SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो [ २, ३, ११७. कुदो ? असंजदस्स संजमं घेत्तण जहणमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणे असंजमं गदस्स तदुवलंभादो उक्कस्सेण पुव्वकोडी देणं ॥ ११७ ॥ कुदो ? सणिपंचिदियसम्मुच्छिमपज्जत्तयस्स छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदस्स विस्समिय विसुद्ध होतॄण संजमा संजमं घेत्तृणंतरिय देसूणपुव्वकोडिं जीविय कालं काऊण देवेसुप्पण्णपढमसमए समाणिदंतरस्स अंतो मुहुत्तूण पुच्च कोडिमेत्तं तरुत्रलं भादो । दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ११८ ॥ जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ११९ ॥ कुदो ? जो जीवो चवखुदंसणी एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदियलद्धिअपज्जत्तएस खुदाभवग्गहण मेत्ताउडिदिएसु अण्णदरेसु अचक्खुदंसणी होणुप्पाज्जय खुद्दाभवग्ग हणमंतरिय पुणो चउरिंदियादिसु चक्खुदंसणी होणुप्पण्णो तस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तं तरुचलं भादो । क्योंकि, असंयत जीवके संयम ग्रहण कर कमसे कम अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर पुनः असंयम में जानेपर अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर प्राप्त होता है । असंयतोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि होता है ।। ११७ ॥ क्योंकि, किसी संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूर्छिम पर्याप्त जीवने छद्दों पर्याप्तियों से पूर्ण होकर विश्राम ले विशुद्ध हो संयमासंयम ग्रहणकर असंयमका अन्तर प्रारंभ किया और कुछ कम पूर्वकोटि काल जीकर मरणकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में अन्तर समाप्त किया अर्थात् असंयमभाव ग्रहण किया। ऐसे जीवके असंयमका अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटिमात्र अन्तरकाल पाया जाता है । (देखो पु. ४, कालानुगम सूत्र १८ ) । दर्शन मार्गणानुसार चक्षुदर्शनी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ११८ ॥ यह सूत्र सुगम है । चक्षुदर्शनी जीवोंका जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहणमात्र होता है ।। ११९ ॥ क्योंकि, जो चक्षुदर्शनी जीव क्षुद्रभवग्रहणमात्र आयुस्थितिवाले किसी भी एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय व त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों में अचक्षुदर्शनी होकर उत्पन्न होता है और क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल चक्षुदर्शनका अन्तर कर पुनः चतुरिन्द्रियादिक जीवोंमें चक्षुदर्शनी होकर उत्पन्न होता है उस जीवके चक्षुदर्शनका क्षुद्रभवग्रहणमात्र अन्तरकाल पाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy