SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ j छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ३, १०९. जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १०९ ॥ कुदो ? अप्पिदसंजमद्विदिजीवमसंजमं णेदूण पुणो अप्पिदसंजमस्स जहण्णकालेण णीदे जहण्णमंतर होदि । णवीर सामाइयच्छेदोवट्ठावणसंजदो उवसमसेडि चडिय सुहुमसंजम-जहाक्खादसंजमेसु अंतरिय पुणो हेट्ठा ओयरियस्स सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमेसु पदिदस्स जहण्णमंतर होदि । परिहारसुद्धिसंजमादो सामाइय- छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमं णेदूण जहण्णेण अंतोमुहुत्तेण पुणो परिहारसुद्धिसंजममागदस्स जहण्णमंतरं होदि । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियटुं देसूणं ॥ ११०॥ ___ कुदो ? अणादियमिच्छाइट्ठिस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स आदिसमए पढमसम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तूण अंतोमुहुसमच्छिय मिच्छत्तं गंतूणतरिय उबड्डपोग्गलपरियटुं भमिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे संजमं पडिबज्जिय अंतरं समाणिय अंतोमुहुत्तमच्छिय अबंधगत्तं गदस्स उबड्डपोग्गलपरियट्टमेत्तंतरुवलंभादो । एवं सामाइय छेदोवट्ठा संयत आदि उक्त संयमी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है ।।१०९।। क्योंकि, विवक्षित संयममें स्थित जीवको असंयममें लेजाकर कमसे कम कालमें पुनः विवक्षित संयममें लानेपर उस संयमका उक्त जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। केवल विशेषता यह है कि सामायिक व छेदोपस्थापन शुद्धिसंयत जीवके उपशमश्रेणीको चढ़कर सूक्ष्मसाम्पराय व यथाख्यात संयमोंके द्वारा अन्तर देकर पुनःश्रेणीसे नीचे उतरनेपर सामायिक व छेदोपस्थान शुद्धिसंयमोंमें आनेपर उन दोनों संयमोंका जघन्य अन्तर होता है । तथा • परिहारशुद्धिसंयमसे सामायिक व छेदीपस्थापन शुद्धिसंयममें जाकर अन्तर्मुहूर्त कालसे पुनः परिहारशुद्धिसंयममें आये हुए जीवके परिहारशुद्धिसंयमका जघन्य अन्तर होता है। संयत आदि उक्त संयमी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण होता है ॥ ११०॥ क्योंकि, किसी अनादिमिथ्यादृष्टि जीवके अर्धपुद्गलपरिवर्तमात्र संसार शेष रहनेके आदि समयमें प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयम दोनों को एक साथ ग्रहण कर भन्तर्मुहुर्त रहकर मिथ्यात्वको जाकर अन्तर प्रारंभ करके उपार्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाण अमण कर पुनः अन्तर्मुहूर्तमात्र संसार शेष रहनेपर संयम ग्रहण कर व अन्तरकाल समाप्त कर अन्तर्मुहूर्त तक रह अबन्धकभावको प्राप्त होनेपर उक्त संयमोंका उपाधपुलपरिवर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है। इसी प्रकार सामायिक व छेदोपस्थापन शुद्धिसंयतोंका अन्तर कहना चाहिये, १ अप्रतौ ' जीवसंजर्भ ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy