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________________ २, ६, २९. ] खेत्तागमे पंचिदियखेत्तपरूवणं [ ३२७ अड्डाइज्जादो' असंखेज्जगुणे अच्छंति, पहाणीकयपज्जन्तरासिस्स संखेज्जभागत्तादो संखेज्जदिभागत्तादो च । उववादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर- तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एदस्स खेत्तस्साणयणं पुत्रं व वत्तन्वं । समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ॥ २८ ॥ मं लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे ६ ॥ २९ ॥ एदस्स अत्थो बुच्चदे -- वेयण-कसाय-वेउच्चियसमुग्धादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति, पहाणीकदपज्जत्तरासिम्स संखेज्जदिभागत्तादो । तेजाहारसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, ' माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । दंडगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, स्वस्थानस्वस्थानपद्गत उक्त जीव प्रधानभूत पर्याप्त राशिके संख्यात बहुभाग और विहारवत्स्वस्थानगत वे ही जीव उक्त राशिके संख्यातवें भागप्रमाण 1 उपपादको प्राप्त पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इस क्षेत्रके निकालने का विधान पूर्वके समान कहना चाहिये | पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव समुद्घातकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ।। २८ ॥ यह सूत्र सुगम है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव समुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग में, अथवा असंख्यात बहुभाग में, अथवा सर्व लोकमें रहते हैं ।। २९ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमैं, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, वे प्रधानभूत पर्याप्तराशि संख्या माग हैं । तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्धतको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भाग में रहते हैं । दण्डसमुद्धातको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और मानुषक्षेत्र से असंख्यात १ प्रतिषु ' - भागो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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