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________________ २, ६, २५. ] खेत्तागमे वियलिदियखेत्तपरूवणं [ ३२५ पाणियादो । एदेसिं चेव तिणि अपज्जत्ता चदुदं लोगाणमसंखेज्जदिमागे अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदुस्सेहघणंगुलमे तोगाहणत्तादो । मारतिय उववादगदा णव वि वग्गा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे पर- तिरियलोगर्हितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एत्थ ताव मारणंतियखेत्तविण्णासो बुच्चदे - बीइंदिय-तीइंदियचउरिंदिया तेसिं पज्जत्त-अपज्जतदव्वं ठविय' आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेण सगसगुवक्कमणकालेण सगसगदव्वम्मि भागे हिदे सगसगरासिम्हि मरतजीवपमाणमागच्छदि । तस्स असंखेज्जदिभागो मारणंतिएण विणा मरदि ति एदस्स असंखेज्जे भागे घेत्तृण मारणंतिय-उवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे सगसगमारणंतियद होदि । रज्जुमेत्तायामेण मुक्कमारणंतियदव्वमिच्छिय अण्णगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्वौ | पुणेो अष्पष्पणो विक्खंभवग्गगुणिदरज्जुए गुणिदे इंदियादीणं णवणं मारणंतियखेत्तं होदि । एत्थ ओवट्टणं जाणिय कायव्यं । उववाद खेत्तविण्णासो बुच्चदे । तं जहामणकाले भागे हिदे एगसमएण मरंतजीवाणं पुव्युत्तदव्त्राणि ठविय सगसगुबक्कपमाणं होदि । एदस्स असंखेज्जभागो इन्हीं के तीन अपर्याप्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, वे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित उत्सेधघनांगुलप्रमाण अवगाहनासे युक्त होते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात व उपपादको प्राप्त नौ ही जीवराशियां तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहां मारणान्तिकक्षेत्रका विन्यास कहा जाता है - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्त व अपर्याप्त द्रव्यको स्थापित कर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अपने अपने उपक्रमणकालसे अपने अपने द्रव्यके भाजित करनेपर अपनी अपनी राशिमेंसे मरनेवाले जीवोंका प्रमाण आता है । उसके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव मारणान्तिकसमुद्घात के विना मरण करते हैं, इसलिये इसके असंख्यात बहुभागोंको ग्रहणकर मारणान्तिक उपक्रमणकालरूप आवली असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर अपना अपना मारणान्तिक द्रव्य होता है । एक राजुमात्र आयामसे मुक्तमारणान्तिक द्रव्यकी इच्छा कर एक अन्य पल्योपमका असंख्यातव भाग भागद्दार स्थापित करना चाहिये । पुनः अपने अपने विष्कम्भके वर्ग से गुणित राजुसे उसे गुणित करनेपर द्वीन्द्रियादिक नौ जीवराशियोंका मारणान्तिक क्षेत्र होता है । यहां अपवर्तन जानकर करना चाहिये । उपपादक्षेत्रका विन्यास कहते हैं । वह इस प्रकार है- पूर्वोक द्रव्योंको स्थापित कर अपने अपने उपक्रमणकालसे भाजित करनेपर एक समय में मरनेवाले जीवका प्रमाण होता है । इसके असंख्यातवें भागमात्र ही उक्त जीवराशि ऋजुगति १ प्रgि र इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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