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________________ गाणाजीवेण अंतरानुगमे जोगमग्गणा [ ४८५ वे उव्वियमिस्स काय जोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? २, ९, २७. ] ॥ २४ ॥ सुगमं । जहणेण एगसमयं ॥ २५ ॥ कुदो ? व्यिमस्तकायजोगी सत्रेसु पज्जत्तीओ समाणिदेसु एगसमयमंतरण बिदियसमए देवेंसु णेरइएस उप्पण्णेसु वेउच्चियमिस्सकायजोगीणमंतरं एगसमयं होदि । उक्कस्सेण वारसमुहुत्तं ॥ २६ ॥ देवेसु णेरइएसु वा अणुप्पज्जमाणा, जीवा जदि सुहु बहुअं कालमच्छंति तो बारस मुहुत्ताणि चैव । कधमेदं णव्वदे १ जिणत्रयणविणिग्गयवयणादो । आहारकाय जोगि आहारमिस्सकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ २७ ॥ वैक्रियिकमिश्र काययोगियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ २४ ॥ ग्रह सूत्र सुगम हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अन्तर जघन्यसे एक समय होता है ।। २५ ॥ क्योंकि, सब वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके पर्याप्तियोंको पूर्ण करलेनेपर एक समयका अन्तर होकर द्वितीय समय में देवों व नारकियोंके उत्पन्न होनेपर वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अन्तर एक समय होता है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अन्तर उत्कर्षसे बारह मुहूर्त होता है || २६ || देव अथवा नारकियों में न उत्पन्न होनेवाले जीव यदि बहुत अधिक काल तक रहते हैं तो बारह मुहूर्त तक ही रहते हैं । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - यह जिनभगवान् के मुखसे निकले हुए वचनोंसे जाना जाता है । आहारकका योगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? || २७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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