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________________ छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ७, ७८. लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ७८ ॥ ___एत्थ खेत्तवण्णणं कायव्वं, वट्टमाणप्पणादो । तीदे तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। कुदो ? अपज्जत्ताणं वं पज्जत्ताणं पि सधपुढवीसु अवट्ठाणविरोहाभावादो। ण च अट्ठसु पुढवीसु पुढवि-आउ-तेउ-वाउबादराणं बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीराणं च अपज्जत्ता चेव होंति त्ति जुत्ती अस्थि । अण्णाइरियवक्खाणं पुण एवं ण होदि । तं कधं ? बादरआउपज्जत्तबादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तएहि सत्थाण-वेयण-कसायपरिणएहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो, चित्ताए उपरिमभागं मोत्तण बादरभाउपज्जत्त-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ताणमण्णत्थ अबढाणाभावादो । एवं बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्ताणं पि वत्तव्यं, पत्तेयसरीरत्तं पडि भेदाभावादो। एवं बादरतेउकाइयपज्जन्ताणं पि । कुदो १ सयंपहपव्वयस्स परभागे चेव एदेसिमवट्ठाणादो । एदं उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ ७८ ॥ यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है । अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, अपर्याप्तोंके समान. पर्याप्त जीवोंका भी सर्व पृथिधियों में अवस्थान होनेमें कोई विरोध नहीं है । आठ पृथिवियोंमें पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक व वायुकायिक बादर जीवों तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके अपर्याप्त जीव ही होते हैं, ऐसी कोई युक्ति भी नहीं है । परन्तु अन्य आचार्योंका व्याख्यान ऐसा नहीं है। " शंका-यह कैसे? समाधान- 'बादर अप्कायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवों द्वारा स्वस्थान, वेदनासमुद्घात व कषायसमुद्घात पदोंसे परिणत होकर तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, चित्रा पृथिवीके उपरिम भागको छोड़कर अप्कायिक पर्याप्त और बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंका अन्यत्र अवस्थान नहीं है । इसी प्रकार बादर निगोद-प्रतिष्ठित पर्याप्तोंका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि, प्रत्येकशरीरत्वके प्रति दोनों में कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंका भी समझना चाहिये, क्योंकि, स्वयंप्रभ पर्वतके पर भागमें ही इनका अवस्थान है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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