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________________ २, ७, ७८.] फोसणाणुगमे पुढविकाइयादीणं फोसणं च अण्णाइरियवक्खाणं चक्खिदियपमाणवलपयट्ट । पुढविकाइया सव्वपुढवीसु होति ति एदं पि चक्खिदियबलपयष्टुं चेव । ण च पुढविकाइयादओ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसरीरा इंदियगेज्झा, जेण इंदियबलेण विहि-पडिसेहो होज्ज । तम्हा' सव्वपुढवीओ अस्सिदण एदेसिं बादरअपज्जत्ताणं व पज्जत्ताणं पि अवट्ठाणेण होदव्यं, विरोहाभावादो। तत्थ जलंता णिरयपुढवीसु अग्गिणो वहंतीओ गईओ च णत्थि त्ति जदि अभावो वुच्चदे, तं पि ण घडदे, __पष्ठ सप्तमयोः शीतं शीतोष्णं पंचभे स्मृतम् । चतुर्बत्युष्णमुद्दिष्टस्तासामेव महीगुणा ॥ १ ॥ इदि तत्थ वि आउ-तेऊणं संभवादो । कधं पुढवीणं हेहा पत्तेयसरीराणं संभवो ? ण, सीएण वि सम्मुच्छिज्जमाणपगण-कुहुणादीणमुवलंभादो। कधमुण्हम्हि संभवो ? ण, अच्चुण्हे वि समुप्पज्जमाणजवासपाईणमुवलंभादो। अन्य आचार्योंका व्याख्यान चक्षु इन्द्रियरूप प्रमाणके बलसे प्रवृत्त है । 'पृथिवीकायिक जीव सर्व पृथिवियों में होते हैं ' यह भी व्याख्यान चक्षु इन्द्रियके बलसे ही प्रवृत्त है। और अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण शरीरवाले पृथिवीकायिकादि जीव इन्द्रियोंसे ग्राह्य हैं नहीं, जिससे इन्द्रियबलसे उनका विधान व प्रतिषेध हो सके । अतएव इनके बादर अपर्याप्त जीवोंके समान पर्याप्त जीवोंका भी अवस्थान सर्व पृथिवियोंका आश्रय करके होना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विरोध नहीं है। वहां नरकपृथिवियोंमें जलती हुई अग्नियां और बहती हुई नदियां नहीं है, इस कारण यदि उनका अभाव कहते हो तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि छठी और सातवीं पृथिवीमें शीत तथा पांचवीं में शीत व उष्ण दोनों माने गये हैं । शेष चार पृथिवियों में अत्यन्त उष्णता है । ये उनके ही पृथिवीगुण हैं ॥१॥ इस प्रकार उन नरक पृथिवियों में अप्कायिक व तेजस्कायिक जीवोंकी सम्भावना है। शंका-पृथिवियोंके नीचे प्रत्येकशरीर जीवोंकी संभावना कैसे है ? समाधान-नहीं, क्योंकि शीतसे भी उत्पन्न होनेवाले पगण और कुहुन आदि वनस्पतिविशेष पाये जाते हैं। शंका-उष्णतामें प्रत्येकशरीर जीवोंका उत्पन्न होना कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अत्यन्त उष्णतामें भी उत्पन्न होनेवाले जवासप आदि वनस्पतिविशेष पाये जाते हैं। १ प्रतिषु ' तं जहा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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