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________________ १७८! छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, २, १८७. सुगमं । अणादिओ अपज्जवसिदो ॥ १८७॥ अभवियभावो णाम वियंजणपज्जाओ, तेणेदस्स विणासेम होदव्यमण्णहा दव्यत्सप्पसंगादो त्ति ? होदु वियंजणपज्जाओ, ण च वियंजणपञ्जायस्स सव्वस्स विणासेण होदव्वमिदि णियमो अत्थि, एयंतवादप्पसंगादो । ण च ण विणस्सदि त्ति दव्वं होदि, उप्पाय-ट्ठिदि-भंगसंगयस्स दव्यभावभुवगमादो । सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १८८॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १८९ ॥ कुदो ? मिच्छादिद्विरस बहुसो सम्मत्तपज्जाएण परिणमियस्स सम्मत्तं गंतूण जहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गयस्स तदुवलंभादो। उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १९० ॥ यह सूत्र सुगम है। जीव अनादि-अनन्त काल तक अभव्यसिद्धिक रहते हैं ॥ १८७ ॥ शंका- अभव्यभाव जीवकी एक व्यंजनपर्यायका नाम है, इसलिये उसका विनाश अवश्य होना चाहिये, नहीं तो अभव्यत्वके द्रव्य होने का प्रसंग आजायगा? समाधान--अभव्यत्व जीवकी व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजनपर्यायका अवश्य नाश होना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेसे एकान्तवादका प्रसंग आजायगा । ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होना चाहिये, क्योंकि जिसमें उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय पाये जाते हैं उसे द्रव्य रूपसे स्वीकार किया गया है। सम्यक्त्वमार्गणानुसार जीव सम्यग्दृष्टि कितने काल तक रहते हैं ? ॥१८८॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव सम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥ १८९ ॥ क्योंकि, जिसने अनेक वार सम्यक्त्त्व पर्याय प्राप्त कर ली है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वको जाकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर मिथ्यात्वको जानेपर सम्यग्दर्शनका अन्तर्मुहूर्त काल प्राप्त हो जाता है। अधिकसे अधिक सातिरेक छयासठ सागरोपम काल तक जीव सम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥ १९० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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