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________________ २, ३, ११६. ] एगजीवेण अंतराणुगमे असंजदाणमंतरं [ २२५ उबड्डपोग्गलपरियङ्कं भमिय अवसाणे सम्मत्तं संजमं च घेत्तूणुवस सेडिं चडिय मुहुमसांपराइओ उवसंतकसाओ च होतॄण सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदो पुणो होदूण कमेण अंतराणि समणिय हेट्ठा ओरिय पुणो खवगसेडिं चडिय अबंधगतं गदस्स उवड्डपोग्गलपरियतरस्सुवलंभादो । खवगसेडीए दोण्हमंतराणं परिसमती किण्ण कदा ? ण, उत्रसामगेहि एत्थ अहियारादो । खवगं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ ११४ ॥ कुदो ? खवगाणं पुणो आगमणाभावादो । असंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ११५ ॥ सुगमं । जण अंतमुतं ॥ ११६ ॥ सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण कर उपशमश्रेणीपर चढ़ा तथा सूक्ष्मसाम्परायिक और उपशान्तकषाय होकर पुनः सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत होकर क्रमसे दोनों अन्तरकालोंको समाप्त कर नीचे उतरकर पुनः क्षपकश्रेणीपर चढ़ा और अबन्धकभावको प्राप्त होगया । ऐसे जीवके सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात शुद्धिसंयमका उपार्धपुद्गल परिवर्तप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है । शंका • क्षपकश्रेणी में जघन्य और उत्कृष्ट इन दोनों अन्तरोंकी परिसमाप्ति क्यों नहीं की ? Jain Education International समाधान क्षपकोंका नहीं । क्षपककी अपेक्षा सूक्ष्मसाम्परायिक और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतों का अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ ११४ ॥ - नहीं की, क्योंकि यहां तो केवल उपशामकोंका अधिकार है, क्योंकि, क्षपक जीवों का क्षीणकषाय गुणस्थान से लौटकर पुनः सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आने का अभाव है । असंयतका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। ११५ ।। यह सूत्र सुगम है । असंयतोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र है ।। ११६ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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