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२, ३, १११. ] एगजीवेण अंतराणुगमे सुहुम- जहाक्खाद सुद्धिसंजदाण मंतरं
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वणसुद्धिसंजदाणं, भेदाभावादो | एवं परिहारसुद्धिसंजदस्स वि । णवरि अणादियमिच्छादिट्ठी अद्धपोग्गलपरियट्टस्स आदिसमए उपसमसम्मत्तं संजमं च जुगवं घेतण वासपुधत्तमच्छिय पच्छा परिहारसुद्धिसंजमं गंतॄण मिच्छतं पुणो गमिय अंतरावेदव्त्रो, संजमग्गहणपढमसमयादो वासपुधत्तेण विणा परिहार सुद्धिसंजमग्गहणाभावादो | अवसाणे वि परिहारसुद्धिसंजमं गण्हाविय' पच्छा सामाइयच्छेदोवडावण- सुहुम- जहाक्खादसंजमाणं दूण अबंधगो कायव्वो । एवं संजदासंजदस्स वि । णवरि अवसाणे तिष्णि विकरणाणि काऊ णुवसमसम्मत्तं संजमा संजमं च गहिदपढमसमए अंतरं समाणिय अंतो मुहुत्तमच्छिय संजमं घेत्तूण अबंधगत्तं गदो त्ति वत्तव्यं ।
सुहुमसां पराइयसुद्धिसंजद - जहाक्खाद विहार सुद्धिसंजदाणमंतरं haचिरं कालादो होदि ? ॥ १११ ॥
सुगमं ।
क्योंकि, उनके पूर्वोक्त संयतों के अन्तरसे कोई भेद नहीं होता !
इसी प्रकार परिहारशुद्धिसंयतका भी अन्तर होता है । केवल विशेषता यह है कि अनादिमिथ्यादृष्टि जीवके अर्धपुलपरिवर्तके आदि समय में उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण कर वर्षपृथक्त्व रहकर पश्चात् परिहारशुद्धिसंयमको प्राप्त कर पुनः मिथ्यात्व में जाकर अन्तर उत्पन्न कराना चाहिये, क्योंकि संयम ग्रहण करने के पश्चात् वर्षपृथक्त्वके विना परिहारशुद्धिसंयम ग्रहण नहीं किया जा सकता । अन्तरके समाप्तिकालमें भी परिहारशुद्धिसंयमको ग्रहण कराकर पश्चात् सामायिक व छेदोपस्थान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात संयमों में लेजाकर अबन्धकभाव उत्पन्न कराना चाहिये ।
इसी प्रकार संयतासंयत जीवका भी अन्तर उत्पन्न करना चाहिये । केवल विशेषता यह है कि अन्तमें तीनों करण करके उपशमसम्यक्त्व व संयमासंयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें ही अन्तरकाल समाप्त कर अन्तर्मुहूर्त रहकर संयम ग्रहण कर अबन्धकभावको प्राप्त हुआ, ऐसा कहना चाहिये ।
सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतों और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतका अन्तर कितने काल होता है ? ॥ १११ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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१ अ - आप्रत्योः ' गेहविय ' इति पाठः ।
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