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________________ खेत्ताणुगमे गैरइयखेत्तपरूवर्ण [ ३०१ सुत्तं भणदि लोगस्स असंखेजदिभागे ॥२॥ एत्थ लोगो पंचविहो- उड्डलोगो अधोलोगो तिरियलोगो मणुसलोगो सामण्णलोगो चेदि । एदेसिं पंचण्हं पि लोगाणं लोगग्गहणेण गहणं कादब्वं । कुदो ? देसामासियत्तादो । णेरइया सव्यपदेहि चदुण्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागे होति, माणुसलोगादो असंखजगुणे । तं जहा- सत्थाणसत्थाणरासी मूलरासिस्स संखेजा भागा, विहारवदिसत्थाणवेयण-कसाय-उब्वियसमुग्घादरासीओ मूलरासिस्स संखेज्जदि भागो । एदमत्थपदं सव्वत्थ वत्तव्यं । पुणो सत्थाणसत्थाणादिणेरइयरासीओ ठविय अंगुलस्स संखेञ्जदिभागमेत्तओगाहणाहि गुणिय तेरासियकमेण पंचहि लोगेहि ओवट्टिदे चदुण्णं लोगाणमसंले. जदिभागो, माणुसलोगादो असंखेज्जगुणमागच्छदि । णवरि चेयण-कसाय-बेउब्धियसमुग्यादेसु ओगाहणा गवगुणा कायव्या। मारणंतियखेत्ते आणिजमाणे विदियपुढविदव्वादो आणेदव्वं, तत्थ रज्जुमेत्तायामुवलंभादो । पढमपुढविमारणंतियखेत्तं घेत्तण ओवट्टणा किण्ण कीरदे, असंखेज्जगुणदव्यदसणादो, आवलियाए असंखेज्जदिभागउत्तर सूत्र कहते हैं नारकी जीव उक्त तीन पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥२॥ यहां लोक पांच प्रकारका है- ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक, मनुष्यलोक और सामान्यलोक । यहां लोकके ग्रहणसे इन पाचों ही लोकोंका ग्रहण करना चाहिये क्योंकि, यह सूत्र देशामर्शक है । नारकी जीव सर्व पदोंसे चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थानराशि मूलराशिके संख्यात बहुभाग तथा विहारवत्स्वस्थानराशि, वेदनासमुद्घातराशि, कषायसमुद्घातराशि एवं वैक्रियिकसमुद्घातराशि, ये राशियां मूलराशिके संख्यातवें भागप्रमाण होती हैं । यह अर्थपद सर्वत्र कहना चाहिये । पुनः स्वस्थान आदि नारकराशियोंको स्थापित कर अंगुलके संख्यातवें भागमात्र अवगाहनाओसे गुणित कर त्रैराशिकमसे पांच लोकोसे (पृथक् पृथक् ) अपवर्तित करनेपर चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र लब्ध होता है। विशेषता यह है कि वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातमें अवगाहना नौगुणी करना चाहिये । ( जीवस्थानकी क्षेत्रप्ररूपणामें चैक्रियिकसमुद्घातके लिये अवगाहना नौगुणी नहीं किन्तु संख्यातगुणी अलगसे कही गई है। देखो पु. ४, पृ. ६३)। मारणांतिक क्षेत्रके निकालते समय उसे द्वितीय पृथिवीके द्रव्यसे निकालना चाहिये, क्योंकि, वहां राजुमात्र आयामकी उपलब्धि है। शंका-प्रथम पृथिवीके मारणांतिकक्षेत्रको ग्रहण कर अपवर्तना क्यों नहीं की आती, क्योंकि, वहां असंख्यातगुणा द्रव्य देखा जाता है, तथा आवलीके असंख्यातवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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