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२, ३, १२३.] एगजीवेण अंतराणुगमे दंसणचदुक्कस्संतर
[२२७ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ १२० ॥
कुदो ? चक्खुदंसणीहिंतो णिप्पिडिय अचक्खुदंसणीसु समुप्पज्जिय अंतरिदूण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियढे गमिय पुणो चक्खुदंसणीसुप्पण्णस्स तदुवलंभादो।
अचवखुदंसणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १२१ ॥ सुगमं । णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ १२२ ॥ केवलदसणिस्स पुणो' अचक्खुदंसणुप्पत्तीए अभावादो ।
ओधिदसणी ओधिणाणिभंगो ॥ १२३ ॥ जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्टमिच्चेदेहि दोण्हं भेदाभावादो।
चक्षुदर्शनी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल होता है ॥ १२० ॥
__ क्योंकि, चक्षुदर्शनी जीवों से निकलकर अचक्षुदर्शनी जीवोंमें उत्पन्न हो अन्तर प्रारम्भ कर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तीको विताकर पुनः चक्षुदर्शनी जीवों में उत्पन्न हुए जीवके चक्षुदर्शनका सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है।
अचक्षुदर्शनी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १२१ ॥ यह सूत्र सुगम है। अचक्षुदर्शनी जीवोंका अन्तर नहीं होता, वे निरन्तर होते हैं ॥ १२२ ।।
क्योंकि, अचक्षुदर्शनका अन्तर केवलदर्शन उत्पन्न होनेपर ही हो सकता है। पर एक वार जो जीव केवलदर्शनी हो गया उसके पुनः अचक्षुदर्शनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती।
अवधिदर्शनी जीवोंके अन्तरकी प्ररूपणा अवधिज्ञानी जीवोंके समान है ॥१२३॥
क्योंकि, अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंके जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तमात्र और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाणमें कोई भेद नहीं है।
१ प्रतिषु केवलदसणिस्त णो' इति पाठः ।
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