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________________ २, ७, १०१.] फोसणाणुगमे मण-वचिजोगीणं फोसणं [४११ तीदवट्टमाणेसु मारणंतिय-उववादेहि सव्वलोगावूरणादो । तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त-अपज्जत्तभंगो ॥ ९८ ॥ सुगममेदं । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ९९ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १० ॥ एसो बमाणणिदेसो । तेणेत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा । अट्ठचोदसभागा वा देसूणा ॥ १०१ ॥ एत्थ ताव वासदत्थो वुच्चदे- सत्थाणेण अप्पिदजीवेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदि क्योंकि, अतीत व वर्तमान कालोंमें मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे उनके द्वारा सर्व लोक पूर्ण किया जाता है । प्रसकायिक, त्रसकायिक पर्याप्त और त्रसकायिक अपर्याप्त जीवोंके स्पर्शनका निरूपण पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है ॥९८॥ यह सूत्र सुगम है। योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ९९ ॥ यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥१०॥ यह कथन वर्तमान कालकी अपेक्षा है । अतएव यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये। अथवा, उक्त जीव स्वस्थान पदोंसे कुछ कम आठ वटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं ॥१०१॥ यहां प्रथम वा शध्दसे सूचित अर्थ कहते हैं- स्वस्थानकी अपेक्षा प्रकृत जीवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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