ? असंखेज्जलोगपरिमाणत्तादो । तेउकाइएसु वेउब्वियसमुग्घादगदा पंचण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्तोगाहणादो। वाउक्काइएसु वेउब्वियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । माणुसखेत्तं ण णव्वदे ।
बादरपुढविकाइय-वादरआउकाइय-वादरतेउकाइय-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? ॥३४॥
सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे॥ ३५ ॥
एदं देसामासियसुत्तं, तेणेदेण आमासियत्थेण अणामासियत्थो वुच्चदे । तं जहा- बादरपुढविआदिअट्ठवग्गा सत्थाणगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगादो संखेज्जगुणे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छति । कुदो ? सापज्जत्ताणं पुढविकाइयाणं पुढवीओ चेवस्सिदूण अवट्ठाणादो । एदेहि रुद्धखेत्तजाणावणट्ठमट्टपुढवीओ
....................
.................
वे असंख्यात लोकप्रमाण हैं। तेजस्कायिकोंमें वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त हुए जीव पांचों लोकोंके असंख्यात- भागमें रहते हैं, क्योंकि, वे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनावाले हैं। वायुकायिकोंमें वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त हुए जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं, यह ज्ञात नहीं है।
__ बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजस्कायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर व उनके अपर्याप्त जीव स्वस्थानसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥३४॥
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त बादर पृथिवीकायिकादिक जीव स्वस्थानसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ३५ ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, इस कारण इसके द्वारा आमृष्ट अर्थात् गृहीत अर्थसे अनामृष्ट अर्थात् अगृहीत अर्थको कहते हैं। वह इस प्रकार है- बादर पृथिवी आदि आठ जीवराशियां स्वस्थानको प्राप्त होकर तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणे, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, अपर्याप्तोंसे सहित पृथिवीकायिक जीवोंका अवस्थान पृथिवियोंका ही आश्रय करके है। इन जीवोंसे
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२, ६, ३५.] खेत्ताणुगमे पुढविकाइयादिखेत्तपरूवणं
[३३१ जगपदरपमाणेण कस्सामो
तत्थ पढमपुढवी एगरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुदीहा वीससहस्सूणबेजोयणलक्खबाहल्ला; एसा अप्पणो बाहल्लस्स सत्तमभागवाहल्लं जगपदरं होदि ) विदियपुढवी सत्तमभागूणबेरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा बत्तीसजोयणसहस्सवाहल्ला सोलससहस्ससमहियचउण्हं लक्खाणमेगूणवंचासभागबाहल्लं जगपदरं होदि । तदियपुढवी बेसत्तभागूणतिण्णिरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा अट्ठावीसजोयणसहस्सवाहल्ला; इमं जगपदरपमाणेण कीरमाणे बत्तीससहस्साहियपंचलक्खजोयणाणमेगूणवंचासभागबाहल्लं जगपदरं होदि । चउत्थपुढवी तिण्णिसत्तभागूणचत्तारिरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा चउवीसजोयणसहस्सबाहल्ला; इमं जगपदरपमाणेण कीरमाणे छज्जोयणलक्खाणमेगुणवंचासभागबाहल्लं जगपदरं होदि। पंचमपुढवी चत्तारिसत्तभागूणपंचरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा वीसजोयणसहस्सबाहल्ला; इमं जगपदरपमाणेण कीरमाणे वीससहस्साहियछण्णं लक्खाणं एगुणवंचासभागवाहल्लं जगपदरं होदि । छट्ठपुढवी पंचसत्तभागूणछरज्जुविक्खंमा सत्तरज्जुआयदा सोलसजोयणसहस्सबाहल्ला बाणउदिसहस्साहियपंचण्हं लक्खाणमेगूणवंचास
रुद्ध क्षेत्रके ज्ञापनार्थ आठ पृथिवियोंको जगप्रतर प्रमाणसे करते हैं
उनमें प्रथम पृथिवी एक राजु विस्तृत, सात राजु दीर्घ और बीस सहन कम दो लाख योजनप्रमाण बाहत्यसे सहित है। यह घनफलकी अपेक्षा अपने बाहल्यके सातवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है। द्वितीय पृथिवी एक बटे सात भाग कम दो राजु विस्तृत, सात राजु आयत और वत्तीस सहस्र योजनप्रमाण बाहल्यसे संयुक्त है। यह घनफलकी अपेक्षा चार लाख सोलह सहस्र योजनोंके उनचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है । तृतीय पृथिवी दो बटे सात भाग कम तीन राजु विस्तृत, सात राजु आयत और अट्राईस सहन योजनप्रमाण बाहल्यसे युक्त है। इसे जगप्रतरप्रमाणसे करनेपर पांच लाख बत्तीस सहस्र योजनोंके उनंचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण होती है। चतुर्थ पृथिवी तीन बटे सात भाग कम चार राजु विस्तृत, सात राजु आयत
और चौबीस सहस्र योजनप्रमाण बाहत्यसे संयुक्त है । इसे जगप्रतरप्रमाणसे करनेपर वह छह लाख योजनोंके उनचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण होती है। पंचम पृथिवी चार बटे सात भाग कम पांच राजु विस्तृत, सात राजु आयत और बीस सहन योजनप्रमाण बाहल्यसे संयुक्त है। इसे जगप्रतरप्रमाणसे करनेपर छह लाख बीस सहन योजनोंके उनचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण होती है। छठी पृथिवी पांच बटे सात भाग कम छह राजु विस्तृत, सात राजु आयत और सोलह सहस्र योजनप्रमाण बाहल्यसे संयुक्त है। यह घनफलकी अपेक्षा पांच लाख वानवै सहस्र योजनोंके उनचासवें भाग
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३३२ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ६, ३५.
भागाबाहल्लं जगपदरं होदि । सत्तमपुढवी छसत्तभागूणसत्तरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा अजोयणसहस्सबाहल्ला चउदालसहस्सा हियतिष्णं लक्खाणमेगुणवचास भागबाहल्लं जगपदरं होदि । (अट्ठमपुढवी सत्तरज्जुआयदा एगरज्जुरुंदा अट्ठजोयणबाहल्ला सत्तमभागाहियएगजोयणबाहल्लं जगपदरं होदि । एदाणि सव्वखेत्ताणि एगडे कदे तिरियलोगबाहल्लादो संखेज्जगुणबाहल्लं जग्रपदर होदि ।
मेरु-कुलसेल-देविंदय- सेडीबद्ध-पइण्णयविमाणखेत्तं च एत्थेव दट्ठव्वं सव्वत्थ तत्थ पुढविकाइयाणं संभवादो । बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरते उकाइया बादरवणफदिकाइया पत्तेयसरीरा एदेसिं चेत्र अपज्जत्ता य भवणविमाणट्टपुढवीसु णिचियक्कमेण णिवसंति । तेउ आउ रुक्खाणं कथं तत्थ संभवो ? ण, इंदिएहि ' अगेज्झाणं सुडुसण्हाणं पुढविजोगियाणमत्थित्तस्स बिरोहाभावादो ।
बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है । सप्तम पृथिवी छह घंटे सात भाग कम सात राजु विस्तृत, सात राजु आयत और आठ सहस्र योजनप्रमाण बाहल्यसे संयुक्त है । यह घनफलकी अपेक्षा तीन लाख चवालीस सहस्र योजनोंके उनंचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है । अष्टम पृथिवी सात राजु आयत, एक राजु विस्तृत और आठ योजनप्रमाण वाल्यसे संयुक्त है । यह घनफलकी अपेक्षा एक बटे सात भाग अधिक एक योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है । इन सब क्षेत्रोंको एकत्रित करनेपर तिर्यग्लोकके बाहल्यसे संख्यातगुणे बाहल्यरूप जगप्रतर होता है । ( देखो पुस्तक ४, पृ. ८८ आदि ) ।
मेरु, कुलपर्वत तथा देवोंके इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंका क्षेत्र भी यह पर देखना चाहिये, क्योंकि, वहां सब जगह पृथिवीकायिक जीवोंकी सम्भावना है । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजस्कायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा इनके ही अपर्याप्त जीव भी भवनवासियोंके विमानों में व आठ पृथिवियों में निचितक्रम से निवास करते हैं ।
शंका - तेजस्कायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंकी वहां कैसे सम्भावना है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इन्द्रियोंसे अग्राह्य व अतिशय सूक्ष्म पृथिवीसम्बद्ध उन जीवोंके अस्तित्वका कोई विरोध नहीं है ।
१ प्रतिषु ' इत्थएहि', मप्रतौ ' ए इदि एहि ' इति पाठः ।
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खेत्तागमे पुढविकाइयादिखेत्तपरूवणं
समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? || ३६ ||
सुगममेदं ।
सव्वलोगे ॥ ३७ ॥
देसामासियमुत्तमेदं, तेणेदेण सुइदत्थो बुच्चदे - वेयण- कसाय परिणदा एदे तिहूं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगादो संखेज्जगुणे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे अच्छंति, एदेसिं पुढवीसु चेव अवट्टाणादो । बादरते उक्काइया वेउच्त्रियं गदा पंचन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । मारणंतिय उववादगदा सव्वलोगे । कुदो ? असंखेज्जलोगपरिमाणादो | एवं बादरणिगोदपदिट्ठिदाणं तेसिमपज्जत्ताणं च वत्तव्यं । सुत्ते बादरणिगोदपदिट्टिदा किष्ण परुविदा ? ण, बादरवणफदिपत्तेयसरीरेसु तेसिमंतभावादो । कुदो पत्तेयसरीरतणेण तदो एदेसिं भेदाभावादो ।
२, ६, ३७.]
[ ३३३
उक्त बादर पृथिवीकायिकादिक जीव समुद्घात व उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ।। ३६ ।।
यह सूत्र सुगम है ।
उक्त बादर पृथिवीकायिकादि जीव समुद्घात व उपपाद से सर्व लोकमें रहते हैं ।। ३७ ।।
यह सूत्र देशामर्शक है, इस कारण इसके द्वारा सूचित अर्थ कहते हैं - वेदना व कषाय समुद्घातको प्राप्त ये जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणे, और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, इनका पृथिवियोंमें ही अवस्थान है । बादर तेजस्कायिक वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त होकर पांचों लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात व उपपादको प्राप्त वे ही जीव सर्व लोक में रहते हैं, क्योंकि, वे असंख्यात लोकप्रमाण हैं । इसी प्रकार बादर निगोदप्रतिष्ठित और उनके अपर्याप्त जीवोंका भी क्षेत्र कहना चाहिये ।
शंका- सूत्रमें बादर निगोदप्रतिष्ठित जीवोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई ?समाधान - नहीं, क्योंकि, उनका बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंमें अन्तर्भाव है, क्योंकि प्रत्येकशरीरपनेकी अपेक्षा उनसे इनके कोई भेद नहीं है।
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३३४ ) छक्खंडागमै खुदाबंधों
[२, ६, ३८. बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरतेउकाइया बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेते ? ॥ ३८॥
सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३९ ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे- बादरपुढविपज्जत्ता सत्थाण-वेयण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगणे । कुदो? एदेसि अवहारकालटुं पदरंगुलस्स द्वविदपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागादो एदेसिमोगाहणटुं घणंगुलस्स दुविदपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागस्स असंखेज्जगुणत्तादो । मारणंतिय-उववादगदा तिण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागे णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेजगुणे । एत्थ ओवट्टणा जाणिय ओवट्टेदव्वा । एवं बादरआउकाइय-वादरवणप्फदिपत्तेयसरीर-बादरणिगोदपदिद्विदपजत्ताणं ।
बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर तेजस्कायिक पर्याप्त व बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ३८॥
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त बादर पृथिवीकायिकादि पर्याप्त जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ३९ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-- बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त होकर चार लोकोके असंख्यातवें
और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, इन जीवोंके अवहारकालके लिये प्रतरांगुलके स्थापित पल्योपमके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा इनकी अवगाहनाके लिये धनांगुलका स्थापित पल्योपमका असंख्यातवां भाग असंख्यातगुणा है, अर्थात् इनके अवहारकालका निमित्तभूत जो प्रतरांगुलका भागहार पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण बतलाया गया है उसकी अपेक्षा अवगाहनाका निमित्तभूत पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण घनांगुलका भागहार असंख्यातगुणा है। मारणान्तिकसमुद्घात व उपपादको प्राप्त बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहां अपवर्तना जानकर करना चाहिये । इसी प्रकार बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त
१ अ-काप्रलोः 'पत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ता', आप्रतौ 'पत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जतापन्जत्ता' इति पाठः। २ प्रतिषु 'रासिं ' इति पाठः ।
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२, ६, ४०.] खेत्ताणुगमे पुढविकाइयादिखेत्तपरूवणं
[ ३३५ णवरि बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरा पञ्जत्ता सत्थाण-वेयण-कसायपदेसु तिरियलोगस्स संखेनदिभागे। कधं ? बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरणिव्वत्तिपजत्तयस्स जहणिया
ओगाहणा घणंगुलस्स असंखेजदिभागो, घणंगुलस्स संखेजदिभागमेत्तबीइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए असंखेज्जगुणत्तण्णहाणुववत्तीदो। जदि पत्तेयसरीरपज्जत्ताणमोगाहणभागहारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो चेव होज्ज तो वि पदरंगुलभागहारादो घणंगुल भागहारो संखेज्जगुणो त्ति तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तं ण विरुज्झदे । एवं बादरतेउकाइयपज्जत्ता । णवरि सत्थाण-वेयण-कसायएहिं पंचण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, मारणंतिय-उववादेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तव्यं । वेउव्वियपदस्स सत्थाणभंगो।
बादरवाउकाइया तस्सेव अपज्जता सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? ॥४०॥
सुगम ।
और बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र जानना चाहिये । विशेष इतना है कि बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंमें तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं । इसका कारण यह है कि बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना घनांगुलके असंख्यातवें भागमात्र है, क्योंकि, अन्यथा द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहनासे वह असंख्यातगुणी नहीं बन सकती । यदि प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंकी अवगाहनाका भागहार पल्योपमका असंख्यातवां भाग ही हो तो भी प्रतरांगुलके भागहारसे घनांगुलका भागहार संख्यातगुणा है, अतएव तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग विरुद्ध नहीं है। इसी प्रकार बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंका भी क्षेत्र जानना चाहिये। विशेष इतना है कि स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा पांचों लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मारणान्तिक व उपपाद पदोंकी अपेक्षा चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा कहना चाहिये । वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा क्षेत्रका निरूपण स्वस्थानके समान समझना चाहिये। ___बादर वायुकायिक और उनके ही अपर्याप्त जीव स्वस्थानकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ।। ४० ॥
यह सूत्र सुगम है।
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
लोगस्स संखेज्जदिभागे ॥ ४१ ॥
एदं सामासियसुत्तं, तेणेदस्स अत्थो बुच्चदे | तं जहा- तिन्हं लोगाणं संखेज्जदिभागे, णर- तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? समचउरस्सलोगणालि पंच रज्जुआयदमावूरिय तेसिं सव्वकालमवद्वाणादो ।
३३६ ]
समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते, सव्वलोगे ? ॥ ४२ ॥
वेयण-कसायसमुग्धादे तिन्हं लोगाणं संखेज्जदिभागे, पर- तिरियलोगेर्हितो असंखेज्जगुणे । वेउच्चियसमुग्धादेण चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । माणुसखेत्तादो ण वदे | मारणंतिय-उववादेहि सव्वलोगे, असंखेज्जलोगपरिमाणत्तादो ।
बादरवाउपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ४३ ॥
सुगममेदं ।
[ २, ६, ४१.
बादर वायुकायिक और उनके अपर्याप्त जीव स्वस्थानसे लोकके संख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ४१ ॥
यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिये इसका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार हैउक्त जीव स्वस्थानसे तीन लोकोंके संख्यातवें भागवें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, समचतुष्कोण पांच राजु आयत लोकनालीको व्याप्त करके उनका सर्व कालमें अवस्थान है ।
उक्त जीव समुद्घात व उपपाद से कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ॥। ४२ ॥
वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातकी अपेक्षा उक्त जीव तीन लोकोंके संख्यातवें भागवें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं, यह ज्ञात नहीं हैं । मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पद से सर्व लोक में रहते हैं, क्योंकि वे असंख्यात लोकप्रमाण हैं ।
बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद से कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ४३ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
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२, ६, ४५.] खेत्ताणुगमे पुढविकाइयादिखेत्तपरूवणं
[ ३३७ लोगस्स संखेज्जदिभागे ॥ ४४ ॥
एदस्स अत्थो बुच्चदे- सत्थाण-वेयण-कसायपदेहि तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? एदेसिं पंचरज्जुआयद-एगरज्जुसमंतदोवाहल्लसमचउरसलोगणालीए अबढाणादो। वेउबियपदेण चउण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे। माणुसखेत्तादो ण णव्वदे। मारणंतिय-उववादेहि तिण्डं लोगाणं संखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । सबलोगो किण्ण लब्भदे ? ण, अण्णेहिंतो आगंतूण एत्थुप्पज्जमाणजीवाणं एदेहितो अण्णत्थुप्पज्जणटुं मारणंतियं करेमाणजीवाणं च बहुत्ताभावादो, बादरखाउक्काइयपज्जत्ताणं पाएण पंचरज्जुखेत्तभंतरे चेव मारणंतिय-उववादाणमुवलंभादो ।
वणप्फदिकाइय-णिगोदजीवा सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्त-अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥४५॥
बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपादसे लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ४४ ॥
___ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंसे बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव तीन लोकोंके संख्यातवें भागमे तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, इनका पांच राजु आयत और चारों ओरसे एक राजु मोटी समचतुष्कोण लोकनाली में अवस्थान है। वैक्रियिक पदसे चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं,
नहीं है। मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादकी अपेक्षा तीन लोकोंके संख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं।
शंका--मारणान्तिकसमुद्घात व उपपादकी अपेक्षा सर्व लोक क्यों नहीं प्राप्त होता?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्य जीवोंमेंसे आकर इनमें उत्पन्न होनेवाले
या इनमेंसे अन्यत्र उत्पन्न होनेके लिये मारणान्तिकसमुदघातको करनेवाले जीव बहुत नहीं हैं, तथा वायुकायिक पर्याप्त जीवोंके प्रायः करके पांच राजुप्रमाण क्षेत्रके भीतर ही मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पद पाये जाते हैं।
वनस्पतिकायिक, वनस्पस्पतिकायिक पर्याप्त, वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोदजीव, निगोदजीव पर्याप्त, निगोदजीव अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक,
१ प्रतिषु ' -भागो' इति पाठ : । २ प्रतिषु ' -गुणो' इति पाठः।
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३३८ ]
छक्खंडागमे खुद्दा बंधो
सुगममेदं । सव्वलोए ॥ ४६ ॥
कुदो ? सव्वलोगं निरंतरेण वाविय अवड्डाणादो । बादराणं व सुहुमाणं लोगस्सेगदेसे अवद्वाणं किण्ण होज्ज १ ण, 'सुहुमा सव्वत्थ जल-थलागासेसु होंति' त्ति वयणेण सह विरोहादो ।
बादरवणफदिकाइया बादरणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेते ? ॥ ४७ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ४८ ॥
देसामा सिस्सेदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा
-
[ २, ६, ४६.
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोदजीव, सूक्ष्म निगोदजीव पर्याप्त और सूक्ष्म निगोदजीव अपर्याप्त, ये स्वस्थान, समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ४५ ॥
तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे,
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक में रहते हैं ॥ ४६ ॥
क्योंकि, निरन्तररूपसे सर्व लोकको व्याप्त कर इनका अवस्थान है ।
शंका-बादर जीवोंके समान सूक्ष्म जीवोंका लोकके एक देशमें अवस्थान क्यों नहीं होता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर 'सूक्ष्म जीव जल, थल व आकाशमें सर्वत्र होते हैं ' इस वचनसे विरोध होगा ।
बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगोदजीव, बादर निगोदजीव पर्याप्त और बादर निगोदजीव अपर्याप्त स्वस्थानसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ४७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उक्त जीव स्वस्थानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ४८ ॥ इस देशामर्शक सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है
:- उक्त जीव
२ प्रतिषु च इति पाठः ।
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२, ६, ५१.1 खेत्ताणुगमे तसकाइयखेत्तपरूवणं
। १३९ गर-तिरियलोगादो संखेज्जगुणे । कुदो ? पुढवीओ चेवस्सिदण बादराणमवट्ठाणादो । माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे ।
समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ४९ ॥ सुगमं । सव्वलोए ॥५०॥
एदस्सत्थो वुच्चदे- वेयण-कसायसमुग्धादेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, तिरियलोगादो संखेज्जगुणे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे । कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । मारणंतिय-उववादेहि सव्वलोगे । कुदो ? आणतियादो।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्त-अपज्जत्ता पंचिंदिय-पज्जत्त-अपजत्ताणं भंगो ॥ ५१ ॥
जेण दोण्हं सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउव्यियपदेहि तिण्हं लोगाणं असंखेज्जदिभागत्तणेग, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तणेण, माणुसखेत्तादो
स्वस्थानसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, पृथिवियोंका आश्रय करके ही बादर जीवोंका अवस्थान है । मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं।
उक्त जीव समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमे रहते हैं ? ॥ ४९ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीव समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ५० ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते है- वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणे, और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। कारण पूर्वके ही समान कहना चाहिये । मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं।
त्रसकायिक, त्रसकायिक पर्याप्त और त्रसकायिक अपर्याप्त जीवोंके क्षेत्रका निरूपण पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है ॥५१॥
क्योंकि, दोनों (अस व पंचेन्द्रिय) जीवोंके स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भागत्वसे, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागत्वसे व मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा
१ प्रतिषु । पदाणं 'इति पारः ।
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३४० छक्खंडांगमे ख़ुद्दाबंधौ
[२, ६, ५२. असंखेज्जगुणत्तणेण; उववाद-मारणतिएहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागत्तणेण, गर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणतणेण; केवलिसमुग्घादेण तेजाहारपदेहि य अपज्जत्तजोग्गपदेहि य भेदो णत्थि । तेण पंचिदियाणं भंगो त्ति ण विरुज्झदे ।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी सस्थाणेण समुग्घादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ५२ ॥
__एत्थ सत्थाणे दो वि सत्थाणाणि अस्थि, समुग्घादे वेयण-कसाय-उब्धियतेजाहार-मारणंतियसमुग्यादा अस्थि, उट्ठाविदउत्तरसरीराणं मारणंतियगदागं पि मण-वचिजोगसंभवस्स विरोहाभावादो। उववादो णत्थि, तत्थ कायजोगं मोत्तूणण्णजोगाभावादो ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ५३ ॥ एदस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय
असंख्यातगुणत्वसे कोई भेद नहीं है; उपपाद व मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भागत्वसे एवं मनुष्य व तिर्यग्लोककी अपेक्षा असंख्यातगुणत्वसे कोई भेद नहीं है; तथा केवलिसमुद्घात, तैजससमुद्घात व आहारकसमुद्घात पदोंसे एवं अपर्याप्त योग्य पदोंसे भी कोई भेद नहीं है। अत एव 'उक्त त्रस जीवोका क्षेत्र पंचेन्द्रिय जीवोंके समान है' ऐसा कहना विरुद्ध नहीं है।
योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीव स्वस्थान व समुद्घातकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ॥ ५२ ॥
यहां स्वस्थानमें दोनों स्वस्थान और समुद्घातमें वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैकिायकसमुद्घात, तेजससमुद्घात, आहारसमुद्घात एवं मारणान्तिकसमुद्घात हैं, क्योंकि, उत्तर शरीरको उत्पन्न करनेवाले मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त जीवोंके भी मनोयोग व वचनयोगके होनेमें कोई विरोध नहीं है। मनोयोगी व वचनयोगी जीवों में उपपाद पद नहीं है, क्योंकि, उनमें काययोगको छोड़कर अन्य योगोंका अभाव है।
पांचों मनोयोगी व पांचों वचनयोगी जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ५३॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहार
१ प्रतिषु ' -मारणतिएण ' इति पाठः ।
२ प्रति — सस्थाणेण ' इति पाठः ।
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२, ६, ५५. ]
खेत्तागमे जोगमगणा
[ ३४१
मुग्धादगदा दे दस त्रि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे; तेजाहारसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जस्स संखेज्जदिभागे; मारणंतियसमुग्धादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर- तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छंति । उववादं णत्थि, मणजोगवचिजोगाणं विवक्खादो ।
कायजोग - ओरालियमिस्सका यजोगी सत्थाणेण समुग्धादेण उववादे केवडिखेत्ते ? ॥ ५४ ॥ सुगममेदं । सव्वलो ॥ ५५ ॥
दस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा - सत्थाण- वेयण-कसाय- मारणंतियउवादेहि सव्वलोगे। कुदो ? आणंतियादो । विहारवदिसत्थाण- वे उच्चियपदेहि कायजोगिणो तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे ।
वत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त ये दश ही जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग में, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । तैजससमुद्घात व आहारकसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीपके संख्यातवें भाग में रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में तथा मनुष्य व तिर्यग्लोककी अपेक्षा असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । उपपाद पद नहीं है, क्योंकि, मनोयोग व वचनयोगकी यहां विवक्षा है ।
काययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपाद पदसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ५४ ॥
यह सूत्र सुगम है |
काययोगी और औदारिक मिश्रकाययोगी जीव उक्त पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं ।। ५५ ।।
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है— स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे काययोगी व औदारिकमिश्रका योगी सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं । विद्वारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे काययोगी जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, जगप्रतर के
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३४२ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधी
[ २, ६, ५६.
कुदो? जगपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ततसरासिस्स गहणादो | तेजाहारपदेहि काय जोगिणो चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जस्स संखेज्जदिभागे । दंड-कवाड - पदर- लोगपूरणेहि कायजोगिणो ओघ मंगो ।
ओरालियकायजोगी सत्थाणेण समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ॥५६॥ सुगमं । सव्वलो ॥ ५७ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे - सत्थाण- चेयण - कसाय - मारणंतियेहि सव्वलोगे । कुदो ? सव्वत्थावद्वाणाविरोहिजीवाणमोरालियकाय जोगीणं मारणंतियादो । विहारपदेण तिह लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ! तसणालि' मोत्तूणण्णत्थ विहाराभावादो । वेउच्चिय- तेजा - दंड समुग्धादगदा चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । णवीर तेजासमुग्धादगदा माणुस
असंख्यातवें भागमात्र सराशिका यहां ग्रहण है । तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पदोंसे काययोगी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाईद्वीप के संख्यातवें भाग में रहते हैं । दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातकी अपेक्षा काययोगियोंके क्षेत्रका निरूपण ओधके समान है ।
औदारिककाययोगी जीव स्वस्थान व समुद्घातकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ५६ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
औदारिककाययोगी जीव स्वस्थान व समुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक में रहते हैं
॥ ५७ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा उक्त जीव सर्व लोक में रहते हैं, क्योंकि सर्वत्र अवस्थानके अविरोधी औदारिककाययोगी जीवोंके मारणान्तिकसमुद्घात होता है । विहार पदकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग में, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, त्रसनालिको छोड़कर उक्त जीवोंका अन्यत्र विहार नहीं है । वैक्रियिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात और दण्डसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । विशेष इतना है कि तैजसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव मानुषेक्षत्र के संख्यातवें भागमें
१ प्रतिषु ' तसरासि ' इति पाठः ।
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२, ६, ६१.] खेत्ताणुगमे जोगमग्गणा
[ ३१३ खेत्तस्स संखेज्जदिभागे । कवाड-पदर-लोगवूरणाहारपदाणि णत्थि, ओरालियकायजोगेण तेसि विरोहादो।
उववादं णत्थि ॥ ५८ ॥ ओरालियकायजोगेण सह एदस्स विरोहादो । वेउब्वियकायजोगी सत्थाणेण समुग्घादेण केवडिखेत्ते? ॥५९॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥६०॥
एदस्सत्थो बुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-उब्धियपदेहि वेउब्वियकायजोगिणो तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? पहाणीकयजोइसियरासित्तादो। मारणंतियसमुग्घादेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । एत्थ ओवट्टणं जाणिय कायव्वं ।
उववादो णत्थि ॥ ६१ ॥
रहते हैं । कपाटसमुद्घात, प्रतरसमुद्घात, लोकपूरणसमुद्घात और आहारकसमुद्घात पद नहीं है, क्योंकि, औदारिककाययोगके साथ उनका विरोध है।
औदारिककायजोगी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता ॥ ५८ ॥ क्योंकि, औदारिककाययोगके साथ इसका विरोध है। वैक्रियिककाययोगी स्वस्थान और समुद्घातसे कितने क्षेत्र में रहते हैं १ ॥५९॥ यह सूत्र सुगम है।
वैक्रियिककायजोगी जीव स्वस्थान व समुद्घातसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ६० ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे वैक्रियिककाययोगी जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमे, और अढाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, यहां ज्योतिषीराशिकी प्रधानता है। मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोककी अपेक्षा असंख्यातंगुणे क्षेत्र में रहते हैं । यहां अपवर्तन जानकर करना चाहिये।
वैक्रियिककाययोगियोंके उपपाद पद नहीं होता ॥६१॥
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३४४ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ६, ६२. वेउब्धियकायजोगेण उववादस्स विरोहादो। वेउव्वियमिस्सकायजोगी सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? ॥ ६२ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ६३॥
एदस्स अत्थो- तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे। कुदो ? देवरासिस्स संखेज्जदिभागमेत्तवेउवियमिस्स कायजोगिदव्वुवलंभादो।
समुग्घाद-उववादा णत्थि ॥ ६४ ॥
वेउब्धियमिस्सेण सह एदेसिं विरोहादो । होद मारणंतिय-उववादेहि सह विरोहो, ण वेयण-कसायसमुग्यादेहि । तम्हा वेउव्वियमिस्सम्मि समुग्धादो णत्थि त्ति ण घडदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे- सत्थाणखेत्तादो वाचयदुवारेण लोगस्स असंखेज्जदिभागेण
क्योंकि, वैक्रियिककाययोगके साथ उपपाद पदका विरोध है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी स्वस्थानकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ६२ ॥ यह सूत्र सुगम है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ६३ ॥
__इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थानसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे, और तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं, क्योंकि, देवराशिके संख्यातवें भागमात्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगी द्रव्य पाया जाता है।
समुद्घात व उपपाद पद नहीं हैं ।। ६४ ॥ क्योंकि, वैक्रियिकमिश्रकाययोगके साथ इनका विरोध है ।
शंका-वैक्रियिकमिश्रकाययोगका मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंके साथ भले ही विरोध हो, किन्तु वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातके साथ कोई विरोध नहीं है । अत एव 'वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें समुद्घात नहीं है' य घटित नहीं होता?
समाधान - उक्त शंकाका यहां परिहार कहा जाता है- स्वस्थान क्षेत्रसे
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२, ६, ६५. ]
खेत्ताणुगमे जोगमगणा
[ ३४५
वेयण-कसाय-वेउब्विय-विहारख दिसत्थाण- तेजाहारखेत्ताणि अपुधभूदत्तादो तत्थेव लीणाणि दाणि एत्थ खुदाबंधे ण परिग्गहिदाणि । तदो मारणंतियमेकं चैव केवलिसमुग्धा देण सहिदं एत्थ समुग्धादणिद्देसेण घेप्पदि । सो च समुग्धादो एत्थ णत्थि तेणेसो ण दोसो त्ति । अधवा वेयण-कसाय- वेउब्विय-तेजाहाराणं पि एत्थ खुद्द बंधे अस्थि समुग्धाद
सो, किंतु ण ते पहाणं, मारणंतियखेत्तादो तेसिमहियखेत्ताभावादो । तदो पहाणं मारणंतियपदं जत्थ अस्थि, तत्थ समुग्धादो वि अस्थि । जत्थ तं णत्थि, ण तत्थ समुग्धादोति वच्चदि । तदो दोहि पयारेहि ' समुग्धादो णत्थि ' त्तिण विरुज्झदे |
आहार कायजोगी वेव्वियकायजोगिभंगो ॥ ६५ ॥
एसो व्यणिसो | पज्जवट्ठियणयं पटुच्च भण्णमाणे अत्थि तदो विसेसो | तं जहा - सत्थाण-विहारवदिसत्थाणपरिणदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । मारणंतियसमुग्वादगदा चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे,
कथन की अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागसे वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, विद्दारवत्स्वस्थान, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घातके क्षेत्र अभिन्न होने से उसीमें लीन हैं, अतएव ये यहां 'क्षुद्रकबन्ध' में नहीं ग्रहण किये गये हैं । इसी कारण केवलिसमुद्घात सहित एक मारणान्तिकसमुद्घात ही यहां समुद्घातनिर्देशसे ग्रहण किया जाता है । और वह समुद्घात यहां है नहीं, इसलिये यह कोई दोष नहीं है । अथवा वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घातको भी यहां 'क्षुद्रकबन्ध' में समुद्घातसंज्ञा प्राप्त है, किन्तु वे प्रधान नहीं है, क्योंकि, मारणान्तिक क्षेत्रकी अपेक्षा उनके अधिक क्षेत्रका अभाव है । अतएव जहां प्रधान मारणान्तिक पद है वहां समुद्घात भी है, किन्तु जहां वह नहीं है वहां समुद्घात भी नहीं है, ऐसा कहा जाता है। इस कारण दोनों प्रकारोंसे समुद्घात नहीं है' यह वचन विरोधको प्राप्त नहीं होता |
"
आहारककाययोगियोंके क्षेत्रका निरूपण वैक्रियिककाययोगियोंके क्षेत्रके समान
है ॥ ६५ ॥
यह द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा निर्देश है। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा निरूपण करने पर वैक्रियिककाययोगियोंके क्षेत्रसे यहां विशेषता है । वह इस प्रकार है- स्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र से परिणत आहारककाययोगी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे त्ति ।
आहारमिस्सकायजोगी वेउब्बियमिस्सभंगो ॥६६॥
एसो वि दव्वट्ठियणिदेसो, लोगस्स असंखेज्जदिभागत्तणेण दोण्हं खेत्ताणं समाणत्तं पेक्खिय पवुत्तीदो । पज्जवट्टियणयं पडुच्च भेदो अत्थि । तं जहा- आहारमिस्सकायजोगी चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेन्जदिभागे त्ति ।
कम्मइयकायजोगी केवडिखेत्ते ? ॥ ६७ ॥ सुगमं । सवलोगे ॥ ६८॥
एदं देसामासियसुत्तं ण होदि, वुत्तत्थं मोत्तूणेदेण सूइदत्थाभावादो । कधं कम्मइयकायजोगिरासी सव्वलोए ? ण, तस्स अणतस्स सव्यजीवरासिस्स असंखेज्जदिभागत्तणेण तदविरोहादो ।
जाव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं ।
आहारकमिश्रकाययोगियोंका क्षेत्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके समान है ॥६६॥
यह भी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा निर्देश है, क्योंकि, लोकके असंख्यातवें भागत्वसे दोनों क्षेत्रोंकी समानताकी अपेक्षा कर इसकी प्रवृत्ति हुई है। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा भेद है । वह इस प्रकार है- आहारकमिश्रकाययोगी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं ।
कार्मणकाययोगी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ।। ६७ ॥ यह सूत्र सुगम है। कार्मणकाययोगी जीव सर्व लोकमें रहते हैं ।। ६८॥
यह देशामर्शक सूत्र नहीं है, क्योंकि, उक्त अर्थको छोड़कर इसके द्वारा सूचित अर्थका अभाव है।
शंका-कार्मणकाययोगी जीवराशि सर्व लोकमें कैसे रहती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, कार्मणकाययोगिराशिके अनन्त सर्व जीवराशिके असंख्यातवें भाग होनेसे उसमें कोई विरोध नहीं है ।
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[ ३४७.
२, ६, ७०.]
खेत्ताणुगमे वेदमग्गणा वेदाणुवादेण इत्थिवेदा पुरिसवेदा सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ६९ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ७० ॥
एदेण देसामासियसुत्तेण सूइदत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-उब्धियसमुद्घादगदा इथिवेदजीवा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? पहाणीकयदेवित्थिवेदरासित्तादो। मारणंतिय-उवधादगदा तिण्ण लोगाणमसंखेजदिभागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे । एत्थ मारणंतिय-उववादखेत्तविण्णासो जाणिदण कायव्यो । एवं पुरिसवेदस्स वि वत्तव्यं । णवीर एत्थ तेजाहारपदाणि अत्थि । तेसु वटुंता चदुण्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे त्ति वत्तव्यं ।
वेदमार्गणाके अनुसार स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ६९ ॥
यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते
___ इस देशामर्शक सूत्रसे सूचित अर्थको कहते हैं । वह इस प्रकार है- स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायससुद्घात और वैऋियिकसमुद्घातको प्राप्त स्त्रीवेदी जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां देव स्त्रीवेद राशि प्रधान है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त स्त्रीवेदी जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहां मारणान्तिक
और उपपाद क्षेत्रका विन्यास जानकर करना चाहिये । इसी प्रकार पुरुषवेदियोंका क्षेत्र भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि पुरुषवेदियोंमें तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पद भी हैं। उन पदोंमें वर्तमान पुरुषवेदी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं, ऐसा कहना चाहिये।
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३४८ ]
॥ ७१ ॥
छक्डागमें खुदाबंधो
[ २, ६, ७१.
सयवेदा सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ?
सुगममेदं ।
सव्वलो ॥ ७२ ॥
दस्त्थो बुच्चदे | तं जहा - सत्थाण- वेयण-कसाय मारणंतिय उववादगदा सव्वलोए । कुदो ? आणंतियादो । विहारवदिसत्थाण- वेउच्चियसमुग्वादगदा तिहिं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । वरि वेउच्चियसमुग्धादगदा तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे । कुदो ? तससिग्गहणादो ।
अवगदवेदा सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? || ७३ ॥
सुमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ७४ ॥
दस अत्थो वुच्चदे- चदुण्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स
नपुंसकवेदी जी स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद से कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ७१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
नपुंसकवेदी जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक में रहते हैं ।। ७२ ।।
इसका अर्थ कहते है । वह इस प्रकार है- स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादको प्राप्त नपुंसक वेदी जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग में, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । विशेष इतना है कि वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त जीव तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि, यहां सराशिका ग्रहण है । अपगतवेदी जीव स्वस्थानसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ।। ७३ ।। यह सूत्र सुगम है।
अपगतवेदी जीव लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ७४ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं- अपगतवेदी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में
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२, ६, ७७. 1
ताग वेदमगणा
संखेज्जदिभागे । कुदो ? संखेज्जुवसामग - खवगजीवग्गहणादो ।
समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ७५ ॥
सुगमं ।
वा ॥ ७६ ॥
लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे
[ ३४९
मारणंतियसमुग्धाद्गदा उवसामगा चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइजा दे। असंखेज्जगुणे । एवं दंडगदा त्रि । कवाडगदा वि एवं चेत्र । णवरि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे त्ति वत्तव्यं । पदरगदा लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु । कुदो १ वादवलएसु जीवपदे साभावादो | लोगपूरणे सव्वलोगे, जीवपदेसेहि अणोद्धलोग पदेसाभावादो ।
उववादं णत्थि ॥ ७७ ॥
तत्थुष्पज्ज माणजीवाभावादो ।
और मानुषक्षेत्र संख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि, यहां संख्यात उपशामक और क्षपक जीवोंका ग्रहण है ।
अपगतवेदी जीव समुद्घातकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ७५ ॥ यह सूत्र सुगम है |
अपगतवेदी जीव समुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागमें, अथवा असंख्यात बहुभागों में, अथवा सर्व लोकमें रहते हैं ।। ७६ ।।
मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त उपशामक जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इसी प्रकार दण्डसमुद्घातको प्राप्त जीव भी चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । कपाटसमुद्घातको प्राप्त जीवोंका क्षेत्र भी इसी प्रकार ही है । विशेष इतना है कि तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग में रहते हैं ऐसा कहना चाहिये । प्रतरसमुद्घातको प्राप्त वे ही जीव लोकके असंख्यात बहुभागों में रहते हैं, क्योंकि, इस अवस्थामें वातवलयों में जीवप्रदेशोंका अभाव रहता है । लोकपूरणसमुदघातको प्राप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, जीवप्रदेशों से अनवपृब्ध लोकप्रदेशांका इस अवस्था में अभाव रहता
I
अपगदवेदी जीवों में उपपाद पद नहीं होता ॥ ७७ ॥
क्योंकि, अपगतवेदियों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंका अभाव है।
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ६, ७८.
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई वुंसयवेदभंगो ॥ ७८ ॥
कुदो ? सत्थान-वेयण- कसाय मारणंतिय उववादेहि सव्वलोगावट्ठाणेण; वेउब्वियाहारपदेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागत्तणेण, तिरियलोगस्स संखेज्जदिगत्तणेण, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणत्तणेण दोन्हं भेदाभावादो | णवरि वेउब्वियस्स तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तणेण भेदो अस्थि, तमेत्थ ण पहाणं । णवरि एत्थ तेजाहारपदाणि अस्थि, वंस णत्थि अप्पसत्यत्तणेण ।
अकसाई अवगदवेदभंगो ॥ ७९ ॥
३५० ]
सुगममेदं ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी णवुंसयवेदभंगो ॥ ८० ॥
वरि वेव्वियस्स तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तणेण भेदो अस्थि, तमेत्थ
कषायमार्गणानुसार क्रोध कपायी, मानकपायी, मायाकपायी और लोभकपायी जीवोंका क्षेत्र नपुंसकवेदियोंके समान है ॥ ७८ ॥
क्योंकि, स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्वात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा सर्व लोकमें अवस्थान से, तथा वैक्रियिक और आहारक समुद्धातकी अपेक्षा तीन लोकोके असंख्यातवें व तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागत्व से एवं अढ़ाई द्वीपकी अपेक्षा संख्यातगुणत्वले उक्त चारों कपायवाले जीवों व नपुंसकवेदियोंके कोई भेद नहीं है । विशेष इतना है कि वैक्रियिकसमुद्धातकी अपेक्षा तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागत्वले भेद है, किन्तु वह यहां प्रधान नहीं है । दूसरी विशेषता यह है कि यहां तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धात पद हैं, किन्तु अप्रशस्त होनेसे नपुंसकवेदियों में ये नहीं होते हैं ।
अकषायी जीवोंका क्षेत्र अपगतवेदियोंके समान है ॥ ७१ ॥
यह सूत्र सुगम है |
ज्ञानमार्गणानुसार मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानियोंका क्षेत्र नपुंसकवेदियों के समान है ॥ ८० ॥
विशेष इतना है कि वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा तिर्यग्लोक संख्यातवें
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२, ६, ८२.] खेत्ताणुगमे णाणमग्गणा
[ ३५१ अप्पहाणं ।
विभंगणाणि-मणपज्जवणाणी सत्थाणेण समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ८१ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८२ ॥ ___ एत्थ ताव विभंगणाणीणं वुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-उब्वियसमुग्धादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगणे । कुदो ? पहाणीकददेवपज्जत्तरासित्तादो । मारणंतियसमुग्घादगदा एवं चेव । णवरि तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तव्यं ।।
मणपज्जवणाणीणं बुच्चदे--- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जस्स संखेज्जादिभागे। मारणंतियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणे । सेसं सुगमं ।
...........
भागत्वसे दोनोंमें भेद है, परन्तु वह यहां अप्रधान है।
विभंगज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव स्वस्थान व समुद्धातसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ८१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
विभंगज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ८२ ॥
यहां पहले विभंगज्ञानियोंका क्षेत्र कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्धातकी प्राप्त विभंगज्ञानी जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां देव पर्याप्त राशि प्रधान है । मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त विभंगज्ञानियोंके क्षेत्रका प्ररूपण भी इसी प्रकार है । विशेष इतना है कि वे तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं ऐसा कहना चाहिये।
___ मनःपर्ययज्ञानियोंका क्षेत्र कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्घातको प्राप्त मनापर्ययज्ञानी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपके संख्यातवें भागमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात प्राप्त वे ही जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
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३५२ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंध
[२, ६, ८३. उववादं णत्थि ॥ ८३ ॥ एदेसि दोहं णाणाणमपज्जत्तकाले संभवाभावादो ।
आभिणिवोहिय-सुद-ओधिणाणी सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ८४॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८५ ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसायवेउब्धिय मारणंतिय-उववादगदा एदे चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एवं तेजाहारपदेसु वि । णवरि माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे ।
केवलणाणी सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? ॥८६॥ सुगमं ।
विभंगज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता ॥ ८३ ॥ क्योंकि, अपर्याप्तकाल में इन दोनों शानोंकी संभावना नहीं है।
आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ८४ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ८५ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमद्धात, कषायसमद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त ये उपर्युक्त जीव चार लोकोंके अंसख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पदोंमें जानना चाहिये । विशेष इतना है कि इन पदोंकी अपेक्षा मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं।
केवलज्ञानी जीव स्वस्थानकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ३४ ॥ यह सूत्र सुगम है।
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[३५३
२, ६, ९०.]
खेत्ताणुगमे णाणमग्गणा लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८७ ॥
सत्थाण-विहारवदिसत्थाणेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागं माणुसखेतस्स संखेज्जदिभागं च मोत्तूणुवरि पुसणस्साभावादो ।
समुग्घादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ८८ ॥ सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा ॥ ८९॥
___ दंडगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कवाडगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । पदरगदा लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु । लोगपूरणे सव्वलोगे।
उववादं णत्थि ॥ ९० ॥ अपज्जत्तकाले केवलणाणाभावादो ।
केवलज्ञानी जीव स्वस्थानसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ८७॥
स्वस्थान और विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा चार लोकोंके असंख्यासवें भाग और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागको छोड़कर ऊपर स्पर्शनका अभाव है।
समुद्घातकी अपेक्षा केवलज्ञानी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ८८ ॥ यह सूत्र सुगम है।
समुद्घातकी अपेक्षा केवलज्ञानी जीव लोकके असंख्यातवें भागमें, अथवा असंख्यात बहुभागोंमें, अथवा सर्व लोकमें रहते हैं ? ॥ ८९ ॥
दण्डसमुद्घात केवलज्ञानी चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्थातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। कपाटसमुद्घातगत केवलज्ञानी तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवे भागमें, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। प्रतरसमुद्घातगत केवल ज्ञानी लोकके असंख्यात बहुभागोंमें रहते हैं। लोकपूरणसमुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोकमें रहते हैं।
केवलज्ञानियोंके उपपाद पद नहीं होता ।। ९० ॥ क्योंकि, अपर्याप्तकालमें केवलज्ञानका अभाव है।
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३५५] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ६, ९१. संजमाणुवादेण संजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा अकसाईभंगो ॥ ९१ ॥
एसो दव्वट्ठियणिद्देसो । पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे विसेसो अत्थि तं वत्तइस्सामो । तं जहा-- सत्थाण-विहारबदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वे उव्विय-तेजाहारसमुग्धादगदा संजदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । मारणंतियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे । केवलिसमुग्धादगदा (लोगस्स असंखेज्जस्भिागे) असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा। एवं जहाक्खादसुद्धिसंजदाणं वत्तव्यं । णवीर तेजाहारपदाणि णस्थि ।।
सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा संजदासजदा मणपज्जवणाणिभंगो ॥ ९२ ।।
एसो व्यट्ठियणिद्देसो । पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे पुण अस्थि विसेसो । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-बेउब्धिय-तेजाहारपदेहि सामाइय
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संयममार्गणानुसार संयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीवोंका क्षेत्र अकपायी जीवोंके समान है ? ॥ ९१ ॥
यह कथन द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे है। पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करनेपर जो विशेषता है उसे कहते हैं । वह इस प्रकार है-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्धातको प्राप्त संयत जीव चार लोकोंके असंख्यातवे भागमें और मानु क्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षत्रमें रहते हैं। केवलिसमुद्धातको प्राप्त वे ही संयत जीव (लोकके असंख्यातवें भागमें ), अथवा असंख्यात बहुभागोंमें, अथवा सर्व लोकमें रहते हैं। इसी प्रकार यथाख्यातशुद्धिसंयत जीवोंका क्षेत्र भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उनके तैजस और आहार पद नहीं होते।
समायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंका क्षेत्र मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है ।। ९२ ॥
यह कथन द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर विशेषता है । वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, तेजससमुद्धात और आहारकसमुद्धात,
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२, ६, ९५.] खेताणुगमे दंसणमग्गणा
। ३५५ छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । मारणंतियपदेण एवं चेव । णवीर माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तव्यं । एवं परिहारसुद्धिसंजदाणं । णवीर तेजाहारं णत्थि । एवं सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं । णवरि विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-उचियपदाणि वि णत्थि । सत्थाण-विहारवदिसत्थाणवेयण-कसाय-बेउव्यिय-मारणंतियपदेहि संजदासजदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे त्ति भेदुवलंभादो।।
असंजदा णqसयभंगो ॥ ९३॥ णवरि वेउब्धियस्स तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे। सेसं सुगमं ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी सत्थाणेण समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ९४ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ९५ ॥
इन पदोंकी अपेक्षा सामायिक छदोपस्थापनशुद्धिसंयत जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं । मारणान्तिकपदकी अपेक्षा भी इसी प्रकार ही क्षेत्रका निरूपण है । विशेष इतना है कि मारणान्तिकसमुद्धातगत जीव मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं ऐसा कहना चाहिये । इसी प्रकार परिहारशुद्धिसंयत जीवों का भी क्षेत्र है । विशेषता केवल इतनी है कि इनके तैजस और आहारकसमुद्घात नहीं होते । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंका भी क्षेत्र है। विशेष इतना है कि इनके विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पद भी नहीं हैं । स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रिथिकसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे संयतासंयत जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, इस प्रकार भेद पाया जाता है।
असंयत जीवोंका क्षेत्र नपुंसकवेदियोंके समान है ॥ ९३ ॥
विशेष इतना है कि वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त असंयत जीव तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
दर्शनमार्गणानुसार चक्षुदर्शनी जीव स्वस्थानसे और समुद्घातसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ९४ ॥
यह सूत्र सुगम है। चक्षुदर्शनी जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यात भागमें रहते हैं ॥ ९५ ॥
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३५६ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधों
[ २, ६, ९६.
एत्थ विवरण कस्समो । तं जहा - सत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेयण-कसायवेत्रियपदेहि चक्खुदंसणी तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । तेजाहारपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । मारणंतियपदेण तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर- तिरियलोगे हिंतो असंखेज्जगुणे अच्छंति त्ति संबंधो कायव्वो ।
उववादं सिया अस्थि, सिया णत्थि । लद्धिं पडुच्च अस्थि, णिव्वत्तिं पडुच्च णत्थि । जदि ला पडुच्च अस्थि, केवडिखेत्ते ? ॥ ९६ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ९७ ॥
दस अत्थो बुच्चदे । तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर- तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे ।
अचक्खुदंसणी असंजदभंगो ॥ ९८ ॥
इस सूत्र के अर्थका विवरण करते हैं । वह इस प्रकार हैस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा चक्षुदर्शनी जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भाग में रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिये ।
T
चक्षुदर्शनी जीवोंके उपपाद पद कथंचित् होता है, और कथंचित् नहीं भी होता है । लब्धिकी अपेक्षा उपपाद पद होता है, किन्तु निर्वृत्तिकी अपेक्षा नहीं होता । यदि लब्धिकी अपेक्षा उपपाद पद होता है तो उसकी अपेक्षा वे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? || ९६ ||
यह सूत्र सुगम है |
उपपादकी अपेक्षा चक्षुदर्शनी जीव लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥९७॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं— उपपादकी अपेक्षा चभ्रुदर्शनी जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । अचक्षुदर्शनियोंका क्षेत्र असंयत जीवोंके समान है ॥ ९८ ॥
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२, ६, १०२.1
खेत्ताणुगमे लेस्सामगणा ओधिदंसणी ओधिणाणिभंगो ॥ ९९ ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ १० ॥ एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया असंजदभंगो ॥ १०१ ॥
कुदो ? सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादेहि सबलोगे अट्ठाणेण; विहारवदिसत्थाण-वेउव्वियपदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेजदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अवट्ठाणेण च साधम्मियादो । णवरि उव्यिय तिरियलोगस्स असंखेज्जादेभागे । तमेत्थ अप्पहाणं ।
तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिया सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १०२॥
सुगमं ।
अवधिदर्शनियोंका क्षेत्र अवधिज्ञानियों के समान है ॥ ९९ ॥ केवलदर्शनियोंका क्षेत्र केवलज्ञानियोंके समान है ॥ १० ॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं।
लेश्यामार्गणानुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंका क्षेत्र असंयतोंके समान है ॥ १०१ ।।
__ क्योंकि, स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंकी अपेक्षा सर्व लोको अवस्थानसे; तथा विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, एवं अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें अवस्थानसे उपर्युक्त लेश्यावाले जीवोंकी असंयत जीवोंसे समानता है। विशेष इतना है कि वैक्रियिकसमुद्धातकी अपेक्षा उक्त जीव तिर्यग्लोकके असंख्यातवे भागमें रहते हैं । किन्तु वह यहां अप्रधान है।
तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १०२ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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३५८)
छक्खंडागमे खुदाबंधो । २, ६, १०३. लोगस्स असंखेज्जदिमागे ॥ १०३ ॥
एदस्स देसामासियसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउबियपदेहि तेउलेस्सिया तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? पहाणीकयदेवरासित्तादो । मारणंतियपदेण वि एवं चेव । णवीर तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तवं । एवं चेव उववादेण वि । एत्थ ओवट्टगे ठविज्जमाणे सोधम्मरासिं ठविय अप्पणो उवक्कमणकालेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे एगसमएण तत्थुप्पज्जमाणजीवपमाणं होदि । पुणो पभापत्थडे उप्पज्जमाणजीवाणं पमाणागमणहमवरेगो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो भागहारो ठवेदव्यो । एवं ठविदे दिवड्डरज्जुआयामेण उववादगदजीवपमाणं होदि । पुणो संखेज्जपदरंगुलमेत्तरज्जूहि गुगिदे उववादखेत्तं होदि । एत्थ ओवट्टणं जाणिय कायव्यं ।
सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसायपदेहि पम्मलेस्सिया तिण्हं लोगाणं
उक्त दो लेश्यावाले जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥१०३ ॥
इस देशामर्शक सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषाय समुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे तेजोलेश्यावाले जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां देवराशिकी प्रधानता है । मारणान्तिकसमुद्घात पदकी अपेक्षा भी इसी प्रकार ही क्षेत्र है। विशेष इतना है कि तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, ऐसा कहना चाहिये। इसी प्रकार उपपाद पदकी अपेक्षा भी क्षेत्रका निरूपण जानना चाहिये। यहां अपवर्तनके स्थापित करते समय सौधर्मराशिको स्थापित कर अपने उपक्रमणकालरूप पल्योपमके असंख्यातवे भागसे भाग देनेपर एक समयमें वहां उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण होता है। पुनः प्रभा पटलमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके प्रमाणके परिज्ञानार्थ एक अन्य पल्योपमके असंख्यातवें भागको भामहाररूपसे स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार उक्त भागहारके स्थापित करनेपर डेढ़ राजुप्रमाण आयामसे उपपादको प्राप्त जीवोंका प्रमाण होता है। पुनः उसे संख्यात प्रतरांगुलमात्र राजुओंसे गुणित करनेपर उपपादक्षेत्रका प्रमाण होता है। यहां अपवर्तना जानकर करना चाहिये ।
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात
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२, ६, १०६.] खेत्ताणुगमे लेस्सामग्गणा
[ ३५९ असंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? पहाणीकदतिरिक्खरासीदो। वेउव्यिय-मारणंतिय-उववादेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? सणक्कुमार-माहिंदजीवाणं पाहणियादो ।
सुक्कलेस्सिया सत्थाणेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १०४ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १०५॥
एदस्स अत्थो चुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-उववादेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एत्थ उववादजीवा संखेज्जा चेव । कुदो ? मणुस्सेहिंतो चेव आगमणादो ।
समुग्धादेण लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा ॥ १०६ ॥
पदोंसे पद्मलेश्यावाले जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां तिर्यचराशि प्रधान है । वैक्रियिकसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पके जीवोंकी प्रधानता है ।
शुक्ललेश्यावाले जीव स्वस्थान और उपपाद पदोंसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १०४॥
यह सूत्र सुगम है। शुक्ललेश्यावाले जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥१०५।।
इसका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान और उपपाद पदोंसे शुक्ललेश्यावाले जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । यहां उपपादपदगत जीव संख्यात ही हैं, क्योंकि, मनुष्योमेसे ही यहां आगमन है।
शुक्ललेश्यावाले जीव समुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागमें, अथवा असंख्यात बहुभागोंमें अथवा सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १०६ ॥
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ६, १०७.
दस्त्थों युच्चदे । तं जहा - वेयण कसाय- वे उव्त्रिय-दंड-मारणंतियपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एवं तेजाहारपदाणं पि । वरि माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे त्ति वत्तव्यं । सेस केवलिपदाणि सुगमाणि । भवियाणुवादेण भवसिद्धिया अभवसिद्धिया सत्थाणेण समुग्धादेण उववादे केवडिखेत्ते ? ॥ १०७ ॥
३६० ]
सुगमं ।
सव्वलोगे ॥ १०८ ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे - सत्थाणसत्थाण- वेयण-कसाय मारणंतिय उववादेहि अभवसिद्धिया सव्वलोगे । कुदो ? आणंतियादो । विहारवदिसत्थाण - वेउच्चियपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? 'सव्वत्थोवा धुवबंधगा, सादियबंधगा असंखेज्जगुणा, अणादियबंधगा असंखेज्जगुणा, अद्भुवबंधगा विसेसाहिया धुवबंध गेणूण सादिय बंधगेणेत्ति ' तसरासिमस्सिदूण बुत्तबंधप्पाबहुगसुत्तादो वदे |
/ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- वैदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, दण्डसमुद्घात और मारणान्तिक पदोंकी अपेक्षा चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इसी प्रकार तैजससमुद्घात व आहारकसमुद्घात पदोंके भी क्षेत्रका निरूपण करना चाहिये । विशेष इतना है कि इन पदोंकी अपेक्षा उक्त जीव मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भाग में रहते हैं, ऐसा कहना चाहिये । शेष केवलिसमुद्घात पद सुगम हैं ।
भव्य मार्गणाके अनुसार भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ।। १०७ ॥
यह सूत्र सुगम है।
भव्यसिद्धिक व अभव्यसिद्धिक जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक में रहते हैं ॥ १०८ ॥ इसका अर्थ कहते हैं स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा अभव्यसिद्धिक जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं ।
शंका- - यह कहांसे जाना जाता है ?
समाधान - 'ध्रुवबन्धक सबसे स्तोक हैं, सादिवन्धक असंख्यातगुणे हैं, अनादिबन्धक असंख्यातगुणे हैं, और अध्रुवबन्धक ध्रुवबन्धकोंसे रहित सादिबन्धकोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं ' इस प्रकार सराशिका आश्रय कर कहे गये बन्धसम्बन्धी अल्प
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२, ६, ११०.] खेत्ताणुगमे सम्मत्तमग्गणा
[ ३६१ तसकाइएसु अभवसिद्धिया पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्ता । कधमेदं णव्वदे ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ततससादियबंधगेहितो तसधुवबंधगाणमसंखेज्जगुणहीणतण्णहाणुववत्तीदो । भवसिद्धियाणमोघभंगो ।
सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी खइयसम्मादिट्ठी सत्थाणेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १०९॥
सुगम । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ११० ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-उववादेण चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तरासित्तादो ।
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बहुत्वानियोगद्वारके सूत्रसे जाना जाता है।
त्रसकायिकोंमें अभव्यसिद्धिक जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं।
शंका- यह कैसे जाना जाता है कि त्रसकायिकोंमें अभव्यसिद्धिक जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही हैं ?
समाधान-क्योंकि, यदि ऐसा न माना जाय तो पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र त्रस सादिबन्धकोंकी अपेक्षा त्रस ध्रुवबन्धकोंके असंख्यातगुणहीनता बन नहीं सकती।
भव्यसिद्धिक जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है।
सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि स्वस्थान और उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १०९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ११० ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारपत्स्वस्थान और उपपाद पदसे उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, उक्त जीवराशि पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र है।
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ६, १११.
समुग्घादेण लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा ॥ १११ ॥ एदस्स अत्थो बुच्चदे - वेयण-कसाय - वेउच्चिय-मारणंतिएहि सम्मादिट्ठी खइयसम्मादिट्ठी चदुहं लोगाणमसंखेज्जदिभागे माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे । एवं केवलिदंड खेत्तं पि । एवं तेजाहारपदाणं । णवरि माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे ति वत्तव्यं । सेसतिणि वि केवलिपदाणि सुगमाणि ।
1
३६२ ]
वेद सम्माइट्टि उवसमसम्माइट्ठि-सासणसम्माहट्टी सत्थाणेण समुग्वादेण उववादेण केवडिखेते ? ॥ ११२ ॥
सुगममेदं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ११३ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो जाणिय वत्तव्यो । वरि उवसमसम्माइट्ठीसु मारणंतियउववादपदट्ठिदजीवा' संखेज्जा चेत्र ।
सम्यग्दृष्टि व क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव समुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागमें, अथवा असंख्यात बहुभागोंमें, अथवा सर्व लोक में रहते हैं ।। १११ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - वेदनासमुद्घात, कपायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में व मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इसी प्रकार केवलिदण्डसमुद्घातकी अपेक्षा भी क्षेत्रका निरूपण करना चाहिये। इसी प्रकार तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा भी क्षेत्रका प्रमाण जानना चाहिये । विशेष इतना है कि उक्त दोनों समुद्घातगत जीव जीव मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं, ऐसा कहना चाहिये । शेष तीनों ही केवलिपद सुगम हैं ।
वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ११२ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त जीव उक्त पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ११३॥ इस सूत्र का अर्थ जानकर कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उपशमसस्यग्दृष्टियोंमें मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंमें स्थित जीव संख्यात ही हैं ।
१ प्रतिषु ' उववादपदिट्ठिदजीवा ' इति पाठः ।
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२, ६, ११४.]
खेत्ताणुगमे सम्मत्तमग्गणा सम्मामिच्छाइट्ठी सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? ॥ ११४ ॥
सम्मामिच्छादिहिस्स वेयण-कसाय-घेउब्धियपदेसु संतेसु वि समुग्धादस्स अस्थित्तमणिय सत्थाणपदस्स एक्कस्स चेव परूवणादो णज्जदि जधा वेयण-कसाय-वेउव्वियपदाणि समुग्घादपदम्हि ण गहिदाणि त्ति । जदि एदम्हि गंथे ण गहिदाणि तो वि किमटुं एत्थ परूवणा कीरदे ? जेसिमेरिसो अहिप्पाओ ण ते तेहि परूवेति । जेसिं पुण समुग्घादपदस्संतो वेदणादिपदाणि अस्थि ते तेहि परूवणं करेंति । जदि एवं तो सम्मामिच्छादिट्ठिम्हि समुग्घादपदेण होदव्वं ? ण एस दोसो, जत्थ मारणंतियमस्थि तत्थेव तेसिमत्थित्तस्स अब्भुवगमादो । किमट्ठमेवंविहअब्भुवगमो कीरदे ? ण, मारणंतिएण विणा वेदणादिखेत्ताणं पहाणत्ताभावपदुप्पायणटुं तहाभुवगमकरणे दोसाभावादो । सेसं सुगमं ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव स्वस्थानकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ११४ ॥
सम्याग्मिथ्याष्टिके वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्धात पदोंके होनेपर भी समुद्घातके अस्तित्वको न कहकर केवल एक स्वस्थानपदके ही निरूपणसे जाना जाता है कि वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात . पद समुद्घातपदमें गृहीत नहीं है।
शंका- यदि इस ग्रन्थमें वे गृहीत नहीं है तो किस लिये यहां उनकी प्ररूपणा की जाती है ?
समाधान--इस प्रकार जिनका अभिप्राय है वे उनकी अपेक्षा क्षेत्रका निरूपण नहीं करते हैं। किन्तु जिनके अभिप्रायसे वेदनासमुद्घातादि पद समुद्घात पदके भीतर है वे उनकी अपेक्षा क्षेत्रका निरूपण करते हैं।
__ शंका- यदि ऐसा है तो सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें समुद्घात पद होना चाहिये ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जहां मारणान्तिकसमुद्घात पद है वहां ही उनका अस्तित्व स्वीकार किया गया है ।
शंका-ऐसा किस लिये स्वीकार किया गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्घातके विना वेदनादिसमुद्धात क्षेत्रोंकी प्रधानताके अभावको बतलानेके लिये वैसा स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ११५ ॥
सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेयण-कसाय- वेउच्त्रियपदेहि सम्मामिच्छादिट्ठी चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे ति एसो सुत्तस्सत्थो । मिच्छाइट्ठी असंजदभंगो ॥ ११६ ॥
३६४ ]
सुगममेदं ।
सणियाणुवादेण सण्णी सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखे ? ॥ ११७ ॥
[ २, ६, ११५
सुगममेदं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ११८ ॥
देण सूचिदत्थो बुच्चदे । तं जहा - सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेयण कसाय - वे उव्वियपदेहि सण्णी तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एवं मारणंतिय उववादेसु वि वत्तन्वं । णवरि
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव स्वस्थानसे लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ।। ११५ ॥
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, यह इस सूत्र का अर्थ है ।
मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र असंयत जीवोंके समान है ।। ११६ ॥
यह सूत्र सुगम है |
संज्ञिमार्गणानुसार संज्ञी जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपाद पदसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ।। ११७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
संज्ञी जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ११८ ॥
इस सूत्र के द्वारा सूचित अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है - स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे संक्षी जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग में, और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । इसी प्रकार मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदों के विषय में भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि तिर्यग्लोकले असंख्यातगुणे
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२, ६, १२२.] खेत्ताणुगमे आहारमग्गणा
(३६५ तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तव्यं ।
असण्णी सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेते ? ॥११९॥ सुगम। सव्वलोगे ॥ १२०॥
एदस्सत्थो- सत्थाणसत्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतिय उववादेहि असण्णी सब्यलोगे । विहारवदिसत्थाण-वेउब्धियपदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । णवरि वेउव्वियं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे।
आहाराणुवादेण आहारा सत्थाणेण समुग्घाण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १२१ ॥
सुगममेदं । सव्वलोगे ॥ १२२ ॥
क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा कहना चाहिये।
असंज्ञी जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपाद पदसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ११९ ॥
यह सूत्र सुगम है। असंज्ञी जीव उक्त पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १२० ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे असंही जीव सर्व लोकमें रहते हैं। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । विशेष इतना है कि वैक्रियिक पदकी अपेक्षा तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।
___ आहारमार्गणानुसार आहारक जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं १ ॥ १२१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
आहारक जीव उक्त पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १२२ ।। १ अ-आप्रमोः ‘वत्तव्वं भागिदव्वं ' इति पाठः ।
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३६६
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [ २, ६, १२३. एदस्सत्थो- सत्थाणसत्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतिय-उववादेहि सव्वलोए, आणंतियादो । विहारवदिसत्थाण-वेउवियपदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे ।
अणाहारा केवडिखेत्ते ? ॥ १२३ ॥ सुगमं । सव्वलोए ॥ १२४ ॥
कुदो ? आणतियादो। एत्थ भवस्त पढमसमए अवट्ठिदाणं उववाद होदि, बिदियादिदोसु समएसु द्विदाणं सत्थाणं होदि । एवं दोसु पदेसु लब्भमाणेसु किमहें ताणि दो पदाणि ण वुत्ताणि ? ण, तत्थ खेत्तभेदाणुवलंभादो ।
एवं खेत्ताणुगमो त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे आहारक जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं।
अनाहारक जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ १२३ ॥ यह सूत्र सुगम है। अनाहारक जीव सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १२४ ।। क्योंकि, वे अनन्त हैं!
शंका-यहां भवके प्रथम समयमें अवस्थित जीवोंके उपपाद होता है और द्वितीयादिक दो समयोंमें स्थित जीवोंके स्वस्थान पद होता है। इस प्रकार दो पदोंकी प्राप्ति होनेपर किसलिये उन दो पदोंको यहां नहीं कहा? समाधान नहीं, क्योंकि, उनमें क्षेत्रभेद नहीं पाया जाता ।
इस प्रकार क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
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फोसणाणुगमो फोसणाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएहि सत्थाणेहि केवडिखेत्तं फोसिदं ? ॥ १॥
एत्थ णिरयगदीए ति चेवकारो अज्झाहारेयव्यो । तेण किं लद्धं ? णिरयगदीए चेव णेरइया, ण अण्णत्थ कत्थ वि त्ति पडिसेहो उवलद्धो । तेहि णेरइएहि सत्थाणत्थेहि केवडियं खेत्तं फोसिद- किं सव्वलोगो, किं लोगस्स असंखेज्जा भागा, किं लोगस्स संखेज्जदिभागो, किमसंखेजदिभागो त्ति एदमाइरियासंकिदं । वा सद्देण विणा कधमासंकावगम्मदे ? ण, अवुत्तस्स वि पयरणवसेण कत्थ वि अवगमुवलंभादो । सेसं सुगमं । एत्थ ओघाणुगमो किण्ण परूविदो ? ण, चौदसमग्गणांविसिट्ठजीवाणं फोसणावगमेण
___स्पर्शनानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकी जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥१॥
यहां सूत्रमें 'नरकगतिमें ही' ऐसा एवकारका अध्याहार करना चाहिये। शंका-एवकारका अध्याहार करनेसे क्या लाभ है ?
समाधान-नरकगतिमें ही नारकी जीव हैं, अन्यत्र कहींपर नहीं हैं, इस प्रकार एवकारसे उनका अन्यत्र प्रतिषेध उपलब्ध होता है। उन नारकियोंके द्वारा स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है-क्या सर्व लोक स्पृष्ट है, क्या लोकका असंख्यात बहुभाग स्पृष्ट है, क्या लोकका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है, किं वा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ? यह आचार्य द्वारा आशंका की गई है।
शंका-वा शब्दके विना कैसे आशंकाका परिज्ञान होता है ?
समाधान-अनुक्तका भी प्रकरणवश कहींपर अवगम पाया जाता है। शेष . सूत्रार्थ सुगम है।
शंका- यहां ओघानुगमका प्ररूपण क्यों नहीं किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, चौदह मार्गणाओंसे विशिष्ट जीवोंके स्पर्शनका शान
२ प्रतिषु 'वे' इति पाठः ।
१ प्रतिषु ' .णेरइया' इति पाठः । ३ प्रतिषु मग्गाण-' इति पाठः।
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३६८ ]
तस्स व अवगमादो ।
छक्खंडागमे खुदाबंधो
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २ ॥
होदु णाम व माणकाले' णेरइएहि सत्थाणेहि छुत्तं खेत्तं चदुन्हं लोगाणमसंखेअदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणं । किंतु णादीदकाले एदं होदि, तत्थ तिन्हं लोगाणं संखेज्जदिभागमेत्तछुत खेत्तुवलंभादो । तं कथं ? णेरइया लोगणालिं समचउरसरज्जुमेतायामविक्खंभ - छरज्जुआयदं सव्वमदीदकाले सङ्काणट्टिया फुसंति त्ति ? ण, संखेज्जजोयणबाहल्लसत पुढवीओ मोत्तूण तेसिमदीदकाले अण्णत्थ अवट्ठाणाभावादो । जदि वि एवं तो व तीकाले तिरियलोगादो संखेजगुणेण होदव्वं, संखेज्जसूचिअंगुलबाइलतिरियपदरमेत्तखेत्तुवलंभादो ? ण, पुढवीणमसंखेज्जदिभागे चेव णेरइया होंतिि गुरुवदेसादो, सत्थाणेहि तिरिय लोगस्स असंखेज्जदिभागों चैव पोसिदो त्ति वक्खाणादो वा ।
होनेसे उसका भी ज्ञान हो जाता है ।
नारकियों द्वारा स्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥२॥
शंका - वर्तमान कालमै नारकियोंसे स्पृष्ट क्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण व माणुस क्षेत्र से असंख्यातगुणा भले ही हो, किन्तु यह अतीतकालमें नहीं बनता, क्योंकि, अतीतकाल में तीन लोकोंके संख्यातवें भागमात्र स्पृष्ट क्षेत्र पाया जाता है ?
प्रतिशंका - वह कैसे ?
[ २, ७, २.
प्रतिशंकाका समाधान - नारकी जीव स्वस्थानमें स्थित होते हुए अतीतकाल में समचतुष्कोण एक राजुप्रमाण आयाम व विष्कम्भ से युक्त तथा छह राजु ऊंची सब लोकनालीको छूते हैं ।
शंकाका समाधान - नहीं, क्योंकि, संख्यात योजन बाहल्यरूप सात पृथिवियोंको छोड़कर उन नारकियोंका अतीतकाल में अन्यत्र अवस्थान नहीं है ।
शंका- यद्यपि ऐसा है तो भी अतीतकाल में तिर्यग्लोकले संख्यातगुणा क्षेत्र होना चाहिये, क्योंकि, संख्यात सूच्यंगुल बाहल्यरूप व तिर्यक् प्रतरमात्र क्षेत्र पाया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, पृथिवियोंके असंख्यातवें भाग में ही नारकी जीव होते हैं, ऐसा गुरूपदेश है; अथवा स्वस्थानों की अपेक्षा तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग ही स्पृष्ट है, ऐसा. व्याख्यान पाया जाता है ।
१ प्रतिषु' कालो ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' मागे ' इति पाठ: ।
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२, ७, ५.] फोसणाणुगमे णेरइयाणं फोसणं
[ १९९ समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥३॥ सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ४ ॥
एवं सुत्तं वट्टमाणकालमस्सिदृण उबइ8 । ण च एत्थ पुणरुत्तदोसो, मंदबुद्धीणं पुणरुत्तपुव्वुत्तत्थसंभालणेण फलोवलंभादो । अहवा वेयण-कसाय-वेउब्धियपदाणमतीदकालफोसणं पडुच्च एवं वुत्तं । तत्थ चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागस्स माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणस्स फोसिदखेत्तस्सुवलंभादो । छच्चोदसभागा वा देसूणा ॥ ५॥
एदं मारणतिय-उववादपदाणमदीदकालमस्सिदण वुत्तं । मारणंतियस्स छच्चोदसभागा संखेज्जजोयणसहस्सेण ऊणा। अधवा एत्थ ऊणपमाणमेत्तियमिदि ण णव्वदे, पासेसु मज्झेसु एत्तियं खेत्तमू गमिदि विसिवएसाभावादो । उववादपदे वि ऊणपमाण
नारकियोंके द्वारा समुद्घात व उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ३ ॥ यह सूत्र सुगम है। नारकियों द्वारा उक्त पदोंसे लोलका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥४॥
यह सूत्र वर्तमान कालका आश्रय कर उपदिष्ट है। यहां पुनरुक्त दोष भी नहीं है, क्योंकि, मन्दबुद्धि जीवोंको पुनरुक्त पूर्वोक्त अर्थका स्मरण करानेसे फलकी उपलब्धि है । अथवा, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदों के वर्तमानकालसम्बन्धी स्पर्शनकी अपेक्षा कर यह सूत्र कहा गया है, क्योंकि, उनमें चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा स्पृष्ट क्षेत्र पाया जाता है ।
अथवा, उक्त नारकियोंके द्वारा कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पृष्ट
___ यह मूत्र मारणान्तिक और उपपाद पदोंके अतीत कालका आश्रय कर कहा गया है। मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा संख्यात योजनसहस्रसे हीन छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पृष्ट है। (देखो पुस्तक ४, पृ. १७४ आदि)। अथवा यहां हीनताका प्रमाण इतना है, यह जाना नहीं जाता, क्योंकि, स्पर्शनके मध्यमें इतना क्षेत्र कम है, इस प्रकार विशिष्ट उपदेशका अभाव है। उपपाद पदमें भी हीनताका प्रमाण पूर्वके
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३७०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ७, ६. पुव्वं व जाणिदूण वत्तव्वं । कधं छचोद्दसभागा मारणं जुज्जदे १ ण, तिरिक्ख-णेरइयाणं सव्वदिसाहितो आगमण-गमणसंभवादो।
पढमाए पुढवीए णेरइया सत्थाण-समुग्घाद-उववादपदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥६॥
एत्थ चेवकारो ण अज्झाहारेयव्यो, अवहारणाभावादो । जे पढमाए पुढवीए णेरइया तेहि सत्थाण-समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदमिदि एत्थ संबंधो कायव्यो । सेसं सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥७॥
एदेण देसामासियसुत्तेण सूइदत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउव्यिय-मारणंतिय-उववादपदेहि वट्टमाणकालमस्सिदूण परू
समान जानकर कहना चाहिये ।
शंका - मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा छह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कैसे योग्य है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, तिर्यंच व नारकी जीवोंका सब दिशाओंसे आगमन और गमन सम्भव है ।
। प्रथम पृथिवीमें नारकी जीवोंके द्वारा स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥६॥
यहां एवकारका अध्याहार नहीं करना चाहिये, क्योंकि, अवधारण अर्थात् निश्चयका अभाव है । जो प्रथम पृथिवीमें नारकी जीव हैं उनके द्वारा स्वस्थान, समुद्धात *और उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है, इस प्रकार यहां सम्बन्ध करना चाहिये । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
प्रथम पृथिवीके नारकियों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ ७ ॥
इस देशामर्शक सूत्रके द्वारा सूचित अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार हैस्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, पैक्रियिकसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात तथा उपपाद पदोंकी अपेक्षा वर्तमान कालका आश्रय कर स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । स्वस्थानस्वस्थान, विहार
....
१ प्रतिष्ट्र भागे ' इति पाठः।
.
२ आप्रतौ — उववादपरिणदेहि ' इति पाठः ।
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२, ७, ७.] फोसणाणुगमे णेरइयाणं फोसणं
[३७१ वणाए खेत्तभंगो । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउवियपदपरिणदेहि मेरइएहि तीदे काले चदुण्ह लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? असंखेज्जजोयणविक्खंभणिरयावासखेत्तफलं ठविय गैरइयाणगुस्सेहेण गुणिय लद्धं तप्पाओग्गसंखेज्जबिलसलागाहि गुणिदे तिरियलोगस्स असंखेज्जदिमागमेत्तखेत्तुवलंभादो । अदीदकाले मारणंतिय-उववादपरिणदेहि पढमपुढविणेरइयेहि तिणं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणों फोसिदो। कधं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तं ? असीदिसहस्साहियजोयणलक्खपढमपुढविवाहल्लम्मि हेडिमजोयणसहस्सं णेरइएहि सव्वकालं ण छुप्पदि त्ति काऊण एत्थ जोयणसहस्समवणिय सेसजोयणसहस्सबाहल्लं रज्जुपदरं ठविय उस्सेहेण एगुणवंचासमेत्तखंडाणि काऊण पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि । कुदो ? एक्करज्जुरुंदो सत्तरज्जुआयदो जोयणलक्खबाहल्लो तिरियलोगो ति गुरूवएसादो । जे पुण जोयणलक्खबाहल्लं रज्जुविक्खंभं झल्लरीसमाणं तिरियलोग भणंति तेसिं
वत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धात पदोंको प्राप्त नारकियोंके द्वारा अतीत कालमें चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र
पत्र स्पष्ट है, क्योंकि, असंख्यात योजन विष्कम्भरूप नारकावासके क्षेत्रफलको स्थापित कर व उसे नारकियोंके उत्सेधसे गुणित कर प्राप्त राशिको तत्प्रायोग्य संख्यात बिलशलाकाओंसे गुणित करनेपर तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भागमात्र क्षेत्र उपलब्ध होता है । अतीत कालकी अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्धात व उपपाद पदको प्राप्त प्रथम पृथिवीके नारकियों द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है।
शंका-तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्शन क्षेत्र कैसे प्राप्त होता है ?
समाधान-एक लाख अस्सी सहस्त्र योजनप्रमाण प्रथम पृथिवीके बाहल्यमें अधस्तन एक सहस्र योजन क्षेत्र सर्व काल नारकियोंसे नहीं छुआ जाता, ऐसा समझकर, इसमेंसे एक सहस्र योजनोंको कम कर, शेष (एक लाख उन्यासी) सहस्र योजन बाहल्यरूप राजुप्रतरको स्थापित कर, उत्लेधसे उनंचास मात्र खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है, क्योंकि, 'एक राजु विस्तृत, सात राजु आयत, और एक लाख योजन बाहल्यवाला तिर्यग्लोक है' ऐसा गुरुका उपदेश है। किन्तु जो आचार्य एक लाख योजन बाहल्यसे युक्त व एक राजु विस्तृत झालरके समान तिर्य
१ अ-काप्रत्योः 'पदेहि परिणदे णेरइएहि ', आप्रतोपदेहि परिणदे णेरइए' इति पाठः।
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३७२) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ७, ७. मारणंतिय-उववादखेत्ताणि तिरियलोगादो सादिरेयाणि होति । ण चेदं घडदे, एदम्हि उवदेसे घेप्पमाणे लोगम्मि तिण्णिसदतेदालमेत्तघणरज्जूणमणुप्पत्तीदो। ण च एदाओ घणरज्जू असिद्धाओ, रज्जू सत्तगुणिदा जगसेडी, सा वग्गिदा जगपदरं, सेडीए गुणिदजगपदरं घणलोगो होदि त्ति सयलाइरियसम्मदपरियम्मसिद्धत्तादो। ण च सव्वदो हेडिम-मज्झिम-उवरिमभागेहि वेत्तासण-झल्लरी-मुइंगसमाणे लोगे घेप्पमाणे सेढी'-पदरघणलोगा वग्गसमुट्ठिदा होंति, तधा संभवाभावादो। ण च एदेसिमवग्गसमुट्ठिदत्तम
भुवगंतुं जुत्तं, कदजुम्मेहि पंचिंदियतिरिक्ख-पज्जत्त-जोणिणि-जोदिसिय-वेंतरदेवअवहारकालेहि सुत्तसिद्धेहि अकदजुम्मजगपदरे भागे हिदे सच्छेदस्स जीवरासिस्स आगमणप्पसंगादो । ण च एवं, जीवाणं छेदाभावादो, दवाणिओगद्दारवक्खाणम्मि वुत्तहेट्ठिमउवरिमवियप्पाणमभावप्पसंगादो च । तिण्णिसदतेदालघणरज्जुपमाणो उबमालोओ, एदम्हादो अण्णो पंचदव्याहारो लोगो त्ति के वि आइरिया भणंति । तं पि ण घडदे, उवमेएण विणा उवमाए अण्णत्थ घणगुल-पलिदोवम-सागरोवमादिसु अणुवलंभादो । तम्हा- एत्थ वि उवमेएण लोगेण पमाणदो उवमालोगाणुसारिणा पंचदव्वाहारेण ग्लोकको बतलाते हैं उनके मतानुसार मारणान्तिक व उपपाद क्षेत्र तिर्यग्लोकसे साधिक होते हैं। (देखो पुस्तक ४, पृ. १८३ और १८६ के विशेषार्थ) । परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, इस उपदेशके ग्रहण करनेपर लोकमें तीनसौ तेतालीस मात्र घनराज ओंकी उत्पत्ति नहीं बनती। तथा ये घनराज असिद्ध भी नहीं हैं, क्योंकि, 'राजुको सातसे गुणित करनेपर जगश्रेणी, उस जगप्रेणीका वर्ग जगप्रतर और जगश्रेणीसे गुणित जगप्रतरप्रमाण घनलोक होता है' इस प्रकार समस्त आचार्यों द्वारा माने गये परिकर्मसूत्रसे वे सिद्ध है । दूसरी बात यह है कि सब ओरसे अधस्तन, मध्यम व उपरिम भागोंसे क्रमशः चेत्रासन, झालर व मृदंगके समान लोकके ग्रहण करने पर जगणी, जगप्रतर और घनलोक वर्गसे उत्पन्न नहीं होंगे; क्योंकि, उक्त मान्यतामें वैसा संभव ही नहीं है। और इनकी विना वर्गके उत्पत्ति स्वीकार करना उचित भी नहीं है, क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचन्द्रिय पर्याप्त तिर्यच, योनिमती तिर्यंच, ज्योतिषी और वानव्यन्तर देवोंके सूत्रसिद्ध कृतयुग्मराशिरूप अवहारकालोंका अकृतयुग्म जगप्रतरमें भाग देनेपर सछेद जीवराशिकी प्राप्तिका प्रसंग होगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि जीवोंके छेदोंका अभाव है । तथा द्रव्यानुयोगद्वारके व्याख्यानमें कहे गये अधस्तन व उपरिम विकल्पोंके अभावका भी प्रसंग होगा। (देखो पुस्तक ३, पृ. २१९, २४९ व पुस्तक ७, पृ. २५३ )।
तीनसौ तेतालीस घनराजुप्रमाण उपमालोक है, इससे पांच द्रव्योंका आधारभूत लोक अन्य है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, उपमेयके विना उपमाका अन्यत्र घनांगुल, पल्योपम व सागरोपमादिकोंमें अनुपलम्भ है । अत एव यहां भी प्रमाणसे उपमालोकका अनुसरण करनेवाला
१ प्रतिषु — सीदी- ' इति पाठः ।
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२, ७, १०. फोसणाणुगमे णेरड्याणं फोसणं
[३७१ अण्णेण होदव्यमण्णहा एदस्स उवमालोगत्ताणुववत्तीदो । सेसं सुगुमं ।
विदियाए जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ८॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥९॥
एदस्सत्था-सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसस्थाणपदपरिणदेहि अदीद-वट्टमाणकालेसु णेरइएहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। कुदो? छण्णं पुढवीणं लोगणालीए रुद्धखेत्तस्स असंखेज्जदिभागे चेव णेरइयावासाणमुवलंभादो ।
समुग्घाद-उववादेहि य केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १०॥ सुगमं ।
व पांच द्रव्योंका आधारभूत उपमेय लोक अन्य होना चाहिये, क्योंकि, इसके विना इसके उपमालोकत्व बन नहीं सकता (देखो पुस्तक ४, पृ. १०-२२)। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
द्वितीयसे लेकर सप्तम पृथिवी तकके नारकियों द्वारा स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ८ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त नारकियों द्वारा स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है
इस सूत्रका अर्थ- स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान पदोंसे परिणत नारकियोंके द्वारा अतीत व वर्तमान कालोंमें चार लोकोका असंख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, छह पृथिवियोंके लोकनालीसे रुद्ध असंख्यातवें भागमें ही नारकावास पाये जाते हैं।
उक्त नारकियों द्वारा समुद्घात व उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है !
यह सूत्र सुगम है।
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३७४ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ७, ११. लोगस्स असंखेज्जदिभागो एग-बे-तिण्णि-चत्तारि-पंच-छ-चोदसभागा वा देसूणा ॥ ११ ॥
- वेयण-कसाय-उब्धियपदपरिणदेहि तीदे काले लोगस्स असंखेजदिभागो फोसिदो। वट्टमाणकाले पुण छपुढविणेरइएहि वेयण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतिय-उववादपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । तीदे काले मारणंतिय-उववादेहि बिदियादिछपुढविणेरइएहि जहाकमेण देसूणएग-बे-तिण्णि-चत्तारिपंचचोद्दसभागा। कुदो ? तिरिक्खाणं णेरइयाणं तीदे काले सबदिसाहि आगमणगमणसंभवादो।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खा सत्थाण-समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १२ ॥
सुगममेदं । सब्बलोगो ॥ १३॥
उक्त नारकियों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम चौदह . भागोंमेंसे क्रमशः एक, दो, तीन, चार, पांच और छह भाग स्पृष्ट हैं ॥ ११ ॥
- वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे परिणत उक्त नारकियों द्वारा अतीत कालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है। किन्तु वर्तमान कालकी अपेक्षा छह पृथिवियोंके नारकियों द्वारा वेदनाससुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात,मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदोंसे परिणत होकर चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। अतीत कालकी अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे द्वितीयादि छह पृथिवियोंके नारकियों द्वारा यथाक्रमसे कुछ कम चौदह भागों में से एक, दो, तीन, चार, पांच और छह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, तिर्यंच व नारकियोंका अतीत कालमें सब दिशाओंसे आगमन और गमन सम्भव है।
तियंचगतिमें तियंच जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ १२ ॥
यह सूत्र सुगम है। तिर्यंच जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पर्श करते हैं ॥ १३ ॥
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२, ७, १३.] फोसणाणुगमे तिरिक्खाणं फोसणं
[ ३७५ एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । सत्थाणसस्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतिय-उववादेहि तीदे काले सबलोगो फोसिदो । कुदो ? वट्टमाणे व सव्वलोगे अवट्ठाणुवलंभादो। विहारेण तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । असंखेज्जेसु समुद्देसु तसजीवविरहिएसु संतेसु कधं विहरंताणं तिरिक्खाणं तत्थ संभवो' ? ण, तत्थ पुव्यवइरियदेवाणं पओएण विहारे विरोहाभावादो। तीदे काले विहरंततिरिक्खेहि पुट्ठखेत्ताणयणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- लक्खजोयणबाहल्लं रज्जुपदरं ठविय उड्डमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं खेत्तं होदि । जदि वि जोयणलक्खबाहल्लेण विणा संखेज्जजोयणबाहल्लं तिरियपदरं लब्भदि, तो वि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो चेव होदि । वेउब्वियसमुग्घादगदाणं वट्टमाणे खेत्तं, तीदे काले तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, दोहि लोगेहितो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? वाउकाइयजीवाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं विउव्वणखमाणं पंच
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- यहां वर्तमानकालप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदोंसे अतीत कालमें तिर्यंच जीवों द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, वर्तमान कालके समान अतीत कालमें भी तिर्यंच जीवोंका सर्व लोकमें अवस्थान पाया जाता है। विहारकी अपेक्षा अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है।
__ शंका- असंख्यात समुद्रोंके त्रस जीवोंसे रहित होनेपर वहां विहार करनेवाले प्रस जीवोंकी सम्भावना कैसे हो सकती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, वहां पूर्व वैरी देवोंके प्रयोगसे विहार होने में कोई विरोध नहीं है।
अतीत कालमें विहार करनेवाले तिर्यंचोंसे स्पृष्ट क्षेत्रके निकालनेका विधान कहते हैं । वह इस प्रकार है- एक लाख योजन बाहल्यरूप राजुप्रतरको स्थापित कर ऊपरसे उनचास खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र क्षेत्र होता है। यद्यपि एक लाख योजन बाहल्यके विना संख्यात योजन बाहल्यरूप तिर्यप्रतर प्राप्त होता है, तथापि तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग ही होता है। वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त तियेच जीवोंकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। किन्तु अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और दो लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, विक्रिया करने में समर्थ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण वायु
१ प्रतिषु 'संभवादो' इति पाठः ।
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३७६ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २,७, १४. रज्जुबाहल्लरज्जुपदरमेत्तफोसणुवलंभादो ।
पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पचिंदियतिरिक्ख-- जोणिणि-पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता सत्थाणेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥१४॥
सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १५॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा - एदेसिं वट्टमाणं खेत्तं । आदिल्लेहि तिहि वि तिरिक्खेहि सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरिक्खलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एदम्हि खेते आणिज्जमाणे भोगभूमिपडि भागदीवाणमंतरेसु द्विदअसंखेज्जेसु समुद्देसु सत्थाणपदंद्विदतिरिक्खा णत्थि त्ति एवं खेत्तमाणिय रज्जुपदरम्मि अवणिय सेसं संखेज्जसूचिअंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं पंचिंदियतिरिक्खतिगस्स सत्थाणखेत्तं होदि । विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउवियचउक्केण परिणदतिविहपंचिंदियतिरिक्खेहि तिण्हं लोगाणम
कायिक जीवोंका पांच राजु बाहल्यरूप राजुप्रतरप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ १४ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त चार प्रकारके तिर्यचों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥१५॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- इनकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । अतीत कालकी अपेक्षा प्रथम तीन प्रकारके तिर्यंचों द्वारा स्वस्थान पदसे तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। इस क्षेत्रके निकालते समय भोगभूमिप्रतिभागरूप द्वीपोंके अन्तरालमें स्थित असंख्यात समुद्रोंमें स्वस्थान पदमें स्थित तिर्यंच नहीं हैं, अतः इस क्षेत्रको लाकर व राजुप्रतरमेंसे कम कर शेषको संख्यात सूच्यंगुलोंसे गुणित करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र उक्त तीन पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका स्वस्थानक्षेत्र होता है। विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात, इन चार पदोंसे परिणत तीन प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचों द्वारा तीन लोकोंका
१ प्रतिषु 'पदिहिद-' इति पाठः ।
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२, ७, १७.] फोसणाणुगमे तिरिक्खाणं फोसणं
[ ३७७ संखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? मित्तामित्तदेवाणं वसेण एदेसि सव्वदीव-समुद्देसु संचरणं पडि विरोहाभावादो । तेणेत्थ संखेज्जंगुलबाहल्लतिरियपदरमुडमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे पंचिंदियतिरिक्खतिगस्स विहारादिचउक्कखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं होदि । एसो वासदेण सूइदहो । विहारवदिसत्थाणखेत्तपरूवणाए चेव वेयण-कसाय-वेउब्वियपदाणं पि परूवणा कदा गंथलाघवकरणहूँ । ( समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १६ ॥ सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा ॥ १७॥
एदस्स सुत्तस्स बट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । वेयण-कसाय-बेउब्धियपदाणं पि तीदकालपरूवणा पुव्वमेव परूविदा । मारणंतिय-उववादपरिणयपंचिंदियतिरिक्खतिएहि
असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, मित्र व शत्रुरूप देवोंके वशसे इनके सर्व द्वीपसमुद्रोंमें संचार करनेका कोई विरोध नहीं है। इसीलिये यहां संख्यात अंगुल बाहल्यरूप तिर्यक् प्रतरके ऊपरसे उनचास खण्ड कर प्रतराकारसे स्थापित करनेपर उक्त तीन पंचेन्द्रिय तिर्यचोंका विहारादि चार पदसम्बन्धी क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र होता है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । ग्रन्थलाघवके लिये विहारवत्स्वस्थान क्षेत्रकी प्ररूपणासे वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्धात पदोंकी भी प्ररूपणा कर दी गई है।
उक्त तीन प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके द्वारा समुद्धात व उपपाद पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥१६॥
यह सूत्र सुगम है। ___ उपर्युक्त तियंचोंके द्वारा उक्त पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ १७ ॥
इस सूत्रकी वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रके समान है। वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात व वैक्रियिकसमुद्घात पदोंकी अतीतकालप्ररूपणा भी पूर्व में ही की जा चुकी है। मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे परिणत उक्त तीन पंचेन्द्रिय तिर्यचों द्वारा
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३७८ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ७, १७.
तीदकाले सव्वलोगो फोसिदो । लोगणालीए चाहिं तसकाइयाणं सव्वकालसंभवाभावादो सव्वलोगो त्ति वयणं ण जुज्जदे । ण एस दोसो, मारणंतिय उववाद परिणयतसजीव मोनू सेस साणं वाहिमत्थित्तपडिसेहादो | पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । संपदि तीदकालपरूवणं कस्सामो । तं जहा - सत्थाणसत्थाणवेयण-कसायपदपरिणएहि पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? कम्मभूमिपडिभागे सयंपहपव्वयं परभागे अड्डाइजदीव - समुद्देसु च अदीदकाले तत्थ सव्वत्थ संभवादो | तेण तेहि फोसिदखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो | तस्साणयणविहाणं वुच्चदे – सर्वपहपव्त्रदभंतर खेत्तं जगपदरस्स संखेज्जदिभागो । तं रज्जुपदरम्मि अवणिदे सेसं जगपदरस्स संखेज्जदिभागो । तं संखेज्जसूचिअंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि । अपज्जत्ताण मंगुलस्सा संखेज्जदिभागोगाहणाणं कथं संखेज्जं -
अतीत काल में सर्व लोक स्पृष्ट है ।
शंका- लोकनाली के बाहिर सर्वदा कालमें सकायिक जीवोंकी सर्वदा सम्भावना न होने से ' सर्व लोक स्पृष्ट है ' यह कहना योग्य नहीं है ?
समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे परिणत त्रस जीवोंको छोड़कर शेष त्रस जीवोंके अस्तित्वका लोकनालीके बाहिर प्रतिषेध है ।
पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीवोंकी वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्र के समान है । इस समय अतीत कालकी अपेक्षा प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है - स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंसे परिणत पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तों द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि कर्मभूमिप्रतिभागरूप स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें और अढ़ाई द्वीप समुद्रों में अतीत कालकी अपेक्षा वहां उनकी सर्वत्र सम्भावना है। इसीलिये उनके द्वारा स्पृष्ट क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । उसके निकालने के विधानको कहते हैं- स्वयंप्रभ पर्वतका अभ्यन्तर क्षेत्र जगप्रतरके संख्यातवें भागप्रमाण है। उसे राजुप्रतर मैंसे कम करनेपर शेष जगप्रतर के संख्यातवें भागप्रमाण रहता है । उसे संख्यात सूच्यंगुलोंसे गुणित करने पर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है । शंका - अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनावाले अपर्याप्त जीवोंका
१ प्रतिषु ' पज्जय' इति पाठः ।
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२, ७, १९. 1 फोसणाणुगमे मणुस्साणं फोसणं गुलुस्सेहो लब्भदे ? ण, मुदपंचिंदियादितसकाइयाणं कलेवरेसु अंगुलस्स संखेज्जदिभागमादि काऊण जाव संखेज्जजोयणा त्ति कमबड्डीए द्विदेसु उप्पज्जमाणाणमपज्जत्ताणं संखेज्जंगुलुस्सेहुबलभादो । अधवा सव्वेसु दीव-समुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होति । कुदो ? पुरवइरियदेवसंबंधेण कम्मभूमिपीडभागुप्पण्णपंचिंदियतिरिक्खाणं एगबंधणबद्धछज्जीवणिकाओगाढ ओरालियदेहाणं सव्वदीव-समुद्देसु अबढाणदंसणादो । मारणंतिय-उववादेहि पुण सबलोगो फोसिदो । कुदो ? मारणंतिय-उववादाणं सबलोगे पडिसेहाभावादो।
मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणीओ सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १८ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १९ ॥
संख्यात अंगुलप्रमाण उत्सेध कैसे पाया जाता है ?
समाधान नहीं. क्योंकि, अंगुलके संख्यातवें भागको आदि लेकर संख्यात योजन तक क्रमवृद्धिसे स्थित मृत पंचेन्द्रियादि प्रसकायिक जीवोंके शरीरों में उत्पन्न होनेवाले अपर्याप्तोंका संख्यात अंगुलप्रमाण उत्सेध पाया जाता है । अथवा, सभी द्वीपसमुद्रोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव होते है, क्योंकि, पूर्वके वैरी देवोंके सम्बन्धसे एक बन्धनमें बद्ध छह जीवनिकायोंसे व्याप्त औदारिक शरीरको धारण करनेवाले कर्मभूमि प्रतिभागमें उत्पन्न हुए पंचेन्द्रिय तिर्यचोंका सर्व समुद्रों में अवस्थान देखा जाता है। मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, मारणान्तिकसमुदघात व उपपाद पदोसे परिणत उक्त जीवोंका सब लोकमें प्रतिषेध नहीं है।
मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यनियों द्वारा स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ १८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उक्त तीन प्रकारके मनुष्यों द्वारा स्वस्थानसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १९॥
१ अआप्रयोः 'जायण त्ति' इति पाठः।
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छक्खंडागमे खुदाबंध
[ २, ७, २०
एदस्सत्थो बुच्चदे— सत्थाणसत्थाण- विहारव दिसत्थाणेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो फोसिदो, तीदे काले पुञ्चवरिय देवसंबंधेण वि माणुसुत्तरसेलादो परदो मसाणं गमनाभावादो | माणुसखेत्तस्स पुण संखेज्जदिभागो फोसिदो, उवरिगमणाभावादो | अधवा विहारेण माणुसलोगो देसूणो फोसिदो त्ति केई भनि, पुण्ववइरियदेवसंबंघेण उड्ड देसूणजोयणलक्खुपायणसंभवादो |
समुग्धादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २० ॥
૨૮૦
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा ॥ २१ ॥
वेदण-कसाय-उच्वियपदाणं विहारवदिसत्थाणभंगो | तेजाहारपदाणं सत्थाणसत्थाणभंगो | मारणंतिएण सव्वलोगो फोसिदो, तीदे काले सव्वहि लोग खेत्ते माणुसाणं
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं— स्वस्थानस्वस्थान व विहारवत्स्वस्थान से चार लोकोंका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, अतीत काल में पूर्वके वैरी देवोंके सम्बन्ध से भी मानुषोत्तर पर्वत के आगे मनुष्योंका गमन नहीं है । परन्तु मानुषक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, मानुषक्षेत्र के ऊपर उक्त मनुष्योंका गमन नहीं है । अथवा, विहारकी अपेक्षा कुछ कम मानुषलोक स्पृष्ट है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, क्योंकि, पूर्ववैरी देवोंके सम्बन्धसे ऊपर कुछ कम एक लाख योजनके उत्पादनकी सम्भावना है ।
उपर्युक्त मनुष्यों के द्वारा समुद्घातकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २०॥ यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त मनुष्यों के द्वारा समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग, अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ २१ ॥
वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण विहारवत्स्वस्थानके समान है । तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा स्पर्शनप्ररूपणा स्वस्थानस्वस्थान पदके समान है । मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा उक्त मनुष्योंके द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, अतीत कालकी अपेक्षा सब लोकक्षेत्र में मारणान्तिकसमुद्घातसे मनुष्यों का गमन पाया
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२, ७, २३. ]
फासणागमे मणुस्साणं फोसणं
[ ३८१
मारणंतिएण गमवलंभादो | दंड-कवाड-लोग पूरणपरूवणा सुगमेति (ण) परूविजदे । उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २२ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा ॥ २३ ॥
लोगस्सा संखेज्जदिभागो ति णिसो वट्टमाणकालावेक्खो । एदेण जाणिज्जदे वट्टमाणातीदकालसंबंधिखेत्ताणि दो वि फोसणे परूविज्जति त्ति । अदीदे घणसव्वलोगो फोसिदो, सुहुमेहि सव्वलोगावट्ठिएहि आगंतूण मणुस्सेसु उप्पज्जमाणेहि आवूरिज्जमाणलगदंसणादो । कधं पंचेचालीसजोयणलक्खबा हल्लतिरिय पदरमेत्तागास पदेसहिदमणुस्सेहि सव्वलोगो आबूरिज्जदि ? ण, मणुस गइपा ओग्गाणुपुच्त्रि विवागजोग्गागासपदेसेहि सव्वलोग पेरतेसु मज्झे च समयाविरोहेण अवट्ठिएहि णिग्गंतूण संखेज्जासंखेज्जजोयणायामेण मणुस गइमु गएहि सव्वादीदकालम्मि सव्वलोगावरणं पडि विरोहा भावादो ।
जाता है । दण्ड, कपाट, प्रतर व लोकपूरण समुद्घातपदोकी प्ररूपणा सुगम है, इसलिये उनकी प्ररूपणा यहां नहीं की जाती है ।
उपर्युक्त मनुष्योंके द्वारा उत्पादपदकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है १ ।। २२ ।। यह सूत्र सुगम है ।
उपपाद पदकी अपेक्षा उक्त मनुष्यों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है || २३ ॥
'लोकका असंख्यातवां भाग यह निर्देश वर्तमान कालकी अपेक्षा है । इससे जाना जाता है कि वर्तमान व अतीत कालसम्बन्धी क्षेत्र दोनों ही स्पर्शनमें प्ररूपित है । अतीत कालकी अपेक्षा सर्व घनलोक स्पृष्ट है, क्योंकि, मनुष्यों में आकर उत्पन्न होनेवाले सर्व लोक में स्थित सूक्ष्म जीवों से परिपूर्ण लोक देख जाता है ।
"
शंका - पैंतालीस लाख योजन बाहल्यवाले तिर्यक्प्रतरमात्र आकाशप्रदेशों में स्थित मनुष्यों के द्वारा सर्व लोक कैसे पूर्ण किया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि लोकके पर्यन्तभागों में व मध्य में भी समयाविरोधसे स्थित ऐसे मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विपाकयोग्य आकाशप्रदेशोंसे निकलकर संख्यात एवं असंख्यात योजन आयामरूपसे मनुष्यगतिको प्राप्त हुए मनुष्यों द्वारा सर्व अतीत कालमें सर्व लोक के पूर्ण करनेमें कोई विरोध नहीं है ।
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३८२) छक्खंडागमे खुद्दाबंधी
[ २, ७, २४. मगुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं भंगो ॥२४॥
वट्टमाणं खेत्तं । सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेअदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो तीदे काले फोसिदो । मारणंतिय-उववादहि सबलोगो । तेण पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं भंगो ण होदि ति ? ण, दव्यट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे दोसाभावादो ।
देवगदीए देवा सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २५ ॥ सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोइस भागा वा देसूणा ॥२६॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे- वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो। सत्थाणेण देवेहि तिण्हं
.........................................
मनुष्य अपर्याप्तोंके स्पर्शनका निरूपण पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है ।। २४ ॥
मनुष्य अपर्याप्तोंके वर्तमानकालिक स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग व मानुषक्षेत्रका संख्यातवां भाग अतीत कालमें स्पृष्ट है । मारणान्तिकसमुद्घात व उपपादपदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है।
शंका-इसी कारण मनुष्य अपर्याप्तोंके स्पर्शनको पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान कहना ठीक नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर वैसा कहने में कोई दोष नहीं है।
देवगतिमें देव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ २५ ।। यह सूत्र सुगम है।
देव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं ॥ २६ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते है-वर्तमानकालिक स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। देवों, द्वारा स्वस्थानकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग,
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२, ७, २८.] फोसणाणुगमे देवाणं फोसणं
[ ३८३ लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कधं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तं ? ण एस दोसो, चंदाइच्च-बुह-भेसइकोण-सुक्कंगार-णक्खत्त तारागण-अट्ठविहवेंतरविमाणेहि य रुद्धखेत्ताणं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्ताणमुवलंभादो । विहारेण अडचोद्दसभागा देसूणा फोसिदा । मेरुमूलादो उवीर छरज्जुमेत्तो हेट्ठा दोरज्जुमेत्तो देवाणं विहारो, तेण अट्ठचौद्दसभागो त्ति वुत्तो । केण ते ऊगा ? तदियपुढवीए हेट्ठिमजोयणसहस्सेण ।
समुग्धादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥२७॥ सुगमं ।
लोगस्त असंखेज्जदिभागो अट्ठ-णवचोदसभागा वा देसूणा ॥२८॥
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ति णिदेसो वट्टमाणक्खेत्तपरूवणाओ, तेण
तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है ।
शंका-तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग कैसे घटित होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चन्द्र, आदित्य, बुध, बृहस्पति, शनि, शुक, अंगारक ( मंगल ), नक्षत्र, तारागण और आठ प्रकारके व्यन्तर विमानोंसे रुद्ध क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण पाये जाते हैं। विहारकी अपेक्षा कुछ कम - आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । मेरुमूलसे ऊपर छह राजुमात्र और नीचे दो राजुमात्र क्षेत्रमें देवोंका विहार है, इसलिये 'आठ बटे चौदह भाग' ऐसा कहा है।
शंका-वे आठ बटे चौदह भाग किससे कम हैं ? समाधान-तृतीय पृथिवीके नीचे एक सहस्र योजनसे कम हैं। देवों द्वारा समुद्घातकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २७ ।। यह सूत्र सुगम है।
समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह वा नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ २८ ॥
'लोकका असंख्यातवां भाग' यह निर्देश वर्तमानक्षेत्रप्ररूपणाकी अपेक्षासे है,
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३८४ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ७, २९.
एत्थ खेत्ताणिओगद्दार परूवणा जा जोग्गा सा सव्वा परूवेदव्वा | संपहि तीदकाखेपणा करदे - वेयण- कसाय-वेउच्चिएहि अट्ठचोदसभागा फोसिदा । कुदो ! विहरमाणाणं देवाणं सगविहारखेत्तस्संतरे वेयण-कसाय विउच्चणाणमुवलंभादो । मारणंतिएण वचो सभागा फोसिदा, मेरुमूलादो उवरि सत्त हेट्ठा दोरज्जु मे त्तखेत्तन्भंतरे ती काले सव्वत्थ कयमारणंतियदेवाणमुवलंभांदो ।
उवादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २९ ॥
सुमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो छचोहसभागा वा देसूणा ||३०||
लोगस्स असंखेज्जदिभागो चि वट्टमाणखेत्तं पडुच्च णिदेसो कदो | तेणेत्थ खेतपरूवणा सच्चा कायन्वा । तीदकालखेत्त परूवणं कस्सामो- छचोदस्सभागा देसूणा । कुदो ? आरणच्चदकप्पो त्ति तिरिक्ख मणुस असं जदसम्मादिद्वीणं संजदासंजदाणं च उववादुवलंभादो ।
इसलिये यहां जो क्षेत्रानुयोगद्वारप्ररूपणा योग्य हो उस सबकी प्ररूपणा करना चाहिये । अब अतीत कालसम्बन्धी क्षेत्रप्ररूपणा की जाती है - वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, विहार करनेवाले देवोंके अपने विद्वारक्षेत्र के भीतर वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पद पाये जाते हैं । मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, मेरुमूलसे ऊपर सात और नीचे दो राजुमात्र क्षेत्रके भीतर सर्वत्र अतीत काल में मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त देव पाये जाते हैं ।
उपपादकी अपेक्षा देवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उपपादकी अपेक्षा देवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ ३० ॥
'लोकका असंख्यातवां भाग ' यह निर्देश वर्तमान क्षेत्रकी अपेक्षासे किया गया है । इस कारण यहां सब क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये । अतीत कालकी अपेक्षा क्षेत्रकी प्ररूपणा करते हैं— उपपादकी अपेक्षा अतीत कालमें कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं; क्योंकि, आरण- अच्युत कल्प तक तिर्यच व मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टियों और संयतासंयतोंका उपपाद पायां जाता है ।
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फोसणाणुगमे देवाणं फोसणं
[ ३८५
भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसियदेवा सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं
२, ७, ३२. ]
फोसिदं ? ॥ ३१ ॥ सुमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो अद्भुट्टा वा अट्ठचोद्दस भागा वा देसृणा ॥ ३२ ॥
लोगस्स असंखेजदिभागो ति णिद्देसो वट्टमाणं पडुच्च बुत्तो । तेण एत्थ खेत्त परूपण कायव्वा । तीदकालं पडुच्च परूवणं कस्सामो— सत्थाणेण वाणवें तर- जो दिसिय देवेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो | कुदो ? वट्टमाणकाले व तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमोट्ठहिय अवट्ठाणादो | भवणवासियदेवेहि सत्थाणेण चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । विहारवदिसत्थाणेण आहुट्ठचोदसभागा । कुदो ? भवणवासिय वाणवेंतरजोदिसियदेवाणं मेरुमूलादो अधो दोण्णि, उवरि जाव सोहम्मविमाणसिहरधयदंडो त्ति दिवरज्जुमे त्तसगणिमित्तविहारस्सुवलंभादो | परपच्चएण पुण अचोदस भागा
भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ३१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त देव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग, साढ़े तीन राजु अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं ॥ ३२ ॥
'लोकका असंख्यातवां भाग' यह निर्देश वर्तमान कालकी अपेक्षा कहा गया है। इस कारण यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये । अतीत कालकी अपेक्षा प्ररूपणा करते हैं- स्वस्थानपद से वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवों द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, वर्तमान काल के समान अतीत कालमें भी तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागको व्याप्तकर उनका अवस्थान है । भवनवासी देवों द्वारा स्वस्थानकी अपेक्षा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणाक्षेत्र स्पृष्ट है । विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा चौदह भागों में से साढ़े तीन भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंका स्वनिमित्तक विहार मेरुमूलसे नीचे दो राजु और ऊपर सौधर्म विमानके शिखरपर स्थित ध्वजादण्ड तक डेढ़ राजुमात्र पाया जाता है । परन्तु परनिमित्तक विहारकी अपेक्षा उक्त देवों द्वारा कुछ
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३८६] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ७, ३३. देसूणा । कुदो ? उवरिमदेवेहि णिजमाणा ण अद्धवंचमरज्जूओ सगपच्चएण अट्ठरज्जूओ गच्छंति त्ति देवाणमट्टचोद्दसभागकोसणं होदि ।
समुग्घादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ३३ ॥ सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो अद्धट्टा वा अट्ठ-णवचोइस भागा वा देसूणा ॥३४॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे-लोगस्स असंखेजदिभागो त्ति वयणं वट्टमाणखेत्तपरूवणटुं भणिदं । तेण एत्थ खेत्तपरूवणा सव्या कायव्वा । संपधि उवरिल्लेहि सुत्तावयवेहि अदीदकालखेत्तपरूवणा कीरदे- वेयण-कसाय-वेउबिएहि आहुट्टचोद्दसभागा अट्ठचोदसभागा वा फोसिदा । कुदो ? सग-परपच्चएहि हिडंताणं भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवाणं वेयण-कसाय-वेउबिएहि सह परिणयाणमेत्तियवुत्तखेत्तुवलंभादो । मारणतिएण णवचोद्दसभागा देसूणा फोसिदा। कुदो ? मेरुमूलादो हेतुदो
कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, उपरिम देवोंसे ले जाये गये वे देव साढ़े चार । राजु और स्वनिमित्तसे साढ़े तीन राजुप्रमाण गमन करते हैं। इसलिये देवोंका स्पर्शन आठ बटे चौदह भागप्रमाण होता है।
समुद्घातकी अपेक्षा उपर्युक्त देवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ३३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
समुद्घातकी अपेक्षा उपर्युक्त देवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग, अथवा चौदह भागोंमें कुछ कम साढ़े तीन भाग, अथवा आठ व नौ भाग स्पृष्ट हैं ॥ ३४ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं - 'लोकका असंख्यातवां भाग' यह वचन वर्तमानक्षेत्रके प्ररूपणार्थ कहा गया है । इस कारण यहां सब क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये। इस समय सूत्रके उपरिम अवयवोंसे अतीतकालसम्बन्धी क्षेत्रकी प्ररूपणा की जाती है-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा चौदह भागों में साढ़े तीन अथवा आठ भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, स्वनिमित्तसे या परनिमित्तसे विहार करनेवाले भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंका वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात एवं वैक्रियिकसमुद्घात पदोंके साथ परिणत होनेपर इतना ही उक्त क्षेत्र पाया जाता है। मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, मेरु
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२, ७, ३६.1 फोसणाणुगमे देवाणं फोसणं
[ ३८७ दोरज्जुमेत्तमद्धाणं गंतूण ट्ठिदभवणादिदेवाणं घणोदहिद्विदआउकाइयजीवेसु मुक्कमारणंतियाणं णवचोद्दसभागमेत्तफोसणुवलंभादो ।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ३५॥ सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ३६॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे- एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । संपधि तीदकालखेत्तपरूवणं कस्सामो । तं जहा- उववादपरिणदेहि भवणवासिय-वाण-तर-जोदिसिएहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। जोइसियाणं णवजोयणसदबाहल्लं तिरियपदरं ठविय उड्वमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं उववादखेत्तं होदि । वाणवेंतराणं जोयणलक्खबाहल्लं तिरियपदरं ठविय उड्वमेगुणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तमुववादखेत्तं होदि । भवणवासियाणं पि जोयण
मूलसे नीचे दो राजुमात्र मार्ग जाकर स्थित भवनवासी आदि देवोंका घनोदधि वातवलयमें स्थित अप्कायिक जीवोंमें मारणान्तिकसमुद्घात करते समय नौ बटे चौदह भागमात्र स्पर्शन पाया जाता है।
उपपाद पदकी अपेक्षा उक्त देवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ३५ ॥ यह सूत्र सुगम है। उपपाद पदकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ ३६ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- यहां वर्तमान प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। इस समय अतीतकालिक क्षेत्रप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- उपपादपरिणत भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवों द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, व अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । ज्योतिषी देवोंके नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यप्रतरको स्थापित कर व ऊपरसे उनचास खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र उपपादक्षेत्र होता है। वानव्यन्तर देवोंके एक लाख योजन बाहल्यरूप तिर्यप्रतरको स्थापित कर व ऊपरसे उनचास खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र उपपादक्षेत्र होता है । भवनवासियोंके भी एक लाख योजन बाहल्यरूप राजु
१ प्रतिषु ' हेहदोरज्जु' इति पाठः ।
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३८८ ]
छक्खडागमे खुदाबंधो
[ २, ७, ३७.
लक्खबाहल्लं रज्जुपदरं ठविय पुत्रं व खंडिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेतमुववादखेतं होदि ।
सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवा सत्थाण-समुग्धादं देवगदिभंगो
॥ ३७ ॥
एत्थ वद्रुमाणपरूवणाए खेत्तभंगो | अदीदकालमस्सिदूग परूवणाए वि दव्धट्ठियणयावलंबणेण देवगदिभंगो होदि, ण पज्जवट्टियणयावलंबणम्मि । कुदो ! सत्थाणेण सोधम्मीसाणदेवेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो, विहार-वेयण- कसाय- वे उन्त्रिय मारणंतिय परिणएहि अड्डणवचोहसभागा देणा फोसिदा ति णिद्दित्तादो |
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो दिवडचोहसभागा वा देसूणा ॥ ३८ ॥
वट्टमाणकालं पच्च लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अदीदकालं पडुच्च दिव
प्रतरको स्थापित कर व पूर्वके समान ही खंण्ड करके प्रतराकार से स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र उपपादक्षेत्र होता है ।
सौधर्म-ईशान कल्पवासी देवोंके स्पर्शनका निरूपण स्वस्थान और समुद्घातकी अपेक्षा देवगतिके समान है ॥ ३७ ॥
यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । अतीत कालका आश्रय करके स्पर्शनकी प्ररूपणा भी द्रव्यार्थिक नयके अवलंबन से देवगति के समान है, किन्तु पर्यायार्थिक नयसे वह देवगतिके समान नहीं है । इसका कारण यह है कि स्वस्थान से सौधर्म - ईशान कल्पवासी देवों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, तथा विहार, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे परिणत उक्त देवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह और नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है ।
उपपाद पदकी अपेक्षा उक्त देवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ! उपपाद पदकी अपेक्षा उक्त देवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा चौदह भागों में कुछ कम डेढ़ भागप्रमाण क्षेत्र स्पृष्ट है ॥ ३८ ॥
बर्तमान कालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग और अतीत कालकी
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२, ७, ११.1 फोसणाणुगमे देवाणं फासणं
[ ३८९ चोदसभागा देसूणा । कुदो ? तिरिक्ख-मणुस्साणं तीदे काले पहापत्थडे उप्पज्जंताणं दिवड्डरज्जुबाहल्लरज्जुपदरमेत्तफोसणुवलंभादो ।
सणक्कुमार जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवा सत्थाण-समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ३९ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो अgचोदसभागा वा देसूणा ॥४०॥
वट्टमाणकालं पडुच्च लोगस्स असंखेज्जदिभागो ति णिद्दिष्टुं । तेणेत्थ खेतपरूवणा सव्वा कायव्वा । तीदकाले सत्थागेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो फोसिदो । कुदो ? विमाणरुद्धखेत्तस्स चदुण्हं लोमाणमसंखेज्जदिभागमेतपमाणत्तादो । विहार-वेयणकसाय-वेउब्धिय-मारणंतियपदपरिणएहि अट्टचोदसभागा देसूणा फोसिदा । कुदो ? तसजीवे मोत्तणण्णत्थ एदेसिगुप्पत्तीए अभावादो।।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ४१ ॥
अपेक्षा कुछ कम चौदह भागोंमें डेढ़ भागप्रमाण क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, अतीत कालकी अपेक्षा प्रभा पटलमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच व मनुष्योंका डेढ़ राजु बाहल्यसे युक्त राजुप्रतरमात्र स्पर्शन पाया जाता है ।
सनत्कुमारसे लेकर शतार-सहस्रार कल्प तकके देव स्वस्थान और समुद्घातकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ३९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त देव स्वस्थान व समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं ॥ ४० ॥
वर्तमान कालकी अपेक्षा 'लोकका असंख्यातवां भाग' ऐसा निर्देश किया है। इस कारण यहां सब क्षेत्रारूपणा करना चाहिये । अतीत कालमें स्वस्थानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, विमानरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण चार लोकोंके असंख्यातवें भागमात्र है । विहार, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्धात और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे परिणत उक्त देवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौवह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, त्रस जीवोंको छोड़ अन्यत्र उनकी उत्पत्तिका अभाव है।
उक्त देवों द्वारा उपपादकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ४१ ॥
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३९०) छक्खंडागमे खुदाबंधौ
[२, ७, ४२. सुगमं । __ लोगस्स असंखेज्जदिभागो तिण्णि-अद्भुट्ठ-चत्तारि-अद्धवंचमपंचचोदसभागा वा देसूणा ॥ ४२ ॥
____एदस्स अत्थो- वट्टमाणकालं पडुच्च लोगस्स असंखेज्जदिभागो त्ति णिद्देसो । तेणेत्थ खेत्तपरूवणा सयला कायव्या। अदीदेण तिण्णि-आहुट्ठ-चत्तारि-अद्धवंचम-पंचचोद्दसभागा जहाकमेण फोसिदा । कुदो ? मेरुमूलादो तिण्णिरज्जूओ उवरि चडिय सणक्कुमार-माहिंदकप्पाणं परिसमत्ती, तदो उवरिमद्धरज्जु गंतूण बम्ह-बम्हुत्तरकप्पाणं परिसमत्ती, तदो तत्तो उवरिमद्धरज्जु गंतूग लंतय-काविट्ठकप्पाणं परिसमत्ती, तदो अद्धरज्जु गंतूण सुक्क महासुक्ककप्पाणमवसाणं, तत्तो अद्धरज्जु गंतूण सदर-सहस्सारकप्पाणं परिसमत्ती होदि त्ति ।
आणद जाव अच्चुदकप्पवासियदेवा सत्थाण-समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ४३॥
सुगमं ।
यह सूत्र सुगम है।
उक्त देवों द्वारा उपपाद पदकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा चौदह भागोंमें कुछ कम तीन, साढ़े तीन, चार, साढ़े चार और पांच भाग स्पृष्ट हैं ॥ ४२ ॥
इस सूत्रका अर्थ- वर्तमान काल की अपेक्षा 'लोकका असंख्यातवां भाग' ऐसा निर्देश किया गया है । इस कारण यहां सब क्षेत्रारूपणा करना चाहिये । अतीत कालकी अपेक्षा यथाक्रमसे चौदह भागों में तीन, साढ़े तीन, चार, साढ़े चार और पांच भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, मेरुमूलसे तीन राजु ऊपर चढ़कर सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पोंकी समाप्ति है, इससे ऊपर अर्ध राजु जाकर ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर कल्पोंकी समाप्ति है, तत्पश्चात् उससे ऊपर अर्ध राजु जाकर लान्तव-कापिष्ठ कल्पोंकी समाप्ति है, उससे ऊपर अर्ध राजु जाकर शुक्र-महाशुक्र कल्पोंका अन्त है, तथा उससे अर्ध राजु ऊपर जाकर शतारसहस्रार कल्पोंकी समाप्ति होती है।
आनतसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवों द्वारा स्वस्थान व समुद्घात पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ४३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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२, ७, ४६.] फोसणाणुगमे देवाणं फोसणं
[ ३९१ . लोगस्स असंखेज्जदिभागो छचोदसभागा वा देसूणा ॥४४॥
वट्टमाणं खेत्तभंगो । अदीदेण सत्थाणपरिणदेहि लोगस्स असंखेज्जदिभागो फोसिदो। विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-उन्विय-मारणंतियपरिणएहि छचोद्दसभागा फोसिदा । कुदो ? मेरुमूलादो अधो तेसिं गमणाभावेण वेउब्वियादीणमभावादो ।
उववादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥४५॥ सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो अद्धछ?-छचोदसभागा' वा देसूणा ॥ ४६ ॥
एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । अदीदेण आणद-पाणदकप्पे अद्धछट्ठचोद्दसभागा, आरणच्चुदकप्पे छचोद्दसभागा। सेसं सुगुमं ।
उपर्युक्त देवों द्वारा स्वस्थान व समुद्घात पदोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ ४४ ॥
यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । अतीत कालकी अपेक्षा स्वस्थान पदसे परिणत उक्त देवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है । विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे परिणत उक्त देवों द्वारा छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, मेरुमूलसे नीचे उनका गमन न होनेसे वहां वैक्रियिकसमुद्घातादिकोंका अभाव है।
उपपादकी अपेक्षा उपर्युक्त देवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ४५ ॥ यह सूत्र सुगम है।
उपपादकी अपेक्षा उक्त देवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े पांच या छह भाग स्पृष्ट हैं ॥ ४६॥
यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। अतीत कालकी अपेक्षा आनतप्राणत कल्पमें चौदह भागोंमेंसे साढ़े पांच भाग और आरण-अच्युत कल्पमें छह भागप्रमाण स्पर्शन है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
१ अप्रतौ — अट्ठछचोद्दसमागा', आप्रतौ — अट्ठचोदसभागा', काप्रती · अट्ठछचोदसमागा' इति पाठः।
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३९२) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, ४७. णवगेवज जाव सवट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा सत्थाण-समुग्घादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥४७॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥४८॥
सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउब्धिय-मारणतिय -उववादेहि अदीद-वट्टमाणेण चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। णवरि सव्वट्ठसिद्धिम्हि मारणंतिय-उववादविरहिदसेसपदेहि माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो त्ति वत्तव्यं ।
इंदियाणुवादेण एइंदिया सुहुमेहंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाण-समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ४९ ॥
सुगमं । सबलोगो ॥ ५० ॥
नौ अवेयकोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमान तकके देव स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥४७॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त देव उक्त पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ ४८ ॥
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा अतीत व वर्तमान कालसे चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । विशेष इतना है कि सर्वार्थसिद्धि में मारणान्तिक व उपपाद पदोंको छोड़ शेष पदोंकी अपेक्षा मानुषक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है, ऐसा कहना चाहिये।
इन्द्रियमार्गणानुसार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपाद पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ।। ४९ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पर्श करते है ॥ ५० ॥
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२, ७, ५२. ]
फोसणाणुगमे एइंदियाणं फोसणं
[ ३९३
एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो। तीदेण सत्थाण- वेयण-कसाय-मारणंतियउवादेहि सव्वलोगो फोसिदो । वेउब्वियपदेण लोगस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो । वरि हुमाणं वेउब्वियं णत्थि ।
बादरेइंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ५१ ॥
गमं ।
लोगस्स संखेज्जदिभागो ॥ ५२ ॥
कुदो ? पंचरज्जुबाहलं रज्जुपदरं वाउक्काइयजीवारिदं बादरएइंदियजीवावृरिदसत्तपुढवीओ च, तासिं पुढवीणं हेट्ठा ट्ठिदवीसवीसजोयणसहस्सवाहल्लं तिष्णि तिण्णि वादवलयखेत्ताणि लोगंतट्ठिदवाउक्काइयखेत्तं च एग कदे तिन्हं लोगाणं संखेजदिभागो र तिरियलोगेर्हितो असंखेज्जगुणो खेत्तविसेसो उप्पज्जदि । तेण लोगस्स संखेज्जदिभागो अदीद-वट्टमाणे कालेसु लब्भदि ।
यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । अतीत कालकी अपेक्षा स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है । वैक्रियिकसमुद्घात पदसे लोकका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है। विशेष इतना है कि सूक्ष्म जीवोंके वैक्रियिकसमुद्घात नहीं होता ।
बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वस्थान पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ५१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंकी अपेक्षा लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ ५२ ॥
क्योंकि, वायुकायिक जीवोंसे परिपूर्ण पांच राजु बाहल्यरूप राजुप्रतर, बादर एकेन्द्रिय जीवोंसे परिपूर्ण सात पृथिवियों, उन पृथिवियोंके नीचे स्थित बीस बीस सहस्र योजन बाहल्यरूप तीन तीन वातवलयक्षेत्रों, तथा लोकान्तमें स्थित वायुकायिकक्षेत्रको एकत्रित करनेपर तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणा क्षेत्रविशेष उत्पन्न होता है । इसलिये अतीत व वर्तमान कालों में लोकका संख्यातवां भाग प्राप्त होता है ।
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३९.] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, ५३. समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ५३॥ सुगमं । सव्वलोगो ॥ ५४॥
एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो। वेदण-कसाएहि तीदे काले तिण्हं लोगाणं संखेजदिभागो, णर-तिरियलोरोहितो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एवं वेउबिएण वि, पंचरज्जुआयदतिरियपदरम्मि सव्वत्थ विउव्यमाणवाउक्काइयाणं तीदे काले उवलंभादो। मारणंतिय-उववादेहि सव्वलोगो फोसिदो।
बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ५५ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ५६ ॥
समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥५३॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवों द्वारा समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ ५४॥
यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्धात पदोंसे अतीत कालमें तीन लोकोंका संख्यातवां भाग तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । इसी प्रकार वैक्रियिकसमुद्धात पदकी अपेक्षा भी तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, अतीत कालकी अपेक्षा पांच राजु आयत तिर्यक्प्रतरमें सर्वत्र विक्रिया करनेवाले वायुकायिक जीव पाये जाते है । मारणान्तिकसमुद्धात व उपपाद पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है।
द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ५५॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ ५६ ॥
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२, ७, ५८. फोसणाणुगमे वियलिंदियाणं फोसणे
एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणेहि तीदे तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एत्थ सत्थाणखेत्ते आणिज्जमाणे सयंपहपव्वदादो परभागट्टियखेतमाणिय संखेज्जसूचीअंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं सत्थाणखेत्तं होदि। विहारवदिसत्थाणखेत्ते आणिज्जमाणे तिरियपदरं ठविय संखेज्जजोयणाणि बाहल्लं होति त्ति संखेज्जजोयणेहि गुणिय पुणो एवं बाहल्लमेगुणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि । अपज्जत्ताणं विहारवदिसत्थाणं णत्थि ।
समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ५७ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा ॥ ५८॥
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ति वट्टमाणकालावेक्खो णिदेसो। तेणेत्थ खेतपरूवणा कायया । वेयण-कसायपदेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखज्जदिभागो, तिरिय
................
यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान पदोंसे अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। यहां स्वस्थानक्षेत्रके निकालते समय स्वयंप्रभ पर्वतके पर भागमें स्थित क्षेत्रको लाकर संख्यात सूच्यंगुलोसे गुणित करनेपर तियेग्लोकका सख्यातवां भागमात्र स्वस्थानक्षेत्र होता। विहारवत्स्वस्थानक्षेत्रके निकालनेमें तियेप्रतरको स्थापित कर ‘संख्यात योजन वाहल्य हैं' अतः संख्यात योजनोंसे गुणित कर पुनः इस बाहल्यके उनचास खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है। अपर्याप्त जीवोंके विहारवत्स्वस्थान नहीं होता।।
समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥५७॥ यह सूत्र सुगम है।
समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ ५८ ॥
'लोकका असंख्यातवां भाग' यह निर्देश वर्तमान कालकी अपेक्षा है, इसलिये यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये । वेदनासमुद्धात और कषायसमद्धात पदोंकी
अपेक्षा अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और
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३९६] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ७, ५९. लोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो । कुदो ? पुव्यवेरियसंबंधेण तिरियपदरं सव्वं हिंडमाणविगलिंदियाणं सव्वत्थ तीदे कसाय-वेयणाणमुवलंभादो । एसो वासदत्थो । मारणंतिय-उववादेहि सबलोगो फोसिदो, सव्वत्थ गमणागमणविरोहाभावादो । विगलिंदियअपज्जत्ताणं वेयण-कसायखेत्ताणं सत्थाणभंगो, तत्थ विहारखदिसत्थाणस्स अभावादो।
पंचिंदिय-पचिंदियपज्जत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ ५९॥
सुगम । लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥६॥
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ति णिदेसो वट्टमाणावेक्खो। तेणेत्थ खेत्तपरूवणा कायव्वा । संपधि वासदत्थो ताव उच्चदे- सत्थाणेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एदम्मि खेत्ते
अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, पूर्वरैरियोंके सम्बन्धसे सर्व तिर्यकप्रतरमें घूमनेवाले विकलेन्द्रिय जीवोंके सर्वत्र अतीत कालकी अपेक्षा कषायसमुद्घात व वेदनासमुद्घात पद पाये जाते हैं। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, सर्वत्र उक्त जीवोंके गमनागमनमें कोई विरोध नहीं है । विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा क्षेत्रका निरूपण स्वस्थान पदके समान है, क्योंकि विहार वत्स्वस्थानपदका उनमें अभाव है।
- पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव स्वस्थानपदोंसे कितने क्षेत्रका स्पर्श करते हैं ? ॥ ५९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त जीव स्वस्थानपदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग, अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं । ६० ॥
'लोकका असंख्यातवां भाग' यह निर्देश वर्तमान कालकी अपेक्षासे है। इसलिये यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये। अब यहां वा शब्दसे सूचित अर्थ कहते हैंस्वस्थानपदोंसे तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । इस क्षेत्रके निकालनेमें राजुप्रतरको स्थापित
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२, ७, ६२.1 फोसणाणुगमे पंचिदियाणं फोसणं
[ ३९७ आणिज्जमाणे रज्जुपदरं ठविय संखेजंगुलेहि गुणिय तसजीववज्जियसमुद्देहि ओट्ठद्धखेत्तमवणिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं विगलिंदियअपज्जत्ताणं च सत्थाणखेत्तं पुण सयंपहपव्ययस्स परदो चेव होदि, भोगभूमिपडिभागम्मि तेसिमुप्पत्तीए अभावादो । अधवा पुबवेरियदेवपओगेण भोगभूमिपडिभागदीव-समुद्दे पदिदतिरिक्खकलेवरेसु तसअपज्जत्ताणमुप्पत्ती अस्थि त्ति भणंताणमहिप्पारण खेत्ते आणिज्जमाणे संखेज्जंगुलबाहल्लं रज्जुपदरं ठविय एगुणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे अपज्जत्तसत्थाणखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदि. भागो होदि । एवं विहारसत्थाणेण वि, मित्तामित्तदेवप्पओएण सव्वदीव-समुद्देसु विहारस्स विरोहाभावादो । णवरि देवाणं विहारमस्सिदूण अट्ठचोद्दसभागा देसूणा होति ।
समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ६१ ॥ सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोदसभागा वा देसूणा असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा ।। ६२ ॥
कर व संख्यात अंगुलोंसे गुणित कर और उसमेंसे त्रस जीव रहित समुद्रोंसे व्याप्त क्षेत्रको कम कर प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है। किन्तु पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त और विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका स्वस्थानक्षेत्र स्वयंप्रभ पर्वतके पर भागमें ही है, क्योंकि, भोगभूमिप्रतिभागमें उनकी उत्पत्तिका अभाव है। अथवा पूर्ववैरी देवोंके प्रयोगसे भोगभूमिप्रतिभागरूप द्वीप समुद्रोंमें पड़े हुए तिर्यंचशरीरोंमें त्रस अपर्याप्तोंकी उत्पत्ति होती है, ऐसा कहनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे उक्त क्षेत्रके निकालते समय संख्यात अंगुल बाहल्यरूप राजुप्रतरको स्थापित कर व उनचास खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर अपर्याप्त जीवोंका स्वस्थानक्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । इसी प्रकार विहारवत्स्वस्थानपदकी अपेक्षा भी स्पर्शनप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, मित्र व शत्रु स्वरूप देवोंके प्रयोगसे सर्व द्वीप-समुद्रोंमें विहारका कोई विरोध नहीं है। विशेष इतना है कि देवोंके विहारका आश्रय कर कुछ कम आठ बटे चौदह भाग होते हैं ।
समुद्घातोंकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ६१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
समुद्घातोंकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग, कुछ कम आठ बटे चौदह भाग, असंख्यात बहुभाग, अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ ६२ ॥
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३९८ छक्खंडागमै खुदाबंधो
[२, ७, ६३. ___ लोगस्स असंखेज्जदिभागो त्ति णिदेसो वट्टमाणावेक्खो । तेणेत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा । वेयण-कसाय-वेउविएहि अट्टचोदसभागा फोसिदा, विहरंतदेवाणं सव्वत्थ वेयण-कसाय-विउवणाणं विरोहाभावादो। तेजाहारपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो । दंडगदेहि चदुहं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो । एवं कवाडगदेहि दि । णवरि तिरियलोगादो संखेज्जगुणो। एसो वासदत्थो। पदरगदेहि असंखेज्जा भागा, वादवलए मोत्तूण सव्वत्थावूरणादो। मारणंतिय-लोगपूरणेहि सबलोगो फोसिदो ।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ६३॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो सबलोगो वा ॥ ६४ ॥ लोगस्स असंखज्जदिभागो त्ति णिद्देसो वट्टमाणावेक्खो । तेणेत्थ खेत्तवण्णणा
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'लोकका असंख्यातवां भाग' यह निर्देश वर्तमान कालकी अपेक्षा है। इस कारण यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये। वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, विहार करनेवाले देवोंके सर्वत्र वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदों के विरोधका अभाव है । तैजससमुद्घात व आहारकसमुद्घात पदोंसे चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषलोकका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है। दण्डसमुद्घातको प्राप्त जीवों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। इसी प्रकार कपाटसमुद्घातगत जीवों द्वारा भी स्पृष्ट है। विशेष इतना है कि उनके द्वारा तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। प्रतरसमुद्घातगत जीवों द्वारा लोकका असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, इस अवस्था में लोक वातवलयोंको छोड़कर सर्वत्र जीवप्रदेशोंसे पूर्ण होता है। मारणान्तिकसमुद्घात व लोकपूरणसमुद्घात पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है।
उपर्युक्त जीवों द्वारा उपपादकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ६३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त जीवों द्वारा उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग, अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है ।। ६४॥
'लोकका असंख्यातवां भाग ' यह निर्देश वर्तमान कालकी अपेक्षासे है । इस
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२, ७, ६७.] फोसणाणुगमे पंचिंदियाणं फोसणं
[ ३९९ कायव्या । सव्वलोगट्ठिदसुहुमेइंदिएहितो पंचिंदिएसु आगंतूण उप्पण्णपढमसमयजीवाणं सव्वलोगे वावित्तदसणादो उववादेण सव्वलोगो फोसिदो। सत्थाण-समुग्धाद-उववादेसु एयवियप्पेसु कधं सव्वत्थ बहुवयणणिदेसो ? ण, तेसु सगदाणेयवियप्पसंभवादो।
पंचिंदियअपज्जत्ता सत्थाणेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ?॥६५॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥६६॥
एदस्स अत्थं भण्णमाणे वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एदस्स कारणं पुव्वमेव परविदं।
समुग्धादेहि उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ६७ ॥ सुगमं ।
कारण यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये। सर्व लोकमें स्थित सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमेंसे पंचेन्द्रिय जीवों में आकर उत्पन्न होनेके प्रथमसमयवर्ती जीवोंके सर्व लोकमें व्याप्त देखे जानेसे उपपादकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है ।
शंका-स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंके एक विकल्परूप होने पर सर्वत्र बहुवचनका निर्देश कैसे किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि, उनमें स्वगत अनेक विकल्पोंकी सम्भावना है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वस्थानकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥६५॥ यह सूत्र सुगम है।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वस्थानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श करते हैं ॥ ६६ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते समय वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्र. प्ररूपणाके समान करना चाहिये। अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । इसका कारण पूर्व में ही कहा जा चुका है।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों द्वारा समुद्घात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ६७ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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४०० ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ६८ ॥
एत्थ खेrपरूवणं कायव्यं ।
सव्वलोगो वा ॥ ६९ ॥
वेयण-कसायपदेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदि भागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो वासदत्थो । मारणंतिय-उववादेहि सच्चलोगो फोसिदो ।
कायावादेण पुढविकाइय वाउकाइय सुहुमतेउकाइय सुहुमवाउकाइय तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाण - समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ७० ॥
सुमं ।
सव्वलोगो ॥ ७१ ॥
[ २, ७, ६८.
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों द्वारा उक्त पदोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ ६८ ॥
यहां वर्तमान कालकी अपेक्षा क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये ।
अथवा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों द्वारा उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है || ६९ ||
पंचेन्द्रिय अपर्याप्तों द्वारा वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है ।
कायमार्गणानुसार पृथिवीकायिक, वायुकायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और उन्हींके पर्याप्त व अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपाद पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? || ७० ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त जीव उक्त पदोंकी अपेक्षा सर्व लोक स्पर्श करते हैं ॥ ७१ ॥
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२, ७, ७१.] फोसणाणुगमे पुढविकाइयादीणं फोसणं
[१०१ एत्थ वदृमाणपरूवणाए खेत्तभंगो। अदीदेण सत्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतियउववादेहि सबलोगो फोसिदो। तेउकाइएहि वेउब्धियपदेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कम्मभूमिपडि भागसयंभूरमणदीवद्धे चेव किर तेउकाइया होति, ण अण्णत्थेत्ति के वि आइरिया भणति । तेसिमहिप्पारण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो। अण्ण के वि आइरिया सव्वेसु दीव-समुद्देसु तेउकाइयवादरपज्जत्ता संभवंति त्ति भणंति । कुदो ! सयंभूरमणदीव-समुद्दप्पण्णाणं बादरतेउपज्जत्ताणं वाएण हिरिज्जमाणाणं कीडणसीलदेवपरतंताणं वा सव्वदीव-समुद्देसु सविउव्यणाणं गमणसंभवादो । केइमारिया तिरियलोगादो संखेज्जगुणो फोसिदो त्ति भणंति । कुदो ? सयपुढवीसु बादरतेउपज्जत्ताणं संभवादो। तिसु वि उवदेसेसु को एत्थ गेज्झो ? तइज्जो घेत्तव्यो, जुत्तीए अणुग्गहिदत्तादो । ण च सुत्तं तिहमेक्कस्स वि मुक्ककंठं होऊण परूवयमस्थि । पहिल्लओ उपएसो वक्खाणेहि वक्खाणाइरियेहि य संमदो त्ति एत्थ सो चेव णिद्दिट्ठो । वाउक्काइएहि वेउवियपदेण
यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रके समान है। अतीत कालकी अपेक्षा स्वस्थान, घेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदोंसे उक्त जीव सर्व लोक स्पर्श करते हैं। तेजस्कायिक जीवोंके द्वारा वैक्रियिकपदकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवा भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । कर्मभूमिप्रतिभागरूप अर्ध स्वयम्भुरमण द्वीपमें ही तेजस्कायिक जीव होते हैं, अन्यत्र नही, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। उनके अभिप्रायसे उक्त स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है। अन्य कितने ही आचार्य 'सर्व द्वीप-समुद्रों में तेजस्कायिक बादर पर्याप्त जीव संभव हैं' ऐसा कहते हैं, क्योंकि, स्वयम्भुरमण द्वीप व समुद्र में उत्पन्न बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंका वायुसे लेजाये जानेके कारण अथवा क्रीड़नशील देवोंके परतंत्र होनेसे सर्व द्वीप-समुद्रोंमें विक्रिया युक्त होकर गमन सम्भव है। कितने आचार्योंका कहना है कि उक्त जीवोंके द्वारा वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है,क्योंकि, सर्व पृथिवियों में बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंकी सम्भावना है।
शंका-उपर्युक्त तीनों उपदेशोंमें कौनसा उपदेश यहां ग्राह्य है ?
समाधान-तीसरा उपदेश यहां ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि, वह युक्तिसे अनुगृहीत है। दूसरी बात यह है कि सूत्र इन तीन उपदेशोंमेंसे एकका भी मुक्तकण्ठ होकर प्ररूपक नहीं है । पहिला उपदेश व्याख्यानों और व्याख्यानाचार्योंसे सम्मत है, इसलिये यहां उसीका निर्देश किया गया है । वायुकायिक जीवोंके द्वारा वैक्रियिकपदसे तीन लोकोंका
१ अप्रतौ । -समुद्देसु वि उप्पण्णाणं' इति पाठः ।
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४०२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, ७२. तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, शर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? पंचरज्जुबाहल्लं तिरियपदरमावूरिय तीदे काले अवट्ठाणादो ।
बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ७२ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेजदिभागो ॥ ७३ ॥
एदस्स वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । तीदे काले एदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? सव्वकालमट्ठपुढवीओ भवणविमाणाणि च अस्सिदूण अवट्ठाणादो ।
समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खत्तं फोसिदं ? ॥ ७४ ॥ सुगमं ।
संख्यातवां भाग और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, उक्त जीवोंका अतीत कालकी अपेक्षा पांच राजु तिर्यप्रतरको पूर्ण कर अवस्थान है।
बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और उनमें प्रत्येकके अपर्याप्त जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ७२ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥७३॥
इस सूत्रकी वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। अतीत कालकी अपेक्षा इन्हीं जीवों द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, सर्व कालमें आठ पृथिवियों और भवनविमानोंका आश्रय करके उक्त जीवोंका अवस्थान है।
समुद्घात और उपपाद पदोंसे उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥७४॥ यह सूत्र सुगम है।
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२, ७, ७७.] फोलणाणुगमे पुढविकाइयादीणं फोसणं
[१०५ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ७५॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे- तिण्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो वट्टमाणे फोसिदो। सेसं खेत्तभंगो ।
सबलोगो वा ॥ ७६ ॥
एत्थ वासदत्थो वुच्चदे- वेयण-कसायपदपरिणदेहि वेउब्बियपदपरिणदेहि य तिहं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एत्थ वेउब्धियपदस्स पुव्वं व तिविहं वक्खाणं कायव्वं । मारणंतिय-उववादेहि सव्वलोगो फोसिदो, वट्टमाणातीदकालदसणादो ।
बादरपुढवि-बादरआउ-बादरतेउ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥७७॥
सुगमं ।
समुद्घात व उपापद पदोंसे उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- वर्तमान कालमें उक्त पदों की अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। शेष कथन क्षेत्रप्ररूपणाके समान है।
अथवा उक्त पदोंकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ ७६ ॥
यहां वा शब्दसे सूचित अर्थ कहते हैं- वेदनासमुद्घात और कषायसमुदघात पदोसे परिणत तथा वैक्रियिक पदसे परिणत उक्त जीवोंके द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। यहां वैक्रियिक पदकी अपेक्षा पूर्वके समान तीन प्रकार व्याख्यान करना चाहिये। मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, इन पदों में वर्तमान व अतीत काल देखे जाते हैं ।
बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक और पादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव स्वस्थान पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ७७॥
यह सूत्र सुगम है।
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ७, ७८. लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ७८ ॥ ___एत्थ खेत्तवण्णणं कायव्वं, वट्टमाणप्पणादो । तीदे तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। कुदो ? अपज्जत्ताणं वं पज्जत्ताणं पि सधपुढवीसु अवट्ठाणविरोहाभावादो। ण च अट्ठसु पुढवीसु पुढवि-आउ-तेउ-वाउबादराणं बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीराणं च अपज्जत्ता चेव होंति त्ति जुत्ती अस्थि । अण्णाइरियवक्खाणं पुण एवं ण होदि । तं कधं ? बादरआउपज्जत्तबादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तएहि सत्थाण-वेयण-कसायपरिणएहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो, चित्ताए उपरिमभागं मोत्तण बादरभाउपज्जत्त-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ताणमण्णत्थ अबढाणाभावादो । एवं बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्ताणं पि वत्तव्यं, पत्तेयसरीरत्तं पडि भेदाभावादो। एवं बादरतेउकाइयपज्जन्ताणं पि । कुदो १ सयंपहपव्वयस्स परभागे चेव एदेसिमवट्ठाणादो । एदं
उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ ७८ ॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है । अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, अपर्याप्तोंके समान. पर्याप्त जीवोंका भी सर्व पृथिधियों में अवस्थान होनेमें कोई विरोध नहीं है । आठ पृथिवियोंमें पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक व वायुकायिक बादर जीवों तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके अपर्याप्त जीव ही होते हैं, ऐसी कोई युक्ति भी नहीं है । परन्तु अन्य आचार्योंका व्याख्यान ऐसा नहीं है। "
शंका-यह कैसे?
समाधान- 'बादर अप्कायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवों द्वारा स्वस्थान, वेदनासमुद्घात व कषायसमुद्घात पदोंसे परिणत होकर तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, चित्रा पृथिवीके उपरिम भागको छोड़कर अप्कायिक पर्याप्त और बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंका अन्यत्र अवस्थान नहीं है । इसी प्रकार बादर निगोद-प्रतिष्ठित पर्याप्तोंका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि, प्रत्येकशरीरत्वके प्रति दोनों में कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंका भी समझना चाहिये, क्योंकि, स्वयंप्रभ पर्वतके पर भागमें ही इनका अवस्थान है। यह
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२, ७, ७८.] फोसणाणुगमे पुढविकाइयादीणं फोसणं च अण्णाइरियवक्खाणं चक्खिदियपमाणवलपयट्ट । पुढविकाइया सव्वपुढवीसु होति ति एदं पि चक्खिदियबलपयष्टुं चेव । ण च पुढविकाइयादओ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसरीरा इंदियगेज्झा, जेण इंदियबलेण विहि-पडिसेहो होज्ज । तम्हा' सव्वपुढवीओ अस्सिदण एदेसिं बादरअपज्जत्ताणं व पज्जत्ताणं पि अवट्ठाणेण होदव्यं, विरोहाभावादो। तत्थ जलंता णिरयपुढवीसु अग्गिणो वहंतीओ गईओ च णत्थि त्ति जदि अभावो वुच्चदे, तं पि ण घडदे,
__पष्ठ सप्तमयोः शीतं शीतोष्णं पंचभे स्मृतम् ।
चतुर्बत्युष्णमुद्दिष्टस्तासामेव महीगुणा ॥ १ ॥ इदि तत्थ वि आउ-तेऊणं संभवादो । कधं पुढवीणं हेहा पत्तेयसरीराणं संभवो ? ण, सीएण वि सम्मुच्छिज्जमाणपगण-कुहुणादीणमुवलंभादो। कधमुण्हम्हि संभवो ? ण, अच्चुण्हे वि समुप्पज्जमाणजवासपाईणमुवलंभादो।
अन्य आचार्योंका व्याख्यान चक्षु इन्द्रियरूप प्रमाणके बलसे प्रवृत्त है । 'पृथिवीकायिक जीव सर्व पृथिवियों में होते हैं ' यह भी व्याख्यान चक्षु इन्द्रियके बलसे ही प्रवृत्त है।
और अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण शरीरवाले पृथिवीकायिकादि जीव इन्द्रियोंसे ग्राह्य हैं नहीं, जिससे इन्द्रियबलसे उनका विधान व प्रतिषेध हो सके । अतएव इनके बादर अपर्याप्त जीवोंके समान पर्याप्त जीवोंका भी अवस्थान सर्व पृथिवियोंका आश्रय करके होना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विरोध नहीं है। वहां नरकपृथिवियोंमें जलती हुई अग्नियां और बहती हुई नदियां नहीं है, इस कारण यदि उनका अभाव कहते हो तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि
छठी और सातवीं पृथिवीमें शीत तथा पांचवीं में शीत व उष्ण दोनों माने गये हैं । शेष चार पृथिवियों में अत्यन्त उष्णता है । ये उनके ही पृथिवीगुण हैं ॥१॥
इस प्रकार उन नरक पृथिवियों में अप्कायिक व तेजस्कायिक जीवोंकी सम्भावना है।
शंका-पृथिवियोंके नीचे प्रत्येकशरीर जीवोंकी संभावना कैसे है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि शीतसे भी उत्पन्न होनेवाले पगण और कुहुन आदि वनस्पतिविशेष पाये जाते हैं।
शंका-उष्णतामें प्रत्येकशरीर जीवोंका उत्पन्न होना कैसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अत्यन्त उष्णतामें भी उत्पन्न होनेवाले जवासप आदि वनस्पतिविशेष पाये जाते हैं।
१ प्रतिषु ' तं जहा' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो .
[ २, ७, ७९. समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ७९ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८ ॥ एत्थ खेत्तवण्णणं कायव्यं, वट्टमाणप्पणादो । सव्वलोगो वा ॥ ८१॥
एत्थ ताव वासदत्थो उच्चदे । तं जहा- वेयण-कसाय-वेउब्धियपदेहि तिणं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । मारणंतिय-उववादेहि सबलोगो फोसिदो, एदेसिं सव्वत्थ गमणागमणं पडि विरोहाभावादो।
__ बादरवाउक्काइया तस्सेव अपज्जता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ८२ ॥
.........................................
समुद्घात व उपपाद पदोंकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥७९॥
यह सूत्र सुगम है।
समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ ८० ॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है।
अथवा, समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥८१ ॥
यहां पहले वा शब्दसे सूचित अर्थ कहते है । वह इस प्रकार है- वेदना. समुद्घात, कषायसमुद्घात, और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुना क्षेत्र स्पृष्ट है।मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, इन जीवोंके सर्वत्र गमनागमनके प्रति कोई विरोध नहीं है।
___ चादर वायुकायिक और उसके ही अपर्याप्त जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ।। ८२ ।।
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२, ७, ८६.] फोसणाणुगमे पुढविकाइयादणिं फोसणं
[४०७ सुगमं । लोगस्स संखेज्जदिभागो॥ ८३ ॥
कुदो ? पंचरज्जुबाहल्लरज्जुपदरमादूरिय अबढाणादो। लोगते अट्ठपुढवीणं हेट्ठा वि अवट्ठाणमत्थि किंतु तमेदस्स असंखेजदिभागो ।
समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ८४ ॥ सुगमं । (लोगस्स संखेज्जदिभागो॥ ८५॥ सुगमं । ) सब्बलोगो वा ॥८६॥ एत्थ वासदत्यो बुच्चदे- वेयण-कसाय-वेउब्बिएहि तिहं लोगाणं संखेजदि
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ ८३॥
क्योंकि, पांच राजु बाहल्यरूप राजुप्रतरको पूर्ण कर उक्त जीवोंका अवस्थान है । उनका अवस्थान लोकान्तमें तथा आठ पृथिवियोंके नीचे भी है, किन्तु वह इसके असंख्यातवें भागमात्र है।
उपर्युक्त जीव समुद्घात व उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ८४॥
यह सूत्र सुगम है।
( उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥८५॥
यह सूत्र सुगम है।) अथवा, सर्व लोक स्पर्श करते हैं ॥ ८६ ॥
यहां वा शब्दसे सूचित अर्थ कहते है- वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोंका संख्यातवां भाग तथा मनुष्यलोक व तिर्य
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४०८ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, ८७. भागो, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो वासदत्थो । णवरि वेउन्धियं वट्टमाणेण खेत्तभंगो । मारणतिय-उववादेहि सबलोगो फोसिदो।
बादरवाउपज्जत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?॥ ८७ ॥ सुगमं । लोगस्स संखेज्जदिभागो ॥ ८८॥ अदीद-वट्टमाणेहि पंचरज्जुबाहल्लरज्जुपदरमावूरिय अवट्ठाणादो। समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ८९ ॥ सुगमं । लोगस्स संखेज्जदिभागो॥ ९० ॥ एदं वट्टमाणमस्सिदूण परूविदं । तेण वेयण-कसाय-मारणंतिय-उववादेहि तिण्हं
ग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । विशेष इतना है कि वर्तमान कालकी अपेक्षा वैक्रियिकपदका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है।
बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ८७॥
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ ८८॥
क्योंकि, अतीत और वर्तमान कालोंकी अपेक्षा उक्त जीवोंका पांच राजु बाहल्यरूप राजुप्रतरको पूर्णकर अवस्थान है ।
समुद्घात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ८९॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त पदोंकी अपेक्षा लोकका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ ९०॥
यह वर्तमान कालका आश्रय कर कथन किया गया है । इसलिये वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे तीन लोकोंका
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(१०९
२, ७, ९२.] फोसणाणुगमे पुढविकाइयादीणं फोसणं लोगाणं संखेज्जदिभागो, णर-तिरियलोरोहितो असंखेज्जगुणो फोसिदो । मारणंतियउक्वादेहि सबलोगो वट्टमाणे किण्ण पुसिज्जदि ? ण, पंचरज्जुबाहल्लरज्जुपदरं मोत्तण अण्णत्थ मारणंतिय-उववादे करेमाणजीवाणं सुट्ठ त्थोवत्तुवलंभादो । वेउब्धियपदेण खेत्तभंगो।
सव्वलोगो वा ॥ ९१ ॥
वेयण-कसाय-चेउब्धिएहि तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, णर-तिरियलोरोहितो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो वासदत्थो । मारणंतिय-उववादेहि सबलोगो फोसिदो, तीदकालप्पणादो।
वणप्फदिकाइया णिगोदजीवा सुहुमवणप्फदिकाइया सुहुमणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाण-समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ ९२ ॥
सुगमं ।
संख्यातवां भाग तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है ।
शंका-मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे वर्तमानमें सर्व लोक स्पर्श क्यों नहीं किया जाता?
समाधान-नहीं, क्योंकि पांच राजु बाहल्यरूप राजुप्रतरको छोड़कर अन्यत्र मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादको करनेवाले जीव बहुत थोड़े पाये जाते हैं। वैक्रियिक पदकी अपेक्षा क्षेत्रप्ररूपणाके समान जानना चाहिये ।
अथवा, उपर्युक्त जीवों द्वारा समुद्घात व उपपादसे सर्व लोक स्पृष्ट है ॥११॥
वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोका संख्यातवां भाग तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, अतीत कालकी विवक्षा है।
वनस्पतिकायिक, निगोदजीव, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदजीव तथा उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ९२ ।।
यह सूत्र सुगम है।
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४१०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, ९३. सव्वलोगो ॥ ९३ ॥ कुदो ? आणतियादो, सव्वत्थ जल-थलागासेसु अवठ्ठाणं पडि विरोहाभावादो च।
बादरवणप्फदिकाइया बादरणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता अपजत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ९४ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ९५ ॥
कुदो ? अट्ठपुढवीओ चेवमस्सिदूण अंबट्ठाणादो। तदो एदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो अदीदवट्टमाणेहि फोसिदो।
समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ९६ ॥ सुगमं । सव्वलोगो ॥ ९७ ॥
उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पर्श करते हैं ॥ ९३ ॥
क्योंकि, वे अनन्त हैं; तथा जल, थल व आकाशमें सर्वत्र उनके अवस्थानमें कोई विरोध नहीं है।
· बादर वनस्पतिकायिक व बादर निगोदजीव तथा उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ।। ९४ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥९५॥
क्योंकि, आठ पृथिवियोंका ही आश्रय कर उनका अवस्थान है । अत एव इन जीवोंके द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीत व वर्तमान कालोंकी अपेक्षा स्पृष्ट है।
समुद्घात व उपपाद पदोंसे उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥९६ ॥ यह सूत्र सुगम है। समुद्घात व उपपाद पदोंसे उक्त जीवों द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ ९७ ॥
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२, ७, १०१.] फोसणाणुगमे मण-वचिजोगीणं फोसणं
[४११ तीदवट्टमाणेसु मारणंतिय-उववादेहि सव्वलोगावूरणादो ।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त-अपज्जत्तभंगो ॥ ९८ ॥
सुगममेदं ।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ९९ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १० ॥ एसो बमाणणिदेसो । तेणेत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा । अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥ १०१ ॥ एत्थ ताव वासदत्थो वुच्चदे- सत्थाणेण अप्पिदजीवेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदि
क्योंकि, अतीत व वर्तमान कालोंमें मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे उनके द्वारा सर्व लोक पूर्ण किया जाता है ।
प्रसकायिक, त्रसकायिक पर्याप्त और त्रसकायिक अपर्याप्त जीवोंके स्पर्शनका निरूपण पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है ॥९८॥
यह सूत्र सुगम है।
योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ९९ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥१०॥
यह कथन वर्तमान कालकी अपेक्षा है । अतएव यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये।
अथवा, उक्त जीव स्वस्थान पदोंसे कुछ कम आठ वटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं ॥१०१॥
यहां प्रथम वा शध्दसे सूचित अर्थ कहते हैं- स्वस्थानकी अपेक्षा प्रकृत जीवों
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४१२ छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ७, १०२. भागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो फोसिदो। एसो वासदत्थो। विहारवदिसत्थाणेण अट्ठचोदसभागा देसूणा फोसिदा । कुदो १ अट्ठरज्जुबाहल्ललोगणालीए मण-वचिजोगीणं विहारुवलंभादो।।
समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १०२ ॥ सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥ १०३ ॥ एत्थ खेत्तवण्णणा कायव्या, वट्टमाणप्पणादो। अट्ठचोदसभागा देसूणा सबलोगो वा ॥ १०४ ॥ .
आहार-तेजइयपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो । एसो वासदत्थो । वेयण-कसाय-उबिएहि अट्टचोदसभागा देसूणा फोसिदा, अट्ठरज्जुआयदलोगणालीए सव्वत्थ तीदे काले वेयण-कसाय-विउवणाणमुवलंभादो । मारणंतिएण सव्वलोगो ।
द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंका विहार आठ राजु बाहल्ययुक्त लोकनालीमें पाया जाता है।
उपर्युक्त जीवों द्वारा समुद्घातकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥१२॥ यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त जीवों द्वारा समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १०३ ॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी प्रधानता है ।
अथवा, उन्हीं जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग या सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ १०४॥
आहारकसमुद्घात और तेजससमुद्घात पदोंकी अपेक्षा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसजुद्घात पदोंसे कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, आठ राजु आयत लोकनाली में सर्वत्र अतीत कालकी अपेक्षा वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घात पाये जाते हैं। मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है ।
१ प्रतिषु — वट्टमाणप्पमाणादो' इति पाठः ।
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२, ७, १०७ ] फोसणाणुगमे कायजोगीणं फोसणं
उववादो णत्थि ॥ १०५॥ तत्थ मण-वचिजोगाणमभावादो।
कायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगी सत्थाण-समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १०६॥
सुगमं । . सव्वलोगो ॥ १०७॥
एदस्स अत्थो- सत्थाण वेयण-कसाय मारणंतिय-उववादेहि वट्टमाणादीदेसु सव्वलोगो फोसिदो । कुदो ? सव्वत्थ गमणागमणावट्ठाणं पडि विरोहाभावादो । विहारवदिसत्थाण-वेउवियपदेहि वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण अट्ठचोदसभागा देमूणा फोसिदा । णवरि वेउव्वियपदेण तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो। तेजाहारपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो। एत्थ वासदेण विणा कधमेसो
पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता ॥१०५॥ क्योंकि, उपपाद पदमें मनोयोग व वचनयोगका अभाव है।
काययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ १०६॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पर्श करते हैं ॥ १०७॥
इसका अर्थ- स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात,मारणान्तिक. समुद्घात और उपपाद पदोसे वर्तमान व अतीत कालोंमें उक्त जीवोंने सर्व लोकका स्पर्श किया है, क्योंकि, उन जीवोंके सर्वत्र गमनागमन और अवस्थानमें कोई विरोध नहीं है । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे वर्तमानकालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है। विशेष इतना है कि वैक्रियिक पदकी अपेक्षा तीन लोकोंके संख्यातवें भागका स्पर्श किया है। तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पदोंसे चार लोकोंके असंख्यातवें भाग व मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागका स्पर्श किया है।
शंका-प्रस्तुत सूत्रमें वा शब्दके विना यहां इस अर्थका व्याख्यान कैसे किया जाता है ?
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [ २, ७, १०८. अत्थो एत्थ वक्खाणिज्जदि ? ण एस दोसो, एदस्स सुत्तस्स देसामासियत्तादो । विहारवदिसत्थाण-वेउब्धिय-तेजाहारपदाणि ओरालियमिस्से णत्थि ।
ओरालियकायजोगी सत्थाण-समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? ॥ १०८ ॥
सुगमं । सव्वलोगो ॥ १०९॥
सत्थाणसत्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतिएहि वट्टमाणातीदेसु सबलोगो फोसिदो विहारवदिसत्थाणेण वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । वेउब्धियपदेण वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण तिण्णं लोगाणमसंखेञ्जदिभागो, पर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एदं सुत्तं देसामासियं काऊण सबमेदं वक्खाणं सुत्तारूढं कायव्यं ।
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह सूत्र देशामर्शक है।
विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्र धात पद औदारिकमिश्रयोगमें नहीं होते हैं।
औदारिककाययोगी जीव स्वस्थान और समुद्घातकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ १०८॥
यह सूत्र सुगम है।
औदारिककाययोगी जीव स्वस्थान व समुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक स्पर्श करते हैं ॥ १०९॥
स्वस्थानस्वस्थान वेदनासमुद्घात कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे उक्त जीवाने सर्व लोक स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थानसे वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रके समान है । अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढाईद्वीपसे असंख्यात गणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। वैक्रियिक पदसे वर्तमान कालकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है । इस सूत्रको देशामर्शक करके यह सब सूत्रविहित व्याख्यान करना चाहिये।
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२, ७, ११३.] फोसणाणुगमे कायजोगीणं फोसणं
[४१५ उववादं णत्थि ॥ ११०॥ उववादकाले ओरालियकायजोगस्त अभावादा । वेउव्वियकायजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेतं फोसिदं? ॥११॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ११२ ॥
एदस्स अत्थो-तिहं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो फोसिदो । कुदो ? वट्टमाणप्पणादो ।
अट्ठचोदसभागा देसूणा ॥ ११३ ॥
वेउब्बियकायजोगीहि सत्थाणेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । विहारवदिसत्थाणेण अडचोद्दसभागा फोसिदा, अट्ठरज्जुबाहल्ललोगणालीए वेउव्वियकायजोगेण
औदारिककाययोगमें उपपाद पद नहीं होता ॥ ११ ॥ क्योंकि, उपपादकालमें औदारिककाययोगका अभाव रहता है।
वैक्रियिककाययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ १११॥
यह सूत्र सुगम है।
वैक्रियिककाययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ ११२ ॥
__ इस सूत्रका अर्थ- उक्त जीवोंने स्वस्थानपदोंसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है, क्योंकि, वर्तमानकालकी प्रधानता है।
अतीत कालकी अपेक्षा वैक्रियिककाययोगी जीव कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं ॥ ११३ ॥
'वैक्रियिककाययोगी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है, क्योंकि, आठ राजु बाहल्यवाली लोकनाली में वैक्रियिककाययोगसे देवोंका
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४१६ ]
देवाणं विहारुवलंभादो ।
समुग्धादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ११४ ॥
सुमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ११५ ॥
एत्थ खेत्तवण्णणा कायन्त्रा वट्टमाणप्पणादो |
अ-तेरह चोदसभागा देणा ॥ ११६ ॥
छक्खंडागमे खुदाबंधो
वेयण-कसाय-वेउच्त्रियपदेहि अट्ठचोदस भागा फोसिदा । मारणंतिएण तेरहचोदसभागा देखणा फोसिदा । कुदो ? मेरुमूलादो उवरि सत्त हेट्ठा छरज्जुआयाम लोगणालिमावूरिय उत्रियकायजोगेण तीदे कयमारणंतिय जीवाणमुवलं भादो ।
उववादं णत्थि ॥ ११७ ॥
तत्थ वेउच्चियकायजोगाभावादो ।
विहार पाया जाता है ।
॥ ११५ ॥
उक्त जीव समुद्घातकी / अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ११४ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
उक्त जीव समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं
[ २, ७, ११४.
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी प्रधानता है ।
उक्त जीव अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह और तेरह बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं ॥ ११६ ॥
अतीत कालकी अपेक्षा वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे उक्त जीवोंने आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है । मारणान्तिकसमुद्घातसे कुछ कम तेरह बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है, क्योंकि, मेरुमूलसे ऊपर सात और नीचे छह राजु आयामवाली लोकनालीको पूर्णकर वैक्रियिककाययोगके साथ अतीत कालमें मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त जीव पाये जाते हैं ।
वैक्रियिककाय योगी जीवोंमें उपपाद पद नहीं होता ॥ ११७ ॥ क्योंकि, उपपाद पदमें वैक्रियिककाययोगका अभाव है ।
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२, ७, १२०.] फोसणाणुगमे कायजोगीणं फोसणं
[ ४१७ वेउब्बियमिस्सकायजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ११८ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ११९ ॥
एत्थ वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण तिहं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । विहारबदिसत्थाणं णस्थि ।
समुग्धाद-उववादं णत्थि ॥ १२० ॥
होदु णाम मारणंतिय-उववादाणमभावो, एदेखि दाह वेउब्धियमिस्सकायजोगेण सह विरोहादो । वेउब्वियस्स वि तत्थ अभावो होदु णाम, अपज्जत्तकाले तदसंभवादो । ण पुण वेयण-कसायाणं तत्थ असंभवो, णेरइएसु अपज्जत्तकाले चेव ताणमुवलंभादो।
.....................
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥११८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ ११९ ॥
यहां वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढाई द्वीपसे असंख्यातगणा क्षेत्र स्पर्श करते हैं। विहारवत्स्वस्थान उनके होता नहीं है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समुद्घात और उपपाद नहीं होते ॥ १२० ॥
शंका-वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंका अभाव भले ही हो, क्योंकि, इनका वैक्रियिकमिश्रकाययोगके साथ विरोध है। इसी प्रकार वैक्रिायकसमुद्घातका भी उनके अभाव रहा आवे, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें वैक्रियिकसमुद्घातका होना असंभव है। किन्तु वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंकी उनमें असंभावना नहीं है, क्योंकि, नारकियोंके ये दोनों समुद्घात अपर्याप्तकालमें ही पाये जाते हैं ? (जीवस्थान स्पर्शनानुगमके सूत्र ९४ की टीकामें धवलाकारने यहां उपपाद पद भी स्वीकार किया है।)
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४१८]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ७, १२१.
एत्थ परिहारो वच्चदे । तं जहा- - होदु णाम तेसिं संभवो, किंतु तत्थ सत्थाणखेत्तादो अहियं खेत्तं ण लब्भदि ति तेसि पडिसेहो कदो । किमिदि ण लब्भदे ? जीवपदेसाणं तत्थ सरीरतिगुणविष्फुज्जणाभावादो ।
आहारकायजोगी सत्थाण- समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
॥ १२१ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १२२ ॥
एत्थ वट्टमाणस्स खेत्तभंगो | अदीदेण सत्याणसत्याण-विहारवदिसत्थाण- वेयणकसायपदेहि चदुष्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो । मारणंतिएण चदुष्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो ।
समाधान – उक्त शंकाका परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है- नारकियोंके अपर्याप्तकाल में वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंकी सम्भावना रही आवे, किन्तु उनमें स्वस्थानक्षेत्र से अधिक क्षेत्र नहीं पाया जाता, इसी कारण उनका प्रतिषेध किया है ।
शंका - स्वस्थानक्षेत्र से अधिक क्षेत्र वहां क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान — क्योंकि, उनमें जीवप्रदेशों के शरीरसे तिगुणे विसर्पणका अभाव है । आहारककाययोगी जीव स्वस्थान और समुद्घात पदों से कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ १२१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
आहारककाय योगी जीव उक्त पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं १ ॥ १२२ ॥
यहां वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । अतीत कालकी अपेक्षा स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंसे आहारककाययोगी जीवोंने चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भागका स्पर्श किया है । मारणान्तिकसमुद्घातसे चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है।
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२, ७, १२७. ]
॥ १२४ ॥
उववादं णत्थि ॥ १२३ ॥
कुदो ? अच्चताभावेण ओसारिदत्तादो ।
आहार मिस्स कायजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
फोसणा गमे कायजोगीणं फोसणं
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १२५ ॥
एत्थ वट्टमाणस्स खेत्तभंगो | अदीदेण चदुष्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो । विहारवदिसत्थाणं णत्थि ।
समुग्धाद उववादं णत्थि ॥ १२६ ॥
कुदो ? अच्चंताभावेण ओसारिदत्तादो ।
कम्मइयकायजोगीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १२७ ॥
॥ १२४ ॥
[ ४१९
आहारककाययोगी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता ।। १२३ ।।
क्योंकि, वह अत्यन्ताभावसे निराकृत है
आहारकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं !
यह सूत्र सुगम
है 1
आहारक मिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ।। १२५ ।।
यहां वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । अतीत कालकी अपेक्षा चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागका स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान उनके होता नहीं है ।
आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके समुद्घात और उपपाद पद नहीं होते ।। १२६ ॥
क्योंकि, वे अत्यन्ताभाव से निराकृत हैं ।
कार्मणकाय योगी जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ।। १२७ ।।
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४२०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
( २, ७, १२८. सुगमं । सबलोगो ॥ १२८ ॥ एवं पि सुगमं ।
वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेदा सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १२९ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १३० ॥ एत्थ खेत्तपरूवणा कायया, वट्टमाणप्पणादो । अट्ठचोदसभागा देसूणा ॥ १३१ ॥
एदं देसामासियसुत्तं । तेणेदेण सूइदत्थस्स ताव परूवणं कस्सामो। तं जहासत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एत्थ वाणवेंतर-जोदिसियाणं विमाणेहि रुद्धखेत्तं घेत्तूण तिरिय
यह सूत्र सुगम है। कार्मणकाययोगियों द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ १२८ ।। यह सूत्र भी सुगम है।
वेदमार्गणानुसार स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव स्वस्थान पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ १२९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं । १३० ॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी प्रधानता है।
अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवोंने स्वस्थान पदोंसे कुछ कम आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है ।। १३१ ।।
यह देशामर्शक सूत्र है, इस कारण इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- स्वस्थानकी अपेक्षा उक्त जीवोंने तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। यहां वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके विमानोंसे रुद्ध क्षेत्रको ग्रहणकर तिर्यग्लोकका
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२, ७, १३४.] फोसणाणुगमे इत्थि-पुरिसवेदाणं फौसणं
[२१ लोगस्स संखेज्जदिभागो साहेयन्यो । एसो सूइदत्थो। विहारवदिसत्थाणेहि पुण अट्ठचोदसभागा देसूणा फोसिदा, देवीहि सह देवाणमट्टचोदसभागेसु तीदे काले संचारुवलंभादो ।
समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १३२ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १३३॥ एत्थ खेत्तवण्णणं कायच्वं, वट्टमाणप्पणादो । अट्ठचोदसभागा देसूणा सबलोगो वा ॥ १३४ ॥
वेयण-कसाय-वेउव्यियपदपरिणदेहि अट्टचोदसभागा देसूणा फोसिदा। कुदो ! देवीहि सह अट्टचोद्दसभागे भमंताणं देवाणं सव्वत्थ वेयण-कसाय-विउबणाणमुवलंभादो। तेजाहारसमुग्घादा ओघभंगो । णवरि इथिवेदे तदुभयं णत्थि । मारणंतियसमुग्घादेण
संख्यातवां भाग सिद्ध करना चाहिये । यह सूचित अर्थ है। किन्तु विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है, क्योंकि, देवियोंके साथ देवोंका आठ बटे चौदह भागोंमें अतीत कालकी अपेक्षा गमन पाया जाता है।
स्त्रीवेदी व पुरुषवेदी जीव समुद्घातोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ १३२ ॥
यह सूत्र सुगम है।
समुद्घातकी अपेक्षा उक्त जीव लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥१३३ ॥
यहां क्षेत्रका वर्णन करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी प्रधानता है।
अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह भागोंका अथवा सर्व लोकका स्पर्श किया है ।। १३४ ॥
वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोसे परिणत स्त्रीवेदी व पुरुषवेदी जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, देवियों के साथ आठ बटे चौदह भागमें भ्रमण करनेवाले देवोंके सर्वत्र वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घात पाये जाते हैं । तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण ओघके समान है। विशेष इतना है कि स्त्रीवेदमें ये दोनों
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५२२) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ७, १३५. सम्बलोगो, तिरिक्ख-मणुस्सपुरिसस्थिवेदाणं सव्वलोगे मारणंतियसंभवादो। वासदो किमg ? समुच्चयट्ठो। देव-देवणिं मारणंतियं घेप्पमाणे णवचोदसभागा होति ति फोसणविसेसजाणावणटुं वा वासद्दो परूविदो ।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १३५॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १३६ ॥ एत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा, वट्टमाणप्पणादो । सबलोगो वा ॥ १३७॥
कुदो ? सव्वदिसादो आगंतूण इत्थि-पुरिसवेदेसु उप्पज्जमाणाणमुवलंभादो । देवदेवीओ च अस्सिदण भण्णमाणे तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो छचोदसभागा तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागो फोसिदो त्ति जाणावणटुं वासद्दग्गहणं कयं ।
पद नहीं होते । मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, तिर्यच मौर मनुष्य पुरुष-स्लीवेदियोंके सर्व लोकमें मारणान्तिकसमुद्घातकी सम्भावना है।
शंका-सूत्रमें वा शब्दका प्रयोग किस लिये किया गया है ?
समाधान-वा शन्दका प्रयोग समुच्चयके लिये किया गया है। अथवा देव-देवियोंके मारणान्तिकसमुद्घातको ग्रहण करनेपर नौ बटे चौदह भाग होते हैं, इस स्पर्शनविशेषके शापनार्थ वा शब्दका प्रयोग किया गया है।
उपपादकी अपेक्षा स्त्रीवेदी व पुरुषवेदी जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥१३५ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपपादकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥१३६॥ यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है।
अथवा, उपपादकी अपेक्षा अतीत कालमें उक्त जीवों द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है।॥ १३७॥
क्योंकि, सर्व दिशाओंसे आकर स्त्री व पुरुष वेदियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव पाये जाते हैं । देव-देवियोंका आश्रय कर स्पर्शनके कहनेपर तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, छह बटे चौदह भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातयां भाग स्पृष्ट है, इसके बापनार्थ सूत्रमे वा शब्दका ग्रहण किया है।
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२, ७, १४०. ]
फोसणागमे सवेदाणं फोसणं
[ ४१३
णवुंसयवेदा सत्थाण-समुग्धाद- उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
॥ १३८ ॥
मं
सव्वलोगो ॥ १३९ ॥
एदस्स अत्थो — सत्थाण - वेयण- कसाय मारणंतिय उववादेहि अदीद- वट्टमाणेण सव्वलोगो फोसिदो । विहारवदि सत्थाण-वेउब्वियसमुग्धादेहि वट्टमाणे खेत्तं । अदीदे तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो | णवरि वेउब्वियपदेण तिन्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, णर- तिरिथलोगे हितो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? वाउक्काइयाणं विउच्यमाणाणं पंचचेाइसभागमे तफोसणस्सुवलंभादो | तेजाहारसमुग्धादा णत्थि ।
अवगदवेदा सत्थाहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १४० ॥
सुगमं ।
नपुंसकवेदी जीवोंने स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है १ ।। १३८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
नपुंसकवेदी जीवोंने उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पर्श किया है ।। १३९ ।।
इस सूत्र का अर्थ - स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे अतीत व वर्तमान कालकी अपेक्षा नपुंसकवेदियोंने सर्व लोकका स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है । विशेषता इतनी है कि वैक्रियिकपदसे तीन लोकोंके संख्यातवें भाग तथा मनुष्यलोक और तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है, क्योंकि, विक्रिया करनेवाले वायुकायिक जीवोंके पांच बटे चौदह भागमात्र स्पर्शन पाया जाता है । तैजस व आहारक समुद्घात नपुंसकवेदियोंके होते नहीं हैं।
अपगतवेदी जी स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ।। १४०. ॥ यह सूत्र सुगम है ।
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१२.] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ७, १४१. लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १४१ ॥ सुगमं । समुग्घादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ १४२ ॥ एदं पि सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १४३ ॥
दंड-कवाड-मारणंतियसमुग्घादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो अदीद-वट्टमाणेण फोसिदो। णवरि कवाडगदेहि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो संखेज्जगुणो वा फोसिदो ।
असंखेज्जा वा भागा ॥ १४४ ॥ एदं पदरगदाणं फोसणं, वादवलएसु जीवपदेसाणं पवेसाभावादो । सव्वलोगो वा ॥ १४५॥
अपगतवेदी जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ १४१॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंने समुद्घातकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ।। १४२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंने समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है
॥ १४३॥
दण्ड, कपाट व मारणान्तिक समुद्घातोंको प्राप्त हुए अपगतवेदियों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पृष्ट है । विशेष इतना है कि कपाटसमुद्घातगत अपगतवेदियों द्वारा तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग अथवा संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है।
अथवा,उक्त जीवों द्वारा समुद्घातसे लोकका असंख्यात बहुभाग स्पृष्ट है॥१४४॥
यह प्रतरसमुद्घातगत अपगतवेदियोंका स्पर्शनक्षेत्र है, क्योंकि, यहां वातवलयोंमें जीवप्रदेशोंके प्रवेशका अभाव है।
अथवा, सर्व लोक स्पृष्ट हैं ॥ १४५॥
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२, ७, १४९.1 फोसणाणुगमे मदि-सुदअण्णाणीणं फोसणं [१२५
एदं लोगपूरणफोसणं । सेसं सुगमं । उववादं णत्थि ॥ १४६ ॥ अच्चंताभावेण ओसारिदत्तादो ।
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई णवंसयवेदभंगो॥ १४७ ॥
जहा णqसयवेदस्स अदीद-वट्टमाणकाले अस्सिदण परूविदं तथा एत्थ वि परूवेदव्वं, णस्थि एस्थ विसेसो। णवरि पदविसेसो जाणिय वत्तव्यो । वेउम्वियं वट्टमाणेण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अदीदेण अट्ठचोदसभागा देसूणा ।
अकसाई अवगदवेदभंगो ॥ १४८ ॥ सुगमं ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी सत्थाण-समुग्धादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १४९ ॥
यह लोकपूरणसमुद्घातको प्राप्त अपगतवेदियोंका स्पर्शन है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
अपगतवेदियोंके उपपाद पद नहीं होता ॥ १४६ ॥ क्योंकि, वह अत्यन्ताभावसे निराकृत है।
कषायमार्गणानुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंकी प्ररूपणा नपुंसकवेदियोंके समान है ॥ १४७ ॥
जिस प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा अतीत व वर्तमान कालोंका आश्रयकर निरूपण किया है उसी प्रकार यहां भी निरूपण करना चाहिये, क्योंकि, यहां उससे कोई विशेषता नहीं है। विशेष इतना है कि पदोंकी विशेषता जानकर कहना चाहिये। वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा वर्तमान कालसे तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अतीत कालसे कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है।
अकषायी जीवोंकी प्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है ॥ १४८॥ यह सूत्र सुगम है।
ज्ञानमार्गणानुसार मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी जीवोंने स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥१४९ ॥
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४२६ ]
सुमं ।
सव्वलोगो ॥ १५० ॥
छक्खंडागमे खुदाबंधो
सत्थाण- वेयण-कसाय-मारणंतिय-उववादेहि अदीद- वट्टमाणेण सव्वलोगो फोसिदो । दो ! विस्ससादो । विहारवदिसत्थाणपदेण अदीद-वट्टमाणेण जहाकमेण अट्ठचोद सभागा तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो । वेउव्त्रियपदस्स वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण अडचोद सभागो फोसिदो ।
विभंगणाणी सत्याहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १५१ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १५२ ॥
एत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा, वहमाण पणादो | अचो सभागा देणा ॥ १५३ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी जीवोंने उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पर्श किया है ॥ १५० ॥
॥ १५२ ॥
[ २, ७, १५०.
स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे अतीत व वर्तमान कालकी अपेक्षा मतिअज्ञानी जीवोंने सर्व लोक स्पर्श किया है, क्योंकि, ऐसा स्वभावसे है । विहारवत्स्वस्थानपद से अतीत व वर्तमान कालकी अपेक्षा यथाक्रमसे आठ वटे चौदह भाग व तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । वैक्रिथिक पदकी अपेक्षा वर्तमान कालकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । अतीत कालकी अपेक्षा आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ।
विभंगज्ञानी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया हैं ? ॥ १५१ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
विभंगज्ञानी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है
हैं ? ।। १५३ ॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है । अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ बढे चौदह भाग स्पृष्ट
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२, ७, १५७. ]
फोसणागमे विभंगणाणणं फोसणं
| ૦૨૭
देसामा सिय सुत्तमेदं, तेणेदेण सूइदत्थो बुच्चदे - सत्थाणेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एस सूत्थो । विहारवदिसत्थाणेहि अट्ठचोइसभागा देखणा फोसिदा ।
समुग्धादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १५४ ॥
सुमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १५५ ॥
एत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा, वट्टमाणेण अहियारादो ।
अचाभागा देसूणा फोसिदा ॥
१५६ ॥
एदस्स अत्थो - वेयण- कसाय - वेउब्वियपदेहि अट्ठचोदस भागा देखणा फोसिदा, विहरताणं सव्वत्थ वेयण-कसाय - वेउब्वियाणं संभवादो ।
सव्वलोगो वा ॥ १५७ ॥
यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिये इससे सूचित अर्थ कहते हैं-- स्वस्थानपदों से विभंगशानी जीवोंने तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है । यह सूचित अर्थ है । विहार. वत्स्वस्थान पदकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है।
"
समुद्घातकी अपेक्षाविभंगज्ञानी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ १५४ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
समुद्घातकी अपेक्षाविभंगज्ञानी जीवोंने लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १५५ ॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि वर्तमान कालका अधिकार है । अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। १५६ ।।
इस सूत्रका अर्थ- वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे कुछ कम आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है, क्योंकि, विहार करनेवाले विभंगशानियोंके सर्वत्र वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात सम्भव हैं ।
अथवा सर्व लोक स्पर्श किया है ।। १५७ ।।
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४२८ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
एदं मारणंतियपदमस्सिदूण वृत्तं । कुदो ? विभंगणाणितिरिक्ख मणुस्साणं मारणंतियस तीदे काले सव्वलोगुवलंभादो | देव - णेरइयाणं मारणंतियमस्सिदृण तेरह - ' चोदसभागा होंति त्ति जाणावणङ्कं वासद्दणिद्देसो को |
उववादं णत्थि ।। १५८ ॥
दो ? विस्ससादो |
आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणी सत्थाण- समुग्धादेहि केवडियं
खेतं फोसिदं ? ॥ १५९ ॥
सुमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १६० ॥
एत्थ खेत्तवण्णणं कायव्वं, वट्टमाणावलंबणादो । अचोसभागा देणा ॥ १६१ ॥
॥ १६० ॥
यह मारणान्तिकपदका आश्रयकर कहा गया है, क्योंकि, विभंगज्ञानी तिर्यच और मनुष्योंके मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा अतीत कालमें सर्व लोक पाया जाता है । देव व नारकियोंके मारणान्तिकसमुद्घातका आश्रयकर तेरह बटे चौदह भाग होते हैं. इसके ज्ञापनार्थ सूत्रमें वा शब्दका निर्देश किया है ।
विभंगज्ञानी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता है ॥ १५८ ॥
क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंने स्वस्थान व समुद्घात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ।। १५९ ।।
यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त जीवोंने उक्त पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है
[ २, ७,
१५८.
यहां क्षेत्रप्ररूपणा कहना चाहिये, क्योंकि वर्तमान कालकी अपेक्षा है । अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। १६१ ।।
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२, ७, १६४.1 फोसणाणुगमे मदिणाणिआदीणं फासणं
एदं देसामासियसुत्तं, तेणेदेण सूइदत्थो ताव उच्चदे । तं जहा- सत्थाणेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। तेजाहारपदाणं खेत्तं । एसो सूइदत्थो । विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसायबेउब्धिय-मारणंतिएहि अट्टचोद्दसभागा देसूणा फोसिदा ।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १६२ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १६३ ॥ एदस्स अत्थपरूवणाए खेत्तभंगो । कुदो १ वट्टमाणप्पणादो । छचोदसभागा देसूणा ॥ १६४ ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे- तिरिक्खअसंजदसम्माइट्ठि-संजदासजदाणमारणादिदेवेसुप्पज्जमाणाणं छचोदसभागा। हेट्ठा दोरज्जुमेत्तद्धाणं गंतूग द्विदावत्थाए छिण्णाउआणं
यह देशामर्शक सूत्र है, अत एव इससे सूचित अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-उपर्युक्त तीन ज्ञानवाले जीवोंने स्वस्थानपदोंसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। तैजससमुदधात और आहारकसमुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपग क्षेत्रके समान है । यह सूचित अर्थ है। विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे कुछ कम आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है।
उक्त जीवोंने उपपाद पदसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ १६२ ।। यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंने उपपाद पदसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है
इस सूत्रके अर्थका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणाके समान है, क्योंकि, वर्तमानकालकी विवक्षा है।
अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। १६४ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- आरणादिक देवोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यच भसंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवोंका उत्पादक्षेत्र छह बटे चौदह भागप्रमाण है।
शंका-नीचे दो राजुमात्र मार्ग जाकर स्थित अवस्थामें आयुके क्षीण होनेपर
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४३०] छक्खडागमे खुद्दाबंधों
[२, ७, १६५. मणुस्सेसुप्पज्जमाणाण' देवाणं उत्रवादखेतं किण्ण घेप्पदे ? ण, तस्स पढमदंडेणूणस्स छचोदसभागेसु चेव अंतब्भावादो, तेसिं मूलसरीरपवेसमंतरेण तदवत्थाए मरणाभावादो च ।
मणपज्जवणाणी सत्थाण-समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १६५॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥ १६६ ॥
एदस्स अत्थे भण्णमाणे वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण चदुण्डं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो ।
उववादं णत्थि ॥ १६७ ॥
मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले देवोंका उत्पादक्षेत्र क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रथम दण्डसे कम उसका छह बटे चौदह भागों में ही अन्तर्भाव हो जाता है, तथा मूलशरीरमें जीवप्रदेशोंके प्रवेश विना उस अवस्थामें उनके मरण का अभाव भी है । (?)
मनःपर्ययज्ञानी जीवोंने स्वस्थान और समुद्घात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया हैं ? ॥ १६५॥
यह सूत्र सुगम है।
मनःपर्ययज्ञानी जीवोंने स्वस्थान और समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १६६ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते समय वर्तमान कालकी अपेक्षा क्षेत्रके समान निरूपण करना चाहिये । अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवोंने चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है।
मनःपर्ययज्ञानियोंके उपपाद पद नहीं होता है॥ १६७ ॥
१ प्रतिषु ‘मणुस्सेसुप्पज्जमाणाणि' इति पाठः । २ प्रतिषु 'पदेस ' इति पाठः।
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२, ७, १७०. ]
फोसणाणुगमे संजममग्गणा
कुदो ? विस्तसादो |
केवलणाणी अवगदवेदभंगो ॥ १६८ ॥
वरि मारणंतियपदं णत्थि, केवलणाणिम्हि तस्सत्थित्तविरोहादो । संजमाणुवादेण संजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा अकसाइ भंगो ॥ १६९ ॥
एसो सुत्तणिसो दव्चट्ठियणयावलंबणा । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंविज्जमाणे संजदा अकसाइलाण होंति, संजदेसु अकसाइजीवेसु अविज्जमाणवेउच्त्रिय-तेजाहारपदाणमुवलं भादो । सेसं सुगमं ।
सामाइयच्छेदोवद्वावणसुद्धिसंजद-सुहुमसांपराइयसंजदाणं मणपज्जवणाणिभंगो ॥ १७० ॥
एसो दव्वट्टिणिसो | पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे सामाइयच्छेदोवाणसुद्धिसंजदा पुण मणपज्जवणाणितुल्ला होंति, मणपज्जवणाणिसु तेजाहारपदाणम
[ ४३१
क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
केवलज्ञानी जीवोंकी प्ररूपणा अपगतवेदियों के समान है ।। १६८
विशेष इतना है कि केवलशानियोंके मारणान्तिक पद नहीं होता, क्योंकि, केवलज्ञानीमें उसके अस्तित्वका विरोध है ।
संयममार्गणानुसार संयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीवोंकी प्ररूपणा अकषायी जीवोंके समान है ॥ १६९ ॥
इस सूत्र का निर्देश द्रव्यार्थिक नयका आलम्बन करता है । पर्यायार्थिक नयका आलम्बन करनेपर संयत जीव अकषायी जीवों के तुल्य नहीं हैं, क्योंकि, अकषायी जीवोंमें अविद्यमान वैक्रियिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पद संयतों में पाये जाते हैं। शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
सामायिकछेदोपस्थापनशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंकी प्ररूपणा मन:पर्ययज्ञानियोंके समान है ॥ १७० ॥
यह कथन द्रव्यार्थिक नयसे है। पर्यायार्थिक नयका अबलम्बन करनेपर सामायिकछेदोपस्थापनशुद्धिसंयत जीव मनःपर्ययज्ञानियोंके तुल्य होते हैं, क्योंकि, मनःपर्ययज्ञानियोंमें तैजससमुद्घात और आद्दारकसमुद्घात पदका अभाव है । परन्तु
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४३२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ७, १७१. भावादो । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा पुण मणपज्जवणाणितुल्ला ण होंति, सुहुमसांपराइयसंजदेसु वेउवियपदाभावादो । सेसं सुगमं ।
संजदासंजदा सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १७१ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १७२ ॥
एदस्सत्थो- वट्टमाणे खेत्तभंगो। अदीदेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो । होदु णाम विहारवदिसत्थाणस्सेदं, सव्वदीव-समुद्देसु वइरियदेवसंबंधेण तीदे काले संजदासंजदाणं संभवादो । ण सत्थाणस्स, सव्वदीव-समुद्देसु सत्थाणत्थसंजदासंजदाणमभावादो ? ण एस दोसो, जदि वि सम्वत्थ णस्थि तो वि सयंपहपव्वयस्स परभाए तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे सत्थाणत्थियसंजदासंजदाणमुवलंभादो।
सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीव मनःपर्ययज्ञानियोंके तुल्य नहीं होते, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयतों में वैक्रियिक पदका अभाव है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
संयतासंयत जीवोंने स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ १७१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
संयतासंयत जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातयां भाग स्पर्श किया है ॥ १७२ ॥
इसका अर्थ-वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । अतीत कालमें तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है।
शंका-विहारवत्स्वस्थान पदकी अपेक्षा उपर्युक्त स्पर्शनका प्रमाण भले ही ठीक हो, क्योंकि. वैरी देवोंके सम्बन्धसे अतीत कालमें सर्व द्वीप-समुद्रों में संयतासंयत जीवोंकी सम्भावना है । किन्तु स्वस्थानपदकी अपेक्षा उक्त स्पर्शन नहीं बनता, क्योंकि, स्वस्थानमें स्थित संयतासंयत जीवोंका सर्व द्वीप-समुद्रोंमें अभाव है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यद्यपि सर्वत्र संयतासंयत जीव नहीं हैं, तथापि तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण स्वयंप्रभ पवर्तके पर भागमें स्वस्थानस्थित संयतासंयत पाये जाते हैं।
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२, ७, १७६.] फोसणाणुगमे संजममग्गणा
[१३३ समुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ १७३ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १७४ ॥ एत्थ खेत्तवण्णणा कायव्या, वट्टमाणप्पणादो । छचोदसभागा वा देसूणा ॥ १७५ ॥
एत्थ ताव वासदत्थो वुच्चदे । तं जहा- वेयण-कसाय-वे उब्धियपदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो वासदत्थो । मारणंतियेण पुण छचोदसभागा फोसिदा, तिरिक्खेहितो जाव अच्चुदकप्पो त्ति मारणंतियं मेल्लमाणसंजदासंजदाणं तदुवलंभादो।
उववादं णत्थि ॥ १७६ ॥ संजदासंजदगुणेण उववादस्स विरोहादो ।
समुद्घातोंकी अपेक्षा संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ १७३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
संयतासंयत जीवोंने समुद्घातोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १७४ ॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है।
अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है ॥ १७५ ॥
यहां पहिले वा शब्दसे सूचित अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । मारणान्तिकसमुद्घातसे (कुछ कम) छह बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है, क्योंकि, तिर्यचोंमेंसे अच्युत कल्प तक मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले संयतासंयत जीवोंके उपर्युक्त स्पर्शन पाया जाता है।
संयतासंयत जीवोंके उपपाद पद नहीं होता ॥ १७६ ॥ क्योंकि, संयतासंयतगुणस्थानके साथ उपपादका विरोध है।
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१५.] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, १७७. असंजदाणं णqसयभंगो ॥ १७७ ॥ सुगममेदं ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदसणी सत्थाणेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥१७८ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १७९ ॥ एत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा, वट्टमाणपरूवणादो । अट्ठचोद्दसभागा वा देसूणा ॥ १८० ॥
सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो वासदत्थो । विहारवदिसत्थाणेण अट्ठचोदस
असंयत जीवोंके स्पर्शनका निरूपण नपुंसकवेदियोंके समान है ॥ १७७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
दर्शनमार्गणाके अनुसार चक्षुदर्शनी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ॥ १७८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
चक्षुदर्शनी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १७१॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी प्रधानता है।
अतीत कालकी अपेक्षा स्वस्थान पदोंसे चक्षुदर्शनी जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १८० ॥
चक्षुदर्शनी जीवोंने स्वस्थानसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा चक्षुदर्शनी जीवों द्वारा (कुछ कम) आठ बटे
१ अ-काप्रत्यो संखेज्जदिमागो' इति पाठः ।
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२, ७, १८४.] फोसणाणुगमै दंसणमग्गणां
[ ४३५ भागा चक्खुदंसणीहि फोसिदा, अट्ठरज्जुबाहल्लरज्जुपदरभंतरे चक्खुदंसणीणं विहारस्स विरोहाभावादो।
समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १८१ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १८२ ॥ एत्थ खेत्तपरूवणा कायव्वा, वट्टमाणकालेण अहियारादो । अट्टचोदसभागा देसूणा ॥ १८३ ॥
कुदो ? वेयण-कसाय-वेउब्वियसमुग्घादेहि विहरंतदेवेसु समुप्पण्णेहि अट्ठचौद्दसभागखेत्तस्स पुसिज्जमाणस्स दंसणादो । मारणंतियफोसणपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि
सव्वलोगो वा ॥ १८४ ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं. जहा- देव-णेरइएहि मारणंतियसमुग्घादेहि तेरहचोदसभागा फोसिदा, लोगणालीए बाहिमेदेसि उववादाभावेण मारणंतिएण गमणाचौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, आठ राजु बाहल्यसे युक्त राजुप्रतरके भीतर चक्षुदर्शनी जीवोंके विहारका कोई विरोध नहीं है।
चक्षुदर्शनी जीवों द्वारा समुद्धात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ १८१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
चक्षुदर्शनी जीवों द्वारा समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १८२ ॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालका अधिकार है। अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ १८३ ॥
क्योंकि, विहार करनेवाले देवोंमें उत्पन्न वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातोंसे स्पर्श किया जानेवाला आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र देखा जाता है। मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शनके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
अथवा, सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ १८४ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-देव व नारकियों द्वारा मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा तेरह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, लोकनालीके बाहिर इनके उत्पादका अभाव होनेसे मारणान्तिकसमुद्घातके द्वारा गमन नहीं होता।
१ अप्रतौ ' देव-णेरहयाणं हि ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ७, १८५. मावादो । एसो वासद्दत्थो । तिरिक्ख-मणुस्सेहि पुण सबलोगो फोसिदो, तेसिं लोगणालीए बाहिमभंतरे च मारणंतिएण गमणुवलंभादो ।
उववादं सिया अस्थि सिया णत्थि ॥ १८५॥ __ अत्थित्त-पत्थित्ताणं चक्खुदंसणविसयाणं एक्कम्हि जीवे एक्ककालम्हि परोप्परपरिहारलक्खणविरोहो व्व सहअणवट्ठाणलक्खणविरोहाभावपदुप्पायणटुं सियासदो ठविदो। कधमविरोहो त्ति जाणावणमुत्तरसुत्तं भणदि
लद्धिं पडुच्च अस्थि, णिवत्तिं पडुच्च णत्थि ॥ १८६॥
लद्धी चक्खिदियावरणखओवसमो, सो अपज्जत्तकाले वि अस्थि, तेण विणा बल्झिदियणिव्वत्तीए अभावादो। णिव्यत्ती णाम चक्खुगोलियाए णिप्पत्ती, सा अपजत्तकाले णत्थि, अणिप्पत्तीए णिप्पत्तिविरोहादो । जेण सरूवेण चक्खुदंसणमस्थि तेणेव सरूवेण जदि तस्स णस्थित्तं परूविज्जदि तो विरोहो पसज्जदे । ण च एवं, तम्हा सहअणवट्ठाणलक्खणो विरोहो णत्थि त्ति ।
यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। किन्तु सिर्यच व मनुष्योंके द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, लोकनालीके बाहिर और भीतर मारणान्तिकसमुद्घातसे उनका गमन पाया जाता है।
चक्षुदर्शनी जीवोंके उपपाद पद कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता है ॥ १८५॥
एक जीवमें एक कालमें चक्षुदर्शनविषयक अस्तित्व और नास्तित्वके परस्पर. परिहारलक्षण विरोधके समान सहानवस्थानलक्षण विरोधका अभाव बनलाने के लिये सूत्र में स्यात् ' शब्दका उपादान किया है । उक्त अस्तित्व व नास्तित्व में अविरोध कैसे है, इस बातके शापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
चक्षुदर्शनी जीवोंके लब्धिकी अपेक्षा उपपाद पद है, किन्तु निर्वृतिकी अपेक्षा वह नहीं है ॥ १८६ ॥
चक्षुइन्द्रियावरणके क्षयोपशमको लब्धि कहते हैं । वह अपर्याप्तकालमें भी है, क्योंकि, उसके विना बाह्य निर्वृति नहीं होती। गोलकरूप चक्षुकी निष्पत्तिका नाम निर्वति है । वह अपर्याप्तकाल में नहीं है, क्योंकि, अनिष्पत्तिका निष्पत्तिसे कि जिस रूपसे चक्षुदर्शन है उसी रूपसे यदि उसका नास्तित्व कहा जाय तो विरोधका प्रसंग होगा। किन्तु ऐसा है नहीं, अतएव यहां सहानवस्थानलक्षण विरोध नहीं है।
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२, ७, १९०.] फोसणाणुगमे दसणमागणा
[ ४३७ जदि लद्धिं पडुच्च अत्थि, केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ १८७॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १८८ ॥ एदं सुगम, वट्टमाणप्पणादो। सव्वलोगो वा ॥ १८९ ॥
एदस्स अत्थो-देव-णेरइएहि सचक्खुतिरिक्ख-मणुस्सहिंतो चक्खुदंसणीसुप्पण्णेहि बारहचोद्दसभागा फोसिदा, लोगणालीए बाहिं चक्खुदंसणीणमभावादो, आणदादिउवरिमदेवाणं तिरिक्खेसुप्पादाभावादो च । एसो वासदत्थो । एइंदिएहितो सचक्खिदिएसु उप्पण्णेहि पढमसमए सबलोगो फोसिदो, आणंतियादो सयपदेसेहितो आगमणसंभवादो च ।
अचक्खुदंसणी असंजदभंगो ॥ १९० ॥ एसो दवट्टियणिदेसो । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे अचक्खुदंसणिणो
यदि लब्धिकी अपेक्षा चक्षुदर्शनी जीवोंके उपपाद पद है तो उनके द्वारा इस पदसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ।। १८७ ॥
यह सूत्र सुगम है।
चक्षुदर्शनी जीवों द्वारा उपपाद पदसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १८८॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, यहां वर्तमान कालकी विवक्षा है । अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है ।। १८९ ॥
इस सूत्रका अर्थ-चक्षुदर्शनी तिर्यंच और मनुष्योंमेंसे चक्षुदर्शनियोंमें उत्पन्न हुए देव व नारकियों द्वारा बारह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, लोकनालीके बाहिर चक्षुदर्शनी जीवोंका अभाव है, तथा आनतादि उपरिम देवोंका तिर्यंचोंमें उत्पाद भी नहीं है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । एकेन्द्रिय जीवों में से चाइन्द्रिय सहित जीवों में उत्पन्न हुए जीवों द्वारा प्रथम समयमें सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, वे अनन्त हैं तथा सर्व प्रदेशोसे उनके आगमनकी सम्भावना भी है।
अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है ॥ १९ ॥ यह कथन द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर
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१३८]
छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ७, १९१. असंजदतुल्ला ण होति, अचक्खुदंसणीसु तेजाहारपदाणगुवलंभादो ।
ओहिदसणी ओहिणाणिभंगो ॥ १९१ ॥ सुगमं । केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ १९२ ॥ एदं पि सुगमं ।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सियाणं असंजदभंगो ॥ १९३ ॥
सुगममेदं । तेउलेस्सियाणं सत्थाणेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ १९४ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १९५॥ एत्थ खेत्तवण्णणा कायया वट्टमाणविवक्खाए ।
अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके तुल्य नहीं है, क्योंकि अचक्षुदर्शनियों में तैजस और आहारक समुद्घात पद पाये जाते हैं ।
अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है ।। १९१ ॥ यह सूत्र सुगम है। केवलदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा केवलज्ञानियों के समान है ॥ १९२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
लेश्यामार्गणाके अनुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है ॥ १९३ ।।
यह सूत्र सुगम है। तेजोलेश्यावाले जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ।। १९४ ॥ यह सूत्र सुगम है।
तेजोलेश्यावाले जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १९५ ।। . यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालको विवक्षा है।
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२, ७, १९९.] फोसणाणुगमे लेस्सामग्गणा
[४३९ अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥ १९६ ॥
सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिमागो, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो वासद्दत्थो । विहारवदिसत्थाणेण अट्ठचोहसभागा देसूणा फोसिदा, तेउलेस्सियदेवाणं विहरमाणाणमेदस्सुवलंभादो।
समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १९७ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १९८ ॥ सुगम, वट्टमाणप्पणादो। अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥ १९९ ॥
वेयण-कसाय-वेउब्बियपरिणदेहि अट्ठचोद्दसभागा फोसिदा, विहरंताणं देवाणमेदेसिं तिहं पदाणं सव्वत्थुवलंभादो। मारणंतिएण णवचोदसभागा फोसिदा, मेरुमूलादो
अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ।। १९६ ॥
स्वस्थानकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, विहार करते हुए तेजोलेश्यावाले देवोंके इतना स्पर्शन पाया जाता है।
___ समुद्घातकी अपेक्षा तेजोलेश्यावाले जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥१९७ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उक्त जीवों द्वारा समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १९८॥
यह सूत्र सगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है। अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं
वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदोंसे परिणत तेजोलेश्यावाले जीवों द्वारा आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, विहार करते हुए देवोंके ये तीनों पद सर्वत्र पाये जाते हैं। मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है, क्योंकि,
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४४०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, २००. हेट्ठिम दोहि रज्जूहि सह उवरि सत्तरज्जुफोसणुवलंभादो ।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २००॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २०१॥ सुगम, वट्टमाणकाले पडिबद्धत्तादो । दिवड्डचोदसभागा वा देसूणा ॥ २०२ ॥
कुदो ? मेरुमूलादो पहापत्थडस्स दिवड्डरज्जुमेत्तमुवरि चडिदण अबढाणादो । सणक्कुमार-माहिंदाणं पढमिंदयदेवेसु तेउलेस्सिएसु उप्पाइज्जमाणे सादिरेयदिवड्डरज्जुखेतं किण्ण लब्भदे ? ण, सोहम्मादो थोवं चेव हाणमुवरि गंतूण सणक्कुमारादिपत्थडस्स अवट्ठाणादो। कधमेदं णव्वदे ? अण्णहा देसूणत्ताणुववत्तीदो । मारणंतिय-उववादहिदवासद्दा वुत्तसमुच्चयत्था दट्टव्वा । मेरुमूलसे नीचे दो राजुओंके साथ ऊपर सात राजु स्पर्शन पाया जाता है।
उपपादकी अपेक्षा तेजोलेश्यावाले जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥२०॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवों द्वारा उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥२०१॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालसे संबद्ध है। अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ।।२०२॥ क्योंकि, मेरुमूलसे डेढ़ राजुमात्र ऊपर चढ़कर प्रभा पटलका अवस्थान है ।
शंका-सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्पोंके प्रथम इन्द्रक विमानमें स्थित तेजोलेश्यावाले देवोंमें उत्पन्न करानेपर डेढ़ राजुसे अधिक क्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, सौधर्म कल्पसे थोड़ा ही स्थान ऊपर जाकर सान. त्कुमार कल्पका प्रथम पटल अवस्थित है।
शंका-यह कैसे जाना जाता ?
समाधान-क्योंकि, ऐसा न माननेपर उपर्युक्त डेढ़ राजु क्षेत्रमें जो कुछ न्यूनता बतलाई है वह बन नहीं सकती। मारणान्तिक और उपपाद पदोंमें स्थित वा शब्द उक्त अर्थके समुच्चयके लिये जानना चाहिये ।
१ अआप्रयोः ‘पदमेंदयदेवेसु ' इति पाठः ।
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[१४१
२, ७, २०६.] फोसणाणुगमे लेस्सामग्गणा
पम्मलेस्सिया सत्थाण-समुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥२०३॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २०४ ॥ सुगम, वट्टमाणणिरोहादो। अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥ २०५॥
सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो। एसो वासद्दसूइदत्थो । विहार-वेयण-कसायवेउब्धिय-मारणंतियपरिणएहि अट्ठचोद्दसभागा देसूणा फोसिदा । कुदो ? पम्मलेस्सियदेवाणमेइंदिएसु मारणंतियाभावादो।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २०६ ॥ सुगमं ।
पद्मलेश्यावाले जीवोंने स्वस्थान और समुद्घात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ २०३॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवोंने उक्त पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।।२०४॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षारूप निरोध है ।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ २०५ ॥
स्वस्थान पदकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे परिणत उन्हीं पद्मलेश्यावाले जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, पद्मलेश्यावाले देवोंके एकेन्द्रिय जीवों में मारणान्तिकसमुद्घातका अभाव है ।
उक्त जीवों द्वारा उपपादकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ।। २०६ ॥ यह सूत्र सुगम है।
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४४२) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, २०७. लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥ २०७॥ एदं पि सुगम, वट्टमाणप्पणादो । पंचचोदसभागा वा देसूणा ॥ २०८ ॥
कुदो ? मेरुमूलादो उवरि पंचरज्जुमेत्तद्धाणं गंतूण सहस्सारकप्पस्स अवट्ठाणादो । एत्थ वासद्दो वुत्तसमुच्चयट्ठो ।
सुक्कलेस्सिया सत्थाण-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥२०९ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २१० ॥ एत्थ खेत्तवण्णणा कायव्या, वट्टमाणप्पणादो । छचोदसभागा वा देसूणा ॥ २११ ॥
उक्त जीवों द्वारा उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ २०७॥
यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि वर्तमान कालकी विवक्षा है।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥२०८॥
.. क्योंकि, मेरुमूलसे पांच राजुमात्र मार्ग जाकर सहस्रारकल्पका अवस्थान है । सूत्रमें वा शब्द पूर्वोक्त अर्थके समुच्चयके लिये है।
शुक्ललेश्यावाले जीवोंने स्वस्थान और उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥२०९ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवोंने उक्त पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।।२१०॥ यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है ।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है ॥ २११॥
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२, ७, २१५.]
फोसणाणुगमे लेस्सामग्गणां एदस्सत्थो- सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो वासद्देण समुच्चिदत्थो । विहारवदिसत्थाण-उववादेहि छचोद्दसभागा फोसिदा, तिरियलोगादो आरणच्छुदकप्पे समुप्पज्जमाणाणं छरज्जुअभंतरे विहरंताणं च एत्तियमेत्तफोसणुवलंभादो।
समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २१२ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २१३ ॥ एत्थ खेत्तपरूवणा कायया । छचोदसभागा वा देसूणा ॥ २१४ ॥
आरणच्चुददेवेसु कयमारणंतियतिरिक्ख-मणुस्साणमुबलभादो । वेदण-कसायवेउब्धियसमुग्धादाणं विहारवदिसत्थाणभंगो ।
असंखेज्जा वा भागा ॥ २१५ ॥
इसका अर्थ- स्वस्थान पदसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है । यह वा शब्द द्वारा समुच्चय रूपसे सूचित अर्थ है। विहारवत्स्वस्थान और उपपाद पदोंसे छह बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है. क्योंकि. तिर्यग्लोकसे आरण-अच्यत कल्पमें उत्पन्न होनेवाले और छह राजुके भीतर विहार करनेवाले उक्त जीवोंके इतना मात्र स्पर्शन पाया जाता है।
उक्त जीवों द्वारा समुद्धात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २१२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवों द्वारा समुद्धात पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ? ॥२१३॥ यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये । अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥२१॥
क्योंकि, आरण-अध्युत कल्पवासी देवोंमें मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले तिर्यंच और मनुष्य पाये जाते हैं । वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातोंकी अपेक्षा स्पर्शनका मिरूपण बिहारयत्स्वस्थानके समान है।
अथवा, असंख्यात बहुभाग स्पृष्ट हैं ॥ २१५ ।।
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४४१] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
( २, ७, २१६. एदं' पदरगदकेवलिमस्सिदण भणिदं, वादवलए मोत्तण तत्थ सबलोगंगदजीवपदेसाणमुवलंभादो। दंडगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एवं कवाडगदेहि वि । णवरि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो तत्तो संखेज्जगुणो वा फोसिदो त्ति वत्तव्यं । एसो वासदेण यउत्तसमुच्चओ । पुव्वसुत्तट्ठियवासदेण वि अउत्तसमुच्चओ पुबसुत्ते चेव कदों, सुक्कलेस्सियदेवेहि कयमारणंतिएहि चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो त्ति एदस्स सूचयत्तादो।
सबलोगो वा ॥ २१६ ॥ एदं लोगपूरणगदकेवलिं पडुच्च समुद्दिष्टुं । एत्थ वासद्दो उत्तसमुच्चयत्थो ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिय अभवसिद्धिय सत्थाण-समुग्धादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ।। २१७ ॥
यह प्रतरसमुद्घातगत केवलीका आश्रय कर कहा गया है, क्योंकि, प्रतरसमुद्घातमें वातवलयोंको छोड़कर सर्व लोकमें व्याप्त जीव प्रदेश पाये जाते हैं। दण्डसमुद्घातगत जीवों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। इसी प्रकार कपाटसमुद्घातगत जीवों द्वारा भी स्पृष्ट है। विशेष इतना है कि तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग अथवा उससे संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, ऐसा कहना बाहिये। यह सूत्र में नहीं कहे हुर अर्थका वा शब्दके द्वारा समुच्चय किया गया है। पूर्व सूत्र में स्थित वा शब्दके द्वारा भी अनुक्त अर्थका समुच्चय पूर्व सूत्र में ही किया गया है, क्योंकि, वह वा शब्द 'मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त शुक्ललेश्यावाले देवोंके द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है ' इस अर्थका सूचक है।
अथवा, सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ २१६ ॥
यह लोकपूरणसमुद्घातगत केवलीकी अपेक्षा कहा गया है। यहां वा शब्द पूर्वोक्त अर्थके समुच्चयके लिये है।
भव्यमार्गणानुसार भव्यसिद्धिक और अभव्यासद्धिक जीवों द्वारा स्वस्थान, समुद्घात एवं उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २१७॥ .
१ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः ' अउत्तसमुच्चओ चेव', आप्रतौ ' अउत्तसमुच्चओ पुध्वमुत्तं चेव ' इति पाठ: ।
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२, ७, २२०.] फोसणाणुगमे सम्मत्तमग्गणा
। ४४५ सुगमं । सबलोगो ॥ २१८ ॥
सत्थाण-वेयण-कसाय-मारणतिय-उववादेहि अदीद वट्टमाणे सब्बलोगो फोसिदो । विहारवदिसत्थाणेण वट्टमाणे खेत्तं; अदीदेण अट्टचोद्दमभागा फोसिदा । वेउवियपदेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो फोसिदो । भवसिद्धिएसु सेसपदाणमोघभंगो । कधमेदं समुबलद्धं ? देसामासियत्तादो।
सम्मत्ताणुवादेश सम्मादिट्ठी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २१९ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २२० ॥ सुगम, वट्टमाणप्पणादो।
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवों द्वारा उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ २१८ ॥
स्वस्थान, वेदना, कषाय मारणान्तिक और उपपाद पदोंसे अतीत व वर्तमान कालमें भव्यसिद्धिक एवं अभव्यसिद्धिक जीवों द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है। विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा वर्तमान कालमें क्षेत्रके समान प्ररूपणा है; अतीत कालमें आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । भव्यसिद्धिक जीवोंमें शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण ओधके समान है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-इस सूत्रके देशामर्शक होनेसे उपर्युक्त अर्थ उपलब्ध होता है।
सम्यक्त्वमार्गणानुसार सम्यग्दृष्टी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ २१९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
सम्यग्दृष्टि जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ २२०॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि वर्तमान कालकी विवक्षा है।
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
agaleसभागा वा सूणा ॥ २२९ ॥
सत्थाणेण तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदि भागो, अड्डा इज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो वासदत्थो । विहारवदिसत्थाणेण अट्ठचोदसभागा देणा फोसिदा, सम्माइट्ठीणं मेरुमूलादो हेङा दोरज्जुमेतद्भाणगमणस्स दंसणादो । समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २२२ ॥
४४६ ]
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २२३ ॥
एत्थ खेत्तवण्णणं कायव्वं, वट्टमाणवेयण-कसाय- वे उब्विय-तेजाहार-केवलिसमुग्धाद-मारणंतियखेत्तप्पणादो ।
अचोद सभागा वा देसूणा ॥ २२४ ॥
वेयण-कसाय-उत्रिय मारणंतियपदेहि अट्ठचोदसभागा देगा फोसिदा ।
[ २, ७, २२१.
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ २२१ ॥
स्वस्थान पद से सम्यग्दृष्टि जीवोंने तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग, और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है । यह वा शब्द से सूचित अर्थ है । विहारवत्स्वस्थान पद से कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, मेरुमूलसे नीचे दो राजुमात्र मार्ग में सम्यग्दप्रियोंका गमन देखा जाता है ।
सम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा समुद्घात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ।। २२२ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
सम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ? ॥ २२३ ॥
यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि वर्तमानकालसम्बन्धी वेदना, कपाय, वैक्रियिक, तैजस, आहारक, केवलिसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदों की अपेक्षा क्षेत्रकी विवक्षा है ।
हैं
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट ॥ २२४ ॥
वेदना,
कषाय, वैकियिक और मारणान्तिक पदोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीवों
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२, ७, २२६.] फोसणाणुगमे सम्मत्तमग्गणा
[ ४४७ एदं देवसम्माइट्ठिणो अस्सिदण उत्तं । वासद्दो किमढ वुत्तो ? तिरिक्ख-मणुससम्माइट्ठिखेत्तसमुच्चयटुं । तं जहा- वेयण-कसाय-वेउव्विएहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; तेजाहारपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जस्स संखेज्जदिभागो; मारणंतिएण छचोद्दसभागा फोसिदा । एसो वासद्दसमुच्चिदत्थो ।
असंखेज्जा वा भागाचा ॥ २२५॥
एदं पदरगदकेवलिमस्सिदूण उत्तं । दंडगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो पढमवासद्देण समुच्चिदत्थो । कवाडगदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो तत्तो संखेज्जगुणो वा, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो बिदियवासद्दसमुच्चिदत्थो । एवं सव्वत्थ पदरगदकेवलिसुत्तट्ठियदोण्णं वासदाणमत्थो परूवेदव्यो ।
सव्वलोगो वा ॥ २२६ ॥
द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है । यह स्पर्शन क्षेत्र देव सम्यग्दृष्टियोंका आश्रयकर कहा गया है।
शंका-सूत्रमें वा शब्दका ग्रहण किस लिये किया है ?
समाधान-तिर्यंच और मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंके क्षेत्रका समुच्चय करनेके लिये सूत्रमें वा शब्दका ग्रहण किया है। वह इस प्रकार है-तिर्यंच व मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंके द्वारा वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदोंसे तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा; तैजस और आहारक पदोंसे चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपका संख्यातवां भाग; तथा मारणान्तिकसमुद्घातसे छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । यह वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है ।
अथवा, असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र स्पृष्ट है ।। २२५ ॥
यह कथन प्रतरसमुद्घातगत केवलीका आश्रयकर किया है । दण्डसमुद्घातगत केवलियों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह प्रथम वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है । कपाटसमुद्घातगत केवलियोंके द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग या उससे संख्यातगुणा, तथा अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह द्वितीय वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है। इसी प्रकार सर्वत्र प्रतरसमुद्घातगत केवलियोंके स्पर्शनका निरूपण करनेवाले सूत्रोंमें स्थित दो वा शब्दोंका अर्थ करना चाहिये ।
अथवा, सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ २२६॥ .
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४४८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, २२७. एदं लोगपूरणमस्सिदण भणिदं । वासदो उत्तसमुच्चयत्थो । उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २२७ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २२८ ॥ सुगम, वट्टमाणप्पणादो। छचोदसभागा वा देसूणा ॥ २२९ ॥
देव-णेरइएहि मणुस्सेसुप्पज्जमाणेहि. चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइ. ज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो, एक्कारहरज्जुदीह-पणदालीसजायणलक्खरुंदखेत्तस्स उवलंभादो। ण च एत्तियमेत्तं चेवेत्ति णियमो अस्थि, अण्णस्स वि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तस्स उवलंभादो । एसो वासदत्यो। तिरिय-मणुस्सेहिंतो देवेसुप्पण्णेहि छचोहसभागा फोसिदा ।
... यह सूत्र लोकपूरणसमुद्घातका आश्रय कर कहा गया है। वा शब्द पूर्वोक्त अर्थके समुच्चयके लिये है।
उक्त सस्यग्दृष्टि जीवों द्वारा उपपादकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ॥ २२७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
सम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ २२८ ।।
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि वर्तमान कालकी विवक्षा है।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ २२९ ॥
मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले देव-नारकियोंके द्वारा चार लोकोंका असंख्यातयां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, यहां ग्यारह राजु दीर्घ और पैंतालीस लाख योजन विस्तीर्ण क्षेत्र पाया जाता है। और इतना मात्र ही क्षेत्र है ' ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, अन्य भी तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग पाया जाता है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । तिर्यंच और मनुष्योंमेंसे देवोंमें उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टि जीवोंके द्वारा छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट है ।
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[ ४१९
२, ७, २३४.] फोसणाणुगमे सम्मत्तमरगणा
खइयसम्माइट्टी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २३०॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २३१ ॥ सुगम, वट्टमाणप्पणादो। अट्रचोदसभागा वा देसूणा ॥ २३२ ॥
सत्थाणत्थेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो वासदत्थो। विहारवदिसत्थाणेण अट्टचोद्दसभागा देसूणा फोसिदा ।
समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २३३ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २३४ ॥
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंने स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ २३०॥
यह सूत्र सुगम है।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ २३१ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है।
अथवा, उक्त जीवों द्वारा अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ २३२ ॥
__ स्वस्थानमें स्थित क्षायिकसम्यग्दृष्टियों द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । विहारवत्स्वस्थानसे कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है। ....
समुद्घात पदोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २३३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
समुद्घात पदोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ २३४॥
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४५०] छवखंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, २३५. सुगम, बट्टमाणप्पणादो। अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥ २३५ ॥
तेजाहारपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो संखेज्जदिभागों फोसिदो । तिरिक्ख-मणुस्सेहि वेयण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतियसमुग्घादेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो वासदत्थो । देवेहि पुण वेयण-कसाय-वेउब्बिय-मारणंतियसमुग्घादेदि अडचोद्दसभागा देसूणा फोसिदा ।।
असंखेज्जा वा भागा वा ॥ २३६ ॥
एदं पदरगदकेवलिखेत्तं पडुच्च भणिदं, तत्थ वादवलयं मोत्तूण सेसासेसलोगगदजीवपदेसाणमुवलंभादो। दंडगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो। एसो पढमवासदेण सूइदत्थो । कवाडगदेहि तिण्हं लोगाणम
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है। ___ अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ २३५॥ .. तैजस और आहारक पदोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है। तिर्यंच व मनुष्य क्षायिकसम्यग्दृष्टियों द्वारा वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे अ ख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। परन्तु देव क्षायिकसम्यग्दृष्टियों द्वारा वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं।
अथवा, असंख्यात बहुभाग स्पृष्ट हैं ।। २३६ ॥
यह सूत्र प्रतरसमुद्घातगत केवलीके क्षेत्रकी अपेक्षा कहा गया है, क्योंकि,प्रतरसमुद्घातमें वातवलयको छोड़कर शेष समस्त लोकमें व्याप्त जीवप्रदेश पाये जाते हैं। दण्डसमुद्घातगत केवलियोंके द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह प्रथम वा शब्दसे सूचित अर्थ है । कपाटसमुद्घातगत
१ प्रतिषु ' असंखेज्जदिमागो' इति पाठः।
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२, ७, २४०.] फोसणाणुगमे सम्मत्तमागणा
[ १५१ संखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागो तत्तो संखेज्जगुणो वा, अड्डाइज्जादो. असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो बिदियवासद्दसमुच्चिदत्थो।।
सव्वलोगो वा ॥ २३७॥ एवं लोगपूरणगदकेवलिं पडुच्च परूविदं । एत्थ वासद्दो उत्तसमुच्चयत्थो । उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २३८ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २३९ ॥
एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो। अदीदे तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो।
वेदगसम्मादिट्ठी सत्थाण-समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २४०॥
केवलियोंके द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग या उससे संख्यातगुणा, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह द्वितीय वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है।
अथवा, सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ २३७ ।।
यह सूत्र लोकपूरणसमुद्घातगत केवलीकी अपेक्षासे कहा गया है । यहां या शब्द पूर्वोक्त अर्थके समुच्चयके लिये है।
उपपादकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २३८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उपपादकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ २३९ ॥
यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है।
वेदकसम्यग्दृष्टि जीव स्वस्थान और समुद्घात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते
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४५२ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ७, २४१. सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २४१ ॥ सुगमं, वट्टमाणप्पणादो। अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥ २४२ ॥
सत्थाणेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो वासदेण समुच्चिदत्थो । विहारवदिसत्थाणवेयण-कसाय-वेउब्बिय-मारणंतिएहि अट्ठचोदसभागा देसूणा फोसिदा ।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २४३ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २४४ ॥ सुगमं, वट्टमाणप्पणादो।
यह सूत्र सुगम है।
वेदकसम्यग्दृष्टि जीव स्वस्थान और समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते है ॥ २४१ ।।
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है ।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ।। २४२ ॥
स्वस्थान पदसे तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। यह वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदोंसे कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ।
उक्त वेदकसम्यग्दृष्टियों द्वारा उपपाद पदसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥२४३॥ यह सूत्र सुगम है।
वेदकसम्यग्दृष्टियों द्वारा उपपाद पदसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥२४४ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है ।
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२, ७, २४८.] फोसणाणुगमे सम्मत्तमागणा
[४५३ छचोदसभागा वा देसूणा ॥ २४५॥
देव-णेरइएहितो आगंतूग वेदगसम्मादिट्ठिमणुस्सेसुप्पण्णेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । णवरि देवेहि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो । एसो वासद्दसमुच्चिदत्थो । तिरिक्ख-मणुस्सेहितो देवेसुप्पज्जमाणवेदगसम्माइट्ठीहि छचोदसभागा फोसिदा ।
उवसमसम्माइट्टी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥२४६॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २४७ ॥ सुगम, वट्टमाणप्पणादो। अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥ २४८ ॥ सत्थाणेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो,
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ २४५ ॥
देव-नारकियों मेंसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुए वेदकसम्यग्दृष्टियों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। विशेष इतना है कि देवों द्वारा तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है । तिर्यंच और मनुष्योंमेंसे देवों में उत्पन्न होनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टियों द्वारा छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट है।
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ।। २४६॥
यह सूत्र सुगम है।
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ २४७॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ? ॥२४८ ॥
स्वस्थान पदसे उक्त जीवों द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग,तिर्यग्लोकका
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छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ७, २४९. अड्डाइज्ज़ादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो वासद्दसमुच्चिदत्थो । विहारवदिसत्थाणेण अट्ठचोद्दसभागा फोसिदा, उवसमसम्माइट्ठीणं देवाणमट्ठचोदसभागतरे विहारं पडि विरोहाभावादो।
समुग्घादेहि उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥२४९ ॥ सुगमं ।। लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २५० ॥
एत्थ अदीद-वट्टमाणकालेसु मारणतिय-उववादपरिणएहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो, माणुसखेत्तम्मि चेव मरंताणं उवसमसम्माइट्ठीणमुवलंभादो । वेयण-कसाय-वेउब्धियसमुग्घादाणमुवसमसम्माइट्ठीणं देवाणमट्ठचोदसभागा किण्ण परूविदा ? ण, एवं परूविज्जमाणे सासणस्स मारणंतियसमुग्घादस्स वि अट्टचोदसभागा होति ति संदेहो मा होहदि त्ति तण्णिराकरणहूँ ण परूविदा ।
संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। यह वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है । विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टि देवोंके आठ बटे चौदह भागोंके भीतर विहारमें कोई विरोध नहीं है।
उक्त उपशमसम्यग्दृष्टियों द्वारा समुद्घात व उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ।। २४९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उपशमसम्यग्दृष्टियों द्वारा उक्त पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ २५० ॥
यहां अतीत व वर्तमान कालोंमें मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे परिणत उपशमसम्यग्दृष्टियों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, मानुषक्षेत्र में ही मरणको प्राप्त होनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि पाये जाते हैं।
शंका-वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा उपशमसम्यग्दृष्टि देवोंके आठ बटे चौदह भाग यहां क्यों नहीं कहे ?
समाधान नहीं, क्योंकि, ऐसा निरूपण करनेपर ‘सासादनसम्यग्दृष्टिके मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा भी आठ बटे चौदह भाग होते हैं' ऐसा संदेह न हो, इस प्रकार उसके निराकरणके लिये उक्त आठ बटे चौदह भागोंका निरूपण नहीं किया।
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२, ७, २५५. ]
फोसणागमे सम्मत्तमग्गणा
[ ४५५
सास सम्माइट्टी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥२५१ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २५२ ॥ सुगमं, वाणपणादो।
अgareसभागा वा देसूणा ॥ २५३ ॥
सत्थाणेण तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो वासदसमुच्चिदत्थो । विहारख दिसत्था - परिणएहि अट्ठचोदसभागा फोसिदा ।
समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २५४ ॥
सुमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।। २५५ ॥
सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ?
॥ २५१ ॥
यह सूत्र सुगम
सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। २५२ ।।
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है ।
है ।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। २५३ ॥
स्वस्थानकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है। विहारवत्स्वस्थान पद से परिणत सासादनसम्यग्दृष्टियों द्वारा आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं |
उक्त जीवों द्वारा समुद्घात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २५४ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
उक्त जीवों द्वारा समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है || २५५ ॥
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४५६] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ७, २५६. सुगम, वट्टमाणप्पणादो। अट्ठ-बारहचोदसभागा वा देसूणा ॥ २५६ ॥
वैयण-कसाय-वेउब्धियसमुग्घादेहि अट्टचोदसभागा फोसिदा । मारणंतियसमु. ग्घादेहि बारहचोद्दस भागा फोसिदा,मेरुमूलादो हेट्ठोवरि पंच-सत्तरज्जुआयामेण मारणंतियस्सुवलंभादो।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २५७ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥२५८ ॥ सुगम, वट्टमाणप्पणादो। एक्कारहचोदसभागा देसूणा ॥ २५९ ॥
कुदो ? छट्टिपुढविणेरइयाणं सासणगुणेण पंचिंदियतिरिक्खेसु उप्पज्जमाणाणं पंचचोद्दसभागा उववादेण लभंति, देवेहितो पंचिंदियतिरिक्खेसुप्पज्जमाणाणं छचोद्दस
यह सूत्र सगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ और बारह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ २५६ ॥
वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातोंसे आठ वटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं। मारणान्तिकसमुद्घातसे बारह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, मेरुमूलसे नीचे पांच और ऊपर सात राजु आयामसे मारणान्तिकसमुद्घात पाया जाता है।
उक्त सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा उपपादकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पष्ट है ? ॥ २५७॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवों द्वारा उपपाद पदसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥२५८॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है।।
अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ २५९ ॥
क्योंकि, सासादनगुणस्थानके साथ पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेवाले छठी पृथिवीके नारकियोंके पांच बटे चौदह भाग उपपादसे प्राप्त होते हैं, तथा देवोंसे
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२, ७, २६२.] फोसणाणुगमे सम्मत्तमग्गणा
[ ४५७ भागा लम्भंति, एदेसि समासो एक्कारहचोदसभागा सासणोववादफोसणखेत्तं होदि ति। उवरि सत्त चोदसभागा किण्ण लद्धा ? ण, सासणाणमेइंदिएसु उववादाभावादो । मारणंतियमेइदिएसु गदसासणा तत्थ किण्ण उप्पज्जति ? ण, मिच्छत्तमागंतूण सासणगुणेण उप्पत्तिविरोहादो।
सम्मामिच्छाइट्ठीहि सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? ॥२६०॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥२६१ ॥ सुगमं, वट्टमाणप्पणादो। अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥ २६२ ॥
तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके छह बटे चौदह भाग प्राप्त होते हैं, इन दोनोंके जोड़रूप ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपादकी अपेक्षा स्पर्शनक्षेत्र होता है।
शंका-ऊपर सात बटे चौदह भाग क्यों नहीं प्राप्त होते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी एकेन्द्रियों में उत्पत्ति नहीं है।
शंका-एकेन्द्रियों में मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त हुए सासादनसम्यग्दृष्टि जीव उनमें उत्पन्न क्यों नहीं होते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, आयुके नष्ट होनेपर उक्त जीव मिथ्यात्व गुणस्थानमें आ जाते हैं, अतः मिथ्यात्वमें आकर सासादनगुणस्थानके साथ उत्पत्तिका विरोध है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥२६०॥ यह सूत्र सुगम है।
उक्त जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥२६१ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है ।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ २६२ ॥
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४५८ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ७, २६३. सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अट्ठाइजादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो वासदत्थो । विहारवदिसत्थाणेण अट्ठचोदसभागा वा फोसिदा । सेसं सुगमं ।।
समुग्धाद-उववादं णस्थि ॥ २६३ ॥
कुदो ? सम्मामिच्छत्तगुणेण मरणाभावादो । वेयण-कसाय वेउब्वियस मुग्धादाणमेत्थ परूवणं किण्ण कदं ? ण, तेसिं पहाणत्ताभावादो ।
मिच्छाइट्टी असंजदभंगो ॥ २६४ ॥ सुगमभेदं ।
सण्णियाणुवादेण सण्णी सत्थाणेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ २६५ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २६६ ॥
स्वस्थान पदसे तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। तथा विहारवत्स्वस्थानसे आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके समुद्घात और उपपाद पद नहीं होते हैं ।। ६६३ ॥ क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके साथ मरणका अभाव है।
शंका-वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातोंकी यहां प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उनकी प्रधानता नहीं है। मिथ्यादृष्टि जीवोंके स्पर्शनका निरूपण असंयत जीवोंके समान है ॥ २६४ ॥ यह सूत्र सुगम है।
संज्ञिमार्गणानुसार संज्ञी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ २६५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
संज्ञी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ २६६॥
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२, ७, २७०. ]
फोसणा गमे सणिमग्गणी
सुगम, वट्टमाणविवक्खादो |
अचोदसभागा वा देसूणा फोसिदा ॥ २६७ ॥
सत्थाणेण तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेञ्जगुणो फोसिदो । एसो वासदत्थो । विहारवादसत्थाणेण अट्ठचोहसभागा फोसिदा ।
समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २६८ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ २६९ ॥
सुगमं, वहमाणप्पणादो ।
अट्टाहस भागा वा देसूणा ॥ २७० ॥
वेयण-कसाय-वेउच्चियसमुग्धादेहि अट्ठचोहसभागा फोसिदा, देवाणं विहरंताणं तिह मेदेसि मुलं भादो |
[ ४५९
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है ।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ २६७ ॥
स्वस्थान पद से संज्ञी जीवोंने तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । विहारवत्स्वस्थानसे आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है । समुद्घातोंकी अपेक्षा संज्ञी जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ।। २६८ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
।। २७० ।।
संज्ञी जीवों द्वारा समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है || २६९॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है ।
अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं
वेदना, कपाय और वैक्रियिक समुद्घातोंकी अपेक्षा आठ बटे चौदह भाग पृष्ट हैं, क्योंकि, विहार करते हुए देवोंके ये तीनों समुद्घात पाये जाते हैं ।
१ अप्रतौ ' लोगस्स संखेज्जदिभागो', काप्रतौ ' लोगसंखेज्जदिभागो ' इति पाठः ।
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४६०)
छक्खंडागमे स्वुद्दाबंधो { २, ७, २७१. सव्वलोगो वा ॥ २७१ ॥
मारणंतियसमुग्घादं पडुच्च एसो णिद्देसो । तसकाइएसु सण्णीसु मुक्कमारणंतियसण्णी जीवे पडुच्च बारहचोद्दसभागा देसूणा फोसिदा । एसो वासदत्थो ।
उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २७२ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २७३ ॥ सुगमं, वहमाणप्पणादो। सव्वलोगो वा ॥ २७४ ॥
सण्णीसुप्पण्णअसण्णीणं सबलोगोवलंभादो । मण्णीणं मणीसुप्पज्जमाणाणं बारहचोद्दसभागा होति । सम्माइट्ठीणं छचोदसभागा। एसो वासदत्थो । एवमण्णत्थ वि अउत्तट्ठाणे वासदाणमत्थो वत्तव्यो ।
अथवा, सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ २७१ ।।
यह कथन (असंशी जीवोंमें किये गये) मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षासे है। त्रसकायिक संझी जीवोंमें मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले संझी जीवोंकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है ।
उपपादकी अपेक्षा संज्ञी जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २७२ ॥ यह सूत्र सुगम है।
उपपादकी अपेक्षा संज्ञी जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ २७३ ।।
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है । अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ २७४ ॥
क्योंकि, संशियोंमें उत्पन्न हुए असंही जीवोंके सर्व लोक क्षेत्र पाया जाता है। किन्तु संशियोंमें उत्पन्न होनेवाले संक्षी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र बारह बटे चौदह भाग है। सम्यग्दृष्टि संशियोंका उपपादक्षेत्र छह बटे चौदह भागप्रमाण है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। इसी प्रकार अन्यत्र भी अनुक्त स्थानमें वा शब्दोंका अर्थ कहना चाहिये।
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२, ७, २७९. ] फोसणाणुगमे आहारमग्गणा
[ ४६१ असण्णी मिच्छाइट्ठिभंगो ॥ २७५ ॥ सुगमं ।
आहाराणुवादेण आहारा सत्थाण-समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २७६ ॥
सुगमं । सव्वलोगो ॥ २७७ ॥
एदं देसामासियसुत्तं । तेण विहारवदिसत्थाणेण अट्ठचोदसभागा फोसिदा । वेउचिएण तिण्हं लोगाणं संखेजदिभागो फोसिदो । सेसं सुगमं ।
अणाहारा केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २७८ ॥ सुगमं । सव्वलोगो वा ॥ २७९ ॥ एदं पि सुगम ।
एवं फोसणाणुगमो त्ति समत्तमणिओगद्दारं । ) असंज्ञी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र मिथ्यादृष्टियोंके समान है ।। २७५ ।। यह सूत्र सुगम है।
आहारमार्गणानुसार आहारक जीवोंने स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ २७६ ॥
यह सूत्र सुगम है। आहारक जीवोंने उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पर्श किया है ।। २७७ ॥
यह देशामर्शक सूत्र है । अत एव ( इसके द्वारा सूचित अर्थ-) विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा आहारक जीवोंने आठ बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है। वैक्रियिकसमुद्घातसे तीन लोकोंके संख्यातवें भागका स्पर्श किया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
अनाहारक जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ २७८ ॥ यह सूत्र सुगम है। अनाहारक जीवोंने सर्व लोक स्पर्श किया है ॥ २७९ ।। यह सूत्र भी सुगम है।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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णाणाजीवेण कालाणुगमो णाणाजीवेण कालाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइया केवचिरं कालादो होति ? ॥ १॥
__णाणाजीवग्गहणमेगजीवपडिसेहटुं । कालाणुगमग्गहणं सेसाणिओगद्दारपडिसेहढं । गदिग्गहणं सेसमग्गणापडिसेहफलं । णिस्यगइणिद्देसो सेसगइपडिसेहफलो । णेरइयणिदेसो तत्थट्ठियपुढविकाइयादिपडिसेहफलो । केवचिरं कालादो होति त्ति एदस्सत्थो-णिरयगदीए णेरड्या किमणादि-अपज्जवसिदा, किमणादि-सपज्जवसिदा, किं सादि-अपज्जवसिदा, किं सादि-सपज्जवसिदा ति सिस्सस्स आसंकुद्दीवणमेदेण कयं । अधवा णासंकियसुत्तमिदं, किंतु पुच्छासुत्तमिदि वत्तव्यं । एसो अत्थो सव्यसंकासुत्तेसु जोजेयव्यो।
सव्वद्धा ॥२॥ अणादि-अपज्जवसिदा होंति, सेसतिसु वियप्पेसु णस्थि । कुदो ? सहावदो
नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगमसे गतिमार्गणाके अनुसार नरकगतिमें नारकी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १ ॥
एक जीवके प्रतिषेधार्थ सूत्रमें 'नाना जीव' का ग्रहण किया है । 'कालानुगम' का ग्रहण शेष अनुयोगद्वारोंके निषेधार्थ है । 'गति' ग्रहणका फल शेष मार्गणाओंका प्रतिषेध करना है। 'नरकगति' का निर्देश शेष गतियोंका प्रतिषेधक है। 'नारकी' पदके निर्देशका फल नरकोंमें स्थित पृथिवीकायिकादि जीवोंका प्रतिषेध करना है। 'कितने काल तक रहते हैं। इसका अर्थ इस प्रकार है- 'नरकगतिमें नारकी जीव क्या अनादि अपर्यवसित हैं, क्या अनादि-सपर्यवसित हैं, क्या सादिअपर्यवसित हैं, और क्या सादि-सपर्यवसित हैं ' इस प्रकार इस सूत्र द्वारा शिष्यकी आशंकाका उद्दीपन किया है । अथवा यह आशंका-सूत्र नहीं है, किन्तु पृच्छासूत्र है, ऐसा कहना चाहिये । यह अर्थ सर्व शंकासूत्रों में जोड़ना चाहिये ।
नाना जीवोंकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकी जीव सर्व काल रहते हैं ॥ २ ॥ नारकी जीव अनादि-अपर्यवसित हैं, शेष तीन विकल्पोंमें नहीं हैं; क्योंकि,
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२, ८, ४.] णाणाजीवेण कालाणुगमे गदिमग्गणा
[ १६३ चेव । ण च सव्वं सहेउअं चेवेत्ति णियमो अस्थि, एयंतवादप्पसंगादो । तम्हा ‘ण अण्णहावाइणो जिणा' इदि एदं सद्दहेयव्यं ।
एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया ॥३॥
जहा णेरइयाणं सामण्णेण अणादिओ अपज्जवसिदो संताणकालो वुत्तो तधा सत्तसु पुढवीतु णेरइयाणं पि । पादेक्कं संताणस्स वोच्छेदो ण होदि त्ति वुत्तं होदि ।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी केवचिरं कालादो होति ? ॥४॥
एदे सुत्तम्मि वुत्तजीवा संताणं पडुच्च किमणादि-अपज्जवसिदा, किमणादिसपज्जवसिदा, किं सादि-अपज्जवसिदा, कि सादि-सपज्जवसिदा; सादि-सपज्जवसिदा वि संता तत्थ किमेगसमयावट्ठाइणो किं दुसमया किं तिसमया, एवमावलिय-खण-लव-मुहुत्त
........
ऐसा स्वभावसे ही है। और सब सहेतुक ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में एकान्तवादका प्रसंग आता है। इस कारण 'जिनदेव अन्यथावादी नहीं है' इस प्रकार इसका श्रद्धान करना चाहिये।
इसी प्रकार सातों पृथिवियों में नारकी जीव नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं ॥ ३ ॥
जिस प्रकार नारकियोंका सामान्यसे अनादि-अपर्यवसित सन्तानकाल कहा है, उसी प्रकार सातों पृथिवियों में ही नारकियोंका सन्तानकाल अनादि-अपर्यवसित है। प्रत्येक सन्तानका व्युच्छेद नहीं होता, ऐसा इस सूत्रका अभिप्राय है।
तिर्यंचगतिमें तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती व पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त; तथा मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ४ ॥
ये सूत्र में कहे हुए जीव सन्तानकी अपेक्षा 'क्या अनादि अपर्यवसित हैं, क्या अनादि-सपर्यवसित हैं, क्या सादि-अपर्यवसित हैं, क्या सादि-सपर्यवसित हैं, और क्या सादि-सपर्यवसित भी होकर उसमें क्या एक समय अवस्थायी हैं, क्या दो समय भवस्थायी हैं, क्या तीन समय अवस्थायी हैं- इस प्रकार आवली, क्षण, लव, मुहूर्त,
१ प्रतिषु । अपज्जत्ताण' इति पाठः।
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४६४] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ८, ५. दिवस-पक्ख-मास-उदु-अयण-संवच्छर-पुव्व-पव-पल्ल-सागरुस्सप्पिणि-कप्पादिकालावट्ठाइणो त्ति आसंकिय तस्स उत्तरसुत्तं भणदि
सव्वद्धा ॥५॥
सव्वा अद्धा कालो जेसिं ते सव्वद्धा, संताणं पडि तत्थ सव्वकालावट्ठाइणो त्ति वुत्तं होदि ।
मणुसअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ६॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ७॥
कुदो ? अणप्पिदगदीदो आगंतूण मणुसअपज्जत्तेसुप्पज्जिय अंतरं विणासिय खुद्दाभवग्गहणमच्छिय णिस्सेसमणप्पिदगदिं गदाणं खुद्दाभवग्गहणमेत्तजहण्णकालुवलंभादो ।
उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८ ॥
दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, पूर्व, पर्व, पल्य, सागर, उत्सर्पिणी एवं कल्पादि काल तक अवस्थायी हैं' इस प्रकार आशंका करके उसका उत्तरसूत्र कहते हैं
उपर्युक्त जीव सन्तानकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं ॥ ५ ॥
'सर्व है अद्धा अर्थात् काल जिनका' इस बहुव्रीहि समासके अनुसार 'सर्वाद्धा' पदका अर्थ 'सर्व काल रहनेवाले' होता है, अर्थात् संतानकी अपेक्षा वहां उपर्युक्त जीव सर्व काल स्थित रहनेवाले हैं, यह सूत्रका अभिप्राय है।
मनुष्य अपर्याप्त जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ६ ॥ यह सूत्र सुगम है। मनुष्य अपर्याप्त जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण काल तक रहते हैं ॥ ७ ॥
क्योंकि, अविवक्षित गतिसे आकर मनुष्य अपर्याप्तोंमें उत्पन्न होकर व अन्तरको नष्ट कर शुद्रभवग्रहणकाल तक रहकर निःशेष रूपसे अविवक्षित गतिमें गये हुए उक्त जीवोंका क्षुद्रभवग्रहणमात्र जघन्य काल पाया जाता है।
वे ही मनुष्य अपर्याप्त जीव उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालतक रहते हैं ॥ ८॥
१ प्रतिषु ' -मस्सिय ' इति पाठः।
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२, ८, ९.] णाणाजीवेण कालाणुगमे गदिमागणा
[ ४६५ तं जहा---- मणुसअपज्जत्तए सु अंतरिय द्विदेसु अणप्पिदगदीदो थोवा जीवा मणुसअपज्जत्तएसु आगंतूण उप्पण्णा । णमंतरं । तेसिं जीवाणं जीविददुचरिमसमओ त्ति पुणो वि उप्पत्तिं पडुच्च अंतरं कश्यि पुणो अपणे उप्पाएयया । तत्थ वि उप्पत्तिं पडुच्च अप्पिदजीवाणं जीविददुचरिमसमयो त्ति अंतरं करिय पुणो अण्णे उप्पाएयव्वा । तत्थ वि उप्पत्तिं पडुच्च अप्पिदजीवाणं जीविददुचरिमसमओ त्ति अंतरं करिय अण्णे उपाएयव्या । अणेण पयारेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तवारेसु गदेसु तदा णियमा अंतरं होदि । एदम्हि काले आणिजमाणे एक्किस्से वारसलागाए जदि संखेज्जावलियमेत्तो कालो लब्भदि, तो पलिदोवमस्स असंखजीदभागमे तसलागासु किं लभामो ति फलेण इच्छं गुणिय पमाणेणोवट्टिदे मणुसअपञ्जत्ताणं संताणस्स कालो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तो जादो । केइमेगमाउछिदि ठविय आवलियाए असंखेञ्जदिभागमेतणिरंतरुवक्कमणकालेण गुणिय पमाणेणोवट्ठति । तसिमसो कालो णागच्छदि ।
देवगदीए देवा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ९॥ सुगमं ।
इसीको स्पष्ट करते हैं.- मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंके अन्तरित होकर स्थित होने पर अविवक्षित गतियोंसे स्तोक जीव मनुष्य अपर्याप्तोंमें आकर उत्पन्न हुए । इस प्रकार अन्तर नष्ट हुआ। उन जीवोंके जीवितके द्विचरम समय तक फिर भी उत्पत्तिकी अपेक्षा अन्तर करके पुनः अन्य जीवोंको मनुष्य अपर्याप्तोंमें उत्पन्न कराना चाहिये। उनमें भी उत्पत्तिकी अपेक्षा विवक्षित जीवोंके जीवितके द्विचरम समय तक अन्तर करके पुनः अन्य जीवोंको उत्पन्न कराना चाहिये। उनमें भी उत्पत्तिकी अपेक्षा विवक्षित जीवोंके जीवितके द्विचरम समय तक अन्तर करके अन्य जीवोंको उत्पन्न कराना चाहिये। इस प्रकारसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र चारोंके वीत जानेपर तत्पश्चात नियमसे अन्तर होता है । इस कालके निकालते समय ' यदि एक वार-शलाकामें संख्यात आवलीमात्र काल लब्ध होता है, तो पल्यापमके असंख्यातवें भागमात्र वार-शलाकाओंमें कितना काल लब्ध होगा? ' इस प्रकार फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित कर प्रमाणराशिसे अपवर्तित करनेपर मनुष्य अपर्याप्तोंकी सन्तानका काल पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होता है। कितने ही आचार्य एक आयुस्थितिको स्थापित कर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र निरंतर उपक्रमणकालसे गुणित करके प्रमाणसे अपवर्तित करते हैं। उनके उपर्युक्त विधानस यह काल नहीं आता।
देवगतिमें देव कितने काल तक रहते हैं ? ॥९॥ यह सूत्र सुगम है।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ८, १०. सव्वद्धा ॥ १०॥ एदं पि सुगमं ।
एवं भवणवासियप्पहुडि जाव सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा ॥ ११ ॥
सुगमं ।
इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया पंचिंदिया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ १२ ॥
णत्थि एत्थ किं पि वत्तव्यं, सुगमत्तादो । सव्वद्धा ॥ १३ ॥ एदं पि सुगमं ।
देवगतिमें देव सर्व काल रहते हैं ॥ १० ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
इसी प्रकार भवनवासी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक सब देव सर्व काल रहते हैं ॥ ११ ॥
यह सूत्र सुगम है।
इन्द्रियमार्गणाके अनुसार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त; बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तः सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव कितने काल तक रहते है ? ॥ १२ ॥
यहां कुछ भी कहने के लिये नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ॥ १३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
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२, ८, १५.1 णाणाजीवेण कालाणुगमे कायमग्गणा
[४६७ कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणप्फदिकाइया णिगोदजीवा वादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ता तसकाइयपज्जत्ता अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ १४ ॥
एत्थ वि णत्थि वत्तव्यं, सुगमत्तादो । सव्वद्धा ॥ १५॥
कायमार्गणाके अनुसार पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिक पर्याप्त, पृथिवीकायिक अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, मूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त; अप्कायिक, अप्कायिक पर्याप्त, अप्कायिक अपर्याप्त; बादर अप्कायिक, वादर अप्कायिक पर्याप्त, बादर अप्कायिक अपर्याप्त; सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त सूक्ष्म अकायिक अपर्याप्त; तेजस्कायिक, तेजस्कायिक पर्याप्त, तेजस्कायिक अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक, बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त; सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त; वायुकायिक, वायुकायिक पर्याप्त, वायुकायिक अपर्याप्त; बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक अपयाप्त सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त; बनस्पतिकायिक, वनस्पतिकायिक पर्याप्त, वनस्पतिकायिक अपर्याप्त; बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, चादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त निगोद जीव, निगोद जीव पर्याप्त, निगोद जीव अपर्याप्त बादर निगोद जीव, बादर निगोद जीव पर्याप्त, बादर निगोद जीव अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद जीव, सूक्ष्म निगोद जीव पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद जीव अपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त; त्रसकायिक, त्रसकायिक पर्याप्त और प्रसकायिक अपर्याप्त जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १४ ॥
यहां भी कुछ कहने योग्य नहीं है, क्योंकि, यह सूत्र सुगम है । उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ॥१५॥
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४६८
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ८, १६. सुगमं ।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी कायजोगी ओरालियकायजोगी ओरालियमिस्सकायजोगी वेउब्वियकायजोगी कम्मइयकायजोगी केवचिरं कालादो होति ? ॥ १६ ॥
सुगमं । सव्वद्धा॥ १७ ॥
मणजोगि-वचिजोगीणमद्धा जहण्णण एगसमओ, उक्कसेण अंतोमुहुत्तं । मणुसअपजताणं पुण जहण्णओ उकस्सओ वि अंतोमुहुत्तपत्तो चेव । जदि एवंविहमणुसअपज्जत्ताणं संताणो सांतरो होज्ज तो मण-वचिजोगीणं संताणो सांतरो किण्ण हवे, विसेसाभावादो । ण दवपमाणकओ विसेसो, देवाणं संखेज्जभागमेत्तदव्युवलक्खियवेउब्धियमिस्सकायजोगिसंताणस्स वि सम्बद्धप्पसंगादो । एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहा- ण दव्यबहुत्तं संताणाविच्छेदस्स कारणं, संखेज्जमणुसपज्जत्ताणं संताणस्स वि
यह सूत्र सुगम है।
योगमार्गणाके अनुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और कार्मणकाययोगी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १६ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ॥ १७ ॥
शंका-मनोयोगी और वचनयोगियोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । परन्तु मनुष्य अपर्याप्तोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। यदि इस प्रकारके मनुष्य अपर्याप्तोंकी सन्तान सान्तर है, तो मनोयोगी मौर वचनयोगियोंकी सन्तान सान्तर क्यों नहीं होगी, क्योंकि, उनमें कोई विशेषता नहीं है । यदि द्रव्यप्रमाणकृत विशेषता मानी जाय तो वह भी नहीं बनती, क्योंकि, देवोंके संख्यातवें भागमात्र द्रव्यसे उपलक्षित वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंकी सन्तानके भी सर्व काल रहनेका प्रसंग होगा?
समाधान-यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार हैद्रव्यकी अधिकता सन्तानके अधिदका कारण नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर
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२, ८, १९. गाणाजीवेण कालाणुगमे जोगमागणा
[ ४६९ वोच्छेदप्पसंगादो। ण सगद्धाथोवतं संताणवोच्छेदस्स कारणं, वेउब्धियमिस्सद्धादो संखेजगुणहीणद्धवलक्खियमणजोगिसंताणस्स वि सांतरत्तप्पसंगादो । किंतु जस्स गुणट्टाणस्स मग्गणट्ठाणस्स वा एगजीवावट्ठाणकालादो पवेमंतरकालो बहुगो होदि तस्सण्णयवोच्छेदो । जस्स पुण कयात्रि ण बहुओ तस्स ण संताणरस वोच्छेदो त्ति घेत्तव्यं । मणजोगि-वचिजोगीणं पुण एगममयो सुट्ट पविग्लो त्ति एत्थ जहण्णकालत्तणेण ण गहिदो।
वेउब्वियमिस्सकायजोगी केवचिरं कालादो होति ? ॥ १८ ॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९ ॥
कुदो ? ओरालियकायजोगट्ठिदतिरिक्ख-मणुस्साणं वे विग्गहे कादूण देवेसुप्पजिय सव्वजहणेण कालेण पज्जत्तीओ समाणिय अंतोमुहुत्तमेत्तजहण्णकालुवलंभादो ।
संख्यात मनुष्य पर्याप्त जीवोंकी सन्तानके भी व्युच्छेदका प्रसंग होगा। अपने कालकी अल्पता भी सन्तानव्युच्छेदका कारण नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर वैक्रियिकमिश्रकालसे संख्यातगुणे हीन काल से उपलक्षित मनोयोगिसन्तानके भी सान्तरताका प्रसंग आवेगा । किन्तु जिस गुणस्थान अथवा मार्गणास्थानके एक जीवके अवस्थानकालसे प्रवेशान्तरकाल बहुत होता है उसकी सन्तानका व्युच्छेद होता है । जिसका वह काल कदापि बहुत नहीं है उसकी सन्तानका नहीं होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । परन्तु मनोयोगी व वचनयोगियोंका एक समय बहुत ही कम पाया जाता है, इस कारण यहां जघन्य कालरूपसे यह नहीं ग्रहण किया गया।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १८ ॥ यह सूत्र सुगम है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है ॥ १९ ॥
क्योंकि, औदारिककाययोगमें स्थित तिर्यंच और मनुष्योंका दो विग्रह करके देवों में उत्पन्न होकर और सर्व जघन्य कालसे पर्याप्तियोंको पूर्ण कर बहुत ही कम पाया जाता अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्य काल पाया जाता है।
१ अप्रतौ ' -हीणव्वुचलक्खिय ', आ-काप्रयोः । -हीणब्वुवलक्खिय' इति पाठः। २ प्रतिषु ' एगसमया सुट्ठ पविरदो' इति पाठः ।
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४७०] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ८, २०. उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २० ॥
मणुसअपज्जत्ताणं जधा पलिदोवमस्म असंखेज्जदिभागमेत्तो संताणकालो परूविदो तधा एत्थ वि परूवेदव्यो ।
आहारकायजोगी केवचिरं कालादो होति ? ॥ २१ ॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमयं ॥ २२ ॥
कुदो १ मणजोग-वचिजोगहिंतो आहारकायजोग गंतूण बिदियसमए कालं करिय जोगंतरं गयस्स एगसमयकालुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ २३ ॥
एत्थ आहारकायजोगीणं दुचरिमसमओ जाव आहारकायजोगप्पवेसस्स अंतरं करिय पुणो उवरिमसमए अण्णे जीवे पवेसियव्वा' । एवं संखेज्जवारसलागासु उप्पण्णासु तदो णियमा अंतर होदि । एवं संखेनंतोमुहुत्तसमासो वि अंतोमुहुत्तमेत्तो चेव ।
वही काल उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ २० ॥
जिस प्रकार मनुष्य अपर्याप्तोंके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सन्तानकालका निरूपण किया जा चुका है, उसी प्रकार यहांपर भी निरूपण करना चाहिये ।
आहारकमिश्रकाययोगी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ २१ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारकमिश्रकाययोगी जीव जघन्यसे एक समय तक रहते हैं ॥ २२ ॥
क्योंकि, मनोयोग और वचनयोगसे आहारककाययोगको प्राप्त होकर व द्वितीय समयमें मरण कर योगान्तरको प्राप्त होनेपर एक समय काल पाया जाता है।
आहारककाययोगी जीव उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं ।। २३ ॥
यहां आहारक काययोगियों के द्विचरम समय तक आहारककाययोगमें प्रवेशका अन्तर करके पुनः उपरिम समयमै अन्य जीवोंका प्रवेश कराना चाहिये । इस प्रकार संख्यात वार-शलाकाओंके उत्पन्न होनेपर तत्पश्चात् नियमसे अन्तर होता है। इस प्रकार संख्यात अन्तर्मुहूर्ताका जोड़ भी अन्तर्मुहूर्तमात्र ही होता है।
१ प्रतिषु — पवेसिय ' इति पाठः ।
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२, ८, २७.] णाणाजीवेण कालाणुगमे वेदमग्गणा
[४७१ कथं णव्वदे ? उक्कस्सकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो ति सुत्तवयणादो ।
आहारमिस्सकायजोगी केवचिरं कालादो होति ? ॥ २४ ॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥२५॥
कुदो ? आहारमिस्सकायजोगचरस्स आहारमिस्सकायजोगं गंतूण सुट्ट जहण्णेण कालेण पज्जत्तीओ समाणिदस्स जहण्णकालुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ २६॥ एत्थ वि पुव्वं व संखेज्जतोमुहुत्ताणं संकलणा कायया ।
वेदाणुवादेण इत्थिवेदा पुरिसवेदा णqसयवेदा अवगदवेदा केवचिरं कालादो होति ? ॥ २७ ॥
सुगम ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है कि उन संख्यात अन्तर्मुहूर्तोंका जोड़ भी अन्तर्मुहूर्तमात्र ही होता है ?
समाधान-' उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है' इस सूत्रवचनसे जाना जाता है। आहारकमिश्रकाययोगी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ २४ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारकमिश्रकाययोगी जीव जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं ।। २५ ॥
क्योंकि, आहारकमिश्रकाययोगमें जानेवाले जीवके आहारकमिश्रकाययोगको प्राप्त होकर अतिशय जघन्य कालसे पर्याप्तियों को पूर्ण करलेनेपर (सूत्रोक्त) जघन्य काल पाया जाता है।
आहारकमिश्रकाययोगी जीव उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं ॥ २६ ॥ यहांपर भी पूर्वके समान संख्यात अन्तर्मुहूर्तोंका संकलन करना चाहिये ।
वेदमार्गणाके अनुसार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अपगतवेदी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ २७ ॥
यह सूत्र सुगम है।
१ आप्रतौ' -जोगिचरस्स' इति पाठः ।
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४७२ ]
सव्वदा ॥ २८ ॥
एदं पि सुगमं ।
सव्वद्धा ॥ ३० ॥
एदं पि सुगमं ।
छक्खंडागमे खुदाबंधो
कसायाणुवादेण को कसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई अकसाई केवचिरं कालादो होंति ? ॥ २९ ॥
सुगमं ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणी आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ३१ ॥
मं
सव्वद्धा ।। ३२ ॥
उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ।। २८ ।।
यह सूत्र भी सुगम है ।
कषायमार्गणा के अनुसार क्रोधकपायी, मानकपायी, मायाकपायी, लोभकषायी और अकषायी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ।। २९ ।।
यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ।। ३० ।।
[ २, ८, २८.
यह सूत्र भी सुगम है ।
ज्ञानमार्गणा अनुसार मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, त्रिभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ।। ३१ ।।
यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ॥ ३२ ॥
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२, ८, ३६.] णाणाजीवेण कालाणुगमे संजममागणा
[४७३ णस्थि एत्थ बत्तव्यं, सुगमत्तादो ।
संजमाणुवादेण संजदा सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासजदा असंजदा केवचिरं कालादो हॉति ? ॥ ३३ ॥
मुगभं । सबद्धा ॥३४॥ एवं पि सुगमं । मुहमसांपराइयसुद्धिसंजदा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ३५॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमयं ॥ ३६॥
कुदो ? उवसंतकसायस्स अणियट्टिवादरसांपराइयपविट्ठस्स वा सुहुमसांपराइयगुणहाणं पडिवण्णबिदियसमए कालं करिय देवेसुबवण्णस एगसमयस्सुवलंभादो ।
यहां कुछ व्याख्यानके योग्य नहीं है, क्योंकि, यह सूत्र सुगम है ।
संयममार्गणाके अनुसार संयत, सामायिकछेदोपस्थापनशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, संयतासंयत और असंयत जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ३३ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ॥ ३४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीव कितते काल तक रहते हैं ? ॥३५॥ यह सूत्र सुगम है। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीव जघन्यसे एक समय रहते हैं ॥३६॥
क्योंकि, उपशान्तकषाय वा अनिवृत्तिवादरसाम्परायप्रविष्ट जीवोंके सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें मरण कर देवों में उत्पन्न होनेपर एक समय जघन्य काल पाया जाता है।
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१४४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ८, ३७. उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ३७॥ एत्थ संखेज्जतोमुहुत्तसमाससमुन्भूदो अंतोमुहुत्तकालो परूवेदव्यो ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदंसणी केवलदंसणी केवचिरं कालादो होति ? ॥ ३८ ॥
सुगमं । सव्वद्धा ॥ ३९॥ एदं पि सुगमं ।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिय-तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिय-सुक्कलेस्सिया केवचिरं कालादो होति ? ॥४०॥
सुगमं । सव्वद्धा ॥४१॥ एदं पि सुगमं ।
सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीव उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं ॥ ३७॥
यहां संख्यात अन्तर्मुहूर्तोंके संकलनसे उत्पन्न हुए अन्तर्मुहूर्त कालकी प्ररूपणा करना चाहिये।
दर्शनमार्गणाके अनुसार चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥३८॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ।। ३९ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
लेश्यामार्गणाके अनुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥४०॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ॥४१॥ यह सूत्र भी सुगम है।
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२, ८, ४६.] णाणाजीवेण कालाणुगमे सम्मत्तमग्गणा
[ १७५ भवियाणुवादेण भवसिद्धिया अभवसिद्धिया केवचिरं कालादो होंति ? ॥४२॥
सुगमं । सव्वद्धा ॥४३॥ एवं पि सुगमं ।
सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठी खइयसम्माइट्टी वेदगसम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी केवचिरं कालादो होति ? ॥ ४४ ॥
सुगमं । सव्वद्धा ॥४५॥ एदं पि सुगमं ।
उवसमसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी केवचिरं कालादो होति ? ॥४६॥
सुगमं ।
भव्यमार्गणाके अनुसार भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥४२॥
यह सूत्र सुगम है। भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीव सर्व काल रहते हैं ॥ ४३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥४४॥
यह सूत्र सगम है। उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ? ॥ ४५ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥४६॥ पह सूत्र सुगम है।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधी
[२, ८, ४७. जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥४७॥
कुदो ? दिट्ठमग्गाणं सम्मामिच्छन्नुवसमसम्मत्ताणि पडिवज्जिय सबजहण्णकालं तेसु अच्छिय गुणंतरगदाणं सुदु जहणतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो ।
उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ४८ ॥
एत्थ एदम्हि काले आणिज्जमाणे अप्पिदगुणढाणकालमत्तम्हि एगपवेसणकालसलागं करिय एरिसासु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसलागासुप्पण्णासु तदो णियमा अंतरं होदि । एत्थ सव्धकालसलागाहि गुणकाले गुणिदे उक्कस्सकालो होदि।
सासणसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ४९॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमयं ॥ ५० ॥ कुदो ? उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसाए सासणं गंतूण एगसमयमच्छिय
उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं ॥४७॥
क्योंकि, दृष्टमार्गी जीवोंके सम्यग्मिथ्यात्व और उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर तथा सर्व जघन्य काल तक इन गुणस्थानोंमें रहकर अन्य गुणस्थानको प्राप्त होनेपर अतिशय जघन्य अन्तर्मुहूर्तमात्र काल पाया जाता है।
उपर्युक्त जीव उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र काल तक रहते हैं ॥४८॥
यहां इस काल के निकालते समय विवक्षित गुणस्थानके कालप्रमाण एक प्रवेशनकालको शलाका करके पुनः ऐसी पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र शलाकाओंके उत्पन्न होनेपर तत्पश्चात् नियमसे अन्तर होता है। यहां सब कालशलाकाओंसे गुणस्थानकालको गुणित करनेपर उत्कृष्ट काल होता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥४९॥ यह सूत्र सुगम है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीव जघन्यसे एक समय रहते हैं ॥ ५० ॥ क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वकालमें एक समय शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको
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२, ८, ५५.] जाणाजीवेग कालाणुगमै आहारमग्गणा
[४७७ बिदियसमए मिच्छत्तं गदस्स एगसमयदसणादो ।
उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥५१॥ सुगममेदं, सम्मामिच्छत्तकालसमासविहाणेण एदस्स कालस्स समुप्पत्तीदो ।
सणियाणुवादेण सण्णी असण्णी केवचिरं कालादो होति ? ॥५२॥
सुगमं । सव्वद्धा ॥ ५३॥ सुगम । आहारा अणाहारा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ५४ ॥ सुगमं । सव्वद्धा ॥ ५५॥ सुगमं ।
एवं णाणाजीवेण कालाणुगमो त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
प्राप्त होकर और एक समय रहकर द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर एक समय जघन्य काल देखा जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि जीव उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यात. भागमात्र काल तक रहते हैं ॥५१॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, सम्यग्मिध्यात्वकालके संकलनका जो विधान कहा जा चुका है उसीसे इस कालकी भी उत्पत्ति होती है।
संज्ञिमार्गणाके अनुसार संज्ञी और असंज्ञी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ५२॥
यह सूत्र सुगम है। संज्ञी और असंज्ञी जीव सर्व काल रहते हैं ।। ५३ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारक व अनाहारक जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥५४ ।। यह सूत्र सुगम है। आहारक व अनाहारक जीव सर्व काल रहते हैं ॥ ५५ ॥ यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार नाना जीधोंकी अपेक्षा कालानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुभा
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णाणाजीवेण अंतराणुगमो णाणाजीवेहि अंतराणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १ ॥
णाणाजीवणिदेसो एगजीवपडिसेहफलो । अंतरणिदेसो सेसाणिोगद्दारपडिसेहफलो । णेरइयणिदेसो तत्थट्टियपुढविकाइयादिपडिसेहफलो । केवचिरं-णिहेसो समयावलिय-खण-लव-मुहुत्तादिफलो । अबसेस सुगमं ।
णस्थि अंतरं ॥२॥
कुदो ? सव्यद्धासु अवट्ठाणादो । णाणाजीवेहि कालणिरूवणाए चेव एदेसिमंतरमत्थि एदेसिं च णत्थि त्ति णयदे । तदो अंतरपरूवणा ण कादव्वे ति । एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहा- कालाणिओगद्दारे जेमिमंतरमस्थि त्ति अवगदं तेमिमंतराणं पमाणपरूषणहमिदमणिओगद्दारमागदं । जदि एवं तो सांतररासीणमेव परूवणा कीरउ वंतर
नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरानुगमसे गतिमार्गणाके अनुसार नरकगतिमें नारकी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥१॥
__नाना जीवों की अपेक्षा ' यह निर्देश एक जीव की अपेक्षाके प्रतिषेधके लिये है। 'अन्तर' निर्देशका फल शेष अनुयोगद्वारोंका प्रतिषेध है। 'नारकी जीवों' का निर्देश वहांपर स्थित पृथिवीकायिकादि जीवोंका प्रतिषेधक है। 'कितने काल' यह निर्देश समय, आवली, क्षण, लव व मुहूर्तादि रूप 'कालविशेषोंका सूचक है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
नारकी जीवोंका अन्तर नहीं होता ।। २ ॥ क्योंकि, उनका सर्व कालोंमें अवस्थान है।
शंका-नाना जीवोंकी अपेक्षा की गई कालप्ररूपणासे ही ' इनका अन्तर है और इनका नहीं है' यह बात जानी जाती है। अत एव फिर अन्तरप्ररूपणा नहीं करना चाहिये?
समाधान-यहां परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है- कालानुयोगद्वारमें जिन जीवोंका ‘अन्तर है ' ऐसा ज्ञात हुआ है, उनके अन्तरोंके प्रमाणप्ररूपणार्थ यह अनुयोगद्वार आता है।
शंका-यदि ऐसा है तो अन्तरविशिष्ट सान्तरराशियोंकी ही प्ररूपणा करना
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२, ९, ४.] गाणाजीवेण अंतराणुगमे गदिमागणा
[ ४७९ विसिट्ठाणं, ण सव्वद्धरासीणमिदि ? तो क्खहि एवं घेत्तव्वं दवट्ठियणयसिस्साणुग्गहढे कालाणिओगद्दारं भणिय ( संपहि पज्जवट्ठियसिस्साणुग्गहट्ठमतरंणिओगद्दारपरूवणा
आगदा ति
णिरंतरं ॥३॥
निर्गतमंतरमस्माद्राशरिति णिरंतरं । तं जेण सिद्धं तेण एसो पज्जुवासपडिसेहो, एसो रासी अंतरादो पुधभूदो वदिरित्तो त्ति वुत्तं होदि । जदि एवं तो पुणरुत्तदोसो पावदे, पुनसुत्त पसिद्धत्थारूषणादो । ण एस दोसो, पुघिल्लसुत्तं जेण अभावपहाणं तेण पसज्जपडिसेहपडिबद्धं । तदा तेण अभावं पत्त विहीए परूवणहमेदस्स अवयारादो ।
एवं सत्तसु पढवीसु णेरइया ॥ ४ ॥
चाहिये, सब काल रहनेवाली राशियों की नहीं ?
समाधान-तो फिर इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये कि द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ कालानुयोगद्वारको कहकर इस समय पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ अन्तरानुयोगद्वारमरूपणा प्राप्त होती है।
नारकी जीव निरन्तर हैं ॥३॥
इस राशिका अन्तर नहीं है, इसलिये यह निरन्तर है । (यह 'निरन्तर' शब्दका निरुक्त्यर्थ है)। चूंकि वह राशि सिद्ध है, इसीलिये यह पर्युदासप्रतिषेध है। यह नारकराशि अन्तरसे पृथग्भूत वा व्यतिरिक्त है, यह उपर्युक्त कथनका अभिप्राय है ।
शंका-यदि ऐसा है तो पुनरुक्तदोष प्राप्त होता है, क्योंकि, इस सूत्र द्वारा पूर्व सूबसे प्रसिद्ध अर्थका प्रतिपादन किया गया है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि पूर्व सूत्र अभावप्रधान है, इसलिये वह प्रसज्यप्रतिषेधसे सम्बद्ध है । इस कारण उससे अभावको प्राप्त राशिकी विधिके निरूपणार्थ इस सूत्रका अवतार हुआ है।
विशेषार्थ-अभाव दो प्रकारका होता है, पर्युदास और प्रसज्य । पर्युदासके द्वारा एक वस्तुके अभावमें दूसरी वस्तुका सद्भाव ग्रहण किया जाता है । और प्रसज्यके द्वारा केवल अभावमात्र समझा जाता है। चूंकि प्रस्तुत प्रसंगमें अन्तरके अभावमें नारक राशिका अस्तित्व विवक्षित है इसलिये यहां पर्युदास पक्ष ग्रहण करना चाहिये।
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव अन्तरसे रहित या निरन्तर
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४८० ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ९, ५. कुदो ? अंतराभावं पडि विसेसाभावादो' ।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता, मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणीणमंतरं केवचिरं कालादो होति ? ॥ ५॥
___ दोणं गईणमेगवारेण णिदेसो किमढ़ का ? देव-गरइयाणं व एदेसि पुधखेत्तावासो पत्थि त्ति जाणायणटुं । सेसं सुगमं ।
णत्थि अंतरं ॥ ६ ॥ एसो पसज्जपडिसेहो, विहीए पहाणत्ताभावादो । णिरंतरं ॥७॥ एसो पज्जुवासपडि सेहो, पडिनेहस्स पहाणत्ताभावादो ।
क्योंकि, अन्तराभावके प्रति सातों पृथिवियोंके नारकियों में कोई विशेषता नहीं है।
तिर्यंचगतिमें तिथंच, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचन्द्रिय तिर्यच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त तथा मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यनियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। ५॥
शंका-दोनों गतियोंका निर्देश एक वार किसलिये किया ?
समाधान–देव और नारकियों के समान इनका पृथक् क्षेत्रमें निवास नहीं है, इस बातके ज्ञापनार्थ दोनों गतियों का एक वार निर्देश किया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता ॥ ६ ॥ यह प्रसज्यप्रतिषेध है, क्योंकि, यहां विधिकी प्रधानताका अभाव है। वे जीव निरन्तर हैं ॥ ७॥ यह पर्युदास प्रतिषेध है, क्योंकि, यहां प्रतिषेधकी प्रधानता नहीं है।
१ प्रतिषु 'पडि सेसाभावादो' इति पाठः ।
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२, ९, ११. णाणा जीवेण अंतराणुगमे गदिमागणा
[१८१ मणुसअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ८॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमओं ॥ ९॥
सेडीए असंखेञ्जदिमागमतेसु मणुसअपजत्तएमु कालं काऊण अण्णगई गएसु एगसमयमंतरं होऊण बिदियसमए अण्णेसु तत्थुप्पण्णेसु लद्धमेगसमयमंतरं ।
उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १० ॥
कुदो १ मणुसअपजत्तएसु कालं काऊण अण्णगई गएसु पलिदोवमस्स असं. खेआदिभागमेत्तकाले अइक्कते पुणो णियमेण मणुसअपज्जत्तएसु उप्पज्जमाणजीवाणमुवलंभादो।
देवगदीए देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ११ ॥ सुगमं ।
....................
मनुष्य अपर्याप्तोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥८॥ यह सूत्र सुगम है। मनुष्य अपर्याप्तोंका अन्तर जघन्य से एक समय है ।। ९ ॥
जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र मनुष्य अपर्याप्तोंके मरकर अभ्य गतिको प्राप्त होनेपर एक समय अन्तर होकर द्वितीय समयमें अन्य जीवोंके मनुष्य अपर्याप्तोंमें उत्पन्न होनेपर एक समय अन्तर प्राप्त होता है।
___ मनुष्य अपर्याप्तोंका अन्तर उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र काल होता है ॥ १०॥
__ क्योंकि, मनुष्य अपर्याप्तोंके मरकर अन्य गतिको प्राप्त होनेके पश्चात् पल्यो.
असख्यात भागमात्र कालके बीत जानेपर पुनः नियमसे मनुष्य अपर्याप्तीमें उत्पन्न होनेवाले जीव पाये जाते हैं।
देवगतिमें देवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ११ ॥ यह सूत्र सुगम है।
पमके असंख्यातवें भाग
१ उवसम-महुमाहारे वेगुम्वियमिस्स-णरअपज्जते । सासणसम्मे मिस्से सांतरगा मग्गणा अg ॥ सत्त दिणा मुम्भासा वासपुधत्तं च बारसमुहुता। पल्लासंखं तिण्हं वरमवरं एगसमयो दु॥ गो. जी. १४२-१४३.
२ प्रतिनु 'सेडीपुष्वसंखेजदिमागमेतेसु ' इति पाठः ।
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१८२] . छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ९, १२. णस्थि अंतरं ॥ १२ ॥ एवं पि सुगमं । णिरंतरं ॥ १३ ॥ सुगम ।
भवणवासियप्पहुडि जाव सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा देवगदिभंगो ॥ १४ ॥
सुगम ।
इंदियाणुवादेण एइंदिय बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-बीइंदियतीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदिय-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १५॥
सुगमं ।
देवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ १२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। देव निरन्तर हैं ॥ १३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों तक अन्तरका निरूपण देवगतिके समान है ॥ १४ ॥
यह सूत्र सुगम है।
इन्द्रियमार्गणाके अनुसार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्तः बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त; द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त; त्रीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त; चतुरिन्द्रय, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका अन्तर किनने काल तक होता है ? ॥ १५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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२, ९, १९. ]
णत्थि अंतरं ॥ १६ ॥
एदं पज्जवट्ठियसिस्साणुग्गह परुविदं ।
निरंतरं ॥ १७ ॥
एदं सुतं दव्वट्टियसिस्साणुग्गहङ्कं परूविदं ।
गया है
गया
कायाणुवादेण पुढविकाइय- आउकाइय ते उकाइय-वाउकाइय-वणफदिकाइय- णिगोदजीव- बादर-सुहुम-पज्जत्ता अपज्जता बादरवण'फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता अपज्जत्ता तसकाइय- पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १८ ॥
नाणाजीवेण अंतराणुगमे कायमग्गणा
सुगमं ।
णत्थि अंतरं ॥ १९॥
उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ।। १६ ।।
यह सूत्र पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ कहा
।
है
उक्त जीव निरन्तर हैं ॥ १७ ॥
यह सूत्र द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ कहा
/
[ ४८३
काय मार्गणा के अनुसार पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिक पर्याप्त, पृथिवीकायिक अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तः सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, ये नौ पृथिवीकायिक जीव, इसी प्रकार नौ अष्कायिक, नौ तेजस्कायिक, नौ वायुकायिक, नौ वनस्पतिकायिक व नौ निगोद जीव, तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त व अपर्याप्त और त्रसकायिक पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है १ ।। १८ ।।
यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ १९ ॥
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५८४]
खंडागमे खुद्दाबधो
[२, ९, २०. सुगम । णिरंतरं ॥२०॥
सुगमं । दुणयाणुग्गहलु परूविद-दोसुत्ताणि जाणाति सुत्तकत्तारस्स बीयरायत्तं जीवदयावरत्तं च ।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगि-ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-वेउब्बियकायजोगि-कम्मइयकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ २१ ॥
सुगमं । णत्थि अंतरं ॥ २२॥ सुगमं । णिरंतरं ॥ २३ ॥ सुगम।
यह सूत्र सुगम है।
ये सब जीवराशियां निरन्तर हैं ॥२०॥ ___ यह सूत्र सुगम है। दोनों नयोंका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ कहे गये उपर्युक्त दो सूत्रसूत्रकर्ताकी वीतरागता और जीवदयापरताको सूचित करते हैं।
योगमार्गणाके अनुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और कार्मणकाययोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ २१ ॥
यह सूत्र सुगम है। . उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ २२ ॥ यह सूत्र सुगम है। वे जीवराशियां निरन्तर हैं ॥ २३ ॥ . यह सूत्र सुगम है।
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गाणाजीवेण अंतरानुगमे जोगमग्गणा
[ ४८५
वे उव्वियमिस्स काय जोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
२, ९, २७. ]
॥ २४ ॥
सुगमं ।
जहणेण एगसमयं ॥ २५ ॥
कुदो ? व्यिमस्तकायजोगी सत्रेसु पज्जत्तीओ समाणिदेसु एगसमयमंतरण बिदियसमए देवेंसु णेरइएस उप्पण्णेसु वेउच्चियमिस्सकायजोगीणमंतरं एगसमयं होदि ।
उक्कस्सेण वारसमुहुत्तं ॥ २६ ॥
देवेसु णेरइएसु वा अणुप्पज्जमाणा, जीवा जदि सुहु बहुअं कालमच्छंति तो बारस मुहुत्ताणि चैव । कधमेदं णव्वदे १ जिणत्रयणविणिग्गयवयणादो ।
आहारकाय जोगि आहारमिस्सकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ २७ ॥
वैक्रियिकमिश्र काययोगियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ २४ ॥ ग्रह सूत्र सुगम हैं ।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अन्तर जघन्यसे एक समय होता है ।। २५ ॥
क्योंकि, सब वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके पर्याप्तियोंको पूर्ण करलेनेपर एक समयका अन्तर होकर द्वितीय समय में देवों व नारकियोंके उत्पन्न होनेपर वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अन्तर एक समय होता है ।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अन्तर उत्कर्षसे बारह मुहूर्त होता है || २६ ||
देव अथवा नारकियों में न उत्पन्न होनेवाले जीव यदि बहुत अधिक काल तक रहते हैं तो बारह मुहूर्त तक ही रहते हैं ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - यह जिनभगवान् के मुखसे निकले हुए वचनोंसे जाना जाता है । आहारकका योगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? || २७ ॥
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१८६)
.. छक्खंडागमै खुदाबंधी
[२, ९, २८.
सुगमं ।
जहण्णेण एगसमयं ॥ २८ ॥ कुदो ? आहार-आहारमिस्सजोगेहि विणा तिहुवणजीवाणमेगसमयमुवलंभादो । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २९ ॥ कुदो ? दोहि वि जोगेहि विणा सधपमत्तसंजदाणं वासपुधत्तावट्ठाणदसणादो ।
वेदाणुवादेण इत्थिवेदा पुरिसवेदा गqसयवेदा अवगदवेदाणमंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? ॥ ३०॥
सुगम । पत्थि अंतरं ॥ ३१ ॥ सुगम । णिरंतरं ॥ ३२॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवोंका अन्तर जघन्यसे एक समय होता है ॥ २८ ॥
क्योंकि, आहारक और आहारकमिश्र काययोगियों के विना तीनों लोकोंके जीव एक समय पाये जाते हैं।
उपर्युक्त जीवोंका अन्तर उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्वप्रमाण होता है ॥ २९ ॥
क्योंकि, उक्त दोनों ही योगोंके बिना समस्त प्रमत्तसंयतोंका वर्षपृथक्त्व काल तक अवस्थान देखा जाता है।
वेदमार्गणाके अनुसार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अपगतवेदी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ३० ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ ३१ ॥ यह सूत्र सुगम है। वे जीवराशियां निरन्तर हैं ॥ ३२ ॥
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[१८७
२, ९, २६.
गाणाजीवेण अंतराणुगमे णाणमग्गणा सुगमं ।
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई (अकसाई-) णमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ३३ ॥
सुगमं । णथि अंतरं ॥ ३४॥ सुगमं । णिरंतरं ॥ ३५॥ सुगमं ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि विभंगणाणि-आभिणि बोहिय-सुद-ओहिणाणि-मणपज्जवणाणि-केवलणाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ३६॥
सुगमं ।
यह सूत्र सुगम है।
कषायमार्गणाके अनुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोमकषायी और (अकषायी) जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ३३ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपयुक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता ॥ ३४ ॥ यह सूत्र सुगम है। वे जीवराशियां निरन्तर हैं ।। ३५ ॥ यह सूत्र सुगम है।
ज्ञानमार्गणाके अनुसार मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ३६ ।।
यह सूत्र सुगम है।
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४८८ छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ९, ३७. णत्थि अंतरं ॥ ३७ ॥ सुगमं.। णिरंतरं ॥ ३८ ॥ सुगमं ।
संजमाणुवादेण संजदा सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा असंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ३९ ॥
सुगमं । णत्थि अंतरं ॥ ४०॥ सुगमं । णिरंतरं ॥ ४१॥ सुगमं ।
सुहुमसांपराइयसुद्धिसजदाणं अंतर केवचिरं कालादो होदि ? ॥४२॥
उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ।। ३७ ।। यह सूत्र सुगम है। ये जीवराशियां निरन्तर हैं ॥ ३८ ॥ यह सूत्र सुगम है।
संयममार्गणाके अनुमार संयत, सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिमयत, परिहारशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, संयतासंयत और असंयत जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ३९ ॥ ।
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ।। ४० ।। यह सूत्र सुगम है। वे जीवराशियां निरन्तर हैं ॥ ४१ ।। यह सूत्र सुगम है ! सूक्ष्मसांपरायिक जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ४२ ॥
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[४८९
२, ९, ४७.] णाणाजीवेण अंतराणुगमे दंसणमग्गणा
सुगमं । जहण्णेण एगसमयं ॥४३॥ कुदो ? सुहुमसांपराइयसंजदेहि विणा एगसमयदंसणादो । उक्कस्सेण छम्मासाणि ॥४४॥ कुदो ? खवगसेडीसमारोहणस्स छम्मासाणमुवरिमुक्कस्संतरस्स अणुवलंभादो ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणि-ओहिदंसणि-केवलदंसणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥४५॥
सुगमं । णत्थि अंतरं ॥ ४६॥ सुगमं । णिरंतरं ॥४७॥ सुगर्म ।
यह सूत्र सुगम है। सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंका अन्तर जघन्यसे एक समय होता है ॥ ४३ ॥ क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंके विना एक समय देखा जाता है। उक्त जीवोंका अन्तर उत्कर्षसे छह मास होता है ।। ४४॥
क्योंकि, क्षपकश्रेणी आरोहणका छह मासोंके ऊपर उत्कृष्ट अन्तर नहीं पाया जाता।
दर्शनमार्गणानुसार चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ४५ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ।। ४६ ॥ यह सूत्र सुगम है। ये जीवराशियां निरन्तर हैं ॥ ४७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
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४९०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ९, ४८. ___ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सियन्तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिय-सुक्कलेस्सियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥४८॥
सुगमं । णत्थि अंतरं ॥४९॥ सुगमं । णिरंतरं ॥५०॥ - सुगमं ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिय-अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ।।५१ ॥
सुगमं । णत्थि अंतरं ॥ ५२॥
लेश्यामार्गणाके अनुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। ४८॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है । ४९ ॥ यह सूत्र सुगम है। वे जीवराशियां निरन्तर हैं ।। ५० ॥ यह सूत्र सुगम है।
भव्यमार्गणाके अनुसार भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥५१॥
यह सूत्र सुगम है। भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ ५२ ।।
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२, ९, ५७.] गाणाजीवेण अंतराणुगमे सम्मत्तमरगणा
सुगम। णिरंतरं ॥ ५३॥ सुगमं ।
सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्टि-खइयसम्माइटि-वेदगसम्माइट्टि-मिच्छाइट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ५४ ॥
सुगमं । णत्थि अंतरं ॥ ५५॥ सुगमं । णिरंतरं ॥ ५६ ॥ सुगमं । उवसमसम्माइट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ५७ ॥ सुगमं ।
यह सूत्र सुगम है। भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीव निरन्तर हैं ॥ ५३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। ५४ ।।
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ ५५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वे जीवराशियां निरन्तर हैं ॥ ५६ ॥ यह सूत्र सुगम है। उपशमसभ्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५७ ।। यह सूत्र सुगम है।
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४९२ ]
जहणेण एगसमयं ॥ ५८ ॥
कुदो ? तिसु वि लोएसु उवसमसम्मा दिट्ठीणमेक्कम्हि समय अभावदंसणादो | उक्कस्सेण सत्तरादिंदियाणि ॥ ५९ ॥
रार्दिदियमिदि दिवसस्स सण्णा, अहोरतेहि मिलिएहि दिवसववहारदंसणादो । उवसमसम्मत्तस्स सत्तदिवसमेतमंतरं होदि त्ति वृत्तं होदि । एत्थ उपसंहारगाहा— सम्म सत्त दिणा विरदाविरदीए चोदस हवंति । विरदीसु अ पण्णरसा विरहिदकालो मुणेयत्रो ॥ १ ॥
छक्खंडागमे खुदाबंधो
सासणसम्माइट्टि सम्मामिच्छाहट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ६० ॥
जाता हैं ।
[ २, ९, ५८.
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर जघन्यसे एक समय है ।। ५८ ।।
क्योंकि, तीनों ही लोकों में उपशमसम्यग्दृष्टियों का एक समय में अभाव देखा
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर उत्कर्ष से सात रात-दिन है ॥ ५९ ॥
रात्रिदिव' यह दिवसका नाम है, क्योंकि सम्मिलित दिन व रात्रिसे 'दिवस' का व्यवहार देखा जाता है । उपशमसम्यक्त्वका अन्तर सात दिवसमात्र होता है, यह उक्त कथनका निष्कर्ष है । यहां उपसंहारगाथा
6
उपशमसम्यक्त्वमें सात दिन, ( उपशमसम्यक्त्व सहित ) विरताविरति अर्थात् देशव्रत में चौदह दिन, और विरति अर्थात् महाव्रत में पन्द्रह दिन प्रमाण विरहकाल जानना चाहिये ॥ १ ॥
सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ६० ॥
यह सूत्र सुगम है ।
गो. नी. १४४०
१ पढमुत्रसमस हिदाए विरदाविरदीए चोदसा दिवसा । विरदीए पण्णरसा विरहिदकालो दु बोडो ॥
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२, ९, ६५. ]
णाणाजीवेण अंतराणुगमे सण्णिमगणा
जहणेण एगसमयं ॥ ६१ ॥
कुदो ? सासणसम्मत सम्मामिच्छत्तगुणाणं जहणेण एगसमयं अंतरं पडि विरोहाभावादो ।
उक्करण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ६२ ॥
सुगमं ।
सणियाणुवादेण सण असण्णीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ।। ६३ ।।
सुगमं ।
णत्थि अंतरं ॥ ६४ ॥
सुगमं । निरंतरं ॥ ६५ ॥
सुमं ।
सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर जघन्यसे एक समय है ॥ ६१ ॥
( ४९३
क्योंकि, सासादनसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानोंके जघन्यसे एक समय अन्तर के प्रति कोई विरोध नहीं है ।
उक्त जीवोंका अन्तर उत्कर्ष से पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ ६२ ॥ है ।
यह सूत्र सुगम
संज्ञिमार्गणा के अनुसार संज्ञी व असंज्ञी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ६३ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
संज्ञी व असंज्ञी जीवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ ६४ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
संज्ञी व असंज्ञी जीव निरन्तर हैं ।। ६५ ।।
मह सूत्र सुगम है ।
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१९४) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ९, ६६. आहाराणुवादेण आहार-अणाहाराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥६६॥
सुगमं । णत्थि अंतरं ॥ ६७॥ सुगमं । णिरंतरं ॥ ६८॥ सुगमं ।
एवं णाणाजीवेण अंतराणुगमो त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
आहारमार्गणाके अनुसार आहारक व अनाहारक जीवोंका अन्तर कितने कालतक होता है ? ॥ ६६ ।।
यह सूत्र सुगम है। आहारक और अनाहारक जीवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ ६७ ॥ यह सूत्र सुगम है। वे निरन्तर हैं ॥ ६८॥ यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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भागाभागाणुगमो भागाभागाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइया सब्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥१॥
एदस्स अथो वुच्चदे-- अणंतभाग-असंखज्जदिभाग-संखेज्जदिभागाणं' भागसण्णा, अणंताभागा असंखेजाभागा संखेजाभागा एदेसिमभागसण्णा । भागो च अभागो च भागाभागा, तेसिमणुगमो भागाभागाणुगमो, तेण भागाभागाणुगमेण एत्थ अहियारो त्ति भणिदं होदि। भागाभागणिदेसो सेसाणियोगद्दारपडिसेहफलो। णेरइयणिद्देसो तत्थतणपुढविकाइयादिपडिसेहफलो। सव्यजीवाणं कइत्थओ णिरयगईए णिरतरं वसदि त्ति पुच्छा कदा होदि । किमणंतिमभागो किमणता भागा किमसंखेजा भागा किमसंखेजदिभागो किं संखेजा भागा होति ति भणिदे तण्णिण्णयट्ठमुत्तरमुत्तं भणदि
अणंतभागो ॥२॥
यह
भागाभागानुगमसे गतिमार्गणाके अनुसार नरकगतिमें नारकी जीव सर्व जीवोंकी अपेक्षा कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ १॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- अनन्तवां भाग, असंख्यातवां भाग और संख्यातवां भाग, इनकी 'भाग' संज्ञा है; तथा अनन्त बहुभाग, असंख्यात बहुभाग और संख्यात बहुभाग, इनकी 'अभाग' संज्ञा है । 'भाग और अभाग' इस प्रकार द्वन्द समास होकर 'भागाभाग' पद निष्पन्न हुआ है। उन भागाभागोंका जो अनुगम अर्थात् शान है इसी का नाम भागाभागानगम है। इस भागाभागानुगमका यहां अधिकार उपर्युक्त कथनका अभिप्राय है । 'भागाभाग' निर्देशका फल शेष अनुयोगद्वारोंका प्रतिषेध है। 'नारकी जीवों' का निर्देश वहांके पृथिवीकायकादि जीवोंके प्रतिषेधके लिये है । सूत्रमें 'सर्व जीवोंका कितनेवां भाग नरकगतिमें निरन्तर रहता है ' यह प्रश्न किया गया है । क्या अनन्तवें भाग, क्या अनन्त बहुभाग, क्या असंख्यात बहुभाग, क्या असंख्यातवें भाग और क्या संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं, पेसा पूछनेपर उसके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
नरकगतिमें नारकी जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ २ ॥
१ अप्रतौ संखेज्जमागहाराणं' इति पाठः।
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१९६] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १०, ३. तं कधं ? णेरइएहि घणंगुलबिदियवग्गमूलमेत्तसेडिपमाणेहि सव्यजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलणि आगच्छंति । लद्धं विरलिय सव्यजीवरासिं समखंडं काऊण रूवं पडि दिण्णे तत्थ एगरूवधरिदं णेरइयपमाणं होदि । तेण णेरइया सव्वजीवाणमणतभागो त्ति वुत्तं होदि ।
एवं सत्तसु पुढवीसु रइया ॥३॥
सत्तण्हं पुढवीणं णेरइएहि पुध पुध सयजीवरासिम्हि भागं घेत्तूण लद्धं विरलिय पुणो सधजीवरासिं सत्तण्णं विरलणाणं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगरूवधरिदं जहाकगेण पढमादीणं सत्तण्णं पुढवीण दव्वं जेण होदि तेण णेरइयभंगो सत्तण्णं पुढवीण जुञ्जदे।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥४॥
एदस्स अत्थो-- तिरिक्खा सव्वजीवाणं किमणंतिमभागो किमणता भागा किमसंखज्जदिभागो किमसंखेज्जा भागा किं संखेज्जा भागा होति त्ति पुच्छा कदा । तत्थ छसु वियप्पेसु एक्कस्सेव गहणमुत्तरसुत्तं भणदि
वह कैसे ? घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित जगश्रेणीप्रमाण नारकियोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त सर्व-जीवराशि-प्रथमवर्गमूल आते हैं। लब्धराशिका विरलन करके सर्व जीवराशिको समखण्ड कर रूपके प्रति देनेपर उसमें एक रूप धरित राशिनारकियोंका प्रमाण होती है। इस कारण 'नारकी जीव सर्व जीवराशिके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ' ऐसा कहा है।
इसी प्रकार सात पृथिवियोंमें नारकियोंके भागाभागका क्रम है ।। ३ ।।
सात पृथिवियोंके नारकियोंका पृथक् पृथक् सर्व जीवराशिमें भाग देकर जो लब्ध हो उसका विरलन कर पुनः सर्व जीवराशिको सात विरलनराशियोंके समखण्ड करके देनेपर उसमें एक रूप धरित राशि चूंकि क्रमशः प्रथमादिक सात पृथिवियोंका द्रव्य होता है, इसलिये सात पृथिवियोंके भागाभागको नारकियोंके समान कहना युक्त है।
तियंचगतिमें तिर्यंच जीव सर्व जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ४ ।।
इसका अर्थ-तिर्यंच जीव सर्व जीवोंके क्या अनन्तवें भाग हैं, क्या अनन्त बहुभाग हैं, क्या असंख्यातवें भाग हैं, क्या असंख्यात बहुभाग हैं, और क्या संख्यात बहुभाग हैं, इस प्रकार यहां पृच्छा की गई है। उन छह विकल्पों से एक ही ग्रहणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
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२, १०, ७. ]
भागाभागाणुगमे गदिमागणा अणंता भागा ॥५॥
तं जहा-सिद्ध-तिगदिजीवेहि सव्यजीवरासिमोवट्टिय लद्धं विरलिय सव्वजीवरासि समखंडं करिय रूवं पडि दिण्णे एगरूवधरिदं सिद्ध-तिगदिजीवपमाणं होदि । तत्थ एगरूवधरिदं मोत्तण सेसबहुभागा जेण तिरिक्खाणं पमाणं होदि तेण तिरिक्खा सन्चजीवाणमणताभागो त्ति मुत्ते उत्तं । . . .
पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी पचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता, मणुसगदीएमणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी मणुसअपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥६॥
सुगममेदं, पुव्वं परूविदत्तादो। अणंतभागो ॥ ७॥
पुव्वुत्तछवियप्पेसु एदे जीवा अणंतभागवियप्पे चेव अस्थि, अण्णत्थ णस्थि त्ति एदेण मुत्तेण परूविदं । एत्थ पुव्वुत्तअट्ठवियप्पजीवपमाणेण दवाणिओगद्दारादो
तिर्यंच जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥५॥
वह इस प्रकार है- सिद्ध और तीन गतियोंके जीवोंसे सर्व जीवराशिको अपवर्तित कर जो लब्ध हो उसका विरलन कर सर्व जीवराशिको समखण्ड करके रूपके प्रति देनेपर एक रूप धरित सिद्ध और तीन गतियोंके जीवोंका प्रमाण होता है । उसमें एक रूप धरित राशिको छोड़कर शेष बहुभाग चूंकि तिर्यचोंका प्रमाण होता है, अतएव 'तिर्यच सर्व जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ' ऐसा सूत्र में कहा है।
पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तियंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव; तथा मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और मनुष्य अपर्याप्त जीव सर्व जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ६॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, पूर्व में प्ररूपण किया जा चुका है। उपर्युक्त जीव सर्व जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ७॥
पूर्वोक्त छह विकल्पों से ये 'अनन्तभाग' विकल्पमें ही हैं, अन्यत्र नहीं हैं, ऐसा इस सूत्र द्वारा प्ररूपित है। यहां द्रव्यानुयोगद्वारसे जाने गये पूर्वोक्त आठ प्रकार
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४९८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १०, ८. अवगएण पुध पुध सव्वजीवे अवहारिय लसलागमेत्तखंडाणि सव्यजीवरासिं करिय तत्थ एगभागपमाणमप्पप्पणो जीवपमाणं होदि त्ति अवहारिय एदे अट्ठ जीवभेदा सव्वा जीवाणमणंतिमभागो होदि त्ति णिच्छओ कायव्यो ।
देवगदीए देवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ८ ॥
देवगदीए पुढविकाइयादिया अण्णे वि जीवा अत्थि, देवा त्ति वयणेण तेसिं पडिसेहो कदो । सेसं सुगमं ।
अणंतभागो ॥९॥
सुगममेदं, अणप्पिदपंचभंगे ओसारिय अप्पिदेकभंगम्मि उप्पादिदणिच्छयादो गहिदगहिदगणिएण पुव्यमेव जणिदप्पसंसकारादो।।
एवं भवणवासियप्पहुडि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा ॥१०॥
" णवरि अप्पप्पणो जीवाणं पमाणमवहारिय तेण सव्वजीवरासिमोवट्टिय लद्धेण
जीवोंके प्रमाणसे पृथक् पृथक् सर्व जीवराशिको अपहृत करके लब्ध शलाकाप्रमाण खण्डरूप सर्व जीवराशिको करके उसमें एक भागप्रमाण अपना अपना जीवप्रमाण होता है, ऐसा निश्चय कर ये आठ जीवभेद सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं, इस प्रकार निश्चय करना चाहिये।
देवगतिमें देव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ८॥
देवगतिमें, अर्थात् देवलोकमें, पृथिवीकायिकादिक अन्य भी जीव हैं, उनका प्रतिषेध 'देव' इस वचनसे किया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।।
देव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ९ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वह अविवक्षित पांच भंगोंको हटा कर विवक्षित एक भंगमें निश्चयको उत्पन्न कराता है, तथा गृहीत-गृहीत गणितसे ( देखो पु. ३) पूर्वमें ही आत्मसंस्कार उत्पन्न हो जानेसे भी उक्त सूत्र सुगम है।
इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों तक मागाभागका क्रम है ॥ १०॥
विशेष इतना है कि अपने अपने जीवों के प्रमाणका निश्चय कर उससे सर्व
.
१ प्रतिषु अद्ध-' इति पाठः ।
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२, १०, ११.] भागाभागाणुगमे इंदियमगणा सव्वजीवरासिस्स अणंतभागत्तमेदेसि साहेयव्वं ।
इंदियाणुवादेण एइंदिया सब्वजीवाणं केवडिओ भागो?॥११॥ सुगमं । अणंता भागा ॥ १२ ॥
तं जहा- सिद्ध-तसजीवेहि सव्वजीवरासिमवहारिय लद्धसलागमेत्तखंडाणि सव्वजीवरासिं कादण तत्थ एगभागं मोत्तण सेसबहुभागेसु गहिदेसु जेण एइंदियपमाणं होदि तेण सव्वजीवाणमणंताभागा एइंदिया होति ति सुत्ते उत्तं ।
बादरेइंदिया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ १३॥
सुगमं ।
असंखेज्जदिभागो ॥ १४ ॥
जीवराशिको अपवर्तित कर लब्ध राशिसे सर्व जीवराशिका अनन्तवां भागत्व इनको सिद्ध करना चाहिये।
इन्द्रियमार्गणाके अनुसार एकेन्द्रिय जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥११॥
यह सूत्र सुगम है। एकेन्द्रिय जीव सर्व जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥ १२ ॥
वह इस प्रकार है-सिद्ध और सजीवोंसे सर्व जीवराशिको अपहृत कर लब्ध शलाकाप्रमाण सर्व जीवराशिको खण्डित कर उनमें एक भागको छोड़कर शेष बहुभागोंके ग्रहण करनेपर चूंकि एकेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण होता है, इसलिये 'सर्व जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण एकेन्द्रिय जीव होते हैं ' ऐसा सूत्र में कहा है।
चादर एकेन्द्रिय जीव और उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ १३ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ १४ ॥
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५.०] . . : छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, १०, १५. तं जहा- अप्पिदबादरएइंदिएहि सव्वजीवरासिमोवट्टिदे असंखेज्जा लोगा आगच्छति । ते विरलिय सव्वजीवरासिं रूवं पडि समखंडं करिय दिण्णे इच्छियबादरेइंदियपमाणं होदि । तम्हि तिण्णि वि बादरेइंदिया सबजीवाणमसंखेज्जदिभागमेचा त्ति परूविदा।
सुहुमेइंदिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ १५ ॥ सुगमं । असंखेज्जदिभागो ॥ १६ ॥
कुदो १ मुहमेइंदियवदिरित्तासेसजीवेहि सव्यजीवरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जा लोगा आगच्छति । ते विरलिय सयजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगरूवधरिदं मोत्तण बहुभागेसु सुहुमेइंदियप्पहुडिउत्तपमाणुवलंभादो।
सुहमेइंदियपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥१७॥ सुगमं ।
इसीको स्पष्ट करते हैं- विवक्षित बादर एकेद्रियोंसे सर्व जीवराशिको अपवर्तित करनेपर असंख्यात लोक आते है। उनका विरलन कर सर्व जीवराशिको रूपके समखण्ड करके देनेपर इच्छित बादर एकेन्द्रियोंका प्रमाण होता है। उसमें तीनों ही बादर एकेन्द्रिय जीव सर्व जीवोंके असंख्यातवें भागमात्र हैं, ऐसा कहा गया है।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥१५॥ यह सूत्र सुगम है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सर्व जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ? ॥ १६ ॥
क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंको छोड़कर समस्त जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर असंख्यात लोक आते हैं । उनका विरलन कर सर्व जीवराशिको समखण्ड करके देनेपर उसमें एक रूप धरित राशिको छोड़कर शेष बहुभागोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उक्त जीवोंका प्रमाण पाया जाता है।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ १७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
१ मप्रतौ ' जत्तपमाणुवलंभादो' इति पाठः।
२ प्रतिषु ' -अपज्जत्ता' इति पाठः ।
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२, १०, ११.] भागाभागाणुगमे इंदियमागणा
संखेज्जा भागा॥ १८ ॥
कुदो ? सुहुमेइंदियपज्जत्तवदिरित्तजीवेहि सबजीवरासिमोवडिय तत्वलद्धसंखेज्जरूवाणि विरलिय सव्वजीवरासिं रूवं पडि समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगरूनधरिदं मोत्तूण सेसबहुभागे सुहुमेइंदियपज्जत्तपमाणुवलंभादो।
सुहुमेइंदियअपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? ॥ १९॥ सुगमं । संखेज्जदिभागो ॥२०॥
कुदो ? सुहुमेइंदियअपज्जत्तएहि सव्वजीवरासिम्मि भागे हिदे लद्धसंखेज्जरूवाणि विरलिय सव्वजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगरूवस्सुवरि सुहुमेहंदियअपज्जत्तपमाणत्तदंसणादो।
बीइंदिय-तीइंदिय-चउरािंदिय-पंचिंदिया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ २१ ॥
सुगमं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सर्व जीवोंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं ॥१८॥
क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंको छोड़ अन्य जीवोंसे सर्व जीवराशिका अपवर्तन करके उसमें प्राप्त संख्यात रूपोंका विरलन कर व सर्व जीवराशिको समखण्ड करके रूपके प्रति देनेपर उसमें एक रूप धरित राशिको छोड़ शेष बहुभागमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण पाया जाता है।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥१९॥ यह सूत्र सुगम है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सर्व जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥२०॥
क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर प्राप्त हुए संख्यात रूपोंका विरलन कर सर्व जीवराशिको समखण्ड करके देनेपर उसमें एक रूपके ऊपर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका प्रमाण देखा जाता है।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त जीव सर्व जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं १ ॥२१॥
यह सूत्र सुगम है। १ मप्रतौ ' असंखेम्जा' इति पाठः ।
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५०२)
छक्खंडागमे खुद्दाबंधी [२, १०, २३. अणंता भागा ॥ २२॥
कुदो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवेहि सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे तत्थुवलद्धस्स अणंतियत्तादो।
कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया बादरा सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा पज्जत्ता अपज्जत्ता तसकाइया तसकाइयपज्जता अपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ २३ ॥
सुगमं । अणंतभागो ॥२४॥
कुदो ? एदेहि असंखेज्जालोगमेसपमाणेहि पदरस्स असंखेज्जदिभागेहि य सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूवाणमुवलंभादो ।
(वणष्फदिकाइया णिगोदजीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? ॥२५॥)
उपर्युक्त द्वीन्द्रियादि जीव सर्व जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥ २२ ॥
क्योंकि, जगप्रतरके असंख्यात भागमात्र जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर वहां उपलब्ध राशि अनन्त होती है।
___ कायमार्गणाके अनुसार पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिक पर्याप्त, पृथिवीकायिक अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त इसी प्रकार नौ अप्कायिक, नौ तेजस्कायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त व अपर्याप्त, तथा त्रसकायिक, त्रसकायिक पर्याप्त और त्रसकायिक अपर्याप्त जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ।। २३ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ २४ ॥
क्योंकि, जगप्रतरके असंख्यातवें भागरूप असंख्यात लोकप्रमाणवाले इन जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप लब्ध होते हैं।
बनस्पतिकायिक व निगोद जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं? ॥२५॥
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२, १०, २९.] भागाभागाणुगमे कायमग्गणा ( सुगमं ।
अणंता भागा ॥ २६ ॥
कुदो १ अप्पिददव्ववदिरित्तसव्वदव्वेहि सव्यजीवरासिमवहारिय लद्धसलागाओ अणंताओ विरलिय सव्वजीवरासिं समखंड करिय रूवं पडि दिण्णे तत्थ एगरूवधरिदं मोत्तूण बहुभागेसु समुदिदेसु अप्पिदजीवपमाणदंसणादो।
बादरवणप्फदिकाइया बादरणिगोदजीवा पज्जत्ता अपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ २७ ॥
सुगमं । असंखेजदिभागो ॥ २८॥ कुदो ? एदेहि सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जलोगपमाणुवलंभादो ।
सुहुमवणफदिकाइया सुहुमणिगोदजीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ २९॥
............................
यह सूत्र सुगम है। वनस्पतिकायिक व निगोद जीव सर्व जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥२६॥
क्योंकि, विवक्षित द्रव्यसे भिन्न सर्व द्रव्यों द्वारा सर्व जीवराशिको विरलित कर लब्ध हुई अनन्त शलाकाओंका विरलन कर सर्व जीवराशिको समखण्ड कर प्रत्येक रूपके प्रति देनेपर उसमें एक रूप धरित राशिको छोड़ समुदित बहुभागोंमें विवक्षित जीवोंका प्रमाण देखा जाता है।
__ बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगोद जीव, बादर निगोद जीव पर्याप्त व अपर्याप्त सर्व जीवाक कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ २७ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ २८ ॥
क्योंकि, इनका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर असंख्यात लोकप्रमाण लब्ध होता है।
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक व सूक्ष्म निगोद जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ २९ ॥
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५०.] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२,१०, ३०. सुगमं । असंखेज्जा भागा ॥ ३० ॥
कुदो ? अप्पिददव्यवदिरित्तदव्वेहि सव्वीवरासिम्हि भागे हिदे तत्थुवलद्धअसंखेज्जलोगमेत्तसलागाओ विरलिय सव्वजीवरासि समखंड करिय दिण्णे तत्थेगखंड मोत्तूण बहुखंडेसु समुदिदेसु अप्पिददव्वपमाणुवलंभादो ।
सुहुमवणफदिकाइय-सुहमणिगोदजीवपज्जत्ता सबजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ३१ ॥
सुगमं । संखेज्जा भागा ॥ ३२ ॥
कुदो ? अप्पिददव्ववदिरित्तदब्वेहि सबजीवरासिमवहारिय लद्धसंखेज्जरूवाणि विरलिय सबजीवरासिं समखंड करिय दिण्णे तत्थेगरूवधरिदं मोत्तूण सेसबहुभागेसु समुदिदेसु अप्पिददवपमाणुवलंमादो । सुहुमवणप्फदिकाइए भणिदूण पुणो सुहुमणिगोदजीवे वि पुध मणदि, एदेण णव्वदि जधा सव्वे सुहुमवणप्फदिकाइया चेव
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीव सर्व जीवोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं ॥ ३०॥
क्योंकि, विवक्षित द्रव्यसे भिन्न द्रव्योंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर वहां उपलब्ध हुई असंख्यात लोकमात्र शलाकाओका विरलन कर व सर्व जीवराशिको सम- . खण्ड करके देनेपर उसमें एक खण्डको छोड़कर समुदित बहुखण्डोंमें विवक्षित द्रव्योंका प्रमाण पाया जाता है।
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक व सूक्ष्म निगोदजीव पर्याप्त सर्व जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ३१ ॥
उपर्युक्त जीव सर्व जीवोंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं ॥ ३२ ॥
क्योंकि, विवाक्षित द्रव्यसे भिन्न द्रव्यों द्वारा सर्व जीवराशिको अपहृत कर लब्ध हुए संख्यात रूपोका विरलन कर व सर्व जीवराशिको समखण्ड करके देनेपर उनमें पक रूप धरित राशिको छोड़कर शेष समुदित बहुभागोंमें विवक्षित द्रव्योंका प्रमाण पाया जाता है । सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंको कहकर पुनः सूक्ष्म निगोद जीवोंको भी पृथक् कहते
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२, १०, ३२.1 भागाभागाणुगमे कायमग्गणा
[५०५ सुहुमणिगोदजीवा ण होति त्ति । जदि एवं तो सब्वे सुहुमवणप्फदिकाइया णिगोदा चेवेत्ति एदेण वयणेण विरुज्झदि त्ति भणिदे ण विरुज्झदे, सुहुमणिगोदा सुहुमवणप्फदिकाइया चेवेत्ति अवहारणाभावादो। के पुण ते अण्णे सुहुमणिगोदा सुहुमवणप्फदिकाइये मोतूण ? ण, सुहुमणिगोदेसु व तदाधारेसु वणप्फदिकाइएसु वि सुहुमणिगोदजीवत्तसंभवादो। तदो सुहुमवणप्फदिकाइया चेव सुहुमणिगोदजीवा ण होति त्ति सिद्धं । सुहुमकम्मोदएण जहा जीवाणं वणप्फदिकाइयादीणं सुहुमत्तं होदि तहा णिगोदणामकम्मोदएण ग्रिगोदत्तं होदि । ण च णिगोदणामकम्मोदओ बादरवणप्फदिपत्तेयसरीराणमत्थि जेण तेसिं णिगोदसण्णा होदि ति भणिदे- ण, तेसि पि आहारे आहेओवयारेण णिगोदत्ता
हैं, इससे जाना जाता है कि सब सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म निगोद जीव नहीं होते।
शंका-यदि ऐसा है तो सर्व सूक्ष्म वनस्पतिकायिक निगोद ही हैं। इस वचनके साथ विरोध होगा?
समाधान-उक्त वचनके साथ विरोध नहीं होगा, क्योंकि, सूक्ष्म निगोद जीप सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही हैं, ऐसा यहां अवधारण नहीं है ।
शंका-तो फिर सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंको छोड़कर अन्य सूक्ष्म निगोद जीव कौनसे हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सूक्ष्म निगोद जीवोंके समान उनके आधारभूत ( बादर) वनस्पतिकायिकोंमें भी सूक्ष्म निगोद जीवत्वकी सम्भावना है। इस कारण सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म निगोद जीव नहीं होते' यह बात सिद्ध होती है ।
शंका-सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे जिस प्रकार वनस्पतिकायिकादिक जीवोंके सूक्ष्मपना होता है, उसी प्रकार निगोद नामकर्मके उदयसे निगोदत्व होता है। किन्तु बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके निगोद नामकर्मका उदय नहीं है जिससे कि उनकी 'निगोद ' संशा हो सके ?
समाधान नहीं, क्योंकि बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके भी आधारमें आधेयका उपचार करनेसे निगोदपनेका कोई विरोध नहीं है।
१ प्रतिषु 'अहिओवयारेण ' इति पाठः ।
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५०६ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, १०, ३३. विरोहादो। कधमेदं णबदे ? णिगोदपदिविदाणं बादरणिगोदजीया त्ति णिदेसादो, बादरवण फदिकाइयाणमुवरि ‘णिगोदा विसेमाहिया' त्ति भणिदवयणादो च णव्वदे।)
(सुहुमवणप्फदिकाइय सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ३३ ॥
मुगमं । संखेज्जदिभागो ॥ ३४ ॥
क्रुदो ? एदेहि सबजीवरासिम्हि भागे हिंद संखेज्जरूवाण मुवलंभादो । एत्थ वि सुहुमवणप्फदिकाइयअपज्जत्तेहितो पुव्वं सुहमणिगोद अपज्जताणं भेदो वत्तव्यो । णिगोदेसु जीवंति णिगोद भावेण वा जीवंति ति णिगोदजीवा एवं तत्तो भेदो वत्तव्यो । णिगोदा सव्वे वणप्फदिकाइया चेव ण अण्णे, एदेण अहिप्पारण काणि वि भागाभागसुत्ताणि विदाणि । कुदो ? सुहुमत्रणप्फदिकाइयभागाभागस्म तिसु त्रि सुत्तेसु णिगोदजीव
शंका---यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-निगोदप्रतिष्ठित जीवोंके 'बादर निगोद जीव' इस प्रकारके निर्देशसे, तथा बादर बनस्पतिकायिकों के आगे 'निगोद जीव विशेष अधिक है ' इस प्रकार कहे गये सूत्रवचनसे भी वह जाना जाता है ।
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक व सूक्ष्म निगोद जीव अपर्याप्त सर्व जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥३३॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीव सर्व जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ ३४ ॥
क्योंकि, इनका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर संख्यात रूप प्राप्त होते हैं। यहां भी पहले सुक्ष्म बनस्पतिकायिक अपर्याप्तोस सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तीका भेद कहना चाहिये । 'निगोदोंमें जो जीते हैं अथवा निगोदभावसे जो जीते हैं वे निगोदजीव है ' इस प्रकार उनसे भेद कहना चाहिये।
शंका --- 'निगोद जीव सव वनस्पतिकायिक ही हैं, अन्य नहीं हैं। इस अभिप्रायसे कुछ भागाभागसूत्र स्थित हैं, क्योंकि, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक भागाभागके तीनों ही सूत्रोंमें निगोदजीवोंके निर्देशका अभाव है । इस लिये उन सूत्रोंसे इन सूत्रोंका
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२, १०, ३८.] भागाभागाणुगमे जोगमगणा
[५०७ णिदेसाभावादो। तदो तेहि सुत्तेहि एदेसिं सुत्ताणं विरोहो होदि ति मणिदे जदि एवं तो उवदेसं लक्षण इदं सुत्तं इदं चासुत्तमिदि आगमणिउणा भणंतु । ण च अम्हे एत्थ वोत्तुं समत्था, अलदोवदेसत्तादो।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-वेउव्वियकायजोगिवेउब्वियमिस्सकायजोगि-आहारकायजोगि----आहारमिस्सकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ३५॥
सुगमं । अणंतो भागो ॥ ३६॥ कुदो ? एदेहि मुनजीवरामिम्हि भागे हिदे अणंतरूवावलंभादो। कायजोगी सबजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ३७॥ सुगमं । अणंता भागा॥ ३८ ॥ .
विरोध होगा?
समाधान-यदि ऐसा है तो उपदेशको प्राप्त कर यह सूत्र है और यह मूत्र नहीं है ऐसा आगमनिपुण जन कह सकते हैं । किन्तु हम यहां कहने के लिये समर्थ नहीं हैं, क्योंकि, हमें वैसा उपदेश प्राप्त नहीं है।
योगमार्गणाके अनुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, क्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीव सय जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ।। ३५ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपयुक्त जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ३६ ॥ क्योंकि, इनका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप प्राप्त होते हैं। काययोगी जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ।। ३७ ॥ यह सूत्र सुगम है। काययोगी जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ।। ३८ ॥
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५०८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १०, ३९. __ कुदो ? अप्पिददव्ववदिरित्तसव्वदव्वेहि सव्वजीवरासिमवहिरिज्जमाणे लखेंअणंतसलागाओ विरलिय सव्वजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगरूवधरिदं मोत्तण सेसबहुभागेसु समुदिदेसु कायजोगिदवपमाणुवलंभादो ।
ओरालियकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥३९॥ सुगमं । संखेज्जा भागा॥४०॥
कुदो ? अणप्पिदसव्वदव्वेण मनजीवरासिम्हि भागे हिदे संखेज्जरूवाणमुवलंभादो।
ओरालियमिस्सकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥४१॥
सुगमं । संखेजदिभागो ॥ ४२ ॥
क्योंकि, विवक्षित द्रव्यसे भिन्न सब द्रव्यों द्वारा सर्व जीवराशिको अपहृत करनेपर प्राप्त हुई अनन्त शलाकाओका विरलन कर व सर्व जीवराशिको समखण्ड करके देनेपर उसमें एक रूप धरितको छोड़कर शेष समुदित बहुभागोंमें काययोगी द्रव्यका प्रमाण पाया जाता है।
औदारिककाययोगी जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ ३९ ॥ यह सूत्र सुगम है।
औदारिककाययोगी जीव सब जीवोंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं ॥ ४० ॥
क्योंकि, अविवक्षित सर्व द्रव्यका सब जीवराशिमें भाग देनेपर संख्यात रूप - उपलब्ध होते हैं।
औदारिकमिश्रकाययोगी जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥४१॥ यह सूत्र सुगम है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ ४२ ॥
१ प्रतिषु ' अद्ध-' इति पाठः।
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२, १०, ४७.] भागाभागाणुगमे वेदमागणा
[५०९ कुदो ? अप्पिददव्येण सव्वरासिम्हि भागे हिदे संखेज्जरूवाणमुवलंभादो । कम्मइयकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥४३॥ सुगमं । असंखेजदिभागो ॥ ४४ ॥ कुदो ? अप्पिददव्येण सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जाबोवलंभादो ।
वेदाणुवादेण इत्थिवेदा पुरिसवेदा अवगदवेदा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥४५॥
सुगमं । अणंतो भागो ॥ ४६॥ कुदो ? अप्पिददव्येहि सव्यजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूबोवलंभादो । णसयवेदा सबजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ४७ ॥
क्योंकि, विवक्षित द्रव्यका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं।
कार्मणकाययोगी जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ४३ ॥ यह सूत्र सुगम है। कार्मणकाययोगी जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।। ४४ ॥
क्योंकि, विवक्षित द्रव्यका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर असंख्यात रूप उपलब्ध होते हैं।
वेदमार्गणाके अनुसार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और अपगतवेदी जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ ४५ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व जीवोंके अनन्त भागप्रमाण हैं ॥ ४६ ॥ क्योंकि, विवक्षित द्रव्योंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप उपलब्ध नपुंसकवेदी जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ।। ४७ ।।
१ प्रतिषु — संखेज्ज- ' इति पाठः ।
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५१. छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२,१०, १८. सुगमं । अणंता भागा॥४८॥ कुदो ? अणप्पिदसव्वदव्वेण सव्यजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूवावलंभादो ।
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ४९ ॥
सुगमं ।
चदुब्भागो देसूणा ॥ ५० ॥ कुदो ? एदेहि सयजीवरासिम्हि भागे हिदे सादिरेयचतारिरूवोवलंभादो । लोभकसाई सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ५१ ॥ सुगमं । चदुब्भागो सादिरेगो ॥ ५२ ॥
यह सूत्र सुगम है। नपुंसकवेदी जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥ ४८ ॥
क्योंकि, अविवक्षित सर्व द्रव्यका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप उपलब्ध होते हैं।
कषायमार्गणाके अनुसार क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकपायी जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ४९॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सब जीवोंके कुछ कम एक चतुर्थ भागप्रमाण हैं ॥ ५० ॥ क्योंकि, इनका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर साधिक चार रूप उपलब्ध
लोभकपायी जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ ५१ ॥ यह सूत्र सुगम है। लोभकषायी जीव सब जीवोंके साधिक चतुर्थ भागप्रमाण हैं ।। ५२ ॥
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२, १०, ५६.] भागाभागाणुगमे णाणमग्गणा
कुदो ? लोभकसाइदव्वेण सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे किंचूणचत्तारिरूवोबलंभादो ।
अकसाई सब्बजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ५३ ॥ सुगमं । अणंतो भागो ॥ ५४॥ कुदो ? अकसाइदव्येण सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूबोवलंभादो ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ५५॥
सुगमं । अणंता भागा ॥५६॥ कुदो ? अणप्पिदणाणेहि सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूवोवलंभादो ।
क्योंकि, लोभकषायी द्रव्यका सर्व जीवराशिमें भागदेनेपर कुछ कम चार रूप प्राप्त होते हैं।
अकषायी जीव सब जीवोंके कितने। भागप्रमाण हैं ? ॥ ५३ ॥ यह सूत्र सुगम है। अकषायी जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ।। ५४ ॥
क्योंकि, अकषायी द्रव्यका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप प्राप्त होते हैं।
ज्ञानमार्गणाके अनुसार मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ५५ ॥
यह सूत्र सुगम है। मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं
॥५६॥
क्योंकि, अविवक्षित ज्ञानवाले जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनम्त रूप उपलब्ध होते हैं।
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५१२]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, १०, ५७. विभंगणाणी आभिणिबोहियणाणी सुदणाणी ओहिणाणी मण पज्जवणाणी केवलणाणी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ५७॥
सुगमं । अणंतभागो ॥ ५८ ॥ कुदो ? अप्पिददव्वेण सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूबोवलंभादो ।
संजमाणुवादेण संजदा सामाइयछेदोवट्टावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासजदा सब्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ५९॥
सुगमं । अणंतभागो ॥ ६॥ कुदो ? एदेहि सव्यजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूबोवलंभादो । असंजदा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ।। ६१ ॥
विभंगज्ञानी, आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवाधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? ॥ ५७ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ५८ ॥ क्योंकि, विवक्षित द्रव्यका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप उपलब्ध
होते हैं।
___ संयममार्गणाके अनुसार संयत, सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ।। ५९ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ६ ॥ क्योंकि, इनका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप प्राप्त होते हैं। असंयत जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ ६१ ॥
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२,१०, ६६.]
भागाभागाणुगमे दंसणमग्गणा
[५१३
सुगमं ।
अणंता भागा ॥ ६२ ॥ कुदो ? अणप्पिदसव्वसंजदेहि सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूवोवलंभादो।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी ओहिदसणी केवलदंसणी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ६३॥
सुगमं । अणंतभागो ॥ ६४॥ कुदो ? एदेहि सव्वजीवरासिमवहिरदे अणंतभागोवलंभादो । अचक्खुदंसणी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥६५॥ सुगमं । अणंता भागा ॥६६॥
यह सूत्र सुगम है। असंयत जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥ ६२ ॥
क्योंकि, अविवक्षित सर्व संयतोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त म्प प्राप्त होते हैं।
दर्शनमार्गणानुसार चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ ६३ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ६४ ॥
क्योंकि, इनके द्वारा सर्व जीवराशिको अपहृत करनेपर अनन्तवां भाग उपलब्ध होता है।
अचक्षुदर्शनी जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ६५॥ यह सूत्र सुगम है। अचक्षुदर्शनी जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥ ६६ ॥
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १०, ६७. कुदो ? अचक्खुदंसणीहि सवरासिम्हि भागे हिदे एगरूवस्स अणंतिमभागसहिदएगरूवावलंभादो।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ६७॥
सुगमं । तिभागो सादिरेगो ॥ ६८ ॥
कुदो ? किण्हलेस्सिएहि सव्यजीवरासिम्मि भागे हिदे किंचूणतिण्णिरूवोवलंभादो। ___णीललेस्सिया काउलेस्सिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ६९॥
सुगमं । तिभागो देसूणो ॥ ७० ॥
क्योंकि, अचक्षुदर्शनियों का सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर एक रूपके अनंतवें भागसे सहित एक रूप उपलब्ध होता है।
लेश्यामार्गणाके अनुसार कृष्णलेश्यावाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण
यह सूत्र सुगम है। कृष्णलेश्यावाले जीव सब जीवोंके साधिक एक त्रिभागप्रमाण हैं ? ॥ ६८।।
क्योंकि, कृष्णलेश्यावाले जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर कुछ कम तीन रूप उपलब्ध होते हैं।
नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण है ? ॥ ६९ ॥
यह सूत्र सुगम है। नील और कापोतलेश्यावाले जीव सब जीवोंके कुछ कम एक त्रिभागप्रमाण
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२, १०, ७४.] भागाभागाणुगमे भवियमग्गणा
[ ५१५ कुदो ? एदेहि सयजीवरासिम्हि भागे हिदे सादिरेयतिण्णिरूवोवलंभादो ।
तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्कलेस्सिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ७१ ॥
सुगमं । अणंतभागो ॥ ७२॥ कुदो ? एदेहि सव्वीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूबोवलंभादो।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ७३ ॥
सुगमं । अणंता भागा ॥ ७४॥
कुदो ? भवसिद्धिएहि सयजीवरासिम्हि भागे हिदे एगरूवस्स अणंतभागसहिदएगरूवोवलंभाद।।
क्योंकि, इन जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर साधिक तीन रूप उपलब्ध होते हैं।
तेजोलेश्यावाले, पनलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ७१ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ७२ ॥ क्योंकि, इन जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप प्राप्त होते है।
भव्यमार्गणाके अनुसार भव्यसिद्धिक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं १ ॥७३॥
यह सूत्र सुगम है। भव्यसिद्धिक जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥ ७४ ॥
क्योंकि, भव्यसिद्धिक जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर एक अपके मनन्तवें भाग सहित एक रूप उपलब्ध होता है।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, १०, ७५. अभवसिद्धिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ७५ ॥ सुगमं । अणंतभागो ॥ ७६॥ कुदो ? एदेहि सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूवावलंभादो ।
सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठी खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्टी उवसमसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ७७ ॥
सुगमं । अणंतो भागो ॥ ७८ ॥ ( कुदो ? एदेहि सबजीवरासिम्हि मागे हिदे अणंतरूवोवलंभादो। मिच्छाइट्टी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ७९ ॥
अभव्यसिद्धिक जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ।। ७५ ।। यह सूत्र सुगम है। अभव्यसिद्धिक जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ७६ ॥ क्योंकि, इनका सर्व जीवराशिमें भाग देने पर अनन्त रूप उपलब्ध होते हैं।
सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ७७ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ७८ ॥ (क्योंकि, इनका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप उपलब्ध होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ ७९ ॥
१ अप्रती ' केवडिगो' इति पाठः ।
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२,१०, ८३.]
भागाभागाणुगमे सण्णिमागणा
[५१
सुगमं ।
अणंता भागा॥ ८० ॥)
कुदो ? मिच्छाइट्ठीहि फलगुणिदसव्यजीवरासिम्हि भागे हिदे एगरूवस्स अणंत. भागसहिदएगरूवोवलंभादो।
सण्णियाणुवादेण सण्णी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो?॥८१॥ सुगमं । अणंतभागो॥ ८२ ॥ कुदो ? एदेहि फलगुणिदसयजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूवोवलंभादो । असण्णी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ८३ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ।। ८० ॥)
क्योंकि, मिथ्यादृष्टियोंका फलगुणित सर्व जीवराशिमें भाग देने पर एक रूपके अनन्त भागसे सहित एक रूप उपलब्ध होता है।
विशेषार्थ-यहां जो सर्व जीवराशिको फलसे गुणित करके मिथ्यादृष्टि राशिसे भाजित करनेको कहा गया है उससे टीकाकारका अभिप्राय उक्त प्रक्रियाको त्रैराशिक रीतिसे व्यक्त करनेका रहा जान पड़ता है। यदि मिथ्यादृष्टि राशि एक शलाका प्रमाण है तो सर्व जीवराशि कितने शलाका प्रमाण होगी? इस त्रैराशिकके अनुसार सर्व जीव राशिमें फल राशि रूप एकका गुणा और प्रमाण राशि रूप मिथ्यादृष्टि राशिसे भाग देनेपर उक्त भजनफल प्राप्त होगा।
संज्ञिमार्गणानुसार संज्ञी जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं १ ॥ ८१ ॥ यह सूत्र सुगम है। संज्ञी जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ८२ ॥
क्योंकि, इनका फलगुणित सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप उपलभ होते हैं।
___ असंज्ञी जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ८३ ॥
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५१८]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १०, ८१.
सुगमं ।
अणंता भागा ॥ ८४ ॥
कुदो ? असण्णीहि फलगुणिदसव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे सगअणंतभागसहिदएगसलागोवलंभादो।
आहाराणुवादेण आहारा सबजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ८५॥
सुगमं । असंखेज्जा भागा ॥ ८६ ॥
कुदो ? एदेहि फलगुणिदसवजीवरासिम्हि भागे हिदे सगअसंखेज्जदिभागसहिदएगसलागोवलंभादो ।
अणाहारा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ८७ ॥
यह सूत्र सुगम है। असंज्ञी जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥ ८४ ॥
क्योंकि, असंही जीवोंका फलगुणित सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अपने अनन्त भाग सहित एक शलाका उपलब्ध होती है।
आहारमार्गणाके अनुसार आहारक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? ॥ ८५॥
यह सूत्र सुगम है। आहारक जीव सब जीवोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं ।। ८६ ॥
क्योंकि, इनका फलगुणित सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अपने असंख्यातवे भाग सहित एक शलाका उपलब्ध होती है।
अनाहारक जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ८७ ॥
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२, १०, ८८.] भागाभागाणुगमे आहारमग्गणा
सुगमं । असंखेजदिभागो ॥ ८८ ॥ कुदो ? एदेहि सबजीवरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जसलागोवलंभादो ।
एवं भागाभागाणुगमो त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
यह सूत्र सुगम है। अनाहारक जीव सव जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ ८८॥
क्योंकि, इनका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर असंख्यात शलाकायें उपलब्ध होती हैं।
इस प्रकार भागाभागानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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अप्पा बहुगाणुगमो
अप्पा बहुगागमेण गदियाणुवादेण पंचगदीओ समासेण ॥१॥
अप्पा बहुगणिद्देसो से साणिओगद्दार पडिसेहफलो । गदिणिद्दे सो से समग्गणड्डाणपडिसेहफलो । गई सामण्णेण एगविहा । सा चैव सिद्ध गई (असिद्ध गई ) चेदि दुविहा | अहवा देवगई अदेवगई सिद्धगई चेदि तिविहा | अहवा णिरयगई तिरिक्खगई मणुस गई देवगई चेदि चउन्त्रिहा | अहवा सिद्धगईए सह पंचविहा । एवं गइसमासो अणेयमेयभिष्णो । तत्थ समासेण पंचगदीओ जाओ तत्थ अप्पाबहुगं भणामि त्ति भणिदं होदि ।
सव्वत्थोवा मणुसा ॥ २ ॥
सव्वसदो अप्पिदपंचगईजीवावेक्खो । तेसु पंचगईजीवेसु मणुस्सा चैव थोवा ति भणिदं होदि । कुदो ? सूचिअंगुलपढमवग्गमूलेण तस्सेव तदियवग्गमूलब्भत्थेण च्छिण्णजग से डिमेत्तप्पमाणत्तादो ।
रइया असंखेज्जगुणा ॥ ३ ॥
अल्पबहुत्वानुगमसे गतिमार्गणा के अनुसार संक्षेपसे जो पांच गतियां हैं उनमें अल्पबहुत्वको कहते हैं ॥ १ ॥
" अल्पबहुत्व ' निर्देशका फल शेष अनुयोगद्वारोंका प्रतिषेध करना है । 'गि निर्देश शेष मार्गणाओंके प्रतिषेधके लिये है । गति सामान्यरूपसे एक प्रकार है, वही गति सिद्धगति और ( असिद्धगति ) इस तरह दो प्रकार है । अथवा, देवगति, अदेवगति और सिद्धगति इस तरह तीन प्रकार है । अथवा, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति इस तरह चर प्रकार है । अथवा, सिद्धगति के साथ पांच प्रकार है । इस प्रकार गतिसमास अनेक भेदोंसे भिन्न है । उसमें संक्षेपसे जो पांच गतियां हैं उनमें अस्पबहुत्वको कहते हैं यह उक्त कथनका अभिप्राय है ।
मनुष्य सबमें स्तोक हैं ॥ २ ॥
सर्व शब्द विवक्षित पांच गतियोंके जीवोंकी अपेक्षा करता है । उन पांच गतियोंके जीवोंमें मनुष्य ही स्तोक हैं यह सूत्रका फलितार्थ है, क्योंकि, वे सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूल से गुणित उसके ही प्रथम वर्गमूल से खण्डित जगश्रेणीप्रमाण हैं ।
नारकी जीव मनुष्यों से असंख्यातगुणे हैं ॥ ३ ॥
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२, ११, ६.] अप्पाबहुगाणुगमे गदिमगणा
[५२१ गुणगारो असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । कुदो ? मणुसअवहारकालगुणिदणेरइयविक्खंभसूचिपमाणत्तादो। कधमेदस्स आगमो ? पमाणरासिणोवट्टिदफलगुणिदिच्छादो ।
देवा असंखेज्जगुणा ॥४॥
एत्थ गुणगारो असंखेज्जाणि सेडिपढमवग्गमूलाणि । कुदो ? णेरइयविक्खंभसूचिगुणिददेवअवहारकालेण भजिदजगसेडिपमाणत्तादो ।
सिद्धा अणंतगुणा ॥ ५॥ कुदो ? देवोवट्टिदसिद्धेसु अणंतसलागोवलंभादो । तिरिक्खा अणंतगुणा ॥६॥
कुदो ? सिद्धेहि ओवदितिरिक्खेसु जीववग्गमूलादो सिद्धेहिंतो च अणंतगुणसलागोवलंभाशे । एदाओ पुण लद्धगुणगारसलागाओ भवसिद्धियाणमणंतभागो। कुदो ? तिरिक्खेसु पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवपक्खेवे कद भवसिद्धियरासिपमाणुप्पत्तीदो।
___ यहां गुणकार प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात सूच्यंगुल हैं, क्योंकि, वे मनुष्योंके अवहारकालसे गुणित नारकियोंकी विष्कम्भसूची प्रमाण हैं ।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि, फलराशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे अपवर्तित करनेपर उक्त प्रमाण पाया जाता है।
नारकियोंसे देव असंख्यातगुणे हैं ॥ ४ ॥
यहां गुणकार असंख्यात श्रेणी प्रथम वर्गमूल है, क्योंकि, वे नारकियोंकी विष्कम्भसूचीसे गुणित देवअवहारकालसे भाजित जगश्रेणीप्रमाण हैं।
देवोंसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं ॥५॥
क्योंकि, देवोंसे सिद्धराशिके अपवर्तित करनेपर अनन्त शलाकायें उपलब्ध होती हैं।
सिद्धोंसे तियेच असंख्यातगुणे हैं ॥ ६ ॥
क्योंकि, सिद्धोंसे तिर्यचोंके अपवर्तित करनेपर जीवराशिके वर्गमूल और सिद्धोसे भी अनन्तगुणी शलाकायें उपलब्ध होती हैं। किन्तु ये लब्ध गुणकारशलाकायें भव्यसिद्धिकोंके अनन्तवें भागमात्र होती हैं। क्योंकि, तिर्यंचोंमें जगप्रतरके असंख्यातवें भागमात्र जीवाका प्रक्षेप करनेपर भव्यसिद्धिकराशिका प्रमाण उत्पन्न होता है।
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५२२] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ११, ७. अट्ठ गदीओ समासेण ॥ ७॥
ताओ चेव गदीओ मणुस्सिणीओ मणुस्सा णेरइया तिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ देवा देवीओ सिद्धा त्ति अट्ट हवंति । तासिमप्पाबहुगं भणामि त्ति वुत्तं होदि ।
सव्वत्थोवा मणुस्सिणीओ ॥ ८ ॥ अट्ठण्ठं गईणं मज्झे मणुस्सिणीओ थोवाओ । कुदो ? संखेज्जपमाणत्तादो । मणुस्सा असंखेज्जगुणा ॥ ९॥
एत्थ गुणगारो सेडीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । कुदो ? मणुस्सअवहारकालगुणिदमणुस्सिणीहि ओवट्टिदजगसेडिपमाणत्तादो।
णेरइया असंखेज्जगुणा ॥ १० ॥ एत्थ गुणगारपमाणं पुव्वं परूविदमिदि (ण) पुणो वुच्चदे । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ ॥ ११ ॥
संक्षेपसे गतियां आठ हैं ॥ ७॥ .
वे ही गतियां मनुष्यनी, मनुष्य, नारक, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, देव, देवियां और सिद्ध, इस प्रकार आठ होती हैं। उनके अल्पबहुत्वको कहते हैं, यह सूत्रका अभिप्राय है।
मनुष्यनी सबसे स्तोक हैं ॥ ८॥ आठ गतियोंके मध्यमें मनुष्यनी स्तोक हैं, क्योंकि, वे संख्यात प्रमाणवाली हैं। मनुष्यनियोंसे मनुष्य असंख्यातगुणे हैं ॥ ९ ॥
यहां गुणकार जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रथमवर्गमूल हैं, क्योंकि, वे मनुष्यअवहारकालसे गुणित मनुष्यनियोंसे अपवर्तित जगश्रेणीप्रमाण ।
मनुष्योंसे नारकी असंख्यातगुणे हैं ॥ १० ॥
यहां गुणकारका प्रमाण पूर्वमें कहा जा चुका है, इसलिये यहां उसे फिरसे (नहीं) कहते।
नारकियोंसे पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंच असंख्यातगुणे हैं ॥ ११ ॥
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२, ११, १५.] अप्पाबहुगाणुगमे गदिमग्गणा
[५२३ एत्थ गुणगारो सेडीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेडिपढमवग्गमूलाणि । कुदो १ णेरइयविक्खंभसूचिगुणिदपंचिंदियतिरिक्खजोणिणिअवहारकालोवट्टिदजगसेडिपमाणत्तादो।
देवा संखेज्जगुणा ॥ १२॥
एत्थ गुणगारो तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाणि । कुदो ? देवअवहारकालेण तेत्तीसरूवगुणिदेण पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणमवहारकाले भागे हिदे संखेज्जरूवोवलंभादो।
देवीओ संखेज्जगुणाओ ॥ १३ ॥ एत्थ गुणगारो बत्तीसरूवाणि संखेज्जरूवाणि वा । सिद्धा अणंतगुणा ॥ १४ ॥ कुदो ? देवीहि ओवट्टिदसिद्धेहितो अणंतरूवावलंभादो । तिरिक्खा अणंतगुणा ॥ १५॥
कुदो ? अभवसिद्धिएहि सिद्धेहि जीववग्गमूलादो च अणंतगुणरूवाणं सिद्धेहि भजिदतिरिक्खेसुवलंभादो ।
यहां गुणकार जगश्रेणीक असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात श्रेणीप्रथमवर्गमूल है; क्योंकि, वे नारकियोंकी विष्कम्भसूचीसे गुणित पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों के अवहारकालसे अपवर्तित जगश्रेणीप्रमाण हैं।
योनिमती तियंचोंसे देव संख्यातगुणे हैं ।। १२ ॥
यहां गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात रूप हैं, क्योंकि, तेतीस रूपोंसे गुणित देवअवहारकालका पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंके अवहारकालमें भाग देनेपर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं।
देवोंसे देवियां संख्यातगुणी हैं ॥ १३ ॥ यहां गुणकार बत्तीस रूप या संख्यात रूप हैं। देवियोंसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं ॥ १४ ॥ क्योंकि, देवियोंसे सिद्धोंके अपवर्तित करनेपर अनन्त रूप उपलब्ध होते हैं। सिद्धोंसे तिर्यच अनन्तगुणे हैं ॥ १५ ॥
क्योंकि, सिद्धोंसे तिर्यंचोंके भाजित करनेपर अभव्यसिद्धिक, सिख और जीवराशिके धर्गमूलसे अनन्तगुणे रूप उपलब्ध होते हैं ।
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५२४)
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११, १६. इंदियाणुवादेण सव्वत्थोवा पंचिंदिया ॥ १६ ॥ कुदो ? पंचण्हमिंदियाणं खवोवसमोवलद्धीए सुगु दुल्लभत्तादो । चउरिदिया विसेसाहिया ॥ १७ ॥
कुदो ? पंचण्हमिंदियाणं सामग्गीदो चदुण्हमिंदियाणं सामग्गीए अइसुलभत्तादो। एत्थ विसेसो पदरस्स असंखेज्जदिमागो। तस्स को पडिभागो ? पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागो पडिभागो । पंचिंदियरासिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे विसेसो आगच्छदि । तं पंचिंदिएसु पक्खित्ते चउरिदिया होति । एत्तिओ चेव विसेसो होदि त्ति कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो ।
तीइंदिया विसेसाहिया ॥ १८ ॥
कुदो ? चउण्हमिंदियाणं सामग्गीदो तिहमिंदियाणं सामग्गीए अइसुलभत्तादो। एत्थ विसेसो चउरिंदियाणं असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? आवलियाए
इन्द्रियमार्मणाके अनुसार पंचेन्द्रिय जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १६ ॥ क्योंकि, पांचों इन्द्रियोंके क्षयोपशमकी उपलब्धि अतिशय दुर्लभ है। पंचेन्द्रियोंसे चतुरिन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं ॥ १७ ॥
क्योंकि, पांच इन्द्रियोंकी सामग्रीसे चार इन्द्रियों की सामग्री अति सुलभ है। । यहां विशेषका प्रमाण जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है ।
शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-प्रतरांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है।
पंचेन्द्रियराशिको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर विशेषका प्रमाण आता है । उसे पंचेन्द्रियोंमें मिलाने पर चतुरिन्द्रिय जीवोंका प्रमाण होता है।
शंका-इतना ही विशेष है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- यह आचार्य परम्परागत उपदेशसे जाना जाता है। चतुरिन्द्रियोंसे त्रीन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं ॥ १८ ॥
क्योंकि, चार इन्द्रियोंकी सामग्रीसे तीन इन्द्रियोंकी सामग्री अति सुलभ है। पहां विशेष चतुरिन्द्रिय जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ?
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२, ११, २१. ]
असंखेज्जदिभागो ।
अपात्रहुगागमे इंदियमग्गणा
बीइंदिया विसेसाहिया ॥ १९ ॥
दो तिहमिंदियाणं सामग्गीदो दोण्हमिंदियाणं सामग्गीए पाएणुवलंभादो । एत्थ विसेसपमाणं तीइंदियाणमसंखेज्जदिभागो । तेसिं को पडिभागो ! आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
अनिंदिया अनंतगुणा ॥ २० ॥
कुदो ? अनंतादीदकालसंचिदा होदूण वयवदिरित्तत्तादो । एत्थ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो । कुदो ? बीइंदियदव्वोवहिद अणिदियप्पमाणत्तादो ।
एइंदिया अनंतगुणा ॥ २१ ॥
कुदो ? एइंदियउवलद्धिकारणाणं बहूणमुवलंभादो । एत्थ गुणगारो अभवसिद्धिएहिंतो सिद्धेहिंतो सव्वजीवरासि पढमवग्गमूलादो वि अनंतगुणो । कुदो ! अणिदिओवट्टिदअनंतभागहीणसव्व जीवरासिपमाणत्तादो । अण्णेण वि पयारेण
[ ५२५
यहां विशेषका प्रमाण त्रीन्द्रिय जीवोंका असंख्यातवां भाग है ।
शंका
समाधान - आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है ।
त्रीन्द्रियोंसे द्वीन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं ।। १९ ॥
क्योंकि, तीन इन्द्रियोंकी सामग्रीसे दो इन्द्रियोंकी सामग्री प्रायः सुलभ है ।
-
- उनका प्रतिमाग क्या है ?
समाधान- आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है ।
द्वीन्द्रियोंसे अनिन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं ॥ २० ॥
क्योंकि, अनिन्द्रिय जीव अनन्त अतीत कालों में संचित होकर व्यय से राहत है । यहां गुणकार अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह द्वीन्द्रिय द्रव्यसे भाजित अनिन्द्रिय राशिप्रमाण है ।
एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं ॥ २१ ॥
क्योंकि, एक इन्द्रियकी उपलब्धिके कारण बहुत पाये जाते हैं। यहां गुणकार अभव्यसिद्धिक, सिद्ध और सर्व जीवराशिके प्रथम वर्गमूल से भी अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह अनिन्द्रिय जीवोंसे अपवर्तित अनन्त भाग हीन ( अर्थात् सराशिले हीन ) सर्व
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५२६ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधो
अप्पा बहुगपरूवणट्ठमुत्तरमुत्तं भणदिसव्वत्थोवा चउरिंदियपज्जता ॥ २२ ॥
कुद विससाद |
पंचिंदियपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ २३ ॥
कारण पुव्वभणिदं । एत्थ विसेसो चउरिंदियाणं असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
बीइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ २४ ॥
कारणं पुव्वमेव परुविदं । एत्थ विसेसपमाणं पंचिंदियपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । तेसिं को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । तीइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया ।। २५ ।।
जीवराशिप्रमाण है । अन्य प्रकार से भी अल्पबहुत्वके निरूपण करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीव सबमें स्तोक हैं || २२ ॥
क्योंकि, ऐसा स्वभाव से है ।
[ २, ११, २२.
चतुरिन्द्रिय पर्याप्तों से पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं || २३ ॥
स्वभावरूप कारण पूर्वमें ही कहा जा चुका है। यहां विशेषका प्रमाण चतुरिन्द्रिय जीवोंका असंख्यातवां भाग है ।
शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ?
समाधान - आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है ।
पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं || २४ ||
इसका कारण पूर्वमें ही कहा जा चुका है। यहां विशेषका प्रमाण पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका असंख्यातवां भाग है ?
- उनका प्रतिभाग क्या है ?
शंका
समाधान --- आवलीका असंख्यातवां भाग उनका प्रतिभाग है ।
द्वीन्द्रिय पर्याप्तों त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ।। २५ ।।
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२, ११, २७. 1 अप्पाबहुगाणुगमे इंदियमग्गणा
[ ५२७ कुदो ? विस्ससादो । एत्थ विसेसपमाणं बीइंदियपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
पंचिंदियअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ २६ ॥
कुदो ? पावाहियाणं जीवाणं बहूणं संभवादो । एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखज्जदिभागो। कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदअविरुद्धवदेसादो । पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण जगपदरे भागे हिदे तीइंदियपज्जत्तपमाणं होदि । तमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे पदरंगुलस्स असंखज्जदिभागेणोवट्टिदजगपदरपमाणं पंचिंदियअपज्जत्तदव्वं होदि ।
चउरिंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ २७ ॥ कुदो ? पावेण विणट्ठसोइंदियाणं बहूणं संभवादो । एत्थ विसेसपमाणं
फ्योंकि, ऐसा स्वभावसे है। यहां विशेषका प्रणाण द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका .. असंख्यातवां भाग है।
शंका-उनका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-आवलीका असंख्यातवां भाग उनका प्रतिभाग है । त्रीन्द्रिय पर्याप्तोंसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ २६ ॥
क्योंकि, पापप्रचुर जीवोंकी सम्भावना बहुत है। यहां गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-यह आचार्यपरम्परागत अविरूद्ध उपदेशसे जाना जाता है।
प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे जगप्रतरके भाजित करनेपर त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है। उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित जगप्रतरप्रमाण पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका द्रव्य होता है।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ २७ ॥ क्योंकि, पापसे नष्ट है श्रोत्र इन्द्रिय जिनकी ऐसे जीव बहुत सम्भव हैं। यहां
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५२८] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ११, २८. पंचिंदियअपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? आवलियाए असंखेजदिभागो।
तीइंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ २८ ॥ ..
कुदो ? पावभरेण बहुआणं चक्खिदियाभावादो। एत्थ विसेसपमाणं चउरिदियअपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? आवलियाए असंखज्जदिभागो ।
बीइंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ २९ ॥
कारणं ? पावेण णघाणिदियाणं बहुआण संभवादो । एत्थ विसेसपमाणं तीइंदियअपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? आवलियाए असंखज्जदिभागो।
अणिंदिया अणंतगुणा ॥ ३० ॥
कुदो ? अणंतकालसंचिदा होदूण वयविरहिदत्तादो । एत्थ गुणगारो पुर्व परूविदो।
विशेषका प्रमाण पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका असंख्यातवां भाग है।
शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान--आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिमाग है। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तोंसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ २८ ॥
क्योंकि, पापके भारसे बहुत जीवोंके चक्षु इन्द्रियका अभाव है। यहां विशेषका प्रमाण चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका असंख्यातवां भाग है।
शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? । समाधान-आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तोंसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ २९ ॥
क्योंकि, पापसे जिगकी घ्राण इन्द्रिय नष्ट है ऐसे जीव बहुत सम्भव हैं । यहां विशेषका प्रमाण त्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका असंख्यातवां भाग है।
शंका- उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तोंसे अनिन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं ॥ ३० ॥
क्योंकि, वे अनन्त काल में संचित होकर व्ययसे रहित हैं। यहां गुणकार पूर्वप्ररूपित है।
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२, ११, ३४.] अप्पाबहुगाणुगमै इंदियमगणा
[५२९ बादरेइंदियपज्जत्ता अणंतगुणा ॥ ३१ ॥ कुदो ? सव्वजीवाणमसंखज्जदिमागत्तादो । ( बादरेइंदियअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ३२ ॥
कुदो ? अपज्जत्तुप्पत्तिपाओग्गअसुहपरिणामाणं बहुत्तादो। एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा । कधमेदं णव्यदे ? आइरियपरंपरागदअविरुद्धोवदेसादो ।)
बादरेइंदिया विसेसाहिया ॥ ३३ ॥ केत्तियो विसेसो ? बादरेइंदियपज्जत्तमेत्तो । (सुहुमेइंदियअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ३४ ॥
कुदो ? सुहुमेइंदिएसु उप्पत्तिणिमित्तपरिणामबाहुल्लियादो। एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा । कुदो एदमवगम्मदे ? गुरूवदेसादो ।)
अनिन्द्रियोंसें बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव अनन्तगुणे हैं ॥ ३१ ।। क्योंकि, वे सब जीवोंके असंख्यातवें भाग हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तोंसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥३२॥
क्योंकि, अपर्याप्तोंमें उत्पत्तिके योग्य अशुभ परिणामवाले जीव बहुत हैं। यहां गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-यह आचार्यपरम्परागत अविरुद्ध उपदेशसे जाना जाता है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंसे बादर एकेन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं ॥ ३३ ॥ शंका-यहां विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके बराबर यहां विशेषका प्रमाण है। बादर एकन्द्रियोंसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं॥ ३४॥
क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होनेके निमित्तभूत परिणामोंकी प्रचुरता है। यहां गुणकार असंख्यात लोक हैं।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- यह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है।
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५३०]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो . [२, ११, ३५. सुहुमेइंदियपज्जत्ता संखेज्जगुणा ॥ ३५॥
कुदो ? मज्झिमपरिणामेसु बहूणं जीवाणं संभवादो। किमट्ठ संखेज्जगुणं ? विस्ससादो ।
सुहुमेइंदिया विसेसाहिया ॥ ३६ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? सुहुमेइंदियअपज्जत्तमेत्तो । एइंदिया विसेसाहिया ॥ ३७॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? बादरेइंदियमेत्तो। कायाणुवादेण सव्वत्थोवा तसकाइया ॥ ३८॥ कुदो ? तसेसुप्पत्तिपाओग्गपरिणामेसु जीवाणं अदिव तणुत्तादो' । ण च सुहपरि
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं
क्योंकि, मध्यम परिणामों में बहुतसे जीवोंकी संभावना है। शंका- संख्यातगुणे किस लिये हैं ? समाधान- स्वभावसे संख्यातगुणे हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तोंसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं ॥ ३६ ॥ शंका- विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान- विशेषका प्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके बराबर है । सूक्ष्म एकेन्द्रियोंसे एकेन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं ॥ ३७ ॥ शंका- विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान- विशेषका प्रमाण बादर एकेन्द्रिय जीवोंके बराबर है। कायमार्गणाके अनुसार त्राकायिक जीव सबमें स्तोक हैं ॥ ३८॥ क्योंकि, प्रसोंमें उत्पन्न होनके योग्य परिणामोंमें जीव अत्यन्त थोड़े पाये जाते
१ प्रतिषु तुदिव दणत्तादो' इति पाठः ।
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२, ११, ४२.1 अपाबहुगाणुगमे कायमगणी णामेसु बहुआ जीवा संभवंति, सुहपरिणामाणं पाएण असंभवादो।
तेउकाइया असंखेज्जगुणा ॥ ३९ ॥
एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा । कुदो ? तसजीवेहि पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओवट्टिदतेउक्काइयपमाणत्तादो।
पुढविकाइया विसेसाहिया ॥ ४०॥ ___एत्थ विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा तेउक्काइयाणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
आउक्काइया विसेसाहिया ॥४१॥
केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेज्जा लोगा पुढविकाइयाणमसंखेज्जदिभागो। तेसि को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
वाउक्काइया विसेसाहिया ॥ ४२ ॥
केत्तिओ विसेसो ? असंखेज्जा लोगा आउक्काइयाणमसंखेज्जदिभागो। तेसिं को पडिभागो ? असंखज्जा लोगा।
हैं। और शुभ परिणामों में बहुत जीव सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, शुभ परिणाम प्रायः करके असंभव है।
त्रसकायिकोंसे तेजस्कायिक जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ३९॥
यहां गुणकार असंख्यात लोक है, क्योंकि, वह जगप्रतरके असंख्यातवें भागमात्र प्रसकायिक जीवों द्वारा अपवर्तित तेजस्कायिक जीव राशिप्रमाण होता है।
तेजस्कायिकोंसे पृथिवीकायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ ४० ॥
यहां विशेषका प्रमाण तेजस्कायिक जीवोंके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात लोक है। प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
पृथिवीकायिकोंसे अप्कायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ ४१ ॥
यहां विशेष कितना है ? पृथिवीकायिक जीवोंके असंख्यातवें भागमात्र असं. ख्यात लोकप्रमाण विशेष है । उनका प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
अप्कायिकोंसे वायुकायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ ४२ ॥
विशेष कितना है ? अप्कायिक जीवोंके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात लोक प्रमाण विशेष है। उनका प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
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५३२ छक्खंडागमै खुदाबंधी
[२, ११, १३. __ अकाइया अणंतगुणा ॥ ४३ ॥
एत्थ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । कुदो ? असंखज्जलोगमेत्तवाउक्काइयभजिदअकाइयप्पमाणत्तादो ।
वणप्फदिकाइया अणंतगुणा ॥४४॥
एत्थ गुणगारो अभवसिद्धिएहितो सिद्धेहिंतो सबजीवाणं पढमवग्गमूलादो वि अणंतगुणो । कुदो ? अकाइएहि भजिदसगअणंतभागहीणसव्वजीवरासिपमाणादो । अण्णेण पयारेण छण्हं कायाणमप्पाबहुगपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
सव्वत्थोवा तसकाइयपज्जत्ता ॥ ४५ ॥ कुदो ? पदरंगुलस्स असंखेज्जदिमागेणोवहिदजगपदरपमाणत्तादो । 'तसकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ४६॥
एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कुदो १ पदरंगुलस्स असंखेअदिभागेणोवट्टिदजगपदरमेत्ता तसकाइयअपज्जत्ता त्ति दवाणिओगद्दारे परूविदत्तादो ।
वायुकायिकोंसे अकायिक जीव अनन्तगुणे हैं ॥ ४३ ॥
यहां गुणकार अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह असंख्यात लोकमात्र वायुकायिकोंसे भाजित अकायिक जीवोंके बराबर है।
अकायिकोंसे वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुण हैं ॥ ४४ ॥
यहां गुणकार अभध्यसिद्धिक, सिद्ध और सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह अकायिक जीवोंसे भाजित अपने अनन्त भागसे हीन सर्व जीवराशिप्रमाण है । अन्य प्रकारसे छह काय जीवोंके अल्पबहुत्वके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
त्रसकायिक पर्याप्त जीव सबमें स्तोक हैं ॥ ४५ ॥ - क्योंकि, वे प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित जगप्रतरप्रमाण है। त्रसकायिक पर्याप्तोंसे त्रसकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ४६॥
यहां गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, 'प्रतरांगुलके असंख्यातवे भागसे अपवर्तित जगप्रतरप्रमाण त्रसकायिक अपर्याप्त जीव हैं ' ऐसा द्रव्यानुयोगद्वारमें प्ररूपित किया है।
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२, ११, ५०.] अप्पाबहुगाणुगमे कायमगणा
तेउक्काइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥४७॥
एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा, तसकाइय अपज्जत्तएहि तेउक्काइयअपज्जत्तरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जलोगुवलंभादो ।
पुढविकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥४८॥
विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा तेउक्काइयअपज्जत्ताणमसंखेज्जदिमागो। को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा ।
आउक्काइयअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ४९ ॥
केत्तिओ विसेसो ? असंखेज्जा लोगा पुढविकाइयाणमसंखेज्जदिमागो। को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
वाउक्काइयअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ५० ॥
विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा आउकाइयाणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
त्रसकायिक अपर्याप्तोंसे तेजस्कायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥४७।।
यहां गुणकार असंख्यात लोक है, क्योंकि, त्रसकायिक अपर्याप्त जीवोंका तेजस्कायिक अपर्याप्त राशिमें भाग देनेपर असंख्यात लोक उपलब्ध होते हैं।
तेजस्कायिक अपर्याप्तोंसे पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥४८॥
विशेषका प्रमाण तेजस्कायिक जीवोंके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात लोक है। प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है ।
पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे अप्कायिक अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥४९॥
विशेष कितना है ? पृथिवीकायिक जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोकप्रमाण विशेष है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
अप्कायिक अपर्याप्तोंसे वायुकायिक अपर्याप्त जीव विशेष आधिक हैं ॥५०॥
विशेषका प्रमाण अप्कायिक जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक है। प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
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५७ छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ११, ५१. तेउक्काइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा ॥ ५१ ॥ कुदो ? विस्ससादो । एत्थ तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाणि गुणगारो । पुढविकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ५२ ॥
विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा तेउकाइयपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
आउकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ५३॥
विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा पुढविकाइयपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
वाउकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ५४॥
विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा आउकाइयपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
अकाइया अणंतगुणा ॥ ५५॥
वायुकायिक अपर्याप्तोंसे तेजस्कायिक पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं ॥ ५१ ॥ क्योंकि, ऐसा स्वभावसे है। यहां तत्प्रायोग्य संख्यात रूप गुणकार है। तेजस्कायिक पर्याप्तोंसे पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥५२॥
विशेषका प्रमाण तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक है। प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
पृथिवीकायिक पर्याप्तोंसे अप्कायिक पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ५३ ॥
विशेषका प्रमाण पृथिवीकायिक पर्याप्त. जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
अप्कायिक पर्याप्तोंसे वायुकायिक पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ५४ ॥
विशेषका प्रमाण अप्कायिक जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक है। प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
वायुकायिक पर्याप्तोंसे अकायिक जीव अनन्तगुणे हैं ॥ ५५ ।।
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२, ११, ५९. ] अप्पाबहुगाणुगमे कायमगणा
[५३५ कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तवाउकाइयपज्जत्तएहि अकाइएसु ओवडिदेसु अर्णतस्वावलंभादो।
वणप्फदिकाइयअपज्जत्ता अणंतगुणा ॥ ५६ ॥
गुणगारो अभवसिद्धिएहितो सिद्धेहिंतो सव्वजीवाणं पढमवग्गमूलादो वि अणंतगुणो । कुदो ? अकाइएहि ओवट्टिदकिंचूणसधजीवरासिसंखेज्जदिभागपमाणत्तादो ।
वणफदिकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा ॥ ५७ ॥ एत्थ गुणगारो तप्पाओग्गसंखेज्जसमया । वणप्फदिकाइया विसेसाहिया ।। ५८ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? वणप्फदिकाइयअपज्जत्तमेत्तो। णिगोदा विसेसाहिया ॥ ५९॥
केत्तियमेत्तो विसेसो ? बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरबादराणिगोदपदिद्विदमेत्तो । अण्णेणेक्केण पयारेण अप्पाबहुगपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
क्योंकि, असंख्यात लोकमात्र वायुकायिक पर्याप्त जीवों द्वारा अकायिक जीवोंके अपवर्तित करनेपर अनन्त रूप उपलब्ध होते हैं।
अकायिकोंसे वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव अनन्तगुणे हैं ।। ५६ ॥
यहां गुणकार अभव्यसिद्धिकों, सिद्धों और सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा है, क्योंकि, उक्त गुणकार अकायिक जीवोसे अपवर्तित कुछ कम सर्व जीवराशिके संख्यातवें भागप्रमाण है।
वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव संख्यातगणे हैं ॥५७॥
यहां गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात समयप्रमाण है। वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे वनस्पतिकायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ ५८ ॥ विशेष कितना है ? वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवों के प्रमाण है। वनस्पतिकायिकोंसे निगोदजीव विशेष अधिक हैं ॥ ५९ ॥
विशेष कितना है ? बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर बादर-निगोद-प्रतिष्ठित जीवोंके बराबर है । अन्य एक प्रकारसे अल्पबहुत्वके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं।
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ११, ६०. सम्वत्थोवा तसकाइया ॥ ६०॥ कुदो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो । बादरतेउकाइया असंखेजगुणा ॥ ६१ ॥ कुदो ? तसकाइएहि बादरतेउकाइएसु आवहिदेसु असंखेज्जलोगुवलंभादो। बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ ६२ ॥
एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा। गुणगारद्धछेदणसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदं कुदो वगम्मदे ? गुरूवदेसादो ।
बादरणिगोदजीवा णिगोदपदिट्ठिदा असंखेजगुणा ॥ ६३ ॥
गुणगारपमाणमसंखेज्जा लोगा । तस्सद्धछेदणयसलागाओ पलिदोबमस्स असंखेज्जदिभागो।
त्रसकायिक जीव सबमें स्तोक हैं ॥ ६ ॥ क्योंकि, वे जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । त्रसकायिकोंसे बादर तेजस्कायिक जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६१ ॥
क्योंकि, प्रसकायिक जीवों द्वारा बादर तेजस्कायिक जीवोंके अपवर्तित करनेपर असंख्यात लोक उपलब्ध होते हैं।
बादर तेजस्कायिकोंसे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६२॥
यहां गुणकार असंख्यात लोक है। गुणकारकी अर्द्धच्छेदशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
शंका - यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान- यह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है।
बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंसे बादर निगोदजीव निगोदप्रतिष्ठित असंख्यातगुणे हैं ॥ ६३ ॥
गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है। उसकी अर्द्धच्छेदशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
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२, ११, ६७.] अप्पाबहुगाणुगमे कायमग्गणा
बादरपुढविकाइया असंखेज्जगुणा ॥ ६४॥
गुणगारपमाणमसंखेज्जा लोगा। तेसिमद्धछेदणयसलागाओ पलिदोयमस्स असंखेन्जदिभागो।
बादरआउकाइया असंखेजगुणा ॥ ६५ ॥
एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा। तस्सद्धछेदणयसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।
बादरवाउकाइया असंखेज्जगुणा ॥ ६६॥
एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा। गुणगारद्धछेदणयसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बादरवाउकाइयाणं पुण अद्धछेदणयसलागा संपुण्णं सागरोवमं ।
सुहुमतेउकाइया असंखेज्जगुणा ॥ ६७ ॥
एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा। गुणगारद्धछेदणयसलागाओ वि असंखेज्जा लोगा।
बादर निगोद जीव निगोदप्रतिष्ठितोंसे बादर पृथिवीकायिक जीव असंख्यातगुणे हैं ।। ६४ ॥
गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है । उनकी अर्द्धच्छेदशलाकायें पल्योपमके भसंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
चादर पृथिवीकायिकोंसे बादर अप्कायिक जीव असंख्यातगुणे हैं ।। ६५ ॥
यहां गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । उसकी अर्द्धच्छेदशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं।
बादर अप्कायिकोंसे बादर वाउकायिक जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६६ ॥ ___ यहां गुणकार असंख्यात लोक है । गुणकारकी अर्द्धच्छेदशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । परन्तु बादर वायुकायिक जीवोंकी अर्द्धच्छेदशलाकायें सम्पूर्ण सागरोपमप्रमाण हैं।
बादर वायुकायिकोंसे सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६७॥
यहां गुणकार असंख्यात लोक है। गुणकारकी अर्द्धच्छेदशलाकायें भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं।
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५३८] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, ११, ६८. सुहुमपुढविकाइया विसेसाहिया ॥ ६८ ॥
एत्थ विसेसपमाणं असंखेज्जा लोगा सुहुमतेउकाइयाणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
सुहुमआउकाइया विसेमाहिया ॥ ६९ ॥
विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा सुहुमपुढविकाइयाणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा ।
सुहुमवाउकाइया विसेसाहिया ॥ ७० ॥
को विसेमो ? असंवेज्जा लोगा सुहमआउकाइयाणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
अकाइया अणंतगुणा ॥ ७१ ॥ एत्थ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । बादरवणप्फदिकाइया अणंतगुणा ॥ ७२ ॥
सूक्ष्म तेजस्कायिकोंम सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव विशप अधिक है ॥ ६८॥
यहां विशेषका प्रमाण सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यात लोक है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
सूक्ष्म पृथिवीकायिकोंसे सूक्ष्म अकायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६९ ।।
यहां विशेषका प्रमाण सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यात लोक है। प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
सूक्ष्म अप्कायिकोंसे मूक्ष्म वायुकायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ ७० ॥
विशेष कितना है ? सूक्ष्म अप्कायिक जीवॉक असंख्यातवें भाग असंख्यात लोकप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
सूक्ष्म वायुकायिकोंसे अकायिक जीव अनन्तगुण हैं ॥ ७१ ।। यहां गुणकार अभव्यसिद्धिक जीवोसे अनन्तगुणा है। अकायिक जीवोंसे बादर वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणे हैं ॥ ७२ ॥
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२, ११, ७५.] अप्पाबहुगाणुगमे कायमगंगणा
( ५३९ एत्थ गुणगारो अभवसिद्धिएहिंतो सिद्धेहिंतो सत्यजीवाणं पढमवग्गमूलादो वि अणंतगुणो । कुदो ? गुणगारस्स सधजीवरासिअसंखेज्जदिमागत्तांदो । ण च अकाइया सव्वजीवाणं पढमवग्गमूलमेत्ता अन्थि, तस्स पढमयम मूलस्स अणंतभागत्तादो ।
सुहुमवणप्फदिकाइया असंखेज्जगुणा ॥ ७३ ॥ को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। सेमं सुगमं । वणफदिकाइया विसेसाहिया ॥ ७४ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? बादरवण फदिकाइयमेत्तो ।
अण्णेसु सुतेसु सव्वाइरियसंमदेसु एत्थेव अप्पाबहुगसमत्ती होदि, पुणो उवरिमअप्पाबहुगपयारस्स प्रारंभो । एन्थ पुग सुतेसु अप्पायहुगसमत्ती ण होदि ।
णिगोदजीवा विसेसाहिया ॥ ७५॥ एत्थ चोदगो भणदि-णि कलमेदं सुत्तं, वणफदिकाइएहितो पुधभूद
यहां गुणकार अभव्यसिद्धिको, सिद्धों और सर्व जीवों के प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा है, क्योंकि, गुणकार सर्व जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । और अकायिक जीव सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है नहीं, क्योंकि, वह प्रथम वर्गमूल अकायिक जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण है।
बादर वनस्पतिकायिकों से सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव असंख्यातगुणे हैं ॥७३॥ गुणकार कितना है ? असंख्यात लोकप्रमाग है । शास्त्रार्थ सुगम है । सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंसे वनस्पतिकायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ ७४ ॥ विशेष कितना है ? बादर वनस्पतिकायिक जीवों के बराबर है।
सर्व आचार्योंसे सम्मत अन्य सूत्रोंमें यहां ही अल्पवहुत्वकी समाप्ति होती है, पुनः आगेके अल्पवहुत्वप्रकारका प्रारम्भ होता है। परन्तु इन सूत्रों में अल्प बहुत्यकी यहां समाप्ति नहीं होती।
वनस्पतिकायिकोंसे निगोद जीव विशेष अधिक हैं ॥ ७५ ॥ शंका-यहां शंकाकार कहता है कि यह सूत्र निष्फल है, क्योंकि, वनस्पति
५ प्रतिषु ' समुद्देसु ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु — पुव्वभूद- ' इति पाठः ।
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५४.]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११, ७५. णिगोदाणमणुवलंभादो । ण च वणप्फदिकाइएहिंतो पुधभूदा पुढविकाइयादिसु णिगोदा अस्थि त्ति आइरियाणमुवदेसो जेणेदस्स वयणस्स सुत्तत्तं पसज्जदे इदि ? एत्थ परिहारो बुच्चदे-होदु णाम तुम्भेहि वुत्तस्स सच्चत्तं, बहुएसु सुत्तेसु वणफदीणं उवरि णिगोदपदस्स अणुवलंभादो णिगोदाणमुवरि वणफदिकाइयाणं पढणस्सुवलंभादो बहुएहि आइरिएहि संमदत्तादों च । किं तु एवं सुत्तमेव ण होदि त्ति णावहारणं काउं जुतं । सो एवं भणदि जो चोद्दसपुव्वधरो केवलणाणी वा । ण च वट्टमाणकाले ते अत्थि, ण च तेसि पासे सोदणागदा वि संपहि उवलम्भंति । तदो थप्पं काऊण बे वि सुत्ताणि सुत्तासायणभीरूहि आइरिएहि वक्खाणेयव्याणि ति। णिगोदाणमुवरि वणप्फदिकाइया विसेसाहिया होति बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरमेत्तेण, वणप्फदिकाइयाणं उवरि णिगोदा पुण केण विसेसाहिया होति त्ति भणिदे वुच्चदे । तं जहा- वणप्फदिकाइया त्ति वुत्ते बादरणिगोदपदिद्विदापदिह्रिदजीवा ण घेतव्या। कुदो ? आधेयादो आधारस्स भेददसणादो ।
कायिक जीवोंसे पृथग्भूत निगोद जीव पाये नहीं जाते । तथा वनस्पतिकायिक जीवोसे पृथग्भूत पृथिवीकायिकादिकों में निगोद जीव हैं ' ऐसा आवार्योंका उपदेश भी नहीं है, जिससे इस वचनको सूत्रत्वका प्रसंग हो सके ?
समाधान-यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं- तुम्हारे द्वारा कहे हुए वचनमें भले ही सत्यता हो, क्योंकि, बहुतसे सूत्रोंमें वनस्पतिकायिक जीवोंके आगे 'निगोद' पद नहीं पाया जाता, निगोद जीवोंके आगे वनस्पतिकायिकोंका पाठ पाया जाता है, और ऐसा बहुतसे आचार्योंसे सम्मत भी है । किन्तु 'यह सूत्र ही नहीं है ' ऐला निश्चय करना उचित नहीं है । इस प्रकार तो वह कह सकता है जो कि चौदह पूर्वोका धारक हो अथवा केवलज्ञानी हो । परन्तु वर्तमान कालमें न तो वे दोनों है और न उनके पास में सुनकर आये हुए अन्य महापुरुष भी इस समय उपलब्ध होते हैं । अत एव सूत्रकी आशातना (छेद या तिरस्कार) से भयभीत रहनेवाले आचार्यों को स्थाप्य समझ कर दोनों ही सूत्रोंका व्याख्यान करना चाहिये ।
शंका-निगोद जीवोंके ऊपर वनस्पतिकायिक जीव बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर मात्रसे विशेषाधिक होते हैं, परन्तु वनस्पतिकायिक जीवोंके आगे निगोदजीव किससे विशेषाधिक होते हैं ?
समाधान-उपर्युक्त शंकाका उत्तर इस प्रकार देते हैं- 'वनस्पतिकायिक जीव' ऐसा कहनेपर बादर निगोंदोंसे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवोंका ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, आधेयसे, आधारका भेद देखा जाता है।
१ प्रतिषु — पदणस्सुवलंमादो ' इति पाठः।
२ प्रतिषु — समुदत्तादो' इति पाः ।
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२, ११, ७५.]
अप्पाबहुगाणुगमे कायमगणा वणप्फदिणामकम्मोदइल्लत्तणेण सव्वेसिमेगत्तमत्थि त्ति भणिदे होदु तेण एगतं, किंतु तमेत्थ अविवक्खियं, आहार-अणाहारत्तं चैव विवक्खियं । तेण वणप्फदिकाइएसु बादरणिगोदपदिहिदापदिद्विदा ण गहिदा । वणप्फदिकाइयाणमुवरि । णिगोदा विसेसाहिया' त्ति भणिदे बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरेहि बादरणिगोदपदिढिदेहि य विसेसाहिया । बादरणिगोदपदिद्विदापदिहिदाणं कधं णिगोदववएसो ? ण, आहारे आहेओवयारादो तेसिं णिगोदत्तसिद्धीदो। वणफदिणामकम्मोदइल्लाणं सव्वेसि वणप्फदिसण्णा सुत्ते दिस्सदि । बादरणिगोदपदिद्विदअपदिद्विदाणमेत्थ सुत्ते वणप्फदिसण्णा किण्ण णिहिट्ठा ? गोदमो एत्थ पुच्छेयव्यो। अम्हेहि गोदमो बादरणिगोदपदिद्विदाणं वणप्फदिसणं णेच्छदि त्ति तस्स अहिप्पाओ कहिओ।
शका-वनस्पति नामकर्मके उदयसे संयुक्त होने की अपेक्षा सोंके एकता है ?
समाधान-वनस्पति नामकर्मोदयकी अपेक्षा उससे एकता रहे, किन्तु उसकी यहां विवक्षा नहीं है। यहां आधारत्व और अनाधारत्वकी ही विवक्षा है। इस कारण वनस्पतिकायिक जीवों में बादर निगोदासे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवोका ग्रहण नहीं किया गया।
वनस्पतिकायिक जीवोंके ऊपर निगोदजीव विशेष अधिक हैं' ऐसा कहनेपर बादर निगोद जीवोंसे प्रतिष्टित बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंसे विशेष अधिक हैं (ऐसा समझना चाहिये )। .
शंका-बादर निगोदजीवोंसे प्रतिष्ठित अप्रतिष्टित जीवोंके 'निगोद ' संज्ञा कैसे घटित होती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, आधारमें आधेयका उपचार करनेसे उनके निगोदत्य सिद्ध होता है।
शंका-वनस्पति नामकर्मके उदयसे संयुक्त सब जीवोंके 'वनस्पति' संज्ञा सूत्र में देखी जाती है। बादर निगोदजीवोसे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवोंके यहां सूत्रमें वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं निर्दिष्ट की ?
समाधान -- इस शंकाका उत्तर गोतमसे पूछना चाहिये । हमने तो ' गौतम बादर निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित जीवोंके ' वनस्पति' संशा नहीं स्वीकार करते' इस प्रकार उनका अभिप्राय कहा है।
१ प्रतिषु मेत्त' इति पार
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छक्खंडागमे खुदाबंधो
पुणो अण्णेण पयारेण अप्पाहुगपरूवणमुत्तरमुत्तं भणदिसव्वत्थोवा बादरतेउकाइयपज्जत्ता ॥ ७६ ॥ कुदो ? असंखेज्जपदरावलियपमाणत्तादो । तसकाइयपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ७७ ॥
एत्थ गुणगारो जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो । कुदो ? असंखेज्जपदरंगुले हि ओट्टिदजगपदरप्पमाणत्तादो ।
५४२ ]
तसकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ७८ ॥
गुणगारो आवलिया असंखेज्जदिभागो । कुदो ? तस अपज्जत अवहारकालेण तमुपज्जत्त अवहारकाले भागे हिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागोवलंभादो । वणफदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ७९ ॥
गुणगारो पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागो । कुदो ? बादरवणष्फदिपत्तेयसरीरपज्जत अवहारकालेन तसकाइयअवहारकाले भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदि
[ २, ११, ७६.
JAAN
फिर भी अन्य प्रकार से अल्पबहुत्व के निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
बादर तेजस्कायिक जीव सबमें स्तोक हैं ।। ७६ ।।
क्योंकि, वे असंख्यात प्रतरावलीप्रमाण हैं ।
बादर तेजस्कायिकोंसे त्रसकायिक पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ।। ७७ ।। यहां गुणकार जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि वह असंख्यात प्रतरांगुलों से अपवर्तित जगप्रतरप्रमाण है ।
कायिक पर्याप्तोंसे सकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ७८ ॥
यहां गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, त्रस अपर्याप्त जीवोंके अवहारकाल से त्रस पर्याप्त जीवोंके अवहारकालको भाजित करनेपर आवलीका असंख्यातवां भाग लब्ध होता है ।
कायिक अपर्याप्तोंसे वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव असंख्यात - गुण हैं ॥ ७९ ॥
यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, बादरवनस्पतिकाधिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके अवहारकालसे असकायिक जीवोंके अवहारकालको भाजित
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२, ११, ८१. ] अप्पाबहुगाणुगमे कायमग्गणा
[ ५४३ भागुवलंभादो।
बादरणिगोदजीवा णिगोदपदिट्ठिदा पज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ८० ॥
वादरणिगोदजीवणिदेसो किमढे कदो, बादरणिगोदपदिद्विदा चि वत्तव्बं ? ण, बादरणिगोदपदिट्ठिदाणं णिगोदजीवाधाराण सयं पत्तेयसरीराणमुवयारबलेण णिगोदजीवसण्णा एत्थ होदु त्ति जाणावणटुं कदो । गुणगारो आवलियाए असंखज्जदिभागो। कुदो ? बादरणिगोदपदिद्विदअवहारकालेण बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअवहारकाले भागे हिदे अवलियाए असंखेज्जदिभागुवलंभादो ।
बादरपुढविकाइयपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ८१ ॥ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिमागो । कारणं पुव्वं व वत्तव्यं ।
करनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है ।
वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंसे चादर निगोदजीव निगोद-प्रतिष्ठित पर्याप्त असंख्यातगुणे हैं ।। ८० ।।
शंका- 'बादर निगोद जीव' का निर्देश किस लिये किया, बादर-निगोइप्रतिष्टित ' इतना ही कहना चाहिये ?
समाधान नहीं, क्योंकि, निगोदजीवोंके आधारभूत व स्वयं प्रत्येकशरीर ऐसे बादर निगोदजीवोंसे प्रतिष्ठित जीवोंको यहां उपचारके बलसे 'निगोदजीव' संज्ञा हो इस बातके शापनार्थ 'बादर निगोदजीच' का निर्देश किया है। गुणकार यहां आवलीका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, बादर-निगोद-प्रतिष्ठित जीवोंके अवहारकालसे बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके अवहारकालको भाजित करनेपर आवलीका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है।
___ बादर निगोदजीव निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंसे बादर पृथिवकिायिक पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ८१ ॥
गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है । कारण पहिलेके समान कहना चाहिये।
१ प्रतिषु ' जीवाधारणं' इति पाठः ।
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५५४ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ११, ८२. बादरआउकाइयपज्जत्ता असंखेज्जगुणा॥ ८२ ॥ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कारणं पुज्यं व वत्तव्यं । बादरवाउकाइयपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ८३ ॥
गुणगारो असंखेज्जाओ सेडीओ पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ । हेहिमरासिणा उवरिमरासिमोवट्टिय सव्वत्थ गुणगारो उप्पाएदयो ।
बादरतेउअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ८४ ॥
गुणगारो असंखेज्जा लोगा। गुणगारद्धच्छेदणयसलागाओ सागरोवर्म' पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणयं ।।
बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरअपजत्ता असंखेजगुणा ॥८५॥
गुणगारपमाणमसंखेज्जा लोगा। गुणगारद्धच्छेदणयसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।
बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंसे बादर अप्कायिक पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ८२ ॥
गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है । कारण पहिलेके समान कहना चाहिये।
बादर अप्कायिक पर्याप्तोंसे बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ।। ८३ ॥
यहां गुणकार प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणी है। अधस्तन राशिसे उपरिम राशिका अपवर्तन कर सर्वत्र गुणकार उत्पन्न करना चाहिये ।
बादर वायुकायिक पर्याप्तोंसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ८४ ॥
यहां गुणकार असंख्यात लोक है। गुणकारकी अर्द्धच्छेदशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन सागरोपमप्रमाण हैं।
बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तोंसे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ८५॥
गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है। गुणकारकी अर्द्धच्छेदशलाकायें पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
१ अप्रतौ ' सागरोवमं' इति पाठः नास्ति ।
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२, ११, ८९.] अप्पाबहुगाणुगमे कायमग्गणा
[५४५ बादरणिगोदजीवा णिगोदपदिट्टिदा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥८६॥
___एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा। तेसिं छेदणाणि पलिदोवमस्स असंखेनदिभागो ।
बादरपुढविकाइया अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ८७ ॥ गुणगारो असंखेज्जा लोगा । तेसिं छेदणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । वादरआउकाइयअपज्जत्ता असंखज्जगुणा ॥ ८८ ॥ गुणगारो असंखेज्जा लोगा । तेसिं छेदणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बादरवाउअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ८९ ॥
गुणगारपमाणमसंखेज्जा लोगा। तेसिं छेदणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।
बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंसे निगोदप्रतिष्ठित बादर निगोदजीव अपर्याप्त असंख्यातगुणे हैं ।। ८६ ॥
यहां गुणकार असंख्यात लोक है। उनके अर्द्धच्छेद पल्योपमके असंख्यातर्षे भागप्रमाण हैं।
निगोदप्रतिष्ठित बादर निगोद जीव अपर्याप्तोंसे वादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ।। ८७ ॥
गुणकार असंख्यात लोक है । उनके अर्द्धच्छेदं पल्योपमके असंख्यातवें भाग. प्रमाण है।
बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे बादर अप्कायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ८८ ॥
गुणकार असंख्यात लोक है । उनके अर्द्धच्छेद पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
बादर अप्कायिक अपर्याप्तोंसे बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे
गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है। उनके अर्धच्छेद् पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
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५४६) छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ११, ९०. सुहुमतेउकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ९॥ गुणगारपमाणमसंखेज्जा लोगा। तेसिं छेदणाणि वि असंखेज्जा लोगा। सुहमपुढविकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ९१ ॥
केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेज्जा लोगा सुहुमतेउकाइयाणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा ।
सुहुमआउकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ९२ ॥
केत्तियो विसेसो ? असंखेज्जा लोगा सुहुमपुढविकाइयाणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
सुहुमवाउकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ९३ ॥
विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा सुहुमआउकाइयाणमसंखेञ्जदिभागो । तेसिं को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
बादर वायुकायिक अपर्याप्तोंसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ९०॥
गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है । उनके अर्धच्छेद भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं।
सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तोंसे सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ९१॥
विशेष कितना है ? सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोकप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ९२ ॥
विशेष कितना है ? सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोकप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तोंसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ९३ ॥
विशेषका प्रमाण सूक्ष्म अप्कायिक जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक है। उनका प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
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२, ११, १७. ]
अपात्रहुगागमे कायमग्गणा
सुहुमतेउकाइयपज्जता संखेज्जगुणा ॥ ९४ ॥ एत्थ गुणगारो तप्पा ओग्गसंखेज्जसमया ।
सुहुमपुढविकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ९५ ॥ विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा सुहुमते उकाइय पज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । पडिभागो असंखेज्जा लोगा ।
सुहुमआउकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ९६॥
विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा सुहुम पुढविकाइयपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ! असंखेज्जा लोगा ।
[ ५४७
सुहुमवाउकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ९७ ॥
विसेसपमाणमसंखेज्जा लोगा सुहुमआउकाइयपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा ।
सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तोंसे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं ॥ ९४ ॥
यहां गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात समय है ।
सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तोंसे सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ९५ ॥
विशेषका प्रमाण सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त जीवों के असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक है | प्रतिभाग असंख्यात लोक है ।
सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तोंसे सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ९६ ॥
विशेषका प्रमाण सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है ।
सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्तोंसे सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं
॥ ९७ ॥
विशेषका प्रमाण सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्त जीवोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है ।
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५१८
छक्खंडागमे खुदाबंधो । [२, ११, ९८. अकाइया अणंतगुणा ॥ ९८ ॥
को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । कुदो ? सुहमवाउकाइयपज्जत्तेहि ओवट्टिदअकाइयपमाणत्तादो ।
बादरवणप्फदिकाइयपज्जत्ता अणंतगुणा ॥ ९९ ॥
गुणगारो अभवसिद्धिएहितो सिद्धेहितो सनजीवाणं पढमवग्गमूलादो वि अणंतगुणो । कुदो ? सव्वजीवाणं पढमवग्गमूलादो अणंतगुणहीणेहि अकाइएहि असंखज्जलोगगुणेहि ओवट्टिदसयजीवरासिपमाणत्तादो ।
बादरवणप्फदिकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ १०० ॥ को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। बादरवणप्फदिकाइया विसेसाहिया ॥ १०१ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? बादरवणप्फदिकाइयपज्जत्तमेत्तो ।
सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तोंसे अकायिक जीव अनन्तगुणे हैं ॥ ९८ ॥
गुणकार कितना है ? अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त जीवोंसे अपवर्तित अकायिक जीवों के बराबर है ।
अकायिक जीवोंसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव अनन्तगुणे हैं ॥ ९९ ॥
यहां गुणकार अभव्यसिद्धिक जीवों, सिद्धों और सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे अनन्तगुणे हीन असंख्यात लोकगुणे अकायिक जीवोंसे अपवर्तित सर्व जीवराशिप्रमाण है।
बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तासे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ १०॥
गुणकार कितना है ? असंख्यात लोकप्रमाण है ।
बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे बादर वनस्पतिकायिक जीव विशेष अधिक हैं ।। १०१॥
विशेष कितना है ? बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवोंके बराबर है।
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२, ११, १०६.] अप्पाबहुगाणुगमे कायमगणा
[ ५४९ सुहमवणप्फदिकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ १०२ ॥ को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। सुहुमवणप्फदिकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा ॥ १०३ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । सुहुमवणप्फदिकाइया विसेसाहिया ॥ १०४ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? सुहुमवणप्फदिकाइयअपज्जत्तमेत्तो । वण'फदिकाइया विसेसाहिया ॥ १०५ ॥
केत्तियमेत्तो विसेसो ? बादरवणप्फदिकाइयमेत्तो । बादरवणप्फदिकाइएसु बादरणिगोदपदिट्ठिदापदिद्विदा ण अस्थि, तेसिं वणप्फदिकाइयववएसामावादो ।
णिगोदजीवा विसेसाहिया ॥ १०६ ॥
बादर वनस्पतिकायिकोंसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ १०२॥
गुणकार कितना है ? असंख्यात लोकप्रमाण है।
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं ॥ १०३॥
गुणकार कितना है ? संख्यात समयप्रमाण है।
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव विशेष आधिक हैं ॥ १०४॥
विशेष कितना है ? सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंके बराबर है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंसे वनस्पतिकायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ १०५ ॥
विशेष कितना है? बादर वनस्पतिकायिक जीवोंके बराबर है । बादर वनस्पतिकायिक जीवों में बादर-निगोद-प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीव नहीं है, क्योंकि, उनके 'वनस्पतिकायिक' संज्ञाका अभाव है।
वनस्पतिकायिकोंसे निगोद जीव विशेष अधिक हैं ॥१०६॥
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५५०
छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ११, १०७. केत्तियमेत्तो विसेसो ? बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरेहि बादरणिगोदपदिट्ठिदेहि य पज्जत्तमेत्तो।
जोगाणुवादेण सव्वत्थोवा मणजोगी ॥ १०७ ॥ कुदो ? देवाणं संखेज्जदिभागप्पमाणत्तादो । वचिजोगी संखेज्जगुणा ॥ १०८ ॥
कुदो? पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण वचिजोगिअवहारकालेण संखेज्जपदरंगुलमेत्ते मणजोगिअवहारकाले भागे हिदे संखेज्जरूवोवलंभादो ।
अजोगी अणंतगुणा ॥ १०९ ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो ।
विशेष कितना है ? बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर तथा बादर-निगोद प्रतिष्ठित जीवों सहित पर्याप्त शरीर मात्र आश्रित जीवराशिप्रमाण वह विशेष है।।
विशेषार्थ-ऊपर सूत्र ७५ की टोकामें बतलाया जा चुका है कि प्रस्तुत सूत्रोंमें वनस्पतिकायिक जीवोंके भीतर उन एकेन्द्रिय जीवोंका समावेश नहीं किया गया जो स्वयं अप्रतिष्ठित अर्थात् प्रत्येककाय होते हुए भी बादर निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित हैं। जीवकाण्ड गाथा १९९ के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवों तथा केवली, आहारक व देव-नारकियों के शरीरोंको छोड़ शेष समस्त संसारी पर्याप्त जीवोंके शरीर निगोदिया जीवोंसे प्रतिष्ठित हैं। अतएव निगोद जीवोंके प्रमाण प्ररूपणमें टीकाकार द्वारा बतलाये गये विशेष द्वारा उन्हीं सब राशियोंका ग्रहण किया गया प्रतीत होता है।
योगमार्गणाके अनुसार मनोयोगी जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १०७ ॥ क्योंकि, वे देवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनोयोगियोंसे वचनयोगी संख्यातगुणे हैं ॥ १०८ ॥
क्योंकि, प्रतरांगुलके संख्यातवें भागप्रमाण वचनयोगि-अवहारकालसे संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण मनोयोगि-अवहारकालको भाजित करनेपर संख्यात रूप उपलब्ध
वचनयोगियोंसे अयोगी जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १०९ ॥ गुणकार कितना है ? अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है।
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२, ११, ११४. ]
अप्पा बहुगागमे जोगमग्गणा
कायजोगी अनंतगुणा ॥ ११० ॥
गुणगारो अभवसिद्धिएहिंतो सिद्धेहिंतो सव्यजीव पढमवग्गमूलादो वि अनंतगुणो । अणेण पयारेण जोगप्पा बहुअपरूत्रणमुत्तरमुत्तं भणदि
सव्वत्थोवा आहारमिस्सकायजोगी ।। १११ ॥
सुगमं ।
आहार कायजोगी संखेज्जगुणा ॥ ११२ ॥
को गुणगारो ? दोणि रुवाणि ।
वे उव्वियमिस्सकायजोगी असंखेज्जगुणा ॥ ११३ ॥ गुणगारी जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो ।
सच्चमणजोगी संखेज्जगुणा ॥ ११४ ॥ कुदो ? विस्ससादो
अयोगियोंसे काययोगी अनन्तगुणे हैं ॥ ११० ॥
गुणकार अभव्यसिद्धिकों, सिद्धों और सर्व जीवों के प्रथम वर्गमूल से भी अनन्तगुणा है। अन्य प्रकार से योगमार्गणाकी अपेक्षा अल्पबहुत्वके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं—
[ ५५१
आहारमिश्रकाययोगी सबमें स्तोक हैं ।। ११२ ॥
यह सूत्र सुगम
आहारमिश्रकाययोगियोंसे आहारकाययोगी संख्यातगुणे हैं ॥ ११२ ॥
गुणकार कितना है ? गुणकार दो रूप है ।
आहारकाययोगियोंसे वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंख्यातगुणे हैं ।। ११३ ॥
है 1
गुणकार जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है ।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंसे सत्यमनोयोगी संख्यातगुणे हैं ।। ११४ ॥
क्योंकि, ऐसा स्वभाव से है ।
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५५२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ११, ११५. मोसमणजोगी संखेज्जगुणा ॥ ११५॥
कुदो ? सच्चमणजोगअद्धादो मोसमणजोगअद्धाए संखेज्जगुणत्तादो सच्चमणजोगपरिणमणवारेहिंतो मोसमणजोगपरिणमणवाराणं संखेज्जगुणत्तादो वा ।
सच्च-मोसमणजोगी संखेज्जगुणा ॥ ११६ ॥ एत्थ पुव्वं व दोहि पयारेहि संखेज्जगुणत्तस्स कारणं वत्तव्यं । असच्च-मोसमणजोगी संखेज्जगुणा ॥ ११७ ॥ एत्थ वि पुबिल्लं दुविहकारणं वत्तव्यं । मणजोगी विसेसाहिया ॥ ११८ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? सच्च-मोस सच्चमोसमणजोगिमेत्तो विसेसो । सच्चवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥ ११९ ॥
कारणं ? मणजोगिअद्धादो वचिजोगिअद्धाए संखेज्जगुणत्तादो मणजोगवारेहितो सच्चवचिजोगवाराणं संखेज्जगुणत्तादो वा ।
सत्यमनोयोगियोंसे मृषामनोयोगी संख्यातगुणे हैं ॥ ११५ ॥
क्योंकि, सत्यमनोयोगके कालकी अपेक्षा मृषामनोयोगका काल संख्यातगुणा है, अथवा सत्यमनोयोगके परिणमनवारोंकी अपेक्षा मृषामनोयोगके परिणमनवार संख्यातगुणे हैं।
मृषामनोयोगियोंसे सत्य-मृषामनोयोगी संख्यातगुणे हैं ।। ११६ ।। यहां पूर्वके समान दोनों प्रकारोंसे संख्यातगुणत्वका कारण कहना चाहिये। सत्य मृषामनोयोगियोंसे असत्य मृषामनोयोगी संख्यातगुणे हैं ॥ ११७ ॥ यहां भी पूर्वोक्त दोनों प्रकारका कारण कहना चाहिये । असत्य-मृषामनोयोगियोंसे मनोयोगी विशेष अधिक हैं ॥ ११८ ॥ विशेष कितना है ? सत्य, मृषा और सत्य मृषा मनोयोगियोंके बराबर है। मनोयोगियोंसे सत्यवचनयोगी संख्यातगुणे हैं । ११९ ॥
क्योंकि, मनोयोगिकालसे वचनयोगिकाल संख्यातगुणा है, अथवा मनोयोग पारोंसे सत्यवचनयोगवार संख्यातगुणे हैं ।
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अपात्रहुगागमे जोगमग्गणा
मोसवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥ १२० ॥
एत्थ विपु व दुविकारणं वत्तं । सच्चमोसवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥ १२१ ॥ एत्थ वितं चैव कारणं । darकाय जोगी संखेज्जगुणा ॥ १२२ ॥ कुदो ? मण-वचिजोगद्धाहिंतो कायजोगाए संखेज्जगुणत्तादो । असच्चमोसवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥ १२३ ॥ कुदो ? बीइंदियपज्जत्तजीवाणं गहणादो | वचिजोगी विसेसाहिया ॥ १२४ ॥ केत्तियमेत्तेण ? सच्च-मोस - सच्च मोसवचि जोगिमेत्तेण । अजोगी अनंतगुणा ॥ १२५ ॥
को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो ।
२, ११, १२५. ]
सत्यवचनयोगियों से मृपावचनयोगी संख्यातगुणे हैं ॥ १२० ॥ यहां भी पूर्वके समान दोनों प्रकारका कारण कहना चाहिये । मृषावचनयोगियोंसे सत्य- मृषावचनयोगी संख्यातगुणे हैं ।। १२१ ॥ यहां भी वही उपर्युक्त कारण है ।
सत्य- मृषावचनयोगियोंसे वैक्रियिककाययोगी संख्यातगुणे हैं ।। १२२ ।। क्योंकि, मन वचनयोगकालोंसे काययोगकाल संख्यातगुणा है । वैक्रियिककाययोगियोंसे असत्य - मृषावचनयोगी संख्यातगुणे हैं ॥ १२३ ॥ क्योंकि, यहां द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका ग्रहण किया गया है । असत्य-मृषावचनयोगियोंसे वचनयोगी विशेष अधिक हैं ॥ १२४ ॥
कितने मात्र विशेष से अधिक हैं ? सत्य, मृषा और सत्यमृषा वचनयोगिमात्रविशेष से अधिक हैं ।
वचनयोगियों से अयोगी अनन्तगुणे हैं ।। १२५ ॥
गुणकार कितना है ? अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है ।
[ ५५३
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५५४ ]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११, १२६. कम्मइयकायजोगी अणंतगुणा ॥ १२६ ॥
को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहिंतो सिद्धेहिंतो सधजीवाणं पढमवग्गमलादो वि अणंतगुणो | कुदो ? अंतोमुहुत्तगुणिदअजोगिरासिपमाणेणोवट्टिदसव्यजीवरासिमेत्तत्तादो ।
ओरालियमिस्सकायजोगी असंखेज्जगुणा ॥ १२७ ॥ को गुणगारो ? अंतोमुहुत्तं ।
ओरालियकायजोगी संखेज्जगुणा ॥ १२८ ॥ सुगमं । कायजोगी विसेसाहिया ॥ १२९ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? सेसकायजोगिमेत्तो । वेदाणुवादेण सव्वत्थोवा पुरिसवेदा ॥ १३०॥ कुदो ? संखेज्जपदरंगुलोवाट्टिदजगपदरप्पमाणत्तादो। इथिवेदा संखेज्जगुणा ॥ १३१ ॥
अयोगियोंसे कार्मणकाययोगी अनन्तगुणे हैं ॥ १२६ ॥
गुणकार कितना है ? अभव्यसिद्धिकों, सिद्धों और सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह अन्तर्मुहूर्तसे गुणित अयोगिराशिप्रमाणसे अपवर्तित सर्व जीवराशि
कार्मणकाययोगियोंसे औदारिकमिश्रकाययोगी असंख्यातगुणे हैं ॥ १२७ ॥ गुणकार कितना है ? गुणकार अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । औदारिकमिश्रकाययोगियोंसे औदारिककाययोगी संख्यातगुणे हैं ॥ १२८ ॥ यह सूत्र सुगम है। औदारिककाययोगियोंसे काययोगी विशेष अधिक हैं ॥ १२९ ॥ विशेष कितना है ? शेष काययोगिप्रमाण है। वेदमार्गणाके अनुसार पुरुषवेदी सबमें स्तोक हैं ॥ १३०॥ क्योंकि, वे संख्यात प्रतरांगुलोंसे अपवर्तित जगप्रतरप्रमाण हैं । पुरुषवेदियोंसे स्त्रीवेदी संख्यातगुणे हैं ॥ १३१
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२, ११, १३५. ] अप्पाबहुगाणुगमे वैदमागणी
[५५५ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । अवगदवेदा अणंतगुणा ॥ १३२ ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । णवंसयवेदा अणंतगुणा ॥ १३३ ॥
को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहितो सिद्धेहितो सव्वजीवाणं पढमवग्गालादो अणंतगुणो ।
वेदमग्गणाए अण्णेण पयारेण अप्पाबहुअपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु पयदं। सव्वत्थोवा सणिणqसयवेद. गब्भोवक्कंतिया ॥ १३४ ॥
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपदरंगुलेहि जगपदरम्मि भागे हिदे सण्णिणqसयवेदगठभोवक्कंतिया जेण हॉति तेण थोवा ।
सण्णिपुरिसवेदा गम्भोवक्कंतिया संखेज्जगुणा ॥ १३५ ॥
गुणकार कितना है ? संख्यात समयप्रमाण है। स्त्रीवेदियोंसे अपगतवेदी अनन्तगुणे हैं ॥१३२ ॥ गुणकार कितना है ? अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है । अपगतवेदियोंसे नपुंसकवेदी अनन्तगुणे हैं ॥ १३३ ।।
गुणकार कितना है ? अभव्यसिद्धिकों, सिद्धों और सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे अनन्तगुणा है।
वेदमार्गणा अन्य प्रकार से अल्पबहुत्वके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
यहां पंचेद्रिय तिर्यग्योनि जीवोंका अधिकार है। संज्ञी नपुंसकवेदी ग - पक्रान्तिक जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १३४।।
चूंकि पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र प्रतरांगुलोंका जगप्रतरमें भाग देनेपर संक्षी नपुंसकवेदी गर्भोपक्रान्तिक जीवोंका प्रमाण होता है, अत एव वे स्तोक हैं।
संज्ञी नपुंसक गर्भोपक्रान्तिकोंसे संज्ञी पुरुषवेदी ग पक्रान्तिक जीव संख्यातगुणे हैं ॥ १३५ ॥
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५५६)
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११, १३६. कुदो ? सण्णीसु गब्भजेसु णqसयवेदाणं पाएण संभवाभावादो । सण्णिइथिवेदा गब्भोवक्कंतिया संखेज्जगुणा ॥ १३६ ॥ कुदो ? सण्णिगब्भजेसु पुरिसवेदएहितो बहुआणं इत्थिवेदयाणमुवलंभादो । सणिणqसयवेदा सम्मुच्छिमपज्जत्ता संखेज्जगुणा ॥१३७॥
कुदो ? सण्णिगम्भजेहिंतो सण्णिसम्मुच्छिमाणं संखेज्जगुणत्तादो । सम्मुच्छिमेसु इत्थि-पुरिसवेदा णस्थि । कुदो वगम्मदे ? इस्थि-पुरिसवेदाणं सम्मुच्छिमाधियारे अप्पाबहुगपरूवणाभावादो।
सणिणqसयवेदा सम्मुच्छिमअपज्जत्ता असंखेजगुणा॥१३८॥
को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जादिभागो। कुदो वगम्मदे ? परमगुरूवदेसादो।
क्योंकि, संक्षी गर्भजोंमें नपुंसकवेदियोकी प्रायः सम्भावना नहीं है ।
संज्ञी पुरुषवेदी गीपक्रान्तिकोंसे संज्ञी स्त्रीवेदी ग पक्रान्तिक जीव संख्यात. गुणे हैं ॥ १३६ ॥
क्योंकि, संशी गर्भजों में पुरुषवेदियोंसे स्त्रीवेदी जीव बहुत पाये जाते हैं।
संज्ञी स्त्रीवेदी ग पक्रान्तिकोंसे संज्ञी नपुंसकवेदी सम्मूर्छिम पर्याप्त संख्यातगुणे हैं ॥ १३७॥
क्योंकि, संशी गर्भजोंसे संक्षी सम्मूच्छिम जीव संख्यातगुणे है। सम्मूछिम जीवों में स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं है ।
शंका-यह कहांसे जाना जाता है ?
समाधान-सम्मूच्छिमाधिकारमें स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंके अल्पबहुत्वका प्ररूपण न करनेसे जाना जाता है।
संज्ञी नपुंसकवेदी सम्मूछिम पर्याप्तोंसे संज्ञी नपुंसकवेदी सम्मूच्छिम अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं । १३८ ॥
गुणकार कितना है ? आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शंका-यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान-यह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है।
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२, ११, १४१.1 अप्पाबहुगाणुगमे वेदमागणा
[५५७ सण्णिइत्थि-पुरिसवेदा गम्भोवक्कंतिया असंखेज्जवासाउआ दो वि तुल्ला असंखेज्जगुणा ॥ १३९ ॥
कधं दोहं समाणत्तं ? असंखेज्जवासाउएसु इत्थि-पुरिसजुगलाणं चेव समुप्पत्तीदो । णवुसयवेदा सम्मुच्छिमा च असणिणो च सुविणंतरे वि ण तत्थ संभवंति, अच्चंताभावेण अवहत्थियत्तादो। एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कुदो वगम्मदे ? आइरियपरंपरागयउवएसादो । एदम्हादो अइक्कंतरासीणं सव्वेसि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपदरंगुलाणि जगपदरभागहारो होदि । एत्थ पुण संखेज्जाणि पदरंगुलाणि भागहारो ।
असणिणqसयवेदा गम्भोवक्कंतिया संखेज्जगुणा ॥ १४०॥ . कुदो ? णोइंदियावरणखओवसमस्स पंचिंदिएसु बहुआणमभावादो । असण्णिपुरिसवेदा गम्भोवक्कंतिया संखेज्जगुणा ॥ १४१॥
संज्ञी नपुंसकवेदी सम्मूञ्छिम अपर्याप्तोंसे संज्ञी स्त्रीवेदी व पुरुषवेदी गर्मोपक्रान्तिक असंख्यातवर्षायुष्क दोनों ही तुल्य असंख्यातगुणे हैं ॥ १३९ ॥
शंका-धोनोंफे समानता कैसे है ?
समाधान-क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्कों में स्त्री पुरुष युगलोंकी ही उत्पत्ति होती है। नपुंसकवेदी, सम्मूच्छिम घ असंही जीव स्वप्नमें भी वहां सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, वे अत्यन्ताभावसे निराकृत हैं। यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है।
शंका- यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान-यह आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है।
इससे सब अतिकान्त राशियोंका जगप्रतरभागहार पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र प्रतरांगुलप्रमाण होता है। किन्तु यहां संख्यात प्रतरांगुल भागहार है।
उपर्युक्त जीवोंसे असंज्ञी नपुंसकवेदी गर्भोपक्रान्तिक संख्यातगुणे हैं ॥१४० ॥ क्योंकि, नोइन्द्रियावरणका क्षयोपशम पंचेन्द्रियों में बहुतोंके नहीं होता।
असंज्ञी नपुंसकवेदी गर्भोपक्रान्तिकोंसे असंज्ञी पुरुषवेदी ग पक्रान्तिक संख्यातगुणे हैं ॥ १४१ ॥
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५५८ )
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११, १४२. सुगममेदं । असण्णिइत्थिवेदा गम्भोवक्कंतिया संखेज्जगुणा ॥ १४२ ॥
असंखेजवासाउअइस्थि-पुरिसवेदरासिप्पहुडि जाव असण्णिइत्थिवेदगम्भोवतंतियरासि ति तात्र जगपदरभागहारो संखेज्जाणि पदरंगुलाणि । सेसं सुगमं ।
असण्णी णqसयवेदा सम्मुच्छिमपज्जत्ता संखेज्जगुणा ॥१४३॥
को गुणगारो ? संखेज्जा समया। एत्य जगपदरभागहारो पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागो।
__ असणिणqसयवेदा सम्मुच्छिमा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥१४४॥
को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कसायाणुवादेण सम्वत्थोवा अकसाई ॥ १४५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
असंज्ञी पुरुषवेदी गर्भोपक्रान्तिकोंसे असंज्ञी स्त्रीवेदी गर्भोपक्रान्तिक संख्यात. गुणे हैं ॥ १४२ ।। . असंख्यातवर्षायुष्क स्त्री पुरुषवेदराशिसे लेकर असंही स्त्रीवेदी गर्भोपक्रान्तिक राशि तक जगप्रतरका भागहार संख्यात प्रतरांगुल है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
असंज्ञी स्त्रीवेदी गीपक्रान्तिकोंसे असंज्ञी नपुंसकवेदी सम्मृच्छिम पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं ।। १४३ ॥
गुणकार कितना है ? संख्यात समयप्रमाण है। यहां जगप्रतरभागहार प्रतरांगुलका संख्यातवां भाग है।
असंज्ञी नपुंसकवेदी सम्मूच्छिम पर्याप्तोंसे असंज्ञी नपुंसकवेदी सम्मच्छिम अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ १४४ ॥
गुणकार कितना है ? आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। कषायमार्गणाके अनुसार अकषायी जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १४५ ॥
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२, ११, १५०.
अपात्रहुगागमे णाणमग्गणा
सुगममेदं ।
माणसाई अनंतगुणा ॥ १४६ ॥
गुणगारो सञ्चजीवाणं पढमवग्गमूलादो अनंतगुणा । सेसं सुगमं । को कसाई विसेसाहिया ॥ १४७ ॥
केत्तियमेत्तो विसेसो ? अगंतो माणकसाईणं असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
मायकसाई विसेसाहिया ॥ १४८ ॥
एत्थ विसेसपमाणं पुत्रं व वत्तव्वं । लोभकसाई विसेसाहिया ॥ १४९ ॥ सुगमं ।
णाणाणुवादेण सव्वत्थोवा मणपज्जवणाणी ॥ १५० ॥
कुदो ? संखेज्जतादो ।
[ ५५९
यह सूत्र सुगम है ।
अकषायी जीवोंसे मानक पायी जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १४६ ॥
गुणकार सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे अनन्तगुणा है । शेष सूत्रार्थ सुगम है मानकषायियों से क्रोधकषायी जीव विशेष अधिक हैं || १४७ ॥
विशेष कितना है ? मानकषायी जीवोंके असंख्यातवें भाग अनन्तप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है ।
Phraseria मायाकपायी जीव विशेष अधिक हैं ।। १४८ ॥ यहां विशेषका प्रमाण पूर्वके समान कहना चाहिये । मायाकषायियों से लोभकषायी विशेष अधिक हैं ॥ १४९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
ज्ञानमार्गणा के अनुसार मनःपर्ययज्ञानी जीव सबमें स्तोक हैं ।। १५० ।।
क्योंकि, वे संख्यात हैं ।
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५६० छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ११, १५२. ओहिणाणी असंखेज्जगुणा ॥ १५१ ॥
गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि। कुदो ? संखेज्जरूवगुणिदआवलियाए असंखेज्जदिभागेणावट्टिदपलिदोवम पमाणत्तादो।
आभिणिबोहिय-सुदणाणी दो वि तुल्ला विसेसाहिया ॥१५२॥
को विसेसो ? ओहिणाणीणं असंखेज्जदिभागो ओहिणाणविरहिदतिरिक्ख-मणुससम्माइहिरासी ।
विभंगणाणी असंखेज्जगुणा ॥ १५३ ॥
गुणगारो जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो असंखज्जाओ सेडीओ। कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपदरंगुलेहि ओवट्टिदजगपदरपमाणत्तादो ।
केवलणाणी अणंतगुणा ॥ १५४ ॥
मनःपर्ययज्ञानियोंसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं ॥ १५१ ॥
गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग असंख्यात पल्योपम प्रथम वर्गमूल है, क्योंकि, यह संख्यात रूपोंसे गुणित वलीके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित पल्योपमप्रमाण है।
____ अवधिज्ञानियोंसे आभिनियोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं ॥ १५२॥
विशेष क्या है ? अवधिज्ञानियोंके असंख्यातवें भाग अवधिज्ञानसे रहित तियेच व मनुष्य सम्यग्दृष्टिराशि विशेष है ।
मात-श्रुतज्ञानियास विभंगज्ञानी असंख्यातगुणे हैं ॥ १५३ ॥ - गुणकार जगप्रतरके असंख्यातवें भाग असंख्यात जगश्रेणी है, क्योंकि, वह पल्यापमके असंख्यातवें भागमात्र प्रतरांगुलोंसे अपवर्तित जगप्रतरप्रमाण है।
विभंगज्ञानियोंसे केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं ॥ १५४ ॥
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२, ११, १५८. ]
अप्पाचहुगाणुगमे संजममग्गणा
गुणगारो अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमसंखेज्जदिभागो । मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी दो वि तुल्ला अनंतगुणा ॥ १५५ ॥ गुणगारो अभवसिद्धिएहिंतो सिद्धेहिंतो सब्बजीवपढमवग्गमूलादो वि अनंतगुणो । कुदो ? केवलणाणीहि ओवविदे देसूणसच्चजीवरासिपमाणत्तादो ।
संजमाणुवादेण सव्वत्थोवा संजदा ॥ १५६ ॥ कुदो ! संखेज्जत्तादो ।
संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥ १५७ ॥
गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । कुदो ? संखेज्जरूवगुणिद असंखेज्जावलि ओवट्टिदपलिदोवम पमाणत्तादो । व संजदा णेव असंजदा णेव संजदासंजदा अनंतगुणा ॥ १५८ ॥
गुणकार अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा और सिद्धों के असंख्यातवें भाग
प्रमाण है ।
[ ५६१
केवलज्ञानियोंसे मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञामी दोनों ही तुल्य अनन्तगुणे हैं ॥ १५५ ॥
गुणकार अभव्यसिद्धिकोंसे, सिद्धोंसे और सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूल से भी अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह केवलज्ञानियोंसे अपवर्तित कुछ कम सर्व जीवराशिप्रमाण है । संयममार्गणानुसार संयत जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १५६ ॥
क्योंकि, वे संख्यात हैं ।
संयतों से संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं ॥ १५७ ॥
गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग असंख्यात पल्योपम प्रथम वर्गमूल है, क्योंकि, वह संख्यात रूपोंसे गुणित असंख्यात आवलियोंसे अपवर्तित पल्योपमप्रमाण है । संयतासंयत जीवोंसे न संयत न असंयत न संयतासंयत ऐसे सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १५८ ॥
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ११, १५९.
गुणगारो अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो । कुदो ? असं खेज्जो दिसिद्धपमाणत्तादो । असंजदा अनंतगुणा ॥ १५९ ॥
गुणगारो अर्णताणि सव्वजीवपढमत्रग्गमूलाणि । कुदो ? सिद्धोवट्टिददेसणसब्जीवरासितादो | अण्णेण पयारेण अप्पाबहुगपरूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि - सव्वत्थोवा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा ॥ १६० ॥ सुगमं ।
परिहार सुद्धिसंजदा संखेज्जगुणा ॥ १६९ ॥
गुणगारो संखेज्जसमया । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संखेज्जगुणा ॥ १६२ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । सामाइय-छेदोवडावणसुद्धिसंजदा दो वि तुल्ला संखेज्जगुणा
५६२ ]
॥ १६३ ॥
गुणकार अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा हैं, क्योंकि, वह असंख्यात से ( संयतासंयतों से ) अपवर्तित सिद्धराशिप्रमाण है ।
सिद्धोंसे असंयत जीव अनन्तगुणे हैं ।। १५९
गुणकार अनन्त सर्व जीव प्रथम वर्गमूल है, क्योंकि वह सिद्धोंसे अपवर्तित कुछ कम सर्व जीव राशिप्रमाण है । अन्य प्रकार से अल्पबहुत्व के निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत जीव सबमें स्तोक हैं ।। १६० ।।
यह सूत्र सुगम है
1
सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंसे परिहारशुद्धिसंयत संख्यातगुणे हैं ॥ १६१ ॥ गुणकार संख्यात समय है ।
परिहारशुद्धिसंयतों से यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीव संख्यातगुणे हैं ॥ १६२ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय है । यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंसे सामायिक शुद्धिसंयत और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं ॥ १६३ ॥
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१, ११, १६७. अप्पाबहुगाणुगमे संजममगणा
को गुणगारो ? संखेज्जा समया । संजदा विसेसाहिया ॥ १६४ ॥ सुगमं । संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥ १६५ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।
णेव संजदा व असंजदा व संजदासंजदा अणंतगुणा ॥१६६॥
को गुणगारो ? पुव्यं परूविदो । असंजदा अणंतगुणा ॥ १६७ ॥
सुगमं । संजमट्टिदैजीवाणमप्पाबहुअं भणिय तिव्य-मंद-मज्झिमभेएण द्विदसंजमस्स अप्पाबहुगपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि
गुणकार क्या है ? संख्यात समय है। उक्त दोनों जीवोंसे संयत जीव विशेष अधिक हैं ॥ १६४ ॥ यह सूत्र सुगम है। संयतोंसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं ॥ १६५ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है।
संयतासंयतोंसे न संयत न असंयत न संयतासंयत ऐसे सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं ॥१६६ ॥
गुणकार क्या है ? पूर्वप्ररूपित (अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा) गुणकार है। उनसे असंयत जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १६७ ॥
यह सूत्र सुगम है। संयममें स्थित जीवोंके अल्पबहुत्वको कहकर तीव, मन्द घ मध्यम भेदसे स्थित संयमके अल्प बहुत्वके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
१ अ-आप्रत्योः । संजमम्हि ६८ ठिदि- ' इति पाठः।
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.
५६४
• छक्खंडागमे खुद्दाबंधी (२, ११, १६८. सव्वत्थोवा सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदस्स जहणिया चरित्तलद्धी ॥ १६८ ॥
एदं सचजहणं सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमस्स लट्ठिाणं कस्स होदि ? मिच्छत्तं पडिवज्जमाणसंजदस्स चरिमसमए । एदं सव्वजहणं पडिवादट्ठाणमादि कादून छवड्डिक्कमेण असंखेज्जलोगमेत्तेसु सामाइयच्छेदोवट्ठावणलद्धिट्ठाणेसु गदेसु तदो परिहारसुद्धिसंजदस्स पडिवादजहण्णलद्धिट्ठाणेण समाणं सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमलद्धिट्ठाणं होदि । तदो दोण्हं संजमाणं ठाणाणि छबड्डीए णिरंतरमसंखेज्जलोगमेत्ताणि संजमलद्धिट्ठाणाणि गंतूण परिहारसुद्धिसंजमलद्धिट्ठाणमुक्कस्सं होदि । तदो तेसु तत्थेव थक्केसु पुणो उवरि णिरंतरछवड्डिकमेण असंखेजलोगमेत्ताणि सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमलद्धिद्वाणाणि गच्छंति । तदो असंखेज्जलोगमेत्ताणि छट्ठाणाणि अंतरिदूण सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमस्स जहणं पडिवादलद्धिट्ठाणं होदि । तदो अणंतगुणाए बड्डीए सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमलद्धिट्ठाणाणि अंतोमुहुत्तं गंतूण थकंति । किमट्टमेदाणि अतोमुहुत्त
सामायिक-छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतकी जघन्य चरित्रलब्धि सबमें स्तोक है ॥१६८॥
शंका-सामायिक छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमका यह सर्वजघन्य लब्धिस्थान किसके होता है ?
समाधान-यह स्थान मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले संयतके अन्तिम समयमें होता है।
इस सर्वजघन्य प्रतिपातस्थानको आदि करके षड्वृद्धिक्रमसे असंख्यात लोकमात्र सामायिक छेदोपस्थापनालाब्धस्थानों के व्यतीत होनेपर पश्चात् परिहारशुद्धिसंयतके प्रतिपात जघन्य लब्धिस्थानके समान सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम लब्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् दोनों संयमोंके स्थान छह वृद्धियोंके क्रमसे निरन्तर असंख्यात लोकमात्र संयमलब्धिस्थानोंको विताकर उत्कृष्ट परिहारशुद्धिसंयमलब्धिस्थान होता है। पश्चात् उनके वहींपर विश्रान्त होनेपर पुनः आगे निरन्तर छह वृद्धियोंके क्रमसे असंख्यात लोकमात्र सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमलब्धिस्थान जाते हैं । तत्पश्चात् असंख्यातलोकमात्र छह स्थानोंका अन्तर करके सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयमका जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान होता है । पश्चात् अनन्तगुणित वृद्धिसे सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयमलब्धिस्थान अन्तर्मुहूर्त जाकर थक जाते हैं ।
शंका-ये सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयमलब्धिस्थान अन्तर्मुहूर्तमात्र किस
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२, ११, १६९. ] अप्पाबहुगाणुगमे संजममग्गणा
[ ५६५ मेत्ताणि ? सगद्धाए पढमादिसमएसु द्विदाणं सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं समाणकालाणं विसरिसपरिणाममभावादो। तदो असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि अंतरिदूण जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमलद्विट्ठाणं णिबियप्पतादो अजहण्णमणुक्कस्समेक्कं चेव होदि । तेसिं संदिट्ठी एसा aaaaaa ०००००००००००००००००००००००००००००००००. ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० अंतरं । एत्थ उपरिमपंती सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमाणं, हेट्ठिमा परिहारसुद्धिसंजमस्स ००००००० ००००००००००००००००००००००००००००० अंतरं । एसा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमलट्ठिाणाण' पंत्ती । अ । एदं जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमलट्ठिाणं । एत्थ सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमाणं जहण्णचरित्तलद्धिट्ठाणं सबसंकिलिट्ठसामाइयछेदोवट्ठावणमिच्छत्ताभिमुहचरिमसमयसंजदस्स वुत्तं । तं संदिट्ठीए पढमसुण्णं ति घेत्तव्यं ।
परिहारसुद्धिसंजदस्स जहणिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १६९॥ __ कुदो ? जहण्णचरित्तलद्धिट्ठाणादो उवरि असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि गंतूणु
लिये हैं ?
समाधान-क्योंकि, अपने कालके प्रथमादि समयोंमें स्थित समानकालवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतेकि विसदृश परिणामोंका अभाव है।
तत्पश्चात् असंख्यात लोकमात्र छह स्थानोंका अन्तर करके यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमलब्धिस्थाननिर्विकल्प होनेसे अजघन्यानुत्कृष्ट एक ही होता है। उनकी संदृष्टि यह है aa aa a a ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ०००००००००००००००००००००००००००००० अन्तर। यहां उपरिम पंक्ति सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमोंकी और अधस्तन पंक्ति परिहारशुद्धिसंयमकी है ००००००००००००००००००००००००००००००००००० अन्तर । यह सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयमलब्धिस्थानोंकी पंक्ति है। अ । यह यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमलब्धिस्थान है। यहां सामायिक छेदो. पस्थापनाशुद्धिसंयमोंका जघन्य चरित्रलब्धिस्थान सर्वसंक्लिष्ट मिथ्यात्वाभिमुख हुए सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतके अन्तिम समयमें होता है। इसे संदृष्टिमें प्रथम शून्य ग्रहण करना चाहिये ।
परिहारशुद्धिसंयतकी जघन्य चरित्रलब्धि अनन्तगुणी है ॥ १६९ ।। क्योंकि, वह जघन्य चरित्रलब्धिस्थानसे ऊपर असंख्यात लोकमान छह स्थान
१ प्रतिषु 'संनमलविट्ठाणागि ' इति पाठः ।
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५६६]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११, १७.. प्पत्तीए । एसा परिहारसुद्धिसंजमलद्धी जहणिया कस्स होदि १ सव्वसंकिलिट्ठस्स सामाइयछेदोवट्ठावणाभिमुहचरिमसमयपरिहारसुद्धिसंजदस्स।
तस्सेव उक्कस्सिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७० ॥ कुदो १ असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि उपरि गंतूणुप्पत्तीए ।
सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदस्स उक्कस्सिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७१ ॥
कुदो १ तत्तो उवरि असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि गंतूग सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमस्स उक्कस्सलद्धीए समुप्पत्तीदो। एसा कस्स होदि ? चरिमसमयअणियट्टिस्स।
सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमस्स जहणिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७२॥
जाकर उत्पन्न हुई है।
शंका-यह जघन्य परिहारशुद्धिसंयमलब्धि किसके होती है ?
समाधान-उक्त लब्धि सर्वसंक्लिष्ट सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमके अभिमुख हुए अन्तिमसमयवर्ती परिहारशुद्धिसंयतके होती है।
उसी ही परिहारशुद्धिसंयतकी उत्कृष्ट चरित्रलब्धि अनन्तगुणी है ॥ १७० ॥ क्योंकि, उसकी उत्पत्ति असंख्यात लोकमात्र छह स्थान ऊपर जाकर है ।
सामायिक छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतकी उत्कृष्ट चरित्रलब्धि अनन्तगुणी है ॥ १७१ ॥
क्योंकि, उससे ऊपर असंख्यात लोकमात्र छह स्थान जाकर सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमकी उत्कृष्ट लब्धिकी उत्पत्ति होती है।
शंका-यह लब्धि किसके होती है ? समाधान-अन्तिमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणके होती है। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयमकी जघन्य चरित्रलब्धि अनन्तगुणी है ॥ १७२ ॥
१ प्रतिषु · संजमस्स ' इति पाठः ।
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२, ११, १७४. ] अप्पाबहुगाणुगमे संजममग्गणा
कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि अंतरिदणुपपत्तीदो। एसा कस्स होदि ? उवसमसेडीदो ओयरमाणचरिमसमयसुहमसांपराइयस्स ।
तस्सेव उक्कस्सिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७३ ॥
कुदो ? अणंतगुणाए सेडीए जहण्णादो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूणप्पत्तीदो । एसा कस्स होदि ? चरिमसमयसुहुमसांपराइयखवगस्स ।
जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदस्स अजहण्णअणुक्कस्सिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७४ ॥
कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि अंतरिदूण समुप्पत्तीदो । किमहमेसा लद्धी एयवियप्पा ? कसायाभावेण वड्वि हाणिकारणाभावादो । तेणेव कारणेण अजहण्णा अणुक्कस्सा च । एत्थ केण कारणेण संजमलद्धिट्ठाणप्पाबहुअं भणिदं ? वुच्चदे
क्योंकि, उसकी उत्पत्ति असंख्यात लोकमात्र छह स्थानोंका अन्तर करके है। शंका-यह किसके होती है ?
समाधान- उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले अन्तिमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके होती है।
उसी ही सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयमकी उत्कृष्ट चरित्रलब्धि अनन्तगुणी है ॥ १७३ ॥
क्योंकि, जघन्यके ऊपर अनन्तगुणित श्रेणीरूपसे अन्तर्मुहूर्त जाकर उसकी उत्पत्ति है।
शंका-यह किसके होती है ? समाधान-यह अन्तिमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके होती है।
यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतकी अजघन्यानुत्कृष्ट चरित्रलब्धि अनन्तगुणी है ॥१७४ ॥
क्योंकि, उसकी उत्पत्ति असंख्यात लोकमात्र छह स्थानोंका अन्तर करके है। शंका-यह लब्धि एक विकल्परूप क्यों है ?
समाधान-क्योंकि, कषायका अभाव हो जानेसे उसकी वृद्धि-हानिके कारणका भभाव हो गया है। इसी कारण वह अजघन्यानुत्कृष्ट भी है।
शंका-यहां किस कारणसे संयमलब्धिस्थानोंका अल्पबहुत्व कहा गया है ?
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५६८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ११, १७५. संजदाणं जीवप्पाबहुगसाहणट्ठमागदं । जस्स संजमस्स लट्ठिाणाणि बहुआणि तत्थ जीवा वि बहुआ चेव, जत्थ थोवाणि तत्थ थोवा चेव होंति त्ति । जदि एवं' (तो) जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदाणं सव्वत्थोवत्तं पसज्जदे, णिव्यियप्पेगसंजमलद्धिट्ठाणत्तादो १ ग एस दोसो, अद्धमस्सिदूण तेसिं बहुत्तुवदेसादो ।
दसणाणुवादेण सव्वत्थोवा ओहिदसणी ॥ १७५॥ कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागत्तादो । चखुदंसणी असंखेज्जगुणा ॥ १७६॥
गुणगारो जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ सेडीओ । कुदो ? असंखेज्जपदरंगुलोवट्टिदजगपदरप्पमाणत्तादो।
केवलदंसणी अणंतगुणा ॥ १७७ ॥ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । कुदो ? जगपदरस्स असंखेज्जदिभागेणो
समाधान-इस शंकाका उत्तर कहते हैं। संयत जीवोंके अल्पबहुत्वके साधनार्थ उक्त लब्धिस्थानोंका अल्पबहुत्व प्राप्त हुआ है। जिस संयमके लब्धिस्थान बहुत हैं उसमें जीव भी बहुत ही है, तथा जिस संयमके लब्धिस्थान थोड़े हैं उसमें जीव भी थोड़े ही हैं।
शंका - यदि ऐसा है तो यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंके सबमें स्तोकपनेका प्रसंग आवेगा, क्योंकि, उनके निर्विकल्प एक संयमलब्धिस्थान है।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कालका आश्रय करके उनके बहुत होनेका उपदेश दिया गया है।
दर्शनमार्गणाके अनुसार अवधिदर्शनी सबमें स्तोक हैं ॥ १७५ ॥ क्योंकि, वे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । चक्षुदर्शनी असंख्यातगुणे हैं ॥ १७६ ॥
गुणकार जगप्रतरके असंख्यातवें भाग असंख्यात जगश्रेणियां है, क्योंकि, वह असंख्यात प्रतरांगुलोंसे अपवर्तित जगप्रतरप्रमाण है।
केवलदर्शनी अनन्तमुणे हैं ॥ १७७॥ गुणकार अभव्यासिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह जगप्रतरके
१ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः ।
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२, ११, १८१.] अप्पाबहुगाणुगमे लेस्सामग्गणा
[५६९ वट्टिदसिद्धप्पमाणत्तादो।
अचक्खुदंसणी अणंतगुणा ॥ १७८ ॥
गुणगारो अभवसिद्धिएहितो' सिद्धेहिंतो सबजीवाणं पढमवग्गमूलादो वि अणंतगुणो । कारणं सुगमं ।
लेस्साणुवादेण सव्वत्थोवा सुक्कलेस्सिया ॥ १७९ ॥
कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागप्पमाणत्तादो। तं पि कुदो ? सुट्ठ सुभलेस्साणं समवारण कत्थ वि केसि पि संभवादो ।
पम्मलेस्सिया असंखेज्जगुणा ॥ १८० ॥
गुणगारो जगपदरस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाओ सेडीओ । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण गुणिदपदरंगुलोवट्टिदजगपदरप्पमाणत्तादो ।
तेउलेस्सिया संखेज्जगुणा ॥ १८१ ॥
असंख्यातवें भागसे अपवर्तित सिद्धोक बराबर है।
केवलदर्शनियोंसे अचक्षुदर्शनी अनन्तगुणे हैं ॥ १७८ ॥
गुणकार अभव्यसिद्धिकों, सिद्धों तथा सर्व जीवों के प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा है । कारण सुगम है।
लेश्यामार्गणाके अनुसार शुक्ललेश्यावाले सबमें स्तोक हैं ॥ १७९ ॥ क्योंकि, वे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। शंका-वह भी कैसे?
समाधान-क्योंकि, अतिशय शुभ लेश्याओंका समुदाय कहींपर किन्हींके ही सम्भव है।
शुक्ललेश्यावालोंसे पद्मलेश्यावाले असंख्यातगुणे हैं ॥ १८० ॥
गुणकार जगप्रतरके असंख्यातवें भाग असंख्यात जगश्रेणी है, क्योंकि, वह पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित प्रतरांगुलसे अपवर्तित जगप्रतरप्रमाण है।
पछलेश्यावालोंसे तेजोलेश्यावाले संख्यातगुणे हैं ॥ १८१ ॥
१ अप्रतौ ' अभवसिद्धिएहि अणंतगुणेहितो सिद्धेहितो' इति पाठः ।
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५७० ]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [ २, ११, १८२. कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणं संखेज्जदिभागेण पम्मलेस्सियदव्वेण तेउलेस्सियदव्वे भागे हिदे संखेज्जरूबोवलंभादो।
अलेस्सिया अणंतगुणा ॥ १८२ ॥ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । कारणं सुगमं । काउलेस्सिया अणंतगुणा ॥ १८३ ॥
गुणगारो अभवसिद्धिएहितो सिद्धेहितो सबजीवपढमवग्गमूलादो वि अणतगुणो। कारणं सुगम ।
णीललेस्सिया विसेसाहिया ॥ १८४ ॥
केत्तियो विसेसो ? अणंतो का उलेस्सियाणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
किण्णलेस्सिया विसेसाहिया ॥ १८५॥
केत्तियो विसेसो ? अणतो णीललेस्सियाणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंके संख्यातवें भागप्रमाण पद्मलेश्यावालोंके द्रव्यका तेजोलेश्यावालोंके द्रव्यमें भाग देनेपर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं ।
तेजोलेश्यावालोंसे लेश्यारहित अर्थात् अयोगी व सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं ॥१८२॥ गुणकार अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा है । कारण सुगम है। अलेश्यिकोंसे कापोतलेश्यावाले अनन्तगुणे हैं ॥ १८३ ॥
गुणकार अभव्यसिद्धिकोसे, सिद्धोंसे और सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे भी भनन्तगुणा है। कारण सुगम है ।
कापोतलेश्यावालोंसे नीललेश्यावाले विशेष अधिक हैं ॥ १८४ ॥
विशेष कितना है ? कापोतलेझ्यावालों के असंख्यातवें भाग अनन्त है । प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है।
नीललेश्यावालोंसे कृष्णलेश्यावाले विशेष अधिक है ।। १८५ ।।
विशेष कितना है ? विशेष अनन्त है जो नीललेश्यावालोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है।
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२, ११, १९०.1 अप्पाबहुगाणुगमे सम्मत्तमांगणा
(५७१ भवियाणुवादेण सव्वत्थोवा अभवसिद्धिया ॥ १८६ ॥ कुदो ? जहण्णजुत्ताणंतप्पमाणत्तादो । णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया अणंतगुणा ॥ १८७ ॥ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । कारणं सुगमं । भवसिद्धिया अणंतगुणा ॥ १८८॥ सुगमं । सम्मत्ताणुवादेण सव्वत्थोवा सम्मामिच्छाइट्ठी ॥ १८९ ॥
सासणसम्माइट्ठी सव्वत्थोवा त्ति किण्ण परूविदं ? ण, विवरीयाहिणिवेसेण सेसि समाणत्तं पडुच्च मिच्छाइट्ठीणमंतभावादो, भूदपुब्वियं णयं पडुच्च सम्माइट्ठीणमंतभावादो वा । सेसं सुगम ।
सम्माइट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १९० ॥ गुणगारो आवलियाए असंखेजदिभागो। कारणं सुगमं ।
भव्यमार्गणाके अनुसार अभव्यसिद्धिक जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १८६ ॥ क्योंकि, वे जघन्य युक्तानन्तप्रमाण हैं ।
अभव्यसिद्धिकोंसे न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक ऐसे सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १८७॥
गुणकार अभव्यसिद्धिकोंसे अनन्तगुणा है । कारण सुगम है। उक्त जीवोंसे भव्यसिद्धिक जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १८९ ॥ शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सबमें स्तोक हैं, ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि, विपरीताभिनिवेशसे उनकी समानताको अपेक्षा कर मिथ्यादृष्टियों में अन्तर्भाव हो जाता है, अथवा भूतपूर्व नयका आश्रयकर सम्यग्दृष्टियों में उनका अन्तर्भाव हो जाता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यात गुणे हैं ।। १९० ॥ गुणकार भाषलीका असंख्यातयां भाग है। कारण सुगम है।
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५७१
छखंड गमे खुद्दाबंधो सिद्धा अणंतगुणा ॥ १९१ ॥ सुगमं । मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा ॥ १९२ ॥ एदं पि सुगमं । अण्णेण पयारेण सम्मत्तप्पाबहुगपरूवणमुनरसुतं भणदि--- सव्वत्थोवा सासणसम्माइट्ठी ॥ १९३ ॥ सुगमं । सम्मामिच्छाइट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १९४ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा ससया । उवसमसम्माइट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १९५ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । खइयसम्माइट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १९६ ॥ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो।
सम्यग्दृष्टियोंसे सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं ।। १९१ ॥ यह सूत्र सुगम है। सिद्धोंसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं ॥ १९२ ॥
यह सूत्र भी सुगम है। अन्य प्रकारसे सम्यक्त्वमार्गणामें अल्पबहुत्वके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
सासादनसम्यग्दृष्टि सबमें स्तोक हैं ॥ १९३ ॥ यह सूत्र सुगम है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं ॥ १९४ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं ॥ १९५ ॥ गुणकार क्या है । आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे शायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं ।। १९६ ॥ गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है।
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अप्पा बहुगागमे सणिग्गणा
वेद सम्माट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १९७ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सम्माहट्टी विसेसाहिया ॥ १९८ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? उवसम- खइयसम्माइट्ठिमेत्तो । सिद्धा अनंतगुणा ॥ १९९ ॥
सुगमं ।
२, ११, २०२. ]
सणियाणुवादेण सव्वत्थोवा सण्णी ॥ २०० ॥ कुदो ! पदरस्स असंखेज्जदिभागप्यमाणत्तादो ।
व सण्णी व असण्णी अनंतगुणा ॥ २०१ ॥ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो । कारणं सुगमं । असण्णी अनंतगुणा ॥ २०२ ॥
सुगमं ।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं ॥ १९७ ॥
गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । वेदकसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्दृष्टि विशेष अधिक हैं ।। १९८ ।।
विशेष कितना है ? उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके बराबर है। सम्यग्दृष्टियों से सिद्ध अनन्तगुणे हैं ॥ १९९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
संज्ञिमार्गणा के अनुसार संज्ञी जीव सबमें स्तोक हैं ॥ २०० ॥
क्योंकि, वे जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
संज्ञी जीवोंसे न संज्ञी न असंज्ञी ऐसे जीव अनन्तगुणे हैं ॥ २०१ ॥ गुणकार अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है । कारण सुगम है । उक्त जीवोंसे असंज्ञी जीव अनन्तगुणे हैं ॥ २०२ ॥
यह सूत्र सुगम है।
[ ५७३
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५७४
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११, २०१. आहाराणुवादेण सव्वत्थोवा अणाहारा अबंधा ॥ २०३ ॥ कुदो ? सिद्धाजोगीणं गहणादो। बंधा अणंतगुणा ॥ २०४॥
गुणगारो अणंताणि सव्वजीवाणं पढमवग्गमूलाणि । कुदो ? सन्यजीवाणमसंखेज्जदिभागस्स अणंतभागत्तादो ।
आहारा असंखेज्जगुणा ॥ २०५ ॥
गुणगारो अंतोमुहृत्तं । कुदो ? बंधगअणाहारदव्वेण आहारदव्ये भागे हिदे अंतोमुहुत्तुवलंभादो ।
एवपप्पाबहुगेत्ति समत्तमणिओगदारं ।
आहारमार्गणाके अनुसार अनाहारक प्रबन्धक जीव सबमें स्तोक हैं ॥ २०३ ॥ क्योंकि, यहां सिद्धों और अयोगी जीवोंका ग्रहण किया गया है। अनाहारक अबन्धकोंसे अनाहारक बंधक जीव अनन्तगुणे हैं ।। २०४ ॥
गुणकार सर्व जीवोंके अनन्त प्रथम वर्गमूल हैं, क्योंकि, सर्व जीवोंके असंख्यातवें भागके अनन्तभागत्व है । अर्थात् अनाहारक बंधक जीव सर्व जीव राशिके असंख्यातवें भाग हैं और अनाहारक अबंधक अनन्तवें भाग हैं। अतएव उन दोनोंके बीच गुणकारका प्रमाण अनन्त होगा ही।
अनाहारक बंधकोंसे आहारक जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ २०५ ॥
गुणकार अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, बन्धक अनाहारक द्रव्यका आहारक द्रव्यमें भाग देनेपर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है ।
इस प्रकार अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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- महादंडओ एत्तो सब्वजीवेसु महादंडओ कादब्वो भवदि ॥ १ ॥
समत्तेसु एक्कारसअणियोगद्दारेसु किमट्ठमेसो महादंडओ वोत्तुमाढत्तओ ? वुच्चदे-खुद्दाबंधस्स एक्कारसअणियोगद्दारणिवद्धस्स' चूलियं काऊण महादंडओ वुच्चदे। चूलिया णाम किं ? एक्कारसअणिोगद्दारेसु सूइदत्थस्स विसेसियूण परूवणा चूलिया। जदि एवं तो णेसो महादंड ओ चूलिया, अप्पाबहुगणिओगद्दारसूइदत्थं मोत्तूणण्णत्थ वुत्तत्थाणमपरूवणादो त्ति वुत्ते बुच्चदे- ण च एसो णियमो अस्थि सव्वाणिओगद्दारसूइदत्थाणं विसेसपरूविया चेव चूलिया त्ति, किंतु एक्केण दोहि सव्वेहि वा अणिओगद्दारहि सूइदत्थाणं विसेसपरूवणा चूलिया णाम । तेणेसो महादंडओ चूलिया चेव,
इससे आगे सर्व जीवोंमें महादण्डक करना योग्य है ॥ १॥
शंका-ग्यारह अनुयोगद्वारोंके समाप्त होनेपर इस महादण्डकको कहनेका प्रारम्भ किसलिये किया जाता है ? ।
समाधान -उपर्युक्त शंकाका उत्तर देते हैं- ग्यारह अनुयोगद्वारों में निबद्ध क्षुद्रबन्धकी चूलिका करके महादण्डक कहते हैं ।
शंका-चूलिका किसे कहते हैं ?
समाधान-ग्यारह अनुयोगद्वारोंसे सूचित अर्थकी विशेषता कर प्ररूपणा करना चूलिका कही जाती है ।
शंका-यदि ऐसा है तो यह महादण्डक चूलिका नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, यह अल्पबहुत्वानुयोगद्वारसे सूचित अर्थको छोड़कर अन्य अनुयोगद्वारोंमें कहे गये अर्थोका अप्ररूपक है ?
समाधान--सर्व अनुयोगद्वारोंसे सूचित अर्थोकी विशेष प्ररूपणा करनेवाली ही चूलिका हो यह कोई नियम नहीं है, किन्तु एक दो अथवा सब अनुयोगद्वारोंसे सूचित अर्थोकी विशेष प्ररूपणा करना चूलिका है। इसलिये यह महादण्डक चूलिका
१ प्रतिषु ' -अणियोगद्दारे णिबद्धस्स'; मप्रतो' अणियोगद्दारणिबंधस्स ' इति पाठः ।
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५७६ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ११-२, २. अप्पाबहुगसूइदत्थस्स विसेसिऊग परूवणादो। एवं पोजणसुत्तं परूविय पयदत्थपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
सव्वत्थोवा मणुसपज्जत्ता गम्भोवक्कंतिया ॥२॥
गम्भजा मणुस्सा पज्जत्ता उवरि वुच्चमाणसव्यरासीओ पेक्खिऊण थोवा होति । कुदो ? विस्ससादो । एदे केत्तिया गठभोवक्कंतिया ? मणुस्साणं चदुब्भागो।
मणुसिणीओ संखेज्जगुणाओ ॥ ३ ॥
को गुणगारो ? तिण्णि रूवाणि । कुदो ? मणुस्सगभोवक्कंतियचदुब्भागेण पज्जत्तदव्वेण तस्सेव तिसु चदुभागेसु ओवहिदेसु तिण्णिरूवावलंभादो ।
सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥४॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । के वि आइरिया सत्त रूवाणि, के वि पुण
ही है, क्योंकि, वह अल्पबहुत्वानुयोगद्वारसे सूचित अर्थकी विशेषताकर प्ररूपणा करता है । इस प्रकार प्रयोजनसूत्रको कहकर प्रकृत अर्थके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं---
मनुष्य पर्याप्त गर्भोपक्रान्तिक सबमें स्तोक हैं ॥ २ ॥
गर्भज मनुष्य पर्याप्त आगे कही जानेवाली सब राशियोंकी अपेक्षा स्तोक है, क्योंकि, ऐसा स्वभावसे है।
शंका-ये गर्भोपक्रान्तिक कितने हैं ? समाधान-मनुष्योंके चतुर्थ भागप्रमाण हैं। पर्याप्त मनुष्योंसे मनुष्यनियां संख्यातगुणी हैं ॥ ३ ॥
गुणकार कितना है ? गुणकार तीन रूप है, क्योंकि मनुष्य गोपक्रान्तिकोंके चतुर्थ भागप्रमाण पर्याप्त द्रव्यसे उसके ही तीन चतुर्थ भागोंका अपवर्तन करने पर तीन रूप उपलब्ध होते हैं।
मनुष्यिनियोंसे सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥ ४ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । कोई आचार्य सात रूप, कोई
१ थोवा गब्भयमणुया तत्ती इत्थीओ तिघणगुणियाओ । बायरते उक्काया तासिमसंखेज्ज पज्जसा ।। पं.सं. २, ६५.
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२, ११-२, ६.] अप्पाबहुगाणुगमे महादंडओ
[५७७ चत्तारि रूवाणि के वि सामण्णेण संखेज्जाणि रूवाणि गुणगारो त्ति भणति । तेणेत्थ गुणगारे तिण्णि उवएसा । तिण्णं मज्झे एक्को चिय जच्चोवएसो, सो वि ण णबइ, विसिट्ठोवएसाभावादो । तम्हा तिण्हं पि संगहो काययो ।
बादरतेउकाइयपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥५॥
गइमग्गणमुल्लंघिय मग्गणतरगमणादो असंबद्धमिदं सुत्तं ? ण, अप्पिदमग्गणं मोत्तूण अण्णमग्गणाणमगमणणियमस्स एक्कारसअणिओगद्दारेसु चेव अवट्ठाणादो । एत्थ पुण ण सो णियमो अत्थि, सव्वमग्गणजीवेसु महादंडओ काययो त्ति अब्भुवगमादो। को गुणगारो ? असंखेज्जाओ पदरावलियाओ। कुदो ? सव्वट्ठसिद्धिदेवेहि बादरतेउपज्जत्तरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जाणं पदरावलियाणमुवलंभादो ।
__ अणुत्तरविजय-वैजयंत-( जयंत-) अवराजितविमाणवासियदेवा असंखेज्जगुणा ॥ ६॥
चार रूप और कितने ही आचार्य सामान्यसे संख्यात रूप गुणकार है, ऐसा कहते हैं। इसलिये यहां गुणकारके विषयमें तीन उपदेश हैं। तीनोंके मध्य में एक ही जात्य (श्रेष्ठ) उपदेश है, परन्तु वह जाना नहीं जाता, क्योंकि, इस विषयमें विशिष्ट उपदेशका अभाव है । इस कारण तीनोंका ही संग्रह करना चाहिये।।
बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥५॥ शंका-गति मार्गणाका उल्लंघन कर मार्गणान्तरमें जानेसे यह सूत्र असम्बद्ध है ?
समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि, विवक्षित मार्गणाको छोड़कर अन्य मार्गणाओं में न जानेका नियम ग्यारह अनुयोगद्वारोंमें ही अवस्थित है। किन्तु यहां वह नियम नहीं है, क्योंकि, “सर्व मार्गणाजीवोंमें महादण्डक करना चाहिये' ऐसा माना गया है।
गुणकार क्या है ? असंख्यात प्रतरावलियां गुणकार है, क्योंकि, सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवोंसे बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिके भाजित करनेपर असंख्यात प्रतरावलियां उपलब्ध होती हैं।
अनुत्तरों में विजय, वैजयन्त, ( जयन्त ) और अपराजित विमानवासी देव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६ ॥
१ प्रतिषु । सबट्ठसिद्धेदवेहि ' इति पाठः ।
२ तत्तो शुत्तरदेवा ततो संखेज्ज जाणओ कप्पो । ततो असंखगुणिया सत्तम पट्टी सहस्सारो ॥ पं. सं. २, ६६.
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५७८]
' छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११-२, ७. __ किमहं देवविसेसणं ? तत्थतणपुढविकाइयादिपडिसेहढे । गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । कुदो ? बादरतेउकाइयपज्जत्तदव्वेण गुणिदतत्थतणअवहारकालेण ओवट्टिदपलिदोवमपमाणत्तादो।
अणुदिसविमाणवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ ७ ॥
को गुणगारो ? संखेज्जा समया । कुदो ? मणुस्सेहितो अणुत्तरेसुपज्जमाणजीवे पेक्खिदण तेहिंतो चेत्र अणुदिसविमाणवासियदेवेसुप्पज्जमाणाणं जीवाणं संखेज्जगुणाणमुवलंभादो, विस्ससादो वा ।
उवरिमउवरिमगेवज्जविमाणवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ ८॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । कारणं पुव्वं व परूवेदव्यं । उवरिममज्झिमगेवज्जविमाणवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥९॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया। कारणं सुगमं ।
शंका-यहां 'देव' विशेषण किस लिये है ?
समाधान-वहांके पृथिवीकायिकादि जीवोंके प्रतिषेधार्थ 'देव' विशेषण दिया गया है।
गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग असंख्यात पल्योपम प्रथम वर्गमूल है, क्योंकि, वह बादर तेजस्कायिक पर्याप्त द्रव्यसे गुणित वहांके अवहारकालसे अपवर्तित . पल्योपम प्रमाण है।
अनुदिशविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥ ७॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, मनुष्यों से अनुत्तरोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी अपेक्षा उनमेंसे ही अनुदिशविमानवासी देवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव संख्यातगुणे पाये जाते हैं, अथवा विजयादि अनुत्तरविमानवासी देवोंसे अनुदिशविमानवासी देव स्वभावसे ही संख्यातगुणे हैं ।
उपरिम-उपरिमग्रेवेयकविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ।। ८॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । कारण पूर्वके समान कहना चाहिये।
उपरिम-मध्यमग्रैवेयकविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ।। ९ ।। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। कारण सुगम है।
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२, ११-२, १४.] अप्पाबहुगाणुगमे महादंडओ
[५७९ उवरिमहेट्ठिमगेवज्जविमाणवासियदेवा संखेजगुणा ॥ १० ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । कुदो ? अप्पपुण्णाणं जीवाणं बहुआणं संभवादो। मज्झिमउवरिमगेवज्जविमाणवासियदेवा संखेजगुणा ॥ ११ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया। कुदो ? अप्पाउआणं जीवाणं बहुआणमुवलंभादो। मज्झिममज्झिमगेवज्जविमाणवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ १२ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । कुदो? सव्वत्थ मंदपुण्णजीवाणं बहुत्तुवलंभादो। मज्झिमहेट्ठिमगेवज्जविमाणवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ १३ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया | कुदो ? मंदतवाणं बहुआणमुवलंभादो । हेट्ठिमउवरिमगेवज्जविमाणवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ १४ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । कारणं सुगमं ।
उपरिम-अधस्तनौवेयकविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥१०॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, अल्प पुण्यवाले जीव बहुत सम्भव हैं।
मध्यम-उपरिमग्रेवेयकविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ।। ११ ॥ . गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, अल्पायु जीव बहुत पाये जाते हैं।
मध्यम-मध्यमवयकविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥ १२ ॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, सर्वत्र मन्द पुण्यवाले जीवोंकी बहुलता पायी जाती है।
मध्यम-अधस्तनौवेयकविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥१३॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, मन्द तपवाले जीव बहुत पाये जाते हैं।
अधस्तन-उपरिमौवेयकविमानवासी देव संख्यातगुगे हैं ॥ १४ ॥ गुणकार क्या है ? संण्यात समय गुणकार है । कारण सुगम है।
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५८०]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११-२, १५. हेट्ठिममज्झिमगेवज्जविमाणवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ १५॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । कारणं पुब्बं व वत्तव्यं । हेट्ठिमहेट्ठिमगेवज्जविमाणवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ १६ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया। आरणच्चुदकप्पवासियदेवा संखेजगुणा ॥ १७ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । कारणं सुगमं । आणद-पाणदकप्पवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ १८ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । सत्तमाए पुढवीए णेरड्या असंखेज्जगुणा ॥ १९ ॥
को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेडीपढमवग्गमूलागि । कुदो ? आणद-पाणददव्वेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण सेडिबिदियवग्गमूलं गुणेदण सेडिमोवट्टिदे गुणगारुवलद्धीदो ।
अधस्तन-मध्यमग्रैवेयकविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥ १५ ॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । कारण पूर्वके समान कहना चाहिये।
अधस्तन-अधस्तनोवेयकविमानवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥ १६ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। आरण-अच्युतकल्पवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥ १७ ।। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । कारण सुगम है । आनत-प्राणतकल्पवासी देव संख्यातगुणे हैं ।। १८ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । सप्तम पृथिवीके नारकी असंख्यातगुणे हैं ॥ १९ ॥
गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यात जगश्रेणी प्रथम वर्गमूल गुणकार है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण आनत प्राणत कल्पके द्रव्यसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको गुणितकर जगश्रेणीको अपवर्तित करनेपर उक्त गुणकार उपलब्ध होता है। .
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अपाहुगागमे महादंडओ
aste पुढवीए रइया असंखेज्जगुणा ॥ २० ॥
को गुणगारो ? सेडितदियवग्गमूलं ।
सदार सहस्सार कप्पवासियदेवा असंखेज्जगुणा ॥ २१ ॥ को गुणगारो ? सेडिच उत्थवग्गमूलं ।
२, ११–२, २४. ]
सुक्क महासुक्ककप्पवासियदेवा असंखेज्जगुणां ॥ २२ ॥
को गुणगारो ? सेडिपंचमबग्गमूलं । पंचमढविणेरड्या असंखेज्जगुणा ॥ २३ ॥
को गुणगारो सेट्ठियग्गमूलं ।
लंतव-काविट्टकप्पवासियदेवा असंखेज्जगुणा || २४ ॥
को गुणगारो ? सेडिसत्तमवग्गमूलं ।
छठी पृथिवी नारकी असंख्यातगुणे हैं ।। २० ॥
गुणकार क्या है ? जगत्रेणीका तृतीय वर्गमूल गुणकार है । शतार- सहस्रार कल्पवासी देव असंख्यातगुणे हैं ॥ २१ ॥ गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका चतुर्थ वर्गमूल गुणकार है । शुक्र- महाशुक्रकल्पवासी देव असंख्यातगुणे हैं ॥ २२ ॥ गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका पंचम वर्गमूल गुणकार है । पंचम पृथिवी नारकी असंख्यातगुणे हैं ॥ २३ ॥ गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका छठा वर्गमूल गुणकार है । लान्तव-कापिष्टकल्पवासी देव असंख्यातगुणे हैं ॥ २४ ॥ गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका सातवां वर्गमूल गुणकार है ।
[ ५८१
१ सुकंमि पंचमाए लंतय चोथीए बंम तच्चाए । माहिंद- सणकुमारे दोच्चाए मुकिमा मणया || पं.सं. २, ६६.
२ प्रतिषु पंचमहापुढवी- ' इति पाठः ।
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५८२)
छक्खंडागमे खुदाबंधी [२,११-२, २५. चउत्थीए पुढवीए णेरड्या असंखेज्जगुणा ॥२५॥ को गुणगारो ? सेडिअट्ठमवग्गमूलं । बम्ह बम्हुत्तरकप्पवासियदेवा असंखेन्जगुणा ॥ २६ ॥ को गुणगारो ? सेडिनवमवग्गमूलं । तदियाए पुढवीए णेरइया असंखेज्जगुणा ॥ २७ ॥ को गुणगारो ? सेडिदसमवग्गमूलं । माहिंदकप्पवासियदेवा असंखेज्जगुणा ॥ २८ ॥
को गुणगारो ? सेडिएक्कारसवग्गमूलस्स संखेज्जदिभागो । सणक्कुमार-माहिददव्वमेगटुं करिय किण्ण परूविदं ? ण, जहा पुबिल्लाणं दोण्हं दोण्हं कप्पाणमेको चिय सामी होदि, तधा एत्थ दोण्हं कप्पाणमेक्को चेव सामी ण होदि त्ति जाणावणटुं पुध णिद्देसादो ।
सणक्कुमारकप्पवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ २९ ॥
चतुर्थ पृथिवीके नारकी असंख्यातगुणे हैं ॥ २५ ॥ गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका आठवां वर्गमूल गुणकार है । ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरकल्पवासी देव असंख्यातगुणे हैं ॥ २६ ॥ गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका नौवां वर्गमूल गुणकार है । तृतीय पृथिवीके नारकी असंख्यातगुणे हैं ॥ २७ ॥ - गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका दशवां वर्गमूल गुणकार है । माहेन्द्रकल्पवासी देव असंख्यातगुण हैं ॥ २८॥ गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके ग्यारहवें वर्गमूलका संख्यातवां भाग गुणकार है। शंका-सानस्कुमार और माहेन्द्र कल्पके द्रव्यको इकट्ठा कर क्यों नहीं कहा?
समाधान-नहीं, जिस प्रकार पूर्वोक्त दो दो कल्पोंका एक ही स्वामी होता है, उस प्रकार यहां दो कल्पोंका एक ही स्वामी नहीं होता, इस बातके ज्ञापनार्थ पृथक् निर्देश किया है।
सानत्कुमारकल्पवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥ २९ ॥
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२, ११-२, ३३.] अप्पाबहुगाणुगमे महादंडओ
[५८३ को गुणगारो ? संखेज्जा समया। कुदो ? उत्तरदिसं मोत्तूण सेसासु तासु दिसासु हिदसेडीयद्ध-पइण्णयसण्णिदविमाणेसु सम्बिदएसु च णिवसंतदेवाणं गहणादो ।
विदियाए पुढवीए णेरड्या असंखेज्जगुणा ॥३०॥ को गुणगारो ? सेडिबारसवग्गमूलं सुवसंखेज्जदिमागब्भहियं । मणुसा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ३१ ॥
को गुणगारो ? सेडिबारसवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? मणुसअपज्जत्तअवहारकालो पडिभागो ।
ईसाणकप्पवासियदेवा असंखेज्जगुणा ॥ ३२ ॥ को गुणगारो ? सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागो। देवीओ संखेज्जगुणाओ॥ ३३ ॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, उत्तर दिशाको छोड़कर शेष तीन दिशाओंमें स्थित श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नामके विमानों में तथा सब इन्द्रक विमानों में रहनेवाले देवोंका ग्रहण किया गया है।
द्वितीय पृथिवीके नारकी जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ३०॥
गुणकार क्या है ? अपने संख्यातवें भागसे अधिक जगश्रेणीका बारहवां वर्गमूल गुणकार है।
मनुष्य अपर्याप्त असंख्यातगुणे हैं ॥ ३१ ॥
गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? मनुष्य अपर्याप्तोका अवहारकाल प्रतिभाग है।
ईशानकल्पवासी देव असंख्यातगुणे हैं ॥ ३२ ॥ गुणकार क्या है ? सूच्यंगुलका संख्यातवां भाग गुणकार है। ईशानकल्पवासिनी देवियां संख्यातगुणी हैं ॥ ३३ ॥
.........................................
१ ईसाणे सव्वत्थ वि बत्तीसगुणाओ होंति देवीओ। संखेज्जा सोहम्मे तओ असंखा भवणवासी ॥ पं.सं. २,६७.
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५८५]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११-२, ३४. को गुणगारो ? संखेज्जा समया । के वि आइरिया बत्तीस रूवाणि त्ति भणति । । सोधम्मकप्पवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥ ३४ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । देवीओ संखेज्जगुणाओ ॥ ३५॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया बत्तीस रूवाणि वा ।। पढमाए पुढवीए णेरइया असंखेज्जगुणा ॥ ३६ ॥ को गुणगारो ? सगसंखेज्जदिभागभहियघणंगुलतदियवग्गमूलं । भवणवासियदेवा असंखेज्जगुणा ॥ ३७ ॥ को गुणगारो १ घणंगुलविदियवग्गमूलस्स संखेज्जदिभागो । देवीओ संखेज्जगुणाओ ॥ ३८ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया बत्तीसरुवाणि वा।
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। कितने ही आचार्य गुणकार बत्तीस रूप है, ऐसा कहते हैं।
सौधर्मकल्पवासी देव संख्यातगुणे हैं ॥ ३४ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । सौधर्मकल्पवासिनी देवियां संख्यातगुणी हैं ॥ ३५ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय या बत्तीस रूप गुणकार है। प्रथम पृथिवीके नारकी असंख्यातगुणे हैं ॥ ३६ ॥
गुणकार क्या है । अपने संख्यातवें भागसे अधिक धनांगुलका तृतीय वर्गमूल गुणकार है।
भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं ॥ ३७ ॥ गुणकार क्या है ? धनांगुलके द्वितीय वर्गमूलका संख्यातवां भाग गुणकार है। भवनवासिनी देवियां संख्यातगुणी हैं ॥ ३८॥ गुणकार क्या हैं ? संख्यात समय या बत्तीस रूप गुणकार है।
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२, ११-२, ४२.] अप्पाबहुगाणुगमे महादंडओ
पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ ॥ ३९ ॥
को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेडिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? भवणवासियविक्खंभसूचीए संखेज्जेहि भागेहि गुणिदपंचिंदियतिरिक्खजोणिणिअवहारकालो पडिभागो।
वाण-तरदेवा संखेज्जगुणा ॥ ४० ॥
को गुणगारो ? संखेज्जसमया। एदम्हादो सुत्तादो जीवट्ठाणदव्यवक्खाणं ण घडदि ति णव्वदे।
देवीओ संखेज्जगुणाओ ॥ ४१ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया बत्तीसरूवाणि वा । जोदिसियदेवा संखेजगुणा ॥४२॥
को गुणगारो ? संखेज्जसमया। कुदो ? जोदिसियअवहारकालेण' भागे हिदे संखेज्जरूवोवलंभादो ।
पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यच असंख्यातगुणे हैं ॥ ३९ ॥
गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग असंख्यात जगश्रेणी प्रथम घर्गमूल गुणकार हैं। प्रतिभाग क्या है ? भवनवासियोंकी विष्कम्भसूचीके संख्यात बहुभागोंसे गुणित पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंका अवहारकाल प्रतिभाग है।
वानव्यन्तर देव संख्यातगुण हैं ।। ४० ॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। इस सूत्रसे जीवस्थानका द्रव्यव्याख्यान नहीं घटित होता, ऐसा जाना जाता है । ( देखो जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम सूत्र ३५ की टीका)।
वानव्यन्तर देवियां संख्यातगुणी हैं ॥४१॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय या बत्तीस रूप गुणकार है। ज्योतिषी देव संख्यातगुणे हैं ॥ ४२ ॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, ज्योतिषी देवोंके भवहारकालसे ( वानव्यन्तर देवियोंके अवहारकालको) भाजित करनेपर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं।
१ प्रतिषु '. काले ' इति पाठः ।
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५८६)
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो - [२, ११-२, ४३. देवीओ संखेज्जगुणाओ ॥ ४३॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया बत्तीसरूवाणि वा । चरिंदियपज्जत्ता संखेज्जगुणा ॥ ४४ ॥
को गुणगारो ? संखेज्जसमया । कुदो ? पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण चउरिंदियपज्जत्तअवहारकालेण जोदिसियदेवीणमवहारकालभूदसंखेज्जपदरंगुलेसु ओवट्टिदेसु संखेज्जरूवोवलंभादो।
पंचिंदियपज्जत्ता विसेसाहिया ॥४५॥
केत्तियो विसेसो १ चउरिदियपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो। को पडि भागो ? . आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
बेइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया ॥४६॥
केत्तिओ विसेसो ? पंचिंदियपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो।।
तीइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ४७ ॥
ज्योतिषी देवियां संख्यातगुणी हैं ॥ ४३ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय या बत्तीस रूप गुणकार है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं ॥ ४४ ॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, प्रतरांगुलके संख्यातवें भागप्रमाण चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके अवहारकालसे ज्योतिषी देवियोंके अवहारकालभूत संख्यात प्रतरांगुलोंके अपवर्तित करनेपर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं ।
पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ४५ ॥
विशेष कितना है ? चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है।
द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ४६॥
विशेष कितना है ? पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है।
त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ४७ ॥
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२, ११-२, ५१.1 अप्पाबहुगाणुगमे महादंडओ
[५८७ केत्तिओ विसेसो ? बीइंदियपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो।
पंचिंदियअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥४८॥
को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कुदो ? पदरंगुलस्त असंखेजदिभागेण पंचिंदिय अपज्जत्तअवहारकालेण पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्ततेइंदियपज्जत्तअवहारकाले भागे हिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागुवलंभादो ।
चउरिदियअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ४९ ॥
केत्तिओ विसेसो ? पंचिंदियअपज्जताणमसंखेजदिभागो । तेसि को पडिभागा? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
तेइंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ५० ॥
केत्तिओ विसेसो ? चउरिदियअपज्जत्तसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
बेइंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ५१ ॥
विशेष कितना है ? द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्पातवां भाग प्रतिभाग है।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥४८॥
गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके अवहारकालसे प्रतरांगुलके संख्यातवें भागमात्र त्रीन्द्रिय पर्याप्त जोवोंके अवहारकालको भाजित करनेपर आवलीका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है।
चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ४९ ॥
विशेष कितना है ? पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। उनका प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भान प्रतिभाग है।
त्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥५०॥
विशेष कितना है ? चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है।
दीन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ५१ ॥
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५८८]
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११-२, ५२. केत्तिओ विसेसो ? तेइंदियअपज्जत्तअसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो।
बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥५२॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागोवट्टिदपदरंगुलेग बादरवण'फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त अवहारकालेण बेइंदियअपज्जत्तअवहारकाले भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेजदिभागोवलंभादो।
बादरणिगोदजीवा णिगोदपदिट्ठिदा पज्जता असंखेज्जगुणा ॥५३॥
को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कुदो ? हेद्विमव्वस्स अवहारकाले उवरिमदवस अवहारकालेण भागे हिदे आवलियाए असंखेज्जदिमागोवलंभादो ।
बादरपुढविपजत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ५४ ॥
विशेष कितना है ? श्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के असंख्यातवें भागप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है।
बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥५२ ॥
गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित प्रतरांगुलप्रमाण बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंके अबहारकाल से द्वीन्द्रिय अपर्याप्तोंके अवहारकालको भाजित करनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है।
बादर निगोदजीव निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त असंख्यातगुणे हैं ।। ५३ ॥
गुणकार क्या है ? आवलीका असं ख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, अधस्तन अर्थात् पूर्वोक्त द्रव्यके अवहारकालमें उपरिम अर्थात् प्रस्तुत द्रव्यके अवहारकालका भाग देनेपर आवलीका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है।
बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ५४ ॥
१ पज्जतवायरपत्तेयतरू असंखेज्ज इति णिगोयाओ। पुढवी आऊ वाऊ बायरअपज्जतते उ तओ ॥ 4.बं. १, ७२.
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२, ११-३, ५८.] अप्पाबहुगाणुगमे महादंडओ
[५८९ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। सेसं सुगमं । बादरआउपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ५५॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। सेसं सुगमं । बादरवाउपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ५६ ॥ को गुणगारो ? असंखेज्जाओ सेडीओ पदरंगुलस्स असंखेजदिमागमेत्ताओ। बादरतेउअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ५७ ॥
को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । तेसिमद्धछेदणाणि सागरोवमं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणयं ।
बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा' । ॥ ५८॥
गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
बादर अप्कायिक पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ५५ ॥
गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शेष सूधार्थ सुगम है।
बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ५६ ॥
गुणकार क्या है ? प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणियां गुणकार है।
बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ५७ ।।
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । उनके अर्द्धच्छेद पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन सागरोपमप्रमाण हैं ।
बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ५८ ॥
१ बादरतरू निगोया पुढवी-जल-वाउ तेउ तो सुहुमा । तत्तो विसेसअहिया पुढवी जल-पवणकाया उ ।। पं.सं. २,७३.
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५९०
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११-२, ५९. को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। तेसिमद्धछेदणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।
बादरणिगोदजीवा णिगोदपदिट्ठिदा अपज्जता असंखेज्जगुणा ॥ ५९॥
को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। तेसिं छेदणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।
बादरपुढविकाइयअपज्जता असंखेज्जगुणा ॥ ६० ॥ को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। तेसिं छेदणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदि
भागो ।
बादरआउकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ६१ ॥
को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। तेसिं छेदणाणि पलिदोवमस्स असंखेअदिभागो।
बादरवाउकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ६२ ॥
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुण कार है । उनके अर्द्व व्छेद पल्योपमके भसंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
बादर निगोदजीव निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्त असंख्यातगुणे हैं ॥ ५९॥
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । उनके अर्द्धच्छेद पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुण हैं ।। ६० ।।
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । उनके अर्द्धच्छेद पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
घादर अकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६१ ॥
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । उनके अर्द्धच्छेद पल्योपमके असंण्यातवें भागप्रमाण हैं।
पादर वायुकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६२ ॥
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२, ११–२, ६५. ]
को गुणगारो ?
जदिभागो ।
अप्पा बहुगागमे महादंडओ
[ ५९१
असंखेज्जा लोगा । तेसिं छेदणाणि पलिदोवमस्स असंखे
सुहुमते उकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ६३ ॥
को गुगगारो ? असंखेज्जा लोगा । तेसिमछेदणाणि असंखेज्जा लोगा । कथं वदे ? गुरूवदेसादो |
सुहुम पुढविकाइया अपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ६४ ॥
केत्तिओ विसेसो ? असंखेज्जा लोगा सुहुमते उकाइय अपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा ।
सुहुमआउकाइयअपज्जत्ता' विसेसाहिया ॥ ६५ ॥
केचिओ विसेसो ? असंखेज्जा लोगा सुहुमपुढविकाइय अपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा ।
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । उनके अर्द्धच्छेद पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६३ ॥
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । उनके अर्द्धच्छेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं ।
शंका- -यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - यह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है ।
सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६४ ॥
विशेष कितना है ? असंख्यात लोक है जो कि सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तोंके असंख्यातवें भाग है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यातवां लोक प्रतिभाग है ।
सूक्ष्म अष्कायिक अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६५ ॥
विशेष कितना है ? सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक विशेष है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है ।
१ अ-आप्रल्योः ' - पज्जता ' इति पाठः, काप्रतौ तु सूत्रमेतन्नास्त्येव ।
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
सुहुमवा उकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ६६ ॥
केत्तियो विसेसो ? असंखेज्जा लोगा सुहुम आउकाइय अपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा ।
५९२ ]
सुहुमते उकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणां ॥ ६७ ॥
को गुणगारो ? संखेज्जा समया ।
सुहुम पुढविकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ६८ ॥
केत्तियो बिसेस ? असं बेज्जा लोगा सुहुमते उकाइयपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा ।
सुहुम आउकाइया पज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ६९॥
केत्तिओ विसेसो ? असंखेज्जा लोगा सुहुमपुढविकाइय पज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा ।
I
सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६६ ॥
विशेष कितना है ? सूक्ष्म अष्कायिक अपर्याप्तोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक विशेष है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है ।
सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं ॥ ६७ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है ।
सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६८ ॥
[ २, ११- २, ६६.
विशेष कितना है ? सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक विशेष है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है ।
सूक्ष्म अकायिक पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ।। ६९ ।।
विशेष कितना है ? सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तों के असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक विशेष है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभांग है ।
१ संखेज्ज सुहुमपज्जत तेउ किंचि (च) हिय भू-जल - समीरा । ततो असंखगुणिया सुहुमनिगोया अपज्जता ॥ पं. सं. २, ७४.
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२, ११-२, ७४.] अप्पाबहुगाणुगमे महादंडओ
[ ५९३ सुहुमवाउकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ ७० ॥
केत्तियो विसेसो ? असंखेज्जा लोगा सुहुमाउकाइयपज्जत्ताणमसंखेजदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा।
अकाइया अणंतगुणा ॥ ७१ ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । सेसं सुगमं । बादरवणप्फदिकाइयपज्जत्ता अणंतगुणा ॥ ७२ ॥
को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहिंतो सिद्धेहिंतो सव्वजीवपढमवग्गमूलादो वि अणतगुणो । कुदो ? असंखेज्जलोगगुणिदअकाइएहि ओवट्टिदसव्वजीवपमाणत्तादो ।
बादरवणप्फदिकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ७३ ॥ को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। बादरवणप्फदिकाइया विसेसाहिया ॥ ७४ ॥
सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ ७० ॥
विशेष कितना है ? सूक्ष्म अकायिक पर्याप्तोंके असंख्यातवें भाग असंख्यात लोक विशेष है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है।
अकायिक जीव अनन्तगुणे हैं ॥ ७१ ॥
गुणकार क्या है ? अभब्यसिद्धिकोसे अनन्तगुणा गुणकार है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव अनन्तगुणे हैं ॥ ७२ ॥
गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धिकोसे, सिद्धोंसे और सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा गुणकार है, क्योंकि, वह असंख्यात लोकसे गुणित अकायिक जीवोंसे अपवर्तित सर्व जीवराशिप्रमाण है।
बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ७३ ॥ गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है ।( देखो पुस्तक ३, पृ. ३६५ ) बादर वनस्पतिकायिक विशेष अधिक हैं ॥ ७४ ॥
१ प्रतिषु · संखेब्जा समया' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' सहुम-' इति पाठः ।
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५९१]
छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ११-२, ७५... केत्तियो विसेसो ? बादरवणप्फदिकाइयपज्जत्तमेत्तो। सुहुमवणप्फदिकाइया अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ ७५ ॥ को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। सुहुमवणप्फदिकाइया पज्जत्ता संखेज्जगुणा ।। ७६ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । सुहुमवणप्फदिकाइया विसेसाहिया ॥ ७७ ॥ केत्तिओ विसेसो ? सुहुमवणप्फदिकाइयअपज्जत्तमेत्तो । वणप्फदिकाइया विसेसाहिया ॥ ७८ ॥ केत्तियो विसेसो ? बादरवणप्फदिकाइयमेत्तो । णिगोदजीवा विसेसाहिया ॥ ७९ ॥ केत्तिओ विसेसो ? बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीरबादरणिगोदपदिविदमेत्तो ।
एवं सव्वजीवेसु महादंडओ समत्तो ।
___ एवं खुद्दाबंधो समत्तो। विशेष कितना है ? विशेष बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवों के बराबर है । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव असंख्यातगुगे हैं ।। ७५ ।। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं ॥ ७६ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव विशेष अधिक हैं ।। ७७ ॥ विशेष कितना है ? विशेष सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंके बराबर है। वनस्पतिकायिक विशेष अधिक हैं ।। ७८ ॥ विशेष कितना है ? बादर वनस्पतिकायिक जीवोंके बराबर है। निगोदजीव विशेष अधिक हैं ।। ७१ ॥
विशेष कितना है ? बादर निगोदप्रतिष्ठित बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके बराबर है।
इस प्रकार सब जीवों में महादण्डक समाप्त हुआ
इस प्रकार क्षुद्रकबंध समाप्त हुआ।
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परिशिष्ट
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बंधग-संतपरूवणा सुत्ताणि ।
0000AM.
सूत्र संख्या सूत्र १जे ते बंधगा णाम तेसिमिमो
णिहेसो। २ गइ इंदिएकाए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्साए भविए सम्मत्त सण्णि आहारए
चेदि। ३ गदियाणुवादण णिरयगदीए
णेरड्या बंधा। ४ तिरिक्खा बंधा। ५ देवा बंधा। ६ मणुसा बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अस्थि । ७ सिद्धा अबंधा। ८ इंदियाणुवादेण एइंदिया बंधा
बीइंदिया बंधा तीइंदिया बंधा चदुरिंदिया बंधा। ९पंचिंदिया बंधा वि अस्थि,
अबंधा वि अस्थि । १० अप्रिंदिया अबंधा। ११ कायाणुवादेण पुढवीकाइया बंधा आउकाइया बंधा तेउकाइया बंधा वाउकाइया बंधा
घणप्फदिकाइया बंधा। १२ तसकाइया बंधा वि अधि,
अबंधा वि अस्थि। .
पृष्ट सूत्र संख्या
। १३ अकाइया अबंधा। १ १४ जोगाणुवादेण मणजोगि-वचि.
जोगि-कायजोगिणो बंधा। १५ अजोगी अबंधा। १६ वेदाणुवादेण इत्थिवेदा बंधा,
पुरिसवेदा बंधा, णबुंसयवेदा बंधा। १७ अवगदवेदा बंधा वि अत्थि,
अबंधा वि अस्थि । १८ सिद्धा अबंधा। १९ कसायाणुवादेण कोधकसाई
माणकसाई मायकसाई लोभकसाई बंधा। २० अकसाई बंधा वि अस्थि, अबंधा
वि अस्थि । १५ २१ सिद्धा अबंधा। २२ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी
सुदअण्णाणी विभंगणाणी आभिणिबोहियणाणी सुदणाणी ओधिणाणी मणपज्जवणाणी बंधा। २३ केवलणाणी बंधा वि आत्थि,
अबंधा वि अस्थि । २४ सिद्धा अबंधा।
२५ संजमाणुवादेण असंजदा बंधा, १७. संजदासजदा बंधा।
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(२) सूत्र संख्या २६ संजदा बंधा वि अस्थि, अबंधा
वि अस्थि । २७ णेव संजदा व असंजदा व
संजदासंजदा अबंधा। २८ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी
अचक्खुदंसणी ओधिदसणी बंधा। २९ केवलदसणी बंधा वि अत्थि, __ अबंधा वि अत्थि। ३० सिद्धा अबंधा। ३१ लेस्साणुवादण किण्हलेस्सिया
णीललेस्सिया काउलेस्सिया तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्का
लेस्सिया बंधा। ३२ अलेस्सिया अबंधा। ३३ भवियाणुवादेण अभवसिद्धिया घंधा, भवसिद्धिया बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अस्थि ।
परिशिष्ट पृष्ट सूत्र संख्या सूत्र
३४ णेव भवसिद्धिया णेव अभव
सिद्धिया अबंधा। ३५ सम्मत्ताणुवादेण मिच्छादिट्ठी २१ बंधा, सासणसम्मादिट्ठी बंधा, . ____ सम्मामिच्छादिट्ठी बंधा।
३६ सम्मादिट्ठी बंधा वि अस्थि, । अबंधा वि अस्थि ।' ३७ सिद्धा अबंधा। ३८ सणियाणुवादेण सण्णी बंधा, ____ असण्णी बंधा। ३९ णेव सण्णी व असण्णी बंधा
वि अत्थि, अबंधा वि अत्थि । ४० सिद्धा अबंधा। २२ ४१ आहाराणुवादेण आहारा बंधा। ४२ अणाहारा बंधा वि अस्थि,
अबंधा वि अत्थि। , ४३ सिद्धा अबंधा।
सामित्ताणुगमसुत्ताणि ।
सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १ एदेसि बंधयाणं परवणदाए भागाभागाणुगमो, अप्पाबहुतत्थ इमाणि एक्कारस अणि
गाणुगमो चेदि । योगद्दाराणि णादवाणि भवंति। २५ ३ एयजीवेण सामित्तं । २ एगजोवण सामित्तं, एगजीवेण ४ गदियाणुवादेण णिरयगदीए कालो, एगजीवेण अंतरं, णाणा
णेरइओ णाम कधं भवदि ? जीवेहि भंगविचओ, दवपरू
५णिरयगदिणामाए उदएण। वणाणुगमो, खेत्ताणुगमो, ६तिरिक्खगदीए तिरिक्खो णाम फोसणाणुगमो, णाणाजीवेहि __ कधं भवदि ? कालो, _णाणाजीवहि अंतरं, ७तिरिक्खगदिणामाए उदएण।
-
:
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________________
पृष्ठ
___भवदि ?
७८
सामित्ताणुगमसुत्साणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ८ मणुसगदीए मणुसो णाम कधं ३२ जोगाणुवादेण मणजोगी वचिभवदि?
जोगी कायजोगी णाम कधं ९ मणुसगदिणामाए उदएण।
भवदि? १० देवगदीए देवो णाम कधं
३३ खओवसमियाए लद्धीए ।
३४ अजोगी णाम कधं भवदि? ११ देवगदिणामाए उदएण ।
। ३५ खड्याए लद्धीए। १२ सिद्धिगदीए सिद्धो णाम कधं
३६ वेदाणुवादेण इस्थिवेदो पुरिसभवदि ?
वेदो णबुंसयवेदो णाम कधं १३ खइयाए लद्धीए।
__ भवदि ? १४ इंदियाणुवादेण पइंदिओ बीइं
३७चरित्तमोहणीयस्स कम्मस्स दिओ तीइंदिओ चउरिदिओ पंचिंदिओ णाम कधं भवदि ? ६१
___उदएण इत्थि-पुरिस-णबुंसय
वेदा। १५ खओवसमियाए लद्धीए । , १६ अणिदिओ णाम कधं भवदि ? ६८
" ३८ अवगदवेदो णाम कधं भवदि ? ।
३९ उपसमियाए खइयाए लद्धीए । १७ खइयाए लद्धीए । १८ कायाणुवादेण पुढविकाइओ
४० कसायाणुवादेण कोधकसाई ___णाम कधं भवदि ?
____माणकसाई मायकसाई लोभ१९ पुढविकाइयणामाए उदएण ।
कसाई णाम कधं भवदि ? २० आउकाइओ णाम कधं भवदि १ .
४१ चरित्तमोहणीयस्स कम्मरस
उदएण। २१ आउकाइयणामाए उदएण।
४२ अकसाई णाम कधं भवदि? २२ तेउकाइओ णाम कधं भवदि ? ,,
४३ उवसमियाए खइयाए लद्धीए । २३ तेउकाइयणामाए उदएण।। २४ वाउकाइओ णाम कधं भवदि? ७१
४४ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी २५ वाउकाइयणामाए उदएण।
सुदअण्णाणी विभंगणाणी २६ वणप्फकाइओ णाम कधं
आभिणियोहियणाणी सुदणाणी भवदि?
ओहिणाणी मणपज्जवणाणी २७ वणप्फइकाइयणामाए उदएण। ,,
__णाम कधं भवदि? २८ तसकाइओ णाम कधं भवदि ,
४५ खओवसमियाए लद्धीए । २९ तसकाइयणामाए उदएण।
४६ केवलणाणी णाम कधं भवदि ३० अकाइओ णाम कधं भवदि ?
४७ खड्याए लद्धीए । ३१ खयाए लद्धीए।
। १८ संजमाणुवादेण संजदो सामाश्य
065
८८
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परिशिष्ट सूत्र संख्या सत्र . पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र
६६ णेव भवसिद्धिओ णेव अभवकधं भवदि?
सिद्धिओ णाम कधं भवदि १ । .४९. उवसमियाए खइयाए खओव- ६७ खइयाए लद्धीए । समियाए लद्धीए ।
६८ सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठी ५० परिहारसुद्धिसंजदो संजदा
णाम कधं भवदि? ___ संजदो णाम कधं भवदि १ ९४
६९ उवसमियाए खइयाए खओव५१ खओवसमियाए लद्धीए ।
समियाए लद्धीए । ५२ सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदो जहा- ७० खइयसम्माइट्ठी णाम कधं खादविहारसुद्धिसंजदो णाम
भवदि ? कधं भवदि?
७१ खइयाए लद्धीए । ५३ उपसमियाए खड्याए लद्धीए। ९५
७२ वेदगसम्मादिट्ठी णाम कधं ५४ असंजदो णाम कधं भवदि ?
भवदि ? ५५ संजमघादीणं कम्माणमुदएण ।
७३ ख ओवसमियाए लद्धीए ५६ दसणाणुवादेण चक्खुदंसणी
७४ उवसमसम्माइट्ठी णाम कधं अचक्खुदंसणी ओहिदंसणी
भवदि? णाम कधं भवदि ?
७५ उपसमियाए लद्धीए । ५७ खओवसमियाए लद्धीए।
७६ सासणसम्माइट्ठी णाम कधं ५८ केवलदसणी णाम कधं भवदि ? १०३
भवदि ? ५९ खइयाए लद्धीए।
७७ पारिणामिएण भावेण । ६० लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिओ
| ७८ सम्मामिच्छादिट्ठी णाम कधं णीललेस्सिओ काउलेस्सिओ तेउलेस्सिओ पम्मलेस्सिओ
भवदि? सुक्कलेस्सिओ णाम कधं
७९ खओवसमियाए लद्धीए । भवदि?
१०४ ८० मिच्छादिही णाम कधं भवदि ? १११ ६१ ओदइएण भावेण ।
८१ मिच्छत्तकम्मस्स उदएण । ६२ अलेस्सिओ णाम कधं भवदि १ १०५ ८२ सण्णियाणुवादेण सण्णी णाम ६३ खइयाए लद्धीए।
___कधं भवदि? ६४ भवियाणुवादेण भवसिद्धिओ
८३ खओवसमियाए लद्धीए । अभवसिद्धिओ णाम कधं भवदि? ,, ८४ असण्णी णाम कधं भवदि ? ६५ पारिणामिएण भावेण । ,८५ ओदइएण भावेण ।
११२
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एगजीवेण कालानुगमसुत्ताणि
सूत्र संख्या
सूत्र
८९ ओदण भावेपा ।
९० अणाहारो णाम कधं भवदि ?
९१ ओदइएण भावेण पुण खइयाए लद्धीए ।
सूत्र संख्या
सूत्र
८६ णेव सण्णी णेव असण्णी णाम कथं भवदि १ ८७ खइयाए लद्धीए ।
८८ आहाराणुवादेण आहारो णाम कथं भवदि ?
सूत्र संख्या
सूत्र
१ एगजीवेण कालानुगमेण गदि - याणुवादेण णिरयगदीप णेरइया haचिरं कालादो होति ? २ जहण्णेण दसवस्ससहस्वाणि । ३ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि ।
४ पढमाए पुढवीप णेरड्या केव चिरं कालादो होति ?
५ जणेण दसवास सहस्त्राणि
६ उक्कस्सेण सागरोवमं ।
७ बिदियार जाव सत्तमा पुढ वीए रइया केवचिरं कालादो होति ?
८ जण्णेण एक तिष्णि सत्त दस सत्तारस बावीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
९ उक्करसेण तिण्णि सत्त दस सत्तारस बावीस तेत्तीस सागरोमाणि ।
एगजीवेण कालानुगमसुत्ताणि ।
१० तिरिक्खगदीए तिरिक्खो केवचिरं कालादो होदि ।
पृष्ठ
33
39
""
पृष्ठ
११४
33
११५
""
११७
११८
99
१२१
( ५ )
सूत्र संख्या
सूत्र
११ जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं ।
१२ उकस्सेण अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियहं ।
१३ पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खपज्जन्त--पंचिदियतिरिक्ख-जोणिणी केवचिरं कालावो होति ?
""
११३
""
पृष्ट
१२१
१४ जहण्णेण खुद्दाभवम्गहणं अंतोमुद्दत्तं ।
१५ उक्कस्सेण तिष्णि पालदोवमाणि पुव्वको डिपुधत्तेन्महियाणि । १६ पंचिदियतिरिकल अफजला केव चिरं कालादो होति ? १७ जहणणेण खुद्दाभवग्गणं । १८ उक्कस्लेण अंतोमुडुतं ।
१९ ( मणुसगदीप ) मणुला मणुस पज्जत्ता मणुलिणी केवचिरं कालादो होति ?
२०. जहण्णेण खुद्दाभवग्गणमंतोमुद्दतं ।
"2
१२२
99
13.
१२३
97
१२४
१२५
D
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________________
१३३
१६)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र सत्र पृष्ट सूत्र संख्या सूत्र
पष्ट २१ उक्कस्सेण तिणि पलिदोव- विमाणवासियदेवा केवचिरं माणि पुवकोडिपुधत्तणब्भहि
कालादो होति? याणि ।
१२५ ३५ जहण्णेण अट्ठारस वीसं बावीसं २२ मणुस्सअपज्जत्ता केवचिरं
तेवीसंचउवीसंपणुवीसं छव्वीसं
सत्तावीस अट्ठावीसं एगुणतीसं ___ कालादो होति ?
तीसं एक्कत्तीसं बत्तीसं सागरो२३ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।
वमाणि सादिरेयाणि ।। २४ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
३६ उक्कस्सेण वीसं बावीसं तेवीसं २५ देवगदीए देवा केवचिरं कालादो
चउवीसं पणुवीस छवीस सत्ताहोति ?
वीसं अट्ठावीसं एगुणतीसं तीस २६ जहण्णेण दसवाससहस्साणि। ,
एकत्तीसं बत्तीसं तेत्तीसं साग२७ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोव
रोवमाणि।
१३४ ___ माणि ।
३७ सम्बट्टसिद्धियविमाणवासियदेवा २८ भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदि
केवचिरं कालादो होति ? . सियदेवा केवचिरं कालादो होति?
३८ जहण्णुकस्सेण तेत्तीससागरो.
वमाणि। २९ जहण्णेण दसवाससहस्साणि,
३९ इंदियाणुवादेण एइंदिया केव(दसवाससहस्साणि ), पलि
चिरं कालादो होति ? दोवमस्स अट्ठमभागो।
४० जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं। १३६ ३० उक्कस्सेण सागरोवम सादिरेयं
| ४१ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपलिदोवमं सादिरेयं, पलिदोवमं
पोग्गलपरिय। सादिरेयं ।
४२ बादरेइंदिया केवचिरं कालादो ३१ सोहम्मीसाणप्पहुडिजाव सदर
होति ? सहस्सारकप्पवासियदेवा केव
४३ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । ,' चिरं कालादो होति ? १२९
|४४ उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदि३२ जहण्णेण पलिदोवमं वे सत्त दस भागो असंखेज्जासंखेज्जाओ घोहस सोलस सागरोवमाणि
ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। " सादिरेयाणि ।
" ४५ बादरएइंदियपजत्ता केवचिरं ३३ उक्कस्सेण बे सत्त दस चोदस
कालादो होति ? सोलस अट्ठारस सागरावमाणि
४६ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।। साविरेयाणि।
१३०:४७ उकस्सेण संखेजाणि वाससह३४ आणदप्पड्डुडि जाव अवराहद
साणि ।
१२८
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एगजीवेण कालाणुगमसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ४८ बादरेइंदियअपजत्ता केवचिरं ६७ जहण्णेण खुहाभवग्गहणमंतो____ कालादो होति ?
१३८ मुहुत्तं। ४९ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । ,,
६८ उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि ५० उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
पुवकोडिपुत्तेणब्भहियाणि ५१ सुहुमेइंदिया केवचिरं कालादो
सागरोवमसदपुधत्तं । होति?
६९ पंचिंदियअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति?
१४३ ५२ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।
७० जहण्णण खुद्दाभवग्गहणं । ५३ उक्कस्सेण असंखेजा लोगा।
७१ उकस्सेण अंतोमुहुत्तं। ५४ सुहुमेइंदिया पजत्ता केवचिरं
७२ कायाणुवादेण पुढविकाइया कालादो होंति ?
___ आउकाइया तेउकाइया वाउ५५ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।
___ काइया केवचिरं कालादो होति ? ,, ५६ उक्कस्सेण् अंतोमुहुत्तं ।
७३ जहण्णेण खुद्दाभघग्गहणं । १४४ ५७ सुहुमेइंदियअपज्जत्ता केवचिरं ७४ उक्कस्सेण असंखेजा लोगा। ,, कालादो होति ?
७५ बादरपुढवि बादराउ-बादरतेउ५८ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।
___ बादरवाउ-बादरवणप्फदिपत्तेय५९ उकस्सेण अंतोमुहत्तं ।
सरीरा केवचिरं कालादो होति? ,,. ६० बीइंदिया तीइंदिया चउरिंदिया ७६ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।
बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदिय- ७७ उकस्सेण कम्मट्टिदी। पज्जत्ता केवचिरं कालादो ७८ बादरपुढविकाइय-बादरआउहोति?
___ काइय-बादरतेउकाइय-बादर-- ६१ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणमंतो
वाउकाइय-बादरवणप्फदिकाइयमुहुत्तं ।
पत्तेयसरीरपज्जत्ता केवचिरं ६२ उक्कस्सेण संखेजाणि वास
कालादो होति ?
१४५ सहस्साणि । ... | ७९ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।
१४६ ६३ बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय.
८० उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहअपजत्ता केवचिरं कालादो
स्साणि। होति?
८१ बादरपुढवि-बादरआउ-बादरतेउ६४ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं।
बादरवाउ-बादरवणाफदिपत्तेय
सरीरअपज्जत्ता केवचिरं कालादो ६५ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
होति? ६६ पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ता केव- ८२ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । चिर कालादा होति?
, ८३ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
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(८)
परिशिष्ट सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ८४ सुहुमपुढधिकाइया सुहुमाउ- । १०० जहण्णेण अंतोमुहुसं।
काइया सुहुमतेउकाइया सुहम- १०१ उक्करसेण अणंतकालमसंखेज्जबाउकाइया सुहुमवणप्फदिकाइया
पोग्गलपरियहूं। सुहमणिगोदजीवा पज्जत्ता
१०२ ओरालियकायजोगी केवचिरै अपजत्ता सुहुमेहंदियपज्जत्त
कालादो होदि ? अपज्जत्ताणं भंगो। ८५ वणप्फदिकाइया
१०३ जहण्णेण एगसमओ। एइंदियाणं भंगो।
१०४ उकस्सेण बावीसं वाससह
स्साणि देसूणाणि । ८६ णिगोदजीवा केवचिरं कालादो होंति?
१०५ ओरालियमिस्सकायजोगी वेउ
व्वियकायजोगी आहारकाय८७ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।
जोगी केवचिरं कालादो होदि? ,, ८८ उक्कस्सेण अड्डाइजपोग्गलपरियढें । , १०६ जहण्णेण एगसमओ। ८९ बादरणिगोदजीचा बादरपुढवि- १०७ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । .. १५४ __ काइयाणं भंगो।
१४९ १०८ वेउब्वियमिस्सकायजोगी आहा९०तसकाइया तसकाइयपज्जत्ता
रमिस्सकायजोगी केवचिरं केवचिरं कालादो होति ?
कालादो होदि ? ९१ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतो- १०९ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । मुहुत्तं ।
, ११० उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। ९२ उक्कस्सेण बेसागरोवमसह- १११ कम्मइयकायजोगी केवचिरं स्साणि पुव्वकोडिपुत्तेणब्भहि
कालादो होदि ? याणि बेसागरोवमसहस्साणि। १५० ११२ जहणेण एगसमओ। ९३ तसकाइया अपज्जत्ता केवचिरं ११३ उक्कस्सेण तिणि समया कालादो होति ?
११४ वेदाणुवादेण इथिवेदा केव९४ जहण्णेण खुद्दाभवग्महणं ।।
चिरं कालादो होति ? ९५ उक्कस्सेण अंतोमुटुत्तं ।
१६५ जहण्णेण एगसमओ। ९६ जोगाणुवादेण पंचमणजोगी ११६ उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुंधत्तं । पंचवचिजोगी केवचिरं कालादो ११७ पुरिसवेदा केवचिरं कालादो होति?
१५१ होति ? .. ९७ जहणेण एयसमओ।
११८ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ९८ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । १५२ | ११९ उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ९९ कायजोगी केचिरं कालादो १२० णवुसयवेदा केवचिरं कालादो झेदि?
होति?
१५८
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सूत्र
होति ?
एगजीवेण कालाणुगममुत्ताणि सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या १२१ जहण्णेण एगसमओ। १५८ | १४१ आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणी १२२ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखज.
केवचिरं कालादो होदि. १६४ पोग्गलपरियहूं।
१४२ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं। १२३ अवगदवेदा केवचिरं कालादो १४३ उक्कस्सेण छावद्धिसागरो
वमाणि सादिरेयाणि । १२४ उवसमं पडुच्च जहण्णेण एग- १४४ मणपजवणाणी केवलणाणी समओ।
केवचिरं कालादो होति ? १२५ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
१४५ जहण्णेण अंतोमुहत्तं । १२६ खवगं पडुश्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं , १४६ उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा। , १२७ उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणं । १६० १४७ संजमाणुवादेण संजदा परि१२८ कसायाणुवादेण कोधकसाई
हारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा माणकसाई मायकसाई लोभ
केवचिरं कालादो होति ? कसाई केवचिरं कालादो होदि ? ,,१४८ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं। १२९ जहण्णेण एयसमओ। , १४९ उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा। , १३० उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । १६१ १५० सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धि-- १३१ अकसाई अवगदवेदभंगो। , संजदा केवचिरं कालादो १३२ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी .. होति? सुदअण्णाणी केवचिरं कालादो
१५१ जहण्णेण एगसमओ। , होदि ?
१५२ उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा। , १३३ अणादिओ अपज्जवसिदो। १६२
१५३ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा १३४ अणादिओ सपज्जवसिदो। १३५ सादिओ सपज्जवसिदो। ,,
केवचिरं कालादो होति ? १३६ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो
१५४ उवसमं पडुच्च जहण्णेण एगतस्स इमो णिद्देसो-जहण्णेण
समओ। अंतोमुहुत्तं।
। १५५ उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । १३७ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियहूं १५६ खवगं पडुच्च जहण्णेण अंतोदेसूर्ण ।
मुहुत्तं । १३८ विभंगणाणी केवचिरं कालादो १५७ उकिस्सेण अंतोमुहुर्त। होदि ?
१५८ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा १३९ जहण्णेण एगसमओ।
केवचिरं कालादो होति ? १४० उपकस्सेण तेत्तीसं सागरोव- १५९ उवसमं पडुच्च जहण्णेण एगमाणि देसूणाणि ।
समओ।
१७०
१६८
१६९
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________________
(१०)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १६० उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । १७० सत्तसागरोयमाणि सादिरे१६१ खवगं पडुच्च जहण्णेण अंतो
याणि । मुहुत्तं।
१८० तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिय-सुक्का१६२ उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा। , लेस्सिया केवचिरं कालादो १६३ असंजदा केवचिरं. कालादो
होति? होति ?
१७१ | १८१ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं। , १६४ अणादिओ अपज्जवसिदो। ,, | १८२ उपकस्लेण बे-अट्ठारस तेत्तीस१६५ अणादिओ सपजवसिदो। " सागरोवमाणि सादिरेयाणि। १७५ १६६ सादिओ सपजवसिदो।
१८३ भवियाणुवादेण भवसिद्धिया १६७ जो सो सादिओ सपजवसिदो
केवचिरं कालादो होति ? १७६ तस्स इमो णिदेसो-जहण्णेण १८४ अणादिओ सपज्जवसिदो। , अंतोमुहुत्तं ।
१८५ सादिओ सपजवसिदो। १७७ १६८ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरिय १८६ अभवियसिद्धिया केवचिरं देसूणं ।
कालादो होति ? १६९ दसणाणुवादेण चक्खुदंसणी १८७ अणादिओ अपजवसिदो। १७८८ केवचिरं कालादो होंति ? ,
१८८ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी १७० जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।
. केवचिरं कालादो होति ? , १७१ उपकस्सेण बे सागरोवमसह- १८९ जहण्णेण अंतोमुहुतं । , स्साणि ।
१९० उक्कस्सेण छावट्ठिसागरो१७२ अचक्खुदसणी केवचिरं कालादो वमाणि सादिरेयाणि। होति?
१७३ १९१ खइयसम्माइट्ठी केवचिरं १७३ अणादिओ अपज्जवसिदो। , कालादो होति ?
१७९ १७४ अणादिओ सपज्जवसिदो। , १९२ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं। १७५ ओधिदसणी ओधिणाणीभंगो। , १९३ उक्कस्सेण तेत्तीससागरो१७६ केवलदंसणी केवलणाणीभंगो। १७४ वमाणि सादिरेयाणि । १७७ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय- १९४ वेदगसम्माइट्ठी केवचिरं गीललेस्सिय-काउलेस्सिया
___ कालादो होति? केवचिरं कालादो होति ? , १९५ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । , १७८ जहण्णेण अंतोमुहत्तं । " १९६ उक्कस्सेण छावट्ठिसागरो१७९ उक्कस्सेण तेत्तीस-सत्तारस
वमाणि ।
१८०
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________________
सत्र
सम्मा
एगजीवेण अंतराणुगमसुत्साणि सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १९७ उवसमसम्मादिट्री
। २०८ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । १८४ मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो २०९ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जहोति?
पोग्गलपरियह। १९८ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।
२१० आहाराणुवादेण आहारा केव१९९ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
चिरं कालादो होति ? २०० सासणसम्माइट्ठी केवचिरं
२११ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिकालादो होति?
समयूणं । २०१ जहण्णेण एयसमओ।
,
| २१२ उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदि. २०२ उक्कस्सेण छावलियाओ।
भागो असंखज्जासंखेज्जाओ २०३ मिच्छादिट्ठी मदिअण्णाणीभंगो १८३ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ। १ २०४ सणियाणुवादेण सपणी केव
२१३ अणाहारा केवचिरं कालादो चिरं कालादो होति ?
होति ? २०५ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । ,
२१४ जहण्णेणेगसमओ। २०६ उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । ,, २०७ भसण्णी केवचिरं कालादो
२१५ उक्कस्सेण तिण्णि समया। होति?
१८४ | २१६ अंतोमुहुत्तं ।
एगजीवेण अंतराणुगमसुत्ताणि ।
प्रष्ट
सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १एगजीवेण अंतराणुगमेण गदि- ६ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । १८९ याणुवादेण णिरयगदीए णेर- ७ उकस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं। , इयाणं अंतरं केवचिरं कालादो ८पंचिंदियतिरिक्खापंचिंदियतिरिहोदि?
क्खपज्जत्ता पंचिदियतिरिक्ख२ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।
जोणिणी पंचिंदियतिरिक्खअप३ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज
जत्ता मणुसगदीए मणुसा पोग्गलपरियढें ।
१८८ मणुसपज्जत्ता मणुसिणी मणुस४ एवं सत्तसु पुढवीसुणेरइया। , अपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो ५तिरिक्खगदीए तिरिक्खाणमंतरं
होदि? केचिरं कालादो होदि ?
९ जहण्णेण खुदाभवग्गणं ।
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________________
"
(१२)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १. उकस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा २६ उक्कस्समणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा।
१९० पोग्गलपरियढें । ११ देवगदीए. देवाणमंतरं केवचिरं
| २७ णवगेवज्जविमाणवासियदेवाण___कालादो होदि?
___ मंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ,, १२ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं।
२८ जहण्णेण वासपुधत्तं। १९६ १३ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा
२९ उकस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियट्टा।
" पोग्गलपरियडें । १४ भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदि
३० अणुदिस जाव अवराइदविमाणसिय-सोधम्मीसाणकप्पवासिय
___ वासियदेवाणमंतरं केवचिरं देवा देवगदिभंगो।
__ १९१ कालादो होदि ? । १५ सणक्कुमार-माहिंदाणमंतरं केव
३१ जहण्णेण वासपुधत्तं । चिरं कालादो होदि ?
३२ उक्कस्सेण बे सागरोवमाणि १६ जहण्णेण मुहत्तपुधत्तं ।
सादिरेयाणि। १७ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज
३३ सम्वसिद्धिविमाणवासियदेवा__ पोग्गलपरियह।
णमंतरं केवचिरं कालादो १८ बम्हबम्हुत्तर-लांतवकाविट्ठकप्प
होदि? वासियदेवाणमंतरं केवचिरं
३४ णस्थि अंतरं णिरंतरं। कालादो होदि ?
" १९ जहण्णेण दिवसपुधत्तं ।
| ३५ इंदियाणुवादेण एइंदियाणमंतरं
केवचिरं कालादो होदि ? २० उकस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियह।
३६ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।
३७ उक्कस्सेण बेसागरोवमसह२१ सुक्कमहासुक्क-सदारसहस्सारकप्पवासियदेवाणमंतरं केवचिरं
___ स्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहि.
याणि । कालादो होदि ? २२ जहणणेण पक्खपुधत्तं ।
३८ बादरएइंदिय-पजत्त-अपज्जत्ताण
____मंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १९९ २३ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियझे।
३९ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । २४ आणदपाणद-आरणअच्चुदकप्प
४० उक्कस्सेण असंखेजा लोगा। , वासियदेवाणमंतरं केवचिरं | ४१ सुहुमेइंदिय-पज्जत्त-अपजत्ताणकालादो होदि ?
मंतरं केवचिरं कालादो होदि ? २०० २५ जहणेण मासपुधत्तं । , ४२ जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं ।
१९७
१९८
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________________
पृष्ठ
२०६
एगजीवेण अंतराणुगमसुत्साणि
(१३) सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या
सूत्र ४३ उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदि- पोग्गलपरियट्ट ।
२०४ भागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ५९ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि
ओसप्पिणी उस्सपिणीओ। २०० पंचवचिजोगीणमंतरं केवचिरं ४४ बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय
कालादो होदि ? पंचिंदियाणं तस्सेव पज्जत्त-अप- ६० जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो
६१ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जहोदि?
२०१ पोग्गलपरियडें । ४५ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।
६२ कायजोगीणमंतरं केवचिरं ४६ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज- । कालादो होदि ? पोग्गलपरिय।
, ६३ जहण्णेण एगसमओ। ४७ कायाणुवादेण पुढविकाइय- ६४ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आउकाइय-ते उकाइय-बाउकाइय
६५ ओरालियकायजोगी-ओरालियबादर-सुहुम-पज्जत्त-अपजत्ताण
मिस्सकायजोगीणमंतरं केवचिरं मंतरं केवचिरं कालादो होदि ? २०२
कालादो होदि ?
२०७ ४८ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।
६६ जहण्णेण एगसमओ।
६७ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोव. ४९ उकस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज
____ माणि सादिरेयाणि। __पोग्गलपरियह।
६८ वेउब्वियकायजोगीणमंतरं केव५० वणप्फदिकाइयणिगोदजीव बादर- चिरं कालादो होदि ?
२०८ सुहम-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं ६९ जहण्णेण एगसमओ।
२०९ केवचिरं कालादो होदि ?
७० उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज५१ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । २०३ पोग्गलपरियहूं। ५२ उक्कस्सेण असंखेजा लोगा। , ७१ वेउवियमिस्सकायजोगीणमंतरं ५३ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर- _केवचिरं कालादो होदि ?
पजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो ७२ जहण्णेण दसवाससहस्साणि होदि ?
सादिरेयाणि । ५४ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।. , ७३ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज५५ उक्कस्सेण अडाइज्जपोग्गल
पोग्गलपरिय। परियई।
२०४ ७४ आहारकायजोगि-आहारमिस्स५६ तसकाइय-तसकाइयपजत्त-अप- ___ कायजोगीणमंतर केवचिरं ज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो
कालादो होदि ? होदि?
" ७५ जहण्णण अंतोमुहुत्तं। ५७ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं " ७६ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरिय ५८ उकस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज-
देसूणं ।
२११
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________________
(१)
परिशिष्ट सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ७७ कम्मइयकायजोगीणमंतरं केव- ९४ जहण्णेण एगसमओ। चिरं कालादो होदि?
९५ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ७८ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ति
९६ अकसाई अवगदवेदाण भंगो। , समऊणं।
९७ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी७९ उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखे
सुदअण्णाणीणमंतरं केवचिरं जदिभागो असंनेजासंखेजाओ
___ कालादो होदि ? - ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। ,
९८ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।। ८० वेदाणुवादेण इत्थिवेदाणमंतरं .
केवचिरं कालादो होदि ? २१३ ९९ उक्कस्लेण बेछावट्टिसागरोव८१ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं।
माणि । ८२ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज- १०० विभंगणाणीणमंतरं केवचिरं पोग्गलपरियह।
कालादो होदि? ८३ पुरिसवेदाणमंतरं केवचिरं
१०१ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं। २१९ कालादो होदि ?
१०२ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज८४ जहण्णण एगसमओ।
पोग्गलपरियह । ८५ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज
| १०३ आभिणिबोहिय-सुद-ओहि-मणपोग्गलपरिय।
पज्जवणाणीणमंतरं केवचिरं ८६ णqसयवेदाणमंतरं केवचिरं
कालादो होदि ? ___ कालादो होदि ? ८७ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं।
| १०४ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ८८ उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं। , ! १०५ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट ८९ अवगदवेदाणमंतरं केवचिरं
देसूणं। ___ कालादो होदि ?
२१५ | १०६ केवलणाणीणमंतरं केवचिरं ९० उवसमं पडुश्च जहण्णेण अंतो- ___ कालादो होदि ? ___ २२१ मुहुत्तं।
१०७ णस्थि अंतरं णिरंतरं। ९१ उपकस्सेण अद्धपोग्गलपरियह
१०८ संजमाणुवादेण संजद-सामादेसूणं ।
इयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद-परि९२ खवगं पडुच्च णस्थि अंतरं
हारसुद्धिसंजद-संजदासंजदाणणिरंतरं।
२१६
मंतरं केवचिरं कालादो होदि ? " ९३ कसायाणुवादेण कोधकसाईमाणकसाई-मायकसाई लोभ
१०९ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । २२२ कसाईणमंतरं केवचिरं कालादो ११० उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियह
देसूर्ण।
२
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________________
पृष्ठ
२३०
एगजीवेण अंतराणुगमसुत्ताणि
(१५) मूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ १११ सुहमसांपराइयसुद्धिसंजद-जहा. कालादो होदि ?
क्खादविहारसुद्धिसंजदाणमंतरं १२९ जहण्णण अंतोमुहुत्तं। केवचिरं कालादो होदि ? २२३
१३० उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज११२ उवसमं पडुच्च जहण्णेण अंतो
पोग्गलपरियहूं।
१३१ भवियाणुवादेण भवसिद्धिय११३ उक्कस्सेण अद्भपोग्गलपरियह
अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं . देसूणं ।
कालादो होदि ? ११४ खवगं पडुच्च णत्थि अंतरं
१३२ णत्थि अंतरं णिरंतरं। , णिरंतरं। ११५ असंजदाणमंतरं केवचिरं
१३३ सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्टि
वेदगसम्माइट्टि-उवसमसम्माकालादो होदि?
इटि-सम्मामिच्छाइट्ठीणमंतरं ११६ जहण्णण अंतोमुहुत्तं ।
केवचिरं कालादो होदि ? २३१ ११७ उक्कस्सेण पुब्धकोडी देसूर्ण। २२६
१३४ जहण्णेणंतोमुहुत्तं । ११८ दसणाणुवादेण चक्खुदंसणी. णमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ,, |
१३५ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियटें ११९ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । , १२० उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज
| १३६ खइयसम्माइट्ठीणमंतरं केवचिरं
कालादो होदि ? पोग्गलपरियढें।
. २२७ १२१ अचक्खुदंसणीणमंतरं केवचिरं
१३७ णत्थि अंतरं णिरंतरं । ___ कालादो होदि ?
१३८ सासणसम्माइट्ठीणमंतरं केव१२२ णत्थि अंतरं णिरंतरं ।
चिरं कालादो होदि ? १२३ ओधिदसणी ओधिणाणिभंगो। ,,
१३९ जहण्णेण पलिदोवमस्स असं१२४ केवलदसणी केवलणाणिभंगो । २२८
खेज्जदिभागो। १२५ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय
१४० उपकस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं।
२३४ णीललेस्सिय-काउलेस्सियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ,
१४१ मिच्छाइट्ठी मदिअण्णाणिभंगो। १२६ जहण्णण अंतोमुहत्तं।
१४२ सण्णियाणुवादेण सण्णीणमंतरं १२७ उक्कस्सेण तेत्तीससागरोव
केवचिरं कालादो होदि ? माणि सादिरेयाणि ।
१४३ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं। २३५ १२८ तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिय-सुक्क- १४४ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जलेस्सियाणमंतरं केवचिरं
पोग्गलपरियढें ।
देसूणं।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ १४५ असण्णीणमंतरं केवचिरं
मंतरं केवचिरं कालादो होदि ? २३६ __ कालादो होदि ?
२३५ १४९ जहण्णेण एगसमयं । १४६ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । , १५० उक्कस्सेण तिण्णिसमयं । १४७ उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । ,, , १५१ अणाहारा कम्मइयकायजोगि१४८ आहाराणुवादेण आहाराण
भंगो।
णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमसुत्ताणि ।
000
सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या
सूत्र
पृष्ठ १ णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण ८ बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियगदियाणुवादेण णिरयगदीए.
पंचिदिय पज्जत्ता अपज्जत्ता णेरइया णियमा अत्थि। २३७ णियमा अस्थि ।
२३९ २ एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया। ,
९ कायाणुवादेण पुढविकाइया ३तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिं.
आउकाइया तेउकाइया वाउदियतिरिक्खापंचिंदियतिरिक्ख
काइया वणप्फदिकाइया णिगोदपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्ख
जीवा बादरा सुहुमा पज्जत्ता जोणिणी पंचिंदियतिरिक्खअप
अपज्जत्ता बादरवणप्फदिकाइय
पत्तेयसरीरा पज्जत्ता अपज्जत्ता ज्जत्ता मणुस्सगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणीओ
तसकाइया तसकाइयपज्जत्ता णियमा अस्थि ।
२३८
अपज्जत्ता णियमा अस्थि ।
१० जोगाणुवादेण पंचमणजोगी ४ मणुसअपज्जत्ता सिया अस्थि सिया णस्थि ।
पंचवचिजोगी कायजोगी ओरा
लियकायजोगी ओरालियमिस्स५ देवगदीए देवा णियमा अत्थि। .,
कायजोगी वेउब्वियकायजोगी ६ एवं भवणवासियप्पहुडि जाव
कम्मइयकायजोगी णियमा सब्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु। ,, अत्थि ।
२४० ७ इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा ११ वेउब्धियमिस्सकायजोगी आहारसुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता
कायजोगी आहारमिस्सकायणियमा अत्थि।
२३९ । जोगी सिया अस्थि सिया णस्थि। "
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________________
सूत्र संख्या
सूत्र
१२ वेदानुवादेण इत्थवेदा पुरिसवेदा णवंसयवेदा अवगदवेदा णियमा अस्थि ।
दव्वपमाणानुगमसुखाणि
सूत्र संख्या
१७ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी अचक्खुणी ओहिदंसणी
१३ कसायाणुवादेण कोधकलाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई अक्साई णियमा अस्थि । १४ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी विभंगणाणी
सुदअण्णाणी
आभिणिबोहिय-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणी केवलणाणी नियमा अत्थि ।
१५ संजमाणुवादेण सामाइय-छेदोबट्टावणसुद्धिसंजदा परिहार सुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा असंजदा नियमा अत्थि ।
१६ सुहुमसांपराइयसंजदा सिया अत्थि सिया णत्थि ।
सूत्र संख्या
१ दव्वपमाणाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीप णेरइया दवमाणेण केवडिया ?
सूत्र
२ असंखज्जा ।
.३ असंखेजा संखेज्जाहि ओसप्पिणि
, उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालण ।
1
४ खेत्तण असंखेज्जाओ सेडीओ ।
पृष्ठ
२४०
२४१
39
२४२
दव्वपमाणाणुगमसुत्ताणि ।
पृष्ठ
२४४
99
39
२४५
1. सूत्र
केवलदंसणी णियमा अस्थि । १८ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया
तेउळेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्क लेस्सिया नियमा अत्थि ।
१९ भवियाणुवादेण भवसिद्धिया अभवसिद्धिया नियमा अस्थि । २० सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी वेदगसम्म इट्ठी ( खइयसम्माइट्ठी) मिच्छाइट्ठी णियमा अत्थि । २४३ २१ उवसमसम्माद्दट्ठी ( सारण ) सम्माट्ठी सम्मामिच्छारट्ठी सिया अस्थि सिया णत्थि । २२ सष्णियाणुवादेण सण्णी असण्णी णियमा अस्थि ।
( १७ )
पृष्ठ
२३ आहाराणुवादेण आहारा अणाहारा णियमा अस्थि ।
सूत्र संख्या
सूत्र
५ पदरस्स असं खेज्जदिभागो ।
६ तालि सेडीणं विश्वंभसूची अंगुलवग्गमूलं बिदियवग्गमूलगुणिदेण ।
७ एवं पढमाप पुढवीप णेरइया । ८ विदियाए जावसत्तमाप पुढवीए रद्दया दव्वपमाणेण केवडिया ?
२४२
""
99
99
"3
23
पृष्ठ
२४५
२४६
२४७
"
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________________
२५६
(१८)
परिशिष्ट सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ९ असंखेन्जा।
२५८ जत्ता दवपमाणेण केवडिया? २५४ १० असंखेजासंखेजाहि ओसप्पिणि- | २३ असंखेज्जा। __ उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण। ,, २४ असंखेजाखेजाहि ओस११ खेत्तेण सेडीए असंखेज्जदि
प्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति भागो।
कालेण। १२ तिस्से सेडीए आयामो असं- २५ खेत्तेण सेडीए असंखेज्जदि__ खेज्जाओ जोयणकोडीओ। ,
भागो। १३ पढमादियाणं सेडिवग्गमूलाणं __ संखज्जाणमण्णोण्णब्भासो।।
| २६ तिस्से सेडीए आयामो असं१४ तिरिक्खगदीए तिरिक्खा दव्व
___ खेज्जाओ जोयणकोडीओ। २५६ पमाणेण केवडिया ?
२७ मणुस-मणुसअपज्जत्तएहि रूवं १५ भणंता।
___ रुवापक्खित्तएहि सेडी अव१६ अर्णताणताहि ओसप्पिणि-उस्स
हिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण। २५१
मूलगुणिदेण। १७ खेत्तेण अणंताणता लोगा। ,,
२८ मणुस्सपज्जत्ता मणुसिणीओ १८ पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरि
| दव्वपमाणेण केवडिया ? २५७ क्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्ख- |२९ कोडाकोडाकोडीए उरि कोडाजोणिणी-पंचिंदियतिरिक्खअप
कोडाकोडाकोडीए हेलदो छण्हं ज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया? २५२ __वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं १९ असंखेज्जा।
हेट्टदो। २० असंखेज्जासंखेज्जाहि ओस
| ३० देवगदीए देवा दवपमाणेण पिणी-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति
केवडिया? कालेण ।
, ३१ असंखेजा। २१ खेत्तेण पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं
३२ असंखज्जासंखज्जाहि ओसदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदिय
प्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति तिरिक्खजोणिणि-पंचिंदिय--
कालेण। तिरिक्खअपज्जत्तएहि पदरम
| ३३ खेत्तेण पदरस्स बेछप्पण्णंगुलवहिरदि देवअवहारकालादो
सदवग्गपडिभारण । असंखेज्जगुणहोणेण कालेण संखेज्जगुणहीणेण कालेण
| ३४ भवणवासियदेवा दवपमाणेण संखेज्जगुणेण कालेण असंखेज्ज
केवडिया? गुणहीणेण कालेण ।
२५३ ३५ असंखेज्जा। २२ मणुसगदीए मणुस्सा मणुसअप- ३६ असंखेड्जासंखेन्जाहि ओस
२६०
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________________
२६८
दव्वपमाणाणुगमसुत्ताणि
(१९) सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र प्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति । ५३ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । २६६ कालेण।
२६१ ५४ एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतो३७ खेत्तेण असंखेज्जाओ सेडीओ। ,, मुहुत्तेण । ३८ पदरस्स असंखेज्जदिभागो।। २६२ ५५ सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा । ३९ तासि सेडीणं विक्खंभसूची
दस्वपमाणेण केवडिया ? __ अंगुलं अंगुलवग्गमूलगुणिदेण। "
५६ असंखेज्जा। ४० वाणतरदेवा व्वपमाणेण ५७ इंदियाणुवादेण एरंदिया बादरा केवडिया?
सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता दव्य४१ असंखेज्जा।
__पमाणेण केवडिया? ४२ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओस- ५८ अणंता। प्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति ५९ अणंताणताहि मोसप्पिणि-उस्सकालेण ।
२६३ प्पिणीहिण अवहिरंति कालेण। , ४३ खेत्तेण पदररस संखेज्जजोयण- ६० खेत्तेण अणंताणंता लोगा। , सदवग्गपडिभारण।
६१ बीइंदिय-तीइंदिय-चरिदिय५४ जोदिसिया देवा देवगदिभंगो। , पंचिंदिया तस्सेव पज्जत्ता अप४५ सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवा
ज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया? २६९ दव्वपमाणेण केवडिया? २६४ ६२ असंखेज्जा। ४६ असंखेज्जा।
६३ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओस४७ असंखेज्जासंबंजाहि भोस-
प्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति प्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति
कालेण। कालेण।
,, ६४ खेत्रोण बीइंदियातीइंदिय-चउ४८ खेत्तण असंखेज्जाओ सेडीओ। २६५ रिदिय-पंचिंदिय तस्सेव पज्जत्त४९ पदरस्स असंखेज्जदिभागो। ,, अपज्जत्तेहि पदरं अवहिरदि ५० तासि सेडीणं विक्खंभसूची
अंगुलस्स असंखेज्जदिभागअंगुलस्स वग्गमूलं बिदियं
वग्गपडिभाएण अंगुलस्स संखेतदियवग्गमूलगुणिदेण। , ज्जदिभागवग्गपडिभाएण अंगु५१ सणक्कुमार जाव सदर-सह
लस्स असंखेज्जदिभागवग्गस्सारकप्पवासियदेवा सत्तम
पडिभाएण। पुढवीभंगो।
६५ कायाणुवादेण पुढविकाइय५२ आणद जाव अवराइदविमाण
आउकाइय-तेउकाइय-चाउकाइयवासियदेवा व्वपमाणेण केव
बादरपुढावकाइय-बादरआउदिया।
२६६ काइय-बादरतेउकाइय-बादर
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________________
(२०)
परिशिष्ट
२७५
२७६
सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ वाउकाइय-बादरवणप्फदिकाइय- ७८ लोगस्स संखेज्जदिभागो। २७४ पत्तेयसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता ७९ वणप्फदिकाइय-णिगोदजीवा सुहुमपुढविकाइय-सुहुमआउ
बादरासुहमा पज्जत्ता अपजत्ता काइय--सुहुमतेउकाइय-सुहुम
दव्वपमाणेण केवडिया? वाउकाइय तस्सेव पज्जत्ता अप- ८० अणंता।
ज्जत्ता दुव्वपमाणेण केवडिया? २७०८१ अणंताणताहि ओसप्पिणि६६ असंखज्जा लोगा।
उस्सप्पिणीहि ण अवहिरति ६७ बादरपुढविकाइय--बादरआउ
. कालेण। .काइय-बादरवणष्फदिकाइय
८२ खेत्तेण अणंताणता लोगा। पत्तयसरीरपज्जत्ता दव्वपमा- ८३ तसकाइयत्तसकाइयपजत्त-अपणेण केवडिया?
जत्ता पंचिंदिय-पंचिंदियपजत्त६८ असंखेज्जा।
अपज्जत्ताणं भंगो। ६९ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओस- | ८४ जोगाणुवादेण पंचमणजोगी प्पिणि-उस्सप्पिणीहि भवहिरंति
तिण्णिवचिजोगी दव्वपमाणेण कालेण ।
२७२ केवडिया? ७० खेत्तेण बादरपुढविकाइय-बादर- ८५ देवाणं संखेज्जदिभागो। २७७ आउकाइय-बादरवणप्फदिकाइय
८६ वचिजोगि-असश्चमोसवचिजोगी पत्तयसरीरपज्जत्तएहि पदरम
दव्वपमाणेण केवडिया? बहिरदि अगुंलस्स असंखेजदिभागवग्गपडिभाएण।
"
८७ असंखेज्जा। ७१ बादरतेउपज्जत्ता. व्वपमाणेण८८ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसकेवडिया?
प्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति ७२ असंखेज्जा।
कालेण । ७३ असंखज्जावलियवग्गो आव
८९ खेत्तेण वचिजोगि-असञ्चमोसलियघणस्स अंतो।।
वचिजोगीहि पदरमवहिरदि
अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्ग७४ बादरवाउपज्जत्ता दवपमाणेण
पडिभाएण।
२७८ केवडिया? ७५ भसंखेज्जा।
९० कायजोगि-ओरालियकायजोगि७६ असंखेज्जासंखेन्जाहि ओस
ओरालियमिस्सकायजोगि-कम्म. प्पिणि-उत्सप्पिणीहि भवहिरंति
इयकायजोगी दबपमाणेण केवकालेण ।
२७४ डिया? ७७ खेत्तेण असंखेन्जाणि पदराणि। , । ९१ अणंता।
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________________
दव्वपमाणाणुगमसुत्ताणि
(२१) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ ९२ अणंसाणंताहि ओसप्पिणि-उस्स- ११२ कसायाणुवादेण कोधकसाई
पिणीहि ण अवहिरंति कालेण । २७९ माणकसाई मायकसाई लोभ. ९३ खेत्तेण अणंताणता लोगा। , कसाई व्वपमाणेण केव९५ वेउब्वियकायजोगी दव्वपमाणेण
डिया?
२८४ केवडिया?
११३ अणंता। ९५ देवाणं संखेज्जदिभागूणो। , ११४ अणंताणताहि ओसप्पिणि९६ वेउब्वियमिस्सकायजोगीदव्य
उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति पमाणेण केवडिया?
कालेण। ९७ देवाणं संखेज्जदिभागो।
११५ खेत्तेण अणंताणंता लोगा। ९८ आहारकायजोगी व्वपमाणेण ११६ अकसाई दव्वपमाणेण केवकेवडिया?
डिया? ९९ चदुवणं ।
११७ अणंता। १०० आहारमिस्सकायजोगी दव- ११८ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी पमाणेण केवडिया?
सुअण्णाणी णव॒सयभंगो। , १०१ संखेज्जा।
११९ विभंगणाणी दयपमाणेण केव१०२ वेदाणुवादेण इत्थिवेदा दव्य
डिया? पमाणेण केवडिया?
१२० देवेहि सादिरेयं । १०३ देवीहि सादिरेयं ।
१२१ आभिणियोहिय-सुद-ओधिणाणी १०४ पुरिसवेदा दवपमाणेण केव
दव्यपमाणेण केवडिया? , डिया?
| १२२ पलिदोषमस्स असंखेज्जदि१०५ देवेहि सादिरेयं ।
२८२
| भागो। १०६ णqसयवेदा दव्वपमाणेण केव- | १२३ पदेहि पलिदोवममवहिरदि डिया?
अंतोमुहुत्तेण ।
.. १०७ अणंता।
१२४ मणपज्जवणाणी दवपमाणेण १०८ अणंताणताहि ओसप्पिणि
केवडिया? उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति १२५ संवेज्जा। कालेण।
१२६ केवलणाणी दव्यपमाणेण केव- १०९ खेत्तेण अणताणता लोगा। २८३ डिया? ११० अवगदवेदा दव्वपमाणेण केव- । १२७ अणंता। डिया?
, १२८ संजमाणुवादेण संजदा सामा२११ अणंता।
इयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिंसंजदा
२८७
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________________
(२२)
परिशिष्ट सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र दन्वपमाणेण केवडिया ? २८८ | १४६ केवलदसणी केवलणाणिभंगो । २९२ १२९ कोडिपुधत्तं।
| १४७ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय१३० परिहारसुद्धिसंजदा दव्वपमा
णीललेस्सिय--काउलेस्सिया . _णेण केवडिया ?
__ असंजदभंगो। १३१ सहस्सपुधत्तं।
१४८ तेउलेस्सिया दव्वपमाणेण केव१३२ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा
डिया? दव्वपमाणेण केवडिया?
| १४९ जोदिसियदेवेहि सादिरेयं ।। १३३ सदपुधत्तं ।
१५० पम्मलेस्सिया दन्वपमाणेण केवडिया?
२९३. १३४ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया? २८९
| १५१ सणिपंचिंदियतिरिक्खजोणि१३५ सदसहस्लपुधत्तं ।
णीण संखेज्जदिभागो। १३६ संजदासजदा दव्वपमाणेण | १५२ सुक्कलेस्सिया दव्वपमाणेण केवडिया?
केवडिया? १३७ पलिदोवमस्स असंखेज्जदि- | १५३ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो।
भागो। १३८ एदेहि पलिदोवममवहिरदि
| १५४ एदेहि पलिदोवममवहिरदि
____ अंतोमुहुत्तेण। अंतोमुहुत्तेण ।
१५५ भवियाणुवादेण भवसिद्धिया १३९ असंजदा मदिअण्णाणिभंगो। २९०
दव्धपमाणेण केवडिया? १४० ईसणाणुवादेण चक्खुदंसणी
१५६ अणंता। दव्वपमाणेण केवडिया?
१५७ अणंताणंताहि ओसप्पिणि१४१ असंखज्जा।
उस्सप्पिणीहिण अवहिरंति १४२ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओस
कालेण। प्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति १५८ खेत्तेण अणंताणंता लोगा। २९५ कालेण ।
| १५९ अभवसिद्धिया व्वपमाणेण १४३ खेत्तेण चक्खुदंसणीहि पदर
केवडिया? मवहिरदि अंगुलस्स संखे- १६० अणंता।
ज्जदिभागवग्गपडिभाएण। २९१ | १६१ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी १४४ अचक्खुदंसणी असंजमंगो। , खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्मा१४५ ओहिदसणी ओहिणाणिभंगो। ,, ।। दिट्टी उवसमसम्मादिट्टीसासण
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________________
सूत्र संख्या
सूत्र
सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ?
- १६२ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।
- १६३ पदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुडुत्ते ।
१६४ मिच्छाहट्टी असंजदभंगो ।
-१६५ सणियाणुवादेण सण्णी दव्वपमाणेण केवडिया ?
खेत्तागमसुत्ताणि
सूत्र संख्या
१ खेत्ताणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीप णेरइया सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ?
सूत्र
२ लोगस्स असंखेज्जदिभागे । ३ एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया ।
४ तिरिक्खगदीए तिरिक्खा सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडित्ते ?
५ सव्वलोए ।
६ पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिकखपजत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी पंचिदियतिरिक्ख अपज्जन्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ।
पृष्ठ
२९६
""
55
२९७
""
खेत्ताणुगमसुत्ताणि ।
पृष्ठ
२९९
३०१
३०३
३०४
33
सूत्र संख्या
सूत्र
१६६ देवेहि सादिरेयं ।
१६७ असण्णी असंजद भंगो ।
மா
३०५
१६८ आहाराणुवादेण आहारा अणा
पमाणेण केवडिया ?
हारा
१६९ अनंता ।
१७० अणंताणंताहि
ओसप्पिणि
उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति
कालेन ।
१७१ खेत्तेण अनंताणंता लोगा ।
( २३ )
सूत्र संख्या
सूत्र
७ लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।
८ मणुसगदीप मणुसा मणुसपजत्ता मणुसिणी सत्थाणेण उववादेण केवडिखेत्ते ?
९ लोगस्स असंखेज्जदिभागे । १० समुग्धादेण केवडिखेते ? ११ लोगस्स असंखेज्जदिभागे । १२ असंखेज्जेसु वा भारसु सव्व लोगे वा ।
१३ मणुस अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्वादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? १४ लोगस्स असंखेज्जदिभागे । १५ देवगदीए देवा सत्थाणेण समुग्वादेण उववादेण केवडिखेत्ते ?
२९७
35
२९८
29
99
29
ष्ठ
पृष्ठ
३०५
३०८
79
३१०
"
३११
95
ܕ
३१३
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________________
(२४)
परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या मूत्र
पृष्ट १६ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ३१४ | ३२ कायाणुवादेण पुढविकाइय १७ भवणवासियप्पहुडि जाव सव्वट्ठ
आउकाइय तेउकाइय वाउकाइय सिद्धिविमाणवासियदेवा देव
सुहमपुढविकाइय सुहुमआउ. गदिभंगो।
काइय सुहुमतेउकाइय सुकुमवाउ१८ इंदियाणुवादेण एइंदिया सुहुमे
काइय तस्लेव पज्जत्ता अपज्जत्ता इंदिया पजत्ता अपज्जत्ता सत्था
सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण णेण समुग्धादेण उववादेण
केवडिखेत्ते?
३२९ केवडिवेत्ते?
३२० ३३ सव्वलोगे। १९ सव्वलोगे।
३२१ ३४ बादरपुढविकाइय-बादरआउ-- २० बादरेइंदिया पजत्ता अपज्जत्ता
काइय-बादरतेउकाइय-बादरवणसत्थाणेण केवडिखेत्ते?
प्फदिकाइयपत्तेयसरीरा तस्सेव
अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडि२१ लोगस्स संखेज्जदिभागे। ,
खेत्ते? २२ समुग्धादेण उववादेण केवडि
३५ लोगस्स असंखेज्जदिभागे।
३६ समुग्घादेण उववादेण केवडि२३ सव्वलोए।
खेत्ते? २४ बेइंदिय तेइंदिय चउरिदिय ३७ सव्वलोगे। तस्सेव पज्जत्त-अपजत्ता सत्थाणेण
३८ बादरपुढविकाइया बादरआउसमग्घादेण उववादण केवडि
___ काइया बादरतेउकाइया बादर३२४
वणप्फदिकाइयपत्तयसरीरपजत्ता २५ लोगस्स असंखेज्जदिभागे।
सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण २६ पंचिंदिय पंचिदियपजत्ता सत्था
केवडिखेत्ते?
३३४ . णेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ३२६
३९ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। , २७ लोगस्स असंखेज्जदिभागे।
४० बादरवाउकाइया तस्सेव अप. २८ समुग्धादेण केवडिखेत? ३२७
जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते? ३२५ २९ लोगस्स असंखेज्जदिभागे असं.
४१ लोगस्स संखेज्जदिभागे। ३३६ खज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा।
| ४२ समुग्घादेण उववादेण केवडि३० पंचिं दयअपज्जत्ता सत्थाणेण
खेत्ते? सव्वलोगे। समुग्धादेण उववादेण केवडि- | ४३ बादरवाउपज्जत्ता सत्थाणेण . खेत्ते?
३२८ समुग्धादेण उववादेण केवडि३१ लोगम्स असंखेज्जदिभागे। , खेत्ते ?
३३३
Page #654
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________________
खेत्ताणुगमसुत्ताणि
(२५) सूत्र संख्या सूत्र . पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र : पृष्ठ ४४ लोगस्स संखेज्जदिमागे। ३३७ । ६० लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ३४३ ४५ वणफदिकाइय---णिगोदजीवा ६१ उववादो णस्थि। .. सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहुम-- ६२ वेउव्वियमिस्सकायजोगी सत्थाणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्त
णेण केवडिखेत्ते?
३४४ अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण
६३ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। - उववादेण केवडिखेत्ते ?
,
६४ समुग्घाद-उववादा णत्थि। ४६ सव्वलोए।
,
६५ आहारकायजोगी वेउब्धिय४७बादरवणप्फदिकाइया बादर
कायजोगिभंगो। णिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता
३ अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते? ,,
| ६६ आहारमिस्सकायजोगी वेउव्विय४८ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ,
| मिस्सभंगो। ४९ समुग्धादेण उववादेण केवडि
६७ कम्मइयकायजोगी केवडिखेत्ते ?. , खेत्ते?
३३९ | ६८ सव्वलोगे। ५० सव्वलोए।
६९ वेदाणुवादेग इथिवेदा पुरिस
वेदा सत्थाणेण समुग्घादेण ५१ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्त--
. उववादेण केवडिखेत्ते? अपज्जत्ता पंचिंदिय-पज्जत्तअपज्जत्ताणं भंगो।
७० लोगस्स असंखेज्जदिभागे।
७१ णqसयवेदा सत्थाणेण समु५२ जोगाणुवादेण पंचमणजोगी
___ ग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते? ३४८ पंचवचिजोगी सत्थाणेण समु.
ग्घादेण केवडिखेत्ते? ___३४० ७२ सव्वलोए। ५३ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ,
७३ अवगदवेदा सत्थाणेण केवडि
खेत्ते? ५४ कायजोगि-ओरालियमिस्स--
७४ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। , कायजोगी सत्थाणेण समुग्घा
७५ समुग्घादेण केवडिखेत्ते ?
३४१ देण उववादेण केवडिखेत्ते ?
३४९
७६ लोगस्स असंखेज्जदिमागे असं ५५ सव्वलोए।
खेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा। , ५६ ओरालियकायजोगी सत्थाणेण
७७ उववादं णस्थि। __ समुग्धादेण केवडिखेत्ते? રૂકર
७८ कसायाणुवादेण कोधकसाई ५७ सव्वलोए।
माणकसाई मायकसाई लोभ५८ उववादं णत्थि ।
३४३ | कसाई णबुंसयवेदभंगो। ५९ वेउध्वियकायजोगी सत्थाणेण
७९ अकसाई अवगदवेदभंगो। , समुग्घादेण केवडिखेत्ते ? ,, | ८० णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी
Page #655
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रम
(२६)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सुत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र - सुदअण्णाणी णqसयवेदभंगो। ३५० णिव्वत्तिं पडुच्च पत्थि । जदि... ८१ विभंगणाणि--मणपज्जवणाणी
लद्धिं पडुच्च अस्थि, केवडिखेत्ते ? ३५६ सत्थाणेण समुग्घादेण केवडिखत्ते?
९७ लोगस्स असंखेन्जदिभागे। , ८२ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ,
९८ अचखुदंसणी असंजदभंगो। , ८३ उववादं णत्थि।
३५२ ९९ ओधिदसणी ओधिणाणिभंगो। ३५७ ८४ आभिणिबोहिय-सुद-भोधिणाणी १०० केवलदसणी केवलणाणिभंगो। ,, - सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण १०१ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्तिया केवडिखेत्ते?
णीललेस्सिया काउलेस्सिया ८५ लोगस्स असंखेजदिभागे।
असंजदभंगो। ८६ केवलणाणी सत्थाणेण केवडि- १०२ तेउलेस्तिय-पम्मलेस्तिया सत्था। खेत्ते ?.
णेण समुग्घादेण उवादेण ८७ लोगस्स असंखेज्जदिभागे।
केवडिखेत्ते?
३५३ ८८ समुग्घादेण केवडिखेत्ते ?
१०३ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ३५८ ८९ लोगस्स असंखेज्जदिमागे असं
१०४ सुक्कलेस्सिया सत्थाणेण उवखेज्जेसु वा भागेसु सवलोगे वा। ,,
वादेण केवडिखेत्ते ? . ९० उववादं णत्थि।
१०५ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ९१ संजमाणुवादेण संजदा जहा
|१०६ समुग्घादेण लोगस्त असंखक्खादविहारसुद्धिसंजदा अक
जदिभागे असंखेज्जेसु वा साईभंगो।
३५४ भागेसु सबलोगे वा। ९२ सामाइयच्छेदोवट्टावणसुद्धिसंजदा १०७ भवियाणुवादेण भवसिद्धिया परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांप
अभवसिद्धिया सत्थाणेण समु. राइयसुद्धिसंजदा संजदासंजदा
ग्घादेव ण केवडिखेत्ते? ३६० मणपज्जवणाणिभंगो।
१०८ सव्वलोगे। ९३ असंजदा णबुंसयभंगो। ३५५ / १०९ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी . ९४ दंसणाणुवादेण च खुदंसणी
खइयसम्मादिट्टी सत्थाणेण सत्थाणेण समुग्धादेण केवडि
उववादेण केवडिखेत्ते ? ३६१ ... खेत्ते ?
, ११० लोगस्स असंखेज्जदिभागे। , ९५ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। , १११ समुग्धादेण लोगस्स असंखे· ९६ उववादं सिया अस्थि, सिया
ज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा णस्थि । लाद्धिं पडुच्च अस्थि,
भागेतु सम्चलोगे वा।
३६२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
फोसणाणुगमसुत्ताणि
(२७) सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ११२ वेदगसम्माइटि-उवसमसम्मा
केवडिखेत्ते ?
३६४ इटि-सासणसम्माइट्ठी सत्था- । ११८ लोगस्ल असंखेज्जदिभागे। णेण समुग्धादेण उववादेण ११९ असण्णी सत्थाणेण समुग्घादेण केवडिखेत्ते ?
उववादेण केवडिखेत्ते ? ११३ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। " | १२० सव्वलोगे। ११४ सम्मामिच्छाइट्ठी सत्थाणेण
१२१ आहाराणुवादेण आहारा सत्थाकेवडिखेत्त?
३६३
णेण समुग्घादेण उववादेण ११५ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ३६४ केवडिखेत्ते? ११६ मिच्छाइट्ठी असंजभंगो। , १२२ सव्वलोगे । ११७ सणियाणुवादेण सण्णी सत्था- १२३ अणाहारा केवडिखेत्ते ?
णेण समुग्घादेण उववादेण । १२४ सव्वलोए।
फोसणाणुगमसुत्ताणि ।
"
३६७
सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १ फोसणाणुगमेण गदियाणुवादेण
खेत्तं फोसिदं ?
३७३ णिरयगदीए रइया सत्थाणेहि ९ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। केवडिखेत्तं फोसिदं?
१० समुग्घाद-उववादेहि य केवडियं २ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ३६८ ___ खेत्तं फोसिदं ? ३ समुग्धाद-उववादेहि केवडिय ११ लोगस्स असंखेज्जदिभागो एगखेत्तं फोसिदं ?
बेतिण्णि-चत्तारि-पंच-छचोद्दस ४ लोगस्त असंखेज्जदिभागो। , भागा वा देसूणा।
३७४ ५ छचोद्दसभागा वा देसूणा! , १२ तिरिक्खगदीए तिरिक्खा ६ पढमाए पुढवीए णेरड्या
सत्थाण- समुग्घाद-उववादेहि सत्थाण-समुग्घाद-उववादपदेहि
केवडियं खेत्तं फोसिदं ? केवडियं खेत्तं फोसिदं? ३७० १३ सव्वलोगो। ७ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। , | १४ पंचिंदियतिरिक्स्त्र-पंचिंदियतिरि८ बिदियाए जाव सत्तमाए पुढवीए
क्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्ख-- रहया सत्थाणेहि केवडियं . जोणिणि-पंचिंदियतिरिक्ख अप
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________________
"
(२८)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या ज्जत्ता सत्थाणेण केवडियं खंत्तं ३० लोगस्स असंखेज्जदिभागो फोसिदं?
३७६ छचोदसभागा वा देसूणा। ३८४ १५ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ,, ३१भवणवासिय-वाणवेतर-जोइसिय१६ समुग्घादउववादेहि केवडियं
देवा सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं खेत्तं फोसिदं ?
३७७ . फोसिदं ? १७ लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव- ३२ लोगस्स असंखेज्जदिभागो लोगो वा।
अद्धट्टा वा अटुचोदसभागा वा १८ मणुसगीए मणुसा मणुस
देसूणा। पजत्ता मणुसिणीओ सत्थाणेहि
३३ समुग्धादण केवडियं खेत्तं केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ३७९ |
फोसिदं ? १९ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। "
३४ लोगस्स असंखेज्जदिभागो २० समुग्धादेण केवडियं खेत्तं .
भट्ठा वा अट्ट-णवचोद्दसभागा फोसिदं?
वा देसूणा। २१ लोगस्स असंखेज्जदिभागो असं
३५ उववादेहि केवडियं खत्तं खेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा। " फोसिदं? २२ उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिद? ३८१ । १६लोगस्स असंखेज्जदिभागो। २३ लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्व
३७ सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवा लोगो वा।
सत्थाण-समुग्धादं देवगदिभंगो। ३८८ २४ मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदिय
३८ उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? तिरिक्खअपजत्ताणं भंगो। ३८२
लोगस्स असंखेज्जदिभागो २५ देवगदीए देवा सत्थाणेहि केव
दिवङ्कचोहसभागा वा देसूणा। , डियं खेत्तं फोसिदं ?
३९ सणक्कुमार जाव सदर सह२६ लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ
स्सारकप्पवासियदेवा सत्थाणचोदसभागा वा देसूणा।
समुग्धादेहि केवडियं खेतं २७ समुग्धादेण केवडियं खेत्तं
फोसिदं? ___ फोसिदं ? . . ३८३ | ४० लोगस्ल असंखेज्जदिभागो अट्ठ२८ लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ट
चोदसभागा वा देसूणा। णवचोइसभागा वा देसूणा। , ४१ उववादेहि केवडियं खेत्तं २९ उववादेहि केवडियं
फोसिद?
खेत्तं फोसिदं ?
३८४ ४२ लोगस्स असंखेज्जदिभागो
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--------------------------------------------------------------------------
________________
फोसणागमसुत्ताणि
सूत्र संख्या
सूत्र
तिष्णि- अद्भुटु चत्तारि - अद्धवंचमपंचचोइस भागा वा देसूणा । -४३ आणद जाव अच्चुदकप्पवासिय देवा सत्थाण- समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
-४४ लोगस्स असंखेज्जदिभागो छचोद सभागा वा दसूणा । ४५ उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ४६ लोगस्स असंखेज्जदिभागो अद्धछट्ट-छचोइस भागा वा देसूणा । - ४७ णवगेवज्ज जाव सव्र्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा सत्थाण: समुग्वाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिद ?
-४८ लोगस्स असंखेजदिभागो । ४९ इंदियाणुवादेण एइंदिया सुहुमेइंदिया पज्जत्ता अपजत्ता सत्थाणसमुग्धाद उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
५० सव्वलोगो ।
५१ बादरेइंदिया पजत्ता अपज्जन्त्ता सत्थाणेहि केवडियं स्वत्तं फोसिद ?
५२ लोगस्स संखेजदिभागो ।
५३ समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
५४ सव्वलोगो ।
५५ बीइंदिय-तीइंदिय- चउरिंदियपज्जन्त्तापजत्ताणं सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
पृष्ठ
३९०
३९१
"
३९२
35
33
३९३
""
३९४
( २९ )
सूत्र संख्या
सूत्र
५६ लोगस्स असंखेजदिभागो । ५७ समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
५८ लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा ।
५९ पंचिदिय-पंचिदियपजत्ता सत्थाहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ६० लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोदसभागा वा देसूणा । ६१ समुग्धादेहि केवडियं फोसिदं ?
खेत्तं
६२ लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्टचोहसभागा वा देखूणा असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा । ६३ उववादेहि केवडिय खेत्तं फोसिदं ? ६४ लोगस्स सव्वलोगो वा ।
असंखेज्जदिभागो
६५ पंचिदिय अपज्जन्त्ता सत्थाणेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
६६ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
६७ समुग्धादेहि उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
६८ लोगस्स असंखेजदिभागो
६९ सव्वलोगो वा । ७० कायावादेण
पुढविकाइय आउकाइय तेउकाइय वाउकाइय सुहुम पुढविकाइय सुहुम आउ काइय सुहुमते उकाइय सुहुमवाउकाइय तस्सेव पज्जत्ता अपजत्ता सत्थाण - समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
पृष्ठ
३९४
३९५
35
३९६
"
३९७
""
३९८
""
३९९
33
४००
33
19
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________________
मूत्र
पृष्ठ
४०८
४०१
४१०.
(३०)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या ७१ सबलोगो।
४०० | ८९ समुग्घाद-उववादेहि केवडियं ७२ बादरपुढविकाइय--बादरआउ--
खेत्तं फोसिदं ? काइय-बादरतेउकाइय-बादरवण- ९० लोगस्ल संखेजदिभागो।। प्फदिकाइयपत्तयसरीरा तस्सेव
९१ सव्वलोगो वा। अपज्जत्ता सत्याणेहि केवडियं
९२ वणप्फदिकाइया णिगोदजीवा खेत्तं फोलिदं?
४०२
सुहुमवणप्फदिकाइया सुहुम७३ लोगस्स असंखेजदिभागो।
णिगोदजीवा तस्सेव पजत्ता ७४ समुग्धाद-उववादेहि केवडियं
अपज्जत्ता सथाण-समुग्घादखेत्तं फोसिदं?
उववादेहि केवडियं खेत्तं ७५ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ४०३ / फोसिदं ? ७६ सबलोगो वा।
९३ सव्वलोगो। ७७ बादरपुढवि-बादरआउ-बादरतेउ
९४ बादरवणप्फदिकाइया बादरबादरवणप्फदिकाइयपत्तयसरीर
णिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता पजत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं
अपजत्ता सत्थाणेहि केवडियं फोसिदं?
खेत्तं फोसिदं ? ७८ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ४०४
९५ लोगस्स असंखेजदिभागो। ७९ समुग्घाद-उववादेहि केवडियं
९६ समुग्घाद उववादेहि केवाडियं ___ खेसं फोसिदं ?
४०६
खेत्तं फोसिदं? ८० लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ,
९७ सव्वलोगो। ८१ सगलोगो वा। ८२ बादरवाउकाइया तस्सेव अप
९८ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ता
अपज्जत्ता पंचिंदिय-पंचिंदियजत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं
पजत्त-अपज्जत्तभंगो। फोसिदं? ८३ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ४०७
९९ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि
पंचवचिजोगी सस्थाणेहि केव८४ समुग्घाद-उववादेहि केवडियं । खेत्तं फोसिदं? .
डियं नेत्तं फोसिदं? ८५ ( लोगस्स संखेजदिभागो)। ,,
१०० लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ८६ सव्वलोगो वा।
१०१ अट्टचोद्दसभागा वा देसूणा। ८७ बादरवाउपज्जत्ता सस्थाणेहि १०२ समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
फोसिदं ? ८८ लोगस्स संखेजदिभागो।
१०३ लोगस्स असंखेज्जदिभागो।
,
४११
,, ,,
४०८
४१२ ,
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________________
पृष्ठ
४२०
फोसणाणुगमसुत्साणि
(३१) सूत्र संख्या सूत्र __ पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १०४ अट्टचोहसभागा देसूणा सब- १२५ लोगस्ल असंखेजदिभागो। ४१९ लोगो वा।
४१२ | १२६ समुग्घाद-उववादं णत्थि। १०५ उववादो णत्थि।
| १२७ कम्मइयकायजोगीहि केवडियं १०६ कायजोगि-ओरालियमिस्सकाय-
खेत्तं फोसिदं ? जोगी सत्थाण-समुग्घाद-उव- १२८ सव्वलोगो।
वादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? , | १२९ वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिस१०७ सबलोगो।
वेदा सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं १०८ ओरालियकायजोगी सत्थाण
फोसिदं? समुग्घादेहि केवडियं खेतं | १३० लोगस्ल असंखेज्जदिभागो। ,, फोसिदं?
४१४ | १३१ अट्ठ-चोद्दसभागा देसूणा। . , २०९ सबलोगो।
१३२ समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं ।। ११० उववादं णत्थि।
फोसिदं ? १११ वेउब्वियकायजोगी सत्थाणेहि
। १३३ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। केवडियं खेत्तं फोसिदं?
१३४ अट्ठ-चोइसभागा देसूणा सव११२ लोगस्स असंखेज्जदिभागो।।
लोगो वा। ११३ अट्टचोदसभागा देसूणा। ,, १३५ उववादेहि केवडियं खेत्तं ११४ समुग्धादेण केवडियं खेत्तं . फोसिदं ? फोसिदं?
| १३६ लोगस्स असंखेज्जदिभागो।। ११५ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। १३७ सव्वलोगो वा। ११६ अट्ठतेरह-चोद्दसभागा देसूणा। , १३८ णqसयवेदा सत्थाण-समुग्घाद११७ उववादं णत्थि।
उववादेहि केवडियं खेत्तं २१८ वेउब्धियमिस्सकायजोगी सत्था
, फोसिदं ? णेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? ४१७ | १३९ सब्वलोगो। ११९ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। , १४० अवगदवेदासत्थाणेहि केवडियं । १२० समुग्घाद-उववादं णत्थि। , खेत्तं फोसिदं? २२१ आहारकायजोगी सत्थाण-समु- | १४१ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ४२४ ___ग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? ४१८ | १४२ समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं १२२ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ,, फोसिदं ? १२३ उववादं णत्थि।
४१९ | १४३ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ' २२४ आहारमिस्सकायजोगी सत्था- १४४ असंखेज्जा वा भागा।
णेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? , | १४५ सव्वलोगो वा। .
.
४२२
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________________
( ३२ )
सूत्र संख्या
१४६ उववादं णत्थि ।
१४७ कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई णवुंसय वेदभंगो ।
१४८ अकलाई अवगदवेदभंगो ।
सूत्र
मदिअण्णाणी
सत्थाण-समु
१४९ णाणाणुवादेण सुदअण्णाणी ग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
१५० सव्वलोगो ।
१५१ विभंगणाणी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं १ १५२ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १५३ अट्ठ-चोद्दसभागा देसूणा । १५४ समुग्धादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
६५५ लोगस्स असंखेज्जदि भागो ।
१५६ अट्ठ-चोद्द सभागा फोसिदा ।
देसूणा
१५७ सव्वलोगो वा ।
१५८ उववादं णत्थि |
१५९ आभिणिबोद्दिय-- सुद-ओहि-णाणी सत्थाण-समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं १
१६० लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
१६१ अट्ठ-चोद्दस भागा देसूणा । १६२ उववादेहि केवडियं फोसिदं ?
१६३ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १६४ छत्रोद्दसभागा देसृणा ।
खेत्तं
परिशिष्ट
पृष्ठ
४२५
39
""
99
४२६
29
39
99
४२७
""
37
33
४२८
23
""
"
४२९
99
"
सूत्र संख्या
१६५ मणपजवणाणी सत्थाण-समुग्वादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ४३०
१६६ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
१६७ उववादं णत्थि ।
१६८ केवलणाणी अवगदवेदभंगो ।
सूत्र
१६९ संजमाणुवादेण संजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा अकसाइभंगो ।
१७० सामाइयच्छेदो वहावण सुद्धिसंजद- सुहुमसांपराइय संजदाणं मणपज्जवणाणिभंगो ।
१७१ संजदासंजदा सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
१७२ लोगस्स असं खेज्जदिभागो ।
१७३ समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
१७४ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १७५ छ्चोद्दस भागा वा देसूणा । १७६ उववादं णत्थि ।
१७७ असंजाणं णवुंसयभंगो ।
१७८ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी सत्थाणेहि केवडियं वित्तं फोसिद ?
१७९ लोगस्स असं खेज्जदिभागो ।
१८० अट्ठचोइसभागा वा देसॄणा ।
१८१ समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
१८२ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
१८३ अट्ठ-चोइसभागा देसूणा ।
१८४ सव्वलोगो वा ।
पृष्ठ
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४३१
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19
४३२.
39
४३३.
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४३५
39
33
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फोसणाणुगमसुत्ताणि
(१३) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ १८५ उववादं सिया अस्थि सिया २०६ उववादेहि केवडियं खेत्तं णस्थि । -
४३६ फोसिदं ? १८६ लद्धिं पडुच्च अत्थि, णिवत्ति २०७ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ४४२ पडुच्च णस्थि ।
, २०८ पंच चोहसभागा वा देसूणा। , १८७ जदि लद्धिं पडुच्च अस्थि २०९ सुक्कलेस्सिया सत्थाण-उव
केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ४३७ वादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? ,, १८८ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ,, २१० लोगस्स असंखेज्जदिभागो। " १८९ सव्वलोगो वा।
२११ छचोहसभागा वा देसूणा। " १९० अचक्खुदंसणी असंजदभंगो। , २१२ समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं १९१ भोहिदसणी ओहिणाणिभंगो। ५३८ फोसिदं ?
४४३ . १९२ केवलदसणी केवलणाणिभंगो। , २१३ लोगस्स असंखेन्जदिभागो। , १९३ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय- २१४ छचोहसभागा वा देसूणा। ,
णीललेस्सिय-काउलेस्सियाणं २१५ असंखेज्जा वा भागा। असंजदभंगो।
२१६ सयलोगो वा। १९४ तेउलेस्सियाणं सत्थाणेहि केव.
२१७ भवियाणुवादेण भवसिद्धिय डियं खेत्तं फोसिदं?
अभवसिद्धिय सत्थाण-समु१९५ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। , ग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं १९६ अट्टचोद्दसभागा वा देसूणा। ४३२ फोसिदं ? १९७ समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं २१८ सव्वलोगो।
| २१९ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी १९८ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। , सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं १९९ अटु-णवचोहसभागावा देसूणा। , फोसिदं ? २०० उववादेहि केवडियं खेत्तं २२० लोगस्स असंखेन्जदिभागो। , फोसिदं?
४५० : २२१ अट्टचोद्दसभागा वा देसूणा। ४४६ २०१ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ,, २२२ समुग्धादेहि केवडियं खत्तं २०२ दिवडचोद्दसभागा वा देसूणा। , फोसिदं ? २०३ पम्मलेस्सिया सत्थाण-समु. | २२३ लोगस्स असंखेन्जदिभागो। ,, ___ग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिद ? ४४१ | २२४ अट्ठचोहसभागा वा देसूणा! , २०४ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। , २२५ असंखेज्जा वा भागा वा। ४४७ २०५ अटु चोइसभागा वा देसूणा। , । २२६ सव्वलोगो वा।
फोसिदं?
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________________
( ३४ )
सूत्र संख्या
सूत्र
२२७ उववादेहि केवडियं फोसिद ?
२२८ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
२२९ छचोद्दसभागा वा देलूगा । २३० खइयसम्माइट्ठी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोलिदं ? २३१ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
खेत्तं
२३२ अट्ठचोद्दसभागा वा देसूणा । २३३ समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
२३४ लोगस्स असंखेजदिभागो । २३५ अट्ठचोहसभागा वा देसूणा । २३६ असंखेज्जा वा भागा वा । २३७ सव्वलोगो वा ।
२३८ उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
२३९ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २४० वेद्गसम्मादिट्ठी सत्थाण-समुग्वादेहिं केवडियं खेत्तं फोसिद ? २४१ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २४२ अट्ठचोहसभागा वा देसूणा । २४३ उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
२४४ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २४५ छचोदसभागा वा देसूणा । २४६ उवसमसम्माइट्ठी सत्थाद्दि वडियं खेत्तं फोसिदं ? २४७ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २४८ अट्ठचोद्दसभागा वा देखूणा ।
परिशिष्ट
पृष्ठ
४४८
23
33
४४९
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४५०
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४५१
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29
دو
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४५३
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33
सूत्र संख्या
सूत्र
२४९ समुग्धादेहि उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
२५० लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
२५१ सासणसम्माइट्ठी केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
२५२ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
२५३ अट्ठचोद सभागा वा देसूणा ।
२५४ समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
२५५ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
२५६ अट्ठ-बारह चोद सभागा वा
देसूणा ।
सत्थाणेदि
खेत्तं
२५७ उववादेहि केवडियं फोसिदं ?
२५८ लोगस्स असंखेजदिभागो ।
२५९ एक्कारह चोद सभागा देणा ।
२६० सम्मामिच्छाइट्ठीहि सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? २६१ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २६२ अट्ठचोहसभागा वा देसूणा । २६३ समुग्धाद् उववादं णत्थि । २६४ मिच्छाइट्ठी असं जदभंगो । २६५ सणियाणुवादेण सण्णी सत्थाहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? २६६ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २६७ अट्ठचोद्दस भागा वा देखूणा फोसिदा ।
२६८ समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
२६९ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।
पृष्ठ
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او
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(३५)
पृष्ठ
णाणाजीवेण कालाणुगमसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र २७० अट्ठचोद्दसभागा वा देसूणा। ४५९ २७६ आहाराणुवादेण आहारा २७१ सव्वलोगो वा।
सत्थाण-समुग्घाद--उववादेहि २७२ उववादेहि केवडियं खेत्तं
केवडियं खेत्तं फोसिदं ? फोसिदं?
२७७ सव्वलोगो। २७३ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। २७८ अणाहारा केवडियं खेत्तं २७४ सवलोगो वा।
फोसिदं ? २७५ असण्णी मिच्छाइट्ठिभंगो। ४६१ २७९ सबलोगो वा ।
४६१
णाणाजीवेण कालाणुगमसुत्ताणि ।
सत्र संख्या
सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ १ णाणाजीवेण कालाणुगमेण गदि. ९ देवगदीए देवा केवचिरं कालादो याणुवादेण णिरयगदीए णेरइया
होति ? केवचिरं कालादो होति ? ४६२ १० सम्वद्धा। २ सव्वद्धा।
११ एवं भवणवासियप्पहुडि जाव ३ एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया । ४६३ सबसिद्धिविमाणवासियदेवा। ,, ४ तिरियखगदीए तिरिक्खा पंचिं- १२ इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा दियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्ख
सुहुमा पजत्ता अपज्जत्ता बीपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्ख
इंदिया तीइंदिया चरिंदिया जोणिणी पंचिंदियतिरिक्खअप
पंचिंदिया तस्सेव पज्जत्ता अपजत्ता, मणुसगदीए मणुसा
जत्ता केवचिरं कालादो होति? , मणुसपजत्ता मणुसिणी केवचिरं
१३ सव्वद्धा। कालादो होति ?
१४ कायाणुवादेण पुढविकाइया आउ५ सम्वद्धा।
काइया तेउकाइया वाउकाइया वण. ६ मणुसअपजत्ता केवचिरं कालादो
प्फदिकाइया णिगोदजीवा बादरा होति ?
सुहमा पजत्ता अपज्जत्ता बादर७ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ।
वणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपजत्ता. ८ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असं.
पज्जत्ता तसकाइयपजत्ता अपज्जत्ता . खेज्जदिभागो।
केवचिरं कालादो होति?
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________________
(३)
परिशिष्ट
सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सत्र
पृष्ठ १५ सम्वद्धा।
४६७ आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणी १६ जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंच
मणपजवणाणी केवलणाणी केववचिजोगी कायजोगी ओरालिय
चिरं कालादो होंति ?
४७२ कायजोगी ओरालियमिस्सकाय- ३२ सव्वद्धा। जोगी वेउब्वियकायजोगी कम्म
३३ संजमाणुवादेण संजदा सामाइयइयकायजोगी केवचिरं कालादो
च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहोति ?
हारसुद्धिसंजदा जहाक्खाद१७ सम्वद्धा।
विहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा १८ वेउब्वियमिस्सकायजोगी केव
असंजदा केवचिरं कालादो । चिरं कालादो होंति ?
होति?
४७३ १९ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।
३४ सम्वद्धा। २० उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असं- ३५ सुहुमसापरायसुद्धिसंजदा केवखेज्जदिभागो।
चिरं कालादो होंति ? २१ आहारकायजोगी केवचिरं
३६ जहणेण एगसमयं । कालादो होति ?
३७ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। २२ जहण्णेण एगसमयं ।
३८ दंसणाणुवादेण च खुदंसणी २३ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
___ अचखुदंसणी ओहिदसणी २४ आहारमिस्सकायजोगी केवचिरं
केवलदंसणी केवचिरं कालादो कालादो होति ? -
होति? २५ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।
३९ सव्वद्धा। २६ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।।
४० लेस्साणुवादेण किण्हलेस्लिय२७ वेदाणुवादेण. इथिवेदा पुरिस.
णीललेस्सिय-काउलेस्सिय-तेउवेदा णqसयवेदा अवगदवेदा
लेस्सिय--पम्मलेस्सिय-सुक्ककेवचिरं कालादो होति ?
लेस्सिया केवचिरं कालादो २८ सव्वद्धा। . . ४७२
होति? २९ कसायाणुवादेण कोधकसाई
४१ सम्वद्धा। माणकसाई मायकसाई लोभ
४२ भवियाणुवादेण भवसिद्धिया कसाई अकसाई केवचिरंकालादो
अभवसिद्धिया केवचिरं कालादो होति?
होति? ३० सम्वद्धा।
४३ सम्वद्धा। ३१ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी १४ सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठी
सुदअण्णाणी विभंगणाणी । खदयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी
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________________
णाणाजीवेण अंतराणुगमसुत्ताणि
(१७) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ मिच्छाइट्ठी केवचिरं कालादो ५० जहण्णेण एगसमयं । होति?
५ ५१ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असं४५ सम्वद्धा।
" खेजदिभागो। ४६ उबसमसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्रिी केवचिरं कालादो होति?
५२ सणियाणुवादेण सण्णी असण्णी
" केवचिरं कालादो होति ? ४७ जहणेण अंतोमुहुत्तं । ४७६
, ४८ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असं. ५३ सम्वद्धा । खेज्जदिभागो।
। ५४ आहारा अणाहारा केवचिरं ४९. सासणसम्माइट्टी केवचिरं
कालादो होति ? __कालादो होदि ?
, ५५ सम्वद्धा।
णाणाजीवेण अंतराणुगमसुत्ताणि ।
४८
सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १णाणाजीवेहि अंतराणुगमेण
कालादो होदि ? . गदियाणुवादेण णिरयगदीए ९ जहण्णण एगसमओ। णेरइयाणमंतरं केवचिरं कालादो
| १० उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेहोदि?
४७८
जदिभागो। २णत्थि अंतरं।
११ देवगदीए देवाणमंतरं केवचिरं ३ णिरंतरं।
४७९
कालादो होदि? ४ एवं सत्तसु पुढवीसु णेरड्या। ,,
१२ णत्थि अंतरं। ५ तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिं
२३ णिरंतरं। दियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख- - पजत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी
१४ भवणवासियप्पहुडि जाव सम्वटपंचिंदियतिरिक्खअपजत्ता, मणुस
सिद्धिविमाणवासियदेवा देव
गदिभंगो। गदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणीणमंतरंकेधचिरं कालादो
| १५ इंदियाणुवादेण एइंदिय-बादर. होति?
सुहुम-पज्जत्त-अपजत्त-बीइंदिय६ णस्थि अंतरं।
तीइंदिय-चरिदिय-पंचिंदिय७णिरंतरं
पजत्त-अपजत्ताणमंतरं केवचिरं ८मणुसअपजत्ताणमंतरं केवचिरं
कालादो होदि ?
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________________
(३८)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १६ णत्थि अंतरं। ४८३ | ३१ णत्थि अंतरं।
४८६ १७ णिरंतरं ।
३२ णिरंतरं। १८ कायाणुवादेण पुढविकाइय- ३३ कसायाणुवादेण कोधकसाई आउकाइय-तेउकाइय वाउकाइय
माणकसाई मायकसाई लोभवणप्फदिकाइय-णिगोदजीव-- कसाई (अकसाई-) णमंतरं बादर-सुहुम-पजत्ता अपजत्ता
केवचिरं कालादो होदि ? ४८७ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर- ३४ णथि अंतरं। पज्जत्ता अपजत्ता तसकाइय
३५ णिरंतरं। पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
। ३६ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि
सुद अण्णाणि-विभंगणाणि--- १९ णत्थि अंतरं।
" आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणि२० णिरंतरं।
४८४ . मणपजवणाणि-केवलणाणीण२१ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि
मंतर केवचिरं कालादो होदि ? ,, पंचवचिजोगि-काय जोगि-ओरा। ३७ पत्थि अंतरं ।
४८८ लियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-वेउब्वियकायजोगि
३८ णिरंतरं। कम्मइयकायजोगीणमंतरं केव- ३९ संजमाणुवादेण संजदा सामाइयचिरं कालादो होदि ?
छेदोवट्टावणसुद्धिसंजदा परिहार२२ णत्थि अंतरं।
सुद्धिसंजदा जहाक्खादविहार२३णिरंतरं।
सुद्धिसंजदा संजदासंजदा असं२४ वेउब्धियमिस्सकायजोगीणमंतरं
जदाणमंतरं केवचिरं कालादो __ केवचिरं कालादो होदि? ४८५ होदि ? २५ जहण्णेण एगसमयं । .
,
५० णस्थि अंतरं । २६ उकस्सेण बारसमुहुत्तं ।
४१ णिरंतरं। २७ आहारकायजोगि-आहारमिस्स- ४२ सुहुमसांपराइयसुद्धिसजदाणं कायजोगीणमंतरं केवचिरं
अंतर केवचिरं कालादो होदि ? ___ कालादो होदि?
४३ जहाणेण एगसमयं । ४८९ २८ जहणणेण एगसमयं ।
४८६ ४४ उक्कस्सेण छम्मासाणि । २९ उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।
४५ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणि३० वेदाणुवादेण इत्थिवेदा पुरिस
अचक्खुदंसणि-ओहिदंसणिवेदा णबुंसयवेदा अवगवेदाण
केवलदसणीणमंतरं केवचिरं मंतरं केवचिरं कालादो होदि ? , कालादो होदि?
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________________
(३९)
हो
भागाभागाणुगमसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ४६ णस्थि अंतरं।
४८९ ५७ उवसमसम्माइट्ठीणमंतरं केव४७ णिरंतरं। . चिरं कालादो होदि ?
४९१
४९२ ४८ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय ५८ जहण्णेण एगसमयं ।
णीललेस्सिय काउलेस्सियतेउ- ५९ उक्कस्सेण सत्तरादिदियाणि । , लेस्सिय-पम्मलेस्सिय- सुक्क - ६० सासणसम्माइटि सम्मामिच्छालेस्सियाणमंतर केवचिरं कालादो इट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि?
होदि? ४९ णतिथ अंतरं।
६१ जहण्णेण एगसमयं ।
४९३ ५० णिरंतरं .
| ६२ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे. ५१ भवियाणुवादेण भवसिद्धिय
ज्जदिभागो। ___ अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं ६३ सणियाणुवादण सपिण-असण्णीकालादो होदि ?
___णमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ,, ५२ णस्थि अंतरं।
६४ णस्थि अंतरं। ५३ णिरंतरं।
६५ णिरंतरं। .. ... ५४ सम्मत्ताणुवादेण सम्माइटि
६६ आहाराणुवादेण आहार-अणाखायसम्माइट्टि-वेदगसम्माइट्ठि
- हाराणमंतरं केवचिरं कालादो मिच्छाइट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि?
होदि ? ५५ णत्थि अंतरं।
६७ णत्थि अंतरं। ५६णिरंतरं ।
। ६८ णिरंतरं।
भागाभागाणुगमसुत्ताणि ।
सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या १ भागाभागाणुगमेण गदियाणु- ४ तिरिक्खगदीए तिरिक्वा सव्ववादण णिरयगदीए णरइया
जीवाणं केवडिओ भागो? ४९६ सव्वजीवाणं केवडिओ भागा? ४९५ : ५ अणंता भागा।
४९७ २ अणंतभागो।
___, ६ पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदिय३ एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया। ४९६ तिरिक्खपजत्ता पंचिंदियतिरिक्ख
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________________
(१०)
परिशिष्ट सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र जोणिणी पंचिंदियतिरिक्तअपजत्ता, आउकाइया तेउकाइया (वाउकाइया) मणुसंगदीए मणुसा मगुसपजत्ता
बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता मणुसिणी मणुसअपजत्ता सव्व
बादरवणप्फदिकाइयपत्तयसरीरा जीवाणं केवडिओ भागो? ४९७
पजत्ता अपज्जत्ता तसकाइया ७ अणंतभागो।
तसकाइयपज्जत्ता अपज्जत्ता ८ देवगदीए देवा सम्वजीवाणं
सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? ५०२ केवडिओ भागो?
२४ अणंतभागो। ९ अणंतभागो। १० एवं भवणवासियप्पहुडि जाव
२५ वणफदिकाइया णिगोदजीवा
सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? , __ सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा। ,
२६ अणंता भागा। १९रदियाणुवादेण एइंदिया सव्व
- ५०३ जीवाणं केवडिओ भागो? ४९९ २७ बादरवणप्फदिकाइया बादर१२ अणंता भागा।
णिगोदजीवा पज्जत्ता अपज्जत्ता १३ बादरेइंदिया तस्सेव पज्जत्ता
___ सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? , अपज्जसा सव्वजीवाणं केव- २८ असंखेज्जदिभागो। - डिओ भागो?.
" २९ सुहुमवणप्फदिकाइया सुहुम१५ असंखेज्जविभागो।
। णिगोदजीवा सव्वजीवाणं केव१५ सुहुमेहंदिया सव्वजीवाणं केव
डिओ भागो? डिओ भागो?
३० असंखेज्जा भागा।
५०४ १६ असंखेजदिभागो।
३१ सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहुम---
णिगोदजीवपज्जत्ता सव्वजीवाणं १७ सुहुमेहंदियपज्जत्ता सव्वजीवाणं
केवडिओ भागो? केवडिओ भागो?
३२ संखेज्जा भागा। १८ संखेज्जा भागा।
५०१
३३ सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहुम१९ सुहुमेहंदियअपजत्ता सव्वजीवाणं
णिगोदजीवअपज्जत्ता सव्व__केवडिओ भागो?
जीवाणं केवडिओ भागो? २० संखेन्जदिभागो।
३४ संखेज्जदिभागो।
, २१ बीइंदिय-तीइंदिय चरिंदिय-पंचिं.
३५ जोगाणुवादेण पंचमणजोगिदिया तस्लेव पज्जत्ता अपज्जत्ता
पंचवचिजोगि वेउब्धियकायजोगिसव्वजीवाणं केवडिओ भागो?
वेउब्वियमिस्सकायजोगि-आहार२२ अणंता:भागा।
कायजोगि-आहारमिस्सकायजोगी २३ कायाणुबादेण पुढविकाइया
सव्वजीवाणं केवडिभो भागो? ५०७
भागा।
Page #670
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________________
सूत्र
पृष्ठ
भागाभागाणुगमसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या ३६ अणंतो भागो।
५०७ । ५५ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि३७ कायजोगी सव्वजीवाणं केव
सुदअण्णाणी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो?
डिओ भागो? ३८ अणंता भागा।
५६ अणंता भागा। ३९ ओरालियकायजोगी सव्व
५७ विभंगणाणी आभिणिबोहियणाणी जीवाणं केवडिओ भागो?
सुदणाणी ओहिणाणी मणपजव५०८
णाणी केवलणाणी सव्वजीवाणं ४० संखेज्जा भागा।
केवडिओ भागो?
५१२ ४१ ओरालियमिस्सकायजोगी सव्व
५८ अणंतभागो। जीवाणं केवडिओ भागो?
५९ संजमाणुवादेण संजदासामाइय४२ संखेज्जदिभागो।
छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परि४३ कम्मइयकायजोगी सव्वजीवाणं
हारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपराइयकेवडिओ भागो?
५०९ सुद्धिसंजदा जहाक्खादविहार४४ असंखेजदिभागो।
सुद्धिसंजदा संजदासंजदा सव्व४५ वेदाणुवादेण इत्थिवेदा पुरिस
जीवाणं केवडिओ भागो? " . वेदा अवगदवेदा सब्वजीवाणं ६० अणंतभागो। केवडिओ भागो?
६१ असंजदा सव्वजीवाणं केवडिओ ४६ अणंतो भागो।
" भागो? ४७ णqसयवेदा सव्वजीवाणं केव- ६२ अणंता भागा।
५१३ डिओ भागो?
६३ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी ४८ अणंता भागा।
५१०
___ ओहिदसणी केवलदसणी सव्व. ४९ कसायाणुवादेण कोधकसाई
जीवाणं केवडिओ भागो? ... माणकसाई मायकसाई सव्व- ६४ अणंतभागो। जीवाणं केवडिओ भागो? ,
६५ अचक्खुदंसणी सव्वजीवाणं ५० चदुभागो देसूणा।
__ केवडिओ भागो? ५१ लोभकसाई सब्वजीवाणं केव
६६ अणंता भागा। डिओ भागो?
६७ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिया ५२ चदुब्भागो सादिरेगो।
__सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? ५१४ ५३ अकसाई सव्वजीवाणं केवडिओ ६८ तिभागो सादिरेगी। भागो?
६९ णीललेस्सिया काउलेस्सिया ५४ अणंतो भागो।
सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? "
Page #671
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४२) .
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या ७० तिभागो देसूणो।
५१४ | ७८ अणंतो भागो। ७१ तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्क- ७९ (मिच्छाइट्ठी सव्वजीवाणं केव
लेस्सिया सव्वजीवाणं केवडिओ डिओ भागो? भागो?
८० अणंता भागा।) ७२ अणंतभागो।
८१ सणियाणुवादेण सण्णी सव्व७३ भवियाणुवादेण भवसिद्धिया । जीवाणं केवडिओ भागो? ___ सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? ,, ८२ अणंतभागो। ७४ अणंता भागा।
८३ असण्णी सव्वजीवाणं केवडिओ ७५ अभवसिद्धिया सव्वजीवाणं केव
भागो? डिओ भागो?
५१६ ८४ अणंता भागा। ७६ अणंतभागो।
८५ आहाराणुवादेण आहारा सव्व७७ सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठी
जीवाणं केवडिओ भागो? खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी
८६ असंखेज्जा भागा? उवसमसम्माइट्ठी सासणसम्मा
८७ अणाहारा सव्वजीवाणं केवइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी सव्व
डिओ भागो? जीवाणं केवडिओ भागो? , ८८ असंखेज्जदिभागो।
अप्पाबहुगाणुगमसुत्ताणि ।
2
५२३
सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १ अप्पाबहुगाणुगमेण गदियाणुवादण । १० णेरड्या असंखेज्जगुणा।
पंचगदीओ समासेण । ___५२० | ११ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ २ सव्वत्थोवा मणुसा।
" असंखेज्जगुणाओ। ३णेरइया असंखेज्जगुणा ।
१२ देवा संखेज्जगुणा। ४ देवा असंखेज्जगुणा ।
१२९ १३ देवीओ संखज्जगुणाओ। ५सिद्धा अणंतगुणा । ६ तिरिक्खा अणंतगुणा ।
" १४ सिद्धा अणतगुणा। ७ अट्ठ गदीओ समासेण । ५२२ १५ तिरिक्खा अणंतगुणा । ८ सव्वत्थोवा मणुस्सिणीओ।
१६ दियाणुवादेण सव्वत्थोवा पर्चि९ मणुस्सा असंखेज्जगुणा।
दिया।
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
अप्पाबहुगाणुगमसुत्ताणि
(१३)
५२५
गुणा।
सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या १७ चउरिदिया विसेसाहिया। ५२४ | ४२ वाउक्काइया विसेसाहिया। ५३१ १८ तीइंदिया विसेसाहिया।
४३ अकाइया अणंतगुणा। १९ बीइंदिया विसेसाहिया।
४४ वणप्फदिकाइया अणंतगुणा।। २० आणिंदिया अणंतगुणा ।
४५ सम्वत्थोवा तसकाइयपज्जत्ता। २१ एइंदिया अणंतगुणा।
४६ तसकाइयअपज्जत्ता असंखेज्ज२२ सव्वत्थोवा चरिंदियपज्जत्ता। ५२६ गुणा। २३ पंचिंदियपज्जत्ता विसेसाहिया। , ४७ तेउक्काइयअपज्जत्ता असंखेज्ज२४ बीइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया। ,, गुणा। २५ तीइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया। , ४८ पुढविकाइयअपजत्ता विससा२६ पंचिंदियअपज्जत्ता असंखेज्ज
दिया। ५२७
४९ आउक्काइयअपजत्ता विसेसा२७ चरिंदियअपज्जत्ता विसेंसा
हिया। हिया।
५० वाउक्काइयअपज्जत्ता विसेसा
हिया । २८ तीइंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया। ५२८ २९ बीइंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया। ,
५१ तेउक्काइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा। ५३४
५२ पुढविकाइयपज्जत्ता विससा३० अप्रिंदिया अणंतगुणा ।
हिया। ३. बादरेइंदियपज्जत्ता अणंतगुणा। ५२९ ५३ आउकाइयपज्जत्ता विसेसा३२ बादरेइंदियअपज्जत्ता असंखेज्ज
हिया। गुणा।
" ५४ वाउकाइयपजत्ता विसेसाहिया। , ३३ बादरेइंदिया विसेसाहिया। ,,
५५ अकाइया अणंतगुणा। ३४ सुहुमेइंदियअपज्जत्ता असंखेज्ज
५६ वणप्फदिकाइयअपजत्ता अणंतगुणा।
गुणा । ३५ सुहुमेइंदियपज्जत्ता संखेज्जगुणा। ५३०
५७ वणप्फदिकाइयपजत्ता संखेज्ज३६ सुहुमेइंदिया विसेसाहिया। ,
गुणा। ३७ एइंदिया विसेसाहिया।।
५८ वणप्फदिकाइया विसेसाहिया। , ३८ कायाणुवादेण सव्वत्थोवा तस- ५९ णिगोदा विसेलाहिया। काइया।
६० सव्वत्थोवा तसकाइया। ५३६ ३९ तेउकाइया असंखेज्जगुणा। ५३१ ६१ बादरतेउकाइया असंखेज्जगुणा। " ४० पुढविकाइया विसेसाहिया। , ६२ बादरवणप्फदिकाइयपत्तयसरीरा ४१ आउकाइया विसेसाहिया। ,, असंखेज्जगुणा।
Page #673
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणा।
(११)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ६३ बादरणिगोदजीवा जिगोद- ८२ वादरभाउकाइयपजत्ता असं
पदिट्ठिदा असंखेज्जगुणा। ५३६ खेजगुणा । ६४ बादरपुढविकाइया असंखेज- ८३ बादरवाउकाइयपज्जत्ता असंगुणा।
खेज्जगुणा। ६५ बादरआउकाइया असंखेजगुणा। "
| ८४ बादरतेउअपज्जत्ता असंखोज६६ बादरवाउकाश्या असंखेनगुणा। " ६७ सुहुमतेउकाइया असंखेजगुणा। ,
८५ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर
___ अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा। ६८ सुहुमपुढविकाइया विसेसा
८६ वादरणिगोदजीवा णिगोदपदिहिया। ६९ सुहुमआउकाइया विसेसाहिया। ,,
ट्ठिदा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा। ५४५
८७ बादरपुढविकाइया अपज्जत्ता ७० सुष्टुमवाउकाइया विसेसाहिया। ,
असंखेजगुणा। ७१ अकाइया अणंतगुणा
,,
८८ बादरआउकाइयअपज्जत्ता असं७२ बादरवणप्फदिकाइया अणंत
खज्जगुणा। गुणा।
८९ बादरवाउअपज्जत्ता असंखेज्ज७३ सुहमवणफदिकाइया असंखेज
गुणा। गुणा।
९० सुहुमतेउकाइयअपज्जत्ता असं७४ वणप्फदिकाइया विसेसाहिया। " ___खेज्जगुणा। ७५ णिगोदजीवा विसेसाहिया। ,, | ९१ सुहुमपुढविकाइयअपज्जत्ता ७६ सव्वत्थोवा बादरतेउकाइय
विसेसाहिया। पजत्ता।
९२ सुहुमआउकाइयअपजत्ता विसे
साहिया। ७७ तसकाइयपज्जत्ता असंखेज्ज
९३ सुहमवाउकाइयअपजत्ता विसेगुणा।
साहिया । ७८ तसकाइयअपज्जत्ता असंखेज्ज
९४ सुहुमतेउकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा। ७९ वणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर
९५ सुहमपुढविकाइयपज्जत्ता विसेपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ।
___ साहिया। ८० णिगोदजीवा णिगोदपदिहिदा
९६ सुहमआउकाइयपज्जत्ता विसेपज्जत्ता असंखेज्जगुणा।
साहिया। ८१ बादरपुढविकाइयपजत्ता असं- ९७ सुहुमवाउकाइयपज्जत्ता बिसेखेज्जगुणा।
साहिया।
५४२
"
गुणा।
Page #674
--------------------------------------------------------------------------
________________
अप्पाबहुगाणुगमसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या ९८ अकारया अणंतगुणा । ५४८ | ११८ मणजोगी विसेसाहिया। ५५२ ९९ बादरवणप्फदिकाश्यपज्जत्ता ११९ सञ्चवचिजोगी संखज्जगुणा। , अणंतगुणा ।
१२० मोसवचिजोगी संखजगुणा। ५५३ १०० बादरवणप्फदिकाइयअपज्जत्ता १२१ सच्चमोसवचिजोगी संखेन्जअसंखेज्जगुणा।
गुणा। १०१ बादरवणप्फदिकाइया विसे
१२२ वेउब्वियकायजोगी संखेज्जसाहिया।
गुणा। २०२ सुष्टुमवणप्फदिकाइयअपजता
१२३ असच्चमोसवचिजोगी संखेजअसंखेज्जगुणा।
५४९ गुणा। १०३ सुहुमवणप्फदिकाश्यपज्जत्ता
१२४ वचिजोगी विसेसाहिया। , संखेज्जगुणा।
१२५ अजोगी अणंतगुणा। १०४ सुहुमवणप्फदिकाइया विसे- | १२६ कम्मइयकायजोगी अणंतसाहिया।
गुणा। १०५ वणप्फदिकाइया विसेसाहिया। ,,
१२७ ओरालियमिस्सकायजोगी १०६ णिगोदजीवा विसेसाहिया। ,
असंखेज्जगुणा।
| १२८ ओरालियकायजोगी संखेज्ज१०७ जोगाणुवादेण सम्वत्थोवा मण
गुणा। जोगी।
| १२९ कायजोगी विसेसाहिया। १०८ वचिजोगी संखेज्जगुणा।
१३० वेदाणुवादेण सम्वत्थोवा १०९ अजोगी अणंतगुणा ।
पुरिसवेदा। ११० कायजोगी अणंतगुणा ।
| १३१ इत्थिवेदा संखेन्जगुणा । १११ सम्वत्थोवा आहारमिस्सकाय
१३२ अवगदवेदा अणंतगुणा। जोगी।
१३३ णवुसयवेदा अणंतगुणा । ११२ आहारकायजोगी संखेज्जगुणा। ,
१३४ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु ११३ वेउब्वियमिस्सकायजोगीअसं
पयदं । सम्वत्थोवा सपिणणqखज्जगुणा।
सयवेदगम्भोवक्कंतिया। ११४ सच्चमणजोगी संखेज्जगुणा। ,,
१३५ सणिपुरिसवेदा गम्भोवक्कं११५ मोसमणजोगी संखेज्जगुणा। ५५२ तिया संखेजगुणा । ११६ सच्च-मोसमणजोगी संखेज्ज- १३६ सण्णिइत्थिवेदा गम्भावक
तिया संखेज्जगुणा । ५५६ ११७ असश्च-मोसमणजोगी संखेज्ज- १३७ सणिणqसयवेदा सम्मुगुणा।
छिमपज्जत्ता संखेज्जगुणा।
गुणा।
Page #675
--------------------------------------------------------------------------
________________
,
(५६)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १३८ सण्णिणqसयवेदा सम्मुच्छिम- । १५६ संजमाणुवादेण सव्वत्थोवा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा। ५५६ संजदा।
। १३९ सण्णिइत्थि-पुरिसवेदा गम्भो- १५७ संजदासंजदा असंखेजगुणा।
वक्कंतिया असंखेजवासाउआ १५८ णेव संजदा व असंजदाणेव
दो वि तुल्ला असंखेज्जगुणा। ५५७ संजदासजदा अणंतगुणा । १४० अलण्णिणqसयवेदा गम्भो- १५९ असंजदा अणंतगुणा।
वक्कंतिया संखेज्जगुणा। , | १६० सव्वत्थोवा सुहुमसांपराइय१४१ असण्णिपुरिसवेदा गम्भोवक्कं
सुद्धिसंजदा। तिया संखेज्जगुणा। , १६१ परिहारसुद्धिसंजदा संखेज१४२ असण्णिइत्थिवेदा गब्भोवक्कं
गुणा । तिया संखेज्जगुणा।
१६२ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा १४३ असण्णी णवूसयवेदा सम्मु
संखेजगुणा। । छिमपज्जत्ता संखेज्जगुणा। , | १६३ सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धि१४४ असण्णिणqसयवेदा सम्मु
संजदा दो वि तुल्ला संखेजच्छिमा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा। ,
गुणा। . १४५ कसायाणुवादेण सव्वत्थोवा
| १६४ संजदा विसेसाहिया। अकसाई।
। १६५ संजदासंजदा असंखेजगुणा। १४६ माणकसाई अणंतगुणा। ५५९
१६६ व संजदा व असंजदाणेव १४७ कोधकसाई विसेसाहिया।
संजदासंजदा अणंतगुणा । १४८ मायकसाई विसेसाहिया। ,. १६७ असंजदा अणंतगुणा। १४९ लोभकसाई विसेसाहिया। ,, १६८ सव्वत्थोवा सामाइयच्छेदो१५० णाणाणुवादेण सव्वत्थोवा
वट्ठावणसुद्धिसंजदस्स जहमणपजवणाणी।
,
णिया चरित्तलद्धी । १५१ ओहिणाणी असंखेजगुणा। ५६० | | १६९ परिहारसुद्धिसंजदस्स जह१५२ आभिणिबोहिय-सुदणाणी दो
णिया चरित्तलद्धी अणंतवि तुल्ला विसेसाहिया। "
गुणा । १५३ विभंगणाणी असंखेजगुणा। ,
१७० तस्सेव उक्कस्सिया चरित्तलद्धी
अणंतगुणा। १५४ केवलणाणी अणंतगुणा। ,
१७१ सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धि१५५ मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी दो
संजदस्स उक्कस्सिया चरित्त. वि तुल्ला अणंतगुणा । . ५६१ । लद्धी अणंतगुणा।
५६३
"
५६४
५६६
"
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________________
अप्पाबहुगाणुगमसुत्ताणि
(१७) सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ १७२ सुहमसापराइयसुद्धिसंजमस्त
सिद्धिया अणंतगुणा। ५७१ जहणिया चरित्तलद्धी अणंत- १८८ भवसिद्धिया अणंतगुणा। , गुणा।
५६६ | १८९ सम्मत्ताणुवादेण सव्वत्थोवा १७३ तस्सेव उक्कस्सिया चरित्त
सम्मामिच्छाइट्ठी। लद्धी अणंतगुणा ।
| १९० सम्माइट्ठी असंखेजगुणा। १७४ जहाक्खादविहारसुद्धिसंज
१९१ सिद्धा अणंतगुणा।
५७२ दस्स अजहण्णअणुश्कस्सिया १९२ मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा । चरित्तलद्धी अणंतगुणा।
१९३ सम्वत्थोवा सासणसम्माइट्टी। , १७५ दंसणाणुवादेण सव्वत्थोवा
१९४ सम्मामिच्छाइट्ठी संखेजगुणा। ,, ओहिदसणी।
१९५ उवसमसम्माइट्ठी असंखेज्ज१७६ चक्खुदंसणी असंखेजगुणा। ,
गुणा। १७७ केवलदसणी अणंतगुणा । | १९६ खइयसम्माइट्ठी असंखेज्जगुणा। , १७८ अचखुदंसणी अणंतगुणा। ५६९ १९७ वेदगसम्माइट्ठी असंखेज्जगुणा। ५७३ १७९ लेस्साणुवादेण सव्वत्थोवा १९८ सम्माइट्ठी विसेसाहिया। सुक्कलेस्सिया।।
१९९ सिद्धा अणंतगुणा। १८० पम्मलेस्सिया असंखेजगुणा। , २०० मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा । १८१ तेउलेस्सिया संखेजगुणा। ,, २०१ सणियाणुवादेण सव्वत्थोवा १८२ अलेस्सिया अणंतगुणा। ५७० सण्णी । १८३ काउलेस्सिया अणंतगुणा।
२०२ णेव सण्णी णेव असण्णी
अणंतगुणा। १८४ णीललेस्सिया विसेसाहिया। ,
२०३ असण्णी अणंतगुणा। १८५ किण्णलेस्सिया विसेसाहिया। , २०४ आहाराणुवादेण सव्वत्थोवा १८६ भवियाणुवादेण सव्वत्थोवा
अणाहारा अबंधा।
५७४ अभवसिद्धिया।।
५७१। | २०५ बंधा अणंतगुणा। १८७ णेव भवसिद्धिया णेव अभव- २०६ आहारा असंखेज्जगुणा ।
Page #677
--------------------------------------------------------------------------
________________
महादंडअसुचाणि । .
सूत्र संख्या - सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १ एत्तो सवजीवेसु महादंडओ १४ हेट्ठिमउवरिमगेवजविमाणवासियकाव्वो भवदि।
देवा संखेज्जगुणा।
५७९ २ सव्वत्थोवा मणुसपज्जत्ता गब्भो- १५ हेटिममज्झिमगेवजविमाणवासिया वकंतिया।
देवा संखेज्जगुणा।
५८० ३ मणुसिणीओ संखेन्जगुणाओ।
जविमाणवासिय४ सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा - देवा संखेज्जगुणा। संखेज्जगुणा।
१७ आरणच्चुदकप्पवासियदेवा ५ बादरतेउकाइयपज्जत्ता असं
संखेजगुणा। खेज्जगुणा।
५७७
१८ आणद पाणदकप्पवासियदेवा'. ६ अणुत्तरविजय-वइजयंत-(जयंत-)
संखेजगुणा। अवराजितविमाणवासियदेवा
१९ सत्तमाए पुढवीए णेरइया असंअसंखेज्जगुणा।
____ खेज्जगुणा। ७ अणुदिसविमाणवासियदेवा
२० छट्ठीए पुढवीए णेरइया असंखेजसंखज्जगुणा।
गुणा। ८ उवरिमउवरिमगेवज्जविमाण
२१ सदार-सहस्सारकप्पवासियदेवा वासियदेवा संखेज्जगुणा।
असंखेज्जगुणा । ९ उवरिममज्झिमगेवज्जविमाण- २२ सुक्क-महासुक्ककप्पवासियदेवा वासियदेवा संखेज्जगुणा।
__ असंखेजगुणा । १० उवरिमहटिमगेवज्जविमाण
२३ पंचमपुढविणेरइया असंखेज्जवासियदेवा संखेज्जगुणा ।
गुणा। ११ मज्झिमउवरिमगेवज्जविमाण- २४ लंतव-काविट्ठकप्पवासियदेवा वासियदेवा संखेज्जगुणा।
___ असंखेज्जगुणा। १२ मज्झिममज्झिमगेवज्जविमाण- २५ चउत्थीए पुढवीए णेरड्या वासियदेवा संखेज्जगुणा ।
असंखेज्जगुणा। १३ मज्झिमहेट्टिमगेवज्जविमाण
२६ बम्ह-बम्हुत्तरकप्पवासियदेवा वासियदेवा संखेज्जगुणा।
असंखेज्जगुणा।
५७९
"
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________________
अप्पात्रहुगागमसुत्ताणि
सूत्र संख्या
४८ पंचिदिय अपज्जन्त्ता
गुणा ।
४९ चरिं दियअपज्जन्त्ता विसेसाहिया ।
सूत्र संख्या
२७ तदियाप असंखेज्जगुणा ।
२८ माहिंद कप्पवासियदेवा असं
खेज्जगुणा ।
२९ सणककुमारकष्पवासियदेवा
संखेज्जगुणा ।
३० विदिया पुढवीए णेरड्या असंखेज्जगुणा ।
३१ मणुसा अपज्जन्त्ता असंखेज्ज
गुणा ।
सूत्र
पुढवीए णेरइया
३२ ईसाणकष्पवासियदेवा खेज्जगुणा ।
३३ देवीओ संखेज्जगुणाओ ।
३४ सोधम्मकप्पवासियदेवा संखेजगुणा ।
३५ देवीओ संखेज्जगुणाओ । ३६ पढमार पुढवीए णेरइया असंज्जगुणा ।
असं
३७ भवणवासियदेवा असंखेजगुणा । ३८ देवीओ संखेज्जगुणाओ ।
३९ पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ ।
४० वाणवैतरदेवा संखेज्जगुणा । ४१ देवीओ संखेज्जगुणाओ । ४२ जोदिसियदेवा संखेज्जगुणा ।
४३ देवीओ संखेज्जगुणाओ । ४३ च उरिदियपज्जत्ता संखेज्जगुणा । ४५ पंचिदियपज्जत्ता विसेसाहिया ।
४६ बेइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया । ४७ तीइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया ।
पृष्ठ
५८२
33
39
५८३
35
35
33
५८४
93
""
99
99
५८५
دو
"
39
५८६
39
95
23
33
सूत्र
(89)
असंखेज्ज
५० ते इंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया । ५१ बे इंदिय अपज्जत्ता विसेसाहिया । ५२ बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता असंखेज्जगुणा | ५३ बादरणिगोदजीवा णिगोदपदिट्टिदा असंखेज्जगुणा ।
५४ बादरपुढविपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ।
५५ बादरआ उपज्जन्ता असंखेज्जगुणा ।
५६ वादरवाउपज्जत्ता असंखेज्जगुणा | ५७ वादरतेउअपज्जत्ता असंखेजगुणा ।
५८ वादरवणदिकाइयपत्तेयसरीरा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ।
५९ बादरणिगोदजीवा णिगोदपदिट्टिदा अपज्जन्ता असंखेजगुणा । ६० बादरपुढविकाइय अपजत्ता असंखेजगुणा ।
६१ वादरआउकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ।
६२ बादरवाउकाइयअपज्जत्ता असंजगुणा ।
६३ सुहुमते उकाइय अपज्जन्त्ता असंखेज्जगुणा ।
६४ हुमपुढविकाइया विसेाहिया ।
अपज्जसा
पृष्ठ
५८७
"
39
35
५८८
""
५८९
""
""
33
५९०
""
"
५९१
""
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(५०)
,
परिशिष्ट
सूत्र संख्या . सूत्र ६५ सुहुमाउकाइयअपजत्ता विसे-
साहिया। ६६ सुहुमवाउकाइयअपज्जत्ता विसे
साहिया। ६७ सुहुमतेउकाइयपजत्ता संखेज
गुणा। ६८ सुहुमपुढविकाइयपज्जत्ता विसे
साहिया। ६९ सुहुमआउकाइया पजत्ता विसे
साहिया। ७० सुहुमवाउकाइयपज्जत्ता विसे.
साहिया। ७१ अकाइया अणंतगुणा।
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ७२ बादरवणप्फदिकाइयपज्जत्ता
अणंतगुणा। ७३ वादरवणप्फदिकाइय अपज्जत्ता
असंखेज्जगुगा। ७३ बादरवणप्फदिकाइया विसे
साहिया। । ७५ सुहुमवणप्फदिकाइया अपजत्ता
असंखेज्जगुणा। ७६ सुहुमवणप्फदिकाइया पज्जत्ता । संखेम्जगुणा। " ७७ सुहमवणप्फदिकाइया विसे। साहिया।
७८ वणप्फदिकाइया विसेसाहिया। । ७९ णिगोदजीवा विसेसाहिया।
,.
२ अवतरण-गाथा-सूची ।
क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां क्रम संख्या गाथा . पृष्ठ अन्यत्र कहां १७ असरीरा जीवघणा ९८
। ९ अंगोवंग-सगरिदिय- १५ ४ आणद पाणद-कप्पे ३२०
१कं पि णरं दट्टण य २८ २ इगितीस सत्त चत्तारि१३१
२० चक्खूण जं पयासदि १०० १० उच्चुच्च-उच्च-तह १५
१९ जं सामण्णग्गहणं , द्रव्यसंग्रह ३ उज्जुसुदस्स दु वयणं २९
१२ जयमंगलभूदाणं १५ ६ उवरिमगेवज्जेसु अ ३२०
६ जस्सोदएण जीवो १४ १६ एगो मे सस्सदो अप्पा ९८ अष्टपाहुड ८
, १५
१जे बंधयरा भावा ९जयधवलाया२२ एवं सुत्तपसिद्धं १०३
मुद्धृता पृ.६० ३ ओदइया बंधयरा ९जयधवलाया- १५ णाणावरणचदुक्कं ६४
मुद्धृता पृ. ६० । १० णिक्खित्त विदियमेतं ४५ गो. जी. ३८
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________________
न्यायोक्तियां
(५१)
क्रम संख्या गाथा पृष्ट अन्यत्र कहां क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां ६णिरयगई संपत्तो २९
२ ववहारस्स दु वयणं २९ । २ तललीनमधुगविमलं २५८ गो. जी. १५८ १८ विधिर्विषक्तप्रतिषेधः ९९ वृहत्स्वयम्भू. ४ दव्वगुणपज्जए जे १४
स्तोत्र ५२
११ विरियोवभोग-भोगे १५ ९. पढमं पयडिपमा ४५
१ षष्ठ-सप्तमयोः शीतं ४०५ ११ पढमश्खो अंतगओ ,, गो. जी. ४० ७ संखा तह पत्थारो ४५ गो. जी. ३५ १ पणुवीसं असुराण ३१९
१३ संठाविदूण रूवं ४६ गो. जी. ४२ २१ परमाणुआदियाई १००
१२ सगमाणेण विहत्ते , गो. जी. ४१ ३ बम्हे य लांतवे वि य ३२०
४ सद्दणयस्स दु वयणं २९ १ बारस दस अटेव य २५०
१ सम्मत्ते सत्त दिणा ४९२ ७ मिच्छत्तकसायासंज- १४
१४ सव्वावरणीयं पुण ६३ ।। २ मिच्छत्ताविरदी विय ९
८ सव्वे वि पुव्वभंगा ४५ गो. जी. ३६ १ मुह-भूमीण विसेसो ११७
२ सोहम्मीसाणेसु य ३१९ . ५ वयणं तु समभिरूढं २९
५ हेहिमगेवज्जेसु अ ३०२
३ न्यायोक्तियां।
क्रम संख्या
न्याय
१ जस्स अण्णय वदिरेगेहि णियमे ग जस्सण्णय वदिरेगा उवलंभंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं इदि णायादो २ जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति
पृष्ठ क्रम संख्या न्याय
णायाणुसरण?मेगजीवेण सामि २८ ३ सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्त
इति न्यायात् १० ४ सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्वव
तिष्टंत इति न्यायात् . ७९,८३
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________________
४ ग्रन्थोल्लेख ।
३७२
१ कसायपाहुड १ 'आसाणं पि गच्छेज्ज' इदि कसायपाहुडे चुण्णिसुत्तदंसणादो। २३३
२ जीवट्ठाण १ एत्थ सामण्णणेरइयाणं वुत्तविखंभसूची चेव णेरइयामिच्छाइट्ठीणं जीवट्ठाणे परूविदा।
३ द्रव्यानुयोगद्वार . १ ण च एवं, जीवाणं छेदाभावादो दवाणिओगद्दारवखाणम्मि वुत्तहेटिम-उवरिमवियप्पाणमभावप्पसंगादो च ।
... ४ परिकर्म...१ 'कम्मढिदिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे बादरहिदी होदि' त्ति परियम्मवयणण्णहाणुववत्तीदो।
२ 'जम्हि जम्हि अणंताणतयं मग्गिजदि तम्हि तम्हि अजहण्णाणुक्कस्समणंताणतयं घेत्तव्यं ' इदि परियम्मवयणादो ।
२८५ ३ 'रज्जू सत्तगुणिदा जगसेडी, सा वग्गिदा जगपदरं, सेडीए गुणिदजगपदरं घणलोगो होदि' त्ति सयलाइरिय सम्पदपरियम्मसिद्धत्तादो । ३७२
५ बंधप्पाबहुगसुत्त १ सम्वत्थोवा धुवबंधगा x x x अद्धवबंधगा विसेसाहिया धुवबंधगेणूणसादियबंधगेणेत्ति तसरासिमस्सिदूण वुत्तबंधप्पाबहुगसुत्तादो णव्वदे ।
६ महाबंध १ महाबंधे जहण्णट्ठिदिबंधद्धाछेदे सम्मादिट्ठीणमाउअस्स वासपुधत्तमेत्तद्विदिपवणादो।
३६०
१२५
Page #682
--------------------------------------------------------------------------
________________
५ पारिभाषिक शब्दसूची।
पृष्ठ -
शब्द
पृष्ठ
अ
८१
२६७, २८७, २८९
२२९
७५, ७६
३००
अन्तरकरण | अन्तर्मुहूर्त अन्वय अपगतवेद अपवर्तनाघात अपूर्वकरणउपशामक अपूर्वकरणकाल
अपूर्वकरणक्षपक १०१, १०३
अप्कायिक अप्रमत्त अप्रशस्त तेजस शरीर अबन्धक अभव्य अभव्यसमान भव्य अभव्यसिद्धिक अभाग अयोग अयोगी अर्थापत्ति अलेश्यिक अवधिज्ञानी अवधिदर्शन अवधिदर्शनी अवहित अविरति अशुद्धनय असंख्यातवर्षायुष्क असंख्येय गुणश्रेणी
असंशी ७३ असंयत
अकषायी अकायिक अक्षपरावर्त अक्षपकानुपशामक अगति अघाति कर्म अचक्षुदर्शन अचक्षुदर्शनी अचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक अतिप्रसंग अधःप्रवृत्त अधिकार अनध्यवसाय अनन्तानुबन्धिविसंयोजन अनवस्था अनवस्थान . अनागमद्रव्यनारक अनादि-अपर्यवसित बन्ध अनादिबादरसाम्परायिक अनादि-सपर्यवसितबन्ध अनाहार अनिन्द्रिय अनिवृत्तिकरण उपशामक अनिवृत्तिकरणक्षपक अनुकम्पा अनुभाग भनेकान्तिक
७,२४२ १६२, १७१, १७६
१०६
८,७८
१०५, १०६
८४
९८, १०३
२४७
६८, ६९
११० ५५७
६३ |
७, १११
Page #683
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५४)
शब्द
असंयम असाम्परायिक
आगमद्रव्य नारक
आगमद्रव्य बन्धक
आगमभाव नारक
आगमभाव बन्ध
आन-प्राणपर्याप्ति आभिनियोधिकशानी
आस्तिक्य
मात्र *
माहार
आहारसमुद्घात
इन्द्रिय
ईर्यापथबन्ध ईषत्प्राग्भार
उदय उदयस्थान उद्वेलनकाल
उपचार
उपपाद
उपशम
उपशमश्रेणी
उपशमसम्यक्त्व उपशमसम्यग्वष्टि
उपशान्तकषाय
उपशामक उपादानकारण
आ
उ
परिशिष्ट
पृष्ठ
८, १३ | उपादेय
५ उपापुद्गल परिवर्तन
३०
४
३०
५.
३४
८४
༥
७, ११२
३००
शब्द
८२
३२
२३३
६७, ६८
३००
ऋजु सूत्रनय
७
९ औदयिक
९, ८१
ए
एकविंशतिप्रकृति उदयस्थान
एकेन्द्रिय
एवंभूत
६, ६१ | कर्मद्रव्य
कर्मनारक
औपशमिक
कर्मनिर्जरा
५
कर्मबन्धक
३१५ कर्मस्थिति
कर्वट
कषाय
कदलीघात
कषायसमुद्घात कापोतलेश्या
काय
काययोग
कारक
कारण
कूटस्थानादि
१०८ कृतकरणीय
१४
ॠ
८१ काष्ठ-पोत-लेप्यकर्मादि
१०७
कृतयुग्म ५ | कृति - वेदनादिक १९ | कृष्णलेा
आ
क
पृष्ठ
६९
१७१, २११
ܙ
२९
३२
દૂર
२९
३०
३०
१२४
८२
३०
१४
४, ५
१४५
६
७,८
२९९
१०४
६ ७८ ८
२४७
३
७३
૧
२५६
१
१०४
Page #684
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५५)
पारिभाषिक शब्दसूची
पृष्ठ शब्द
. शब्द
केवलज्ञानी केवलदर्शनी केवलिसमुद्घात केवली क्रोधकषाय क्षपक
८८ चक्षुरिन्द्रिय ९८, १०३ चतुरिन्द्रिय
चारित्रमोहक्षपण चारित्रमोहोपशामक चूलिका
क्षय
९.६०, ८१, २२
छद्मस्थ
३७२ १७२
क्षयोपशम क्षायिक क्षायिकलब्धि क्षायिकसम्यक्त्व सायिकसम्यग्दृष्टि , क्षायोपशमिक क्षीणकषाय
१०७ ३०, ६१
जगप्रतर जगश्रेणी जिहन्द्रिय जीवस्थान ज्ञान शायकशरीर
४.२०
खण्ड
२४७
खेट
गति ग पक्रान्तिक गृहीत-गृहीतगणित ग्राम
तव्यतिरिक्त तीर्थकर तृतीयाक्ष
तेजस्कायिक ५५५, ५५६ तेजोजमनुष्यराशि
४९८ तेजोलेश्या ६ तेजसशरीर
त्रसकायिक त्रीन्द्रिय
२३६ १०४
. ५०२
घनलोक घातक्षुद्रभवग्रहण घातक्षुद्रभवग्रहणमात्रकाल घातिकर्म घ्राणेन्द्रिय
७, १००
१४
दण्डगत दर्शन दर्शनमोहक्षपण
दारुकसमान १०१ देशघातक ९८ देशघाति
चक्षुदर्शन चक्षुदर्शनी
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
शब्द
शब्द
पूछ
१६७ ९४, १६७
देशघाति स्पर्द्धक देशसंयम देशावरण द्रव्यशोध द्रव्यंबन्धक द्रव्यसंयम द्रव्यार्थिकनय द्वितीय दण्ड द्वितीयाक्ष द्वीन्द्रिय
४७९, ४८०
९, ३०
१४
७०
७०
६१ | परस्परपरिहारलक्षणविरोध १४ परिहारशुद्धिसंजम ६३ परिहारशुद्धिसंयत ८२ पर्यायार्थिक नय . । पर्युदास प्रतिषेध
पारिणामिक ३,१३
पारिणामिक भाव ३१३, ३१५
पुरुषवेद पृथिवीकायिक पृथिवीकायिक नामकर्म प्रतरगत प्रतिपातस्थान प्रत्ययप्ररूपणा प्रत्याख्यानपूर्व प्रथमदण्ड प्रथमाक्ष
प्रमाण ३, ६०
प्रमाद
प्रमेय २४७
प्रवाहानादि ४३६
प्रशस्त तैजसशरीर प्रसज्यप्रतिषेध
५५
७९
१६७
३१३
२४७ ११
५०६
नगर नपुंसकवेद नय नामनारक नामबन्धक निक्षेप निगोद जीव निरुक्ति निवृति नीललेश्या नैगम नोआगमभाव नारक नोआगमद्रव्यबन्धक नोआगमभावबन्धक नोइन्द्रियज्ञान नोकर्मद्रव्य नारक नोकर्मबन्धक
प्रशम
१०४
४०० ८५, ४७९
बन्ध बन्धक बन्धन बन्धनीय बन्धकसत्वाधिकार बन्धकारण बन्धविधान
बादरसाम्परायिक १०४ बाह्यन्द्रिय
8.ornRIY
पंचविधलब्धि पंचेन्द्रिय पद्मलेश्या
Page #686
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारिभाषिक शब्दसूची
शब्द
पृष्ठ
शब्द
पृष्ठ
३७२
भय
३४, ३५, ३६ राजु ४, ७, ३०, २४२
९६
४३६
भब्य भव्यसिद्धिक भाग भाजित भावबन्धक भावसंयम भाषापर्याप्ति
२४७
लक्षण लब्धि लोकपूरण लोभकषायी
७१
२४७
३००
मतिअज्ञानी मतिज्ञान मनःपर्ययज्ञानी मनोयोग महाकर्मप्रकृतिप्राभृत मानकषायी मायाकषायी मारणान्तिकसमुद्घात मार्गणा मिथ्यात्व मिथ्यात्वादिप्रत्यय मिथ्यादृष्टि मिश्र मिश्रनोकर्मद्रव्यबन्धक मुक्तमारणान्तिक मोक्षकारण मोक्षप्रत्यय
वचनयोग वनस्पतिकायिक वायुकायिक विकल्प विभंगज्ञानी विरलित विशेषमनुष्य विशेषविशेषमनुष्य विहारवत्स्वस्थान वेद वेदकसम्यक्त्व घेदकसम्यग्दृष्टि वेदनासमुद्घात वैक्रियिकसमुद्घात व्यंजनपर्याय व्यतिरेक व्यवहार व्यवहारनय
२९९
९
१७८
३०७,३१२
य
१५७
२९
शतपृथक्त्व यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत
शब्दनय योग
६, ८, १७, ७५ | शरीरपर्याप्ति
Page #687
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५८ )
शब्द
शुक्ललेश्या
शुद्धनय
श्रुतअज्ञानी
श्रुतज्ञानी
श्रोत्रेन्द्रिय
संज्ञी
संयत
संयतासंयत
संयम
संवर
संवेग
सचित्तनो कर्मद्रव्यबन्धक
सत्व
सदुपशम समभिरूढ
सम्यक्त्व
सम्यग्दर्शन
सम्यग्दृष्टि
सम्यग्मिथ्यादृष्टि सयोगकेवली
स
परिशिष्ट
पृष्ठ
१०४ | सर्वघातक
६७ सर्वघातिस्पर्द्धक
८४
""
६६
शब्द
सर्वावरण
सहकारिकारण सद्दानवस्थानलक्षणविरोध
सामान्य मनुष्य
७, १११ | सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत ९१ | साम्परायिकबन्धक
९४ | सासादन सम्यग्दृष्टि
""
२०७
११०
१४
७, १४, ९१ सिद्धगति
९
७
४
८२
६१
२९ | वेद
७
सिध्यमान भव्य
सूक्ष्मसाम्परायिक
सूक्ष्मसाम्परीयकादिक सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयंत
स्थापना
स्थापनानारक
स्थापनाबन्धक
स्पर्द्धक
स्वस्थानस्वस्थान
पृष्ठ
६९
६१, ११०
६३
६९
४३६
५२
९१
५
१०९
६
१७३
५
93
९४
७९
३
२९
३
६१
३००
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________________ जैन साहित्य उद्धारक फंड तथा कारंजा जैन ग्रंथमालाओं में प्रो, हीरालाल जैन द्वारा आधुनिक ढंगसे सुसम्पादित होकर प्रकाशित जैन साहित्यके अनुपम ग्रंथ प्रत्येक ग्रंथ सुविस्तृत भूमिका, पाठभेद, टिप्पण व अनुक्रमणिकाओं आदिसे खूब सुगम और उपयोगी बनाया गया है। 1 पखंडागम-[धवलसिद्धान्त ] हिन्दी अनुवाद सहित पुस्तक 1, जीवस्थान--सत्प्ररूपणा, पुस्तकाकार व शास्त्राकार (अप्राप्य) पुस्तक 2, " पुस्तकाकार 10), शास्त्राकार (अप्राप्य ) पुस्तक 3-6 (प्रत्येक भाग) , 10, 12) पुस्तक 7, क्षुद्रकबन्ध , 10, 12) यह भगवान् महावीर स्वामीकी द्वादशांग वाणीसे सीधा संबन्ध रखनेवाला, अत्यन्त प्राचीन, जैन सिद्धान्तका खूब गहन और विस्तृत विवेचन करनेवाला सर्वोपरि प्रमाण ग्रंथ है। श्रुतपंचमीकी पूजा इसी ग्रंथकी रचनाके उपलक्ष्य में प्रचलित हुई। 2 यशोधरचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... ... 6) इसमें यशोधर महाराजका अत्यंत रोचक वर्णन सुन्दर काव्यके रूपमें किया गया है / इसका सम्पादन डा. पी. एल. वैध द्वारा हुआ है। 3 नागकुमारचरित--पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काध.. ... इसमें नागकुमारके सुन्दर और शिक्षापूर्ण जीवनचरित्र द्वारा श्रुतपंचमी विधानकी महिमा बतलाई गई है। यह काव्य अत्यंत उत्कृष्ट और रोचक है। 4 करकंडुचरितमुनि कनकामरकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... ... J इसमें करकंडु महाराजका चरित्र वर्णन किया गया है, जिससे जिनपूजाका माहात्म्य प्रगट होता है। इससे धाराशिवकी जैन गुफाओं तथा दक्षिणके शिलाहार राज वंशके इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। 5 श्रावकधर्मदोहा--हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... ... ... 2 इसमें श्रावकोंके व्रतों व शीलोंका बड़ा ही सुन्दर उपदेश पाया जाता है। इसकी रचना दोहा छंदमें हुई है। प्रत्येक दोहा काव्यकलापूर्ण और मनन करने योग्य है। 6 पाहुडदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... 2 // इसमें दोहा छंदोंद्वारा अध्यात्मरसकी अनुपम गंगा बहाई गई है जो अवगाहन करने योग्य है। प्रकाशक-श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द, जैन साहिला उद्धारक फंड, अमरावती भुद्रक-टी. एम्. पाटील, मॅनेजर, सरस्वती प्रेस, अमरावती. ainelibrary.org