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________________ २, २, १८६. ] एगजीवेण कालागुगमे भवियाभवियकालपरूवणं स्थिति कधं दें ? अणादि - सपज्जवसिदसुत्तण्णहाणुववत्सीदो । सादिओ सपज्जवसिदो ॥ १८५ ॥ अभविओ भवियभावं ण गच्छदि, भवियाभविय भावाणमच्चंता भावपडिग्गहियाणमेाहिरणत्तविरोहादो । ण सिद्धो भविओ होदि, णट्ठासेसासवाणं पुणरुत्पत्तिविरोहादो । म्हा भवियभावो ण सादि ति ? ण एस दोसो, पज्जयट्ठियणयावलंबणादो अप्पडिवण्णे सम्मत्ते अणादि-अणतो भवियभावो अंतादीदसंसारादो; पडिवण्णे सम्मत्ते अण्णो भवियभावो उपज्जइ', पोग्गल परियदृस्स अद्धमेत्तसंसारावद्वाणादो । एवं समऊण- दुसमऊणादिउवड्डपोग्गल परियट्टसंसाराणं जीवाणं पुध पुध भवियभावो वत्तन्धो । तदो सिद्धं भवियाणं सादि-सांतत्तमिदि । अभवियसिद्धिया केवचिरं कालादो होंति ? ॥। १८६ ॥ [ १७७ जाना जाता है ? समाधान- - भव्यत्वको अनादि सपर्यवसित कहनेवाले सूत्रकी अन्यथा उपपत्ति बन नहीं सकती, इसीसे जाना जाता है कि यहां भव्यत्त्व शक्तिले अभिप्राय है । जीव सादि सान्त भव्यसिद्धिक भी होता है ।। १८५ ।। शंका - अभव्य भव्यत्वको प्राप्त हो नहीं सकता, क्योंकि भव्य और अभव्य भाव एक दूसरे के अत्यन्ताभावको धारण करनेवाले होनेसे एक ही जीवमें क्रमसे भी उनका अस्तित्त्व मानने में विरोध आता है । सिद्ध भी भव्य होता नहीं है, क्योंकि जिन जीवोंके समस्त कर्मास्रव नष्ट होगये हैं उनके पुनः उन कर्मास्स्रवोंकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है | अतः भव्यत्व सादि नहीं हो सकता ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि पर्यायार्थिक नयके अवलम्बन से जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तब तक जीवका भव्यत्व अनादि-अनन्त रूप है, क्योंकि, तब तक उसका संसार अन्तरहित है । किन्तु सम्यक्त्वके ग्रहण कर लेनेपर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि, सम्यक्त्व उत्पन्न होजानेपर फिर केवल अर्धपुलपरिवर्तनमात्र काल तक संसार में स्थिति रहती है । इसी प्रकार एक समय कम उपार्धपुलपरिवर्तन संसारवाले, दो समय कम उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन संसारवाले आदि जीवों के पृथक् पृथक् भव्यभावका कथन करना चाहिये। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि भव्य जीव सादि- सान्त होते हैं । afa अभव्यसिद्धिक कितने काल तक रहते हैं ? ।। १८६ ॥ १ प्रतिषु ' उप्पज्जिय ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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