SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६] छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ७, ३३. देसूणा । कुदो ? उवरिमदेवेहि णिजमाणा ण अद्धवंचमरज्जूओ सगपच्चएण अट्ठरज्जूओ गच्छंति त्ति देवाणमट्टचोद्दसभागकोसणं होदि । समुग्घादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ३३ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो अद्धट्टा वा अट्ठ-णवचोइस भागा वा देसूणा ॥३४॥ एदस्स अत्थो वुच्चदे-लोगस्स असंखेजदिभागो त्ति वयणं वट्टमाणखेत्तपरूवणटुं भणिदं । तेण एत्थ खेत्तपरूवणा सव्या कायव्वा । संपधि उवरिल्लेहि सुत्तावयवेहि अदीदकालखेत्तपरूवणा कीरदे- वेयण-कसाय-वेउबिएहि आहुट्टचोद्दसभागा अट्ठचोदसभागा वा फोसिदा । कुदो ? सग-परपच्चएहि हिडंताणं भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवाणं वेयण-कसाय-वेउबिएहि सह परिणयाणमेत्तियवुत्तखेत्तुवलंभादो । मारणतिएण णवचोद्दसभागा देसूणा फोसिदा। कुदो ? मेरुमूलादो हेतुदो कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, उपरिम देवोंसे ले जाये गये वे देव साढ़े चार । राजु और स्वनिमित्तसे साढ़े तीन राजुप्रमाण गमन करते हैं। इसलिये देवोंका स्पर्शन आठ बटे चौदह भागप्रमाण होता है। समुद्घातकी अपेक्षा उपर्युक्त देवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ३३ ॥ यह सूत्र सुगम है। समुद्घातकी अपेक्षा उपर्युक्त देवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग, अथवा चौदह भागोंमें कुछ कम साढ़े तीन भाग, अथवा आठ व नौ भाग स्पृष्ट हैं ॥ ३४ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं - 'लोकका असंख्यातवां भाग' यह वचन वर्तमानक्षेत्रके प्ररूपणार्थ कहा गया है । इस कारण यहां सब क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये। इस समय सूत्रके उपरिम अवयवोंसे अतीतकालसम्बन्धी क्षेत्रकी प्ररूपणा की जाती है-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा चौदह भागों में साढ़े तीन अथवा आठ भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, स्वनिमित्तसे या परनिमित्तसे विहार करनेवाले भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंका वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात एवं वैक्रियिकसमुद्घात पदोंके साथ परिणत होनेपर इतना ही उक्त क्षेत्र पाया जाता है। मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, मेरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy