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________________ ३२६) छक्खंडागमे खुद्दाबंधों [.२, ६, २६. चेव उजुगदीए उप्पज्जदि, असंखेज्जा भागा पुण विग्गहगदीए त्ति कट्ट एदस्स असंखेज्जे भागे घेत्तूण पुणो तेसिं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेते भागहारे ठविदे पढमदंडेण अद्धरज्जुमेत्तं रज्जूए संखेज्जदिभागं वा विसप्पिय द्विदजीवपमाणं होदि । पुणो तम्हि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे उप्पण्णपढमसमए पढमदंडमुवसंहरिय बिदियदंडेण सेढीए संखेज्जदिभागं तप्पाओग्गमसंखेज्जदिभागं वा विसप्पिय विदजीवपमाणं होदि । पुणो तमप्पप्पणो विक्खंभवग्गेण गुणिदसगायामेण गुणिदे उववादखेत्तं होदि । विगलिंदिएसु उब्धियपदं णत्थि, साभावियादो । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? ॥ २६ ॥ एत्थ सत्थाणणिद्देसो दोण्हं सत्थाणाणं गाहओ; दव्यट्ठियणयावलंबणादो । सेसं सुगम । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ २७॥ एदं देसामासियसुत्तं, तेणेदेण सूइदत्थो वुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणपज्जाएण परिणदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, उत्पन्न होती है, और असंख्यात बहुभागप्रमाण विग्रहगतिसे, ऐसा जानकर इसके असंख्यात बहुभागोंको ग्रहणकर पुनः उनके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र भागहारको स्थापित करने पर प्रथम दण्डसे अर्ध राजुमात्र अथवा राजुके संख्यातवें भाग. प्रमाण फैलकर स्थित जीवोंका प्रमाण होता है। पुनः उसमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपेर उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें प्रथम दण्डका उपसंहार कर द्वितीय श्रेणीके सख्यातवें भाग अथवा तत्प्रायोग्य असंख्यातवे भागप्रमाण फैलकर स्थित जीवोंका प्रमाण होता है । पुनः उसे अपने अपने विष्कम्भके वर्गसे गुणित अपने अपने आयामसे गुणित करनेपर उपपादक्षेत्रका प्रमाण होता है । विकलेन्द्रियों में वैक्रियिक पद नहीं है, क्योंकि, ऐसा उनका स्वभाव है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव स्वस्थानसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥२६॥ यहां सूत्र में स्वस्थानपदका निर्देश दोनों स्वस्थानोंका ग्राहक है, क्योंकि, यहां द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन है । शेष सूत्रार्थ सुगम है। पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त जी स्वस्थानसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २७॥ यह देशामर्शक सूत्र है, इस कारण इसके द्वारा सूचित अर्थको कहते हैंस्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थानरूप पर्यायसे पारणत पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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