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________________ ४१०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ७, ९३. सव्वलोगो ॥ ९३ ॥ कुदो ? आणतियादो, सव्वत्थ जल-थलागासेसु अवठ्ठाणं पडि विरोहाभावादो च। बादरवणप्फदिकाइया बादरणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता अपजत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ९४ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ९५ ॥ कुदो ? अट्ठपुढवीओ चेवमस्सिदूण अंबट्ठाणादो। तदो एदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो अदीदवट्टमाणेहि फोसिदो। समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ९६ ॥ सुगमं । सव्वलोगो ॥ ९७ ॥ उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक स्पर्श करते हैं ॥ ९३ ॥ क्योंकि, वे अनन्त हैं; तथा जल, थल व आकाशमें सर्वत्र उनके अवस्थानमें कोई विरोध नहीं है। · बादर वनस्पतिकायिक व बादर निगोदजीव तथा उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ।। ९४ ॥ यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥९५॥ क्योंकि, आठ पृथिवियोंका ही आश्रय कर उनका अवस्थान है । अत एव इन जीवोंके द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीत व वर्तमान कालोंकी अपेक्षा स्पृष्ट है। समुद्घात व उपपाद पदोंसे उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥९६ ॥ यह सूत्र सुगम है। समुद्घात व उपपाद पदोंसे उक्त जीवों द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ ९७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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