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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
णाणावरणचदुक्कं दंसणतिगमंतराइगा पंच | ता होंति देघादी संजणा णोकसाया य ॥ १५ ॥
फासिंदियावरण सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतोत्रसमेण अणुदओवसमेण वा देसघादिफद्दयाणमुदएण जिम्मिदियावरणस्स सन्त्रघादिफदयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा देसघादिफदयाणमुदएण चक्खु-सोद-घाणिंदियावरणाणं देसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतोत्रसमेण अणुदओवसमेण वा सव्त्रघादिफद्दयाणमुदएण खओवसमियं जिभिदियं समुप्पज्जदि । पस्सिदियाविणाभावेण तं चैव जिभिदियं बीइंदियं ति भण्णदि बहिदियजादिणामकम्मोदयाविणाभावादो वा । तेण बेइदिएण बेईदिएहि वा जुत्ता जेण बीइंदिओ णाम तेण खओवसमियाए लडीए बीइंदिओ ति सुत्ते भणिदं ।
[ २, १, १५.
परिसदियावरणस्स सव्वघादिफदयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुद एण जिन्भा - घार्णिदियावरणाणं सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतावसमेण अणुदओवसमेण वा देसघादिफद्दयाणमुदएण चक्खु-सोदिदियाणं (देसघादि ) फदयाणं उदय
मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय, ये चार ज्ञानावरण, चक्षु, अचक्षु और अवधि, ये तीन दर्शनावरण, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, ये पांचों अन्तराय, तथा संज्वलनचतुष्क और नव नोकपाय, ये तेरह मोहनीय कर्म देशघाती होते हैं ॥ १५ ॥ स्पर्शेन्द्रियावरण के सर्वघाति स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं के सत्त्वोपशमसे अथवा अनुदयोपशम से, और देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे: जिव्हेन्द्रियावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं के सरवोपशम से अथवा अनुदयोपशमसे, और देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे; एवं चक्षु, श्रोत्र व घ्राणेन्द्रियावरणों के देशघाती स्पर्शकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं के सत्रोपशम अथवा अनुदयोपशम से और सर्वघाती स्पर्धकोंके उदय से क्षायोपशमिक जिव्हेन्द्रिय उत्पन्न होती है । स्पर्शेन्द्रियका अविनाभावी अथवा द्वीन्द्रियनामकर्मोदयका अविनाभावी होनेसे जिव्हेन्द्रियको द्वितीय इन्द्रिय कहते हैं, चूंकि उक्त द्वितीय इन्द्रियसे अथवा दो इन्द्रियोंसे युक्त होने के कारण जीव द्वीन्द्रिय होता है, इसलिये ' क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव द्वीन्द्रिय होता है ' ऐसा सूत्र में कहा गया है ।
स्पर्शेन्द्रियावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके सत्त्वोपशमसे और देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे जिव्हा और घ्राणेन्द्रियावरणोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं के सत्त्वोपशम से अथवा अनुदयोपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे; एवं चक्षु और श्रोत्रन्द्रियोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षय से उन्हीं के सत्वोपशमसे अथवा अनुदयोपशमसे
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१ णाणावरणचउक्कं तिदंसणं सम्मगं च संजलणं । णव णोकसाय विग्धं छब्बीसा देसघादीओ ॥ गो. क. ४०.
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