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________________ २२४ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ३, ११२. उवसमं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ११२ ॥ कुदो ? चडमाणस्स सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदस्स उपसंतकसाओ होदूण जहाक्खादेणंतरिय पुणो सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदे पदिदस्स तदुवलंभादो । जहाक्खादसंजमादो हेट्ठा पदिय जहण्णमंतोमुहुत्तमाच्छय पुणो कमेणुवरि चढिय उवसंतकसाओ होदूण जहाक्खादसंजमं गदस्स जहणतरुवलंभादो। उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूणं ॥ ११३ ॥ कुदो ? अणादियमिच्छाइद्विस्स तिणि वि करणाणि कादण अद्धपोग्गलपरियट्टस्स आदिसमए पढमसम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तण अंतोमुहुत्तेण सव्वजहण्ण उवसमसेडिं चडिय सुहुमसांपराइओ होदूग तत्थ जहणतोमुहुत्तमच्छिय उपसंतकसाओ होण सुहुमुसांपराइयसुद्धिसंजदो पुणो होदूण तस्स पढमसमए जहाक्खादसुद्धिसंजमंतरस्सादि करिय पुणो अंतोमुहुत्तेण अणियट्टिगुणट्ठाणे णिवदिय सामाइय-छेदोवट्ठावणं पदिदपढमसमए सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमंतरस्स आदि करिय कमेण हेट्ठा ओयरिय उपशमकी अपेक्षा सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात शुद्धिसंयतोंका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है ।। ११२ ।। __क्योंकि, श्रेणी चढ़ते हुए सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतके उपशांतकषाय होकर यथाख्यातसंयमके द्वारा सूक्ष्मसास्परायसंयमका अन्तर कर पुनः गिरकर सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयममें आनेपर अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तरकाल पाया जाता है। यथाख्यातसंयमसे नीचे गिरकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र रहकर पुनः क्रमसे ऊपर चढ़कर उपशान्तकषाय होकर यथाख्यातसंयम ग्रहण करनेवाले जीवके यथाख्यातसंयमका अन्तमुहूर्तमात्र जघन्य अन्तर पाया जाता है। सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात शुद्धिसंयतोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ ११३ ॥ क्योंकि, कोई अनादिमिथ्यादृष्टि जीव तीनों ही करण करके अर्धपुद्गलपरिवर्तक आदि समय में प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण कर सबसे कम अन्तमुहूर्त कालसे उपशमश्रेणीको चढ़कर सूक्ष्मसाम्परायिक हुआ, और वहां कमसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र रहकर उपशान्तकषाय होगया। पश्चात् पुनः सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत होकर उसके प्रथम समयमें ही यथाख्यातशुद्धिसंयमका अन्तर प्रारंभ किया। पुनः अन्तर्मुहूर्त कालसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें गिरकर सामायिक व छेदोपस्थापन शुद्धिसंयमोंमें गिरनेके प्रथम समयमें सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयमका अन्तर प्रारंभ किया । फिर क्रमसे नीचे उतरकर उपार्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाण भ्रमण कर अन्तमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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